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________________ ॥ श्री ॥ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ अज्ञानतिमिरभास्कर, द्वितीयः खण्डः प्रवेशिका प्रथम जैनमतकी उत्पत्ति लिखते है. यह संसार यार्थिक नयके मतसें अनादि अनंत सदा शास्वता है, और पर्यायार्थिक नयसे मतसें समय समय में नृत्पत्ति प्रो विनाशवान है, इस संसार में अनादिसें दो दो प्रकारका काल वर्तते है एक अवसर्पिणी काल अर्यात् दिन दीन प्रति आयु बल, अवगाहना प्रमुख सर्व वस्तु जिनमें घटती जाती है, और दुसरा उत्सर्पिणीकाल, जी लमें सर्व अच्छी वस्तुकी वृद्धि होती जाती है. इन पूर्वोक्त दोनु काली में अमीत् अवसर्पिणी - उत्सर्पिकाल करे व विजाग है. अवसर्पिणीका प्रथम सुषम सुत्रम, १ सुषम, ३ सुत्रम डुम, ४ पुत्रम सुषम, ५ दुषम, ६ मम है. उत्सर्पिणी में बहो विभाग नलट जान लेने. जब अवसर्पिणी काल पूरा होता है तब नत्सविंसी काल शरू होता है. इस अनादि अनंत कालकी प्रवृत्ति है; और दरेक अवसर्पिणी - उत्सर्पिणी के तीसरे चौथे ओर अर्थात् कालविभाग में चौवीस तीर्थकर अर्थात् सच्चे धर्मके कथन करनेवाले नृत्यन्न होता है, जो जीव वीश धर्मके कृत्य करता है सो नवातरों में तीर्थंकर होता है. वे वीश कृत्य यह है. अरिहंत १ सि६ २ प्रवचन अर्थात् श्रुतज्ञान वा संघ ३ गुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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