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________________ १७४ अज्ञानतिमिरनास्कर. ठहरी, और मनुमें वेदांका नाम है इस वास्ते यह कहना अप्रमाणिक है. तथा कितनेक बुदिमान ऐसेनी समजते होगे किजैनमतकें सर्व पुस्तक नवीन अर्थात् अढाइ हजार वर्षके पहिला नावंत श्री महावीरजीनेही कथन कीए है जेकर जैनमत पुराना होता तो श्रीपार्श्वनाथ आदि तेवीस तीर्थकरोके कथन करे दूये शास्त्र होते. इसका खुलासा यह है कि जैन मतमें जो तीर्थंकर होता है सो चीस धर्मके कृत्य करनेसें तीर्थकर नाम कर्मकी प्रकृति पुण्यरूप नुत्पन्न करके तीर्थकर होता है. सो तीर्थकर नाम पुण्य प्रकृतिका फल नोगनेंमें तब आता है जब धर्मोपदेशद्वारा धर्मतीर्थ करे. जब धर्मतीर्थ करे तब तीसही तीर्थकरके करे हूये शास्त्र प्रवृत्त होने चाहिये. इस वास्ते पूर्वपूर्व तीर्थंकरोके शास्त्र बंद हो जाते है, और नवीन नवीन तीर्थंकरोके शास्त्र प्रवृत्त होते है, इस वास्ते महावीरजीके तीर्थ में पीउलें तीर्थकरोके पुस्तक बनाये न रहनेसे प्राचीन शास्त्र नही है. और जो कुछ कथन श्री ऋषन्नदेवजीने करा था सोही कथन सर्व तीर्थकरोने किया. नामन्त्री आचारांगादि छादशांगका सबके एक समान था. परंतु जो कथारूप शास्त्र है तिनमें जो जीवांका नाम है सो बदला गया है. नगरी, राजा साधु, श्रावकादिकोंका नामन्नी बदला गया है शेष सर्व शास्त्र सर्व अनंत तीर्थंकरोंके तीर्थमं एक सरीखें है इस वास्ते इनही शास्त्रांको पुराने मानने चाहिये. तथा कितनेक .. यहनी कहते है कि जैनमतके शास्त्र प्राकृतमें कृतमें लखने- है इस वास्ते सर्व झोक्त नहि, जेकर सर्वज्ञोक्त का प्रयाजन होते तो संस्कृतमें होते. इसका खुलासा यह है कि श्रीमहावीर नगवंतकी वाणी अर्ध मागधी नाषामें श्री तिसमें ऐसा अतिशय था के आर्य, अनार्य, तिर्यंच प्रमुख सर्व अप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003648
Book TitleAgnantimirbhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1906
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Vaad, & Philosophy
File Size22 MB
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