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________________ २७६ अज्ञान तिमिरभास्कर. अथ संबद्ध ऐसा पंदरवा भेद लिखते है. विचार निरंतर करता हुआ तन, मन, धन, स्वजन, यौवन, जीवित प्रमुख सर्व वस्तु कणभंगुर है, ऐसा जानता हुआ बाह्य संबंधजी बाह्य वृत्ति प्रतिपालन वर्धनादि करके संयुक्तनी है तोजी तन, धन, स्वजन करि दरि प्रमुख वस्तुओमें प्रतिबंध मूर्छा न करे, नरसुंदर नरेश्वरवत् जाव श्रावक ऐसा विचारता है, बोम करके द्विपद चतुष्पद क्षेत्र, घर, धन धान्य, सर्व एक कर्म दुसरा आत्मा यह श्रात्मा कर्मके वश जैसे अच्छे कर्म करे है तैसे अच्छे के परजवको जाता है. कोइ दिनकी बाज़ी स्वप्नेश्जालवत है. दे चिदानंद ! इनमें से तेरी वस्तु कोइ नहि है. इति पंदरवा भेद. . परार्थ कामोपजोगी ऐसा सोलमा गुण लिखते है. यह संसार अनेक दुःखकां नाजन है. यतः ― " दुःखं स्त्री कुक्षिमध्ये प्रथममिद नवेद् गर्भवासे नराणां बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुः स्त्रीपयःपान मिश्रं । तारये चापि दुःखं भवति दिरदजं वृधनावोप्यसारः संसारे मर्ण मुक्त्वा वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित्. " ॥ १ ॥ अर्थ - प्रथम स्त्रीका उदर में गर्भावासमें दुःखदै, पीछे बा - ल वयमें शरीर मलसें मलिन होता है, और स्त्रीका स्तनपान में जी दुःख है. यौवन वय में विरहका दुःख वृद्ध पप में तो सब असार है. कहो संसारमें अल्प पण सुख है ? अर्थात् नहिं है. तैसें विरक्त मन हुआ था ऐसा विचारे, इन लोगोंसें प्राणी ओकों की तृप्ति नदि होती है ऐसा जानकर अन्य जनोंकी दाक्षिण्य जोगो में प्रवर्त्तते है जाव श्रावक पृथ्वीचंड नरेंश्वत् इति सोलमा भेद. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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