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अज्ञानतिमिरास्कर.
तब मणिनाग यकने कहा कि भगवंत श्री महावीरनें इसीनें जपर एक समय में एक क्रिया वेदनेका एक उपयोग कहा था, तुं क्या उनसेंनी अधिक ज्ञानी है ? व बोम दे नहि तो मार मालुगा. तब करके लिये और गुरुओके समजानेर्स मतका व छो दिया. इति पांचमो निन्दवः.
श्री महावीरके निर्वाण पीछे जब ए४४ वर्ष गये तब रोहगुप्त नामा बा निन्दव हुआ. श्रीगुप्ताचार्यके शिष्य रोहगुप्तनें अंतर जीका नगरी में बलश्री राजाकी सनामें पोटशाल परिव्राजकको जितने वास्ते जीव, अजीव, नोजीव, ये तीन राशी प्ररूपी परिब्राजकको जिता, जब गुरु पास आया तब गुरुने कहा, तीसरी रासी " नोजीव ” नहि. तुं राजाकी सजामें फिर जाकर कह दे "नोजीव " है. मैंने जूठ तो नहि कहा है ? तत्र गुरुने राजाकी के " नोजीव, नहि. तब रोहगुप्त अभिमानसें कहने लगा कि सनामे रोहगुप्तको जूता उदराया. परंतु श्रभिमानसें रोहगुप्तनें अपना मत बोडा नहि. तब गुरूनें उसकों संघ बाहिर किया. तब तिस रोगुप्तनें वैशेषिक मत चलाया, जो कि ब्राह्मण लोगोमें नवीन न्याय मत करके प्रसीद है, यह नहि समजा. इति षष्टो निन्दवः,
श्री महावीरके निर्वाण पीठै जब ५८५ वर्ष गये तब गोष्ठमादिल नामा सातमा निन्दव हुआ. इसमें दो बातां अभिमानसें नहि मानी. एक तो जीवके कर्म आत्माके उपरलेही प्रदेशोके साथ बंध होते है, और दुसरा, प्रत्याख्यान में कालकी मर्यादा नहि करनी. यह नहि समजा. इति सप्तमो निन्दवः
इन सातोका विशेष स्वरूप देखना होवे तो विशेषावश्यककी टीका देख लेनी .
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