________________
द्वितीयखम. अथ जैनमतका किंचित् स्वरूप लिखते है..
प्रथम तो आत्माका स्वरूप जानना चाहिये. यह जो रचा है सो जीव है, यह आत्मा स्वयंनू है परंतु किसीका रचा दुआ नहि है. अनादि अनंत है. पांच वर्म, पांच रस, दो गंध आठ स्पर्श इन करके रहित है. अरूपी है आकाशवत. असंख्य प्रदेशी है. प्रदेश नसको कहते है जो आत्माका अत्यंत सूक्ष्म अंस कथंचित् नेदानेदरूप करके एक स्वरूपमें रहे. तिनका नाम आत्मा है. सर्व आत्म प्रदेश ज्ञानम्वरूप है. परंतु, आत्माके एकैक प्रदेश पर आठ कर्मकी अनंत अनंत कर्मवर्गणा, झानावरण १ दर्शनावरण र सुखःखरूप वेदनीय ३ मोहनीय ४ आयु ५ नामकर्म ६ गोत्रकर्म ७ अंतरायकर्म करके श्रागदित है. जैसे दर्पणके उपर गया आ जाती है. जब ज्ञानावरणादि कमोंका क्षयोपशम होता है तब इंघिय और मनधारा आत्माको शब्द १ रूप २ रस ३. गंध ४. स्पर्श ५. तिनका झान और मानसी ज्ञान नत्पन्न होता है. कर्मोका कय और कयोपशमका स्वरूप. देखना होवे तब कर्म प्रकृति और नंदिकी. बृहत् टीकार्मेसे जान लेना.
इस आत्माके एकैक प्रदेशमें अनंत अनंत शक्ति है. कोई ज्ञानरूप, कोई दर्शनरूप, कोई अव्यावाध सुखरूप, कोई चारित्र रूपा, कोई श्रिररूप, कोइ अटल अवगाहनारूप, कोई अनंत शक्ति सामर्थ्यरूप, परंतु कर्मके आवरणमें सर्व शक्तिया लुप्त हो रहि है. जब सर्व कर्म आत्माके साधनद्वारा पुर होते है. तब यही आत्मा, परमात्मा, सर्वज्ञ,, सिह, बुह, ईश, निरंजन,, परम ब्रह्मादिरूप हो जाता है. तिसहीका नाम मुक्ति है. और जो कुच्छ आत्मामे नर, नारक, तिर्यग्, अमर, सुनग, दुर्चग,.. सुस्वर
46.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org