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अज्ञानतिमिरनास्कर. करणा चाहिए, क्योंकि इन गुणाके विना धर्म प्राप्त नही होता हे, जैसे शुनूमि विना चित्र नही रह शकता है. यहां प्रत्नास चित्र करका दृष्टांत जानना.
धर्मका स्वरूप. अब पूर्वोक्त गुणांका धारी जिस धर्मका योग्य है तिस धर्म का स्वरूप किंचित् मात्र लिखते है,
धर्म दो प्रकारका है. श्रावक धर्म १ और यतिधर्म २. तिनमें श्रावक धर्म दो प्रकारका है. अविरति १ विरति ३. तिनमें अविरत श्रावक धर्मका स्वरूप अन्यत्र ग्रंथोमें कहा है. अविरत श्रावक धर्मका अधिकारी ऐसा कहा है सामर्थ्य होवे, आस्तिक होवे, विनयवान् होवे, धर्मार्थे उद्यमी होवे, पुननेवाला होवे, इत्यादि अधिकारी कहा है. और विरत श्रावक धर्मका अधिकारी ऐसा कहा है. संप्राप्त दर्शनादि, प्रतिदिन यति जनोंसें समाचारी श्रवण करे, परलोक हितकारी, सम्मक् न. पयोग संयुक्त जो जिनवचन सुणे इत्यादि. और यति धर्मका अधिकारी ऐसा कहा है. आर्यदेशमें नत्पन्न हुआ होवे, जाति कुल करके विशुद्ध होवे, प्राये कीण पापकर्म होवे, निर्मल बुध्विाला होवे, संसार समुश्में मनुष्य जन्म उर्लन है ऐसा जानता है. संपदा, चंचल और जन्म मरणका निमित्त है, विषय दुःखका हेतु है, संयोग्य वियोगका हेतु है, प्रतिसमय मरण है, इस लोकमेंही पापका फल नयानक है, इत्यादि नावनासें जाना है संसारका निर्गुण स्वन्नाव निस्से विरक्त हुआ है, कषाय प. तला हुआ है. सुकृतज्ञ है, विनीत है, राजविरुह काम जिसने नहि करा है, कोई अंगहीन नहि, सर्व अंग कल्याणकारी है. श्रशवान है, स्थिरस्वनाववाला है, नपशम संपन्न होवे इत्यादि अ.
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