________________
३० अज्ञानतिमिरनास्कर. जानकर धर्ममें चित्त दृढ लगाना. सो चारित्त षट्कायाका संयमही है. पृथ्वी, जल, ज्वलन, पवन, वनस्पति, वसकायकी रक्षाकरणी सोइ चारित्र है. इन ग्रहों कायोमसे एक जीवनिकायकी विराधना करता हुआ जगदीश्वरकी आज्ञा पालनेवाला साधु संसारका वर्धक है. तथा चाहुः
“ प्रतिसकलव्यामोहतमिश्राः श्रीधर्मदासगणिमिश्राः को राजाका मंत्री सर्ववस्तु राजाकी, स्वाधीननी कर लेता है तो राजाकी पाझा खंमन करे तोनी वध बंधन, व्यहरणादि दम पाता है. तैसें उकाय महाव्रत सर्व निवृति ग्रहण करके जेकर एक कायादिककी विराधना करते तो संसार समुश्में ब्रमण करे तथा षट्काय और महाव्रतका पालना यह यतिका धर्म है. जेकर तिनकी रक्षा न करे तब कहो शिष्य ! तिस धर्मका क्या नाम है ? षट्कायकी दया विवर्जित पुरुष नतो दीक्षित साधु है साधुधर्मसे ऋष्ठ होनेसें, और नतो गृहस्थ है, दानादि धर्मसे रहित होनेसे. यहां मागधी गाया नहि लिखी किंतु तिनका अर्थ लिखता है.
सो पूर्वोक्त पुरुष संयम पालनेको समर्थ नहि है. विकथा करणेसें. विरुइ कथा, राज कयादि जैसे उपर रोहीके दृष्टांतमें स्वरूप लिखा है तैसें जानना. विषय का विकादि प्रमाद युक्त, संयम पालने समर्थ नहि है. इस वास्ते साधुको प्रमाद नहि करणा चाहिए, प्रमादही विशेष करके कष्टका हैतु है. सोइ कहते है. प्रवर्ध्या जिनमतकी दीक्षा तिलको विद्या जिसकी देवी अधिष्ठाता होवे तिस विद्यांको साधता दुआ जो प्रमादवान होवे तिसकों विद्या सिइ नहि होती है. किंतु नपश्च करती है, तैसेंही • पारमेश्वरी विद्या दीकाकी तरे महा अनर्थ करती है; अर्थात् शीतल विहारी, पार्श्वस्थादिकको जिन दीक्षा सुगतिके तां नहि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org