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अज्ञानतिमिरनास्कर. घरमें आवे, वर घरमें आवे तो नत्तमही दिन गिना जाता है, तिस अवसरमें गोवध करना लिखा है. यहनी पाराशरने बंद किया तोन्नी गोदान नत्सर्ग विधि चलती है. आश्वलायन सूत्र में तथा और अन्यसूत्रामें जब मधुपर्ककी विधि बांचीए तो गवालंन अर्थात् गौवधके सिवाय और कोई विधि नहीं मालुम होती है. यह गौवधनी जैन, वौइमतवालोंकी तकरारसें बंद हुआ मालुम होता है.
तीसरा कलिमें संन्यासी होना बंद करा, सोनी नहीं बद हुआ. यह पाराशरजीका नियमतो विशेष करके शंकरस्वामीने तोमा, क्योंकि शंकरस्वामीने चारोंही वरणको संन्यासी करा सो गोसांई आदिक है. और बहुत संन्यासी वाममार्गी है, मांस मदिरा खातेपीते है, बहुत पाखंड करते है, इस बास्ते बंधी करी होगी. ३
चौथा पलपैतृकं. अर्थात् श्राइमें पितृनिमित्त मांसका खाना; इस्से यह मालुम होता है कि आगे वैदिकमतवाले बहुत हिं सक थे, और शिकार मारके खातेथे. जिन जानवराकों मारके लातेथे, ननका मांस होमके बाकी खा जाते थे. यह रश्म वैदिक धर्मकी प्रबलतामें श्री. जब स्मृतियों बनाई गई तब पूर्वोक्त रश्म बंद कर दीनी, और विधि बांधी. विधिसे लोग मांस खाने लगे. ४ पुराणमेंभी मां जब पुराण बने तिनमेंनी विधिसे मांस खानेकी स खानेकी छुट है." बुट है. वैष्णवमतवाले ऐसे पुराणोंको तामसी पुराण मानते है. श्राइ विषयमें निर्णयसिंधुमें ऐसा लिखा है. “यत्र मातुलजोक्षही यत्र वै वृषलीपतिः। श्राई न गच्छेत्तप्रिकृतं यच्च निरामिषं ” अर्थ-“जहां मामांकी बेटी विवाही होवे तथा शुश्की कन्या विवाही होवे ऐसे आइमीके घरमें ब्राह्मणने श्राः
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