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________________ हितीयखम. “विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानं, । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतेः फलं चाश्रवनिरोधः ॥ १ ॥ संवरफलं तपो बलमपि तपसो निर्जरा फलं दृष्टं । तस्मात् क्रियानिवृत्तिः क्रिया निवृत्तेयोगत्वं ॥ २ ॥ योगनिरोधादनवसंसतिदयः संसतिक्षयान्मोदः । तस्मात् कल्याणानां सर्वेषां नाजनं विनयः ॥ ३॥ तथा-मुलान नखं धप्प नवो उमम्स खंधान पच्छा समुर्विति सा हा साहप्प साह विरुदं पत्ता, तनसि पुष्पं च फलं रसोय ॥ ॥ १ ॥ एवं, धम्मस्स विण मुलं परमोसे मुरको। जेणकित्तिं सुयं सिग्धं नीसेसंचालिगच्छ॥ २ ॥ अर्थ-प्रश्रम वृक्षके मूलसें स्कंध होता है, स्कंधसें पीले शाखा होती है, शाखासें प्रशाखा और प्रशाखासे पत्र होते है, तद् पी फुल फल और रस होता है, ऐसेही धर्मका मूल विनय है, और समान मुक्ति है, शेष, स्कंध, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प, फल समान बलदेव, चक्रवर्ती, स्वर्गादिके सुख है, इस वास्ते विनयवान धर्मके योग्य होता है. नुवन तिलक कुमारवत् इति अष्टादशमो गुणः ओगणीसमा कृतज्ञता नामा गुणका स्वरूप लिखते है. बहुमान करे, गौरव संयुक्त धर्म गुरु, आचार्यादिकको देखे, धर्मगुरु धर्मके दाता आचार्यादिकको कहते है, तिनको बहुमान देवे क्योंकि यह धर्मगुरु मेरे परमोपगारी है, इनाने अकारण वत्सलोनं अतिघोर संसाररूप कुवेमें पडतेको नझार करा है ऐसी परमार्थ बुदि करके स्मरण करता है परमागम स्थानांग सिशंतके वाक्यको, सो वाक्य यह है. तीन जणोंके नपकारका बदला नहि दिया जाता है. माता पिता १ शेठ २ धर्माचार्य ३ तिनमें कोई पुरुष सवेरे और सां 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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