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अज्ञानतिमिरजास्कर.
तव तिनकों जो आगे मुक्त जीव है वे अपने समीप रख लेते है. क्या उसका हाथ पकडके अपने पास बिठला लेते है. क्या मुक्ति आके हाथ पग शरीरादिनी होते है ? अथवा जो नवीन मुक्तरुप दुआ है वो अगले मुक्तरूपवालों में घुस नही सक्ता है. क्या वो ननसे करता है कि मुझकों अगले मुक्त जीव अपनी पंक्ति में घुसन देंगे के नही तथा श्रागे जो मुक्तरूप हो गयें वे क्या वानेदार वन गये है जो उसकों अपने पास रखते है? अथवा जो नवीन मुक्ता है वो जगा स्थान नही जागता है मेरेको कहां रहना है, इस वास्ते पूर्व मुक्त लोग उसको अपने पास रखते है तथा नन पूर्व मुक्त लोगोंकों ईश्वरकी तर्फसें हुदा मिला हुआ है और परवाना मिला हुआ है जो कमुक अमुक नवीन मुक्तकों तुमने अपने अपने समीप रखना ? जेकर कहोगे पूर्व मुक्त लोग प्रीतसे नवीन मुक्तकों अपने पास रखते है तो क्या मुक्त लोगोंकी रागद्वेष है? जब प्रीति होवेगी तब रागद्वेष अवश्य होवेंगें. ततो नवीन मुक्तक सर्व पूर्वमुक्त अपने अपने पास रखना चा हेंगे, तब तो चातानसें नवीन मुक्तकी कमवक्त था जावेगी वे किसके पास रहेया ! कहां तक लिखे बुद्धि जुवाब नही देती है. यह दयानंद सरस्वतीजीकी वेदोक्त मुक्तिका हाल है. और गौतमोक्त मुक्तिमें पूर्वोक्त दूपण नही क्योंकि गौतमजी तो थात्माकों सर्वव्यापी मानते है, इस वास्ते आणा और जाला कि तेजी नही. न ईश्वरके बीचमें घुस बेठना है क्योंकि सर्वव्यापी है, और न पूर्वमुक्त नवीन मुक्तकों अपने पास रख सक्ते है क्योंकि समीप र कुबजी नही, सर्वही सर्व व्यापी है. आपसमें प्रतिजी नहीं क्योंकि रागद्वेष करके रहित है, और ज्ञानसें परस्पर नहीं है क्योंकि मुक्तावस्थामें ज्ञान माना नहीं और सदा आनंद सुख और सुख जोगनेकी इवा ये तीनों मुक्तावस्था में
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