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________________ आ १४ अज्ञानतिमिरनास्कर. गिने जाते है, और दोनोसें परलोकमें दुर्गति होती है, इस वास्ते उन्नय लोक विरूह है. पूर्वोक्त सातो कुव्यसनका सेवनेवाला इस लोकसें शिष्ट जनोका निंदनीय होता है, और परलोकमें उर्गति प्राप्त करता है, इस वास्ते जो पुरुष सातो कुव्यसनका त्याग करे सो धर्मका अधिकारी होता है. दान, विनय, शील श्नो करके पूर्ण होवे. तिनमें दान दे. नेसे बहुते जीव वश हो जाता है. और दान देनेसे वैर, विरोध दूर हो जाता है. शत्रुनी दान देनेसें नाइ समान हो जाता है इस वास्ते दान निरंतर देना योग्य है. विनयवान् सर्वको प्रिय लगता है, और शु शीलवान् इस लोकमें यश कीर्ति पाता है और सर्व जनाको वल्लन्न होता है, और परलोकमें सुगति प्राप्त करता है. इस वास्ते जो पुरुष सात व्यसन त्यागे और दानादि गुणों करी संयुक्त होवे सो लोकप्रिय होवे, विनयंधरवत् इति चतुर्थो गुणः अक्रचित्त नामा पांचमा गुण लिखता है. क्रूर नाम क्लिष्ट स्वन्नावका है, अर्थात् मत्सर, ईर्ष्यादि करके दूषित परिणाम वालेका है. सोनी धर्मका आराधनमें समर्थ नहि होता है, समर कुमारवत्, इस वास्ते धर्मके योग्य नहि. और जो क्रूर नदि सो धर्मके योग्य है, कीर्तिचं नृपवत् . इति पंचमो गुणः नीरू नामा उठा गुण लिखते है. इस लोकमें जो राजनिग्रह दंडादि कष्ट है और परलोकमें जो नरकगति गमना कष्ट है, तिनको नावि होतदार जानके जो पुरुष हिंसा, जूठ, चोरी, मैशुन, परिग्रहादि पापोंसें त्रास पामे, और ननमें न प्रवर्ग सो धमके योग्य होता है, विमलवत्. इति षष्टो गुणः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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