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द्वितीयखंरु.
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तार्थ संतान के करनेवाले है. इस वास्तेही सूक्ष्म दोष बकुश कुशलमें निश्चय करके होते है. जिस वास्ते तिनके दो गुण स्थानक प्रमत्त श्रप्रमत्त होते है. प्रमत्त गुणस्थानकमें अंतर्मुहूर्त काल तक रहता है. जब प्रमत्त गुणस्थानक में वर्त्तता है तब प्रमादके होनेसें प्रवश्यमेव सूक्ष्म दोष लववाला साधु होता है; परंतु ज्हां तक सातमा प्रायश्चित्त प्रावनेवाले दुषण सेवे तदां तक तिसको चारित्रवानदी कहिये. तिस वास्ते बकुश कुशीलमें निश्चयी दूषण लवांका संभव है. जेकर तिनको साधु न मानीए तबतो अन्य साधुके अभाव जगवंतके कड़े तीर्थकाजी श्राव सिद्ध दोवेगा. इस उपदेशका फल कहते है.
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इय जाविय परमथ्था मद्यथा नियगुरु नमुंचति । स व्वगुण संप नगं अप्पारा मिवि पिता " ॥ १३६ ॥ व्याख्या.. ऐसें पूर्वोक्त प्रकार करके मनमें परमार्थका विचारनेवाला मध्यस्थ अपक्षपाती पुरुष अपने धर्माचार्य गुरुको मूल गुण मुक्ता माणि क्य रत्नाकर गुरुकों न बोगे, न त्यागे. क्या करता हुआ सर्वगुण सामग्री अपर्णेमें न देखता हुआ तथा अन्य दूषण यह है. जो गुरुका त्यागनेवाला है वो निश्चय गुरुकी अवज्ञा करनेवाला है, तब तो महा अनर्थ है सो आगमद्वारा स्मरण कराके कहते है.. एवं श्रमन्तो वृत्तो सुत्तं मिपाव समति । मह मोह बंध गोaिय खितो अप्प तप्पंतो ॥ १३६ ॥ व्याख्या. ऐसे पृर्वोक्त कहे गुरुको दीलता हुआ साधु सूत्र उत्तराध्ययनमें पाप श्र ar कहा है. और गुरुकों निंदने, खिजनेवाला प्रावश्यक, सम वायांगादिक में महा मोहनीय कर्मका बेध करनेवाला कहा है.
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प्रश्न - गुरुकों सामथ्र्कके अभाव हुए जेकर शिष्य अधिक - तर यतनावाला तप श्रुत अध्ययनादि करे सो करणा युक्त है ? वा गुरुके लाघवका देतु होनेसें प्रयुक्त है ?
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