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________________ द्वितीयds. ३०१ किंतु देव दुर्गलि और दीर्घ जवमणरूप कष्ठकी करता आर्यमंगुवत्. क्योंकि शास्त्रमें कहा है. शीतल विहारसें दीर्घकालकृत संसार में बहुत क्लेश पाता है. तीर्थकर १ प्रवचन २ श्रुत ३ प्राचार्य ४ गणवर ५ महर्दिक ६ इनकी बहुत बार प्रशासना करते तो अतंत संसारी होवे. इस वास्ते साधुने सदा श्रप्रमादी 'होना चाहिए. प्रमादकांही युक्त्यैतरसें निषेध करते है. प्रतिलेखना चलनादि चेष्टा क्रिया व्यापार षट्कायके घातक देतु प्रसादी साधुकी सर्व क्रिया सिद्धांत में कही है. इस वास्ते साधु सर्व क्रियायोंमें श्रप्रमच दोके प्रवर्ते. अप्रमादि साधुका स्वरूप. अप्रमादी साधु जैसा होवे सो लिखते है, जो व्रतोंमे प्रतिचार न लगावे, प्राणातिपात व्रतमें त्रस स्थावर जीवांको संघट्टण, परितापन, उपव न करे. मृषावाद, व्रतमें सूक्ष्म मृषावाद प्रजापसेंसें, और बादर जायके न बोले. श्रदत्तादान व्रतमें सूक्ष्म प्रदत्तादान स्थानादिककी आज्ञा विना लेके न रहे, और बादर स्वामि १ जीव २ तीर्थकर ३ गुरु 8 इनकी प्राज्ञाविना जोजनादिक न करे, चौथे व्रतमें नव गुप्ति सहित ब्रह्मचर्य पाले पांच में व्रतमें सूक्ष्म बालादिकि ममत्व न करे बादर अनेषणीय दारादि न ग्रहण करे. मूसें अधिक उपकरण न राखे रात्रि जोजन विरतिमें सूक्ष्म लेप मात्र वासी न राखे और बादर दीनमें लेकर रातों खावे १ रात्रिमें लेकर दिनमें खावे २ दीनमें लेकर अगले दिनमें खावे ३ रात्रिमें लेकर रात्रिमे खावे 8 इन चारों प्रकार जोजन न करे. एसें सर्व व्रतांके अतिचार ठाले और पांच समति तिन गुप्तिमें उपयोगवान् दोवे. अधिक क्या लिखे. स्थिर चित्त होकर पाप देतु प्रमावकी सर्व क्रिया वर्जे और Jain Education International A For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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