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________________ श६ अज्ञानतिमिनास्कर. पन करा है. न तु सर्व पूर्व पुरुष आचरित, इस वास्ते ग्रंथकार कहता है ___“जंपुण पमायरूवं गुरुलाधव चिंता विरहियं सवदं । सुहसील सढानं चरित्तियो तं न सेवंति" ॥ ६ ॥ व्याख्या, जो आचरित प्रमादरूप है संयमका बाधक होनेसें, इस वास्तेही गुरु लाघव सगुण अवगुणकी चिंता करके विचार करके वर्जित है. इस वास्तेही सवधं जीव वध संयुक्त यतनाके अन्नावसे सुखशील सलोकमें जे प्रतिबद है. शग मिथ्या जूग आलंबन करा है जिनोंमें तिनोंने जो प्राचीर्ण आचरा है सो आचीर्ण शुद चारित्र वंत नहि सेवते है. इस वातकाही नल्लेख स्वरूप दिखाते है. __“जह सढे सममत्तं राढा अशुभ नवही नताश, निधिज्ज वसहि तूलीमलूरगाईणपरिन्नोगो.॥ ७ ॥” अर्ध-व्याख्या, यथा शब्द नपदर्शनमें है. श्रावकों विषे जिनको ममत्व मपीकार मेरा यह श्रावक है ऐसा जिसको अति आग्रह है; गाम में, कुलमें, नगरमे, देशमे ममत्व नाव कहींनी नहि करे; “ गामे कुले वा नगरे वादेशेवा ममत्तन्नावं न काहें चिकुजा. ” ऐसे आगममें निषिनी है, तोन्नी कितनेकी ममत्व करते है. तथा राढाया श. रीरकी शोनाकी इच्छासे अशु नपधि नक्त पापी आदिक कितनेक ग्रहण करते है. तहां अशु६ नद्गम नत्पादनादि दोष उष्ट नपधि वस्त्र पात्रादि, नक्त अशन, पान, खाद्य, स्वाचादि आदि शब्दसें उपाश्रय ग्रहण है. ये पूर्वोक्त आगममें अशुभ लेने निषेध करे है. “ पिंक सिजंच वथ्यंच चनक्तं पायमेवय। अकप्पियं नडेजा पडिगहिज्जकप्पियं ॥ १ ॥ इहां राढा ग्रहण करणेसे पुटालंबन करके पुनिक अकेमादिकमे पंचक परिहानी करके किं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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