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________________ २४ अज्ञानतिमिरनास्कर. पहिला कर्णाटप्रांतमें विजयनगरमें बुक्क राजाका आश्रित था इसको माधवत्नी कहते है. और सन्यासी दुवा पीछे विद्यारण्य स्वामीजी कहते है. इस ग्रंथमें अनेक ऋतुके. नेद् लिखे है तिनका नाम. १ अग्निष्ठोमादि सप्तक्रतु. १ औपसदकतु, १ चतुष्टोमक्रतु, १ ननाइलनितक्रतु, १ इंस्तोसक्रतु, १ निधनक्रतु, १ वशिष्टक्रतुचतुरात्र, १ विश्वामित्र संजय चतुरात्र, १ पंचशारदीय पंचरात्र, १ विश्वजित् एकादश रात्र, १ प्रक्ष्याख्यऋतु १ चैत्ररथक्रतु, १ गर्गक्रतु, १ अंगिरसामयनक्रतु, शतरात्रक्रतु, हादशसंवत्सरसत्र, षटत्रिंसत्संवत्सरसत्र, सारस्वतसत्र, १ राटक्रतु, १ ज्योतिक्रतुः १ ऋषनाख्यक्रतु १ कुलायाख्यक्रतु, १ त्रिककषट्रात्र, १ प्रजाप तिसप्तरात्र, १ ऐसप्तरात्र, १ जनकसप्तरात्र, १ देवनवरात्र, १ विंशतिरात्र, १ त्रयस्त्रिंशतिरात्र, १ चत्वारिंशशत्र, १ एकषष्टिराप्रऋतु, १ सहस्रसंवत्सरसत्र, सर्पसत्र, विश्वसृजमयनक्रतु, आदि त्यपृष्टयमयनक्रतु, संवत्सरसत्र. सर्व सूत्रोंमें ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इन त्रिवर्गका कर्म नपनयन विवाह अंत्येष्टि इत्यादि थोमासा फरकसें बताई है. यज्ञ करनेकानी इन तीनो वर्गको अधिकार है. तांड ब्राह्मणके वचन नीचे लिखे है. १ परिश्वौ पशूनियुंजन्ति । अध्या. १७ खंड १३ मंत्र४ २ वैश्यं याजयेत १८-४-५ ३ एतदै वैशस्य समृदं यत्पशवः पशुभिरेवैन समेधयति १८-४-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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