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अज्ञानतिमिरनास्कर. जार शीलांग निरतिचार जावजीव विश्राम रहित धारण करणा सर्वशील है. लघुकर्मी और महासत्ववानो जीव विषम आपदामेनी पमा दुआ मन वचन काया करके शील पालता है सीताकी तरें.
तपका विचार. असंख्य नावोमें उपार्जित कर्मरूप कचवरके पुंजको नमावनेमें पवन समान ऐसा तप, शीलयुक्तकोंनी यथाशक्ति करना चाहिये, सो तप दो प्रकारका है, बाह्य ने अभ्यंतर; दोनोंके उ बनेद है. इतने कर्म नरकवाला जीव बहुत हजारो वर्ष तक दुःख नोगनेंसें कय नहि कर शक्ता है. जिसने कर्म चतुर्थनक्त एक नपवास शुन्न जावांसे करनेवाला दय कर शकता है. तीव्र तप चरण करनेसे सिंह समान साधु तीर्थकी नन्नति करके विष्णुकुमारवत् परम पदको प्राप्त हुए है. इस वास्ते तपयुक्त साधुजनोकी नक्ति करे और आपत्नी कर्मक्षय करणे वास्ते तप करे. इति तप.
भावका विचार. शील पालो, दानन्नी देवो, तपत्नी करो परंतु निर्मल नाव विना सर्व करणी निष्फल है, कुके फुलवत. शुन नावकी वृद्धि वास्ते अनित्यादि बारां नावना नव समुश्मे नावा समान मावनी चाहिये. नाक विना जैसे रूप और लक विहीन पंमित, नाव विहुणा धर्म ये तीनो हसनेही योग्य है. जिसने पूर्व नवमें सुकृत्य नहि करा, मरुदेवी स्वामिनीकी तरें शुन लावनाके वशसें जीव निर्वाण पद पामे है. इति ना बना. इति अग्यारमा नेद.
अथ विहीक नामा बारमा गुण लिखते है. हितकारी,
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