SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ प्रज्ञानतिमिरनास्कर, प्रसुख निर्दय है सो मांस खानेसे है, और जो मांसाहारी नहि है वे सर्व प्राये दयावान है और नरम हृदय वाले है, यह वात हम प्रत्यक्ष देखते है. जगतमें सर्वसें गरीब जानवर नेम अर्थात् गाडर घेटा देखने में आता है. ऐसेका जो मांस नहण करे तो खुंखार अर्थात कठीन हिंसक स्वन्नाववाला बन जाता है, और जो आगे विना गुनाह हजारो लाखो वालबच्चे स्त्री पुरुषांको कतल कर गये है, वे सर्व मांसके खानेकी निर्दयतासें ऐसे काम करते थे, जेकर कोई मांसाहारी मनुष्यमात्रको दयावालेनी है तोन्नी कपण, अनाथ, दीन पशु पदीयोकी दया तो नही है. बिचारे क्या करे ननके मत चलाने वालोनेही मांस खाया और खानेकी आझा करी है. वेद बनानेवाले और कितनेक स्मृति बनानेवाले मांसाहारी थे और मांस खानेकी आज्ञा दे गये है. इसका तमाम वृत्तांत प्रथम खंडमें लिख आये है. मनु याज्ञवल्क्यादि स्मृतिकारक तो बेधड़क लिख गये है. न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। प्रत्तिरेषा भूतानां निटत्तिस्तु महाफला ॥१॥ मांस नकणमें दोर नहि है और मद्य तथा मैथुनमें बी दोष नदि है. वे तो प्राणीप्रौनी प्रवृत्ति है सो महाफलवाली है. ___ यद्यपि नारत, नागवतादि ग्रंयोमें मांस नक्षण निषेध करा है, तोनी वेद स्मृतिका कहना पुराना है, और नारत, नागवत या धर्मकी प्रबलतामें बने हुए है. इस वास्ते इनमें मांसका निषेध है और वैष्णवादि मतवाले जो मांस नहि खाते है वेन्नी दया धर्मकाही प्रन्नाव है बाकी शेष मतोवालोके देशमें दया धर्म नदि प्रवृत्त दुआ है. इस वास्ते सर्व मांसाहारी है. जो जो मांसाहारी है वे प्राये कठीण हृदयवाले है. इस वास्ते मांसका खाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy