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________________ द्वितीयखम २१६ मनीषि वृद्धानुग मध्यम बुद्धिवत् किस देतुसें, वृोकी सत् संगतिसें जले गुण उत्पन्न हो जाते है. प्रोक्तमागमे " उत्तम गुण संसर्गी शील दरिदं पिकुण इसी लई ॥ जदमेरुरिविलगं तप करागत्तण मुवे इति ॥ अर्थ - उत्तमकी संगति शील रहितकोजी शीलमान कर देती है. जैसे मेरु पर्व - तमें लगा हुआ तृणजी सुवर्णताको प्राप्त होता है. इति सप्तदशमो गुणः अारमा विनय गुणका स्वरूप लिखते है. विनीयते - अपनीयते, अर्थात् दूर करीए जिस करके अष्ट प्रकारके कर्म सो विनयः यह सिद्धांतकी निरुक्ति है. सो विनय पांच प्रकारका है; ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय, उपचारिक विनय. ए पांच प्रकारे मोक्षार्थ विनय है. इन विनय, ज्ञान करके यथार्थ वस्तु षट् व्यांको जाऐ कार्य करता हुआ ज्ञान पूर्वक करे सो ज्ञान विनय १ व्यादिकों सम्यक् श्रद्धे सो दर्शन विनयर चारित्र सम्यक् प्रकारसें पाले सो चारित्र विनय ३ तप बारा प्रकारका सम्यग् रीतिसें सेवन करे सो तप विनय, नृपचारिक विनयकें दो भेद है. प्रतिरूप योग युंजनता अर्थात् यथायोग्य नक्ति करली १ अनाशातनाविनय २ तिनसें प्रथम प्रतिरूप योग युंजनता विनय के तीन भेद है. मन विनय १ वचन विनय २ काया विनय ३ तिनमें मन विनयके दो नेद है. अकुशल मनाका निरोध करणा १ कुशल मनको प्रगट करना २. वचन विनयके चार भेद है. दितकारी वचन बोना १ मर्यादा सहित श्रोमा बोलना २ कठोर वचन न बोलना ३. प्रथम विचारके बोलना ४. काया विनयके आठ नेट है. गुरु arrest ता देखके खफा होना १ गुरु आदिकको दाय 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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