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________________ अज्ञानतिमिरनास्कर. परलोकमें हितकारी हो तिसमेंही सो प्रवत्ते, परंतु पाप हेतु काममें न प्रवृत्त होवे. इस वास्ते सु अक्षर करके दाक्षिण्यको वि. शेषित करा है. इस गुणवाला कैसा होता है, अपणा कार्य गेमके परोपकारमें प्रवर्तते है, इस हेतुसें हैसा पुरुष ग्राह्य वाक्य अर्थात् अनुलंघनीय आदेश होता है. ऐसे पुरुषके मनमें कदाचि. त् धर्म करणेकी इच्छा नहिनी होवे तोनी धर्मी पुरुषके कहनेस धर्म सेवता है, कुल्लक कुमारवत्. इति अष्टमो गुणः. ".. नवमा लज्जालु गुणका स्वरुप लिखते है. लज्जावान् नसको कहते है जो अकार्य अर्थात् बुरा काम न करे, दूरही कुकर्मसे रहे, सो पुरुष धर्मका अधिकारी होता है. जो श्रोमानी अकार्य न करे, तथा चोक्तं, “ अविगिरिवर गुरय पुरंत मुख, नारेण जंति पंचतं । न नगो कुगमि कम्मं स पुरुसा जनका यव्वामेति." नावार्थ-संन्नावना करते है कि सत्पुरुष मेरू समान पर्वतका नार करके मरण पामे परंतु नहि करने योग्य कार्य कदापि नकरे. सदाचार अर्थात शोन्ननिक व्यवहारको लज्जाका हेतु मानके स्नेह बालानियोगादिक करके अंगिकार करी अच्छी प्रतिज्ञा. को लगता है. क्योंकि प्रतिज्ञाका सेवना लज्जाका हेतु है, ऐसा तो नले कुलका नत्पन्न हुआ पुरुष जानता है, विजयकुमारवत् इति नवमो गुणः. दयालु नामा दशमें गुणका वर्णन लिखते है. धर्मका मूल कारण दया अर्थात् प्राणिरता है. यउक्तं श्री आचारांग सूत्रे, " सेवेमि जे अश्या, जे पडुपन्ना, जेय आगमिस्ता, अरहंता नगवंतो ते सव्वे एवमा ख्वंति, एवं नासंति. एवं पनवंति, एवं परूवंति, सव्वे पाणा, ससे नूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, न हंतव्वा, न अन्जा वेयव्वा, नररितावेयव्वा, न नवेयव्वा, एस धम्मे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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