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________________ हितीयच. है. व्य मार्ग प्रामादिकका है. और नाव मार्ग मुक्ति पुरका सन्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप है अथवा कयोपशम नावरूप नाव मार्ग है. तिस करके इहां अधिकार है. सो फेर मार्ग कारणमें कार्यका उपचार करणेमें आगम नीति अर्थात् सिहांतमें कथन करा आचार है. अथवा संविज्ञ, पापसे मरनेवाले बहुत सत् साधुओने जो आचीर्ण करा है सो वीतरागके वचन रूप है नक्तंच “आगमो हि आप्तवचनं, आप्तं दोषकयाछिदुः, वीतरागोड नृतं वाक्यं न ब्रूयाइत्वसंजवात् ." ॥ १ ॥ इसका नावार्थ आगम सिहांत प्राप्तके वचनांको कहते है; और आप्त अगरह. दूषणोके नाश होने से होता है. आप्त कहो चाहै वीतराग कहो.. और वीतराग अनृत वाक्य असत्य वचन नहि बोलता है, देतुके असंनव होनेसें. तिस आगमकी नीति नत्सर्ग, अपवादरूप शुः संयमोपाय, सो मार्ग है. नक्तंच __“ यस्मात् प्रवर्तकं शुवि निवर्तकं चांतरात्मनो वचनं । धर्म श्वैतत्संस्थो मौनीई चैतदिह परमं ॥ १ ॥ अस्मिन् हृदयस्थे. सति हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनी इति । हृदये स्थिते च तस्मिन् नियमात् सर्वार्थसंलिक्षिः ॥ ॥” नावार्थ-जिस हेतुले जगतमें प्रवर्तक और निवर्तक वचन अंतरात्माके है और यही धर्म है जब ऐसा धर्म संस्थित है सो जैनमतमें परम मुनीं तीर्थंकर नगवान है. ऐसे धर्मके हृदयमें स्थित हुआ निश्चयही सर्वार्थकी सिदि है. तथा संविज्ञ मोदानिलाषी बहुत पुरुष अर्थात् गीतार्थ मुनिजन तिनके विना अन्य जनोंके वैराग्य नहि हो शक्ता है. तिनोंने जो आचीर्ण करा है, क्रियारूप अनुष्ठान यहां संविज्ञ ग्रहणेसे असं विज्ञ बहुत जनेनी को आचीर्ण करे तोजी प्रमाण नहि ऐसा दिखलाया है. यद् व्यवहारनाष्यं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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