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________________ २५२ अज्ञानतिमिरनास्कर यद्यपि गुण बहुत प्रकारके औदार्य, धैर्य, गांनीर्य प्रियंवद. त्वादिक है तोनी इहां पांच गुणो करके गुणवान् नावश्रावकके विचारमें गीतार्थ मुनिवरोनें कहा है, वे गुण ऐसे है, __ स्वाध्याय करणेमे नित्य नद्यमी, अनुष्टानमेंनी नद्यमी, गुरु आदिककी विनयमें नित्य प्रयत्नवान् होवे, सर्व प्रयोजन-इह लोक, परलोकिकमें कदाग्रही न होवे, नगवानके कहे आगममें प्रथम स्वाध्याय गुणका स्वरूप लिखते है. पठना १, पृचना २, परावर्तना ३, अनुप्रेक्षा, ४ धर्मकथा ५, ए पांचो वैराग्य निबंधन-वैराग्यका कारण विधि पूर्वक शेनश्रेष्टिवत् करे. तिनमें पठन विधि-" पर्यस्तिकामवष्टंन्नं तथा पादप्रसारणं । वर्जयेञ्चापि विकथामधीयन् गुरुसन्निधौ ॥१॥ पर्यस्तिका करके, अवष्टंन लेके, पग पसारके गुरुके पास न बेठे तथा विकथा न करे. पुग्नेकी विधि-आसन उपर या शैया नपर वैग दुआ न पूछे, किंतु गुरुके समीप आ करके पगनर बैठी हाथ जोडी पूजे. परावर्त्तनाकी विधि-विदि पमिकमी सामायिक करी मुख ढांकी, दोष रहित सूत्र पदच्छेद गुणे पढे. अनुप्रेका गीतार्य गुरुसें जो अर्थ सुना है, तिसका एकाग्र मनसे विचार करे. गुरुसे यथार्थ धारी होवे और स्वपरके नपकारकारक होवे ऐसी धर्म कया करे शेनश्रेष्टिवत् इति स्वाध्याय गुणका स्वरूप. करणनामा उसरा नेदका स्वरूप-तप नियम वंदनादिकके करणेंमें, कराववणेंमें, अनुमोदनेमें नित्य प्रयत्नवान् होवे. आदि शब्दसें चैत्यवं. दन जिनपूजादि करणेमें तत्पर होवे, इति करण नामा उसरा नेद. गुणवान् गुरुकी विनय करे. गुरुको देखके आसनसे उठे, गुरुको आवता जागी सन्मुख जावे, गुरुको आगे मस्तकमें अंजलि धरे. आप आसन निमंत्रे, गुरु बैठे तब बैठे. वंदन करे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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