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________________ हितीयखम. १ श्रीमहावीरके निर्वाण पीछे जव १४ वर्ष गये तब आषाढ आचार्यके शिष्य तीसरे निन्दव हुए. आर्याषाढ काल करे देवता हो कर फेर तत्काल अपने शरीरमें प्रवेश करके अपने शिष्योको पढाता रहा. जब पढना पुरा हुआ तव अपना स्वरूप कह कर शरीरको गेडके देवलोक चला गया. तव शिष्याने परस्पर वंदना करनी गेम दीनी; नसका संशय हो गया, क्या जाने साधु साधु है कि मृतके साधुके शरीरमें देवता प्रवेश करके साधु बन रहे है, आर्याषाढ आचार्यवत्. इस वास्ते इनको अयुक्तवादी निन्दव नाम पड़ा, जब राजगृहमें आये तब मौर्यवंशी बलन्न राजा श्रावकने समजाए तब हठ गेड दीप्रा. श्नकानी पंथ नदि चला इति तृतीयो निन्हवः. श्री महावीरके निर्वाण दुए जब २२ वर्ष हुए तब समुच्चेदक वादी अर्थात् कणिकवादी अश्वामित्र नामा मिथिलानगरीमें चौथा निन्हव हुआ. इसको राजगृहमें महेसूल लेनेवाले श्रावकोने समजाया. परंतु इसका मत बौधोनें स्वीकार किया. इस चास्ते बौधोमें योगाचार मत कणिकवादी है परंतु इस अश्वमित्रसे मत गेड दीआ. इति चतुर्थो निन्हवः. श्रीमहावीरके निर्वाणको जब २२७ वर्ष हुए तब दो क्रिया वेदनेमें एक साथ नपयोग माननेवाला गंगदत्त नामा पांचमा निन्हव हुआ. महागिरि आचार्यके धनदेव नामा शिष्यका वो शिष्य था. तिसके शिरमें टढरी (ताल) श्री. आश्विनी मासमें नदी नतरतेके शिरमें सूर्यकी धूप लगी और पगोमें ठंमा जल लगा तब कहने लगा कि मेरा एक समयमें दोनुं जगे नपयोग है. इस वास्ते में एक समयमें दो क्रियाका मत स्थापन करने लगा, गुरुका समजाया न समजा. फिरता हुआ राजगृह नगरमें मणिनाग यके मंदिरमें आया. तिहां अपना मत लोगोके आगे कहने लगा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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