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________________ श्पण हितीयखमः समर्थ नागीदार ले जायगा ? चोर लुटेगा, पृथ्वीमें डाटनेसे नाश होवे तो क्या होवे ? एसा धनवान् रातदिन दुःखी रहेता है. तथा क्लेश और शरीर परिश्रम तिनका कारण है, तथादि " अर्थ नक्रचक्राकुलजलनिलयं केचिउच्चस्तरंति, प्रोद्ययस्त्रानिघातोत्सितशिखिकणकं जन्यमन्ये विशंति । शीतोष्णांना शरीरग्लपिततनुलताः केत्रिकां कुर्वतेऽन्ये, शिल्पं चानल्पन्नेदं विदधति च परे नाटकाद्यं च केचित् ॥ १ ॥ अर्थ-धनके वास्ते कोई कोइ लोक मगरझूमवाला समुकू तरत है, को शस्त्रके घातलें अग्निकण प्रगट होवे ऐसे संग्राममें घूमते है. शीत, ताप और जलसे शरीरकुं ग्लानि करके खेती करते है. कोई अकेक प्रकारकी कारिगरि करते है और को नाटकादि करते है. तया धन असार हे, धनसे संपादन करनेसं, यदाह-- व्याधीनो निरुणदि मृत्युजननज्यानियेन दम, नेष्टानि प्टवियोगयोगहृतिकृतधृड् नच प्रेत्य च । चिंताबंधविरोधबंधनवधनासास्पदं प्रायशो, वित्तं वित्तविचक्षणः क्षणमपि केमावही नेहते ॥ १ ॥ इस वास्ते बुद्धिमान् धनमें लुब्ध न होवे चारुदत्तवत् . नाव श्रावक अन्यायसें धन उपार्जनेमें थोमानी न प्रवर्ने और न्यायसें उपार्जनमें अत्यंत तृष्णावाननी न होवे. तबतो क्या करे. जितना नफा होवे तिनमेंसें अर्ध धन धममें खरच करे, बाकी शेष रहे तिसलें शेष काम यत्नसे करे. इस लोक संबंधी यथायोग्य विचारी सो पूर्वोक्त अर्ध धन सात केत्रोंमें खर्च करे. इति तिसरा नेद. अथ संसारनामा चौथा नेद लिखते है. इस संसारमें रति न करे-क्या करके संसारका स्वरूप जाणिने कैसा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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