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________________ ខូច अज्ञानतिमिरनास्कर. सरीखे तिनकाजी नाश कर देवेतो क्या आश्चर्य है ! इस वास्ते देव सिह नगवान कदापि उपदेष्टा लिइ नही हो सकता है. इस वास्ते दयानंदने जो कल्पना करी है कि ईश्वरने प्रेरणा कराके चार वेद नत्पन्न करे सो मिथ्या है, तया तिन रूषियोंके कदनेसे लोक क्योंकर सत्य माने? और जानोंके रुपीओकों ईश्वर प्रेरता है ? जेकर कहोंगे के ईश्वर ननको कह देता था कि मैने इन रुषीओंसे वेद कथन करवाये है इस वास्ते तुम सत्य मानो तो इश्वर हमको क्यों नही कहता है. क्या वे ईश्वरके सगे संबंधी थे और हम नदि है. प्रश्रम तो ईश्वरको मुख, नाक, कान इत्यादि नहि है तो चनकों कहना क्योंकर बन शक्ता है ? इस वास्ते ईश्वरने कोईनी प्रेरणा नही करी है. सत्यतो यह है कि याज्ञवल्क्य, सुलसा पिप्पलाद और पर्वत प्रमुखोने हिंसक वेद रचे है. इनको अपनी कल्पनासें अब चाहो किहीके रचे कहो. इस वास्ते देहधारी सर्वझही सत् शास्त्रोंका नपदेष्टा मानना सत्य है, और तिसकी प्रतिमानी पूजनी सत्य है इस वास्ते दयानंद जो प्रतिमा पूजनकी निंदा करता है सो महापाप नपार्जन करता है. दयानंद जो अंग्रेजी नूगोल, खगोलको सत्य मानके दुसरा हीप समुश्का होना और सूर्य, चंका चलना नही मानता है ओर लूगोल खगोलकी बाबतो जैनशास्त्रका कदना जत्थापन करता है वो समीचीन है ? कबीनी नहि क्योंकि दूसरे सर्व शास्त्रो द्वीप समुशंका होना और सूर्य, चंका फिरना बताया है तो फिर जैन ओर सर्व मतके शास्त्रोकें अंग्रेजी नूगोलके साथ नहि मिलनेसे जूग ठहराना वो बना अप्रमाणिक है. क्योंकि नूगोलविद्या अस्थिर है. आज इस तरेकी है तो फिर काल अपर हीपादि वस्तु देखने में आया सो अन्य तरेकी होवेगी, प्रां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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