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________________ शए अज्ञानतिमिरनास्कर. और समन्नावसे सर्व जीवांकी रक्षा करणेंमें उद्यतमति साधु यति सो पात्र है, तिसकों दीया कल्याण फल है. अन्यथा अनिरु६ आश्रवहारवाले कुपात्रको दीपा अनर्थजनक संसारके दुःखांका कारक होता है. क्या वस्तु प्रधानदान अर्थात् श्रुतज्ञानदान देशनादिरूप अतिशय करके कुपात्रकों नहि देना शास्त्रके जानकारोने ? रक्त, उष्ट, पूर्वकुग्राहित ये उपदेश देने योग्य नहि है. उपदेश देने योग्य मध्यस्थ पुरूष है. इस वास्ते अपात्रको जोमके पात्रकुं नचित देशना करणी; शुइ देशना कहते है. जेकर अपात्रकुं देशना देवं तब श्रोताकु मिथ्यात्व प्राप्ति होवे. वेष करे, तिस्से नात, पाणी, शय्या, वस्ति आदिकका व्यवच्छेद प्रा. णनाशादिक उपञ्च करे. इतने दूषण देशना करनेवालेकुं होते है. इस वास्ते जो अपात्रको त्याग के पात्रको देशना करे सो गीतार्थ स्तुति करणे योग्य है. प्रश्न-तुमने कहा है. जो सूत्रमें कथन करा है सो प्ररूपण करे. जो पुनः सूत्रमें नहि है और विवादास्पद लोकांमे है, कोई कैसे कहता और कोई किसीतरें कहता है. तिस विषयक जो कोई पूछे तब गीतार्थको कया करणा नचित है. नत्तर-जो वस्तु अनुष्ठान सूत्रमें नहि कथन करा है, करणे योग्य चैत्यवंदन आवश्याकादिवत; और प्राणातिपातकी तरें सूत्रमें निषेधमी नहि करा है, और लोकोमें चिरकालसे रूढिरुप चला आता है सोनी संसार नीरु गीतार्थ स्वमतिकल्पित दूषणे करी दूषित न करे. गीतार्थोके चित्तमें ये बात सदा प्रकाशमान रहती है सोश दिखातें है. संविज्ञ गीतार्य मोक्षानिलाषी तिस तिसकाल संबंधी बहुत भागमोके जानकार और विधिमार्गके रसीये, विधिकों बहुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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