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द्वितीयखम.
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यक जावसें जो उत्पन्न होते है ज्ञान दर्शन चारित्र रूप गुण रन्न, तिनका अभिलाषी होवे. होतीदी है उद्यमक्तको अपूर्व कारण कयक श्रेणि क्रम करके केवलज्ञानादिककी संप्राप्ति. यह कथन जैनमतमें प्रसिद्ध है. गुणानुराग गुणकादी प्रकारांतरसें ल
कहते है. आपणा स्वजन होवे १ शिष्य होवे २ अपणा पूर्वकालका नपकारी दोवे ३ एक गच्छका वसनेवाला होवे ४ इनके उपर जो राग करणा है सो गुणानुराग नदि कदा जाता है.
प्रश्न - तब साधुचारित्रिया इन स्वजनादिकोंके साथ कैलें वर्ते करुणा परदुःख निवारण बुद्धि नक्तंच
परहितचित्ता मैत्री, परशुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुख तुष्टिर्मुदिता परदोषोपेक्ष समुपेक्षा ॥ १ ॥
अर्थ - परके हित में चित्त रखना सो मैत्री, परदुःखको नाश करना सो करुणा, परसुखसें संतोष होवे सो मुदिता और परदोषकी उपेक्षा करे सो नपेक्षा होती है..
तिस करुणा करके रसिक राग द्वेष बोमके स्वजनाविकको शिक्षा करे अथवा स्वजनादिकाको तथा श्रन्यजनाको मोक्षमामें प्रवर्त्तावे. गुणानुरागका फल कहते है. उत्तम - उत्कृष्ट जे गुण ज्ञानादिक तिनमें रागप्रीति प्रकर्ष होनेसें उपमकाल, निर्बल संदननादि दूपलो करके पूर्णधर्म सामग्री नदि प्राप्ति दुइ है, सो सामग्री गुणानुरागी पुरुषको भावांतर में पावणी दुर्लन नहि किंतु सुलन है, कथन करा गुणानुरागं रूप बा जाव साधुका लिंग.
अथ गुरुकी आज्ञा आराधन रूप सातमा लिंग लिखते है. प्रथम गुरु कीसकों कहिये ? जो बत्तीस गुणां करके युक्त होवे तिसको गुरु अर्थात आचार्य कहतें है. वे बत्तीस गुण येद है.
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