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________________ ५ प्रयमखं. कति हस्तिना ताड्यमानोनिन गच्छेज्जैनमंदिरं ॥ तद पिले दौडधर्म स्थानमें दूर हो गया और नुपनिषदोंका मत चला परंतु सो मत लोगोंकों श्रना नही लगा, तब लोगोंने नक्तिमार्ग निकाला. यझके ठिकाने पूजा सेवा स्थापी और ब्राह्मण कर्मकां ममें जहां दर्न वापरता था तहां नक्तिमार्ग वाले तुलसीदल वापरने लगें, ओर पुरोमाश अर्थात् यज्ञका शेष नागके बदले प्रसाद दाखल करा. और अनिकी जगें विष्णुरामचंजीकी स्थापना करी और महाक्रतुकी जगें उपन नोग इत्यादि महोत्सव शुरू करे, और वेदोंके पाठके ठिकाने माला फेरणी उदराई, और प्राय श्चित्तकी जगें नामस्मरण व्हराया, और अनुष्टानोंकी जगें नपर नजन ठहराया, और मधुपर्ककी जगें अर्घ्य अर्थात् पाणीका लोटा नरके देना ठहराया. नपनिषदके मतकों अद्वैतमत कहते है और नक्तिमार्गकों द्वैतमत कहते है, परंतु ये दोनों मत कर्मकांमके खं. मन करने वाले है. और जैनमतन्नी वैदिक यज्ञादि कर्मका खंडन करने वाला है. तिस वास्ते ब्राह्मणोंका मत बहुत नष्ट हो गया तिससे ब्राह्मण पोकार करणे लगे कि कलियुग आया, वैदिक धर्म मूबने लगा, तब यह श्लोक लिख दीया. “धर्मः प्रव्रजितः तपः प्रचलितं सत्यं च दूरं गतं पृथ्वी मंदफला नृपाः कपटिनो लौख्यं गता ब्राह्मणाः । नारी यौवनगर्विता पररताः पुत्राः पितुषिणः साधुः सीदति पुर्जनः प्रनवति प्रायः प्रविष्टे कलौ "] '१॥ ५ धर्म चल गया, तप चलित हुवा, सत्य दूर हो गया, पृथ्वी मंदफल पामी हुइ, राज लोक कपटी हया, ब्राह्मण लब्ध हो गया, स्त्री योबनका गर्व करने बाली और परासक्त हुइ, पुत्र पिताका द्वेषी हुवा. साधु दुखी है ओर दुर्जन सुखी होता है, एसा कलिकाल प्रविष्ट होनेसे हुबा है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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