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अज्ञानतिमिरनास्कर. यौवने तु क्वचित् कुर्यात् दृष्टतत्वोपि विक्रियां ॥५॥ वाईकेन पुनईत शैथिल्यं हि यथा यथा ॥ तथा तथा मनुष्याणां विषयाशा निवर्तते ॥६॥ हेयोपादेयविकलो दोपि तरुणाग्रणीः।। तरुणोपि युतस्तेन टर्टड इतीरितः॥७॥
नावार्थः-तप, श्रुत, धृति, ध्यान, विवेक, यम, संयम, तप करे नेदे, श्रुत अंगोपांगादि, धैर्य, धर्मध्यान, शुक्लध्यान, विवेक, सत्तर नेदे संयम, इनो करके जो वृह-धरमा होवे सो जिनेशासममें वृक्ष कहा है, परंतु पलित धवले केशांवालेको वृक्ष नहि कहा है. तत्वरूप कसोटीके रगमनेसें जो विवेकरूपी प्रकाश व. ध्या है ऐसा बोधमय जिनको तत्वज्ञान है सो वृक्ष पंमितोको मान्य है. अंतरंगमें राग नत्पन्न करनेवाले ऐसे शब्दादिक विषय संबंधवालेन्नी दुए है. तोनो जिनकी धैर्यता चलायमान नहि दुई वे पुरुष वृक्ष कहे है. जिनोनें स्वप्नमेंनी व्रत खंम्न नहि करा है, सो धन्य है, शीलशाली सत् परुषोने तिनको यौवनमेंनी वृक्ष कहा है, क्योंकि बाहुल्यता करके शरीर शिथिल होनेसें जीवांकी मति स्वस्थ हो जाति है और यौवनमें तो तत्वका जानकरजी विकारवान हो जाता है. वृक्षणेमें जैसे जैसे शरीर शिथिलता धारण करता है तैसे तैसें पुरुषोकी विषयसे इच्छानी हट जाति है. जो हेय उपादेय ज्ञानसे विकल बुढानी है, तोनी तरुणाग्रणी है. और हेयोपादेय ज्ञान करी संयुक्त है तो तरुण अवस्थामेंनी वृशेने उसको वृक्ष कहा है. ऐसा जो वृक्ष होवे सो अशुलाचार, पापकर्ममें नदि प्रवर्तते है यथार्थ तत्वके अवबोध होनेसें जिस हेतुसे वृक्ष अहित काममें नदि प्रवर्तता है इस हेतुसे वृक्षांके पीछे उसना चाहिये; बुझानुगामी वृशेकी तरे पापमें नहि प्रवर्तते है.
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