________________
हितीयखम..
१७५ संस्कृतके कायदासे रहित है इस वास्ते जंगली ब्राह्मण अर्थात् ऋषियोकी बनाइ दुइ है. इसी वास्ते बझे विचरण मोक्षमूलर साहेब लिखते है कि वेद अज्ञानियोके बनाये हुए है. और वे. दामें संकेतनी ऐसे गुप्त करे है, कि दुसरे मतवाले उन शब्दोंके अर्थ न समजे जैसे वाजपेय, सौत्रामणि, गोसव, मधुपर्क - त्यादि. जो कलंक दयानंद जैनशास्त्रांको देता है सो सर्व वेदो नपर पमता है. और जैनसूत्र निःकलंक है क्योंकि प्राकृत व्याकरण विद्यमान है. प्राकृत नाषा सर्व पंमिताको सम्मत श्री. नहि तो पाणिनि, वररुचि, चंड, नंद, हेमचंद प्रमुख काहको प्राकृत व्या: करण बनाते तथा वेद वेदांग शिक्षामें ऐसा क्यों लिखते.
त्रिषष्टिश्चतुः षष्ठिर्वा वर्णाः शंभुपतेः मताः पाकृते संस्कृते चापि, स्वयंप्रोक्ताः स्वयंभुवा ॥१॥
अर्थ-वर्ण विषष्टि ६३ और चतुःषष्टि ६५ है, ऐसा शंनुपतिका मत है. स्वयंनूने प्राकृत और संस्कृत मे ते वर्ण मान लीया है ॥ १ ॥
परंतु दयानंद अपनीही गोदडी में सोना जानता है. दयानंद अन्य मतोका कुच्छन्नी जानाकर नहि, नहि तो अपने बनाये सस्यार्थप्रकाशमें जैनमतकी बाबत स्वकपोलकल्पित काहेको नतपटंग लिखता. यह दयानंद वेदोका विहुदातन छिपाने वास्ते स्वकपोलकल्पित वेदोके अर्थ नविन बनाके लोगोंसें लगता फिरता है, परंतु यह काठको हामी कव तक चठगी ? इस वास्ते जैनशास्त्र, संस्कृत, प्राकृत दोनोही व्याकरणसे सिह होनेसे प्रमाणिक है.
कोई कहता है कि कुच्छक बोह मतकी बांता और कुच्छक वैदिक मतकी बांता लेकर जैनमत बनाया है. यहनी लिखना
.29
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org