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" जंजीयमसोदीकरं पसथ्यपभत्तसंजयाइहिं । बहुए दिवि आयरियं न पमाणं सुदचरणाशं ॥ १ ॥ " जो जीतव्यवहार शुद्धिका करनेवाला नदि, क्योंकि पार्श्वस्थोंनें प्रमत्त संयती बदुते श्रालसीओ ने आचरण करा है, प्रवर्त्ताया है सो जीत अर्थात् श्राचरणा, शुद्ध चारित्र पालनेवाले मुनियोंकों प्रमाण नहि. बहु जनोंके ग्रहण करनेसें कदाचित् किसी एक संविज्ञनें अजाणपणे दिसें वितथ आचरणा करी होवे सोजी प्रमाण नदि इस वास्ते संविज्ञ बहुजनोंने श्राचरण करा होवे सो मोक मार्ग है. इस वास्ते ननयानुसारणी श्रागम बाधा रहित संविज्ञ व्यवहाररूप सो मार्गानुसारिणी क्रिया है.
अज्ञानतिमिरजास्कर.
प्रश्न- श्रागम में कथन करा है सोइ मोक्षमार्ग कहना युक्त है, परंतु बहुजनाची कों मार्ग कहना प्रयुक्त है, शास्त्रांतर के विरोध दोनेसें; और आगमको प्रमाणकी आपत्ति होनेसें; सोइ दिखाते है. जेकर बहुत जनों का आचरण करा मार्ग सत्य मानोगे तबतो लौकिक धर्म मानना चाहिए, तिसको बहुत लोक मानते है. इस वास्ते जो श्रागम अनुगत है सोइ बुद्धिमानोंकों मानना - करणां चाहिये. बहुतोने मानातो क्या है, क्योंकि बसुते माननेवाले श्रेवार्थी नदि होते है. तथा ज्येष्ट बमे नचितके विद्यमान हुआ कनिष्टको पूजना प्रयुक्त है. इसी तरें भगवंतके वचन श्रागमके विद्यमान हुआ चाहो बहुतोनें श्राचरण करा है, तोजी तिसको मानना प्रयुक्त है. और आगमको तो केवली. श्री श्रप्रमाण नहि करं शक्ता है, क्योंकि.. समुच्चय उपयोग संयुक्त श्रुतज्ञानी यद्यपि अशुद्ध सदोष आदार ग्रदन करे तिस श्रादरको केवलजी खा लेता है, जेकर केवली तिस आहारको न नोगे तब तो श्रुतज्ञान प्रमाणिक हो जावे. एक अन्य दूषण यह है कि
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