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________________ द्वितीयखम. ३२ प्राणी परम आनंद रसमें मन दुवा थका सांसारिक अल्प अरु अस्थिर सुखकुं कबीनी नहि चाहता है. क्युं के वोतो. कृतकृत्य दोनेसें अतींदिय सुखमें मन है, सो अपना परम आनंदमय आत्मसुखकुं बोडके विषयजन्य सांसारिक सुखमें क्यूं लिपटा यगा ? जेसें चकुमान पुरुष अंधकूपमें कबीजी पतन करना नदी बता है, वैसे आत्मज्ञानीजी संसाररूप कूपमें पतन करना कबीजी नही बता है. reat बात है के जिसकुं तात्पर्यज्ञान हो गया दोवे वो बाह्य वस्तुके संसर्ग करनेकी इबावाला कबीजी नही हो शका है, जिस प्राणी अमृतका स्वाद मालूम दुवा होवे वो प्राणी कार नदककी इच्छावाला केसे हो शके ? इत्यादि लक्षणोसें परमात्माकी प्रतीति की जाती है; जिस प्राणीकुं प्रात्मबोध नही दुवा है सो प्राणी यद्यपि मनुष्य देहवाला है तोनी तिसकुं शास्त्रकार ज्ञानी पुरुषो तो शृंग पुसे रहित पशुदीज कदेते है, क्युंके तिसकी प्रादार, निश, जय, अरु मैथुन यादि क्रिया पशुतुल्यही होती है, जिस प्राणी कुं तत्ववृत्तिसें आत्मबोध हो जाता है, तिस्सें सिद्धि गति श्रर्थात् मोहकी प्राप्ति दूर नही है. जब तलक आत्मबोध नही होता है तब तलकदी सांसारिक विषय सुखमें लीन रदेता है, जब सकल सुखका निधानरूप श्रात्मबोध दो जावे तब प्राणी - सच्चिदानंद पूर्ण ब्रह्मस्व रूप- अनंतज्ञान - अनंत - दर्शन - प्र. नंत सुख अरु अनंत शक्तिमान हो जाता है, थरु मोक्ष मेइसमें प्रतीयि सुखका आस्वादन करता है. इति किंचित् बहिरात्मा, अंतरात्मा परमात्मा स्वरूपम्. 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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