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________________ द्वितीयखंझ. पथ्यकारी इसलोक परलोकमें पाप रहित षमावश्यककी क्रिया जिनपूजादि निरवद्य क्रिया तिसको सम्यग् गुरुके उपदेशसें अंगीकार करता हुआ, सेवता हुआ लजा न करे. कैसी है क्रिया, चिंतामणि रत्नकी तरें पुर्खन पावणी है, तिस क्रियाको देखके जेकर मूर्ख लोक हांसीनी करे तोनी लजा न करे. दत्तवत, इति बारमा नेद. अथ अरक्तहिष्ट नामा तेरमा गुण लिखते है. देवकी स्थितिके निबंधनकारण धन, स्वजन, आहार, घर, केत्र, कलत्र, वस्त्र, शस्त्र,यानपात्रादिक जे है तिनमें रागद्वेष रहितकी तरें वास करे, संसार गत पदार्थो में अत्यंत गृहि न करे, शरीरके निर्वाहकी वस्तुमें अरक्तविष्ट न होवे, ताराचंश्नरेंवत् . इति तेरमा नेद. अथ मध्यस्थ नामा चोदमा नेद लिखते है. नपशम कषायका अनुदय तिस करके सार पधान धर्मस्वरूप जो विचारे सो नपशम सार विचारवाला नाव श्रावक होता है. कैसे ऐसा होवे, विचार करता हुआ राग षसे बाधित न होवे, सो दिखाते है. मैंने यह पद बहुत लोकोंके समक्ष अंगीकार करा है, और बहुत लोकोंने प्रमाण करा है. अब में इस पदको कैसे गडं यह विचार मध्यस्थके मनमें नहि आता है, इस वास्ते रागनी पीडा नहि कर शक्ता है, तथा मेरा यह प्रत्यनीक है, मेरे पक्षको दूषित करनेसें; इस वास्ते इसको बहु जनो समद खिष्ट करूं, सत् , असत् दूषण प्रगट करी आक्रोश देने करके तिरस्कार करूं. मध्यस्थ पुरुष ऐसे शेष करकेनी पीडित नहि होता है किंतु मध्यस्थ सर्वत्र तुल्यचित्तहितकानी अपना और परका नपकार वांटता हुआ असत् आग्रह सर्वथा गीतार्य गुरुके वचनसें त्याग देता है प्रदेशी महाराजवत् . इति चौदमा नेद. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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