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द्वितीयखम.
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मैं तप लिंग क्षेत्र कालके पारको प्राप्त होवे सो पारांचित. १०
ये पूर्वोक्त सर्व एक करीए तव बत्तीस होते है. ऐसा गुणां करी संयुक्त गुरु होवे तिसकी चरणांकी सेवा सम्यग् प्राराधना परंतु गुरुके निकटवर्ति मात्र नहि; किंतु सेवामें अतिशय करके रत होवे. कदाचित् गृरु निष्ठुर कठोर वचनसें निना करे तोजी गुरुकों बोनेकी इच्छा न करे. केवल गुरु विषये बहुमान करे. ऐसा विचारे कि धन्य पुरुषकी नपर गुरुकी दृष्ठि परती है, और हित कार्यसे मना करते है. तथा गुरुका प्रादेश करनेकी इच्छावाला गुरुके समीप वर्त्ति रहे.. ऐसा साधु चा'रित्र जार वहने में समर्थ होता है. तीस कोही सुविहित करते. है. कैसें यह निश्चय जानीए सोइ कहते है. सकल अगरह: सदस्र जे शीलांग गुण है तिनका प्रथम कारण श्राचारांग में गुरु: कुलवास करणा कहा है तिसका प्रथम सूत्र.
66. सूर्य में व संतेां जगवया एव मखायं " इस सूत्र का भावार्थ यह है. सर्व धर्मार्थियोनें गुरुकी सेवा करणी. इस वास्ते सदा गुरुचरणके समीप रहे चारित्रार्थी चारित्रका कामी तथा गच्छ वसने गुण हैं. गुरुके परिवारका नाम गच्छ है. तहां वसतांको बहुत निर्जरा है. विनय है. स्मारण, वारण, नोदना सें दूषएग उत्पन्न नदि होते है. कदाचित् संयम बोके निकलनेकी इच्छा होवेतोजी अन्य साधु नपदेशादिकसें तिसकों रख लेते है.
प्रश्न- श्रागमके तो साधुकों आहार शुद्धिही मुख्य चारिकी शुद्धिका देतु कहा है यदुक्तं.
" पिंडं असोडतो अचरिती इच्छा संसननथिय । चारितं मिश्र संते सव्वादि खानिर यथा " अर्थ — जो आहारकी शुद्धि 'न करे वो चारित्रीया नहि, तव सर्व दीका निरथक है. तथा
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