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अज्ञानतिमिरनास्कर. है. वेद मंत्रका विनियोग यज्ञार्थ होता है. और प्राचिन कालमें ब्राह्मण और क्षत्रियोंने अनेक तरेके यज्ञ करेथे तब देव तुष्टमान होकर मनमाना वर देते थे. वेदमें देवताकी यह कथन गीतामें लिखा हैः॥“सह यज्ञाः प्रजाः साष्ट सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः अनेन प्रसविष्यध्वमेपवोस्लिष्टकामधुक् ॥ देवान्नावयतानेन ते देवा नावयंतु वः। परस्परं जावयंतः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥ यज्ञानवति पर्जन्यो यशः कर्मसमुनवः कर्म ब्रह्मोनवं विहि ब्रह्माकरसमुन्नवं ॥ यज्ञाशिष्टाशिनः संतो मुच्यते सर्वकिल्विषैः” ॥
अर्थ-पूर्वे ब्रह्मानें यज्ञका अधिकारी ब्राह्मणादि प्रजाकुं यज्ञ करनेकी क्रिया बताई और कहाकी, यज्ञक्रिया तुम करो जो तुम वांगेगे सो तुमको मीलेगा, आ यशोवमे तुम देवोकी वृद्धि करो. यो यज्ञ करनेसे ओ देवताओ तुमारी वृद्धि करे. श्रो रीतिसे परस्पर वृद्धि करनेवाला तुमे ओर देवता नन्नय इष्ट वस्तु संपादन करों गा. यज्ञ करनेसे वर्षा होवे, कर्मोसे यज्ञ होवे वेदोसे कर्म होवे ओर वेद अदर ब्रह्म परमात्मासे नुत्पन्न नया है.
इसतरें मनुष्यकों नपदेश कहा. इस कालमें अनेक स्वबंदाचारी स्वकपोलकल्पित पंथ चलाने वाले स्वकपोलकल्पित अर्थ बनाके वैदिकी हिंसा विपाने वास्ते मनमानी कल्पना करकेमू - र्ख जनोंकों ब्रम अंधकूपमें गेरते है, ननका जो यह कहते है कि वेदोंमें हिंसाका नपदेश नहीं, सो जूठ है. वेदमें हिंसाका क्योंकी नागवतमें लीखा है कि प्राचिनवर्दि राजाने उपदश है. बहुत यज्ञ करके बहुत जिवांकी हिंसा करी. पिब्ली वेर नारदजीने नपदेश देके हिंसकयज्ञ गेमवाया प्राचीन जरत राजाने ५५ पंचावन अश्वमेध यज्ञ करे. रामचंद पांमवाने अश्वमेध
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