SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयखम. फिर परहितार्थकारी कैसा होवे-निस्पृह मनवाला हो वे जो किसी पदार्थ धनादिककी इच्छालें, शु नपदेष्टान्नी होवे तोजी प्रसंशने योग्य नहि है. तथा चोक्तं परलोकातिगं धाम तपःश्रुतमिति द्वयं । तदेवार्थित्वनि तसारं तृणलवायते ॥ १॥ परहितार्थकारी महा सत्ववाला होता है क्योंकी सत्ववालोहीमें यह गुण होवे है. तथाहि-" परोपकारैकरतनिरीहता वि. नीतता सत्यमतुच्छचित्तता, विद्या विनोदनुदिनं न दीनता गुणा श्मे सत्ववतां नवंति ॥ १॥" अर्थ-परोपकारमं तत्परता, विनयता, सत्य, मनकी ब. माई, प्रतिदिन विद्याका विनोद और दीनताना अन्नाव ओ सत्व वालेका गुण है. इहां नीमकुमारनी कथा जाननी. इति विंशति तमो गुणः एकवीसमा लब्धलक नामा गुणका स्वरूप लिखते है ज्ञानावरणीय कर्मके पतले होनसे लब्धकी तरे लब्ध है, सीखने योग्य अनुष्टान जिसके सो लब्धलक है, सीखानेवालेको क्लेश नहि नत्पन्न करता है, समस्त धर्म करणी चैत्यवंदनादि सीखता हुआ, तात्पर्य यह है कि पूर्वनवमें अभ्यास करेकी तरे सर्व शीघ्रही शीख लेवे, तथा चाह, प्रतिजन्म यदश्यस्तं जीवैःकर्म शुभाशुभं । तेनैवाभ्यासयोगेन तदेवाभ्यस्यते सुखं ॥१॥ ऐसा पुरुष सुशिक्षणीय योमेसे कालसेंही शिक्षाका पारगामी होता है नागार्जुनवत्. इति एकविंशतितमो गुणः धर्मार्थी पुरुषोने प्रथम इन पूर्वोक्त गुणांके उपार्जनेमें यत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy