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________________ ॥ श्री ॥ ॥ श्रीवीतरागाय नमः॥ अज्ञानतिमिरभास्कर. 0000000000000 स्त्रग्धराटत्तम् । अस्तो विश्ववंद्या विबुधपरिवृद्धैः सेव्यमानांहिपद्माः सिज्ञ लोकांतनागे परमसुखघनाः सिदिसौधे निषण्णाः। पंचाचारप्रगन्नाः सुगुणगणधराः शास्त्रदा: पाठकाश्च समध्यानलीना: प्रवरमुनिवरा: शश्वदेते श्रिये स्युः ॥१॥ __ अनुष्टुप्त्त म् । तत्वज्ञाने मनुष्याणामवगाहनलिध्ये । नाषायां क्रियते ग्रंथो बोधपादपबीजकः ॥२॥ अज्ञानतिमिरौघेन व्याप्तं हि निखिलं जगत् । तन्निरासाय ग्रंथोयं हितीयो नास्करो भुवि ॥ ३ ॥ विदित होके इस समयमें इस आर्य खममे बहुतसे मत मतांतर प्रचलित हो रहेहै. एक जैनमतके शिवाय जितने हिंज्यो के मतवाले है वे सर्व वेदको मानते है क्योंकि ब्राह्मण लोगोंके बनाये वामेसें कोईनी बाहिर नही निकल सकता है, यद्यपि गौतम, कपिल, पतंजलि, कणाद, कबीर, नानकसाहिब, दाउजी, गरीबदास प्रमुख मताध्यहोने वेदोंसे अलग अपने मतके पुस्तक संस्कृत प्राकृत नाषामें बनाये है तोन्नी तिनकी संप्रदायवाले दस वीसादि वर्षतक अपने मतके पुस्तको वांचकर इधर उधर फिर फिराके अंतमें फिर वेदोंहिका शरण लेलेते है. जैसे नानकसाहिबके पंश्रके नदासी साधु इसकालमें वैदांतिक हो गये है तथा गुरुगोविंद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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