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________________ प्रथमखंम. १० दया सच्चे नही मालुम होते है तोनी इस ग्रंथ के पढणे वालोंकी न्याय बुद्धिकी बुद्धि वास्ते दयानंदके बनाये अनुसार लिखते है, नंद सरस्वतीजीनें अपनी वेदभाष्यभूमिका के पृष्ट १०१ में मुक्तिका स्वरूप लिखा है. तिसमें पतंजली के करे योगशास्त्रका इग्यारे वा बारे सूत्रांके प्रमाण लिखे है. तथा गौतमरचित न्यायशास्त्र के तीन सूत्रांके प्रमाण लिखे है. और पीछे व्यासकृत वेदांत सूत्रादि ग्रंथोका प्रमाण लिखा है. पीछे शतपथ ब्राह्मणका प्रमाण लिख है. पीछे ऋग्वेद के एक मंत्रका प्रमाण लिखा है. पीछे यजुर्वेदके एक मंत्रका प्रमाण लिखा है. बुद्धिमानोकों विचार करना चाहिये के पतंजलीने ज, मुक्तिस्वरूप लिखा है तिस स्वरूपकी गंधजी ऋग्वेद और यजुर्वेदके मंत्रो में मुक्तिस्वरूप में नही है. और जो गौतमजीनें न्याय सूत्रोंमें मुक्ति स्वरूप निरूपण कीया है तिसकीनी पूर्वोक्त वेदमंत्रोंमें गंध नही, क्योंकि गौतमजी की मुक्तिमें ज्ञान बिलकुल नही माना है, पाषाणतुल्य स्वपरजानरहित और सुखदुःख रहित मुक्ति मानी है और ग्रात्माको सर्वव्यापी मानते है और भेदवादी है, क्योंकि आत्मा गिणती में अनंत मानते है. और दयानंद सरस्वती अपनी वेदोक्त मुक्तिमें लिखते है कि उस मोक प्राप्त मनुष्यकों पूर्व मुक्त लोग अपने समीप आनंदमें रख लेते है और फिर वे परस्पर अपने ज्ञानसें एक दूसरेको प्रीतिपूर्वक देखते है और मिलते है ॥ पृष्ट १०० और ४ तक, और इसी पृष्टमें पंक्ति में. विद्वान लोग मोक्षकों प्राप्त होके सदा आनंदमें रहते है. अब गौतमकी मुक्तिमें तो मुक्तात्मा न कहीं जाता है न कहीं सें आता है. क्यों के वो सर्व व्यापी है. सुख आनंदसे रहित होता है. अब दयानंद वेद कहते है, जब जीव मोक्ष प्राप्त होते है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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