________________
प्रथमखंरु.
१५
को अनुमंत्र है अर्थात् मंत्रों संस्कार करते है. हे पुरुषकी स. यावरी अर्थात् राजगौ मैं तेरे प्राणांकों शिथिल अर्थात् दाता हूं तूं पितरांको प्राप्त हो और इस लोक में अपने संतान करके देम - को प्राप्त कर ॥
कल्प - अत्र राजगवी उपाकरोति जुवनस्य पते इति जरवीं मुख्यां तज्जघन्यां कृष्णां कृष्णाकीं कृष्णवालां कृष्णखुरामपि वा प्रजां वालखुरमेव कृष्णं एवं स्यादिति पाठस्तु तस्यां निहन्यमानायां सव्यानि जानून्यनुनिघ्नतः ॥
अर्थ - भुवनपति कुं राजगवी देना. श्रो राजगवी मुख्य है काले नेत्रवाली और काले खरी और बालवाली गाय अथवा एसी arial लेना एसा पाठ है. इसका जानु में मारना.
५ उदीनार्यभिजीवलोकं
॥ जाप्य ॥
देनारित्वं न तिष्ट त्वं दिधिषो. पुनर्विवाहेच्छो पत्युः जनित्वं जायात्वं सम्यक् प्राप्नुहि ॥
अर्थ- हे स्त्री, तुम नगे. तेरी पुनर्विबाहकी इच्छा है वास्ते पुनःपतिका स्त्रीपणां अच्छीतरे प्राप्त करो.
६ अपश्याम युवतिमाचारंती ॥ ६ प्रपा० १२ अनु. राजगव्या हननमुत्सर्गश्चेति हौ पकौ - तंत्र इननपक्षे मंत्राः पूर्वमेवोक्ताः श्रथोत्सर्गपके मंत्रा नृव्यंते ॥
अर्थ - राजगवीका दाना और बोमना ऐसा दो पक्ष है तिनमें euter मंत्र आगे कहा है, छोडनेका मंत्र कहते है.
७ अजोसि० द्वेषा 9 सी
८ यवोसि० द्वेषांसी
सर्व पुस्तक देखां पीछे माध्यंदिनी शाखाकी संदिता चा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org