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________________ शर द्वितीयखम. आगमके होते दुआ आचरणा प्रमाण करीए तो आगमकी लघुता प्रगट होवे है. उत्तर-पूर्वपदीने जो कहा सोसत्य नहि है."अस्यसूत्रस्य"इस सूत्रका और शास्त्रांतरोंका विषय विनागगे न जाननेंसें, सोर दिखाते है. इस सूत्रमें संविज्ञ गीतार्थ जे है वे आगम निरपेक्ष नहि आचरण करते है. तो क्या करते है ? जिस आचरणासें दोषतो रुक जाते है और पूर्वकृत कर्म कय हो जाते है सो सो मुख्योपाय रोगीकी रोगावस्थामें जैसे रोग शांती होवे तैसें करते है “ दोषा जेण निरुइझंति जेण खियंते पुवकम्माई । सो सो मुस्को वान रोगावण्या सुसमणंच "॥१॥ इत्यादि आगम वचनका अनुस्मरण करते हुए व्य, केत्र, काल, नाव पुरुषादि विचारके यथा नचित संयमकी वृद्धि करनेवालाही आचरणा करते है, सो अन्य संविज्ञ गीतार्थ प्रमाण कर लेते है, सोश मोह मार्ग कहा जाता है. पूर्वपकीके कथन करे शास्त्रांतर जे है वे असंविज्ञ अगीतार्थोन जो असमंजसपणे आचरणा करी है तिसके निषेध वास्ते है इस वास्ते आचरणांका शास्त्रांतरोंके साथ कैसे विरोध संनव होवे. तथा आगमकोंनी अप्रमाणता नहि है किंतु सुष्टुतर प्र. तिष्ठा है जिस वास्ते आगमनी आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत नेदसे पांच प्रकारका व्यवहार प्ररूपण करता है. ययुक्तं श्री स्थानांगे " पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, तं जहा, भागमववहारे, सूयववहारे, आणाववहारे, धारणाववहारे, जीयववहारे, ” जीत और पाचरणा दोनों एकही नामके अर्थ होनेसें. जब आगम पाचरणाकों प्रमाण करता है तब तो आगमकी अतिशय करके प्र 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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