Book Title: Abhidhana Sangraha Part 02
Author(s): Sivdatta Pandit, Kashinath Pandurang
Publisher: Nirnaysagar Press
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥ ॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org www.kobatirth.org पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. श्री जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक : १ महावीर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249 जैन ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। अमृतं आराधना तु केन्द्र कोबा विद्या Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 卐 शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः॥ अभिधानसंग्रहः नाम संस्कृतप्राचीनकोशग्रन्थसमुच्चयः। द्वितीयः खण्डः। अत्र हेमचन्द्रकृताः अभिधानचिन्तामणि-अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टअनेकार्थसंग्रह-निघण्टुशेष-लङ्गानुशासनकोशाः, जिनदेवमुनीश्वरविरचितः अभिधानचिन्तामणिशिलोञ्छश्च संगृह्यन्ते। काव्यमालासंपादक-पण्डितशिवदत्त-काशीनाथाभ्यां संशोधितः। शाके १८१८ वत्सरे मुम्बय्यां निर्णयसागराख्ययन्त्रालये तदधिपतिना मुद्राक्षरैरङ्कयित्वा प्राकाश्यं नीतः । मूल्यं सपादो रूप्यकः। For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ABHIDHÂNA SANGRAHA. It is a matter of congratulation that vigorous efforts are latterly being made in all directions to rescue from obscurity old Sanskrit literary works. It does appear, that adequate attention is paid to rescuing those old Sanskrit Lexicons, which alone can furnish the real key to the store of knowledge contained in the old Sanskrit works. As these lexicons are written in verse, they can be easily got up by heart, and are readily accessible for use whenever wanted. It is thus a duty of every gentleman who feels pride in the ancient Sanskrit literature to have by him such valuable lexicons. Tradition ascribes the existence of 56 such lexicons*. Unfortunately a large number of these are remembered by name only. Fearing that the few which are at present obtainable, if not rescued in time, might share the fate of others, we have succeeded, with great difficulty, in collecting a large number of them and are trying hard to get hold of others. Instead of waiting till the whole collection of available works is complete, we think it would serve the public better to publish as many works as we have succeeded in laying our hands upon. If all the works we have, are published in one volume, it will take a long time, the book will be unwieldy, and the price very heavy. To suit the convenience of buyers, therefore, we propose to publish one work full at a time. If it happens to be too small for a volume, we shall issue two or three works together in a handy volume. The books will be printed on good paper and in good type. Notice will be given from time to time as the volumes are ready. The pages of each Lexicon will be numbered separately. In accordance with the arrangement above indicated, the First and Second Volumes are already printed. The First Volume includes Five Lexicons, via: (1) Namalingânus'âsana (Amarakos'a) by Amarasimha, and its supplement (2) Trikândas'esha, and (3) Hârâvali, (4) Ekâksharakos'a and (5) Dvirů pakos'a by Purushottamadeva. Price Rupee 1, Postage annas 2. The Second Volume includes Six Lexicons, viz: (6) Abhidhậnachintâmaņi, (7) Abhidhânachintâmani-Paris'ishta, (8) Anekârthasangraha, (9) Nighantusesha, and (10) Lingânus'âsana by Hemachandra and (11) Abhidhânachintamani.S'ilonchchha of Jinadeva Munis' vara. Price Rupee 1-4, Postage Annas 3. The Third Volume will contain (12) Vis vaprakâs'a and (13) S'abdabhedaprakâs'a of Mahes' vara, Those gentlemen who want these books will kindly send their names and subscriptions to us, so that when the books are ready they will be immediately despatched. TUKARAM JAVAJI, Proprietor, Nirnaya-Sâgara Press. * From the list given elsewhere it will be seen that these Lexicons number more than 56, For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 11 2: 11 अभिधानसंग्रहः नाम संस्कृतप्राचीनकोशग्रन्थसमुच्चयः । तत्र ( १ ) अमरसिंहकृतं नामलिङ्गानुशासनम् । - काव्यमाला संपादक- पण्डितदुर्गाप्रसाद काशीनाथाभ्याम्, जयपुरराजकीय संस्कृत पाठशालाध्यापकदाधीच पण्डितबद रिनाथात्मजपण्डितशिवदत्तेन च संशोधितम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तच्च शाके १८११ वत्सरे मुम्बय्यां निर्णयसागराख्ययन्त्रालये तदधिपतिना मुद्राक्षरैरङ्कयित्वा प्राकाश्यं नीतम् । मूल्यं ७ आणकाः । For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामलिङ्गानुशासनस्य विषयानुक्रमः । प्रथमं काण्डम् । विषयाः। श्लोकाः। विषयाः । शोकाः । प्रास्ताविक श्लोका: ... ... ... १- ५ __... ... २- ५ ६ शब्दादिवर्गः ६ शब्दादिवगः ... ... ...१५७-१८२ १ स्वर्गवर्गः ... ... ... ... ६-७१ ७ नाट्यवर्गः ... ... ... ...१८३-२२० २ व्योमवर्गः ... ... ... ... ७२-७३ ८. पातालभोगिवर्गः ... ... ...२२१-२३१ ३ दिग्वर्गः ... ... ... ... ७४-१०८ नरकवर्गः ... ... ... ...२३२-२३५ ४ कालवर्ग: ... ... ...१०९-१३९ १० वारिवर्ग: ... ... ...२३६-२७८ ५ धीवर्ग: ... ... ... ...१४०-१५६ काण्डसमाप्तिश्लोकी... ... ...२७९-२८० द्वितीयं काण्डम् । २८१ ६ मनुष्यवर्गः २८२-२९८ ७ ब्रह्मवर्गः ... २९९-३१८ ८ क्षत्रियवर्ग: ... ... ३१९--३२६९ वैश्यवर्ग: ... ... ३२७-४९६ १० शूद्रवर्गः ... ... ४९७-५३९. काण्डसमाप्तिश्लोकः ... ... प्रास्ताविक श्लोकः ... ... १ भूमिवर्गः ... ... ... २ पुरवर्गः ... ... ... ३ शैलवर्गः ... ... ४ वनौषधिवर्गः... ... ५ मिहादिवर्ग: ... ... ... ५४०-६७९ ६८०-७३७ १७३८-८५७ तृतीयं काण्डम् । प्रास्ताविक श्लोकौ ... ... १०१८-१०१९ : ४ अव्ययवर्गः ... ... १४३२-१४५४ १ विशेष्यनिम्नवर्गः ... ... १०२०-११३० ५ लिङ्गादिसंग्रहवर्ग: ... ... १४५५-१५०० २ संकीर्णवर्ग: ... ... ११३१-११७३ काण्डसमाप्ति श्लोकः ... १५०१ ३ नानाव: ११७४-१४३१ For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरसिंहः। अयं नामलिङ्गानुशासनप्रणेतामरसिंहः कदा कुत्र समुत्पन्न इत्यद्यापि न निश्चेतुं शक्यते । तत्र 'धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कु-' इत्यादि नवरत्नश्लोकं ज्योतिर्विदाभरणान्तिमाध्यायस्थं पश्यन्तः स्विस्ताब्दारम्भात्प्राक् प्रथमे शतकेऽमरसिंहसत्तां बहवः समर्थयन्ते । विल्सन्पण्डितः स्वकीयसंस्कृताभिधानस्य (१८१९ मिते ख्रिस्ताब्दे मुद्रितस्य) भूमिकायां पञ्चशतमिते ख्रिस्ताब्देऽमरसिंह आसीदिति स्थिरीकरोति । डॉक्टर केन् नाना विदुषा बृहत्संहितोपोदाते वराहमिहिरामरसिंहौ समकालिको, स्त्रिस्ताब्दीयपष्ठशतकपूर्वार्धसमुद्भुतौ चेति निर्णीतम् । वेबरपण्डितस्तु अमरकोषातिरिक्ताः सर्वेऽपि कोषाः विस्ताब्दीयैकादशद्वादशशतकाधस्तना एव समुपलभ्यन्ते, अतोऽमरकोषोऽपि तेभ्यो नातिप्राचीनो भवितुमर्हतीति 'हिस्टरी ऑव् इण्डियन संस्कृत लिटरेचर' नाम्नि ग्रन्थे वदति । एवं संदिग्ध एवाद्याप्यमरकोषस्य समयः । सांप्रतमुपलभ्यमाने कोषकलापे नैकोऽप्यमरकोपात्प्राचीन इति सर्वसंमतम् । किं त्वासन्केचन कोषा अमरसिंही प्रगपि, 'समाहृत्यान्यतन्त्राणि' इति तदुक्तेः । अयममरसिंहो बौद्ध आसीदित्यनुमीयते, यतोनिमारकोप वलसामान्यनामान्युक्त्वानन्तरं शिवविष्ण्वादिनामान्युपेक्ष्य 'सर्वज्ञः सुगतो बुद्धः' इत्यादि मुद्धतामान्येव वक्तुमुपान्तानि । यथा हेमचन्द्रेण स्वकोपे जिननामानि । वैदिकमतानुयायी ब्राह्मणस्तु कदापि नैवकुर्यात् । अग्निपुराणेऽमरकोषेण प्रायः समानः कोपः समुपलभ्यते । अतोऽग्निपुराणादेवामरसिंहेन समुहृतः संस्कृतश्चेति पुराणश्रद्धालवः । बहुशास्त्रसारभूतमनिपुराणं निर्मित्सुना केनचन विदुषा कोषभागेऽमरकोषादेव सारमुद्धृत्य किंचित्परिवर्त्य स्थापितमिति तु नवीनविज्ञानविकासितबुद्धयः । एवमन्यपुराणेप्वपि दृश्यते । यथा वात्स्यायनीयकामसूत्रस्य भार्याधिकारिकमधिकरणमनुष्टुप्श्लोकवर्धा भविष्यपुराणे समुपलभ्यते । तत्र तत्तद्वन्थकर्तृभिः पुराणेभ्यो विषय उद्धृतः, आहोस्वित्पुराणकर्तृभिस्तत्तद्न्येभ्य इति मंदिग्धम् । सांप्रतमुपलभ्यमानानि पुराणानि तु नाम्नैव पुराणानि, वस्तुतस्त्वर्वाचीनान्येव । तत्राग्रिपुराण इत्यं कोपक्रम:---- ३५९ अध्याय स्वर्गपातालादिवाः । श्लोकाः ८२ अव्ययवर्गाः । नानार्थवर्गाः । भूमिवनौषध्यादिवर्गाः। नृवर्गः । ब्रह्मवर्गः । शत्रविटशूद्रवर्गाः । सामान्यनामलिङ्गानि । , २७ एवमष्टरचध्यायेषु ३५३ श्लोकात्मकः कोषो वर्तते । For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ९ अच्युतोपाध्यायः २ अभिनन्दः ३ अरुणः ४ कलिङ्गः ९ काशीनाथः अमरसिंहः । अमरकोपस्यांतीव प्रचरितत्वात्तत्तदेशेषु टीका अपि भूयस्यस्तस्य पण्डितैः प्रणीता विद्यन्ते । तासां नामानि सर राजा राधाकान्तदेववहादुर मणीतशब्दकल्पद्रुमोपोदाते, आनन्दराम बडुयाभिवेन विदुषा प्रणीते नानार्थसंग्रहोपोद्वाते, मुद्रितेषु नानाविधेषु सूचीपत्रेषु च प्राप्यन्ते । तानि कर्तृनामसमेतानि प्रदर्श्यन्ते । यथा व्याख्याप्रदीपः । ६ कोट को [ला ]हलाचार्यः 6. ८ क्षीरस्वामी ९ गोवर्धनः १० जयादित्यः ११ द्राविड: १२ नयनानन्दः.... १३ नारायणचक्रवर्ती १४ नारायणविद्याविनोदः १५ नारायणवेदान्तवागीशः १६ नीलकण्ठः १७ परमानन्दमैथिलः १८ भगीरथः १९ भरतमलिक : २० भानुजीदीक्षितः (रामाश्रमः) २१ भोजराजः.... www.kobatirth.org २२ मथुरेशविद्यालंकारः २३ मल्लिनाथः.... २४ महादेववेदान्ती (स्वयंप्रकाशशिष्यः) २५ महेश्वरः २६ माघवः २७ मुकुट : (रायमुकुटः ) २८ रघुनाथचक्रवर्ती **** .... .... .... .... Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only काशिका | अमरकोशोद्घाटनम् । कौमुदी ! पदार्थकौमुदी । शब्दार्थसंदीपिका | अमरपञ्जिका । सुबोधिनी । अमरचन्द्रिका | मुग्धबोधिनी । व्याख्यासुधा । सारसुन्दरी (शारदा सुन्दरी) | धमनोहरा (विद्वन्मनोहरा ) । अमरविवेकः । माधवी (मधुमाधवी ? ) । पदचन्द्रिका | त्रिकाण्डचिन्तामणिः । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २९ रमानाथविद्यावाचस्पतिः ३० रमेश्वरः ३१ राजदेवः ३२ रामतर्कवागीशः ३३ रामकृष्णदीक्षितः ३४ रामनाथः ३५ रामप्रसादतकलिंकारः .... २६ रामस्वामी ३७ लिङ्गन्यसूरिः ३८ लोकनाथः . ३९ pe.. .... www.kobatirth.org अमरसिंहः । .... .... For Private and Personal Use Only त्रिकाण्डविवेकः । प्रदीपमञ्जरी । **** Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीयूषम् । datt | ४० शवरस्वामी ४ १ ४२ सर्वधरः ४३ सर्वानन्दः ( वन्दिघाटीयः). ४४ सुभूतिः ४५ सौगतमुनिः ४६ हडचन्द्रः ४७ हरदत्तः एतेषु टीकाकर्तृनामसु कानिचित्संदिग्धानि सन्ति । कानिचिच्च पुनरुक्तान्यपि भान्ति । 1 एतदतिरिक्ताः कर्णाट-काश्मीर-तिबेट-तेलङ्ग-महाराष्ट्रादिभाषानिबद्धास्तत्तदेशोपयोगिन्योऽन्या अप्यमरकोपटीका वर्तन्ते | अमरकोषमपहायान्यः कोऽपि ग्रन्थोऽमरसिंहप्रणीतों नोपलभ्यते । मुकुटस्तु स्वटीकायां बृहदमरकोपमपि मुहुः स्मरति । सोऽप्यमरसिंहप्रणीत एव स्यादिति प्रतीयते । अथ च बौद्धश्रीधरदाससंकलिते सदुक्तिकर्णामृते 'प्रयोगव्युत्पत्तौ प्रतिपदविशेषार्थकथने प्रसत्तौ गाम्भीर्ये रसवति च काव्यार्थरचने । अगम्यायामन्यैदिशि परिणतेरर्थवचसोर्मतं चेदस्माकं कविरमरसिंहो विजयते ||' इत्यमरसिंहप्रशंसापद्यं शालिकनाथनाम्ना समुद्धृतमस्ति । अथ च 'असंज्ञाः खल्वेते जलशिखिमरुडूमनिचयाः प्रकृत्या गर्जन्ति त्वयि तु भुवनं निर्मदमदः । प्रसीद प्रारम्भाद्विरम विनयेथाः क्रुधमिमं हरे जीमूतानां ध्वनिरयमुदीर्णो न करिणाम् ॥ कुचौ धत्तः कम्पं निपतति कपोलः करतले निकामं निःश्वासः सरलमलकं ताण्डवयति । दृशः सामर्थ्यानि स्थगयति मुहूर्बाप्पसलिलं प्रपञ्चोऽयं किंचित्तव सखि हृदिस्थं कथयति ॥ तोयं निर्मथितं वृताय मधुने निप्पीडितः प्रस्तरः पानार्थ मृगतृष्णिकोर्मितरला भूमिः समालोकिता । दुग्धा सेयमचेतनेन जरती दुग्धाशया सूकरी कष्टं यत्खलु दीया धनतृषा नीचो जनः सेवितः ॥ ये कल्लोलैश्विरमनुगता दक्षिणस्याम्बुराशेः पीतोच्छिष्टास्तदनु पदविवृतिः । पदमञ्जरी । व्याख्यामृतम् । संदेहभञ्जिका । टीकासर्वस्वम् । 0000 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरसिंहः । मलये भागिभिश्चन्दनस्थैः । अन्तर्धान्ताः प्रतिकिसलयं पुष्पितानां लतानां संप्राप्तास्ते विरहशिखिनी गन्धवाहाः सहायाः ॥ सोऽनङ्गः कुसुमानि पञ्च विशिखाः पुष्पाणि बाणासनं स्वच्छन्दच्छिदुरा मधुव्रतमयी पङ्क्तिगुणः कामुके। एतत्साधन उत्सहेत स जगजेतुं कथं मन्मथस्तस्यामोघममूर्भवन्ति नहि चेदत्रं कुरङ्गीदृशः ॥' एतत्पद्यपञ्चकमपि तत्रैवामरसिंहनाम्ना समुद्धृतमस्ति । तेन किमपि काव्यमप्यमरसिंहेन प्रणीतं स्यात् । अथवा काव्यकर्ता कश्चिदन्योऽप्यमरसिंहः स्यादित्यपि भाति । काव्यकल्पलता-बालभरतयोः कर्ता त्वमरचन्द्रः श्वेताम्बरजैनोऽत्यर्वाचीनश्चेत्यपि ज्ञेयम् । अस्माभिस्त्वत्र क्षीरस्वामि-मुकुट-भानुदीक्षित-वेदान्तिमहादेवकृतटीकाभ्योऽमरकोषोद्घाटन-पदचन्द्रिका-व्याख्यासुधा-बुधमनोहराभ्य एव पाठान्तराणि धृतानि सन्तीति ज्ञेयम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org || T: || अभिधानसंग्रहः । ( १ ) अमरसिंहकृतं नामलिङ्गानुशासनम् । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथमं काण्डम् | ७ ९. यस्य ज्ञानदयासिन्धोरगाधस्यानघा गुणाः । सेव्यतामक्षयों धीराः सश्रिये चामृताय च ॥ समाहृत्यान्यतन्त्राणि संक्षिप्तैः प्रतिसंस्कृतैः । संपूर्णमुच्यते वगैर्नामलिङ्गानुशासनम् ॥ प्रायशो रूपभेदेन साहचर्याच्च कुत्रचित् । स्त्रीपुंनपुंसकं ज्ञेयं तद्विशेषविधेः कचित् ॥ भेदाख्यानाय न द्वन्द्वो नैकशेषो न संकरः । कृतोऽत्र भिन्नलिङ्गानामनुक्तानां क्रमादृते ॥ त्रिलिङ्गयां त्रिष्विति पदं मिथुने तु द्वयोरिति । निषिद्धलिङ्गं शेषार्थं त्वन्तायादि न पूर्वभाक् ॥ स्वरत्र्ययं स्वर्गनाकत्रिदिवत्रिदशालयाः । सुरलोको द्योदिवौ द्वे स्त्रियां क्लीवे त्रिविष्टपम् || अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुराः । सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः ॥ आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः । आदित्या ऋभवोऽस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः || ८ बहिर्मुखाः क्रतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः । वृन्दारका दैवतानि पुंसि वा देवताः स्त्रियाम् ॥ आदित्यविश्ववस वस्तुषिताभास्वरानिलाः । महाराजिकसाध्याश्च रुद्राश्च गणदेवताः || विद्याधराप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिंनराः । पिशाचो गुह्यकः सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ॥ असुरा दैत्यदैतेयदनुजेन्द्रारिदानवाः | शुक्रशिष्या दितिसुताः पूर्वदेवाः सुरद्विषः ॥ सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराजस्तथागतः । समन्तभद्रो भगवान्मारजिल्लेोकजिज्जिनः ।। षडभिज्ञो दशबलोऽद्वयवादी विनायकः । मुनीन्द्रः श्रीघनः शास्ता मुनिः शाक्यमुनिस्तु यः || १४ स शाक्यसिंहः सर्वार्थसिद्धः शौद्धोदनिश्च सः । गौतमश्चाबन्धुच मायादेवीसुतञ्च सः ॥ १५ ब्रह्मात्मभूः सुरज्येष्ठः परमेष्ठी पितामहः । हिरण्यगर्भो लोकेशः स्वयंभूश्चतुराननः || धाताब्जयोनिर्दुर्हिणो विरिभिः कमलासनः । स्रष्टा प्रजापतिर्वेधा विधाता विश्वसृविधिः ॥ विष्णुर्नारायणः कृष्णो वैकुण्ठो विष्टरश्रवाः । दामोदरो हृषीकेशः केशवो माधवः स्वभूः || १८ दैत्यारिः पुण्डरीकाक्षो गोविन्दो गरुडध्वजः । पीताम्बरोऽच्युतः शार्ङ्ग विष्वक्सेनो जनार्दनः ।। १९ १.३ १६ १७ For Private and Personal Use Only ፃ ३ ४ १० १.१ १२ १ ‘त्रिपिष्टपम्'. २ ‘दिवोकस: ' ३ 'गीर्वाणाः ' ४ 'आसुरा: ' ५ ' बुध: ' ६ 'द्रुघण: ' ७ 'विरिञ्चः', ८ एतदग्रे 'नाभिजन्माण्डजः पूर्वोऽनिधनः कमलोद्भवः । सदानन्दो रजोमूर्तिः सत्यको हंसवाहनः ॥' इति प्रक्षिप्तं क्वचित. ९ ' नरायणः. १० 'विश्वक्सेनः '. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रह :- १ नामलिङ्गानुशासनम् । २५ २६ २७ १२ २८ २९ उपेन्द्र इन्द्रावरजश्चक्रपाणिञ्चतुर्भुजः । पद्मनाभो मधुरिपुर्वासुदेवस्त्रिविक्रमः ॥ देवकीनन्दनः शौरिः श्रीपतिः पुरुषोत्तमः । वनमाली बलिध्वंसी कंसारातिरधोक्षजः ॥ विश्वंभरः कैटभजिद्विधुः श्रीवत्सलाञ्छनः । वसुदेवोऽस्य जनकः स एवानकदुन्दुभिः || बलभद्रः प्रलम्बन्नो बलदेवोऽच्युताग्रजः । रेवतीरमणो रामः कामपालो हलायुधः || नीलाम्बरो रौहिणेयस्तालाङ्को मुसली हली । संकर्षणः सीरपाणिः कालिन्दीभेदनो बलः ॥ मदनो मन्मथो मारः प्रद्युम्नो मीनकेतनः । कंदर्पो दर्पकोऽनङ्गः कामः पञ्चशरः स्मरः ॥ शम्बरारिर्मनसिजः कुसुमेषुरनन्यजः । पुष्पधन्वा रतिपतिर्मकरध्वज आत्मभूः ॥ ब्रह्मसूर्विश्वकेतुः स्यादनिरुद्ध उषापतिः । लक्ष्मीः पद्मालया पद्मा कमला श्रीहरिप्रिया शङ्खो लक्ष्मीपतेः पाञ्चजन्यश्चकं सुंदर्शनः । कौमोदकी गदा खड्डो नन्दकः 1 कौस्तुभ मणिः || ' गरुत्मान्गरुडस्ताक्ष्र्क्ष्यो वैनतेयः खगेश्वरः । नागान्तको विष्णुरथः सुपर्णः पन्नगाशनः ॥ शंभुरीशः पशुपतिः शिवः शूली महेश्वरः । ईश्वरः शर्व ईशानः शंकरश्चन्द्रशेखरः ॥ भूतेशः खण्डपरशुर्गिरीशो गिरिशी मृडः । मृत्युंजयः कृत्तिवासाः पिनाकी प्रमथाधिपः ॥ उग्रः कपर्दी श्रीकण्ठः शितिकण्ठः कपालभृत् । वामदेवो महादेवो विरूपाक्षस्त्रिलोचनः || कृशानुरेताः सर्वज्ञो धूर्जटिर्नीललोहितः । हरः स्मरहरो मँर्गरूयम्बकस्त्रिपुरान्तकः ॥ गङ्गाधरोऽन्धकरिपुः ऋतुध्वंसी वृषध्वजः । व्योमकेशो भवो भीमः स्थाणू रुद्र उमापतिः || कपर्दोऽस्य जटाजूटः पिनाकोऽजैगवं धनुः । प्रमथाः स्युः पारिषदा श्रीयायास्तु मातरः || विभूतिर्भूतिरैश्वर्यमणिमादिकमष्टधा । उमा कात्यायनी गौरी कौली हैमवतीश्वरा ॥ शिव भवानी रुद्राणी शर्वाणी सर्वमङ्गला । अपर्णा पार्वती दुर्गा मृडानी चण्डिकाम्बिका || ३७ विनायको विनराज द्वैमातुरगणाधिपाः । अप्येकदन्तहेरम्बलम्बोदरगजाननाः || कार्तिकेयो महासेनः शरजन्मा षडाननः । पार्वतीनन्दनः स्कन्दः सेनानीरग्निभूगुहः ॥ बाहुले यस्तारकजिद्विशाखः शिखिवाहनः । पाण्मातुरः शक्तिधरः कुमारः क्रौञ्चदारणः इन्द्रो मरुत्वान्मघवा विंडोजाः पाकशासनः । वृद्धश्रवाः सुनासीर: पुरुहूतः पुरंदरः ॥ जिष्णुर्लेखर्षभः शक्रः शतमन्युर्दिवस्पतिः । सुत्रामा गोत्रभित्री वासवो वृत्रहा वृषा ॥ 18 ३६ ३८ ३९ ४० ४१ ४२ For Private and Personal Use Only ९ २४ २० २१ २२ २३ २४ ३१ ३२. ३३ ३४ ३५ १ 'दैवकीनन्दनः '. २ 'सौरिः' ३ 'श्रीवत्सोऽपि' इति मुकुटः ४ एतदग्रे 'पुराणपुरुषो यज्ञपुरुपो नरकान्तकः । जलशायी विश्वरूपो मुकुन्दो मुरमर्दनः ।।' इति प्रक्षिप्तम् ५ 'मुपली' ६ 'संवरारि : '. ७ कचित् 'ऋश्यकेतु:' इति पाठ:- इति मुकुटः 'विश्वकेतुः' इत्यपपाठ:- इति क्षीरस्वामी. ८ 'ऊपापति: ' ९ एतदग्रे 'इन्दिरा लोकमाता मा क्षीरोदतनया रमा । भार्गवी लोकजननी क्षीरसागरकन्यका ||' इति प्रक्षिप्तम् १० 'सुदर्शनः पुंसि' इति क्षीरस्वामी, 'क्लीवत्वं च' इति मुकुटः ११ संहितामु मेण्ठादौ 'कौमोदकी' इति पाठ:इति स्वामी. १२ एतदग्रे 'चापः शार्ङ्ग मुरारेस्तु श्रीवत्सो लाञ्छनं स्मृतम् । अश्वाश्च शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः || सारथिर्दारुको मन्त्री युद्धवश्चानुजो गदः ||' इति प्रक्षिप्तम् १३ 'सर्व:' १४ 'खण्डपर्शः '. १५ 'भ: '. १६ एतदग्रे 'अहिर्बुध्योऽष्टमूर्तिश्च गजारिश्व महानटः' इति प्रक्षिप्तम्. १७ ‘अजकवम्', 'आजगवम्', 'अजकrवम्' १८ 'पारिषद्याः' १९ 'ब्रह्माण्याद्या:' इति स्वामिसंमतः पाठः २० 'काला' २१ 'ईश्वरी'. २२ 'पुंयोगे शिवी' इति स्वामी. २३ एतदग्रे 'आर्या दाक्षायणी चैव गिरिजा मेनकात्मजा' इति प्रक्षिप्तम्. २४ एतदग्रे 'शृङ्गी भृङ्गी रिटिस्तुण्डी नन्दिको नन्दिकेश्वरः । कर्ममोटी तु चामुण्डा चर्ममुण्डा तु चर्चिका || ' इति प्रक्षिप्तम् २५ 'विडोजा : '. २६ 'शुनाशीरः', 'शुनासीर:' २७ 'सुत्रामा'. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ काण्डम् – १ स्वर्गवर्गः । ४३ ४४ ४५ ४६ ૪૮ ४९ ५० ५१ ५३ ५६ वास्तोष्पतिः सुरपतिर्बलारातिः शचीपतिः । जम्भभेदी हरिहयः स्वाराण्नमुचिसूदनः ॥ संक्रन्दनो दुयवनस्तुरापाण्मेघवाहनः । आखण्डलः सहस्राक्ष ऋभुक्षास्तस्य तु प्रिया ॥ पुलोमजा शचीन्द्राणी नगरी त्वमरावती । हय उच्चैःश्रवाः सूतो मातलिर्नन्दनं वनम् || स्यात्प्रासादो वैजयन्तो जयन्तः पाकशासनिः । ऐरावतोऽभ्रमातङ्गैरावणाभ्रमुवल्लभाः ॥ हादिनी वज्रमस्त्री स्यात्कुलिशं भिदुरं पविः । शतकोटिः स्वरुः शैम्बो दम्भोलिरशनिर्द्वयोः || ४७ व्योमयानं विमानोऽस्त्री नारदाद्याः सुरर्षयः । स्यात्सुधर्मा देवसभा पीयूषममृतं सुधा ॥ मन्दाकिनी वियद्गङ्गा स्वर्णदी सुरदीर्घिका । मेरुः सुमेरुर्हेमाद्री रत्नसानुः सुरालयः ॥ चैते देवतरवो मन्दारः पारिजातकः । संतानः कल्पवृक्षश्च पुंसि वा हरिचन्दनम् ॥ सनत्कुमारो वैवात्रः स्वर्वैद्यावश्विनीसुतौ । नासत्यावश्विनौ दस्रावाश्विनेयौ च तावुभौ || स्त्रियां बहुष्वप्सरसः स्वर्वेश्या उर्वशीमुखाः । हाहा है चैवमाद्या गन्धर्वास्त्रिदिवौकसाम् ॥ ५२ अग्निर्वैश्वानरो वह्निर्वीतिहोत्रो धनंजयः । कृपीटयोनिर्ज्वलनो जातवेदास्तनूनपात् ॥ वहिः शुष्मा कृष्णवर्त्मा शोचिष्केश उपर्युधः । आश्रयाशो बृहद्भानुः कृशानुः पावकोऽनलः ॥५४ रोहितावो वैगुसखा शिखावानाशुशुक्षणिः । हिरण्यरेता हुतभुग्दहनो हव्यवाहनः || ५५ सप्ताचिर्दर्मुनाः शुक्रश्चित्रभानुर्विभावसुः । शुचिरपित्तमौर्वस्तु वाडवो वडवानलः || वह्नेर्द्वयोज्वलकीलोवर्चिर्हेतिः शिखा स्त्रियाम् । त्रिषु स्फुलिङ्गोऽग्निकणः संतापः संज्वरः समौ ॥ ३५७ धर्मराजः पितृपति: समवर्ती परेतराट् । कृतान्तो यमुनाभ्राता शमनो यमराज्यमः ॥ कालो दण्डधरः श्राद्धदेवो वैवस्वतोऽन्तकः । राक्षसः कौणपः क्रव्यात्क्रव्यादोऽरूप आशरः ॥५९ रात्रिचरो रात्रिचरः कर्बुरो निकषात्मजः । यातुधानः पुण्यजनो नैर्ऋतो यातुरक्षसी ॥ प्रचेता वरुणः पाशी यादसांपतिरप्पतिः । श्वसनः स्पर्शनो वायुर्मातरिश्वा सदागतिः || पृषदश्वो गन्धवहो गन्धवाहानिलाशुगाः । समीरमारुतमरुज्जैगत्प्राणसमीरणाः ॥ नभस्वद्वैतिपवनपवमानप्रभञ्जनाः । " प्राणोऽपानः समानश्च दानव्यानौ च वायवः ॥ शरीरस्था इमे रंहस्तरसी तु रयः स्यदः । जवोऽथ शीघ्रं लरितं लघु क्षिप्रमरं द्रुतम् ॥ सत्वरं चपलं तूर्णमविलम्बितमाशु च । सततानारताश्रान्तसंतताविरतानिशम् || नित्यानवरताजस्रमप्यथातिशयो भरः । अतिवेलभृशात्यर्थातिमात्रोद्गाढनिर्भरम् || तत्रैकान्तनितान्तानि गाढवाढद्ददानि च । कीवे शीघ्राद्यसत्त्वे स्यात्रिष्वेषां सत्त्वगामि यत् ॥ ६७ कुबेरख्यम्बकसखो यक्षराङ्गुह्यकेश्वरः । मनुष्यधर्मा धनदो राजराजो धनाधिपः || किंनरेशो वैश्रवणः पौलस्त्यो नरवाहनः । यक्षैकपिङ्गैलविलश्रीदपुण्यजनेश्वराः ॥ अस्योद्यानं चैत्ररथं पुत्रस्तु नलकूबरः । कैलासः स्थानमलका पूर्विमानं तु पुष्पकम् ॥ 93 ५८ ६० ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ૬૮ ६९ For Private and Personal Use Only ३ ६१ ७० १ 'शचिः', 'सचिः', 'सची' २ 'सम्बः ' ३ नान्तः, आयन्तोऽपि ४ 'हाहस', 'हा' ५ 'हुहु:'. ६ शत्रन्तोऽपि, 'दान्त:' इति रामदासटीका ७ इदन्तः, सान्तोऽपि, समस्तं नान्तम् ८ अदन्तोऽपि ९ 'आशयाशोऽपि १० 'वायुसखोऽपि' ११ 'दमूना: १. १२ सान्ता, इदन्तापि . १३ एतदग्रे 'उल्का स्यान्निर्गतज्वाला भृतिर्भसितभस्मनि । आरो रक्षा च दावस्तु दवो वनहुताशनः ||' इति प्रक्षिप्तम् १४ दन्त्यमध्यः, तालव्यमध्योऽपि १५ 'जगत्-प्राणी' पृथगपि १६ 'वातिरपि ' १७ एतदग्रे 'प्रकम्पनो महावातो झञ्झावातः टिक:' इति प्रक्षितम्. १८ 'भेद्यगामि' Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ अभिधानसंग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् । स्यात्किनरः किंपुरुषस्तुरंगवदनो मयुः । निधिर्ना शेवधिर्भेदाः पद्मशङ्खादयो निधेः ॥ इति स्वर्गवर्गः ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir afrat हे स्त्रियामभ्रं व्योम पुष्करमम्बरम् । नमोऽन्तरीक्षं गगनमनन्तं सुरवर्त्म खम् ॥ विद्विष्णुपदं वा तु पुंस्याकाशविहायसी ॥ こ इति व्योमवर्गः ।। २ ॥ ७१ For Private and Personal Use Only ७२ ७३ ७५ ७६ ७७ ७९ दिशस्तु ककुभः काष्ठा आशाच हरितश्च ताः । प्राच्यवाचीप्रतीच्यस्ताः पूर्वदक्षिणपश्चिमाः ॥ ७४ उत्तरा दिगुदीची स्याद्दिश्यं तु त्रिषु दिग्भवे । इन्द्रो वह्निः पितृपतिर्नैर्ऋतो वरुणो मरुत् || कुबेर ईशः पतयः पूर्वादीनां दिशां क्रमात् । ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः ॥ पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः । करिण्योऽभ्रमुकपिलापिङ्गलानुपमाः क्रमात् ॥ ताम्रकर्णी शुभ्रदन्ती चाङ्गना चाञ्जनावती । क्लीवाव्ययं त्वपदिशं दिशोर्मध्ये विदिक्स्त्रियाम् ॥ ७८ 1 अभ्यन्तरं त्वन्तरालं चक्रवालं तु मण्डलम् । अभ्रं मेघो वारिवाहः स्तनयित्नुर्बलाहकः ॥ धाराधरो जलधरस्तडित्वान्वारिदोऽम्बुभृत् । घनजीमूतमुदिरजलमुग्धूमयोनयः ॥ कादम्बिनी मेघमाला त्रिषु मेघभवेऽभ्रियम् । स्तनितं गर्जितं मेघनिर्घोषे रसितादि च || पाशतह्रदाह्रादिन्यैरावत्यः क्षणप्रभा । तडित्सौदामनीविद्युच्चञ्चलाचपला अपि ॥ स्फूर्जथुर्वज्रनिर्घोषो मेघज्योतिरिरंमदः । इन्द्रायुधं शक्रधनुस्तदेव ऋजुरोहितम् ॥ वृष्टिर्वर्षे तद्विघातेऽवग्राहायग्रहौ समौ । धारासंपात आसारः शीकरोऽम्बुकणाः सृताः || वर्षोपलस्तु करका मेघच्छन्ने दुर्दिनम् । अन्तर्धा व्यवधा पुंसि त्वन्तर्धिरपवारणम् ॥ अपिधानतिरोधानपिधानाच्छादनानि च । हिमांशुश्चन्द्रमाश्चन्द्र इन्दुः कुमुदबान्धवः ॥ विधुः सुधांशुः शुभ्रांशुरोषधीशों निशापतिः । अब्जो जैवातृकः सोमो ग्लौर्मृगाङ्कः कलानिधिः८७ द्विजराजः शशधरो नक्षत्रेशः क्षपाकरः । कला तु षोडशो भागो बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिषु ॥ ८८ भित्तं शकलखण्डे वा पुंस्यर्थोऽसमें शके । चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना प्रसादस्तु प्रसन्नता || ८९ कलङ्काङ्कौ लाञ्छनं च चिह्नं लक्ष्म च लक्षणम् | सुषमा परमा शोभा शोभा कान्तिद्युतिश्छविः ९० अवश्यायस्तु नीहारस्तुषारस्तुहिनं हिमम् । प्रालेयं मिहिका चाथ हिमानी हिमसंहतिः ॥ ९१ शीतं गुणे तदर्थाः सुपीमः शिशिरो जडः । तुषार : शीतलः शीतो हिमः सप्तान्यलिङ्गकाः ||९२ ध्रुव औत्तानपादिः स्यादगस्त्यः कुम्भसंभवः । मैत्रावरुणिरस्यैव लोपामुद्रा सधर्मिणी || नक्षत्रमृक्षं भं तारा तारकाप्युड्डु वा स्त्रियाम् । दाक्षायण्योऽश्विनीत्यादितारा अवयुगश्विनी ॥ ९४ राधा विशाखा पुष्ये तु सिध्यतिष्यौ श्रविष्टया । समा धनिष्ठाः स्युः प्रोष्ठपदा भाद्रपदाः स्त्रियः ।। ९५ मृगशीर्ष मृगशिरस्तस्मिन्नेवाग्रहायणी । ईल्वलास्तच्छिरोदेशे तारका निवसन्ति याः || ९.३ ९६ ८० ८१ ८३ ८४ ८५ ८६ १ 'अन्तरिक्षम्'. २ एतदग्रे 'विहायसोऽपि नाकोऽपि युरपि स्यात्तदव्ययम् । तारापथोऽन्तरिक्षं च मेघाध्वा च महाविलम् ||' इति प्रक्षितम् ३ 'अपाची'. ४ एतदग्रे 'अवाग्भवमवाचीनमुदीचीनमुदग्भवम् । प्रत्यग्भवं प्रतीचीनं प्राचीनं प्राग्भवं त्रिषु ॥' इति प्रक्षिप्तम् ५ एतदग्रे 'रविः शुक्रो महीसूनुः स्वर्भानुर्भानुजो विधु: । बुधो वृहस्पतिश्चेति दिशां चैव तथा ग्रहाः ॥' इति प्रक्षिप्तम् ६ 'शस्त्रा' इति प्राच्या:--इति स्वामी. ७ 'निष्पेषः '. ८ 'चन्द:'. ९ सोमा' नान्तोऽपि १० 'इन्का:' इति स्वामी. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ काण्डम् – ४ कालवर्ग: । १०० १०१ १०२ बृहस्पतिः सुराचार्यो गीतिर्विषणो गुरुः । जीव आङ्गिरसो वाचस्पतिश्चित्रशिखण्डिजः || ९७ शुक्रो दैत्यगुरुः काव्य उशना भार्गवः कविः | अङ्गारकः कुजो भौमो लोहिताङ्गो महीसुतः || ९८ रौहिणेयो बुधः सौम्यः समौ सौरिशनैश्चरौ । तमस्तु राहुः स्वर्भानुः सैंहिकेयो विधुंतुदः ॥ ९९ सप्तर्षयो मरीच्यत्रिमुखाचित्रशिखण्डिनः । राशीनामुदयो लग्नं ते तु मेषवृषादयः ॥ सूरसूर्यार्यमादित्यद्वादशात्मदिवाकराः । भास्कराहस्करत्रघ्नप्रभाकरविभाकराः ॥ भास्वद्विवस्वत्सप्ताश्रहरिदश्वोष्णरश्मयः । विकर्तनार्क मार्तण्डमिहिगरुणपूषणः ॥ द्युमणिस्तरणिर्मित्रचित्रभानुर्विरोचनः । विभावसुर्ब्रहपतिस्त्विषांपतिरहुतिः || भानुर्हेसः सहस्रांशुस्तपनः सविता रविः । माठरः पिङ्गलो दण्डश्रण्डांशी: पारिपार्श्विकाः || १०४ सूरसृतोऽरुणोऽनूरुः काश्यपिर्गरुडाग्रजः । परिवेषस्तु परिधिरुपसूर्यकमण्डले || १०५ किरणोत्रमयूखांशुगभस्तिघृणिश्रयः । भानुः करो मरीचिः स्त्रीपुंसयोर्दीधितिः स्त्रियाम् ॥ १०६ स्युः प्रभारुररुचिस्विड्भाभाइछविद्युतिदीप्तयः । रोचिः शोचिरुभे क्लीवे प्रकाशो द्योत आतपः १०७ कोष्णं कवोष्णं मन्दोष्णं कदुष्णं त्रिषु तद्वति । तिग्मं तीक्ष्णं खरं तद्वन्मृगतृष्णा मरीचिका || १०८ इति दिग्वर्गः ॥ ३ ॥ १०३ ७. G १११ ११४ १५ कालो दिष्टोऽप्यनेहापि समयोऽप्यथ पक्षतिः । प्रतिपद्वे इमे स्त्रीत्वे तदाद्यास्तिथयो द्वयोः ॥ १०९ बस्स्रो दिनानी वा तु क्लीबे दिवसवासरौ । प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यमुपः प्रत्युपसी अपि ॥ ११० प्रभातं च दिनान्ते तु साय: संध्या पितृप्रसूः । प्राह्णापराह्नमध्याह्नास्त्रिसंध्यमथ शर्वरी ॥ निशा निशीथिनी मंत्रित्रियामा क्षणदा क्षपा | विभावरीतमखिन्यौ रजनी यामिनी तभी ।। ११२ तमिस्रा तामसी रात्रिज्यत्स्त्री चन्द्रिकयान्विता । आगामिवर्तमानायुक्तायां निशि पक्षिणी ।। ११३ गणरात्रं निशा बहुत्रः प्रदोषो रजनीमुखम् । अर्धरात्रनिशीथौ द्वौ द्वौ यामप्रहरौ समौ ॥ स पर्वसंधिः प्रतिपत्पञ्चदश्योर्यदन्तरम् । पक्षान्तौ पञ्चदश्यौ द्वे पौर्णमासी तु पूर्णिमा || कलाहीने सानुमतिः पूर्णे का निशाकरे | अमावास्या त्वमावस्या दर्शः सूर्येन्दुसंगमः || सा दृष्टेन्दुः सिनीवाली सा नष्टेन्दुकला कुद्धः । उपरागो महो राहुग्रस्ते लिन्दौ च पूष्णि च ॥ १.१७ सोपप्लवोपरक्तौ द्वावन्युत्पात उपाहितः । एकयोक्त्या पुष्पवन्तौ दिवाकरनिशाकरौ ॥ अष्टादश निमेषास्तु काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला । तास्तु त्रिंशत्क्षणस्ते तु मुहूर्तो द्वादशास्त्रियाम् ११९ ते तु त्रिंशदहोरात्रः पक्षस्ते दश पञ्च च । पक्षौ पूर्वापरी शुक्लकृष्णौ मासस्तु तावुभौ || द्वौ द्वौ मार्गादिमासौ स्यादृतुस्तैरयनं त्रिभिः । अयने द्वे गतिरुदग्दक्षिणार्कस्य वत्सरः || समरात्रिंदिवे काले विषुवद्विपुत्रं च तत् । मार्गशीर्षे सहा मार्ग आग्रहायणिकच सः ॥ १.१६ ११८ १२० १२१ 13 १२२ For Private and Personal Use Only १ 'शूर: ' तालव्यादिरपि २ मार्ताण्ड : ' ३ 'तापनः ४ एतदग्रे 'पद्माक्षस्तेजसां राशिश्छायानाथस्तमित्रहा । कर्मसाक्षी जगच्चक्षुलोकबन्धुत्रयीतः ॥ प्रद्योतनो दिनमणिः खद्योती लोकवान्धव: । इनो भागो धार्मानिधियांमायब्जिनीपतिः ||' इति प्रक्षितम. ५ 'काश्यपः' इति सभ्यः पाठः इति श्रीरस्वामी. ६ 'वृष्णिः ' इत्येके - इति स्वामी, 'श्रृष्णिः' इति मुकुटः प्रक्षिप्तम. ८ निर्यकारपि. ९ 'शार्वरी' ७ एतद व्यु विभातं हे क्लीने पुंसि गोसर्ग इष्यते इति १० 'रात्री. ११ 'रजनि:' १२ 'तमा'. १३ एतदग्रे 'पुण्ययुक्त पौर्णमासी पौपी मासे तु यत्र सा । नाम्ना स पौपा मात्राद्याश्रवमेकादशापरे ||' इति प्रक्षितम् Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । पौषे तैषसहस्यौ द्वौ तपा माघेऽथ फाल्गुने । स्यात्तपस्यः फाल्गुनिकः स्याञ्चैत्रे चैत्रिको मधुः।।१२३ वैशाखे माधवो राधो ज्यैष्टे शुक्रः शुचिस्त्वयम् । आषाढे श्रावणे तु स्यान्नभाः श्रावणिकश्च सः १२४ सुगुर्नभस्यप्रौष्टपदभाद्रभाद्रपदाः समाः । स्यादाश्विन इषोऽप्याश्वयुजोऽपि स्यात्तु कार्तिके ॥ १२५ बाहुलोर्जी कार्तिकिको हेमन्तः शिशिरोऽस्त्रियाम् । वसन्ते पुष्पसमयः सुरभिीष्म उष्मकः॥१२६ निदाघ उष्णोपगम उष्ण ऊष्मागमस्तपः । स्त्रियां प्रावृट् स्त्रियां भूम्नि वर्षा अथ शरत्स्त्रियाम्॥१२७ षडमी ऋतवः पुंसि मार्गादीनां युगैः क्रमात् । संवत्सरो वत्सरोऽब्दो हायनोऽस्त्री शरत्समाः१२८ मासेन स्यादहोरात्रः पैत्री वर्षेण दैवतः । दैवे युगसहस्रे द्वे ब्राह्मः कल्पौ तु तौ नृणाम् ।। १२९ मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः । संवतः प्रलयः कल्पः क्षयः कल्पान्त इत्यपि ॥ १३० अस्त्री पङ्क्ष पुमान्पाप्मा पापं किल्बिषकल्मषम् । कलुषं वृजिनैनोऽघमंहोदुरितदुष्कृतम् ॥ १३१ स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः । मुत्प्रीतिः प्रमदो हर्षः प्रमोदामोदसंमदाः ॥ १३२ स्यादानन्दथुरानन्दः शर्मसातसुखानि च । श्वःश्रेयसं शिवं भद्रं कल्याणं मङ्गलं शुभम् ॥ १३३ भावुकं भविकं भव्यं कुशलं क्षेममस्त्रियाम् । शस्तं चाथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं सुखादि च ॥१३४ मतल्लिका मचर्चिका प्रकाण्डमुद्धतल्लजौ । प्रशस्तवाचकान्यमून्ययः शुभावहो विधिः ॥ १३५ दैवं दिष्टं भागधेयं भाग्यं स्त्री नियतिविधिः । हेतुर्ना कारणं बीजं निदानं वादिकारणम् ॥ १३६ क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः प्रधान प्रकृतिः स्त्रियाम् । विशेष: कालिकोऽवस्था गुणाः सत्त्वं रजस्तमः१३७ जनुर्जननजन्मानि जनिरुत्पत्तिरुङ्गवः । प्राणी तु चेतनो जन्मी जन्तुजन्युशरीरिणः ॥ १३८ जातिर्जातं च सामान्य व्यक्तिस्तु पृथगात्मता | चित्तं तु चेतो हृदयं स्वान्तं हृन्मानसं मनः॥१३९ ___ इति कालवर्गः ॥ ४॥ बुद्धिर्मनीषा धिषणा धीः प्रज्ञा शेमुषी मतिः । प्रेक्षोपलब्धिश्चित्संवित्प्रतिपज्ज्ञप्तिचेतनाः ॥ १४० धीर्धारणावती मेधा संकल्पः कर्म मानसम। चित्ताभांगो मनस्कारश्चर्चा संख्या विचारणा ॥१४१ अध्याहारस्तर्क हो विचिकित्सा तु संशयः । संदेह द्वापरौ चाथ समौ निर्णयनिश्चयौ ॥ १४२ मिथ्यादृष्टिर्नास्तिकता व्यापादो द्रोहचिन्तनम् । समौ सिद्धान्तराद्धान्तौ भ्रान्तिमिथ्यामतिभ्रमः१४३ मंविदागृ: प्रतिज्ञानं नियमाश्रवसंश्रवाः । अङ्गीकाराभ्युपगमप्रतिश्रवसमाधयः ।। १४४ मोक्षे धीझनमन्यत्र विज्ञानं शिल्पशास्त्रयोः । मुक्तिः कैवल्यनिर्वाणश्रेयोनिःश्रेयसामृतम् ॥ १४५ मोक्षोऽपवर्गोऽथाज्ञानमविद्याहंमतिः स्त्रियाम् । रूपं शब्दो गन्धरसस्पर्शाश्च विषया अमी ॥ १४६ गोचरा इन्द्रियाश्चि हृषीकं विषयीन्द्रियम् । कर्मेन्द्रियं तु पाय्यादि मनोनेत्रादि धीन्द्रियम्।।१४७ तुर्वरस्तु कषायोऽस्त्री मधुरो लवणः कटुः । तितोऽम्बलश्च रसाः पुंसि तद्वत्सु षडमी त्रिषु ॥१४८ विमर्दोत्थे पग्मिलो गन्धे जनमनोहरे । आमोदः सोऽतिनिर्हारी वाच्यलिङ्गत्वमागुणात् ॥ १४९ समाकर्षी तु निहारी सुरभिर्माणतर्पणः । इष्टगन्धः सुगन्धिः स्यादामोदी मुखवासनः ॥ १५० पूतिगन्धिस्तु 'दुर्गन्धो विनं स्यादामगन्धि यत् । शुक्लशुभ्र शुचिश्वेतविशदश्येत पाण्डराः ॥ १५१ १ 'ज्येष्ठः'. २ 'अपाढे'. ३ अदन्तः. ४ 'एनः सान्तम्. ५ तालव्यादिरपि. ६ रज-तमौ' अदन्तावपि. ७ 'जन्मोऽदन्तोऽपि' इत्युणादौ. ८ एतदरे 'अवधानं समाधानं प्रणिधानं तथैव च' इति प्रक्षिप्तम. ९ एतदने 'विमर्शो भावमा चैव वासना च निगद्यते' इति प्रक्षिप्तम, १० 'तूवरः', 'कुवरः . ११ 'व-ल-संयोगवान्' इति मुकुटः, १२ इन्नन्तोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ काण्डम् - ६ शब्दादिवर्गः । अवदातः सितो गौरो वलक्षो धवलोऽर्जुनः । हरिणः पाण्डुरः पाण्डुरीषत्पाण्डुस्तु धूसरः || १५२ कृष्णे नीलासितश्यामकालश्यामलमेचकाः । पीतो गौरो हरिद्राभः पालाशो हरितो हरित् ।। १५३ लोहितो रोहितो रक्तः शोणः कोकनदच्छविः । अव्यक्तरागस्त्वरुणः श्वेतरक्तस्तु पाटलः || १५४ श्यावः स्यात्कपिशो धूम्रधूमलौ कृष्णलोहिते । कडारः कपिलः पिङ्गपिशङ्गौ कडुपिङ्गलौ ॥ १५५ चित्रं किर्मीरकल्माषशबलैताश्च कर्बुरे । गुणे शुक्लादयः पुंसि गुणिलिङ्गास्तु तद्रति ॥ १५६ इति धीवर्गः ॥ ५ ॥ ७ १६० १६२ १६३ ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरखती । व्याहार उक्तिर्लपितं भाषितं वचनं वचः ॥ १५७ अपभ्रंशोऽपशब्दः स्याच्छास्त्रे शब्दस्तु वाचकः । तिङ्सुवन्तचयो वाक्यं क्रिया वा कारकान्विता ।। श्रुतिः स्त्री वेद आम्नायत्री धर्मस्तु तद्विधिः । स्त्रियामृक्सामयजुषी इति वेदास्त्रयस्त्रयी ॥ १५९ शिक्षेत्यादि श्रुतेरङ्गमोंकारप्रणवौ समौ । इतिहासः पुरावृत्तमुदात्ताद्यास्त्रयः स्वराः ॥ 1 आन्वीक्षिकी दण्डनीतिस्तर्कविद्यार्थशास्त्रयोः । आख्यायिकोपलब्धार्था पुराणं पञ्चलक्षणम् || १६१ प्रबन्धकल्पना कथा प्रवह्निका प्रहेलिका । स्मृतिस्तु धर्मसंहिता समाहृतिस्तु संग्रहः ॥ समस्या तु समासार्था किंवदन्ती जनश्रुतिः । वार्ता प्रवृत्तिर्वृत्तान्त उदन्तः स्यादधाह्वयः || आख्या अभिधानं च नामधेयं च नाम च । इतिराकारणाद्दानं संहृतिर्बहुभिः कृता ॥ १६४ विवादो व्यवहारः स्यादुपन्यासस्तु वाङ्मुखम् । उपोद्घात उदाहारः शपनं शपथः पुमान् ॥ १६५ प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च प्रतिवाक्योत्तरे समे । मिथ्याभियोगोऽभ्याख्यानमथ मिथ्याभिशंसनम् १६६ अभिशापः प्रणादस्तु शब्दः स्यादनुरागजः । यशः कीर्तिः समज्या च स्तवः स्तोत्रं नुतिः स्तुतिः || आम्रेडितं द्वित्रिरुक्तमुचैर्बुष्टं तु घोषणा । काकुः स्त्रियां विकारो यः शोक भीत्यादिभिर्ध्वनेः ।। १६८ अवर्णाक्षेपनिर्वादपरीवादापवादवत् । उपकोशो जुगुप्सा च कुत्सा निन्दा च गर्हणे ॥ १६९ पारुष्यमतिवादः स्याद्भर्त्सनं त्वपकारगी: । य: सनिन्द उपालम्भस्तत्र स्यात्परिभाषणम् ॥ १७० तत्र त्वाक्षारणा यः स्यादाकोशो मैथुनं प्रति । स्यादाभाषणमालापः प्रलापोऽनर्थकं वचः ।। १७१ अनुलापो मुहुर्भाषा विलापः परिदेवनम् । विप्रलापो विरोधोक्तिः संलापो भाषणं मिथः ॥ सुप्रलापः सुवचनमपलापस्तु निह्नवः । संदेशवारवाचिकं स्याद्वाग्भेदास्तु त्रिषूत्तरे || १७२ १.७३ १७५ शती वागकल्याणी स्यात्कल्या तु शुभात्मिका । अत्यर्थमधुरं सान्त्वं संगतं हृदयंगमम् || १७४ निष्ठुरं परुषं ग्राम्यमशीलं सूनृतं प्रिये । सत्येऽथ संकुलक्लिष्टे परस्परपराहते || लुप्तवर्णपदं ग्रस्तं निरस्तं त्वरितोदितम् । अम्बूकृतं संनिष्ठेवमँबद्धं स्यार्दनर्थकम् ।। अनक्षरमत्राच्यं स्यादाहतं तु मृषार्थकम् । अथ मिलष्टमविस्पष्टं वितथं त्वनृतं वचः ॥ सत्यं तथ्यमृतं सम्यगमूनि त्रिषु तद्वति । शब्दे निनादनिनदध्वनिध्वानरवखनाः ॥ १.७६ १७७ १७८ For Private and Personal Use Only १ 'गौः' इति पाठ: - इति बुधमनोहरा. २ ‘त्वसमासार्था' इत्यपि पाठः इति तु पूर्वटीकाकाराः । वयं तु 'समासाथी' इति पाटमेव क्षीरस्वामि-दट्टचन्द्र- कोक्कटादौ प्रायेणामरकोषेऽपि दृष्टवन्तः, अतस्तमेव बहु मन्यामहेइति मुकुटः ३ 'समज्ञा' इति मुकुटे पुरुषोत्तमः, 'समाज्ञा' इति स्वामी ४ एतदग्रे 'चोद्यमाक्षेपाभियोगो शापाकोशौ दुरेपणा । अस्त्री चाटु चटु श्लाघा प्रेम्णा मिथ्याविकत्थनम् ॥' इति प्रक्षिप्तम् ५ 'उपती'. ६ 'सनिष्ठीवम्' ७ 'अवध्यम्' ८ 'अपार्थकम् ' ९ एतदग्रे 'सोल्लुण्ठनं तु सोत्प्रासं मणितं रतिकूजितम् । श्राव्यं हृयं मनोहारि विस्पष्टं प्रकटोदितम् ||' इति प्रक्षिप्तम्. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । स्वाननि?षनिहीदनादनिस्वाननिस्वनाः । आरवारावसंरावविरावा अथ मर्मरः ॥ १७९ स्वनिते वस्त्रपर्णानां भूषणानां तु शिञ्जितम् । निकाणो निक्कणः काणः कणः वणनमित्यपि ॥ १८० वीणायाः कणिते प्रादेः प्रकाणप्रकणादयः । कोलाहल: कलकलस्तिरश्चां वाशितं रुतम् ॥ १८१ स्त्री प्रतिश्रुत्प्रतिध्वाने गीतं गानमिमे समे ॥ इति शब्दादिवर्गः ॥६॥ निषादर्षभगान्धारषट्जमध्यमवैवताः । पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्टोत्थिताः स्वराः ॥ १८३ काकली तु कले सूक्ष्मे ध्वनौ तु मधुरास्फुटे । कलो मन्द्रस्तु गम्भीरे तागेऽत्युच्चैस्त्रयस्त्रिषु ॥ १८४ समन्वितलयस्त्वेकतालो वीणा तु वल्लकी । विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी ॥ १८५ ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम् । वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं धनम् ॥ १८६ चतुर्विधमिदं वाद्यं वादित्रातोद्यनामकम् । मृदङ्गा मुरजा भेदास्त्वयालिङ्गयोर्ध्वकास्त्रयः ॥ १८७ स्याद्यशःपटहो ढका भेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमान् । आनकः पटहोऽस्त्री स्यात्कोणो वीणादिवादनम् ।। वीणादण्डः प्रवाल: स्यात्ककुभस्तु प्रसेवकः । कोलम्बकस्तु कायोऽस्या उपनाहो निवन्धनम् ॥१८९ वाद्यप्रभेदा डमरुमडडिण्डिमझर्झराः । मर्दलः प्रणवोऽन्ये च नर्तकीलासिके समे ॥ १९० विलम्बितं द्रुतं मध्यं तत्त्वमोघो घनं कमात् । तालः कालक्रियामानं लयः साम्यमथास्त्रियाम्॥१९१ ताण्डवं नटनं नाट्यं लास्यं नृत्यं च नर्तने । तौर्यत्रिकं नृत्यगीतवाद्यं नाट्यमिदं त्रयम् ॥ १९२ भ्रकुंसश्च भ्रुकुंसश्च भ्रूकंसश्चेति नर्तकः । स्त्रीवेषधारी पुरुषो नाट्योक्तौ गणिकाज्जुका ॥ १९३ भगिनीपतिरावुत्तो भावो विद्वानथावुकः । जनको युवराजस्तु कुमारो भर्तृदारकः ॥ १९४ राजा भट्टारको देवस्तत्सुता भर्तृदारिका । देवी कृताभिषेकायामितरासु तु भट्टिनी ॥ १९५ अब्रह्मण्यमवध्योक्तौ राजश्यालस्तु राष्ट्रियः । अम्बा माताथ बाला स्याद्वासूरार्यस्तु मारिषः ॥ १९६ अत्तिका भगिनी ज्येष्ठा निष्टानिर्वहणे समे । हण्डे हल्ले हलाहानं नीचां चेटी सखी प्रति ॥ १९७ अङ्गहारोऽङ्गविक्षेपो व्यञ्जकाभिनयौ समौ । निर्वृत्ते वनसत्त्वाभ्यां द्वे त्रिवाङ्गिकसात्त्विके ॥१९८ शृङ्गारवीरकरुणाद्भुतहास्यभयानकाः । बीभत्सरौद्रौ च रसाः शृङ्गारः शुचिरुज्ज्वलः ॥ १९९ उत्साहवर्धनो वीर: कारुण्यं करुणा घृणा । कृपा दयानुकम्पा स्यादनुक्रोशोऽप्यथो हसः ॥ २०० हासो हास्यं च वीभत्सं विकृतं त्रिविदं द्वयम् । विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्य चित्रमप्यथ भैरवम् ॥२०१ दारुणं भीपणं भीष्मं घोरं भीमं भयानकम् । भयंकरं प्रतिभयं रौद्रं तूपममी त्रिषु ॥ २०२ चतुर्दश दरस्त्रासो भीतिीः साध्वसं भयम् । विकारो मानसो भावोऽनुभावो भावबोधकः ॥२०३ गर्वोऽभिमानोऽहंकारो मानश्चित्तसमुन्नतिः । अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया ॥ २०४ गढावमाननावज्ञावहेलनमसूक्षणम् । मन्दाक्षं द्वीत्रपा व्रीडा लज्जा सापत्रपान्यतः ॥ २०५ शान्तिस्तितिक्षाभिध्या तु परस्य विषये स्पृहा । अक्षान्तिरीासूया तु दोषारोपो गुणेष्वपि ॥२०६ वैरं विरोधो विद्वेषो मन्युशोकौ तु शुक्रियाम् । पश्चात्तापोऽनुतापश्च विप्रतीसार इत्यपि ॥ २०७ १ एतदने 'नृणामुरसि मध्यस्थो द्वाविंशतिविधो ध्वनिः । स मन्द्रः कण्ठमध्यस्थस्तारः शिरसि गीयते ॥' इति प्रक्षिप्तम्. २ 'तालव्यादि' इति मुकुटः. ३ 'भेर्यामानकदुन्दुभी' इति पाठः. ४ पृषोदरादित्वाद्रलोपे णत्वे च केचित् ‘पणवः' इति वर्णयन्ति इति भट्टस्वामिसर्वधरादयः-इति मुकुटः. ५ 'नृत्तम'. ६ 'मार्षक:'. ७ 'अन्तिका'. ८ एतदने 'दर्पोऽवलेपोऽवष्टम्भश्चित्तोद्रेकः स्मयो मदः' इति प्रक्षिप्तम. ९ 'अमूक्षणम्', 'असुक्षणम्'. For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ? काण्डम्-९ नरकवर्गः। कोपक्रोधामर्षरोषप्रतिघा रुधौ स्त्रियौ । शुचौ तु चरिते शीलमुन्मादश्चित्तविभ्रमः ॥ २०८ प्रेमा ना प्रियता हार्दै प्रेम स्नेहोऽथ दोहदम् । इच्छा काङ्क्षा स्पृहेहा तृड्डाञ्छा लिप्सा मनोरथः२०९ कामोऽभिलाषस्तर्षश्च सोऽत्यर्थ लालसा द्वयोः । उपाधिर्ना धर्मचिन्ता पुंस्याधिर्मानसी व्यथा॥२१० स्याञ्चिन्ता स्मृतिराध्यानमुत्कण्ठोत्कलिके समे । उत्साहोऽध्यवसायः स्यात्स वीर्यमतिशक्तिभा२११ कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे । कुमृतिनिकृतिः शाठ्यं प्रमादोऽनवधानता ॥ २१२ कौतूहलं कौतुकं च कुतुकं च कुतूहलम् । स्त्रीणां विलासविव्वोकविभ्रमा ललितं तथा ॥ २१३ हेला लीलेत्यमी हावाः क्रियाः शृङ्गारभावजाः । द्रवकेलिपरीहासाः क्रीडा लीला च नर्म च॥२१४ व्याजोऽपदेशो लक्ष्यं च क्रीडा खेला च कूर्दनम् । धर्मो निदाघः स्वेदः स्यात्प्रलयो नष्टचेष्टता२१५ अवहित्याकारगुप्तिः समौ संवेगसंभ्रमौ । स्यादाच्छुरितकं हासः सोत्प्रासः स मनाक्स्मितम्॥२१६ मध्यमः स्याद्विहसितं रोमाञ्चो रोमहर्षणम् । क्रन्दितं रुदितं क्रुष्टं जृम्भस्तु त्रिषु जम्भणम् ॥२१७ विप्रलम्भो विसंवादो रिङ्गणं स्खलनं समे । स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नः संवेश इत्यपि ॥ २१८ तन्द्री प्रमीला भ्रकुटिर्धकुटिद्धृकुटिः स्त्रियाम् । अदृष्टिः स्यादसौम्येऽक्षिण संसिद्धिप्रकृती विमे२१९ स्वरूपं च स्वभावश्च निसर्गश्चाथ वेपथुः । कम्पोऽथ क्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सवः ॥ २२० इति नाम्यवर्गः ॥७॥ अधोभुवनपातालं बलिसद्म रसातलम् । नागलोकोऽथ कुहरं शुषिरं विवरं बिलम् ॥ २२१ छिद्रं निर्व्यथनं रोकं रन्धं श्वभ्रं वपा शुषिः । गर्तावटौ भुवि श्वभ्रे सरन्ध्रे शुषिरं त्रिषु ॥ २२२ अन्धकारोऽस्त्रियां ध्वान्तं तमिस्रं तिमिरं तमः । ध्वान्ते गाढेऽन्धतमसं क्षीणेऽवतमसं तमः॥२२३ विष्वक्संतमसं नागाः काद्रवेयास्तदीश्वरः । शेषोऽनन्तो वासुकिस्तु सर्पराजोऽथ गोनसे ॥ २२४ तिलित्सः स्यादजगरे शयुवाहस इत्युभो । अलगर्दो जलव्याल: समौ राजिलडुण्डुभौ ॥ २२५ मालुधानो मातुलाहिर्निर्मुक्तो मुक्तकक्षुकः । सर्पः पृदाकुर्भुजगो भुजंगोऽहिर्भुजंगमः ॥ २२६ आशीविषो विषधरश्चक्री व्यालः सरीसृपः । कुण्डली गूढपाचक्षुःश्रवाः काकोदरः फणी ॥ २२७ दर्वीकरो दीर्घपृष्ठो दन्दशूको विलेशयः । उरग: पन्नगो भोगी जिह्मगः पवनाशनः ॥ २२८ त्रिष्वाहेयं विषास्थ्यादि फटायां तु फणा द्वयोः । समौ कञ्चकनिर्मोको क्ष्वेडस्तु गरलं विषम् २२९ पुंसि क्लीवे च काकोलकालकूटहलाहलाः । सौराष्ट्रिकः शौक्लिकेयो ब्रह्मपुत्र: प्रदीपनः ॥ २३० दाग्दो वत्मनाभश्च विषभेदा अमी नव । विषवैद्यो जाङ्गुलिको व्यालग्राह्यंहितुण्डिकः ॥ २३१ इति पातालभोगिवर्गः ॥८॥ म्यान्नारकस्तु नरको निरयो दुर्गतिः स्त्रियाम् । तद्भेदास्तपनावीचिमहागैरवरौरवाः ॥ २३२ मंघातः कालसूत्रं चेत्याद्याः सत्त्वास्तु नारकाः । प्रेता वैतरणी सिन्धुः स्यादलक्ष्मीस्तु निर्ऋति:२३३ -..---- १ 'अमर्षो' द्वस्वादिः, 'दीर्घादिरपि' इति हट्टचन्द्रः-इति मुकुटः. २ 'दन्त्यादिरप्ययं शब्दः' इति मुकुटः. ३ एतदने 'लेलिहानो द्विरसनो गोकर्णः कञ्चुकी तथा । कुम्भीनस: फणधरो हरि गधरस्तथा ॥ अहेः शरीरं भोगः स्यादाशीरप्यहिदंष्ट्रिका ॥' इति प्रक्षिप्तम. ४ 'फकारादिरपि' इति स्वामी-इति मुकुटः. ५ ह्रस्वादिः, 'दीर्घादिरपि' इति सर्वानन्द:-इति मुकुटः. For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १.० अभिधान संग्रह: -- १ नामलिङ्गानुशासनम् | विष्टिराजूः कारणा तु यातना तीव्रवेदना | पीडा बाधा व्यथा दुःखमामनस्यं प्रसूतिजम् ॥ २३४ म्यात्कष्टं कुच्छ्रमाभीलं त्रिप्वेषां भेद्यगामि यत् ॥ २३५ इति नरकवर्गः ॥ ९ ॥ २३७ २३९ २४० समुद्रोऽव्धिर्रकूपारः पारावारः सरित्पतिः । उदन्वानुदधिः सिन्धुः सरस्वान्सागरोऽर्णवः ॥ २३६ रत्नाकरो जलनिधिर्यादः पतिरपपतिः । तस्य प्रभेदाः क्षीरोदो लवणोदस्तथापरे ॥ आपः स्त्री भूनि वारि सलिलं कमलं जलम् । पयः कीलालममृतं जीवनं भुवनं वनम् ॥ २३८ कबन्धमुदकं पाथः पुष्करं सर्वतोमुखम् । अम्भोऽर्णस्तोयपानीयनीरक्षीराम्बुशम्बरम् || मेघनरसत्रिषु आप्यमस्मयम् । भङ्गस्तरङ्ग ऊर्मिव स्त्रियां वीचिरथोर्मिषु ॥ महत्मूल्लोलकल्लोलौ स्यादावर्तोऽम्भसां भ्रमः । षन्तिविन्दुपृषताः पुमांसो विप्रुषः स्त्रियाम् ॥ २.४१ चक्राणि पुटभेदाः स्युर्भ्रमाश्च जलनिर्गमाः । कूलं रोधश्च तीरं च प्रतीरं च तटं त्रिषु ॥ २४२ पारावारे परार्वाची तीरे पात्रं तदन्तरम् । द्वीपोऽखियामन्तरीपं यदन्तर्वारिणस्तटम् ॥ २४३ तोयोत्थितं तत्पुलिनं मैकतं सिकतामयम् । निषद्धरस्तु जम्वालः पङ्कोऽस्त्री शादकर्दमौ ॥ २४४ जलच्छासाः परीवाहाः कूपकास्तु विदारकाः । नाव्यं त्रिलिङ्गं नौतायें स्त्रियां नौस्तरणिस्तरिः || २४५ उडुपं तु लवः कोलः स्रोतोऽम्बुसरणं स्वतः । आतरस्तरपण्यं स्याद्दोणी काष्ठाम्बुवाहिनी ॥ २४३ सांयात्रिकः पोतवणिक्कर्णधारस्तु नाविकः । नियामकाः पोतवाहाः कूपको गुणवृक्षकः ॥ २४७ नौकादण्डः क्षेपणी स्यादरित्रं केनिपातकः । अभिः स्त्री काष्ठकुद्दालः सेकपात्रं तु सेचनम् ||२४८ क्लीवेऽर्धनाचं नावोऽऽतीतनौकेऽतिनु त्रिषु । त्रिष्वागाधात्प्रसन्नोऽच्छः कलुषोऽनच्छ आविल : २४९ निम्नं गभीरं गम्भीरमुत्तानं तद्विपर्यये । अगाधमतलस्पर्शे कैवर्ते दाशधीवरौ ॥ २५० आनायः पुंसि जालं स्यात्संणसूत्रं पवित्रकम् । मत्स्याधानी कुवेणी स्याद्वडिशं मत्स्यवेधनम् || २५१ पृथुरोमा झषो मत्स्यो मीनो वैसारिणोऽण्डजः । विसारः शकली चाथ गडकः शकुलार्भकः ॥ २५२ महस्रदंष्ट्रः पाठीन उलूपी शिशुकः समौ । नलमीनश्चिलिचिमः प्रोष्टी तु शफरी द्वयोः || 1 २५३ क्षुद्राण्डमत्स्यसंवातः पोताधानमथो झपाः । रोहितो महुरः शीलो राजीवः शकुलस्तिमिः || २५४ तिमिंगिलादयञ्चाथ यादांसि जलजन्तवः । तद्भेदाः शिशुमारोद्रशङ्गवो मकरादयः ॥ २५५ स्यात्कुलीरः कर्कटकः कूर्मे कमटकच्छपौ । ग्राहोऽवहारो नक्रस्तु कुम्भीरोऽथ महीलता ॥ २५६ गण्डूपदः किंचुलको निहाका गोधिका समे । रक्तपा तु जलौकायां स्त्रियां 'भूनि जलौकसः || २५७ मुक्तास्फोटः स्त्रियां शुक्तिः शङ्खः स्यात्कम्बुरस्त्रियौ । क्षुद्रशङ्खाः शङ्खनखाः शम्बूका जलशुक्तयः २५८ भेके मण्डूकवर्षाभूशालूलबदर्दुराः । शिली गण्डूपदी भेकी वर्षाभ्वी कमटी डुलिः ॥ मदुरस्य प्रिया शृङ्गी दुर्नामा दीर्घकोशिका | जलाशयो जलाधारस्तत्रागाधजलो हृदः || आहावस्तु निपानं स्यादुपकूपजलाशये । पुंस्येवान्धुः प्रहिः कूप उदपानं तु पुंसि वा ॥ २५९ For Private and Personal Use Only २६० २६१ १ 'अकुवार:' इत्यन्ये - इति मुकुटः २ पवर्गादिमध्योऽपि ३ 'कम्, अन्धम्' इति नामद्वयमित्येके, म कारमध्यं ‘कमन्धम्' इत्यपरे - इति मुकुटः ४ इकारान्तमेव गृह्यते, अतएव बहुवचनम् ५ 'वक्राणि'. ६ 'द्रुणि: '. ७ दन्त्यान्त्योऽपि. ८ 'दन्त्यादिः' इति सर्वधरः, 'तालव्यादिरपि' इति पञ्जिका - इति मुकुट:. ९ चतुरिकावानपि १० दन्त्यादिरपि ११ एकवचनान्तत्वेऽपि प्रयोगा उपलभ्यन्ते. १२ ' दन्त्यादिरपि' इति पञ्जिकासर्वधरौ - इति मुकुट:. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११. २ काण्डम्-2 भूमिवर्गः । नेमिस्त्रिकास्य वीनाहो मुखबन्धनमस्य यत् । पुष्करिण्यां तु खातं स्यादखातं देवखातकम् ॥ २६२ पद्माकरस्तंडागोऽस्त्री कासारः सरसी सरः।वेशन्तः पल्वलं चाल्पसरो वापी तु दीर्घिका ॥२६३ खेयं तु परिखाधारस्त्वम्भसां यत्र धारणम् । स्यादालवालमावालमावापोऽथ नदी सरित् ॥ २६४ तरङ्गिणी शैवलिनी तटिनी हादिनी धुनी । स्रोतस्वती द्वीपवती स्रवन्ती निम्नगोपगा॥ २६५ गङ्गा विष्णुपदी जद्भुतनया सुरनिम्नगा । भागीरथी त्रिपथगा त्रिस्रोता भीष्मसूरपि ॥ २६६ कालिन्दी सूर्यतनया यमुना शमनस्वसा । रेवा तु नर्मदा सोमोद्भवा मेकलकन्यका ॥ २६७ करतोया सदानीरा बाहुदा सैतवाहिनी । शतद्रुस्तु शुतुद्रिः स्याद्विपाशा तु विपाट् स्त्रियाम्॥ २६८ शोणो हिरण्यवाहः स्यात्कुल्याल्पा कृत्रिमा सरित् । शरावती वेत्रवती चन्द्रभागा सरस्वती।।२६९ कावेरी सरितोऽन्याश्च संभेदः सिन्धुसंगमः । द्वयोः प्रणाली पयसः पदव्यां त्रिषु तूत्तरौ ॥ २७० देविकायां सरय्वां च भवे दाविकसारवौ । सौगन्धिकं तु कहारं हल्लकं रक्तसंध्यकम् ॥ २७१ स्यादुत्पलं कुवलयमथ नीलाम्बुजन्म च । इन्दीवरं च नीलेऽस्मिन्सिते कुमदकैरवे ॥ २७२ शालूकमेषां कन्दः स्याद्वारिपर्णी तु कुम्भिका । जलनीली तु शेवालं शैवलोऽथ कुमुद्वती ॥ २७३ कुमुदिन्यां नलिन्यां तु विसिनीपद्मिनीमुखाः । वा पुंसि पद्मं नलिनमरविन्दं महोत्पलम् ॥ २७४ सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेशयम् । पङ्केरुहं तामरसं सारसं सरसीरुहम् ॥ बिसप्रसूनराजीवपुष्कराम्भोरुहाणि च । पुण्डरीकं सिताम्भोजमथ रक्तसरोरुहे ॥ २७६ रक्तोत्पलं कोकनदं नाला नालमथास्त्रियाम् । मृणालं बिसमब्जादिकदम्बे खण्डमस्त्रियाम् ॥ २७७ करहाटः शिफाकन्दः किंजल्कः केसरोऽस्त्रियाम् । संवर्तिका नवदलं बीजकोशो वराटकः ॥२७८ इति वारिवर्गः ॥ १० ॥ उक्तं स्वोमदिकालधीशब्दादि सनाट्यकम् । पातालभोगि नरकं वारि चैषां च संगतम् ॥ २७९ इत्यमरसिंहकृतौ नालिङ्गानुशासने । स्वरादिकाण्डः प्रथमः साङ्ग एव समर्थितः ॥ २८० द्वितीयं काण्डम् । वर्गाः पृथ्वीपुरक्ष्माभृद्वनौषधिमृगादिभिः । नृब्रह्मक्षत्रविटशनैः साङ्गोपाङ्गैरिहोदिताः॥ २८१ भूर्भूमिरचलानन्ता रसा विश्वंभरा स्थिरा ।धरा धरित्री धरणिः क्षोणि काश्यपी क्षितिः॥२८२ सर्वसहा वसुमती वसुधोर्वी वसुंधरा । गोत्रा कुः पृथिवी पृथ्वी क्ष्मावनिर्मेदिनी मही ॥ २८३ मृन्मृत्तिका प्रशस्ता तु मृत्सा मृत्स्ना च मृत्तिका। उर्वरा सर्वसस्थाढ्या स्यादृषः क्षारमृत्तिका २८४ ऊपवानूपरो द्वावप्यन्यलिङ्गौ स्थलं स्थली । समानौ मरुधन्वानौ द्वे खिलाप्रहते समे ॥ २८५ त्रिवथो जगती लोको पिष्टपं भवनं जगत् । लोकोऽयं भारतं वर्ष शरावत्यास्तु योऽवधेः ॥ २८६ देशः प्राग्दक्षिणः प्राच्य उदीच्यः पश्चिमोत्तरः । प्रत्यन्तो म्लेच्छदेशः स्यान्मध्यदेशस्तु मध्यमः २८७ १ 'तडाकः', 'तटाकः'. २ 'आपगा' दीर्घादि:, 'हस्वादिरपि' इति पञ्जिका-इति मुकुटः, ३ एतदने 'कृलं. कपा निर्झरिणी रोधोवक्रा सरस्वती' इति प्रक्षिप्तम्. ४ 'शितद्रुः' इति कौमुदी--इति मुकुटः. ५ 'चान्द्रभागी', 'चन्द्रभागी.' ६ 'विशं' तालव्यान्तपि. ७ 'कन्दम् इति क्लीबपाठः पञ्जिकायाम्, ८ तालव्यमध्यमाप. ९ एतदने 'विपुला गहरी धात्री गौरिला कुम्भिनी क्षमा । भतधात्री रत्नगी जगती सागराम्बरा ।। इति प्रक्षिप्तम्. १० विष्टपम्.' For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । आर्यावर्तः पुण्यभूमिमध्यं विन्ध्यहिमालयोः । नीवृज्जनपदो देशविषयौ तूपवर्तनम् ॥ २८८ त्रिष्वागोष्टान्नडप्राये नड्डान्नवल इत्यपि । कुमुद्वान्कुमुदप्राये वेतस्वान्बहुवेतसे ॥ शाद्वल: शादहरिते सजम्बाले तु पङ्किलः । जलप्रायमनूपं स्यात्पुंसि कच्छस्तथाविधः ॥ २९० स्त्री शर्करा शर्करिलः शार्करः शर्करावति । देश एवादिमावेवमुन्नेयाः सिकतावति ॥ २९१ देशो नद्यम्बुवृष्टयम्बुसंपन्नत्रीहिपालितः । स्यान्नदीमातृको देवमातृकश्च यथाक्रमम् ॥ २९२ सुराज्ञि देशे राजन्वान्स्यात्ततोऽन्यत्र गजवान् । गोष्टं गोस्थानकं तत्तु गौष्टीनं भूतपूर्वकम् ॥२९३ पर्यन्तभूः परिसरः सेतुरालौ स्त्रियां पुमान् । वामलूरश्च नाकुश्च वल्मीकं पुनपुंसकम् ॥ २९४ अयनं वर्म मार्गाध्वपन्थानः पदवी मृतिः । सरणिः पद्धतिः पद्या वर्तन्येकपदीति च ॥ २९५ अतिपन्थाः सुपन्थाश्च सत्पथश्चाचितेऽध्वनि । व्यध्वो दुरध्वो विपथः कदध्वा कापथः समाः२९६ अपन्यास्त्वपथं तुल्ये शृङ्गाटकचतुष्पथे । प्रान्तरं दूरशून्योऽध्वा कान्तारं वर्म दुर्गमम् ॥ २९७ गव्यूतिः स्त्री कोशयुगं नल्वः किष्कुचतुःशतम् । घण्टापथः संसरणं तत्पुरस्योपनिष्करम् ॥' २९८ __ इति भूमिवर्गः ॥१॥ पू: स्त्री पुरीनगर्यो वा पत्तनं पुटभेदनम् । स्थानीयं निगमोऽन्यत्तु यन्मूलनगरात्पुरम् ॥ २९९ तच्छाखानगरं वेशो वेश्याजनसमाश्रयः । आपणस्तु निषद्यायां विपणिः पण्यवीथिका ॥ ३०० रथ्या प्रतोली विशिखा स्याञ्चयो वप्रमस्त्रियाम् । प्राकारो वरणः साल: प्राचीनं प्रान्ततो वृतिः३०१ भित्तिः स्त्री कुंड्यमेडूकं यदन्तय॑स्तकीकसम् । गृहं गेहोदवसितं वेश्म सद्म निकेतनम् ॥ ३०२ निशान्तर्वस्त्यसदनं भवनागारमन्दिरम् । गृहाः पुंसि च भूम्न्येव निकाय्यनिलयालयाः ॥ ३०३ वासः कुटी द्वयोः शाला सभा संजवनं विदम् । चतुःशालं मुनीनां तु पर्णशालोटजोऽस्त्रियाम्३०४ चैत्यमायतनं तुल्ये वाजिशाला तु मन्दुरा । आवेशनं शिल्पिशाला प्रपा पानीयशालिका॥ ३०५ मटरछात्रादिनिलयो गञ्जा तु मदिरागृहम् । गर्भागारं वासगृहमरिष्टं सूतिकागृहम् ॥ ३०६ वातायनं गवाक्षोऽथ मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः । हादि धनिनां वासः प्रासादो देवभूभुजाम्।। ३०७ सौधोऽस्त्री राजसदनमुपकार्योपकारिका । स्वस्तिकः सर्वतोभद्रो नन्द्यावर्तादयोऽपि च ॥ ३०८ विच्छन्दकः प्रभेदा हि भवन्तीश्वरसद्मनाम् । ख्यगारं भूभुजामन्तःपुरं स्यादवरोधनम् ॥ ३०९ शुद्धान्तश्चावरोधश्च स्यादट्टः क्षोममस्त्रियाम् । प्रघाणप्रघणालिन्दा बहिरप्रकोष्टके ॥ ३१० गृहावग्रहणी देहय॑ङ्गणं चत्वराजिरे । अधस्तादारुणि शिला नासा दारूपरि स्थितम् ॥ ३११ प्रच्छन्नमन्तारं स्यात्पक्षद्वारं तु पक्षकम् । वलीकनीत्रे पटलप्रान्तेऽथ पटलं छदिः ॥ ३१२ गोपानसी तु वलभी छादनं वक्रदारुणि । कपोतपालिकायां तु विटकं पुनपुंसकम् ॥ स्त्री द्वाद्वारं प्रतीहारः स्याद्वितर्दिस्तु वेदिका । तोरणोऽस्त्री बहिरं पुरद्वारं तु गोपुरम् ॥ ३१४ कूटं पूरि यद्धस्तिनखस्तस्मिन्नथ त्रिषु । कपाटमररं तुल्ये तद्विष्कम्भोऽर्गलं न ना ॥ ३१५ १ एतदने 'द्यावापृथिव्यौ रोदस्यौ द्यावाभमी च रोदसी । दिवस्पथिव्यौ गञ्जा तु रुमा स्याल्लवणाकरः ॥' इति प्रक्षिप्तम्. २ तालव्यादिरग्ययम्. ३ को द्योतते इति डप्रकरणे 'अन्यत्रापि' इति ड:-इति सोमनन्दी, एतेन 'दकारोत्र, न डकारः' इति स्वाभी-इति मुकुटः. ४ 'पस्त्यम्' इत्यपि. ५ 'संयमनम्' इति च पाठ इति टीकासमुच्चयकार:-इति मुकुटः. ६ 'शिल्पशाला' इत्यपि. ७ एतदने 'कुट्टिमोऽस्त्री निबद्धा भूश्चन्द्रशाला शिरोगृहम्' इति प्रक्षिमम्. ८ 'पृषोदरादित्वाण्णत्वम्' इति स्वामी, पञ्जिका च; 'नान्तम्' इति तु सर्वधरः-इति मुकुटः, For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-४ वनौषधिवर्गः । आरोहणं स्यात्सोपानं निश्रेणिस्त्वधिरोहिणी । संमार्जनी शोधनी स्यात्संकरोऽवकरस्तथा ॥ ३१६ क्षिप्ते मुखं निःसरणं संनिवेशो निकर्षणम् । समौ संवसथग्रामौ वेश्मभूस्तुरस्त्रियाम् ॥ ३१७ प्रामान्तमुपशल्यं स्यात्सीमसीमे स्त्रियामुभे । घोष आभीरपल्ली स्यात्पक्कणः शबरालयः ॥ ३१८ __इति पुरवर्गः ॥२॥ महीधे शिखरिक्ष्माभृदहार्यधरपर्वताः । अद्रिगोत्रगिरिग्रावाचलशैलशिलोच्चयाः ॥ ३१९ लोकालोकश्चक्रवालस्त्रिकूटस्त्रिककुत्समौ । अस्तस्तु चरमः क्ष्माभृदुदयः पूर्वपर्वतः ॥ ३२० हिमवान्निषधो विन्ध्यो माल्यवान्पारियात्रकः । गन्धमादनमन्ये च हेमकूटादयो नगाः ॥ ३२१ पाषाणप्रस्तरमावोपलाश्मानः शिला ईषत् । कूटोऽस्त्री शिखरं शृङ्गं प्रपातस्त्वतटो भृगुः ।। ३२२ कटकोऽस्त्री नितम्बोऽद्रेः स्नुः प्रस्थः सानुरस्त्रियाम् । उत्सः प्रस्रवणं वारिप्रवाहो निर्झरो झरः ३२३ दरी तु कंदरो वा स्त्री देवखातबिले गुहा । गह्वरं गण्डशैलास्तु च्युताः स्थूलोपला गिरेः ॥ ३२४ खनिः स्त्रियामाकरः स्यात्पादाः प्रत्यन्तपर्वताः । उपत्यकानेरासन्ना भूमिरूव॑मधित्यका ॥ ३२५ धातुर्मनःशिलाद्यद्रेगैरिकं तु विशेषतः । निकुञ्जकुऔ वा क्लीवे लतादिपिहितोदरे ॥ ३२६ इति शेलवर्गः ॥३॥ अटव्यरण्यं विपिनं गहनं काननं वनम् । महारण्यमरण्यानी गृहारामास्तु निष्कुटाः ॥ ३२७ आरामः स्यादुपवनं कृत्रिमं वनमेव यत् । अमात्यगणिकागेहोपवने वृक्षवाटिका ॥ पुमानाक्रीड उद्यानं राज्ञः साधारणं वनम् । स्यादेतदेव प्रमदवनमन्तःपुरोचितम् ।। वीथ्यालिरावलिः पतिः श्रेणी लेखास्तु राजयः । वन्या वनसमूहे स्यादङ्कुरोऽभिनवोद्भिदि ॥ ३३० वृक्षो महीरुहः शाखी विटपी पादपस्तरुः । अनोकहः कुटः सालः पलाशी द्रुद्रुमागमाः ॥ ३३१ वानस्पत्यः फलैः पुष्पात्तैरपुष्पावनस्पतिः । ओषध्यः फलपाकान्ताः स्युरवन्ध्यः फलेग्रहिः ॥ ३३२ वन्ध्योऽफलोऽवकेशी च फलवान्फलिनः फली । प्रफुल्लोत्फुल्लसंफुल्लव्याकोशविकचस्फुटाः ॥ ३३३ फुल्लश्चैते विकसिते स्युरवन्ध्यादयस्त्रिषु । स्थाणु वा ना ध्रुवः शङ्खईस्व शाखाशिफः क्षुपः ॥ ३३४ अप्रकाण्डे स्तम्बगुल्मौ वल्ली तु बॅततिलता । लता प्रतानिनी वीरुगुल्मिन्युलप इत्यपि ॥ ३३५ नगाद्यारोह उच्छाय उत्सेधश्चोच्छ्यश्च सः। अस्त्री प्रकाण्डः स्कन्धः स्यान्मूलाच्छाखावधिस्तरोः३२६ समे शाखालते स्कन्धशाखाशाले शिफाजटे । शाखाशिफावरोहः स्यान्मूलाच्चानं गता लता।।३३७ शिरोऽग्रं शिखरं वा ना मूलं बुध्नोऽधिनामकः। सारो भज्जा नेरि त्वक्स्त्री वल्कं वल्कलमस्त्रियाम् ३३८ काष्ठं दार्विन्धनं वेध इध्ममेधः समित्स्त्रियाम् । निष्कुहः कोटरं वा ना वल्लरिम अरिः स्त्रियौ ॥३३९ पत्रं पलाशं छदनं दलं पण छदः पुमान् । पल्लवोऽस्त्री किसलयं विस्तारो विटपोऽस्त्रियाम् ॥ ३४० वृक्षादीनां फलं संस्यं वृन्तं प्रसवबन्धनम् । आमे फले शलाटः स्याच्छुष्के वानमुभे त्रिषु ॥ ३४१ क्षारको जालकं क्लीव कलिका कोरकः पुमान् । स्याद्रुच्छकस्तु स्तबकः कुट्मलो मुकुलोऽस्त्रियाम् ३४२ १ 'निःश्रेणिः'. २ 'तालव्यमध्यापि' इति सर्वधरः-इति मुकुटः. ३ 'झरा', 'झरिः', 'झरी'. ४ एतदने 'दन्तकास्तु बहिस्तियक्प्रदेशान्निर्गता गिरेः' इति प्रक्षिप्तम्. ५ मूर्धन्यान्त्योऽपि. ६ 'वेल्लिः' इत्यपि, ७ प्रततिश्च. ८ नान्तः, टाबन्तापि. ९ 'समौ' इति मुकुटपाठः, १० तालव्याद्यपि. ११ दन्त्योष्मान्त्योऽपि, For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १.४ अभिधान संग्रह: - १ नामलिङ्गानुशासनम् । ३४३ ३४४ ३४६ ३४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५१ ३५२ ३५३ ३५४ ३५५ स्त्रियः सुमनसः पुष्पं प्रसूनं कुसुमं समम् । मकरन्दः पुष्परसः परागः सुमनोरजः || द्विहीनं प्रसवे सर्वं हरीतक्यादयः स्त्रियाम् । अश्वत्थवैणवलाक्षनैयग्रोधैङ्गदं फले | बार्हतं च फले जम्ब्वा जम्बूः स्त्री जम्बु जाम्बवम् । पुष्पे जातीप्रभृतयः खलिङ्गा व्रीहयः फले ३४५ विदार्याद्यास्तु मूलेsपि पुष्पे क्लीवेऽपि पाटला । बोधिद्रुमश्चलदल : पिप्पलः कुञ्जराशनः ॥ अपत्युर्दधित्थग्राहिमन्मथाः । तस्मिन्दधिफलः पुष्पफलदन्तशठावपि ॥ उदुम्बरो जन्तुफलो यज्ञाङ्गो हेमदुग्धकः । कोविदारे चमरिकः कुद्दालो युगपत्रकः ॥ सप्तपर्णी विशाल शारदो विषमच्छदः । आरग्वधे राजवृक्षशंपाक चतुरङ्गुलाः ॥ आरेवतव्याधिघातकृतमालसुवर्णकाः । स्युर्जम्बीरे दन्तशटजम्भजम्भीरजम्भलाः ॥ वरुणो वरणः सेतुस्तिक्तशाकः कुमारकः । पुंनागे पुरुषस्तुङ्गः केसरो देववल्लभः ॥ पारिभद्रे निम्वतरुर्मन्दारः पारिजातकः । तिनिशे स्यन्दनो नेमी रथगुरतिमुक्तकः ॥ वञ्जुलञ्चित्रकृच्चाथ द्वौ पीतनकपीतनौ । आम्रातके मधूके तु गुडपुष्पमधुद्रुमौ ॥ वानप्रस्थमधुष्ठीलौ जलजेऽत्र मधूलक: । पीलौ गुडफलः स्रंसी तस्मिंस्तु गिरिसंभवे ॥ अक्षोटकन्दरालौ द्वावङ्कोटे तु निकोचकः । पलाशे किंशुकः पर्णो वातपोथोऽथ वेतसे ॥ रथाभ्रपुष्पविदुरशीतवानीरबलाः । द्वौ परिव्याधविदुलौ नादेयी चाम्बुवेतसे || शौभाञ्जने शिग्रुतीक्ष्णगन्धकाक्षीवमोचकाः । रक्तोऽसौ मधुशिग्रुः स्यादरिष्टः फेनिलः समौ ॥ ३५७ विस्वे शाण्डिल्यशैलूषौ मालूर श्रीफलावपि । लक्षो जटी पर्कटी स्यान्यग्रोधो बहुपाद्वटः ॥ ३५८ गालवः शाबरो लोध्रस्तिरीटस्तित्वमार्जनौ । आम्रभूतो रसालोऽसौ सहकारोऽतिसौरभः ॥ कुम्भोलूखलकं क्लीवे कौशिको गुग्गुलुः पुरः | शेलुः श्लेष्मातकः शीत उद्दालो बहुवारकः || ३६० राजादनं प्रियोलः स्यात्सैन्नकदुर्धनुः पटः । गंम्भारी सर्वतोभद्रा काश्मरी मधुपर्णिका ॥ श्रीपर्णी भद्रपर्णी च काश्मर्यचाप्यथ द्वयोः । कर्कन्धूर्बदरी कोलिः कोलं कुवल फेनिले ॥ सौवीरं बदरं घोण्टाप्यथ स्यात्खादुकण्टकः । विकङ्कतः स्वावृक्षो ग्रन्थिलो व्याघ्रपादपि ॥ ऐरावती नागरङ्गो नादेयी भूमिजम्बुका । तिन्दुकः स्फूर्जकः कालस्कन्धश्च शितिसारके || काकेन्दुः कुलकः काकतिन्दुकः काकपीलुके । गोलीढो झाटलो घण्टापाटलिर्मोक्षमुष्ककौ ॥ ३६५ तिलकः क्षुरकः श्रीमान्समौ पिझावुक । श्रीपर्णिका कुमुदिका कुम्भी कैडर्यकट्फलौ || ३६६ क्रमुकः पट्टिकाख्यः स्यात्पट्टी लाक्षाप्रसादनः । तैस्तु यूपः क्रमुको ब्रह्मण्यो ब्रह्मदारु च ॥ ३६७ तूलं च नीपप्रियककदम्बास्तु हलिप्रियः । वीरवृक्षोऽरुष्करोऽग्निमुखी भल्लातकी त्रिषु ॥ ३६८ गर्दभाण्डे कन्दरालकपीतनसुपार्श्वकाः । लक्षश्च तिन्तिडी चिञ्चाम्लिकाथो पीतसारके || ३६९ ३५६ ३५९ ३६१ ३६२ ३६३ ३६४ 1 १ पवर्गतृतीयमध्योऽपि. २ दन्त्यादिश्र, शम्याकच. ३ तिलिशच ४ कर्परालेोऽपि ५ 'लिकोचक: '. ६ ‘रथ-अभ्र-रथाभ्रपुष्प' इति नामत्रयम् ७ 'दन्त्यादिरपि' इत्यन्ये ८ तीक्ष्णगन्धक - आक्षीव इति; 'अक्षीव' इति स्वादिरपि तीक्ष्णगन्ध- काक्षीर इति रान्तमित्यन्ये. ९ दन्त्यादिश्र. १० संघातविगृहीतम् । कुम्भम्, उलूखलकम्, इति व्यस्तम्; ‘कुम्भोदः, खलकम्' इति वा पाठ: ११ राजाननोऽपि १२ नीरेफोऽपि. १३ 'सन्नकडुः इति स्वामी, 'सन्नको दुध' इति सोमनन्दी - इति मुकुट १४ संघातव्यस्तम् । धनुरुदन्तः, सान्तोऽपि १५ 'कम्भारी.' १६ स्वामी तु 'कर्कन्धूर्वदरी कोलियोंण्टा कुवलफेनिले । सौवीरं वदरं कोलम्' इति पठित्वा 'आद्यास्त्रयो वृक्षार्थाः, शेषाः फलार्था:, घोण्टा तृभयार्थी' व्याचष्टे - इति मुकुटः, १७ 'द' इति मुकुट:. For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् — ४ वनौषधिवर्गः । ३७० ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७९ ३८० ३८२ ३८३ सर्जकासनबन्धूकपुष्पप्रियकजीवकाः । साले तु सर्जकार्याश्वकर्णकाः सस्यसम्बरः ॥ नदीसर्जो वीरतरुरिन्द्रद्रुः ककुभोऽर्जुनः । राजादनः फलाध्यक्षः क्षीरिकायामथ द्वयोः ॥ २७१ इङ्गुदी तापसतरुर्भूर्जे चर्मिमृदुलचौ । पिच्छिला पूरणी मोचा स्थिरायुः शाल्मलिर्द्वयोः ॥ ३७२ पिच्छा तु शाल्मलीवेष्टे रोचनः कूटशाल्मलिः । चिरबिल्वो नक्तमालः करजश्च करञ्जके || ३७३ प्रकीर्यः पूतिकरजः पूतिकः कलिमारकः । करञ्जभेदाः षड्यन्थो मर्कट्यङ्गारवल्लरी | रोही रोहितकः लीहशत्रुर्दाडिमपुष्पकः । गायत्री बालतनयः खदिरो दन्तधावनः || अरिमेदो विट्खदिरे कदरः खदिरे सिते । सोमवल्कोऽप्यथ व्याघ्रपुच्छगन्धर्वहस्तकौ ॥ एरण्ड उरुवूकश्च रुचकश्चित्रकश्च सः । चक्षुः पञ्चाङ्गुलो मॅण्डवर्धमानव्यडम्बकाः || अल्पा शमी शमीरः स्याच्छमी सक्तफला शिवा । पिण्डीतको मरुवकः श्वसनः करहाटक || ३७८ शल्यश्च मदने शक्रपादपः पारिभद्रकः । भद्रदारु दुकिलिमं पीतदारु च दारु च ॥ पूतिकाष्टं च सप्त स्युर्देवदारुण्यथ द्वयोः । पाटलिः पाटलामोघा काचस्थाली फलेरुहा ॥ कृष्णवृन्ता कुबेराक्षी श्यामा तु महिलाद्दया । लता गोवन्दनी गुन्द्रा प्रियंगुः फलिनी फली ||२८१ विश्वक्सेना गन्धफली कारम्भा प्रियकच सा । मण्डूकपर्णपत्रोर्णनटकट्टुङ्गटुण्टुकाः ॥ स्योनाकशुकनासर्क्षदीर्घवृन्तकुटन्नटाः । शोणकचरलौ तिष्यफला लामलकी त्रिषु ॥ अमृता च वैयस्था च त्रिलिङ्गस्तु विभीतकः । नाक्षस्तुषः कर्षफलो भूतावासः कलिद्रुमः || ३८४ अभया त्वव्यथा पथ्या कायस्था पूतनामृता । हरीतकी हैमवती चेतकी श्रेयमी शिवा ॥ ३८५ पीतदुः सरलः पूतिकाष्टं चाथ द्रुमोत्पलः । कर्णिकारः परिव्याधो लकुचो लिकुचो बहुः || ३८६ पेनसः कण्टकिफलो निचुलो हिज्जलोऽम्बुजः । काकोदुम्बरिका फल्गुर्मलयूर्जघने फला अरिष्टः सर्वतोभद्रहिनिसमालकाः । पिचुमन्दश्च निम्बेऽथ पिछलगुरु शिंशपा ॥ कपिला भस्मगर्भा सा शिरीषस्तु कपीतनः । भण्डिलोऽप्यथ चाम्पेयञ्चम्पको हेमपुष्पकः ॥ एतस्य कलिका गन्धफली स्यादथ केसरे । बकुलो वञ्जुलोऽशोके समौ करकदाडिमौ || चाम्पेयः केसरो नागकेसरः काञ्चनाह्वयः । जया जयन्ती तर्कारी नादेयी वैजयन्तिका ॥ श्रीपर्णमग्निमन्थः स्यात्कणिका गणिकारिका । जयोऽथ कुटजः शक्रो वत्सको गिरिमल्लिका ।। ३९२ एतस्यैव कलिङ्गेन्द्रयवभद्रयवं फले । कृष्णपाकफलाविग्नसुषेणाः करमर्दके || ३९३ कालस्कन्धस्तमालः स्यात्तापिच्छोऽप्यथ सिन्दुके | सिन्दुवारेन्द्रसुरसौ निर्गुण्डीन्द्राणिकेत्यपि ॥३९४ वेणी खरा गरी देवताडो जीमूत इत्यपि । श्रीहस्तिनी तु भूरुण्डी तृणशून्यं तु मल्लिका ॥ ३९५ भूपदी शीतभीरुच सैवस्फोटा वनोद्भवा । शेफालिका तु सुवहा निर्गुण्डी नीलिका च सा ।। ३९६ सितासौ श्वेतसुरसा भूतवेश्यथ मागधी । गणिका यूथिकाम्बष्ठा सा पीता हेमपुष्पिका || ३९७ अतिमुक्तः पुण्ड्रकः स्याद्वासन्ती माधवी लता । सुमना मालती जातिः सप्तला नवमालिका ॥ ३९८ ३८७ ३८८ । ३८९ ३९० ३९१ For Private and Personal Use Only १५ १ 'अशन: ' तालव्यादिरपि २ 'राजाननम्' इति पाठान्तरम् ; 'राज्ञादनफलम्' इत्येकं नाम, 'अध्यक्षम् ' इत्यन्ये-इति मुकुटः ३ दीर्घमध्योऽपि ४ 'कारक : ' ५ नान्तोऽपि. ६ 'बालपत्रश्च' इति मूलपाठः ७ 'अमण्ड', आमण्डश्च. ८ मोत्रापि. ९ अरटुरपि १० कायस्थापि ११ 'पणस इत्यपि पाठः' इति सर्वधरः - इति मुकुटः १२ इज्जलोऽपि १३ 'अगुरुशिंशपा इत्येकं नाम' इति स्वामी - इति मुकुटः १४ रेफान्तोऽपि १५ 'सिन्धुकः ' इति मुकुट १६ 'आस्फोता' इत्यपि. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६ अभिधानसंग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् । ४०२ ४०८ ४०९ ४१० ४११ माध्यं कुन्दं रक्तस्तु बन्धूको बन्धुजीवकः | सहा कुमारी तरणिरम्लानस्तु महासहा ॥ ३९९ तत्र शोणे कुरवकस्तत्र पीते कुरण्टकः । नीला झिण्टी द्वयोर्वाणा दासी चार्तगलश्च सा ॥। ४०० मैरेयकस्तु झिण्टी स्यात्तस्मिन्कुरवको ऽरुणे । पीता कुरण्टको झिण्टी तस्मिन्सहचरी द्वयोः || ४०१ ओपुष्पं जपापुष्पं वज्रपुष्पं तिलस्य यत् । प्रतिहास शतप्रासचण्डातहयमारकाः ॥ करवीरे करीरे तु क्रकरग्रन्थिलावुभौ । उन्मत्तः कितवो धूर्तो धेत्तूरः कनकादयः ॥ मातुलो मदनश्चास्य फले मातुलपुत्रकः । फलपूरो बीजपूरो रुचको मातुलुङ्गके ॥ समीरणो मरुत्रकः प्रस्थपुष्पः फणिज्जकः । जम्बीरोऽप्यथ पर्णासे कठिञ्जरकुठेरकौ ॥ सितेऽर्जकोऽत्र पाठी तु चित्रको वह्निसंज्ञकः । अर्कावसुकास्फोटगणरूपविकीरणाः || मन्दारश्चार्कपर्णोऽत्र शुक्लेऽलर्कप्रतापसौ । शिवमल्ली पाशुपत एकाष्ठीलो बुको वसुः ॥ बन्दा वृक्षादनी वृक्षरुहा जीवन्तिकेत्यपि । वत्सादनी छिन्नरुहा गुडूची तन्त्रिकामृता ॥ जीवन्तिका सोमवल्ली विशल्या मधुपर्ण्यपि । मूर्वा देवी मधुरसा मोरटा तेजनी कुँवा ॥ मधूलिका मधुश्रेणी गोकर्णी पीलुपर्ण्यपि । पाठाम्वष्टा विद्धकर्णी स्थापनी श्रेयसी रसा || एकाष्ठीला पापचेली प्राचीना वनतिक्तिका | कटुः कैटभराशीकरोहिणी कटुरोहिणी ॥ मत्स्यपित्ता कृष्णभेदी चक्राङ्गी शकुलादनी । आत्मगुप्ताजहांव्यण्डा कण्डुरा प्रावृषायणी || ४१२ ऋष्यप्रोक्ता शूकशिम्बिः कपिकच्छुश्च मर्कटी | चित्रोपचित्रा न्यग्रोधी द्रवन्ती शम्बरी वृषा ४१३ I प्रत्यक्श्रेणी सुतश्रेणी रण्डामूषिकपर्ण्यपि । अपामार्गः शैखरिको धामार्गवमयूरकौ ॥ ४१४ प्रकर्णी शपर्णी किणिही खरमञ्जरी । 'हैञ्जिका ब्राह्मणी पद्मा भार्गी ब्राह्मणयष्टिका ॥ ४१५ अङ्गारवल्ली वाले शाकवर्वरवर्धकाः । मञ्जिष्ठा विकेसा जिङ्गी समङ्गा कालमेषिका ॥ ४१६ मण्डूकपर्णी भण्डीरी भण्डी योजनवल्ल्यपि । यासो यवासो दुःस्पर्शो धन्वयासः कुनाशकः।। ४१७ रोदनी कच्छुरानन्ता समुद्रान्ता दुरालभा । पृश्निपर्णी पृथक्पर्णी चित्रपर्ण्यविल्लिका ॥ ४१८ कोटुविन्ना सिंहपुच्छी कलशिर्धावनिर्गुहा । निदिग्धिका स्पृशी व्याघ्री बृहती कण्टकारिका ॥ ४१९ प्रचोदनी कुली क्षुद्रा दुःस्पर्शा राष्ट्रिकेत्यपि । नीली काला कीतकिका ग्रामीणा मधुपर्णिका ॥ ४२० रञ्जनी श्रीफली तुत्था द्रोणी दोल च नीलिनी । अवल्गुजः सोमराजी सुवलि: सोमवल्लिका ||४२१ कालमेत्री कृष्णफला बकुची पूतिफल्यपि । कृष्णोपकुल्या वैदेही मागधी चपला कणा ॥ ४२२ पण पिप्पली शौण्डी कोलाथ करिपिप्पली । कपिवल्ली कोलवल्ली श्रेयसी 'वैशिरः पुमान् ॥ ४२३ व्यं तु चविका काकचिश्रीगुझे तु कृष्णला । पलंकषा लिनुगन्धा श्रदंष्ट्रा स्वादुकण्टकः || ४२४ गोटको गोक्षुरको वनशृङ्गाट इत्यपि । विश्वा विषा प्रतिविषातिविषोपविषारुणा || ४२५ शृङ्गी महौषधं चाथ श्रीरावी दुग्धिका समे । शतमूली बहुसुताभीरुरिन्दीवरी वरी ॥ ऋष्यप्रोक्ताभीरुपत्री नारायण्यः शतावरी । अहेरुरथ पीतडुकालीयक हरिद्रवः || दाव पचपचा दारुहरिद्रा पर्जनीयपि । वचोयगन्धा षड्ग्रन्था गोलोमी शतपविका ॥ शुक्ला हैमवती वैद्यमातृसिंह्यौ तु वौशिका । वृषोsटरूपः सिंहास्यो वासको वाजिदन्तकः || ४२९ ४२६ ४२७ ४२८ For Private and Personal Use Only ४०३ ४०४ ४०५ ४०६ ४०७ १ 'जवा' इत्यपि २ धुस्तूरोऽपि २ 'खवा' इत्यपि ४ 'अविद्धकर्णी' ३ 'कटंवरा'. ६ 'जडा' ७ 'अध्यण्डा'. ८ 'प्रत्यक्पुष्पी ' ९ 'कीशपर्णी' १० 'फञ्जिका' ११ 'विकपा' १२ तालव्यशः १३ 'धनुर्यासः' १४ 'मेला'. १५ ' वागुजी'. १६ 'ऊपणा' १७ दन्त्यवान्. १८ 'पचंवचा' १९ दन्त्यमध्यापि Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-४ वनौषधिवर्गः । आस्फोटा गिरिकर्णी स्याद्विष्णुकान्तापराजिता । इक्षुगन्धा तु काण्डेक्षुकोकिलाक्षेक्षुरक्षुराः॥४३० शालेयः स्याच्छीतशिवछत्रा मधुरिका मिसिः ।मिश्रेयाप्यथ सीहुण्डो वज्रः स्नुक्स्त्री स्नुहीगुडा॥४३१ समन्तदुग्धाथो वेल्लममोघा चित्रतण्डुला । तेण्डुलश्च कृमिन्नश्च विडङ्गं नपुंसकम् ॥ ४३२ बला वाट्यालका घण्टाग्वा तु शणपुष्पिका। मृद्वीका गोस्तनी द्राक्षा स्वाद्री मधुरसेति च ॥ ४३३ सर्वानुभूतिः सरला त्रिपुटा त्रिवृता त्रिवृत् । त्रिभण्डी रोचनी श्यामापालिन्द्यौ तु सुषेणिका ॥४३४ काला ममूरविदलार्धचन्द्रा कालमेषिका । मधुकं क्लीतकं यष्टिमधुकं मधुयष्टिका ॥ ४३५ विदारी क्षीरशुक्लेक्षगन्धा कोष्टी तु या सिता। अन्या क्षीरविदारी स्यान्महाश्वेतर्फगन्धिका ।।४३६ लाङ्गली शारदी तोयपिप्पली शकुलादनी । खराश्वा कारवी दीप्यो मयूरो लोचमस्तकः ॥ ४३७ गोपी श्यामा शारिवा स्यादनन्तोत्पलशारिवा । योगमृद्धिः सिद्धिलक्ष्म्यौ वृद्धेरप्या या इमे ॥ ४३८ कदली वारणवुसा रम्भा मोचांशुमत्फला । काष्टीला मुद्गपर्णी तु काकमुद्गा सहेत्यपि ॥ ४३९ वार्ताकी हिङ्गुली मिही भण्टाकी दुष्प्रधर्षिणी । नाकुली सुरसा रास्ना सुगन्धा गन्धनाकुली॥४४० नकुलेष्टा भुजंगाक्षी छत्राकी सुवहा च सा । विदारिगन्धांशुमती सालपर्णी स्थिरा ध्रुवा ॥ ४४? तुण्डिकेरी समद्रान्ता कार्पासी बदरेति च । भारद्वाजी तु सा वन्या शृङ्गी तु ऋषभो वृषः ॥४४२ गाङ्गेरुकी नागवला झषा ह्रस्वगवेधुका । धामार्गवो घोषकः स्यान्महाजाली स पीतकः॥ ४४३ ज्योत्स्नी पटोलिका जाली नादेयी भूमिजम्बुका । स्याल्लाङ्गलिक्यग्निशिखा काकाङ्गी काकनासिका४४४ गोधापदी तु सुवहा मुसली तालमलिका । अजशृङ्गी विषाणी स्याद्गोजिह्वादाविके समे ॥ ४४५ ताम्बूलवल्ली ताम्बूली नागवल्लयप्यथ द्विजा । हरेणू रेणुका कौन्ती कपिला भस्मगन्धिनी ॥ ४४६ एलावालुकमैलेयं सुगन्धि हरिवालुकम् । वालुकं चाथ पालङ्कयां मुकुन्दः कुन्दकुन्दुरू ॥ ४४७ बालं हीबेरवर्हिष्टोदीच्यं केशाम्बुनाम च । कालानुसार्यवृद्धाश्मपुष्पशीतशिवानि तु ॥ ४४८ शैलेयं तालपर्णी तु दैत्या गन्धकुटी मुरा । गन्धिनी गजभक्ष्या तु सुवहा सुरभी रसा ॥ ४४९ महेरणा कुन्दुरुकी सल्लकी हादिनीति च । अग्निज्वालासुभिक्षे तु धातकी धातुपुष्पिका ॥ ४५० पृथ्वीका चन्द्रवालैला निष्कुटिर्वहुलाथ सा । सूक्ष्मोपकुञ्चिका तुत्था कोरङ्गी त्रिपुटा त्रुटिः॥४५? व्याधिः कुष्टं पारिभाव्यं वाप्यं पाकलमुत्पलम् । शङ्खिनी चोरपुष्पी स्यात्केशिन्यथ वितुन्नकः॥४५२ झटामलाज्झटा ताली शिवा तामलकीति च । प्रपौण्डरीकं पौण्डर्यमथ तुन्नः कुबेरकः ॥ ४५३ कुणिः कच्छः कान्तलको नन्दिवृक्षोऽथ राक्षसी। चण्डा धनहरी क्षेमदुष्पत्रगणहासकाः ॥ ४५४ व्याडायुधं व्याघ्रनखं करजं चक्रकारकम् । सुषिरा विद्रुमलता कपोताधिर्नटी नली॥ ४५५ धमन्यञ्जनकेशी च हनुहट्टविलासिनी । शुक्तिः शङ्खः खुरः कोलदलं नखमथाढकी॥ काक्षी मृत्स्ना तुवरिका मृत्तालकसुराष्ट्र जे । कुटन्नटं दोशपुरं वानेयं परिपेलवम् ॥ ४५७ प्लवगोपुरगोनर्दकैवर्तीमुस्तकानि च । ग्रन्थिपर्ण शुकं बहे पुष्पं स्थौणेयकुकुरे ॥ ४५८ मरुन्माला तु पिशुना स्पृक्का देवी लता लघुः । समुद्रान्ता वधः कोटिवर्षा लङ्कोपिकेत्यपि ॥ ४५९ तपस्विनी जटामांसी जटिला लोमशा मिसी । वपत्रमुत्कट भङ्गं वचं चोचं वराङ्गकम् ॥ ४६० १ 'आस्फोता'. २ 'चित्रतन्तुला'. ३ 'तन्तुल:'. ४ 'सरणा', 'सवहा'. ५ 'रेचनी'. ६ 'लोचमर्कट:'. ७ 'वारणवपा'. ८. 'नागसुगन्धा'. ९ 'ज्योत्स्ना'. १० 'झाटा'. ११ दशपुरम्', 'दशपुरम्'. १२ 'शुकवहम्', 'वहपुष्पम्' इति. १३ 'मरुत्' इति पूर्वान्वय्यपि. For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ अभिधानसंग्रह : -- १ नामलिङ्गानुशासनम् । 1 ४६७ ४६८ ४६९ ४७० ४७१ ४७३ करको द्राविडकः काल्पको वेवमुख्यकः । ओषध्यो जातिमात्रे स्युरजातौ सर्वमौषधम् ॥ ४६१ शाकाख्यं पत्रपुष्पादि तण्डुलीयोऽल्पमारिषः । विशल्याग्निशिखानन्ता फलिनी शकपुष्पिका ॥ ४६२ स्यादृक्षगन्धा छगलान्त्र्यावेगी वृद्धदारकः । जुङ्गो ब्राह्मी तु मत्स्याक्षी वयस्था सोमवल्लरी || ४६३ पटुपर्णी हैमवती स्वर्णक्षीरी हिमावती । हयपुच्छी तु काम्बोजी मात्रपर्णी महासहा ॥ ४६४ तुण्डिकेरी रक्तफला विम्विका पीलुपर्ण्यपि । वश करी तुङ्गी खरपुष्पाजगन्धिका ॥ ४६५ एलपर्णी तु सुवहा रास्ता युक्तरसा च सा । चाङ्गेरी चुक्रिका दन्तशठाम्वष्टाम्बललोणिका ॥ ४६६ सहस्रवेधी चुक्रोऽम्लवेतसः शतवेध्यपि । नमस्कारी गण्डकारी समङ्गा खदिरेयपि ॥ जीवन्ती जीवनी जीवा जीवनीया मधुखवा । कुर्वशीर्षो मधुरकः शृङ्गखाङ्गजीवकाः ॥ किराततिक्तो भूनिम्बोsनार्यतिक्तोऽथ सप्तला । विमला सातला भूरिफेना चर्मकपेत्यपि ॥ वायसोली स्वादुरसा वयस्थाथ मकूलकः । निकुम्भो दन्तिका प्रत्यक्श्रेण्युदुम्बरपर्ण्यपि ॥ अजमोदा तुमगन्धा ब्रह्मदर्भा चैवानिका । मूले पुष्करकाश्मीरपद्मपत्राणि पौष्करे || अव्यथातिचरा पद्मा चारटी पद्मचारिणी । कॉम्पिल्यः कर्कशश्चन्द्रो रक्ताङ्गो रोचनीयपि ॥ ४७२ I पुन्नास्वेडगजो ददुश्चक्रमर्दकः । पद्माट उरणाख्यत्र पलाण्डुस्तु सुकन्दकः ॥ लतार्कदुर्द्रुमौ तत्र हरितेऽथ महौषधम् । लशुनं गृञ्जनारिष्टमहाकन्दरसोनकाः || पुनर्नवा तु शोभनी वितुन्नं सुनिषण्णकम् । स्याद्वातकः शीतलोऽपराजिता रोणपर्ण्यपि ॥ पारावताङ्गिः कटभी पंण्या ज्योतिष्मती लता । वार्षिकं त्रायमाणा स्यात्रायन्ती वलभद्रिका || ४७६ विष्वक्सेनप्रिया गृष्टिर्वाराही वद ेत्यपि । मार्कवो भृङ्गराजः स्यात्काकमाची तु वायसी ॥ शतपुष्पा सितच्छत्रातिच्छत्रा मधुरा मिसिः । अवाक्पुष्पी कारवी च सरणा तु प्रसारिणी || ४७८ तस्यां कटंभरा राजवला भद्रवलेपि । जनी जतूका रजनी जतुकुचक्रवर्तिनी || संस्पर्शाथ शटी गन्धमूली पड्यन्थिकेयपि । कर्चूरोऽपि पलाशोऽथ कारवेल्लः कठिल्लकः || ४८० सुपवी चाथ कुलकं पटोलस्तिक्तः पटुः । कूष्माण्डकस्तु कर्कारुरुवरुः कर्कटी स्त्रियौ | इक्ष्वाकुः कटुतुम्बी स्यात्तम्ब्यलावूरुभे समे । चित्रा गवाक्षी गोडुम्बा विशाला विन्द्रवारुणी ||४८२ अर्शोघ्नः संरणः कन्दो गण्डीरस्तु समष्टिला । कलम्व्युपदिका स्त्री तु मूलकं हिलमोचिका ॥ ४८३ वास्तुकं शाकभेदाः स्युर्दूर्वा तु शतपत्रिका | सहस्रवीर्या भार्गव्यौ रुहानन्नाथ सा सिता ॥ ४८४ गोलोमी शतवीर्या च गण्डाली शकुलाक्षका । कुरुविन्दो मेघनामा मुस्ता मुस्तकमस्त्रियाम् || ४८५ स्याद्भद्रमुस्तको गुन्द्रा चूडाला चकलोच्चटा । वंशे त्वक्सारकर्मारत्वचि सारतृणध्वजाः ॥ 1 शतपवफल वेणुमस्करतेजनाः । वेणवः कीचकास्ते स्युर्ये स्वनन्यनिलोद्धताः ॥ ४७४ ४७५ ४७७ ४७९ ४८१ ४८६ ४८७ ४८८ ४८९ ४९० ४९१ ४५२ १ 'तुण्डकेरी' २ 'श्रमानिका' ३ ' काम्पिल' ४ रेचनी ५ ' प्रपुनाड: ' ६ 'अशनपणी' ७ 'पिण्या'. ८ टि: ९ तालव्यमध्या १० वी ११ 'शूरण:' १२ 'सरः १. १३ मध्यं च. ग्रन्थिर्ना पर्वपरुपी गुन्द्रस्तेजनकः शरः । नस्तु धमनः पोटगलोऽधो काशमखियाम् ॥ इक्षुगन्धा पोटगलः पुंसि भूम्नि तु बल्वजाः । रसाल इस्तद्भेदाः पुण्ड्रकान्तारकादयः || स्याद्वीरणं वीरतरं मूलेऽम्योशीरमस्त्रियाम् । अभयं नलई सेव्यममुणालं जलाशयम् ॥ लामज्जकं लघुलयमवदाहेष्टकापथे । नडादयस्तृणं गच्छामाकप्रमुखा अपि ॥ अस्त्री कुशं कुथो दर्भः पवित्रमथ कत्तृणम् । पौग्मौगन्धिकध्यामदेवजग्धकरौहिपम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-५ सिंहादिवर्गः । छत्रातिच्छत्रपालन्नौ मालातृणकभस्तृणे । शष्पं बालतृणं घासो यवसं तृणमर्जुनम् ॥ ४९३ तृणानां संहतिस्तृण्या नड्या तु नडसंहतिः । तृणराजाहय स्तालो नालिकेरन्तु लागली ॥ ४९४ घोण्टा तु पूगः क्रमुको गुवाकः ग्वपुरोऽस्य तु । फलमुद्वेगमेते च हिन्तालसहितास्त्रयः॥ ४९५ खजूर: केतकी ताली खजूरी च तृणद्रुमाः ।। इति वनौषधिवर्गः ॥ ४॥ सिंहो मृगेन्द्रः पञ्चास्यो हर्यक्षः केसरी हरिः । शार्दूलद्वीपिनौ व्याने तरक्षुस्तु मृगादनः ॥ ४९७ वगहः संकरो घृष्टिः कोल: पोत्री किर: किटिः । दंष्ट्री घोणी स्तव्धरोसा कोडो भदार इत्यपि ४९८ कपिप्लवंगप्लवगशाखामृगवलीमुखाः । मर्कटो वानरः कीशो वनौका अथ भल्लुके ॥ ४९९ ऋक्षाच्छभल्लभैल्लका गण्डके खड्ग खङ्गिनौ । लुलायो महिषो वाह द्विषत्कासरसैरिभाः ॥ ५०० स्त्रियां शिवा भरिमायगोमायुमृगधूर्तकाः । शृगालवञ्चकक्रोष्टफेरुफेरवजम्बुकाः ॥ ५०१ ओतुधिंडालो मानारो वृपदंशक आनुभुक् । त्रयो गौधेरगौधारगौधेया गोधिकात्मजे ॥ ५०२ श्वावित्त शल्यस्तल्लोम्नि शलली शललं शलम् । वातप्रमीतिमृगः कोकस्वीहामृगो वृकः ॥ ५०३ मृगे कुरङ्गवातायुहरिणाजिनयोनयः । ऐणेयमेण्याश्चर्माद्यमेणस्यैणमुझे त्रिषु ॥ ५०४ कदली कन्दली चीनश्चमप्रियकावपि । समरुश्चेति हरिणा अमी अजिनगोनयः ॥ कृष्णसाररुरुन्यङ्करशम्बररौहिपाः । गोकर्णपृषतैणर्यरोहिताश्चमरो मृगाः ॥ गन्धर्वः शरभो रामः सृमरो गवयः शशः । इत्यादयो मृगेन्द्राद्या गवाद्याः पशुजातयः ॥१५०७ उन्दुरुर्मर्षकोऽप्यावर्गिरिका बालमूषिका । सरटः कृकलासः स्यान्मुसली गृहगोधिका ॥ ५०८ लता स्त्री तन्तुवायोर्णनाभमर्कटकाः समाः । नीलगुस्तु कृमिः कर्णजलौकाः शतपाभे ॥ ५०९ वृश्चिकः शुक्रकीटः स्यादलिद्रुणौ तु वृश्चिके । पारावतः कलरवः कपोतोऽथ शशादनः ।। ५१० पत्री श्येन उलकन्तु वायसारातिपेचकौ ।' व्याबाटः स्याद्भरद्वाजः खञ्जरीटस्तु ग्वञ्जनः ॥ ५११ लोहपृष्टस्तु कङ्कः स्यादथ चापः किंकीदिविः । कलिङ्गभङ्गाम्याटा अथ स्याच्छतपत्रकः ॥ ५१२ दार्वाघाटोऽथ सारङ्गस्तोककश्चातकः समाः । कृकवाकुस्तानचटः कुकुटश्चरणायुधः ॥ ५१३ चटकः कलविताः स्यात्तस्य स्त्री चटका तयोः । पुमपत्ये चाटकैररुयपत्ये चटकैव सा ॥ ५१४ कैरेटुः करेटुः स्यात्कृकणककरौ समौ । वनप्रियः परभृतः कोकिल: पिक इत्यपि ॥ ५१५ काके तु करटारिष्टवलिपुष्टसकृत्प्रजाः । ध्वानात्मघोषपरभलिभग्यायसा अपि ॥र ५१६ द्राणकाकस्तु काकोलो दात्यूहः कालकण्ठकः । आँतायिचिल्लो दाक्षाय्यगृध्रौ कीरशुको समौ ॥५१७ क्रुङ्क्रौञ्चोऽथ बकः कहः पुष्कगह्वस्तु सारसः । कोकश्चऋश्चक्रवाको ग्याङ्गाहयनामकः ॥ ५१८ १ 'शस्पम्'. २ 'नारिकेलः'. ३ 'केशरी'. ४ एतद्ने कण्ठीरवी मृगरिपुर्मुगदृष्टिमंगाशनः । पुण्डरीकः पञ्चनखचित्रकायमृगद्विपः ॥' इति प्रक्षिप्तम. ५ 'शूकर:.' ६ किरिः.' ७ 'भालकः', 'भालूकः'. ८ 'सृगालः'. ९ दीर्घमध्योऽपि. १० तालव्यमध्योऽपि. ११ 'रोहिट' हलन्तोऽपि. १२ एतदने 'अधोगन्ता तु खनको वृकः पुंवज उन्दुरः' इति प्रक्षिप्तम. १३ इकारमध्योऽपि. १४ आकारमध्योऽपि. १५ नान्तोऽपि; आलिरपि. १६ 'द्रोणः'. १७ एतदने 'दिवान्धः कौशिको धको दिवाभीतो निशाटनः' इति प्रक्षिप्तम, १८ दीर्घतृतीयेका. र श्वायम् , चतुईवश्य; 'किकिः', 'दिांवः'. १९ तालव्यादिरांप. २० 'कर्कराटः'. २१ करटः'. २२ एतदने 'स एव च चिरंजीवी चकदृष्टिश्च मौकुलिः' इति प्रक्षिप्तम्, २३ 'आतापि'. For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । कादम्बः कलहंसः स्यादुत्क्रोशकुरगै समौ । हंसास्तु श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकसः ॥ ५१९ राजहंसास्तु ते चक्षुचरणैर्लोहितैः सिताः । मलिनैमल्लिकाक्षास्ते धार्तराष्ट्राः सितेतरैः॥ ५२० शगरिराटिगडिश्च बलाका विसकण्ठिका । हंसस्य योषिद्वरटा सारसस्य तु लक्ष्मणा ॥ ५२१ जतुकाजिनपत्रा स्यात्परोष्णी तैलपायिका । वर्वणा मक्षिका नीला सग्घा मधुमक्षिका ॥ ५२२ पतङ्गिका पुत्तिका स्यादंशस्तु वनमक्षिका । दंशी तज्जातिरल्पा स्याद्गन्धोली वरटा द्वयोः ॥ ५२३ भृङ्गारी झीरुका चीरी झिल्लिका च समा इमाः । समौ पतङ्गशलभौ खद्योतो ज्योतिरिङ्गणः ॥५२४ मधुव्रतो मधुकरी मधुलिण्मधुपालिनः । द्विरेफपुष्पलिड्भृङ्गपट्पदभ्रमरालयः॥ ५२५ मयूरो वर्हिणो वीं नीलकण्ठो भुजंगभुक् । शिखावल: शिखी केकी मेघनादानुलास्यपि ॥ ५२६ केका वाणी मयूरस्य समौ चन्द्रकमेचकौ । शिखा चडा शिखण्डस्तु पिच्छबहे नपुंसके ॥ ५२७ खगे विहंगविहगविहंगमविहायसः । शकुन्तिपक्षिशकुनिशकुन्त शकुनद्विजाः ॥ ५२८ पतत्रिपत्रिपतगपतत्पत्रग्याण्डजाः । नगौकोवाजिविकिरविविष्किरपतत्रयः ॥ ५२९ नीडोद्भवा गरुत्मन्तः पित्सन्तो नभसंगमाः । तेषां विशेषा हारीतो मद्गुः कारण्डवः प्लवः ॥५३० तित्तिरिः कुकभो लावो जीवजीवश्वकोरकः । कोयष्टिकष्टिट्टिभको वर्तको वर्तिकादयः॥ ५३१ गरुत्पक्षच्छदाः पत्रं पतत्रं च तनूरुहम् । स्त्री पक्षतिः पक्षमूलं चञ्चस्रोटिरुभे स्त्रियौ ॥ ५३२ प्रडीनोडीनसंडीनान्येताः खगगतिक्रियाः । पेशीकोषो द्विहीनेऽण्डं कुलायो नीडमस्त्रियाम् ॥ ५३३ पोतः पाकोऽर्भको डिम्भः पृथकः शावकः शिशुः । स्त्रीपुंसौ मिथुनं द्वन्द्वं युग्मं तु युगलं युगम् ५३४ समूहो निवहव्यूहसंदोहविसरबजाः । स्तोमौघनिकरत्रातवारसंघातसंचयाः ॥ समुदायः समुदयः समवायश्चयो गणः । स्त्रियां तु संहतिवृन्दं निकुरम्वं कदम्बकम् ॥ ५३६ वृन्दभेदाः समैर्वर्ग: संघसार्थी तु जन्तुभिः । सजातीयैः कुलं यूयं तिरश्चां पुनपुंसकम् ।। ५३७ पशूनां समजोऽन्येषां समाजोऽथ सधर्मिणाम् । स्यान्निकायः पुञ्जगशी तूत्कर: कूटमस्त्रियाम५३८ कापोतशौकमायग्तैत्तिगदीनि तद्गणे । गृहासक्ताः पक्षिमृगाश्छेकास्ते गृह्यकाश्च ते ॥ ५३९ इति सिंहादिवर्गः ।। ५॥ मनुष्या मानुषा मां मनुजा मानवा नगः । स्युः पुमांसः पञ्चजनाः पुरुषाः पूरुषा नरः ॥ ५४० स्त्री योपिदबला योषा नारी सीमन्तिनी वधूः । प्रतीपदर्शिनी वामा वनिता महिला तथा ॥ ५४१ विशेषास्त्वङ्गना भीरुः कामिनी वामलोचना । प्रमदा मानिनी कान्ता ललना च नितम्विनी ॥५४२ सुन्दरी ग्मणी गमा कोपना सैव भामिनी । वगगेहा मत्तकाशिन्युत्तमा वरवणिनी ॥ ५४३ कृताभिषेका महिपी भोगिन्योऽन्या नृपस्त्रियः । पत्नी पाणिगृहीती च द्वितीया सहर्मिणी॥५४४ भाया जायाथ पुंभन्नि दागः स्यात्त कुटुम्बिनी । पुगंधी सुचरित्रा तु सती साध्वी पतिव्रता ॥५४५ कृतमापत्निकाध्यूढाधिविन्नाथ स्वयंवग । पतिंवग च वर्याच कुलस्त्री कुलपालिका ॥ ५४६ कन्या कुमारी गौरी तु नग्निकानागतार्तवा । स्यान्मध्यमा दृष्टग्जास्तरुणी युवतिः समे ॥ ५४७ समाः म्नुपाजनीवध्वश्चिरिण्टी तु स्ववासिनी । इच्छावती कामुका स्यादृपस्यन्ती तु कामुकी ५४८ कान्तार्थिनी तु या याति मंकेतं साभिसारिका । पुंश्चली धर्षिणी बन्धक्यसती कुलटेवरी ॥५४९ १ अदन्तो पि. २ पक्षः' सान्तं क्लीव च. ३ संघातविगृहीतवायम्. ४ ‘जोपा'. ५ महेलापि. ६ भाविनी', भवासिनी । 'चर्षणी, For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-६ मनुष्यवर्गः । स्वैरिणी पांशुला च स्यादशिश्वी शिशुना विना । अबीग निष्पतिसुता विश्वस्ताविधवे समे ॥५५० आलि: सखी वयस्याथ पतिवत्नी सभर्तृका । वृद्धा पलिक्नी प्राज्ञी तु प्रज्ञा प्राज्ञा तु धीमती ॥५५१ शूद्री शूद्रस्य भार्या स्याच्छूद्रा तज्जातिरेव च । आभीरी तु महाशूद्री जातियोगयोः समा।।५५२ अर्याणी स्वयमर्या स्यात्क्षत्रिया क्षत्रियाण्यपि । उपाध्यायाप्युपाध्यायी स्यादाचार्यापि च स्वतः ॥५५२ आचार्यानी तु पुंयोगे स्यादी क्षत्रियी तथा । उपाध्यायान्युपाध्यायी पोटा स्त्रीपुंसलक्षणा ॥५५४ वीरपत्री वीरभार्या वीरमाता तु वीरसः । जातापत्या प्रजाता च प्रसूता च प्रसूतिका ॥ ५५५ स्त्री नग्निका कोटॅवी स्याहृतीसंचारिके समे । कात्यायन्यर्धवृद्धा या काषायवसनाधवा ॥ ५५६ "सैरन्ध्री परवेश्मस्था स्ववशा शिल्पकारिका । असिनी स्यादवृद्धा या प्रेष्यान्तःपुरचारिणी ॥ ५५७ वारखी गणिका वेश्या रूपाजीवाथ सा जनैः । सत्कृता वारमुख्या स्यात्कुट्टनी शम्भली समे ॥५५८ विप्रश्निका वीक्षणिका दैवज्ञाथ रजस्वला । स्त्रीधर्मिण्यविरात्रेयी मलिनी पुष्पवयपि ॥ ५५९ ऋतुमत्यप्युदक्यापि स्याद्रजः पुष्पमार्तवम् । श्रद्धालुर्दोहदवती निष्कला विगतातवा ॥ ५६० आपन्नसत्त्वा स्याद्गुविण्यन्तर्वनी च गभिणी । गणिकादेस्तु गाणिक्यं गाभिणं यौवतं गणे ॥ ५६१ पुनर्भूदिधिपूरूढा द्विस्तस्या दिधिषुः पतिः । स तु द्विजोऽग्रेदिधिषूः सैव यस्य कुटुम्बिनी ॥ ५६२ कानीनः कन्यकाजातः सुतोऽथ सुभगासुतः । सौभागिनेयः स्यात्पारस्त्रैणेयस्तु परस्त्रियाः॥ ५६३ पैतृप्वसेयः स्यात्पैतृप्वस्रीयश्च पितृष्वसुः । सुतो मातृष्वसुश्चैवं वैमात्रेयो विमातृजः॥ ५६४ अथ बान्धकिनेयः स्याद्वन्धुलश्चासतीसुतः । कौलटेरः कौलटेयो भिक्षुकी तु सती यदि ॥ ५६५ तदा कौलटिनेयोऽस्याः कौलटेयोऽपि चात्मजः । आत्मजस्तनयः सूनुः सुतः पुत्रः स्त्रियां त्वमी ५६६ आहुर्दुहितरं सर्वेऽपत्यं तोकं तयोः समे । स्वजाते चौरसोरस्यौ तातस्तु जनकः पिता ॥ ५६७ जनवित्री प्रसौता जननी भगिनी स्वसा । ननान्दा तु स्वसा पत्यु प्वी पौत्री सुतात्मजा ॥ ५६८ भार्यास्तु भ्रातृवर्गस्य यातरः स्युः परस्परम् । प्रजावती भ्रातृजाया मातुलानी तु मातुली ॥ ५६९ पतिपत्न्योः प्रसः श्वश्रूः श्वशुरस्तु पिता तयोः । पितुर्कीता पितृव्यः स्यान्मातुभ्राता तु मातुल: ५७० यालाः स्युर्धातरः पत्न्याः स्वामिनो देवृदेवरौ । स्वस्रीयो भागिनेयः स्याज्जामाता दुहितुः पतिः॥५७१ पितामहः पितृपिता तत्पिता प्रपितामहः । मातुर्मातामहाद्येवं सपिण्डास्तु सनाभयः ॥ ५७२ समानोदर्यसोदर्यसगर्यसहजाः समाः । सगोत्रवान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः ॥ ५७३ ज्ञातेयं बन्धुता तेषां क्रमाद्भावसमूहयोः। धवः प्रियः पतिर्भर्ता जारस्तूपपतिः समौ ॥ ५७४ अमृते जारज: कुण्डो मृते भर्तरि गोलकः । भ्रात्रीयो भ्रातृजो भ्रातृभगिन्यौ भ्रातरावुभौ ॥ ५७५ मातापितरौ पितरौ मातरपितरौ प्रसूजनयितारौ । श्वश्रूश्वशुरौ श्वशुगै पुत्रौ पुत्रश्च दुहिता च ॥ दंपती जंपती जायापती भार्यापती च तौ । गर्भाशयो जरायुः स्यादुल्वं च कललोऽस्त्रियाम् ॥ ५७७ सूतिमासो वैजननो गर्भो भ्रूण इमौ समौ । तृतीयाप्रकृतिः शण्ढः क्लीवः पण्डो नपुंसके ॥ ५७८ शिशुत्वं शैशवं बाल्यं तारुण्यं यौवनं समे । स्यात्स्थाविरं तु वृद्धलं वृद्धसंघेऽपि वार्धकम् ॥ ५७९ पलितं जरसा शौक्ल्यं केशादौ विस्रसा जरा । स्यादुत्तानशया डिम्भा स्तनपा च स्तनंधयी ॥५८० ५ दन्त्यमध्या च. २ निवकारा च. ३ 'कोडवी'. ४ 'सैरिन्ध्री.' ५ 'या' मूर्धन्यमध्यापि. ६ दन्त्यादिगणे अवी निष्कली . 'यौवनम्', .. इस्वमध्यापि, ११ दन्त्यादिरपि. For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । वालस्तु स्यान्माणवको वयस्थस्तरुणो युवा । प्रवयाः स्थविरो वृद्धो जीनो जीर्णो जरन्नपि ॥ ५८१ वर्षीयान्दशमी ज्यायान्पूर्वजस्त्वग्रियो ऽग्रजः । जवन्यजे स्युः कनिष्टयवीयोऽवरजानुजाः ॥ ५८२ अमांसो दुर्वलश्छीतो बलवान्मांसलोंऽसलः । तुन्दिलस्तुन्दिभस्तुन्दी बृहत्कुक्षिः पिचण्डिलः ॥५८३ अवटीटोऽवनाटश्चावभ्रटो नतनासिके । केशवः केशिकः केशी वलिनो वलिभः समौ ॥ ५८४ विकलाङ्गस्वपोगण्डः खर्वो ह्रस्वश्च वामनः । खरणाः स्यात्वरणसो विग्रस्तु गतनासिकः ॥ ५८५ खुग्णाः स्यात्खुरणस: पंजुः प्रगतजानुकः । उर्ध्वज़ुरूर्वजानुः स्यात्सं ः संहतजानुकः ॥ ५८६ स्यादेडे वधिरः कुब्जे गडुलः कुकरे कुणिः । पृश्निरल्पतनौ श्रोणः पङ्गौ मुण्डस्तु मुण्डिते ॥ ५८७ बलिर: केकरे खोडे खञ्जस्त्रिषु जगवराः । जडुलः कालकः पिप्लुस्तिलकस्तिलकालकः॥ ५८८ अनामयं स्यादारोग्यं चिकित्सा रुकप्रतिक्रिया । भेषजौषधभैषज्यान्यगदी जायुरित्यपि ॥ ५८९ स्त्री रुग्रुजा चोपतापरोगव्याधिगदामयाः । क्षयः शोषश्च यक्ष्मा च प्रतिश्यायस्तु पीनसः॥ ५९० स्त्री क्षक्षुतं क्षवः पुंसि कासस्तु क्षवथुः पुमान् । शोफस्तु श्वयथुः शोथः पादस्फोटो विपादिका ५९१ किलाससिध्मे कच्छां तु पाम पामा विचिका। कण्डः खर्जुश्च कण्ड्या विस्फोटः पिंटका स्त्रियाम५९२ वणोऽस्त्रियामीर्ममरु: क्लीवे नाडीव्रणः पुमान् । कोठो मण्डलकं कुष्टश्वित्रे दुर्नामकार्शसी॥ ५९३ आनाहस्तु निवन्धः स्याग्रहणीरुक्प्रवाहिका । प्रच्छर्दिका वमिश्च स्त्री पुमांस्तु वमथः समाः ॥ ५९४ व्याधिभेदा विद्रधिः स्त्री ज्वरमेहभगंदराः। अश्मरी मूत्रकृच्छ स्यात्पूर्वे शुक्रवधेत्रिषु॥ ५९५ गंगहार्यगदंकारो भिषग्वैद्यौ चिकित्सके । वातों निगमयः कल्य उल्लाघो निर्गतो गदात् ॥ ५९६ ग्लानग्लाम्नू आमयावी विकृतो व्याधितोऽपटुः। आतुगेऽभ्यमितोऽभ्यान्तः समौ पामनकच्छगै ५९७ दंदणो दरोगी स्यादर्शोगेगयुतोऽर्शसः । वातकी वातरोगी स्यात्सातिसारोऽतिसागकी ॥ ५९८ स्युः क्लिन्नाक्षे चुल्लचिल्लपिल्लाः किन्नेऽक्ष्णि चाप्यमी। उन्मत्त उन्मादवति शामलः श्लेष्मणः कफी ५९९ न्युटजो भुग्ने रुजा वृद्धनाभी तुन्दिलतुन्दिभौ । किलासी सिध्मलोऽन्धोऽहमूर्छाले मूर्तमछितौ ६०० शुक्रं तेजोगतमी च वीजवीन्द्रियाणि च । मायुः पित्तं कफः श्लेष्मा स्त्रियां तु वर्गसृग्धरा ॥६०१ पिशितं तसं मांसं पललं क्रव्यमामिषम् । उत्तप्तं शुष्कमांसं स्यात्तद्वल्लूरं त्रिलिङ्गकम् ॥ ६०२ रुधिरेऽसृग्लोहितास्ररक्तक्षतजशोणितम् । वकाग्रमांसं हृदयं हृन्मेदस्तु वपा वसा ॥ ६०३ पश्चाद्रीवाशिरा मन्या नाडी तु धमनिः शिंगे । तिलकं क्लोम मस्तिष्कं गोद किटं मलोऽस्त्रियाम् ६०४ अन्त्रं पुरीतदुल्मस्त प्लीहा पुंस्यथ वस्नसा । स्नायुः स्त्रियां कालखण्डयकृती तु समे इमे ॥ ६०५ मृणिका पन्दिनी लाला दृपिका नेत्रयोर्मलम् । मत्रं प्रस्राव उच्चारावस्करी शमलं शकृत् ॥६०६ पुरीपं गवर्चस्कमस्त्री विष्टाविशौ स्त्रियौ । स्यात्कर्परः कपालोऽस्त्री कीकसं कुल्यमस्थि च ॥ ६०७ स्याच्छरीगस्थि कंकाल: पृष्टास्नि तु कशेरुका। शिरोऽस्थनि करोटिः स्त्री पास्थिनि तु पशुकाद०८ अङ्गं प्रतीकोऽवयवोऽपधनोऽथ कलेवरम् । गात्रं वपुः संहननं शरीरं वर्म विग्रहः ॥ ६०९ 2. 'आग्रमः'. २ 'शातः'. ३ 'प्रज्ञः . ४ 'ऊर्ध्वज्ञः'. ५ 'संज्ञः'. ६ 'काशः'. ७ 'सिध्मा' नान्तोऽपि. ८ 'पामा' इति नान्तडाबन्तयोः स्त्रीलिङ्गयोनिर्देशः. ९ 'पिटकस्त्रिप' इत्यपि पाटः; विटकापि. १० एतद श्लीपदं पादवल्मीक केशम्नस्त्विन्द्रलुप्तकः' इति प्रक्षिप्तम. ११ 'दर्द्वणः'. १२ 'दद्रुः १३ 'असृग्वरा'. १४ 'बक्का' नान्तः पुंलिङ्गः, टावन्तो वा; नान्तं क्लीवं वा. १५ सिरा'. १६ अदन्तमाप. १७ टाबन्तापि. १८ एनद 'नामामलं नु सिङ्गाणं पिञ्जष कणयोर्मलम्' इति प्रक्षितम्, For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्टम-६ मनुष्यवर्गः। कायो देहः क्लीवपुंसोः स्त्रियां मूर्तिस्तनुस्तनूः । पादानं प्रपदं पादः पदंद्विश्चरणोऽस्त्रियाम् ॥ ६१. तद्वन्धी घुटिके गुल्फो पुमान्पाणिस्तयोग्धः । जङ्घा तु प्रसृता जानूरुपर्वाष्टीवदस्त्रियाम् ॥ ६११ मक्थि क्लीवे पुमानुरुस्तत्संधिः पुंसि वक्षणः । गुदं खपानं पायुर्ना वस्ति भेरधो द्वयोः॥ ६१२ कटो ना श्रोणि फलकं कटिः श्रोणिः ककुद्मती । पश्चान्नितम्बः स्त्रीकट्याः क्लीवे तु जघनं पुरः६१३ कृपकौ तु नितम्बस्थौ दयहीने कुकुन्दरे । स्त्रियां स्फिचौ कटिमोथावुपस्थो वक्ष्यमाणयोः ॥ ६१४ भगं योनियोः शिश्नो मेट्रो मेहनशेफसी । मुष्कोऽण्डकोशो वृषणः पृष्ठवंशाधरे त्रिकम् ॥ ६१५ पिचण्टकुक्षी जठगेदरं तुन्दं स्तनौ कुचौ । चूचुकं तु कुचाग्रं स्यान्न ना कोडं भुजान्तरम् ॥ ६१६ उगे वत्सं च वक्षश्च पृष्टं तु चग्मं तनोः । स्कन्धो भुजशिरोंसोऽस्त्री संधी तस्यैव जत्रुणी ॥ ६१७ वाहमले उभे कक्षी पार्श्वमस्त्री तयोरधः । मध्यमं चावलग्नं च मध्योऽत्री द्वौ पगै द्वयोः ॥ ६१८ अजवाह प्रवेट्रो दोः स्यात्कफोणिस्तु कर्परः । अस्योपरि प्रगण्डः स्यात्प्रकोष्ठस्तस्य चाप्यधः ॥६१९ मणिबन्धादाकनिष्टं करस्य करभो वहिः । पञ्चशाखः शयः पाणिस्तर्जनी स्यात्प्रदेशिनी ॥ ६२० अङ्गुल्यः करशाग्वाः म्युः पुंस्यङ्गुष्टः प्रदेशिनी । मध्यमानामिका चापि कनिष्टा चेति ताः क्रमात् ६२१ पुनर्भवः कररहो नवोऽस्त्री नखगेऽस्त्रियाम् । प्रादेशतालगोकर्णास्तर्जन्यादियुते तते ॥ ६२२ अङ्गुष्टे मकनिष्टे स्याद्वितस्तिदिशाङ्गुलः । पाणौ चपेटप्रतलप्रहस्ता विस्तृताङ्गुलौ ॥ ६२३ द्वौ संहतो संहतलप्रतलौ वामदक्षिणौ । पाणिनिकुञः प्रमृतिस्तौ गुतावञ्जलिः पुमान् ॥ ६२४ प्रकोष्ठे विस्तृतको हस्तो मुष्टया तु बद्धया । स रनिः स्थादरनिस्तु निष्कनिष्ठेन मुष्टिना ॥ ६२५ व्यामो बाहोः सकग्योततयोस्तिर्यगन्तरम् । ऊर्ध्वविस्तृतदोःपाणिनृमाने पौरुषं त्रिषु ॥ २६ कण्ठो गलोऽथ ग्रीवायां शिरोधिः कंधरेत्यपि । कम्युग्रीवा त्रिरेखा सावटुीटा कृकाटिका ।। ६२७ वक्राम्ये वदनं तुण्डमाननं लपनं मुखम् । क्लीवे ब्राणं गन्धवहा घोणा नासा च नासिका ॥३२८ ओष्टाधगै तु रदनच्छदौ दशनवाससी । अधस्ताचिबुकं गण्डौ कपोलौ तत्परा हनुः ॥ ६२९ ग्दना दशना दन्ता ग्दास्तालु तु काकुदम् । सज्ञा सना जिह्वा प्रान्तावोष्टस्य मुंकिणी ॥ ६३० ललाटमलिकं गोधिरुवं दग्भ्यां ध्रुवौ स्त्रियौ । कूर्चमस्त्री भ्रुवोर्मध्यं तारकाक्ष्णः कनीनिका ॥६३१ लोचनं नयनं नेत्रमीक्षणं चक्षुरक्षिणी । दग्दृष्टी चास्नु नेत्रास्त्रु रोदनं चास्रमश्रु च ॥ ६३२ अपाङ्गौ नेत्रयोगन्तौ कटाक्षोऽपाङ्गदर्शने । कर्णशब्दग्रहौ श्रोत्रं श्रुतिः स्त्री श्रवणं श्रवः ॥ ६३३ उत्तमाङ्गं शिरः शीर्ष मूर्धा ना मस्तकोऽस्त्रियाम् । चिकुरः कुन्तलो वाल: कचः केशः शिगेरुहः६३४ तद्वन्दे कैशिकं कैश्यमलकाचूर्णकुन्तलाः । ते ललाटे भ्रमरका: काकपक्षः शिखण्डकः ॥ ६३५ कवरी केशवेशोऽथ धम्मिल: संयताः कचाः । शिखा चूडा केशपाशी व्रतिनस्तु सटा जटा ॥६३६ वेणिः प्रवेणी शीर्षण्यशिरस्यौ विशदे कचे । पाश: पक्षश्च हस्तश्च कलापार्थाः कचात्परे ॥ ६३७ तनमहं गेम लोम तद्धौ उमश्रु पंमुखे । आकल्पवेषौ नेपथ्यं प्रतिकर्म प्रसाधनम् ॥ १३८ दशैते त्रिवलंकर्तालंकारिष्णुश्च मण्डितः । प्रसाधितोऽलंकृतश्च भूषितच परिष्कृतः ॥ ६३९ १ सान्तापि. २ 'अहोरहोद्रुहिणाः संहपीती च घश्रुतयः'. ३ 'शेपः'. ४ ‘च विलग्नं च'. ५ अदन्तोऽपि. ६ 'शमः . ७ 'अङ्गरी.' ८ 'चपट'. ९ रशना'. १० इदन्तकीबद्विवचनम् , 'स्कन्', 'सृक्वन्', अदन्तं सूत्रमपि; 'मकणी' यन्ता च; 'सूक णि'; इतीदन्तोऽपि. ११ अदन्तः, सान्तमपि. १२ सान्तम् , अदन्तोऽपि. १३ 'शियाण्डकः'. १४ 'वेशः'. For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ अभिधानमंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । विभ्राड् भ्राजिष्णुगेचिष्णू भूषणं स्यादलंक्रिया। अलंकारस्वाभरणं परिष्कागे विभूषणम् ॥ ६४० मण्डनं चाथ मुकुटं किरीटं पुनपुंसकम् । चूडामणिः शिरोरत्नं तरलो हारमध्यगः ॥ ६४१ वालपाश्या पारितथ्या पत्रपाश्या ललाटिका । कर्णिका तालपत्रं स्यात्कुण्डलं कर्णवेष्टनम् ॥ ६४२ प्रैवेयकं कण्ठभूपा लम्बनं स्याललन्तिका । स्वर्णैः प्रालम्बिकाथोरःसूत्रिका मौक्तिकैः कृता ॥ ६४३ हागे मुक्तावली देवच्छन्दोऽसौ शतयष्टिका । हाम्भेदा यष्टिभेदारोच्छगुच्छार्धगोलनाः ॥ ६४४ अर्थहारो माणवक एकावल्येकयप्टिका । मैव नक्षत्रमाला स्यात्सप्तविंशतिमौक्तिकैः॥ ६४५ आवापकः पारिहार्यः कटको वलयोऽस्त्रियाम् । केयूगमङ्गदं तुल्ये अङ्गुलीयकमूमिका ॥ ६४६ माक्षगङ्गुलिमुद्रा स्यात्कङ्कणं करभूषणम् । स्त्रीकट्यां मेखला काञ्ची सप्तकी शिना तथा ॥ ६४७ की सारसनं चाय पुंस्कट्यां शृङ्खलं त्रिषु । पादाङ्गदं तुलाकोटिर्म जीरो नूपुरोऽस्त्रियाम् ॥ १४८ हेमकः पादकटकः किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका । वक्फलकृमिरोमाणि वस्त्रयोनिर्दश त्रिषु ॥ ६४९ वाल्वं क्षौमादि फालं तु कार्पासं वादरं च तन् । कौशेयं कृमिकोशोत्थं गवं मृगगेमजम।। ६५० अनाहतं निष्प्रवाणि तत्रकं च नवाम्बग्म् । तत्स्यादुद्गमनीयं यद्धौतयोर्वस्त्रयोर्युगम् ॥ ६५१ पत्रोर्ण धौतकौशेयं बहुमूल्यं महाधनम् । क्षौमं दुकूलं स्याहे तु निवीतं प्रावृतं त्रिषु ॥ ६५२ स्त्रियां वहुवे वस्त्रस्य दशाः स्युर्वस्तयो द्वयोः । दैर्ध्यमायाम आगेहः परिणाहो विशालता ॥ ६५३ पटचर जीर्णवस्त्रं समौ नक्तककर्पटौ । वस्त्रमाच्छादनं वासश्चैलं वसनमंशुकम् ॥ ६५४ सुचेलकः पटोऽस्त्री स्याद्वैगशिः स्थूलशाटकः । निचोल: प्रच्छदपटः समौ रल्लककम्बलौ॥ ६५५ अन्तर्गयोपसंव्यानपरिधानान्यधोंऽशुके । द्वौ प्रावागेत्तगसङ्गो समौ वृहतिका तथा ॥ ६५६ संव्यानमुत्तरीयं च चोलः कूपर्पसकोऽस्त्रियाम् । नीशार: स्यात्प्रावरणे हिमानिलनिवारणे ॥ ६५७ अर्धोळकं वरस्त्रीणां स्याञ्चण्डातकमस्त्रियाम् । स्यात्रिष्वाप्रपदीनं तत्प्राप्नोत्याप्रपदं हि यत् ॥ ६५८ अस्त्री वितानमुल्लोचो दृष्यावं वस्त्रवेश्मनि । प्रतिसीग जैवनिका स्यात्तिरस्करिणी च सा ॥ ६५९ परिकाङ्गसंस्कारः स्यान्माष्टिार्जना मृजा । उद्वर्तनोत्सादने द्वे समे आप्लाव आप्लवः ॥ ६६० स्नानं चर्चा तु चाचिक्यं स्थासकोऽथ प्रवोधनम् । अनुबोधः पत्रलेखा पत्राङ्गुलिरिमे समे ॥ ६६१ तमालपत्रतिलकचित्रकाणि विशेषकम् । द्वितीयं च तुरीयं च न स्त्रियामथ कुङ्कमम् ॥ ६६२ काश्मीरजन्माग्निशिखं वरं वाल्हीकपीतने । रक्तसंकोचपिशुनं धीरं लोहितचन्दनम् ॥ १६३ लाक्षा गक्षा जतु क्लीवे यावोऽलक्तो द्रुमामयः । लवङ्गं देवकुसुमं श्रीसंज्ञमथ जायकम् ॥ ६६४ कालीयकं च कालानुसार्य चाथ समार्थकम् । वंशिकागुरुगजाहलोहं कृमिजजोङ्गकम् ॥ ६६५ कालागुर्वगुरु स्यात्तन्मङ्गल्या मल्लिगन्धि यत् । यक्षधूपः सर्जरसोऽगलसर्वरसावपि ॥ बहुरूपोऽप्यथ वृकधूपकृत्रिमधूपकौ । तुरुष्कः पिण्डकः सिल्हो यावनोऽप्यथ पायसः ॥ ६६७ श्रीवासो वृकधूपोऽपि श्रीवेष्टसग्लद्रवौ । मृगनाभिमृगमदः कस्तूरी चाथ कोलकम् ॥ ६६८ ककोलकं कोशफलमथ कर्पूरमस्त्रियाम् । घनसारश्चन्द्रसंज्ञः सितानो हिमवालुका ॥ ६६९ गन्धसागे मलयजो भद्रश्रीश्चन्दनोऽस्त्रियाम् । तैलपणिकगोशीर्षे हरिचन्दनमस्त्रियाम् ॥ ६७० १ 'मकुटम्'. २ हारापि. ३ 'गुत्सगुत्सार्ध' इत्यपि. ४ 'रसना.' ५ 'आनाहः'. ६ 'वरासिः'. ७ 'यमनिका'. ८ 'कालेयकम'. ९ 'वंशकम.' १० 'रालः'. ११ 'मृगः, नाभि'. १२ 'सिताभः'. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् - ७ ब्रहावर्ग: । २५ ६७१ ६७२ तिलपर्णी तु पंत्राङ्गं रञ्जनं रक्तचन्दनम् । कुचन्दनं चाथ जातीकोपजातीफले समे | कर्पूरागुरुकस्तूरीकको लैर्यक्षकर्दमः । गात्रानुलेपनी वर्तिर्वर्णकं स्याद्विलेपनम् ॥ चूर्णानि वासयोगाः स्युर्भावितं वासितं त्रिषु । संस्कारो गन्धमाल्याद्यैर्यः स्यात्तदधिवासनम् ॥ ६७३ माल्यं मालाखौ मूर्ध्नि केशमध्ये तु गर्भकः । प्रभ्रष्टकं शिखालम्वि पुरोन्यस्तं ललामकम् || ६७४ प्रालम्बमृजुलम्बि स्यात्कण्ठाद्वैकक्षिकं तु तत् । यत्तिर्यक्क्षिप्तमुरसि शिखाखापीडशेखरौ ॥ ६७५ रचना स्यात्परिस्यन्द आभोगः परिपूर्णता । उपधानं तूपबर्हः शय्यायां शयनीयवत् ॥ शयनं मञ्चपर्यङ्कपल्यङ्काः खट्ट्या समाः । गेन्दुकः कन्दुको दीपः प्रदीपः पीठमासनम् ॥ समुद्भकः संपुटकः प्रतिग्राहः पतग्रहः । प्रसाधनी कङ्कतिका पिष्टातः पटवासकः ॥ दर्पणे मुकुरादर्शो व्यजनं तालवृन्तकम् ॥ ६७६ ६७७ ६७८ ६७९ इति मनुष्यवर्गः ॥ ६ ॥ ६८० ६८१ ६८२ संततिर्गोत्रजननकुलान्यभिजनान्वयौ । वंशोऽन्ववाय: संतानो वर्णाः स्युर्ब्राह्मणादयः || विप्रक्षत्रियविट्शूद्राचातुर्वर्ण्यमिति स्मृतम् । राजवीजी राजवंश्यो वीज्यस्तु कुलसंभवः ॥ महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधवः । ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुचतुष्टये || आश्रमोऽस्त्री द्विजात्यग्रजन्मभूदेववाडवाः । विप्रश्च ब्राह्मणोऽसौ पट्कर्मा यागादिभिर्वृतः || ६८३ विद्वान्विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुधीः कोविदो बुधः । धीरो मनीषी ज्ञः प्राज्ञः संख्यावान्पण्डितः कविः ६८४ धीमान्सूरिः कृती कृष्टिर्लब्धवर्णो विचक्षणः । दूरदर्शी दीर्घदर्शी श्रोत्रियच्छान्दसौ समौ || ६८५ उपाध्यायोsध्यापकोsय स्यान्निषेकादिकगुरुः । मन्त्रव्याख्याकृदाचार्य आदेष्टा त्वध्वरे व्रती ॥ ६८६ यष्टा च यजमानश्च स सोमवति दीक्षितः । इज्याशीलो यायजूको यज्वा तु विधिनेष्टवान् || ६८७ स गतीष्ट्या स्थपतिः सोमपीथी तु सोमपाः । सर्ववेदाः स येनेष्टो यागः सर्वस्वदक्षिणः || ६८८ अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती गुरोस्तु यः । लब्धानुज्ञः समावृत्तः सुवा लभिषवे कृते ॥ ६८९ छात्रान्तेवासिनी शिष्ये शैक्षाः प्राथमकल्पिकाः । एकत्रह्मव्रताचारा मिथः सत्रह्मचारिणः ॥ सतीर्थ्यास्त्वेकगुरवश्चितवानग्निमग्निचित् । पारम्पर्योपदेशे स्यादैतिह्यमितिहाव्ययम् || उपज्ञा ज्ञानमात्रं स्याज्ज्ञावारम्भ उपक्रमः । यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः ऋतुः ॥ ६९२ पाटो होमश्चातिथीनां सपर्या तर्पणं वलिः । एते पञ्चमहायज्ञा ब्रह्मयज्ञादिनामकाः ॥ 1 समज्या परिषद्गोष्टी सभासमितिसंसदः । आस्थानी क्लीवमास्थानं स्त्रीनपुंसकयोः सदः ॥ प्राग्वंशः प्राग्हविर्गेहात्सदस्या विधिदर्शिनः । सभासदः सभास्ताराः सभ्याः सामाजिकाश्च ते ६९५ अध्वर्यूगातृ होतारो यजुःसामग्विदः क्रमात् । आग्नीधाद्या धनैर्वार्या ऋलिजो याजकाश्च ते ।। ६९६ वेदिः परिष्कृता भूमिः समे स्थण्डिलचवरे । चपालो यूपकटक: कुम्बा सुगहना वृतिः ॥ यूपायं तर्म निर्मन्ध्यदारुणि वरणिर्द्वयोः । दक्षिणाग्निर्गार्हपत्याहवनीयौ त्रयोऽग्नयः ॥ अग्नित्रयमिदं त्रेता प्रणीतः संस्कृतोऽनलः । समूयः परिवाय्योपचारयानौ प्रयोगिणः ॥ ६९० ६९१ ६९३ ६९४ For Private and Personal Use Only ६९७ ६९८ ६९९ १ ‘पत्रङ्गम्', 'पतङ्गम्'. २ 'जातिः' वान्ता च ३ 'जाती, 'फलम्'. ४ ‘मकुरः', 'मङ्कुरः'. ५ ‘माहा' कुल:'. ६ इन्नन्तोऽपि. ७ एतदग्रे 'मीमांसको जैमिनीये वेदान्ती ब्रह्मवादिनि । वैशेषिके स्यादौलुक्यः सौगतः शून्यवादिनि । नैयायिकस्त्वक्षपादः स्यात्स्याद्वादिक आहेकः । चार्वाकलोकायतिको सत्कायें सांख्यकापिलो || इति प्रक्षितम् ८ 'पर्पत्'. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभिधान संग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् । -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ ७०७ ७०८ ७०९ ७१३ ७१४ यो गार्हपत्यादानीय दक्षिणाग्निः प्रणीयते । तस्मिन्नानाय्योऽथान्नायी स्वाहा च हुतभुक्प्रिया ॥ ७०० ऋक्सामिधेनी धाय्या च या स्यादग्निसमिन्धने । गायत्रीप्रमुखं छन्दो हव्यपाके चरुः पुमान् ॥ ७०१ आमिक्षा सा तोष्णे या क्षीरे स्यादधियोगतः । धुवित्रं व्यजनं तद्यद्रचितं मृगचर्मणा ॥ ७०२ पृषदाज्यं सदध्याज्ये परमान्नं तु पायसम् । हव्यकव्ये दैवपित्र्ये अन्ने पात्रं स्वादिकम् ॥ ७०३ ध्रुवोपभृज्जुहूर्ना तु स्रुवो भेदाः स्रुचः स्त्रियः । उपाकृतः पशुरसौ योऽभिमन्त्र्य ऋतौ हतः ||७०४ परम्पराकं शमनं प्रोक्षणं च वधार्थकम् । वाच्यलिङ्गाः प्रमीतोपसंपन्न प्रोक्षिता हते || ७०५ सांनाय्यं हविरग्नौ तु हुतं त्रिषु वषट्कृतम् । दीक्षान्तोऽवभृथ यज्ञे तत्कर्मार्ह तु यज्ञियम् ॥ ७०६ त्रिष्वथ ऋतुकर्मेष्टं पूर्त खातादि कर्म यत् । अमृतं विघसो यज्ञशेष भोजनशेषयोः ॥ त्यागो विहापितं दानमुत्सर्जनविसर्जने । विश्राणनं वितरणं स्पर्शनं प्रतिपादनम् | प्रादेशनं निर्वपणमपवर्जनमंहतिः । मृतार्थं तदहे दानं त्रिषु स्यादौर्ध्वदेहिकम् || पितृदानं निवापः स्याच्छ्राद्धं तत्कर्म शास्त्रतः । अन्वाहार्य मासिकेऽशोऽष्टमोऽह्नः कुतपोऽस्त्रियाम् ॥ पर्येषणा परीष्टिश्चान्वेषणा च गवेषणा । सनिस्त्वध्येपणा याच्ञाभिशस्तिर्याचनार्थना ॥ ७११ षट् तु विर्घ्यमर्घार्थे पाद्यं पादाय वारिणि । क्रमादातिथ्यातिथेये अतिथ्यर्थेऽत्र साधुनि ॥ ७१२ स्युरावेशिक आगन्तुरतिथिर्ना गृहागते । पूजा नमस्यापचितिः सपर्यार्चार्हणाः समाः ॥ वरिवस्या तु शुश्रूषा परिचर्याप्युपासना । व्रज्यीटाट्या पर्यटनं चर्या वीर्यापथे स्थितिः ॥ उपस्पर्शस्त्वामनमथ मौनमभाषणम् । आनुपूर्वी स्त्रियां वावृत्परिपाटी अनुक्रमः ॥ पर्यायश्चातिपातस्तु स्यात्पर्यय उपाययः । नियमो व्रतमस्त्री तच्चोपवासादि पुण्यकम् ॥ औपवस्तं तूपवासो विवेक: पृथगात्मता । स्याद्ब्रह्मवर्चसं वृत्ताध्ययनर्द्धिरथाञ्जलिः ॥ पाटे ब्रह्माञ्जलिः पाठे विषो ब्रहाविन्दवः । ध्यानयोगासने ब्रह्मासनं कल्पे विधिक्रमौ ॥ मुख्यः स्यात्प्रथमः कल्पोऽनुकल्पस्तु ततोऽधमः । संस्कार पूर्व ग्रहणं स्यादुपाकरणं श्रुतेः ॥ ७१९ समे तु पादग्रहणमभिवादनमित्युभे । भिक्षुः परिव्राट् कर्मन्दी पाराशर्यपि मस्करी || तपस्वी तापसः पारिकाङ्क्षी वाचंयमो मुनिः । तपः क्लेशसहो दान्तो वर्णिनो ब्रह्मचारिणः ॥ ७२१ ऋषयः सत्यवचसः स्नातकस्वाप्लुतो व्रती । ये निर्जितेन्द्रियग्रामा यतिनो यतयश्च ते ॥ यः स्थण्डिले व्रतवशाच्छेते स्थण्डिलशाय्यसौ । स्थाण्डिलश्राथ विरजस्तमसः स्युर्द्वयातिगाः ||७२३ पवित्रः प्रयतः पूतः पापण्डाः सर्वलिङ्गिनः । पालाशो दण्ड आषाढो ते राम्भस्तु वैणवः ॥ ७२४ अस्त्री कमण्डलुः कुण्डी व्रतिनामासनं वृषी । अजिनं चर्म कृत्तिः स्त्री भैक्षं भिक्षाकदम्बकम्७२५ खाध्यायः स्याज्जपः सुत्याभिषवः सवनं च सा । सर्वैनसामपध्वंसि जप्यं त्रिष्वघमर्षणम् || ७२६ दर्शश्च पौर्णमासच यागौ पक्षान्तयोः पृथक । शरीरसाधनापेक्षं नित्यं यत्कर्म तद्यमः ॥ नियमस्तु स यत्कर्म नित्यमागन्नुसाधनम् । उपवीतं ब्रह्मसूत्रं प्रोद्धृते दक्षिणे करे | प्राचीनावीतमन्यस्मिन्निवीतं कण्टलम्वितम् ॥ ७१५ ७१६ ७१७ ७१८ ७२० ७२२ ७२७ For Private and Personal Use Only ७२८ ७२९ १ धवित्रमपि. २ 'स्त्रियाः '. ३ अंहितिरपि ४ एतदग्रे 'प्राणिक: प्राघुणकचाभ्युत्थानं तु गौरवम्' इति प्रक्षिप्तम्, ५ ‘अटा, अट्या' इति पृथगपि ६ एतदग्रे 'प्राचेतसश्चादिकविः स्यान्मैत्रावरुणिश्च सः । वाल्मीकश्चाथ गाधेयो विश्वामित्रच कौशिकः ॥ व्यासो द्वैपायनः पाराशर्यः सत्यवतीसुतः ||' इति प्रक्षिप्तम् ७ 'रिषिः ' व्यञ्जनादि. ८ दन्त्यवत्यपि ९ एतदग्रे 'औरं तु भद्राकरणं मुण्डनं वपनं त्रिपु' इति प्रक्षितम् Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् -८ क्षत्रियवर्गः । अङ्गुल्यग्रे तीर्थ दैवं स्वल्पामुल्योर्मूले कायम् । मध्येऽङ्गुष्ठाङ्गुल्योः पित्र्यं मूले बङ्गुष्ठस्य ब्राह्मम् ॥ ७३० स्याद्रह्मभूयं ब्रह्मत्वं ब्रह्मसायुज्यमित्यपि । देवभूयादिकं तद्वत्कृच्छं सांतपनादिकम् ॥ ७३१ संन्यासवत्यनशने पुमान्प्रायोऽथ वीरहा । नष्टाग्निः कुहना लोभान्मियेर्यापथकल्पना ॥ ७३२ त्रात्यः संस्कारहीनः स्यादखाध्यायो निराकृतिः । धर्मध्वजी लिङ्गवृत्तिरवकीर्णी क्षतव्रतः ॥ ७३३ सुप्ते यस्मिन्नस्तमेति सुप्ते यस्मिन्नुदेति च । अंशुमानभिनिर्मुक्ताभ्युदितौ च यथाक्रमम् ॥ ७३४ परिवेत्तानजोऽनुढे ज्येष्टे दारपरिग्रहात् । परिवित्तिस्तु तज्ज्यायान्विवाहोपयमौ समौ ॥ ७३५ तथा परिणयोबाहोपयामाः पाणिपीडनम् । व्यवायो ग्राम्यधर्मो मैथुनं निधुवनं रतम् ॥ ७३६ त्रिवर्गो धर्मकामाथै श्चतुर्वर्गः समीक्षकैः । सबलैस्तैश्चतुर्भद्रं जन्याः स्निग्धा वरस्य ये ॥ ७३१ इति ब्रह्मवर्गः ॥ ७ ॥ मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट् । राजा राट् पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः ॥७३८ राजा तु प्रणताशेषसामन्तः स्यादधीश्वरः । चक्रवर्ती सार्वभौमो नृपोऽन्यो मण्डलेश्वरः॥ ७३९ येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः । शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञः स सम्राडय राजकम् ॥ ७४० राजन्यकं च नृपतिक्षत्रियाणां गणे क्रमात् । मन्त्री धीसचिवोऽमात्योऽन्ये कर्मसचिवास्ततः।।७४१ महामात्राः प्रधानानि पुरोधास्तु पुरोहितः । द्रष्टरि व्यवहाराणां प्राडिवाकाक्षदर्शकौ ॥ ७४२ प्रतीहारो द्वारपालद्वास्थद्वास्थितदर्शकाः । रक्षिवर्गस्त्वनीकस्थोऽथाध्यक्षाधिकृतौ समौ ॥ ७४३ स्थायुकोऽधिकृतो ग्रामे गोपो प्रामेषु भूरिषु । भौरिकः कनकाध्यक्षो रूप्याध्यक्षस्तु नैष्किकः||७४४ अन्तःपुरे खधिकृतः स्यादन्तर्वशिको जनः । सौविदल्लाः क किनः स्थापत्याः सौविदाश्च ते॥७४५ शण्ढो वर्षवरस्तुल्यौ सेवकार्थ्यनुजीविनः । विषयानन्तरो राजा शत्रुमित्रमतः परम् ॥ ७४६ उदासीनः परतरः पाणिग्राहस्तु पृष्टतः । रिपौ वैरिसपत्नारिद्विषहेषणदुहृदः ॥ ७४७ द्विडिपक्षाहितामित्रदस्युशात्रवशत्रवः । अभिघातिपरारातिप्रत्यर्थिपरिपन्थिनः ॥ ७४८ वयस्यः स्निग्धः सवया अथ मित्रं सखा सुहृत् । सख्यं साप्तपदीनं स्यादनुरोधोऽनुवर्तनम् ॥७४९ यथार्हवर्णः प्रणिधिरपसर्पश्चरः स्पशः । चारश्च गूढपुरुषश्चाप्तप्रत्ययितौ समौ ॥ ७५० सांवत्सरो ज्योतिषिको दैवज्ञगणकावपि । स्युर्मीहूर्तिकर्मीहूर्तज्ञानिकाान्तिका अपि ॥ ७५१ तात्रिको ज्ञातसिद्धान्तः सत्री गृहपतिः समौ । लिपिकारोऽक्षरचणोऽक्षरचुक्षुश्च लेखके ॥ ७५२ लिखिताक्षरविन्यासे लिपिलिविरुभे स्त्रियौ । स्यात्संदेशहरो दूतो दूत्यं तद्भावकर्मणी ॥ ७५३ अध्वनीनोऽध्वगोऽध्वन्यः पान्थः पथिक इत्यपि | स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्टदुर्गबलानि च ॥ ७५४ राज्याङ्गानि प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च । संधिर्ना विग्रहो यानमासनं द्वैधमाश्रयः ॥ ७५५ षड्गुणाः शक्तयस्तिस्रः प्रभावोत्साहमन्त्रजाः । क्षयः स्थानं च वृद्धिश्च त्रिवर्गो नीतिवेदिनाम्।।७५६ स प्रतापः प्रभावश्च यत्तेजः कोषदण्डजम् । भेदो दण्डः साम दानमित्युपायचतुष्टयम् ॥ ७५७ साहसं तु दमो दण्डः साम सान्त्वमथो समौ । भेदोपजापावुपधा धर्माद्यैर्यत्परीक्षणम् ॥ ७५८ पञ्च त्रिष्वषडक्षीणो यस्तृतीयाद्यगोचरः । विविक्तविजनच्छन्ननिःशलाकास्तथा रहः ॥ ७५९ १ 'पैत्रम्'. २ 'व्यवायो ग्राम्यधर्मश्च रतं निधुवनं तथा' इति मुकुटस्थः पाठः. ३ विगणोऽपि. ४ द्वास्थितो दर्शकश्व, ५ तालव्याद्यपि. - - For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । रहश्वोपांशु चालिङ्गे रहस्यं तद्भवे त्रिषु । समौ विस्रम्भविश्वासौ भ्रषो भ्रंशो यथोचितात् ॥ ७६० अभ्रेषन्यायकल्पास्तु देशरूपं समञ्जसम् । युक्तमौषयिक लभ्यं भजमानाभिनीतवत् ॥ ७६१ न्याय्यं च त्रिषु पट् संप्रधारणा तु समर्थनम् । अववादस्तु निर्देशो निदेशः शासनं च सः ॥७६२ शिष्टिश्चाज्ञा च संस्था तु मर्यादा धारणा स्थितिः। आगोऽपराधो मन्तुश्च समे तूदानबन्धने ॥७६३ द्विपाद्यो द्विगुणो दण्डो भागधेयः करो वलिः । घट्टादिदेशं शुल्कोऽस्त्री प्राभृतं तु प्रदेशनम् ॥७६४ उपायनमुपग्राह्यमुपहारस्तथोपदा । यौतकादि तु यदेयं सुदायो हरणं च तत् ॥ ७६५ तत्कालस्तु तदात्वं स्यादुत्तरः काल आयतिः । सांदृष्टिकं फलं सद्य उदर्कः फलमुत्तरम् ॥ ७६६ अदृष्टं वह्नितोयादि दृष्टं स्वपरचक्रजम् । महीभुजामहिभयं स्वपक्षप्रभवं भयम् ॥ ७६७ प्रक्रिया वधिकारः स्याचामरं तु प्रकीर्णकम् । नृपासनं यत्तद्भद्रासनं सिंहासनं तु तत् ॥ ७६८ हैमं छत्रं खातपत्रं राज्ञस्तु नृपलक्ष्म तत् । भद्रकुम्भः पूर्णकुम्भो भृङ्गारः कनकालुका ॥ ७६९ निवेशः शिविरं पण्ढे सज्जनं तूपरक्षणम् । हस्त्यश्वरथपादातं सेनाङ्गं स्याञ्चतुष्टयम् ॥ ७७० दन्ती दन्तावलो हस्ती द्विरदोऽनेकपो द्विपः । मतङ्गजो गजो नाग: कुंजरो वारणः करी ।। ७७१ इभः स्तम्बेरमः पद्मी यूधनाथस्तु यूथपः । मदोत्कटो मदकलः कलभः करिशावकः ॥ ७७२ प्रभिन्नो गर्जितो मत्तः समावुद्वान्तनिर्मदौ । हास्तिकं गजता वृन्दे करिणी धेनुका वशा ॥ ७७३ गण्डः कटो मदो दानं वमथुः करशीकरः । कुम्भौ तु पिण्डौ शिरसस्तयोर्मध्ये विदुः पुमान्॥७७४ अवग्रहो ललाटं स्यादीषिका त्वक्षिकूटकम् । अपाङ्गदेशो निर्याणं कर्णमूलं तु चूलिका ॥ ७७५ अधः कुम्भस्य वाहित्थं प्रतिमानमधोऽस्य यत् । आसनं स्कन्धदेशः स्यात्पद्मकं बिन्दुजालकम्७७६ पार्श्वभाग: पक्षभागो दन्तभागस्तु योऽग्रतः । द्वौ पूर्वपश्चाज्जङ्घादिदेशौ गात्रावरे क्रमात् ॥ ७७७ तोत्रं वेणुकमालानं बन्धस्तम्भेऽथ शृङ्खले । अन्दुको निगडोऽस्त्री स्यादशोऽस्त्री सृणिः स्त्रियाम् ।। दूष्या कश्या वरत्रा स्यात्कल्पना सज्जना समे। प्रवेण्यास्तरणं वर्णः परिस्तोमः कुथो द्वयोः ॥७७९ वीतं वसारं हस्त्यश्वं वारी तु गजबन्धनी । घोटके वीतितुरगतुरंगाश्वतुरंगमाः ॥ ७८० वाजिवाहार्वगन्धर्वहयसैन्धवसप्तयः । आजानेयाः कुलीनाः स्युविनीताः साधुवाहिनः ॥ ७८१ वनायुजाः पारसीकाः काम्बोजा बाह्निका हयाः । ययुरश्वोऽश्वमेधीयो जवनस्तु जवाधिकः ॥ ७८२ पृष्टयः स्थौरी सितः कर्को रथ्यो वोढा रथस्य यः । बाल: किशोरो वाम्यश्वा वडवा वाडवं गणे॥ त्रिष्वाश्वीनं यदश्वेन दिनेनैकेन गम्यते । कश्यं तु मध्यमश्वानां हेषा हृषा च निस्वनः ॥ ७८४ निगालस्तु गलोद्देशो वृन्दें लश्वीयमाश्ववत् । आस्कन्दितं धौरितकं रेचितं वल्गितं प्लुतम् ॥७८५ गतयोऽमूः पञ्च धारा घोणा तु प्रोथमस्त्रियाम् । कविका तु खलीनोऽस्त्री शर्फ क्लीबे खुरः पुमान् । पुच्छोऽस्त्री लूमलाङ्गले वालहस्तश्च वालधिः । त्रिषूपावृत्तलुठितौ परावृत्ते मुहुर्भुवि ॥ ७८७ याने चक्रिणि युद्धार्थे शताङ्गः स्यन्दनो रथः । असौ पुष्यरधश्चक्रयानं न समराय यत् ॥ ७८८ कर्णीरथः प्रवहणं डयनं च समं त्रयम् । क्लीवेऽनः शकटोऽस्त्री स्याद्गन्त्री कम्बलिवाह्यकम्।।७८९ शिबिका याप्ययानं स्याहोला प्रेक्षादिका स्त्रियाम् । उभौ तु द्वैपवैयाघ्रौ द्वीपिचर्मावृते रथे ॥ ७९० पाण्डकम्बलसंवीतः स्यन्दनः पाण्डुकम्बली । रथे काम्बलवास्त्राद्याः कम्बलादिभिरावृते ॥ ७९१ त्रिषु द्वैपादयो रथ्या रथकट्या रथवजे । धूः स्त्री क्लीवे यानमुखं स्याद्रथाङ्गमपस्करः ॥ ७९२ १ तालव्यादिश्च, २ 'चपा'. ३ 'कक्षा'. ४ 'हयनम'. For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् -८ क्षत्रियवर्गः । चक्रं रथाङ्गं तस्यान्ते नेमिः स्त्री स्यात्प्रधिः पुमान् । पिण्डिका नाभिरक्षाग्रकीलके तु द्वयोरणिः७९३ रथगुप्तिर्वरूथो ना कूबरस्तु युगंधरः । अनुकर्षो दार्वधःस्थं प्रासङ्गो ना युगायुगः ॥ ७९४ सर्व स्याद्वाहनं यानं युग्यं पत्रं च धोरणम् । परम्परावाहनं यत्तद्वैनीतकमस्त्रियाम् ॥ ७९५ आधोरणा हस्तिपका हत्यारोहा निषादिनः । नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः क्षत्ता च सारथिः॥७९६ सव्येष्टदक्षिणस्थौ च संज्ञा रथकुटुम्बिनः । रथिनः स्यन्दनारोहा अश्वारोहास्तु सादिनः ॥ ७९७ भटा योधाश्च योद्धारः सेनारक्षास्तु सैनिकाः । सेनायां समवेता ये सैन्यास्ते सैनिकाच ते ॥७९८ वलिनो ये सहस्रेण साहस्रास्ते सहस्रिणः । परिधिस्थः परिचरः सेनानीर्वाहिनीपतिः ॥ ७९९ कञ्चको वारवाणोऽस्त्री यत्तु मध्ये सकझुकाः । बन्नन्ति तत्सारसनमधिकाङ्गोऽथ शीर्षकम् ॥ ८०० शीर्षण्यं च शिरस्त्रेऽथ तनुवं वर्म दंशनम् | उरच्छदः कङ्कटको जगरः कवचोऽस्त्रियाम् ॥ ८०१ आमुक्तः प्रतिमुक्तश्च पिनद्रश्चापिनद्भवत् । संनद्धो वर्मितः सज्जो दंशितो व्यूढकङ्कटः॥ ८०२ त्रिवामुक्तादयो वर्मभृतां कावचिकं गणे । पदातिपत्तिपदगपादातिकपदाजयः ॥ ८०३ पद्गश्च पदिकश्चाथ पादातं पत्तिसंहतिः । शस्त्राजीवे काण्डपृष्टायुधीयायुधिकाः समाः ॥ ८०४ कृतहस्तः सुप्रयोगविशिखः कृतपुत्रवत् । अपराद्धपृषत्कोऽसौ लक्ष्याद्यश्च्युतसायकः ॥ ८०५ धन्वी धनुष्मान्धानुको निषङ्गयस्त्री धनुर्धरः । स्यात्काण्डवांस्तु काण्डीरः शाक्तीकः शक्तिहेतिकः।। याष्टीकपारश्वधिको यष्टिपर्श्वधहेतिकौ । नैस्त्रिंशिकोऽसिहेतिः स्यात्समौ प्रासिककौन्तिकौ ॥ ८०७ चर्मी फलकपाणिः स्यात्पताकी वैजयन्तिकः । अनुप्लवः सहायश्चानुचरोऽभिसरः समाः॥ ८०८ पुरोगाग्रेसरप्रष्टाग्रतःसरपुरःसराः । पुरोगमः पुरोगामी मन्दगामी तु मन्थरः ॥ ८०९ जङ्घालोऽतिजवस्तुल्यौ जङ्घाकरिकजाचिकौ । तरखी त्वरितो वेगी प्रजवी जवनो जवः ॥ ८१० जय्यो यः शक्यते जेतुं जेयो जेतव्यमात्रके । जैवस्तु जेता यो गच्छत्यलं विद्विषतः प्रति ॥ ८११ सोऽभ्यमित्र्योऽभ्यमित्रीयोऽप्यभ्यमित्रीण इत्यपि । ऊर्जस्वलः स्यादूर्जस्वी य ऊर्जातिशयान्वितः८१२ स्यादुरस्वानुरसिलो रधिको रथिरो रथी । कामंगाम्यनुकामीनो ह्यत्यन्तीनस्तथा भशम् ॥ ८१३ शरो वीरश्च विक्रान्तो जेता जिष्णुश्च जित्वरः । सांयुगीनो रणे साधुः शस्त्राजीवादयस्त्रिषु ॥८१४ ध्वजिनी वाहिनी सेना पृतनानीकिनी चमूः । वरूथिनी बलं सैन्यं चक्रं चानीकमस्त्रियाम् ॥८१५ व्यूहस्तु बलविन्यासो भेदा दण्डादयो युधि । प्रत्यासारो व्यूहपाणिः सैन्यपृष्ठे प्रतिग्रहः ॥ ८१६ एकेभैकरथा व्यश्वा पत्तिः पञ्चपदातिका । पत्त्यङ्गैत्रिगुणैः सर्वेः क्रमादाख्या यथोत्तरम् ॥ ८१७ सेनामुखं गुल्मगणौ वाहिनी पृतना चमूः । अनीकिनी दशानीकिन्योऽक्षौहिण्यथ संपदि ॥ ८१८ संपत्तिः श्रीश्च लक्ष्मीश्च विपत्त्यां विपदापदौ । आयुधं तु प्रहरणं शस्त्रमस्त्रमथास्त्रियौ ॥ ८१९ धनश्चापौ धन्वशरासनकोदण्डकार्मुकम् । इष्वासोऽप्यथ कर्णस्य कालपृष्ठं शरासनम् ॥ ८२० कपिध्वजस्य गाण्डीवगाण्डिवौ पुनपुंसकौ । कोटिरस्याटनी गोधातले ज्याघातवारणे ॥ ८२१ लस्तकस्तु धनुर्मध्यं मौर्वी ज्या शिञ्जिनी गुणः । स्यात्प्रत्यालीढमालीढमित्यादि स्थानपञ्चकम् ॥ ८२२ लक्षं लक्ष्यं शरव्यं च शराभ्यास उपासनम् । पृषत्कवाणविशिखा अजिह्मगखगाशुगाः ॥ ८२३ कलम्बमार्गणशराः पत्री रोप इषुर्द्वयोः । प्रक्ष्वेडनास्तु नाराचाः पक्षो वाजस्त्रिपूत्तरे ॥ ८२४ निरस्तः प्रहिते वाणे विषाक्ते दिग्धलिप्तकौ । तूणोपासङ्गतूणीरनिषङ्गा इषुधियोः ॥ ८२५ १ 'अनुकर्षा' नान्तोऽपि. २ बाणवारश्व. ३ 'जङ्घिल'. ४ उकारान्तः पुंलिङ्गोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । तूण्यां खड़े तु निस्त्रिंशचन्द्रहासासिरिष्टयः । कौक्षेयको मण्डलामः केरवाल: कृपाणवत् ॥ ८२६ त्सरुः खङ्गादिमुष्टौ स्यान्मेखला तन्निबन्धनम् । फलकोऽस्त्री फलं चर्म संग्राहो मुष्टिरस्य यः॥ ८२७ द्रुघणो मुद्गरघनौ स्यादीली करवालिका । भिन्दिपाल: सृगस्तुल्यौ परिघः परिघातनः ॥ ८२८ द्वयोः कुठारः स्वधितिः परशुश्च परश्वधः । स्याच्छस्त्री चासिपुत्री च च्छुरिका चासिधेनुका ॥८२९ वा पुंसि शल्यं शङ्कर्ना सर्वला तोमरोऽस्त्रियाम् । प्रासस्तु कुन्तः कोणस्तु स्त्रियः पाल्यश्रिकोटयः ।। सर्वाभिसारः सर्वोवः सर्वसनहनार्थकः । लोहाभिसारोऽस्त्रभृतां राज्ञां नीराजनाविधिः ॥ ८२१ यत्सेनयाभिगमनमरौ तदभिषेणनम् । यात्रा व्रज्याभिनिर्याणं प्रस्थानं गमनं गमः ॥ ८३२ स्यादासारः प्रसरणं प्रचक्रं चलितार्थकम् । अहितान्प्रत्यभीतस्य रणे यानमभिक्रमः ॥ ८३३ वैतालिका बोधकरावाक्रिका घाण्टिकार्थकाः । स्युर्मागधास्तु मधुका बन्दिनः स्तुतिपाठकाः ।।८३४ संशप्तकास्तु समयात्सङ्ग्रामादनिवर्तिनः । रेणुईयोः स्त्रियां धूलिः पाशुर्ना न द्वयो रजः ॥ ८३५ चूर्णे क्षोदः समुत्पिञ्जपिञ्जलौ भृशमाकुले । पताका वैजयन्ती स्यात्केतनं ध्वजमस्त्रियाम् ॥ ८३६ सा वीराशंसनं युद्धभूमिर्यातिभयप्रदा । अहंपूर्वमहंपूर्वमित्यहपूर्विका स्त्रियाम् ।। ८३७ आहोपुरुषिका दर्पाद्या स्यात्संभावनात्मनि ॥ ८३८ अहमहमिका तु सा स्यात्परस्परं यो भवत्यहंकारः । द्रविणं तरः सहोवलशौर्याणि स्थाम शुष्मं च ॥ ८३९ शक्तिः पराक्रमः प्राणो विक्रमस्त्वतिशक्तिता । वीरपाणं तु यत्पानं वृत्ते भाविनि वा रणे ॥ ८४० युद्धमायोधनं जन्यं प्रधनं प्रविदारणम् । मृधमास्कन्दनं संख्यं समीकं सांपरायिकम् ॥ ८४१ अस्त्रियां समरानीकरणाः कलहविग्रहौ । संग्रहाराभिसंपातकलिसंस्फोटसंयुगाः ॥ ८४२ अभ्यामर्दसमाघातसङ्ग्रामाभ्यागमाहवाः । समुदायः स्त्रियः संयत्समित्याजिसमियुधः ॥ ८४३ नियुद्धं बाहुयुद्धेऽथ तुमुलं रणसंकुले । क्ष्वेडा तु सिंहनादः स्यात्करिणां घटना घटा ॥ ८४४ क्रन्दनं योधसंरावो वृंहितं करिगर्जितम् । विस्फारो धनुषः स्वानः पटहाडम्बरौ समौ ॥ ८४५ प्रसभं तु बलात्कारो हठोऽथ स्खलितं छलम् । अजन्यं क्लीवमुत्पात उपसर्गः समं त्रयम् ॥ ८४६ मूर्छा तु कश्मलं मोहोऽप्यवमर्दस्तु पीडनम् । अभ्यवस्कन्दनं वभ्यासादनं विजयो जयः ॥ ८४७ वैरशुद्धिः प्रतीकारो वैरनिर्यातनं च सा । प्रद्रावोद्रावसंद्रावसंदावा विद्रवो द्रवः ॥ ८४८ अपक्रमोऽपयानं च रणे भङ्गः पराजयः । पराजितपराभूतौ त्रिषु नष्टतिरोहितौ ॥ ८४९ प्रमापणं निबर्हणं निकारणं विशारणम् । प्रवासनं परासनं निषूदनं निहिंसनम् ॥ ८५० निर्वासनं संज्ञपनं निर्ग्रन्थनमपासनम् । निस्तहणं निहननं क्षणनं परिवर्जनम् ।। निर्वापणं विशसनं मारणं प्रतिघातनम् । उद्वासनप्रमथनक्रथनोज्जासनानि च ॥ आलम्भपिअविशरघातोन्माथवधा अपि । स्यात्पश्चता कालधर्मों दिष्टान्तः प्रलयोऽत्ययः ॥ ८५३ अन्तो नाशो द्वयोर्मुत्युर्मरणं निधनोऽस्त्रियाम् । परासुप्राप्तपञ्चत्वपरेतप्रेतसंस्थिताः ॥ ८५४ मृतप्रमीतौ त्रिष्वेते चिता चित्या चितिः स्त्रियाम् । कबन्धोऽस्त्री क्रियायुक्तमपमूर्धकलेवरम् ।।८५५ श्मशानं स्यात्पितृवनं कुणपः शवमस्त्रियाम् । प्रग्रहोपग्रहौ बन्द्यां कारा स्याद्वन्धनालये ॥ ८५६ पुंसि भूम्न्यसवः प्राणाश्चैवं जीवोऽसुधारणम् । आयुर्जीवितकालो ना जीवातुर्जीवनौषधम् ॥ ८५७ _ इति क्षत्रियवर्गः ॥ ८॥ १'ऋष्टिः' अजादिरपि. २ 'करपाल:'. ३ 'परस्वधः'. ४ तालव्यादिरपि. ५ पांसुरपि. ६ 'सांपरायकम.' ७ निगन्धनमपि. ८५२ For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् – ९ वैश्यवर्गः T: 1 ३१ ८६० ८६१ ऊरव्या ऊरुजा अर्या वैश्या भूमिस्पृशो विशः । आजीवो जीविका वार्ता वृत्तिर्वर्तनजीवने ॥ ८५८ स्त्रियां कृषिः पाशुपाल्यं वाणिज्यं चेति वृत्तयः । सेवा ववृत्तिरनृतं कृषिञ्छशिलं त्वृतम् ॥ ८५९ दे याचितायाचितयोर्यथासंख्यं मृतामृते । सत्यानृतं वणिग्भावः स्यादृणं पर्युदञ्चनम् ॥ उद्धारोऽप्रयोगस्तु कुसीदं वृद्धिजीविका । याच्ञयाप्तं याचितकं निमयादापमित्यकम् ॥ उत्तमर्णाधमर्णौ द्वौ प्रयोक्तृग्राहकौ क्रमात् । कुसीदिको वार्धुषिको वृद्धयाजीवश्च वार्धुषिः || ८६२ क्षेत्राजीवः कर्षकच कृषिकश्च कृषीवलः । क्षेत्रं त्रैहेयशालेयं व्रीहिशाल्युद्भवोचितम् ॥ यव्यं यवक्यं षष्टिक्यं यवादिभवनं हि यत् । तिल्यं तैलीनवन्माषोमाणुभङ्गा द्विरूपता ॥ मौद्गीन कौद्रवीणादि शेषधान्योद्भवमम् । बीजाकृतं तप्तकृष्टे सीयं कृष्टं च हल्यवत् ॥ त्रिगुणाकृतं तृतीयाकृतं त्रिहल्यं त्रिसीयमपि तस्मिन् । द्विगुणातु सर्व पूर्व शम्बाकृतमपीह || ८६३ ८६६ ८६७ ८६८ ८६९ ८७४ द्रोणाकादिवापादौ द्रौणिकाढकिकादयः । खारीवापस्तु खारीक उत्तमर्णादयस्त्रिषु ॥ पुंनपुंसकयोर्वप्रः केदार: क्षेत्रमस्य तु । कैदारकं स्यात्कैदार्य क्षेत्रं कैदारिकं गणे ॥ लोष्टानिष्टवः पुंसि कोटिशो लोष्टभेदनः । प्राजनं तोदनं तोत्रं खनित्रमवदारणे ॥ दात्रं लवित्रमाबन्धो योत्रं योक्रमथो फलम् । निरीशं कुटकं फाल: कृषको लाङ्गलं हलम् || ८७० गोदारणं च सीरोऽथ शम्या स्त्री युगकीलकः । ईपी लाङ्गलदण्डः स्यात्सीता लाङ्गलपद्धतिः ॥ ८७१ पुंसि मेधिः खलेदारु न्यस्तं यत्पशुबन्धने । आशुव्रीहिः पाटलः स्याच्र्च्छितशुकयवौ समौ || ८७२ तोक्मस्तु तत्र हरिते कलायस्तु संतीनकः । हरेणुखण्डिकौ चास्मिन्कोरदूषस्तु कोद्रवः || ८७३ मङ्गल्यको मसुरोऽथ मकुष्टकमैयुष्टौ । वनमुद्रे सर्वपे तु द्वौ तु कदम्बकौ ॥ सिद्धार्थस्त्रेष धवलो गोधूमः सुमनः समौ । स्याद्यावकस्तु कुल्माषश्चणको 'हरिमन्थकः || ८७५ aौतिले तिलपेजच तिलपिञ्जश्च निष्फले । क्षवः क्षुताभिजननो राजिका कृष्णिकासुरी || ८७६ स्त्रियौ कङ्गुप्रियङ्ग द्वे अतसी स्यादुमा क्षुमा । मातुलानी तु भङ्गायां त्रीहिभेदस्त्वणुः पुमान् ॥ ८७७ किंशारुः सस्यशुकं स्यात्कणिशं सस्यमञ्जरी । धान्यं व्रीहिः स्तम्बकरिः स्तम्बो गुच्छस्तृणादिनः ||८७८ नाडी नालं च काण्डोऽस्य पलालोऽस्त्री स निष्फलः । कडङ्गरो बुंसं क्लीवे धान्यत्वचि तुषः पुमान् ॥ शूकोऽस्त्री लक्ष्णतीक्ष्णात्रे शमी शिवा त्रिषूत्तरे । केंद्र मावसितं धान्यं पूतं तु बहुलीकृतम् ||८८० मापादयः शमीधान्ये शुकधान्ये यवादयः । शालयः कलमाद्याश्च षष्टिकाद्याश्च पुंस्यमी ॥। ८८१ तृणधान्यानि नीवाराः स्त्री गवेधुर्गवेधुका । अयो मुसलोsस्त्री स्यादुदूखलमुलूखलम् ॥ ८८२ प्रस्फोटनं मिस्त्री चालनी तितः पुमान् । स्यूतप्रसेवौ कण्डोलपिटौ कटकिलि अकौ ॥ समानौ रसवत्यां तु पाकस्थानमहानसे । पौरोगवस्तदध्यक्षः सूपकारास्तु बल्लवाः ॥ आरालिका आन्धसिकाः सूदा औदनिका गुणाः । आपूपिक: कान्दविको भक्ष्यकार इमे त्रिषु ।। ८८५ अश्मन्तमुद्धानमधिश्रयणी चुल्लिरन्तिका । अङ्गारधानिकाङ्गारशकट्यपि हसन्त्यपि ॥ ८८६ ८८३ ८८४ For Private and Personal Use Only ८६४ ८६५ १ 'उञ्छ:, शिलम्' इत्यपि २ एतदग्रे 'शाकक्षेत्रादिके शाकशाकटं शाकशाकिनम्' इति प्रक्षिप्तम्. ३ दन्त्यादेि च. ४ 'कुटकम्' ५ 'कृषिक : ' ६ 'ईशा' ७ 'शीता'. ८ 'आशुत्रीहिः ' ९ 'सितशूक : ' दन्त्यादिश्र. १० 'सतीलक : ' . ११ 'मयष्टकः' १२ दन्त्यान्त्योऽपि १३ 'हरिमन्थज:' १४ क्षुधाभिजननश्च. १५ बुषं च. १६ दन्त्यादि. १७ र १८ १९ सुपोऽपि २० सूर्पमपि, २१ उद्ध्मानमपि Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रह:--? नामलिङ्गानुशासनम् । हसन्यप्यथ न स्त्री स्यादङ्गारोऽलातमुल्मुकम् । क्लीवेऽम्बरीषं भ्राष्ट्रो ना कन्दुर्वा वेदनी स्त्रियाम् ॥ अलिञ्जरः स्यान्मणिकः कर्कयालुर्गलन्तिका । पिठरः स्थाल्युखा कुण्डं कलशस्तु त्रिषु द्वयोः ॥ ८८८ घटः कुटनिपावस्त्री शरावो वर्धमानकः । ऋजीपं पिष्टपचनं कंसोऽस्त्री पानभाजनम् ॥ ८८९ कुतूः कृत्तेः स्नेहपात्रं सैवाल्पा कुतुपः पुमान । सर्वमावपनं भाण्डं पात्रामत्रं च भाजनम् ॥ ८८० दर्विः कम्विः खजाका च स्यात्तर्दू रुहस्तकः । अस्त्री शाकं हरितकं शिग्रुरस्य तु नाडिका ८९१ कलम्बश्च क डम्बश्च वेसवार उपस्करः । तिन्तिडीकं च चुकं च वृक्षाम्ब्लमथ वेल्लजम् ॥ ८९२ मरीचं कोलकं कृष्णभूषणं धर्मपत्तनम् । जीरको जरणोऽजाजी कणा कृष्णे तु जीरके ॥ ८९३ सुषवी कारवी पृथ्वी पृथुः कालोपकुञ्चिका । आर्द्रकं शृङ्गवेरं स्यादथ छत्रा वितुन्नकम् ।। ८९४ कुस्तुम्बुरु च धान्याकमथ शुण्ठी महौषधम् । स्त्रीनपुंसकयोर्विश्वं नागरं विश्वभेषजम् ॥ ८९५ आरनालकसौवीरकुल्माषाभिपुतानि च । अवन्तिसोमधान्याम्ब्लकुञ्जलानि च काञ्जिके ॥ ८९६ सहस्रवेधि जतकं बाहीकं हिङ्गु रामठम् । तत्पत्री कारवी पृथ्वी बाप्पिका केबरी पृथः ॥ ८९७ निशाख्या काञ्चनी पीता हरिद्रा वरवणिनी । सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीवं 'वशिरं च तत् ॥ ८९८ सैन्धवोऽस्त्री 'शीतशिवं मणिमन्थं च सिन्धुजे । रोमकं वसुकं पाक्यं विडं च कृतके द्वयम् ॥८९९ सौवर्चले ऽक्षरुचके तिलकं तत्र मेचके । मत्स्यण्डी फाणितं खण्डविकारः शर्करा सिता ॥ ९०० कचिका क्षीरविकृतिः स्याद्रसाला तु मार्जिता । स्यात्तेमनं तु निष्टानं त्रिलिङ्गा वासितावधेः ॥९०१ शूलाकृतं भटित्रं स्याच्छूल्यमुख्यं तु पैटरम् । प्रणीतमुपसंपन्नं प्रयस्तं स्यात्सुसंस्कृतम् ॥ ९०२ स्यात्पिच्छिलं तु विजिलं संमृष्टं शोधितं समे । चिकणं मस्तृणं स्निग्धं तुल्ये भावितवासिते ॥९०३ आपकं पौलिरभ्यूपो लाजाः पृभूम्नि चाक्षताः । पृथुकः स्याञ्चिपिटको धाना भृष्टयवे स्त्रियः ॥९०४ पूपोऽपूपः पिष्टकः स्यात्करम्भो दधिवक्तवः । भिःसा स्त्री भक्तमन्धोऽन्नमोदनोऽस्त्री स दीदिविः ।। भिःसटा दग्धिका सर्वरसाने मण्डमबियाम । मासराचामनिस्रावा मण्डे भक्तसमुद्भवे ॥ ९०६ यवागाष्णिका घाणा विलेपी तरला च सा। गव्यं त्रिषु गवां सर्व गोविट् गोमयमस्त्रियाम९०७ तत्तु शुष्कं करीपोऽस्त्री दुग्धं क्षीरं पयः समम् । पयस्यमाज्यदध्यादि द्रप्सं दधि धनेतरत् ॥९०८ वृतमाज्यं हविः सर्पिर्नवनीतं नवोद्धतम् । तत्तु हैयंगवीनं यद्योगोदोहोजवं वृतम् ॥ ९०९ दण्डाहतं कालशेयमरिष्टमगि गोरसः । तकं [दश्विन्मथितं पादाम्बाम्बु निर्जलम् ॥ ९१० मण्डं दधिभवं मस्तु पीयूषोऽभिनवं पयः । अशनाया बुभुक्षा क्षुद्रासन्तु केवलः पुमान् ॥ ९११ सपीतिः स्त्री तुल्यपानं सग्धिः स्त्री सहभोजनम् । उदन्या तु पिपाप्ता तृट् वर्षों जग्धिस्तु भोजनम जेमनं लेह आहागे निघासो न्याद इत्यपि । सौहित्यं तर्पणं तृप्तिः फेला भुक्तसमुज्झितम् ॥ ९१३ कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम् । गोपे गोपालगोसंख्यगो गाभीरबल्लवाः ॥ ९१४ गोमहिष्यादिकं पौदबन्धनं द्वौ गवीश्वरे । गोमान्गोमी गोकुलं तु गोधनं स्याद्वां बजे ॥ ९१५ १ दन्त्यान्त्यश्च, २ दन्त्यादिश्र. ३ चीपमपि. ४ उपणमपि. ५ मुशवी च. ६ काञ्चिकमपि. ७ त्वक्पत्री च. ८ वाष्पीका च. ९ कर्वरी च. १० वसिरं च. ११ सितशिवमापि. १२ मणियन्धं च. १३ विजयिलमपि. १४ एतदने 'म्रक्षणाभ्यअने तैलं कृसरन्तु तिलौदनः' इति प्रचितम्. १५ त्रप्स्यमपि. १६ पेयूपोऽपि. १७ 'कवलार्थकः' इति मुकुटाहतः पाठः. १८ फेलिरपि, १९ गोदुहः' अन्तोऽपि. २० 'यादवं धनम्' इति मुभूतिः-इति मुकुटः. For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-९ वैश्यवर्गः । त्रिष्वाशितंगवीनं तद्गावो यत्राशिताः पुरा । उक्षा भद्रो वलीवर्द ऋषभो वृषभो वृषः॥ ९१६ अनडान्सौरभेयो गौरक्ष्णां संहतिरीक्षकम् । गव्या गोत्रा गवां वत्सधेन्वोत्सिकधैनुके ॥ ९१७ वृषो महान्महोक्षः स्यादृद्धोक्षस्तु जरद्गवः । उत्पन्न उक्षा जातोक्षः सद्यो जातस्तु तर्णकः ॥ ९१८ शकृत्करिस्तु वत्सः म्यादम्यवत्सतगै समौ । आर्षभ्यः षण्डतायोग्यः षण्डो गोपतिरिट्रेचरः॥९१९ स्कन्धदेशे त्वस्य वहः सास्ना तु गलकम्बलः । स्यान्नस्तितस्तु नस्योतः प्रष्टवाड्युगपार्श्वगः ॥ ९२० युगादीनां तु बोढागे युग्यप्रासङ्गशाकटाः । खनति तेन तद्वोढास्येदं हालिकसैरिकौ ॥ १२१ पूर्वहे थुर्यधौरेयधुर्गणाः सधुरंधराः । उभावकधुरीणैकधुरावेकधुगवहे ॥ ९२२ स तु सर्वधुरीणः स्याद्यो वै मर्वधुगवहः । माहेयी सौरभेयी गौरुस्रा माता च शृङ्गिणी ॥ ९२३ अर्जुन्यन्न्या गेहिणी स्यादुत्तमा गोषु नैचिकी । वर्णादिभेदात्संज्ञाः स्युः शवलीधवलादयः ॥ ९२४ द्विहायनी द्विवर्षा गौरकाव्दा बेकहायनी । चतुरब्दा चतुर्हायण्येवं व्यब्दा त्रिहायणी ॥ ९२५ वशा वन्ध्यावतोका तु म्रवद्गर्भाथ संधिनी । आक्रान्ता वृषभेणाथ वेहद्गर्भोपघातिनी ॥ ९२६ काल्योपसर्या प्रजने प्रष्टीही बालगर्भिणी । स्यादचण्टी तु सुकग बहुसूतिः परेष्टुका ॥ ९२७ चिरप्रसूता वष्कयणी धेनुः स्यान्नवमतिका । सुव्रता सुखसंदोह्या पीनोनी पीवरस्तनी ॥ ९२८ द्रोणक्षीरा द्रोणघा धेनुप्या वन्धके स्थिता । समांसमीना सा यैव प्रतिवर्ष प्रसूयते ॥ ९२९ ऊवस्तु क्लीवमापीनं समौ शिवककीलकौ । न पुंसि दाम संदानं पशुरज्जुस्तु दामनी ॥ ९३० वैशाग्यमन्थमन्थानमन्धानो मन्थदण्डके । कुटगे दण्डविष्कम्भो मन्धनी गर्गरी समे ॥ ९३१ उष्टे क्रमेलकमयमहाङ्गाः करभः शिशुः । करभाः स्युः शृङ्खलका दारवैः पादवन्धनैः॥ ९३२ अजा छागी शुभच्छागवस्तच्छगलका अजे । मेढोरधोरणोर्णायुमेषवृष्णय एड के ॥ ९३३ उष्टोग्भ्राजवृन्दे स्यादौष्ट्रकौरभ्रकाजकम । चक्रीवन्तस्तु वालेया रासभा गर्दभाः खराः ॥ ९३४ वैदेहकः मार्थवाहो नैगमो वाणिजो वणिक् । पण्याजीवो ह्यापणिक: क्रयविक्रयिका सः ॥ ९३५ विक्रेता स्याद्विक्रयिकः कायकक्रायिको समौ । वाणिज्यं तु वणिज्या स्यान्मूल्यं वस्नोऽप्यवक्रयः९३६ नीवी परिपणो मूलधनं लाभोऽधिकं फलम् । परिदानं परीवर्तो नैमेयनिमयावपि ॥ ९३७ पुमानुपनिधियासः प्रतिदानं तदर्पणम् । ऋये प्रसारितं अय्यं क्रेयं क्रेतव्यमात्रके ॥ ९३८ विक्रेयं पणितव्यं च पण्यं क्रय्यादयस्त्रिषु । क्लीवे सत्यापनं सत्यकार: सत्याकृतिः स्त्रियाम् ॥ ९३९ विपणो विक्रयः संख्याः संख्येये ह्यादश त्रिषु । विंशत्याद्याः सदैकत्वे सर्वाः संख्येयसंख्ययोः९४० संख्यार्थे द्विवहुवे स्तस्तासु चानवतेः स्त्रियः । पतेः शतसहस्रादि क्रमाद्दशगुणोत्तरम् ॥ ९४१ यौतवं दुवयं पाय्यमिति मानार्थकं त्रयम् । मानं तुलाङ्गुलिप्रस्थैर्गुञ्जाः पभागमाषकः ॥ ९४२ ते पोडशाक्षः कर्षोऽस्त्री पलं कर्षचतुष्टयम् । सुवर्णविस्तौ हेनोऽक्षे कुरुबिस्तस्तु तत्पले ॥ ९४३ तुला स्त्रियां पलशतं भार: स्याद्विंशतिस्तुलाः । आचितो दश भाराः स्युः शाकटो भार आचितः ॥ कार्षापणः कार्षिकः स्यात्कार्पिके ताम्रिके पणः । अस्त्रियामाढकद्रोणौ खारी वाहो निकुञ्चकः।।९४५ कुडवः प्रस्थ इत्याद्याः परिमाणार्थकाः पृथक् । पादस्तुरीयो भागः स्यादंशभागौ तु वण्टके ।।९४६ द्रव्यं वित्तं वापतेयं रिक्थमृक्थं धनं वसु । हिरण्यं द्रविणं द्युम्नमधेरैविभवा अपि ॥ ९४७ १ अयमर्धश्लोको मुकुटपुस्तकेषु नोपलभ्यते. २ स्यादित्यन्तं पादद्वयं मुकुटे नास्ति. ३ इत्वरश्च. ४ 'पष्ठवाह'. ५ 'वष्कायणी'. ६ 'बन्धनी'. ७ 'कुटपः' इत्यपि, For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३४ www.kobatirth.org अभिधान संग्रह: -१ नामलिङ्गानुशासनम् । -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९४८ ९४९ ९५० ९५१ ९५२ ९५३ ९५८ स्यात्कोशश्च हिरण्यं च हेमरूप्ये कृताकृते । ताभ्यां यदन्यत्तत्कुप्यं रूप्यं तद्वयमाहतम् ॥ गारुत्मतं मरकतमश्मगर्भो हरिन्मणिः । शोणरत्रं लोहितकः पद्मरागोऽथ मौक्तिकम् ॥ मुक्ताय विद्रुमः पुंसि प्रवालं पुंनपुंसकम् । रत्नं मणिर्द्वयोरश्मजात मुक्तादिकेऽपि च || स्वर्ण सुवर्ण कनकं हिरण्यं हेम हाटकम् । तपनीयं शातकुम्भं गाङ्गेयं भर्म कर्तुरम | चामीकरं जातरूपं महारजतकाथने । रुक्मं कार्तस्वरं जाम्बूनदमष्टापदोऽस्त्रियाम् ॥ अलंकारसुवर्णं यच्छृङ्गीकनकमित्यदः । दुर्वर्ण रजतं रूप्यं खर्जूरं श्रुतमित्यपि ॥ रीतिः स्त्रियामारकूटो न स्त्रियामथ ताम्रकम् । शुल्वं म्लेच्छमुखं द्रष्टवरिष्टोदुम्बराणि च ॥ ९५४ लोहोऽस्त्री शस्त्रकं तीक्ष्णं पिण्डं कालायसायसी । अश्मसारोऽथ मण्डूरं सिंहाणमपि तन्मले ॥९५५ सर्व च तैजसं लोहं विकारस्त्वयसः कुशी । क्षारः काचोऽथ चपलो रसः सूतच परदे ॥ ९५६ गवलं माहिषं शृङ्गमभ्रकं गिरिजामले । स्रोतोञ्जनं तु सौवीरं कापोताञ्जनयामुने || ९५७ तुत्याञ्जनं शिखिग्रीवं वितुन्नकमयूरके । कर्परी दार्दिका काथोद्भवं तुत्थं रसाञ्जनम् || रसगर्भं तार्क्ष्यशैलं गन्धाश्मनि तु गन्धिकः । सौगन्धिकञ्च चक्षुष्याकुलाल्यौ तु कुलत्थका । ९५९ रीतिपुष्पं पुष्पकेतु पुष्पकं कुसुमाञ्जनम् । पिञ्जरं पीतनं तालमालं च हरितालके ॥ गैरेयमर्थ्यं गिरिजमश्मजं च शिलाजतु । बोलगन्धरसप्राणपिण्डगोपरसाः समाः ॥ डिण्डीरोऽब्धिकफः फेनः सिन्दूरं नागसंभवम् । नागसीसकयोगेष्टर्वप्राणि त्रपु पिच्चटम् ॥ ९६२ रङ्गवङ्गे अथ पिंचैस्तूलोऽथ कमलोत्तरम् । स्यात्कुसुम्भं वह्निशिखं महारजनमित्यपि ॥ मेषकम्बल ऊर्णायुः शशोर्ण शशलोमनि । मधु क्षौद्रं माक्षिकादि मधूच्छिष्टं तु सिक्थकम् ॥ ९६४ मनःशिला मनोगुप्ता मनोद्दा नागजिद्दिका । नैपाली कुनटी गोला यवक्षारो यवाग्रजः || ९६५ पाक्योऽथ सर्जिकाक्षारः कापोतः सुखवर्चकः । सौवर्चलं स्यानुचकं त्वक्क्षीरी वंशरोचना ||९६६ शिग्रुजं श्वेतमरिचं मोरटं मूलमैक्षवम् । ग्रन्थिकं पिप्पलीमूलं चटकार्शिर इत्यपि ॥ ९६७ गोलोमी भूतकेशो ना पत्राङ्गं रक्तचन्दनम् । त्रिकटु व्यूषणं व्योषं त्रिफला तु फलत्रिकम् ॥ ९६८ इति वैश्यवर्गः ॥ ९ ॥ ९६० ९६१ ९६३ शूद्राचावरवर्णाश्च वृषलाश्च जघन्यजाः । आ चण्डालात्तु संकीर्णा अम्बष्टकरणादयः ॥ ९६९ द्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्याद्रिजन्मनोः । शूद्राक्षत्रिययोरुयो मागधः क्षत्रियाविशोः ॥ ९७० माहिष्योऽर्याक्षत्रिययोः क्षत्तार्याशूद्रयोः सुतः । ब्राह्मण्यां क्षत्रियात्सूतस्तस्यां वैदेहको विशः ९७१ रथकारस्तु माहिष्यात्करण्यां यस्य संभवः । स्याच्चण्डालस्तु जनितो ब्राह्मण्यां वृषलेन यः ॥ ९७२ कारुः शिल्पी संहतैस्तैर्द्वयोः श्रेणिः सजातिभिः । कुलकः स्यात्कुलश्रेष्टी मालाकारस्तु मालिक : ९७३ कुम्भकारः कुलालः स्यात्पलगण्डस्तु लेपकः । तन्तुवायः कुविन्दः स्यात्तुन्नवायस्तु सौचिकः ||९७४ रङ्गाजीवश्चित्रकरः शस्त्रमार्जोऽसिधावकः । पादूकुचर्मकारः स्याद्वयोकारो लोहकारकः ॥ ९७५ नाडिंयमः स्वर्णकारः कलादो रुक्मकारकः । स्याच्छाङ्खिकः काम्बविकः शौल्विकस्ताम्रकुट्टकः||९७६ तक्षा तु वर्धकिस्त्वष्टा रथकारस्तु काष्टतट् । ग्रामाधीनो ग्रामतक्षः कौटतक्षोऽनधीनकः ॥ क्षुरी मुण्डी दिवाकीर्तिनापितान्ताबसायिनः । निर्णेजकः स्याद्रजकः शैौण्डिको मण्डहारकः ||९७८ १ पारतोऽपि. २ समस्तं व्यस्तमपि ३ 'पिण्डीर : ', दिण्डीरश्च ४ बनमपि ५ पिचुतूलोऽपि. ६ 'शिर:' पुंलिङ्गो दन्तोऽपि ७ कुलिकोऽपि ८ तन्त्रवायोऽपि. ९७७ | For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-~-१० शूद्रवर्गः । जाबालः स्यादजाजीवो देवाजीवस्तु देवलः । स्यान्माया शाम्बरी मायाकारस्तु प्रतिहारकः ॥९७९ शैलालिनस्तु शैलूपा जायाजीवाः कृशाश्विनः । भरता इत्यपि नटाश्चारणास्तु कुशीलवाः ॥ ९८० मार्दङ्गिका मौरजिकाः पाणिवादास्तु पाणिघाः । वेणुध्माः स्युर्वणविका वीणावादास्तु वैणिकाः९८१ जीवान्तकः शाकुनिको द्वौ वागरिकजालिकौ । चैतंसिकः कौटिकश्च मासिकश्च समं त्रयम्॥९८२ भृतको भूतिभुकर्मकरो वैतनिकोऽपि सः । वार्तावहो वैवधिको भारवाहस्तु भारिकः ॥ ९८३ विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथग्जनः । निहीनोऽपसदो जाल्मः क्षुल्लक श्वेतरश्च सः ॥ ९८४ भृत्ये दासेरदासेयदासगोप्यकचेटकाः । नियोज्यकिंकरप्रैष्यभुजिष्यपरिचारकाः ।। पगचितपरिस्कन्दपरजातपधिताः ॥ मन्दस्तुन्दपरिमृज आलस्यः शीतकोऽलसोऽनुष्णः । दक्षे तु चतुरपेशलपटवः सूत्थान उष्णश्च ।। चण्डालप्लवमातङ्गदिवाकीर्तिजनंगमाः । निषादश्वपचावन्तेवासिचाण्डालपुकसाः ॥ ९८८ भेदाः किरातशवरपुलिन्दा म्लेच्छजातयः । व्याधो मृगवधाजीवो मृगयुर्लुब्धकोऽपि सः ॥ ९८९ कौलेयकः सारभेयः कुकुरो मृगदंशकः । शुनको भषकः श्वा स्यादलर्कस्तु स योगितः ॥ ९९० श्वा विश्वकदुर्मूगयाकुशल: सरमा शुनी । विट्चर: सूकरो ग्राम्यो वर्करस्तरुण: पशुः ॥ ९९१ आच्छादनं मृगव्यं स्यादाखेटो मृगया स्त्रियाम् । दक्षिणारुर्लुब्धयोगादक्षिणेर्मा कुरङ्गकः ॥ ९९२ चौरैकागारिकस्तेनदस्युतस्करमोषकाः । प्रतिरोधिपरास्कन्दिपाटचरमलिम्लुचाः ॥ ९९३ चौरिका स्तन्यचौर्ये च स्तेयं लोप्नं तु तद्धने । वीतंसस्तूपकरणं बन्धने मृगपक्षिणाम् ॥ ९९४ उन्माथः कूटयन्त्रं स्याद्वागुरा मृगवन्धनी । शुल्वं वराटकं स्त्री तु रज्जुस्त्रिषु वटी गुणः ।। ९९५ उद्धाटनं घटीयन्त्रं सलिलोद्वाहनं प्रहेः । पुंसि वेमा वायदण्डः सूत्राणि नरि तन्तवः ॥ ९९६ वाणिय॑तिः स्त्रियौ तुल्ये पुस्तं लेप्यादिकर्मणि । पाश्चालिका पुत्रिका स्याद्वस्त्रदन्तादिभिः कृता ॥ ९९७ जतुत्रपुविकारे तु जातुपं त्रापुषं त्रिषु । पिटकः पेटकः पेडा मञ्जूषाथ विहङ्गिका ॥ ९९८ भारयष्टिस्तदालम्बि शिक्यं काचोऽथ पादुका । पादरुपान स्त्री सैवानुपदीना पदायता ॥ ९९९ नधी व वरत्रा स्यादवादेस्ताडनी कशा | चाण्डालिका तु कण्डोलवीणा चण्डालवल्लकी ॥१००० नाराची स्यादेषणिका शाणस्तु निकपः कषः । ब्रश्चनः पत्रपरशुरीविका तृलिका समे ॥ १००१ तैजसावर्तनी मृषा भस्त्रा चर्मप्रसविका । आस्फोटनी वेधनिका कृपाणी कर्तरी समे ॥ १००२ वृक्षादनी वृक्षभेदी टकः पाषाणदारणः । क्रकचोऽस्त्री करपत्रमारा चर्मप्रभेदिका ॥ १००३ सर्मी स्थणायःप्रतिमा शिल्पं कर्म कलादिकम् ॥ १००४ प्रतिमानं प्रतिविम्वं प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाया । प्रतिकृतिरची पुंसि प्रतिनिधिरुपमोपमानं स्यात् ॥ वाच्यलिङ्गाः समस्तुल्यः सदृक्षः सदृशः सहक । साधारण: समानश्च स्युरुत्तरपदे त्वमी ॥१००६ निभसंकाशनीकाशप्रतीकाशीपमादयः । कर्मण्या तु विधाभूत्याभूतयो भर्म वेतनम् ॥ २००७ भरण्यं भरणं मूल्यं निर्वेशः पण इत्यपि । सुरा हलिप्रिया हाला परिसुदरुणात्मजा ॥ २००८ गन्धोत्तमाप्रसन्नेराकादम्बर्यः परित्रुता । मदिरा कश्यमद्ये चाप्यवदंशस्तु भक्षणम् ॥ १००९ १ 'पः', 'प्रेपः', 'प्रेष्यः'. २ बुकुंरा-पि, ३ पालिका च. ४ विहंगमापि, ५ तालव्यादिरापि, For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । शुण्डापानं मदस्थानं मधुवारा मधुक्रमाः । मध्वासवो माधवको मधु माध्वीकमद्वयोः ॥ १०१० मैरेयमासवः सीधुर्मेदको जगल: समौ । संधानं स्यादभिपवः किण्वं पुंसि तु नग्नहः ॥ १०११ कारोत्तरः सुरामण्ड आपानं पानगोष्टिका । चषकोऽस्त्री पानपात्रं सरकोऽप्यनुतर्पणम् ॥ १०१२ धर्तोऽक्षदेवी कितवोऽक्षता घतकृत्समाः । स्युलग्नकाः प्रतिभुवः सभिका द्यूतकारकाः ।। १०१३ द्यतोऽस्त्रियामक्षवती कैतवं पण इत्यपि । पणोऽक्षेषु ग्लहोऽक्षास्तु देवनाः पाशकाच ते ॥ १०१४ परिणायस्तु शारीणां समन्तान्नयनेऽस्त्रियाम् । अष्टापदं शारिफलं प्राणियूतं समायः ॥ १०१५ उक्ता भूरिप्रयोगत्वादेकस्मिन्येऽत्र यौगिकाः । ताद्धादन्यतो वृत्तावृह्या लिङ्गान्तरेऽपि ते ॥१०१६ इति शद्रवर्गः ॥ १० ॥ इत्यमरसिंहकृतौ नामलिङ्गानुशासने । द्वितीयकाण्डो भूम्यादिः साङ्ग एव समर्थितः ॥ १०१७ तृतीयं काण्डम् । विशेष्यनिन्नैः संकीर्णन नार्थैरव्ययैरपि । लिङ्गादिसंग्रहैवाः सामान्ये वर्गसंश्रयाः ॥ २०१८ स्त्रीदाराद्यैयद्विशेष्यं यादशैः प्रस्तुतं पदैः । गुणद्रव्यक्रियाशब्दास्तथा स्युस्तस्य भेदकाः ॥ २०१९ सुकृती पुण्यवान्यन्यो महेच्छस्तु महाशयः । हृदयालुः सुहृदयो महोत्साहो महोद्यमः ॥ १०२० प्रवीणे निपुणाभिज्ञविज्ञनिष्णातशिक्षिताः । वैज्ञानिकः कृतमुखः कृती कुशल इत्यपि ॥ १०२१ पज्यः प्रतीक्ष्यः सांशयिकः संशयापन्नमानसः । दक्षिणीयो दक्षिणार्हस्तत्र दक्षिण्य इत्यपि ॥ १०२२ स्युर्वदान्यस्थूललक्ष्यदानशौण्डा बहुप्रदे । जैवातृकः स्यादायुष्मानन्तर्वाणिस्तु शास्त्रवित् ॥ १०२३ परीक्षकः कारणिको वरदस्तु समर्धकः । हर्षमाणो विकुर्वाणः प्रमना हृष्टमानसः॥ १०२.४ दुर्मना विमना अन्तर्मनाः स्यादुक उन्मनाः । दक्षिणे सरलोदारौ सुकलो दातृभोक्तरि ॥ १०२५ तत्परे प्रसितासक्ताविष्टार्थोयुक्त उत्सुकः । प्रतीते प्रथितख्यातवित्तविज्ञातविश्रुताः ॥ १०२६ गुणैः प्रतीते तु कृतलक्षणाहतलक्षणौ । इभ्य आढ्यो धनी स्वामी खीश्वरः पतिरीशिता ॥ १०२७ अधिभर्नायको नेता प्रभुः परिवृढोऽधिपः । अधिकार्द्धिः समृद्धः स्यात्कुटुम्वव्यापृतस्तु यः ॥१०२८ स्यादभ्यागारिकस्तस्मिन्नुपाधिश्च पुमानयम् । वगङ्गरूपोपेतो यः सिंहसंहननो हि सः ॥ १०२९ निर्वाय: कार्यकर्ता यः संपन्नः सत्त्वसंपदा । अवाचि मूकोऽथ मनोजवसः पितृसंनिभः ॥ १०३० सत्कृत्यालंकृतां कन्यां यो ददाति स कूकुदः । लक्ष्मीवाल्लक्ष्मणः श्रील: श्रीमास्निग्धस्तु वत्सलः ।। स्यादयालुः कारुणिकः कृपालुः सूरतः समाः । स्वतन्त्रोऽपावृतः स्वैरी स्वच्छन्दो निग्वग्रहः १.०३२ परतन्त्रः पराधीनः परवान्नाथवानपि । अधीनो निन्न आयत्तोऽस्वच्छन्दो गृह्यकोऽप्यसौ ॥ १०३३ खलपूः स्याद करो दीर्घसूत्रश्चिक्रियः । जाल्मोऽसमीक्ष्यकारी स्यात्कुण्टो मन्दः क्रियासु यः ।। कर्मक्षमोऽलंकर्माणः क्रियावान्कर्मसूद्यतः । स कार्मः कर्मशीलो यः कर्मशूरस्तु कर्मठः ॥ १०३५ भरण्यभुकर्मकर: कर्मकारस्तु तत्क्रियः । अपस्नातो मृतन्नात आमिषाशी तु शौष्कलः ॥ १०३६ बुभुक्षितः स्यात्क्षुधितो जियत्सुग्शनायितः । परान्नः परपिण्डादो भक्षको घस्मरोऽद्मरः ॥ १०३७ १ कारोत्तमोऽपि. २ धातोऽपि. ३ 'द्वितीयो भूमिकाण्डोध्यम्'. ४ 'सहृदयः'. ५ क्वचित्तु तत्परे प्रसितासताविष्णा उगुक्त उत्सुकः' इति पाठः, तदाविष्ठान्तं तत्परे----इति मुकुटः, ६ 'आह्तलक्षण' इति दीर्घादिः. ७ 'संयुनः'. ८ 'मनोनवः स पितृसंनिभः'. ९ 'शाष्कलः For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -१ विशेष्यनिघ्नवर्गः । ३ काण्डम् - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७ १०३८ १०४४ १०४५ १०४६ आद्यूनः स्यादौदरिको विजिगीषाविवर्जिते । उभौ त्वात्मंभरिः कुक्षिभरिः स्वोदरपूरके ॥ 1 सर्वान्नीनस्तु सर्वान्नभोजी गृनुस्तु गर्धनः । लुब्धोऽभिलाषुकस्तृष्णक्समौ लोलुपलोलुभौ || १०३९ सोन्मादस्तून्मदिष्णुः स्यादविनीतः समुद्धतः । मत्ते शौण्डोत्कटक्षीवाः कामुके कमितानुकः १०४० कम्रः कामयिताभीकः कमनः कामनोऽभिकः । विधेयो विनयग्राही वचनेस्थित आश्रवः ।। १०४१ वयः प्रणेयो निभूतविनीतप्रश्रिताः समाः । धृष्टे धृष्णग्वियातच प्रगल्भः प्रतिभान्विते || १०४२ स्यादधृष्टे तु शालीनो विलक्षो विस्मयान्विते । अधीरे कातरस्त्रस्त्रौ भीरुभीरुकभीलुकाः || १०४३ आशंसुराशंसितरि गृहयालुर्ग्रहीतरि । श्रद्धालुः श्रद्धया युक्ते पतयालुस्तु पातुके ॥ लज्जाशीलेऽपत्रपिष्णुर्वन्दारुरभिवादके । शरारुर्घातुको हिंस्रः स्याद्वर्धिष्णुस्तु वर्धनः ॥ उत्पतिष्णुस्तूत्पतितालंकरिष्णुस्तु मण्डनः । भूष्णुर्भविष्णुर्भविता वर्तिष्णुर्वर्तनः समौ ॥ निराकरिष्णुः क्षिः स्यात्सान्द्रस्निग्धस्तु मेदुरः । ज्ञाता तु विदुरो विन्दुर्विकासी तु विकस्वरः १०४७ विसृलगे विसृमरः प्रसारी च विसारिणि । सहिष्णुः सहनः क्षन्ता तितिक्षुः क्षमिता क्षमी १०४८ क्रोधनोऽमर्षणः कोपी चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः । जागरूको जागरिता घूर्णितः प्रचलायितः || १०४९ स्वमक्शयालुर्निद्रालुर्निद्राणशयितौ समौ । पराङ्मुखः पराचीनः स्यादवाङप्यधोमुखः ॥ १०५० देवानञ्चति देव विष्वय विश्वगञ्चति । यः सहायति सध्यङ स स तिर्यङ् यस्तिरोऽञ्चति १०५१ दो वदावदो वक्ता वागीशो वाक्पतिः समौ । वाचोयुक्तिपटुर्वाग्मी वावदूकोऽतिवक्तरि ।। १०५२ स्याज्जल्पाकस्तु वाचालो वाचाटो बहुगह्येवाक् । दुर्मुखे मुखराबद्धमुखौ शक्लः प्रियंवदे || १०५३ लोहलः स्यादस्फुटवाग्गर्ह्यवादी तु कद्वदः । समौ कुवादकुचगै स्याद सौम्यस्वरोऽस्वरः ॥ १०५४ ग्वणः शब्दनो नान्दीवादी नान्दीकरः समौ । जडोऽज्ञ एडमूकस्तु वक्तुं श्रोतुमशिक्षिते || १०५५ तूष्णीशीलस्तु तूष्णीको नग्नोऽवासा दिगम्बरे । निष्कासितोऽवकृष्टः स्यादपध्वस्तस्तु धिकृतः १०५६ आत्तगर्वोऽभिभूतः स्याद्दीपितः साधितः समौ । प्रत्यादिष्टो निरस्तः स्यात्प्रत्याख्यातो निराकृतः || निकृतः स्याद्विप्रकृतो विप्रलब्धस्तु वचितः । मनोहतः प्रतिहतः प्रतिबद्धो हतश्च सः ॥ अधिक्षिप्तः प्रतिक्षिप्तो बद्धे कीलितसंयतौ । आपन आपल्यातः स्यात्कांदिशीको भयद्भुतः || १०५९ आक्षारितः क्षाग्तिोऽभिशस्ते संकसुकोऽस्थिरे । व्यसनात रक्तौ द्वौ विहस्तव्याकुलौ समौ १०६० farai fage: स्यात्तु विवशोऽरिष्टदुष्टधीः । कश्यः कशार्हे संनद्धे वाततायी वधोद्यते ।। १०६१ द्वेष्ये वक्षिगतो वध्यः शीर्षच्छेद्य इमौ समौ । विष्यो विषेण यो वध्यो मुसल्यो मुसलेन यः १०६२ शिश्विदानोऽकृष्णकर्मा चपलचिकुरः समौ । दोषैकटक्पुरोभागी निकृतस्त्वनृजुः शठः || १०६३ कर्णेजपः सूचकः स्यापिशुनो दुर्जनः खलः । नृशंसो धातुकः क्रूरः पापो धूर्तस्तु वञ्चकः || १०६४ अज्ञे मूढयथाजातमूर्खवैधेयबालिशाः । कदर्ये कृपणक्षुद्रकिंपचानमितंपचाः ।। १०६५ निःस्वस्तु दुर्विधो दीनो दरिद्रो दुर्गतोऽपि सः । वनीयको याचनको मार्गणी याचकार्थिनौ ॥ १०६६ अहंकारवान हंगुः शुभंयुस्तु शुभान्वितः । दिव्योपपादुका देवा नृगवाद्या जरायुजाः ॥ १०६७ स्वेदजाः क्रमिदंशायाः पक्षिसर्पादयोऽण्डजाः । उद्भिदस्तरुगुल्माद्या उद्भिदुद्भिज्जमुद्भिदम् || १०६८ सुन्दरं रुचिरं चारु सुषमं साधु शोभनम् । कान्तं मनोरमं रुच्यं मनोज्ञं मञ्जु मञ्जुलम् || १०६९ १०५८ For Private and Personal Use Only १ तृष्णकोऽपि २ सन्मादोऽपि ३ ष्णुरित्यपि ४ आत्तगन्धोऽपि ५ दायितोऽपि ६ इतः सार्धश्लोको मुकुटे नोपलभ्यते. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८ अभिधानसंग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् | १०७१ १०७४ १०७५ तसेचनकं तृप्तेर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनात् । अभीष्टेऽभीप्सितं हृद्यं दयितं वल्लभं प्रियम् ॥ १०७० निक्रुष्टपतिक्रुष्टार्वरेफैयाप्यावमाधमाः । कुपूपकुत्सितावद्यखेटगर्द्याणकाः समाः ॥ मलीमसं तु मलिनं कच्चरं मलदूषितम् । पूतं पवित्रं मेध्यं च वीध्रं तु विमलार्थकम् || १०७२ निर्णिक्तं शोधितं मृष्टं निःशोध्यमनवस्करम् । असारं फल्गु शून्यं तु वशिकं तुच्छरिक्त के १०७३ की प्रधानं प्रमुख प्रवेकानुत्तमोत्तमाः । मुख्यवर्यवरेण्याच प्रवर्होऽनवरार्ध्यवत् ॥ परार्थ्याप्रप्राग्रहरप्राग्र्यात्र्याश्रीयमग्रियम् । श्रेयाश्रेष्ठः पुष्कलः स्यात्सत्तमश्चातिशोभने ॥ स्युरुत्तरपदे व्याघ्रपुंगवर्षभकुञ्जराः । सिंहशार्दूलनागाद्याः पुंसि श्रेष्टार्थगोचराः || अयं द्वयीने द्वे अप्रधानोपसर्जने । विशङ्कटं प्रभु वृहद्विशालं पृथुलं महत् ॥ वट्रोरुविपुलं पीनपीव्नी तु स्थूलपीवरे । स्तोकाल्पक्षुल्लकाः सूक्ष्मं लक्ष्णं दभ्रं कृशं तनु ॥ १०७८ स्त्रियां मात्रा त्रुटि: पुंसि लवलेशकणाणवः । अयल्पेऽल्पिष्ट मल्पीय: कनीयोऽणीय इत्यपि || १०७९ प्रभूतं प्रचुरं प्राज्यमदभ्रं बहुलं बहु । पुरुहूः पुरु भूयिष्टं स्फारं भूयश्च भूरि च ॥ परःशताद्यास्ते येषां परा संख्या शतादिकात् ॥ १०७६ १०७७ १०८० १०८१ गणनीये तु गणेयं संख्याते गणितमथ समं सर्वम् | विश्वमशेषं कृत्स्नं समस्तनिखिलाखिलानि निःशेषम् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८२ १०८३ १०८४ १०८६ १०८७ १०८८ १०८९ १०९० समयं सकलं पूर्णमखण्डं स्यादनून के | घने निरन्तरं सान्द्रं पेलवं विरलं तनुं ॥ समीपे निकटासन्नसंनिकृष्टसनीडवत् । सदेशाभ्याशसविध समर्यादसवेशवत् ॥ उपकण्ठान्तिकाभ्यर्णाभ्यया अप्यभितोऽव्ययम् । संसक्ते वव्यवहितमपदान्तरमित्यपि ।। १०८५ नेदिष्ठमन्तिकतमं स्याद्दूरं विप्रकृष्टकम् । दवीयश्च दविष्ठं च सुदूरं दीर्घमायतम् ॥ वर्तुलं निस्तलं वृत्तं बन्धुरं तन्नतानतम् | उच्चप्रांशुन्नतोदोच्छ्रितास्तुङ्गेऽथ वामने || न्यङ्नीचखर्वह्नखाः स्युरवाप्रेऽवनतानतम् | अरालं वृजिनं जिह्ममूर्मिमत्कुचितं नतम् ॥ आविद्धं कुटिलं भुग्नं वेल्लितं वक्रमित्यपि । ऋजावजिह्मप्रगुणौ व्यस्ते त्वगुणाकुलौ ॥ शाश्वतस्तु ध्रुवो नित्यसदातनसनातनाः । स्थास्नुः स्थिरतरः स्थेयानेकरूपतया तु यः ॥ कालव्यापी स कूटस्थः स्थावरो जङ्गमेतरः । चरिष्णु जङ्गमचरं त्रसमिङ्गं चराचरम् ॥ चलनं कम्पनं कम्पं चलं लोलं चलाचलम् । चञ्चलं तरलं चैव पारिप्लवपरिप्लवे ॥ अतिरिक्तः समधिको दृढसंधिस्तु संहतः । कर्कशं कठिनं क्रूरं कठोरं निठुरं दृढम् ॥ जठरं मूर्तिमन्मृर्त प्रवृद्धं प्रौढमेधितम् । पुराणे प्रतनप्रत्नपुरातनचिरंतनाः ॥ प्रत्योऽभिनवो नव्यो नवीनो नूतनो नवः । नूत्रश्च सुकुमारं तु कोमलं मृदुलं मृदु ॥ अन्वगन्वक्षमनुगेऽनुपदं क्लीवमव्ययम् । प्रत्यक्षं स्यादैन्द्रियकमप्रत्यक्षमतीन्द्रियम् ॥ एकतानोऽनन्यवृत्तिरे कायैकायनावपि । अप्येकसर्ग एकाम्योऽप्येकायनगतोऽपि सः ॥ पुंस्यादिः पूर्वपौरस्त्यप्रथमाद्या अथास्त्रियाम् । अन्तो जघन्यं चरममन्यपाश्चात्यपश्चिमाः ॥ १०९८ मोत्रं निरर्थकं स्पष्टं स्फुटं प्रव्यक्तमुल्बणम् । साधारणं तु सामान्यमेकाकी लेक एककः ॥ १०९९ भिन्नार्थका अन्यतर एकस्वोऽन्येतरावपि । उच्चावचं नैकभेदमुखण्डमविलम्बितम् || १०९१ १०९२ १०९३ १०९४ १०९५ १०९६ १०९७ ११०० १ असेचनकमपि २ 'रेप:' अदन्तोऽपि, 'रेपा: ' सान्तोऽपि ३ 'विमलात्मकम्' ४ 'वाचकाः ' ५ अयमर्धलोको मुकुठे नोपलभ्यते ६ दन्त्यान्योऽपि ७ अपटान्तरमपि ८ जरठमाप ९ एकलोऽपि १० अवलम्वनमपि. For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् -- विशेष्यनिन्नवर्गः । असंतुदं तु मर्मस्पृगबाधं तु निरर्गलम् । प्रसव्यं प्रतिकूलं स्यादपसव्यमपष्टु च ॥ ११०१ वामं शरीरं सव्यं स्यादपसव्यं तु दक्षिणम् । संकटं ना तु संबाधः कलिलं गहनं समे ॥ ११०२ संकीर्णे संकुलाकीणे मुण्डितं परिवापितम् । ग्रन्थितं संदितं दृब्धं विसृतं विस्तृतं ततम् ॥ ११०३ अन्तर्गतं विस्मृतं स्यात्प्राप्तप्रणिहिते समे । वेल्लितप्रेङिताधूतचलिताकम्पिता धुते ॥ ११०४ नत्तनन्नास्तनिष्टयूताविद्धक्षिप्तेरिताः समाः । परिक्षिप्तं तु निवृतं मूषितं मुषितार्थकम् ॥ ११०५ प्रवृद्धप्रसृते न्यस्तनिसृष्टे गुणिताहते । निदिग्धोपचिते गूढगुप्ते गुण्ठितरूषिते ॥ ११०६ दुतावदीर्णे उद्गोंद्यते काचितशिक्यिते । ब्राणघ्राते दिग्धलिने समुदतोते समे ॥ ११०७ वेष्टितं स्याद्वलयितं संवीतं रुद्धमावृतम् । रुग्णं भुग्नेऽथ निशितक्ष्णुतशातानि तेजिते ॥ १.१.०६ स्याद्विनाशोन्मुखं पक्कं ह्रीणहीतौ तु लज्जिते । वृत्ते तु वृतावृत्तौ संयोजित उपाहितः ॥ ११०९ प्राप्यं गम्यं समासाद्यं स्यन्नं रीणं स्नुतं स्रुतम् । संगूढः स्यात्संकलितोऽवगीतः ख्यातगर्हणः॥१११० विविधः स्याद्वहुविधो नानारूपः पृथग्विधः । अवरीणो धिकृतश्चाप्यवध्वस्तोऽवचूर्णितः ॥ ११११ अनायासकृतं फाण्टं स्वनितं ध्वनितं समे । बद्धे संदानितं मूतमुदितं संदितं सितम् ॥ १११२ निष्पक्के कथितं पाके क्षीगज्यहविषां शृतम् । निर्वाणो मुनिवढ्यादौ निर्वातस्तु गतेऽनिले ॥ ११.१३ पकं परिणते गूनं हन्ने मीढं तु मूत्रिते । पुष्टे तु पुषितं सोढे क्षान्त मुंद्वान्तमुद्गते ॥ १११४ दान्तस्तु दमिते शान्तः शमिते प्रार्थितेऽदितः । ज्ञप्तस्तु ज्ञपिते छन्नश्छादिते पूजितेऽश्चितः ॥ १११५ पूर्णस्तु पूरिते क्लिष्टः क्लिशितेऽवसिते सितः । पृष्टप्लुटोषिता दग्धे तष्टत्वष्टौ तनूकृते ॥ १११६ वेधितच्छिद्रितौ विढे विनवित्तौ विचारिते । निष्प्रभे विगतारोको विलीने विदुतदृतौ ॥ १११७ सिद्धे निर्वृत्तनिष्पन्नौ दारिते भिन्नभेदितौ । ऊतं स्यूतमुतं चेति त्रितयं तन्तुसंतते ॥ १११८ म्यादर्हिते नमस्थितनमसितमपचायितार्चितापचितम् । वरिवसिते वरिवस्थितमुपासितं चोपचरितं च ।। संतापितसंतप्तौ धूपितधूपायितौ च दूनश्च । हृष्टे मत्तस्तृपः प्रहन्नः प्रमुदितः प्रीतः ॥ ११२० छिन्नं छातं लूनं कृत्तं दातं दितं छितं वृणम् । स्रस्तं ध्वस्त भ्रष्टं स्कन्नं पन्नं च्युतं गलितम् ॥ लब्धं प्राप्तं विन्नं भावितमासादितं च भूतं च । अन्वेषितं गवेषितमन्विष्टं मार्गितं मृगितम् ॥ ११२२ आर्दै साई क्लिन्नं तिमितं स्तिमितं समुन्नमुत्तं च । त्रातं त्राणं रक्षितमवितं गोपायितं च गुप्तं च ॥ ११२३ अवगणितमवमतावज्ञाते अवमानितं च परिभूते । यक्तं हीनं विधुतं समुज्झितं धूतमुत्सृष्टे ॥ ११२४ उक्तं भाषितमुदितं जल्पितमाख्यातमभिहितं लपितम् । बुद्धं बुधितं मनितं विदितं प्रतिपन्नमवसितावगते ॥ ११२५ १ प्रोप्तमित्यपि. २ व्यावृत्तोऽपि. ३ मर्णमपि. ४ 'उद्धानम्', उद्वानमपि. १११९ For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८० www.kobatirth.org अभिधानसंग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् । - ऊरीकृत मुररीकृतमङ्गीकृतमाश्रुतं प्रतिज्ञातम् । संगीर्णविदितसंश्रुतसमाहितोपश्रुतोपगतम् ॥ ईलितशस्तपणायितपनायितप्रणुतपणितपनितानि । अपि गीर्णवर्णिताभिष्टुतेडितानि स्तुतार्थानि ॥ भक्षितचवितलीढप्रत्यवसितगिलितखादितप्सातम् । अभ्यवहृतान्नजग्धग्रस्तग्लस्ताशितं भुक्ते ॥ क्षेपिष्टक्षोदिष्टप्रेष्ठवरिष्ठस्थविष्ठवंहिष्ठाः । क्षिप्रक्षुद्राभीप्सित पृथुपीवर बहुप्रकर्षार्थाः || साधिष्ठद्राविष्टस्पेष्ट गरिष्ठइसिष्टवृन्दिष्टाः । वाढव्यायतबहुगुरुवामनवृन्दारकातिशये ॥ इति विशेष्यनिघ्नवर्गः ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२६ For Private and Personal Use Only ११२७ ११२८ ११२९ ११३० ११३१ ११३२ ११३४ ११३५ ११३६ ११३७ प्रकृतिप्रत्ययार्थाद्यैः संकीर्णे लिङ्गमुन्नयेत् । कर्म क्रिया तत्सातत्ये गम्ये स्युर परस्पराः ॥ साकल्यासङ्गवचने पारायणतुरायणे । यदृच्छा खैरिता हेतुशून्या वास्या विलक्षणम् ॥ शमथस्तु शमः शान्तिर्दान्तिस्तु दमथो दमः । अवदानं कर्म वृत्तं काम्यदानं प्रवारणम् ॥ १.१३३ वशक्रिया संवननं मूलकर्म तु कार्मणम् । विधूननं विधुवनं तर्पणं प्रीणनावनम् ॥ पर्याप्तिः स्यात्परित्राणं हस्तवारणमित्यपि । सेवनं सीवनं स्यूतिर्विदरः स्फुटनं भिदा । आक्रोशनमभीषङ्गः संवेदो वेदना न ना । संमूर्च्छनमभिव्याप्तिर्याच्या भिक्षार्थनार्दना || ai ass आनन्दनसभाजने । आप्रच्छन्नमथाम्नायः संप्रदायः क्षये क्षिया ॥ ग्रहे ग्राहो वशः कान्तौ रक्ष्णस्त्राणे रणः कणे । व्यधो वेवे पचा पाके हवो हृतौ वरो वृतौ ११३८ ओषः फ्लोषे नयो नाये ज्यानिर्जीर्णो भ्रमो भ्रमौ । स्फातिवृद्धौ प्रथा ख्यातौ स्पृष्टिः प्रक्तौ स्नवः स्रवे ।। धा समृद्धौ स्फुरणे स्फुरणा प्रमितौ प्रमा । प्रसूतिः प्रसवे योते प्राचारः क्लमथः क्लमे ।। ११४० उत्कर्षोऽतिशये संधिः श्लेषे विषय आश्रये । क्षिपायां क्षेपणं गीर्णिगिरौ गुरणमुद्यमे ॥ उन्नाय उन्नये श्रायः श्रयणे जयने जयः । निगादो निगदे मादो मद उद्वेग उद्धमे ॥ विमर्दनं परिमलोऽभ्युपपत्तिरनुग्रहः । निग्रहस्तद्विरुद्धः स्यादभियोगस्त्वभिग्रहः | मुष्टिबन्धस्तु संग्राहो डिम्बे डमरविलवौ । वन्धनं प्रसितिश्चारः स्पर्शः स्पष्टोपतप्तरि || निकारो विप्रकारः स्यादाकारस्त्विङ्ग इङ्गितम् । परिणामो विकारो द्वे समे विकृतिविक्रिये ।। ११४५ अपहारस्वपचयः समाहारः समुच्चयः । प्रत्याहार उपादानं विहारस्तु परिक्रमः ॥ अभिहारोऽभिग्रहणं निगेऽभ्यवकर्षणम् । अनुहारोऽनुकारः स्यादर्थस्यापगमे व्ययः ।। प्रवाहस्तु प्रवृत्तिः स्यात्प्रवहो गमनं बहिः । वियामो वियमा यामो यमः संयामसंयमौ ॥ ११४८ हिंसाकर्माभिचारः स्याज्जागर्या जागरा द्वयोः । विघ्नोऽन्तरायः प्रत्यूहः स्यादुपन्नोऽन्तिकाश्रये ११४९ निर्वेश उपभोगः स्यात्परिसर्पः परिक्रिया । विधुरं तु प्रविश्लेषेऽभिप्रायश्छन्द आशयः ॥ ११५० ११४१ ११४२ ११४३ ११४४ ११४६ ११४७ १ कामदानमपि. २ संवदनमपि, संवपनमपि ३ 'आमन्त्रण' इत्यपि ४ विधापि ५ आशय इत्यपि. ६ - रणमपि, गोरणमपि, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम्-३ नानार्थवर्गः । संक्षेपणं समसनं पर्यवस्था विरोधनम् । परिसर्या परीसारः स्यादास्या वासना स्थितिः ॥ ११५१ विस्तारो विग्रहो व्यासः स च शब्दस्य विस्तरः । संवाहनं मर्दनं स्याद्विनाशः स्याददर्शनम् ११५२ संस्तवः स्यात्परिचयः प्रसरस्तु विसर्पणम् । नीवाकस्तु प्रयामः स्यात्संनिधिः संनिकर्षणम् ॥ ११५३ लवोऽभिलावो लवने निष्पावः पवने पवः । प्रस्तावः स्यादवसरस्त्रसरः सूत्रवेष्टनम् ॥ ११५४ प्रजनः स्यादुपसरः प्रश्रयप्रणयौ समौ । धीशक्तिनिष्क्रमोऽस्त्री तु संक्रमो दुर्गसंचरः॥ ११५५ प्रत्युत्क्रमः प्रयोगार्थः प्रक्रमः स्यादुपक्रमः । स्यादभ्यादानमुद्धात आरम्भः संभ्रमस्त्वरा ॥ ११५६ प्रतिवन्धः प्रतिष्टम्भोऽवनायस्तु निपातनम् । उपलम्भस्वनुभवः समालम्भो विलेपनम् ॥ ११५७ विप्रलम्भो विप्रयोगो विलम्भस्त्वतिसर्जनम् । विश्रावस्तु प्रतिख्यातिरक्षा प्रतिजागरः॥ ११५८ निपाटनिपठौ पाटे तेमस्तेमौ समुन्दने । आदीनवास्रवौ क्लेशे मेलके सङ्गसंगमौ ॥ ११५९ संवीक्षणं विचयनं मागणं मृगणा मृगः । परिरम्भः परिष्वङ्गः संश्लेष उपगूहनम् ॥ ११६० निर्वर्णनं तु निध्यानं दर्शनालोकनेक्षणम् । प्रत्याख्यानं निरसनं प्रत्यादेशो निराकृतिः ॥ ११६१ उपशायो विशायश्च पर्यायशयनार्थको । अर्तनं च ऋतीया च हृणीया च घृणार्थकाः ॥ ११६२ स्याव्यत्यासो विपर्यासो व्यत्ययश्च विपर्यये । पर्ययोऽतिक्रमस्तस्मिन्नतिपात उपात्ययः ॥ ११६३ प्रेषणं यत्समाहूय तत्र स्यात्प्रतिशासनम् । स संस्तावः क्रतुषु या स्तुतिभूमिद्विजन्मनाम् ॥ ११६४ निधाय तक्ष्यते यत्र काष्टे काष्टं स उद्दनः । स्तम्वन्नस्तु स्तम्बधनः स्तम्बो येन निहन्यते ॥११६५ आविधो विध्यते येन तत्र विष्वक्समे निघः । उत्कारश्च निकारश्च द्वौ धान्योत्क्षेपणार्थकौ॥२१६६ निगारोद्गारविक्षावोवाहास्तु गरणादिषु ॥ ११६७ आरत्यवरतिविरतय उपरामे ऽथास्त्रियां तु निष्ठेवः । निष्टयतिनिष्ठेवननिष्टीवनमित्यभिन्नानि ॥ ११६८ जवने जूतिः सातिस्त्ववसाने स्यादथ ज्वरे जूतिः। उदजस्तु पशुप्रेरणमकरणिरित्यादयः शापे ॥ गोत्रान्तेभ्यस्तस्य वृन्दमित्यौपगवकादिकम् । आपूपिकं शाष्कुलिकमेवमाद्यमचेतसाम् ॥ ११७० माणवानां तु माणव्यं सहायानां सहायता । हल्या हलानां ब्राह्मण्यवाडव्ये तु द्विजन्मनाम् ११७१ द्वे पशुकानां पृष्टानां पार्श्व पृष्ठयमनुक्रमात् । खलानां खलिनी खल्याप्यथ मानुष्यकं नृणाम् ११७२ ग्रामता जनता धूम्या पाश्या गल्या पृथक्पृथक् । अपि साहस्रकारीषवार्मणाथर्वणादिकम् ॥११७३ इति संकीर्णवर्गः ।। २॥ ११६९ नानार्थाः केऽपि कान्तादिवर्गेष्वेवात्र कीर्तिताः । भूरिप्रयोगा ये येषु पर्यायेष्वपि तेषु ते ।। ११७४ आकाशे त्रिदिवे नाको लोकस्तु भुवने जने । पद्ये यशसि च श्लोकः शरे खड्ने च सायकः ॥ ११७५ जम्बुको क्रोष्टुवरुणौ पृथुको चिपिटार्भकौ । आलोको दर्शनद्योती भेरीपटहमानको ॥ ११७६ उत्सङ्गचिह्नयोरङ्कः कलङ्कोऽङ्कापवादयोः । तक्षको नागवर्धक्योरर्कः स्फटिकसूर्ययोः ॥ ११७७ मारुते वेधसि बने पुंसि कः कं शिरोऽम्बुनोः । स्यात्पुलाकस्तुच्छधान्ये संक्षेपे भक्तसिक्थके॥११७८ उलूके करिणः पुच्छमूलोपान्ते च पेचकः । कमण्डलौ च करकः सुगते च विनायकः ॥ ११७९ १ प्रसरोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ४२ . अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । किष्कुर्हस्ते वितस्तौ च शूककीटे च वृश्चिकः । प्रतिकूले प्रतीकनिष्वेकदेशे तु पुंस्ययम् ॥११८० स्याद्भतिकं तु भनिम्बे कत्तुणे भूस्तृणेऽपि च । ज्योत्स्निकायां च घोषे च कोशातक्यथ कटफले ॥ सिते च खदिरे सोमवल्कः स्यादथ सिल्हके । तिलकल्के च पिण्याको बाल्हीकं रामठेऽपि च ११८२ महेन्द्रगुग्गुलूलूकव्यालग्राहिषु कौशिकः । रुक्तापशङ्कास्वातङ्कः स्वल्पेऽपि क्षुल्लकस्त्रिषु ॥ ११८३ जैवातृकः शशाङ्केऽपि नुरेऽप्यश्वस्य वर्तकः । व्यानेऽपि पुण्डरीको ना यवान्यामपि दीपकः ११८४ शालावृकाः कपिक्रोष्टश्वानः स्वर्णेऽपि गैरिकम् । पीडार्थेऽपि व्यलीकं स्यादलीक खप्रियेऽनृते ११८५ शीलान्वयावनूके द्वे शल्के शकलवल्कले | साष्टे शते सुवर्णानां हेन्युरोभूषणे पले ॥ ११८६ दीनारेऽपि च निष्कोऽस्त्री कल्कोऽस्त्री शमलैनसोः । दम्भेऽप्यथ पिनाकोऽस्त्री शूलशंकरधन्वनोः॥ धेनुका तु करेण्वां च मेघजाले च कालिका । कारिका यातनावृत्त्योः कणिका कर्णभूषणे ॥११८८ करिहस्तेऽङ्गुलौ पद्मवीजकोष्यां त्रिषूत्तरे । वृन्दारको रूपिमुख्यावेके मुख्यान्यकेवलाः ॥ ११८९ स्वादाम्भिकः कौकुटिको यश्चादूरेरितेक्षणः । लालाटिकः प्रभो लदर्शी कार्याक्षमश्च यः॥ ११९० मयूखस्विटकरज्वालास्वलिवाणौ शिलीमुखौ । शङ्खो निधौ ललाटास्थि कम्बौ न स्त्रीन्द्रियेऽपि खम् ।। घृणिज्वाले अपि शिखे शैलवृक्षौ नगावगी। आशुगौ वायुविशिखौ शरार्कविहगाः खगाः॥११९२ पतङ्गो पक्षिसूर्यो च पूगः क्रमुकवृन्दयोः । पशवोऽपि मृगा वेगः प्रवाहजवयोरपि ॥ ११९३ परागः कौसुमे रेणौ स्नानीयादौ रजस्यपि । गजेऽपि नागमातङ्गावपाङ्गस्तिलकेऽपि च ॥ ११९४ सर्गः स्वभावनिर्मोक्षनिश्चयाध्यायसृष्टिषु । योगः संनहनोपायध्यानसंगतियुक्तिषु ॥ ११९५ भोगः सुखे रूयादिभृतावहेश्व फणकाययोः । चातके हरिणे पुंसि सारङ्गः शबले त्रिषु ॥ ११९६ कपौ च प्लवगः शापे त्वभिषङ्गः पराभवे । यानाद्यङ्गे युगः पुंसि युगं युग्मे कृतादिषु ॥ ११९७ स्वर्गेषुपशुवाग्व नदिङ्नेत्रघृणिभूजले । लक्ष्यदृष्टया स्त्रियां पुंसि गौलिङ्ग चिह्नशेफसोः ॥ ११९८ शृङ्गं प्राधान्यसान्वोश्च वराङ्गं मूर्धगुह्ययोः । भगं श्रीकाममाहात्म्यवीर्ययत्नार्ककीर्तिषु ॥ ११९९ परिघः परिघातेऽस्त्रेऽप्योघो वृन्देऽम्भसा रये । मूल्ये पूजाविधावर्षोऽहोदुःखव्यसनेष्वघम् ॥ १२०० त्रिविष्टेऽल्पे लघुः काचाः शिक्यमृद्भेददृग्रुजः।विपर्यासे विस्तरे च प्रपञ्चः पावके शुचिः॥१२०१ मास्यमाये चात्युपधे पुंसि मेध्ये सिते त्रिषु । अभिष्वङ्गे स्पृहायां च गभस्तौ च रुचिः स्त्रियाम् ॥ केकिताावहिभुजौ दन्तविप्राण्डजा द्विजाः । अजा विष्णुहरच्छागा गोष्टाध्वनिवहा व्रजाः॥ धर्मराजौ जिनयमौ कुओ दन्तेऽपि न स्त्रियाम् । वलजे क्षेत्रपूारे वलजा वल्गुदर्शना ॥१२०४ समे क्ष्मांशे रणेऽप्याजिः प्रजा स्यात्संततौ जने । अब्जौ शङ्खशशाङ्कौ च स्वके नित्ये निजं त्रिषु॥ पुंस्यात्मनि प्रवीणे च क्षेत्रज्ञो वाच्यलिङ्गकः । संज्ञा स्याचेतना नाम हस्ताद्यैश्वार्थसूचना ॥ १२०६ १ 'कट्फले'. २ कोपातकी च. ३ वाल्हिकमपि. ४ 'भावदर्शी'. ५ एतदग्रे 'भूभृन्नितम्बवलयचक्रेषु कटकोऽस्त्रियाम् । सूच्यग्रे क्षुद्रशक्तौ च रोमहर्षे च कण्टकः ॥ पाको पक्तिशिशू मध्यरत्ने नेतरि नायकः। पर्यङ्कः स्यात्परिकरे स्याद्वयानेऽपि च लुब्धकः ॥ पेटकस्त्रिषु वृन्देऽपि गुरौ देश्ये च देशिकः । खेटको ग्रामफलको धीवरेऽपि च जालिकः ॥ पुष्परेणौ च किंजल्कः शुल्कोऽस्त्री स्त्रीधनेऽपि च । स्यात्कल्लोलेऽप्युत्कलिका वार्धकं भाववृन्दयोः ॥ करिण्यां चापि गणिका दारको बालभेदको । अन्धेऽप्यनेडमूकः स्याट्टको दर्पाश्मदारणौ ।।' इति प्रक्षिप्तम्. ६ एतदने 'प्रसन्ने भल्लुकेऽप्यच्छो गुच्छः स्तबकहारयोः । परिधानाञ्चले कच्छो जलप्रान्ते त्रिलिङ्गकः ॥' इति प्रक्षिप्तग. For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् -३ नानार्थवर्गः । काकेभगण्डौ करटौ गजगण्डकटी कटौ । शिपिविष्टस्तु खलतौ दुश्चर्मणि महेश्वरे ॥ १२०७ देवशिल्पिन्यपि त्वष्टा दिष्टं दैवेऽपि न द्वयोः । रसे कटुः कट्टकार्ये त्रिषु मत्सरतीक्ष्णयोः ॥ १२०८ रिष्टं क्षेमाशुभाभावेष्वरिष्टे तु शुभाशुभे । मायानिश्चलयन्त्रेषु कैवतानृतराशिषु ॥ १२०९ अयोधने शैलशृङ्गे सीराङ्गे कूटमस्त्रियाम् । सूक्ष्मैलायां त्रुटिः स्त्री स्यात्कालेऽल्पे संशयेऽपि सा ॥ आर्युत्कर्षाश्रयः कोठ्यो मूले लग्नकचे जटा । व्युष्टिः फले समृद्धौ च दृष्टिआनेऽक्ष्णि दर्शने ॥ इष्टिर्यागेच्छयोः सृष्टं निश्चिते बहुनि त्रिषु । कष्टे तु कृच्छ्रगहने दक्षामन्दागदेषु च ॥ १२१२ पटुद्रौं वाच्यलिङ्गौ च नीलकण्ठः शिवेऽपि च । पुंसि कोष्ठोऽन्तर्जठरं कुसूलोऽन्तर्गृहं तथा १२१३ निष्ठा निष्पत्तिनाशान्ताः काष्ठोत्कर्षे स्थितौ दिशि त्रिषु ज्येष्ठोऽतिशस्तेऽपि कनिष्ठोऽतियुवाल्पयोः॥ दण्डोऽस्त्री लगुडेऽपि स्यादुडो गोलेक्षुपाकयोः । सर्पमांसात्पशू व्याडौ गोभूवाचस्त्विडा इलाः॥ क्ष्वेडा वंशशलाकापि नाडी नालेऽपि षट्क्षणे । काण्डोऽस्त्री दण्डबाणार्ववर्गावसरवारिषु ॥१२१६ स्याद्भाण्डमश्वाभरणेऽमत्रे मूलवणिग्धने । भृशप्रतिज्ञयोबाढं प्रगाढं भशकृच्छयोः ॥ १२१७ शक्तस्थूलौ त्रिषु दृढौ व्यूढौ विन्यस्तसंहतौ । भ्रूणोऽर्भके स्त्रैणगर्भे बाणो बलिसुते शरे ॥ १२१८ कणोऽतिसूक्ष्मे धान्यांशे संघाते प्रमथे गणः । पणो द्यतादिषूत्सृष्टे भृतौ मूल्ये धनेऽपि च ॥ १२१९ मौव्या द्रव्याश्रिते सत्त्वशौर्यसंध्यादिके गुणः। निर्व्यापारस्थितौ कालविशेषोत्सवयोः क्षणः ।। १२२० वर्णो द्विजादौ शुक्लादौ स्तुतौ वर्ण तु वाक्षरे । अरुणो भास्करेऽपि स्याद्वर्णभेदेऽपि च त्रिषु ।। १२२१ स्थाणुः शर्वेऽप्यथ द्रोणः काकेऽप्याजौ रवे रणः । ग्रामणी पिते पुंसि श्रेष्ठे ग्रामाधिपे त्रिषु ॥ ऊर्णा मेषादिलोम्नि स्यादावर्ते चान्तरा भ्रुवोः । हरिणी स्यान्मृगी हेमप्रतिमा हरिता च या॥१२२३ त्रिषु पाण्डौ च हरिणः स्थूणा स्तम्भेऽपि वेश्मनः। तृष्णे स्पृहापिपासे द्वे जुगुप्साकरुणे घृणे१२२४ वणिक्पथे च विपणिः सुरा प्रत्यक्च वारुणी । करेणुरिभ्यां स्त्री नेभे द्रविणं तु वलं धनम् ॥ १२२५ शरणं गृहरक्षित्रोः श्रीपणं कमलेऽपि च । विषाभिमरलोहेषु तीक्ष्णं क्लीवे खरे त्रिषु ॥ १२२६ प्रमाणं हेतुमर्यादाशास्त्रेयत्ताप्रमातृपु । करणं साधकतमं क्षेत्रगात्रेन्द्रियेष्वपि । १२२७ प्राण्युत्पादे संसरणमसंवाधचमूगतौ । घण्टापथेऽथ वान्तान्ने समुद्धरणमुन्नये ॥ १२२८ अतस्त्रिषु विषाणं स्यात्पशुशृङ्गेभदन्तयोः । प्रवणं क्रमनिम्नोव्यां प्रवे ना तु चतुष्पथे ॥ १२२९ संकीर्णो निचिताशुद्धाविरिणं शुन्यमूषरम् ।' देवसूर्यो विवस्वन्तौ सरस्वन्तौ नदार्णवौ ॥ १२३० पक्षिताक्ष्यौ गरुत्मन्तौ शकुन्तौ भासपक्षिणौ । अग्न्युत्पातौ धूमकेतू जीमूतौ मेघपर्वतौ ॥१२३१ हस्तौ तु पाणिनक्षत्रे मरुतो पवनामरौ । यन्ता हस्तिपके सूते भर्ता धातरि पोष्टरि॥ १२३२ यानपात्रे शिशौ पोतः प्रेतः प्राण्यन्तरे मृते । ग्रहभेदे ध्वजे केतुः पार्थिवे तनये सुतः॥ १२३३ स्थपतिः कारुभेदेऽपि भूभृभूमिधरे नृपे । मूर्धाभिषिक्तो भूपेऽपि ऋतुः स्त्रीकुसुमेऽपि च ॥१२३४ विष्णावप्यजिताव्यक्ती सूतस्त्वष्टरि सारथौ । व्यक्तः प्राज्ञेऽपि दृष्टान्तावुभौ शास्त्रनिदर्शने १२३५ क्षत्ता स्यात्सारथौ द्वाःस्थे क्षत्रियायां च शूद्रजे । वृत्तान्तः स्यात्प्रकरणे प्रकारे काय॑वार्तयोः १२३६ आनतेः समरे नृत्यस्थाननीवृद्विशेषयोः । कृतान्तो यमसिद्धान्तदैवाकुशलकर्मसु ॥ १२३७ श्लेष्मादि रसरक्तादि महाभूतानि तद्गुणाः । इन्द्रियाण्यश्मविकृतिः शब्दयोनिश्च धातवः ॥ १२३८ कक्षान्तरेऽपि शुद्धान्तो नृपस्यासर्वगोचरे । कासूसामर्थ्ययोः शक्तितिः काठिन्यकाययोः१२३९ १ एतदने 'सतौ च वरणो वेणी नदीभेदे कचोच्चये' इति प्रक्षितम्. For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४४ www.kobatirth.org अभिधान संग्रह :-- - १ नामलिङ्गानुशासनम् | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४२ १२४८ १२५० १२५१ विस्तारवल्ल्योर्व्रततिर्वसती रात्रिवेश्मनोः । क्षयार्चयोरपचितिः सातिर्दानावसानयोः || १२४० अर्तिः पीडाधनुष्कोट्योर्जातिः सामान्यजन्मनोः । प्रचारस्यन्दयो रीतिरीतिर्डिम्बप्रवासयोः १२४१ उदयेऽधिगमे प्राप्तिस्त्रेता त्वग्नित्रये युगे । वीणाभेदेऽपि महती भूतिर्भस्मनि संपदि ॥ 1 नदीनगर्योर्नागानां भोगवत्यथ संगरे । सङ्गे सभायां समितिः क्षयवासावपि क्षिती ॥। १२४३ रवेरचिश्च शस्त्रं च वह्निज्वाला च हेतयः । जगती जगति च्छन्दोविशेषेऽपि क्षितावपि ।। १२४४ पङ्किश्छन्दोऽपि दशमं स्यात्प्रभावेऽपि चायतिः । पत्तिर्गतौ च मूले तु पक्षतिः पक्षभेदयोः १२४५ प्रकृतियनिलिङ्गे च कैशिक्यायाश्च वृत्तयः । सिकताः स्युर्वालुकापि वेदे श्रवसि च श्रुतिः १२४६ वनिता जनितात्यर्थानुरागायां च योषिति । गुप्तिः क्षितिव्युदासेऽपि धृतिर्वारणधैर्ययोः ॥। १२४७ बृहती क्षुद्रवार्ताकी छन्दोभेदे महत्यपि । वासिता स्त्रीकरिण्योश्च वार्ता वृत्तौ जनश्रुतौ ॥ वार्तं फल्गुन्यरोगे च त्रिष्वप्सु च घृतामृते । कलधौतं रूप्यहेम्नोर्निमित्तं हेतुलक्ष्मणोः ॥। १२४९ श्रुतं शास्त्रावधृतयोर्युगपर्याप्तयोः कृतम् । अत्याहितं महाभीतिः कर्म जीवानपेक्षि च ॥ युक्ते क्ष्मादावृते भूतं प्राण्यतीते समे त्रिषु । वृत्तं पये चरित्रे त्रिष्वतते दृढनिस्तले ॥ महद्राजं चावगीतं जन्ये स्याद्गर्हिते त्रिषु । श्वेतं रूप्येऽपि रजतं हेम्नि रूपये सिते त्रिषु || १२५२ त्रिष्वतो जगदिङ्गेऽपि रक्तं नीत्यादिरागि च । अवदातः सिते पीते शुद्धे बद्धार्जुनौ सितौ ॥ १२५३ युक्तेऽतिसंस्कृते मर्पिण्यभिनीतोऽथ संस्कृतम् । कृत्रिमे लक्षणोपेतेऽप्यनन्तो ऽनवधावपि १२६४ ख्याते हृष्टे प्रतीतोऽभिजातस्तु कुलजे बुधे । विविक्तौ पूतविजनौ मूर्च्छितौ मूढसोच्छ्रयौ ।। १२५५ द्वौ चाम्लपरुषौ शुक्तौ शिती धवलमेचकौ । सत्ये साधौ विद्यमाने प्रशस्तेऽभ्यर्हिते च सत् १२५६ पुरस्कृतः पूजितेऽरात्यभियुक्तेऽग्रतः कृते । निवातावाश्रयावातौ शस्त्राभेद्यं च वर्म यत् ।। १२५७ जातोन्नद्धप्रवृद्धाः सुरुच्छ्रिता उत्थितास्वमी | वृद्धिमत्प्रोद्यतोत्पन्ना आहतौ सादराचितौ ॥ १२५८ अर्थोऽभिधेयरैवस्तुप्रयोजननिवृत्तिषु । निपानागमयोस्तीर्थ नृषिजुष्टे जले गुरौ || १२५९ समर्थस्त्रिषु शक्तिष्ठे संबद्धार्थे हितेऽपि च । दशमीस्थौ क्षीणरागवृद्धौ वीथी पदव्यपि ।। १२६० आस्थानीयत्नयोरास्था प्रस्थोऽस्त्री सानुमानयोः ।' अभिप्रायवश छन्दावब्दौ जीमूतवत्सरौ १२६१ अपवाद तु निन्दाज्ञे दायादौ सुतबान्धवौ । पादा रश्म्यङ्गितुर्थीशाचन्द्राग्न्यर्कास्तमोनुदः १२६२ निर्वादो जनवादेऽपि शादो जम्बालशष्पयोः । आरात्रे रुदिते त्रातर्याक्रन्दो दारुणे रणे ।। १२६३ स्वात्प्रसादोऽनुगेऽपि सूदः स्याद्व्यञ्जनेऽपि च । गोष्ठाध्यक्षेऽपि गोविन्दो हर्षेऽप्यामोदवन्मदः प्राधान्ये राजलिङ्गे च वृषाङ्गे ककुदोऽस्त्रियाम् । स्त्री संविज्ज्ञानसंभाषाक्रियाकाराजिनामसु ॥ १२६६ धर्मे रहस्युपनिषत्स्यादृतौ वत्सरे शरत् । पदं व्यवसितत्राणस्थानलक्ष्माङ्गिवस्तुषु ॥ १२६६ गोष्पदं सेविते माने प्रतिष्ठाकृत्यमास्पदम् । त्रिष्वष्टमधुरौ स्वादू मृदू चातीक्ष्णकोमलौ ।। १२६७ मूढाल्पापटुनिर्भाग्या मन्दाः स्युर्कौ तु शारदौ । प्रत्यप्राप्रतिभौ विद्वत्सुप्रगल्भौ विशारदौ ।। १२६८ व्यामोव न्यग्रोधात्सेधः काय उन्नतिः । पर्याहारश्च मार्गश्च विवधौ वीवधौ च तौ ।। १२६९ परिधिर्यज्ञियतगेः शाखायामुपसूर्यके । बन्धकं व्यसनं चेतः पीडाधिष्ठानमाधयः || १२७० स्युः समर्थननीवाकनियमाश्च समाधयः । दोषोत्पादेऽनुबन्धः स्यात्प्रकृत्यादिविनश्वरे || १२७१ मुख्यानुयायिनि शिशौ प्रकृतस्यानुवर्तने । विधुर्विष्णौ चन्द्रमसि परिच्छेदे बिलेऽवधिः ॥ १२७२ १ एतदग्रे 'शास्त्रद्रविणयोर्ग्रन्थः संस्थाधारे स्थितौ मृतौ' इति प्रक्षितम् २ अववादौ च. For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् – ३ नानार्थवर्ग: । ४५ १२८३ १२८४ विधिर्विधाने दैवेऽपि प्रणिधिः प्रार्थने चरे । वुधवृद्धौ पण्डितेऽपि स्कन्धः समुदयेऽपि च ।। १२७३ देशे नदविशेषेऽब्धौ सिन्धुर्ना सरिति स्त्रियाम् । विधा विधौ प्रकारे च साधू रम्येऽपि च त्रिषु१२७४ वधूर्जाया स्नुषा स्त्री च सुधा लेपोऽमृतं स्नुही । संधा प्रतिज्ञा मर्यादा श्रद्धा संप्रत्ययः स्पृहा ॥। १२७५ मधु मधे पुष्परसे क्षौद्रेऽप्यन्धं तमस्यपि । अतस्त्रिषु समुन्नद्ध पण्डितंमन्यगर्वितौ ॥ १२७६ ब्रह्मबन्धुरधिक्षेपे निर्देशेऽथावलम्वितः । अविदूरोऽप्यवष्टब्धः प्रसिद्धौ ख्यातभूषितौ ॥ १२७७ सूर्यवह्नी चित्रभानू भानू रश्मिदिवाकरौ । भूतात्मानौ धातृदेही मूर्खनीचौ पृथग्जनौ ॥ १२७८ ग्रावाणी शैलपाषाण पत्रिणौ शरपक्षिणौ । तरुशैलौ शिखरिणौ शिखिनी । १२७९ प्रतियत्नावुभौ लिप्सोपग्रहावथ सादिनौ । द्वौ सारथिहयारोहौ वाजिनोऽश्वेषुपक्षिणः ॥ १२८० कुलेऽप्यभिजनो जन्मभूम्यामप्यथ हायनाः । वर्षाचित्रहिभेदाश्च चन्द्राम्यर्का विरोचनाः ।। १२८१ वृजिनो विश्वकर्मा के सुरशिल्पिनोः । आत्मा यत्नो धृतिर्बुद्धिः स्वभावो ब्रह्म व च ॥ शक्रो वातुकमत्तेभो वर्षाकादो घनाघनः । अभिमानोऽर्थादिदर्पे ज्ञाने प्रणयहिंसयोः || घनो मे मूर्तिगुणे त्रिषु मूर्ते निरन्तरे । इनः सूर्य प्रभौ राजा मृगाङ्के क्षत्रिये नृपे । वाणिन्यौ नर्तकीदूत्यौ स्रवन्त्यामपि वाहिनी । ह्रादिन्यौ वज्रतडितौ वन्दायामपि कामिनी ॥ देहयोगी तनुः सूनाधोजिद्दिकापि च । ऋतुविस्तारयोरस्त्री वितानं त्रिषु तुच्छके ॥ १२८६ मन्देऽथ केतनं कृत्ये केतापनिमन्त्रणे । वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म ब्रह्मा विप्रः प्रजापतिः || १२८७ उत्साहने च हिंसायां सूचने चापि गन्धनम् । आतञ्चनं प्रतीवापजवनाप्यायनार्थकम् ॥ १२८८ व्यञ्जनं लाञ्छनं श्मश्रुनिष्ठानावयवेष्वपि । स्यात्कौलीनं लोकवादे युद्धे पश्चहिपक्षिणाम् ॥ १२८९ स्यादुद्यानं निःसरणे वनभेदे प्रयोजने । अवकाशे स्थितौ स्थानं क्रीडादावपि देवनम् || १२९० उत्थानं पौरुषे तन्त्रे संनिविष्टमेऽपि च । व्युत्थानं प्रतिरोधे च विरोधाचरणेऽपि च ।। १२९१ मारणे मृतसंस्कारे गतौ द्रव्येऽर्थदापने । निर्वर्तनोपकरणानुव्रज्यासु च साधनम् ॥ १२९२ निर्यातनं वैrशुद्ध दाने न्यासार्पणेऽपि च । व्यसनं विपदि भ्रंशे दोषे कामजकोपजे ।। १२९३ पक्ष्माक्षिलोम्नि किंजल्के तन्वायंशेऽप्यणीयसि । तिथिभेदे क्षणे पर्व वर्त्म नेत्रच्छदेऽध्वनि || १२९४ अकार्यगुये कौपीनं मैथुनं संगतौ रते । प्रधानं परमात्मा श्री प्रज्ञानं बुद्धिचिह्नयोः ॥ १२९५ प्रसूनं पुष्पफलयोनिधनं कुलनाशयोः । कन्दने रोदनाद्दाने वर्ष्म देहप्रमाणयोः ॥ ग्रहदेहविट्प्रभावा धामान्यव चतुष्पथे । संनिवेशे च संस्थानं लक्ष्म चिह्नप्रधानयोः ।। १२९७ आच्छादने संपिधानमपवारणमित्युभे । आराधनं साधने स्यादवाप्तौ तोषणेऽपिच ॥ अधिष्ठानं चक्रपुरप्रभावाध्यासनेष्वपि । रत्नं स्वजातिश्रेष्ठेऽपि वने सलिलकानने || तलिनं विरले स्तोके वाच्यलिङ्गं तथोत्तरे । समानाः सत्समैके स्युः पिशुनौ खलसूचकौ ॥। १३०० हीनन्यूनावून गर्यो वेगिशूरौ तरस्विनौ । अभिपन्नोऽपराद्धोऽभिग्रस्तव्यापद्गतावपि || १३०१ कलापो भूषणे बर्हे तूणीरे संहतावपि । परिच्छदे परीवापः पर्युप्तौ सलिलस्थितौ || १३०२ गोग्गोष्ठपती गोपौ हर विष्णू वृषाकपी । बाष्पमूष्माश्रु कशिपु त्वन्नमाच्छादनं द्वयम् ।। १३०३ तल्पं शय्यादारेषु स्तम्बेऽपि विटपोsस्त्रियाम् । प्राप्तरूपस्वरूपाभिरूपा बुधमनोज्ञयोः ॥१३०४ लिङ्ग अमी कुर्मी वीणाभेद कच्छपी ।' स्वर्णे पुंसि रेफः स्यात्कुत्सिते वाच्यलिङ्गकः ।। १३०५ १ एतदग्रे 'कुतपो मृगरोमोत्थपदे चाहो शके' इति प्रक्षिप्तम्. | १२९६ १२९८ १२९९ 1 For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४६ १३१२ अभिधान संग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् | अन्तराभवसस्वेऽश्वे गन्धर्वो दिव्यगायने । कम्बुर्ना वलये शङ्खे द्विजिहौ सर्पसूचकौ ॥ १३०६ पूर्वोऽन्यलिङ्गः प्रागाह पुंबहुत्वेऽपि पूर्वजान् । कुम्भौ घटेभमूर्धाशौ डिम्भौ तु शिशुबालिशौ ॥ स्तम्भ स्थूणाजीभाव शंभू ब्रह्मत्रिलोचनौ । कुक्षिभ्रूणार्भका गर्भा विस्रम्भः प्रणयेऽपिच ॥ स्याद्वेय दुन्दुभिः पुंसिस्यादक्षे दुन्दुभिः स्त्रियाम् । स्यान्महारजने क्लीवं कुसुम्भं करके पुमान् ॥ क्षत्रियेऽपि च नाभिर्ना सुरभिर्गवि च स्त्रियाम् । सभा संसदि सभ्ये च त्रिष्वध्यक्षेऽपि वल्लभः ॥ किरणप्रग्रहौ रश्मी कपिभेकौ लवंगमौ । इच्छामनोभवौ कामौ शौर्योद्योगौ पराक्रमौ ॥ १३११ धर्माः पुण्ययमन्यायस्वभावाचार सोमपाः । उपायपूर्व आरम्भ उपधा चाप्युपक्रमः ॥ वणिक्पथः पुरं वेदो निगमो नागरो वणिक् । नैगमौ द्वौ बले राम्रो नीलचारुसिते त्रिषु ॥१३१३ शब्दादिपूर्वो वृन्देऽपि ग्रामः क्रान्तौ च विक्रमः । स्तोमः स्तोत्रेऽध्वरे वृन्दे जिह्मस्तु कुटिलेल से || उष्णेऽपि धर्मश्चेष्टालंकारे भ्रान्तौ च विभ्रमः । गुल्मा रुस्तम्बसेनाश्च जामिः स्वसृकुलस्त्रियोः ।। क्षितिक्षान्त्योः क्षमा युक्ते क्षमं शक्ते हिते त्रिषु । त्रिषु श्यामौ हरिकृष्णौ श्यामा स्याच्छारिवा निशा ॥ ललामं पुच्छपुण्ड्राश्वभूषाप्राधान्यकेतुषु । सूक्ष्ममध्यात्ममप्याद्ये प्रधाने प्रथमस्त्रिषु ॥ १३१७ antaraant न्यूनकुत्सितौ । जीर्ण च परिभुक्तं च यातयाममिदं द्वयम् ।। १३१८ तुरंगगरुड ताक्ष्य निलयापचय क्षयौ । श्वशुर्यौ देवरश्यालौ भ्रातृव्यौ भ्रातृजद्विषौ ।। १३१९ पर्जन्यौ रसदब्देन्द्रौ स्यादर्यः स्वामिवैश्ययोः । तिष्यः पुष्ये कलियुगे पर्यायोऽवसरे क्रमे || १३२० प्रत्ययोऽधीनशपथज्ञानविश्वास हेतुषु । रन्ध्रे शब्देऽथानुशयो दीर्घद्वेषानुतापयोः ॥ स्थूलोच्चयस्त्वसाकल्ये नागानां मध्यमे गते । समयाः शपथाचारकालसिद्धान्तसंविदः ॥ १३२२ व्यसनान्यशुभं दैवं विपदित्यनयास्त्रयः । अत्ययोऽतिक्रमे कृच्छ्रे दोषे दण्डेऽप्यथापदि ।। १३२३ युद्धाययोः संपरायः पूज्यस्तु श्वशुरेऽपि च । पञ्चादवस्थायि बलं समवायश्च संनयौ | १३२४ संघाते संनिवेशे च संस्त्यायः प्रणयास्त्वमी । विस्रम्भयाच्या प्रेमाणो विरोधेऽपि समुच्छ्रयः ॥ १३२५ विषयो यस्य यो ज्ञातस्तत्र शब्दादिकेष्वपि । निर्यासेऽपि कषायोऽस्त्री सभायां च प्रतिश्रयः ॥ १३२६ प्रायो भूम्यन्तगमने मन्युदैन्ये ऋतौ क्रुधि । रहस्योपस्थयोर्गुह्यं सत्यं शपथतथ्ययोः || १३२७ वीर्य बले प्रभावे च द्रव्यं भव्ये गुणाश्रये । धिष्ण्यं स्थाने गृहे भेऽमौ भाग्यं कर्म शुभाशुभम् ।। १३२८ कशेरुहेम्नोर्गाङ्गेयं विशल्या दन्तिकापि च । वृषाकपायी श्रीगौर्योरभिख्या नामशोभयोः || १३२९ आरम्भो निष्कृतिः शिक्षा पूजनं संप्रधारणम् । उपायः कर्म चेष्टा च चिकित्सा च नव क्रियाः ॥ छाया सूर्यप्रियाकान्तिः प्रतिविम्बमनातपः । कक्ष्या प्रकोष्ठे देः कायां मध्येभबन्धने || १३३१ कृत्या क्रियादेवतयत्रिषु भेद्ये धनादिभिः । जन्यं स्याज्जनवादेऽपि जघन्योऽन्त्येऽधमेऽपि च १३३२ गर्ह्याधीनौ च वक्तव्यौ कल्यौ सज्जनिरामयौ । आत्मवाननपेतोऽर्थादथ्यौं पुण्यं तु चावपि १३३३ रूप्यं प्रशस्त रूपेऽपि वदान्यो वल्गुवागपि । न्याय्येऽपि मध्यं सौम्यं तु सुन्दरे सोमदैवते ||१३३४ निवहावसरौ वारौ संस्तरौ प्रस्तराध्वरौ । गुरू गीर्पतिपित्राद्यौ द्वापरौ युगसंशयौ ॥ १३३५ प्रकारौ भेदसादृश्ये आकाराविङ्गिताकृती । किंशारू सस्यशुकेषु मरू धन्वधराधरौ ।। १३३६ अद्रयो द्रुमशैलार्काः स्त्रीस्तनाब्दौ पयोधरौ । ध्वान्तारिदानवा वृत्रा बलिहस्तांशवः कराः १३३७ प्रदरा भङ्गनारीरुग्बाणा अस्राः कचा अपि । अजातशृङ्गी गौ: कालेऽप्यश्मश्रुनच तूबरौ १३३८ १३२१ १ वामिरन्तस्थादिरपि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् – ३ नानार्थवर्गः । ४७ १३४५ १३४६ १३४७ १३४८ स्वर्णेऽपि राः परिकरः पर्यङ्कपरिवारयोः । मुक्ताशुद्धौ च तारः स्याच्छारो वायौ स तु त्रिषु १३३९ कर्बुरेऽथ प्रतिज्ञाजिसंविदापत्सु संगरः । वेदभेदे गुप्तवादे मत्री मित्रो वावि १३४० मखेषुयूपखण्डेऽपि स्वरुर्गुह्येऽप्यवस्करः । आडम्बर स्तूर्यरवे गजेन्द्राणां च गर्जिते ।। १३४१ अभिहारोऽभियोगे च चौर्ये संनहनेऽपि च । स्याज्जङ्गमे परीवारः खङ्गको परिच्छदे || १३४२ विष्ट विटपी दर्भमुष्टिः पीठाद्यमासनम् । द्वारि द्वाःस्थे प्रतीहारः प्रतीहार्यष्यनन्तरे ॥ १३४३ विपुले नकुले विष्णौ बर्मा पिङ्गले त्रिषु । सारो बले स्थिरांशे च न्याय्ये क्लीवं वरे त्रिषु ॥ १३४४ दुरोदरो द्यूतकारे पणे द्यूते दुरोदरम् | महारण्ये दुर्गपथे कान्तारं पुंनपुंसकम् ॥ मत्सरोऽन्यशुभद्वेषे तद्वत्कृपणयोस्त्रिषु | देवाहृते वरः श्रेष्ठे त्रिषु क्लीयं मनाप्रिये || वंशाङ्कुरे करीरोऽस्त्री तरुभेदे घटे च ना । ना चमूजघने हस्तसूत्रे प्रतिसरोऽस्त्रियाम् || यमानिलेन्द्रचन्द्रार्कविष्णुसिंहांशुवाजिषु । शुकाहिकपिभेकेषु हरिर्ना कपिले त्रिषु ॥ शर्करा कर्परांशेऽपि यात्रा स्याद्यापने गतौ । इरा भूवाक्सुराप्सु स्यात्तन्द्री निद्राप्रमीलयोः।। १३४९ धात्री स्यादुपमातापि क्षितिरप्यामलक्यपि । क्षुद्रा व्यङ्गा नटी वेश्या सरघा कण्टकारिका || १३५० त्रिषु क्रूरेऽथमेऽल्पेऽपि क्षुद्रं मात्रा परिच्छदे । अल्पे च परिमाणे सा मात्रं कात्स्न्यैऽवधारणे १३५१ आलेख्याश्चर्ययोश्चित्रं कलत्रं श्रोणिभार्ययोः | योग्यभाजनयोः पात्रं पत्रं वाहनपक्षयोः ॥ १३५२ निदेशग्रन्थयोः शास्त्रं शस्त्र मायुधलोहयोः । स्याज्जटांशुकयोत्रं क्षेत्रं पत्नीशरीरयोः ॥ १३५३ मुखाग्रे क्रोडहलयोः पोत्रं गोत्रं तु नाम्नि च । सत्रमाच्छादने यज्ञे सदादाने वनेऽपि च ।। १३५४ अजिरं विषये कायेऽप्यम्बरं व्योम्नि वाससि । चक्रं राष्ट्रेऽप्यक्षरं तु मोक्षेऽपि क्षीरमप्सु च १३५५ स्वर्णेऽपि भूरिचन्द्रौ द्वौ द्वारमात्रेऽपि गोपुरम् । गुहादम्भौ गह्वरे द्वे रहोऽन्तिकमुपह्वरे ।। १३५६ पुरोऽधिकमुपग्राण्यगारे नगरे पुरम् । मन्दिरं चाथ राष्ट्रोऽस्त्री विषये स्यादुपद्रवे ।। १३५७ asari भये व वज्रोऽस्त्री हीरके पवौ । तत्रं प्रधाने सिद्धान्ते सूत्रवाये परिच्छदे || १३५८ औशीरचामरे दण्डेऽप्यशीरं शयनासने । पुष्करं करिहस्ताये वाद्यभाण्डमुखे जले || १३५९ व्योम्नि खङ्गफले पद्मे तीर्थौषधिविशेषयोः ॥ १३६० अन्तरमवकाशावधिपरिधानान्तर्धिभेदतादर्थ्ये | छिद्रात्मीयविनावहिरवसरमध्येऽन्तरात्मनि च ॥ १३६१ १३६२ मुस्तेऽपि पिठरं राजकशेरुण्यपि नागरम् । शार्वरं त्वन्धतमसे घातुके भेद्यलिङ्गकम् गौरोऽरुणे सिते पीते व्रणकार्यप्यरुष्करः । जठरः कठिनेऽपि स्यादधस्तादपि चाधरः ।। १३६३ अनाकुलेऽपि चैकाग्रो व्यग्रो व्यासक्त आकुले । उपर्युदीच्य श्रेष्ठेष्वप्युत्तरः स्यादनुत्तरः॥ १३६४ एषां विपर्यये श्रेष्ठे दूरानात्मोत्तमाः पराः | स्वादुप्रियौ तु मधुरौ क्रूरौ कठिननिर्दयौ ॥ उदारो दातृमहतोरितरस्त्वन्यनीचयोः । मन्दस्वच्छन्दयोः स्वैरः शुभ्रमुदीत शुक्लयोः ॥ चूडा किरीटं केशाश्च संयता मौलयस्त्रयः । द्रुमप्रभेदमातङ्गकाण्डपुष्पाणि पीलवः ॥ कृतान्तानेहसोः कालश्चतुर्थेऽपि युगे कलिः । स्यात्कुरङ्गेऽपि कमलः प्रावारेऽपि च कम्बल: १३६८ करोपहारयोः पुंसि बलिः प्राण्यङ्गजे स्त्रियाम् | स्थौल्यसामर्थ्य सैन्येषु बलं ना काकसीरिणोः १३६९ वातूलः पुंसि वात्यायामपि वातास हे त्रिषु । भेद्यलिङ्गः शठे व्यालः पुंसि श्वापदसर्पयोः ।। १३७० १३६५ १३६६ १३६७ १ दरोदरमपि २ वातुलोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४८ अभिधान संग्रहः – १ नामलिङ्गानुशासनम् । 1 मलोऽस्त्री पापविट्किट्टान्यस्त्री शूलं रुगायुधम् । शङ्कावपि द्वयोः कील: पालि: रुययङ्कपङ्गिषु || कला शिल्पे कालभेदेऽप्याली सख्यावली अपि । अब्ध्यम्बुविकृतौ वेला कालमर्यादयोरपि ।। १३७२ बहुलाः कृत्तिका गावो बहुलोऽग्नौ शितौ त्रिषु । लीला विलासक्रिययोरुपला शर्करापि च १३७३ शोणितेऽम्भसि कीलाल मूलमाद्ये शिफाभयोः । जालं समूह आनायगवाक्षक्षारकेष्वपि ॥ १३७४ शीलं खभावे सद्वृत्ते सस्ये हेतुकृते फलम् । छदिर्नेत्ररुजो: क्लीवं समूहे पटलं न ना ।। १३७५ अधःस्वरूपयोरस्त्री तलं स्याच्चामिषे पलम् | और्वानलेऽपि पातालं चैलं वस्त्रेऽधमे त्रिषु ।। १३७६ कुकूलं शङ्कुभिः कीर्णे श्वभ्रे ना तु तुपानले । निर्णीते केवलमिति त्रिलिङ्गं त्वेककृत्स्नयोः ।। १३७७ पर्यातिक्षेमपुण्येषु कुशलं शिक्षिते त्रिषु । प्रवालमङ्कुरेऽप्यस्त्री त्रिषु स्थूलं जडेऽपि च ॥ १३७८ करालो दन्तुरे तुङ्गे चारौ दक्षे च पेशलः । मूर्खेऽर्भकेऽपि बालः सालोलञ्चलसतृष्णयोः १३७९ Facial aaraat जन्महरौ भवौ । मन्त्री सहाय: सचिवौ पतिशाखिनरा धवाः || १३८० अवयः शैलपार्का आज्ञाद्दानाध्वरा हवाः । भावः सत्तास्वभावाभिप्रायचेष्टात्मजन्मसु || १३८ १ फले पुणे प्रसवो गर्भमोचने । अविश्वासेऽपवेऽपि निकृतावपि निह्नवः ॥ १३८२ उत्सेकामयोरिच्छाप्रसरे मह उत्सवः । अनुभावः प्रभावे च सतां च मतिनिधये ॥ स्याज्जन्महेतुः प्रभवः स्थानं चाद्योपलब्धये । शूद्रायां विप्रतनये शस्त्रे पारशवो मतः ।। १३८४ ध्रुवमभेदे क्लीवं तु निश्चिते शाश्वते त्रिषु । स्वो ज्ञातावात्मनि स्वं त्रिष्वात्मीये स्वोऽस्त्रियां धने १३८५ anaras नवी परिपणेऽपि च । शिवा गौरीफेरवयोर्द्वन्द्वं कलहयुग्मयोः ॥ १३८६ द्रव्यासुत्र्यवसायेषु सत्त्वमस्त्री तु जन्तुषु । क्लीबं नपुंसकं पण्ठे वाच्यलिङ्गमविक्रमे || १३८३ १३८७ विश वैश्यमनुजौ द्वौ चराभिमरौ स्पशौ । द्वौ राशी पुञ्जमेषाद्यौ द्वौ वंशौ कुलमस्करौ१३८८ रहःप्रकाशौ वीकाशौ निर्देशो भृतिभोगयोः । कृतान्ते पुंसि कीनाशः क्षुद्रकर्षकयोस्त्रिषु।। १३८९ पदे लक्ष्ये निमित्तऽपदेशः स्यात्कुशमप्सु च । दशावस्थानेकविधाप्याशा तृष्णापि चायता १३९० शास्त्री करिणी च स्यादृग्ज्ञाने ज्ञातरि त्रिषु । स्यात्कर्कशः साहसिकः कठोरामसृणावपि ।। १३९१ प्रकाशोऽतिप्रसिद्धेऽपि शिशावज्ञे च बालिशः । कोशोऽस्त्री कुमले खङ्गपिधानेऽर्थौ दिव्ययोः १३९२ सुग्मत्स्यावनिमिषौ पुरुषावात्ममानवौ । काकमत्स्यात्खगौ ध्वामी कक्षौ तु तृणवीरुधौ ॥ १३९३ rity: re it षः प्रेषणमर्दने । पक्षः सहायेऽप्युष्णीषः शिरोवेष्टकिरीटयोः || १३९४ शुक्रले मूषके श्रेष्ठे सुकृते वृषभे वृष: । द्यूतेऽक्षे शारिफलकेऽप्याकर्षोऽथाक्षमिन्द्रिये ॥ १३९५ ना द्यूताङ्गे कर्षचक्रे व्यवहारे कलिद्रुमे । कर्पूर्वार्ता करीषाग्निः कर्पू: कुल्याभिधायिनी ॥ १३९६ भावे तत्क्रियायां च पौरुषं विषमप्सु च । उपादानेऽप्यामिषं स्यादपराधेऽपि किल्बिषम् १३९७ स्याहृष्टौ लोकधावंशे वत्सरे वर्ष मस्त्रियाम् । प्रेक्षा नृत्येक्षणं प्रज्ञा भिक्षा सेवार्थना भृतिः || १३९८ विद् शोभा त्रिषु परे न्यक्षं कान्यनिकृष्टयोः । प्रत्यक्षेऽधिकृतेऽध्यक्षो रूक्षस्वप्रेम्ण्यचिकणे ॥ विश्वेतच्छद हंस सूर्यी विभावसू । वत्सौ वर्णकवर्षो द्वौ सारङ्गाश्च दिवौकसः || १४०० शृङ्गारादौ विषे वीर्ये गुणे रागे द्रवे रसः । पुंस्युत्तंसावतंसौ द्वौ कर्णपूरे च शेखरे ॥ देवभेदेऽनले रश्मौ वसू रत्ने धने वसु । विष्णौ च वेधाः स्त्री त्वाशीहिताशंसाहिदंष्ट्रयोः १४०२ लालसे प्रार्थनौत्सुक्ये हिंसा चौर्यादिकर्म च । प्रसूरवापि भूद्यावौ रोदस्यो रोदसी च ते १४०३ १४०१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम्-४ अव्ययवर्गः । ज्वालाभासौ न पुंस्यचिोतिर्भद्योतदृष्टिषु । पापापराधयोरागः खगवाल्यादिनोर्वयः॥ १४०४ तेजःपुगेषयोर्व! महस्तूत्सवतेजसोः । रजो गुणे च स्त्रीपुष्पे राहो ध्वान्ते गुणे तमः ॥ १४०५ छन्दः पद्येऽभिलाषे च तपः कृच्छादिकर्म च । सहो बलं सहा मार्गो नभः खं श्रावणो नभाः॥ ओकः सद्माश्रयश्चौकाः पयः क्षीरं पयोऽम्बु च । ओजो दीप्तौ बले स्रोत इन्द्रिये निम्नगारये १४०७ तेजःप्रभावे दीप्तौ च बले शुक्रेऽप्यतस्त्रिषु । विद्वान्विदंश्च बीभत्सो हिंस्रोऽप्यतिशये खमी ॥ १४०८ वृद्धप्रशस्ययोयायान्कनीयांस्तु युवाल्पयोः । वरीयांस्तूरुवरयोः साधीयान्साधुबाढयोः ॥ १४०९ दलेऽपि बह निर्बन्धोपरागार्कादयो ग्रहाः । द्वार्यापीडे क्वाथरसे नि!हो नागदन्तके ॥ १४१० तुलासूत्रेऽश्वादिरश्मौ प्रग्राहःप्रग्रहोऽपि च । पत्नीपरिजनादानमूलशापाः परिग्रहाः॥ १४११ दारेषु च गृहाः श्रोण्यामप्यारोहो वरस्त्रियाः। व्यूहो वृन्देऽप्यहिव॒त्रेऽप्यग्नीन्द्वस्तिमोपहाः१४१२ परिच्छदे नृपार्हेऽर्थे परिबर्होऽव्ययाः परे । आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ सीमार्थे धातुयोगजे ॥ १४१३ आ प्रगृह्यः स्मृतौ वाक्ये ऽप्यास्तु स्यात्कोपपीडयोः । पापकुत्सेपदर्थे कु धिङ् निर्भर्त्सननिन्दयोः ॥ चान्वाचयसमाहारेतरेतरसमुचये । स्वस्त्याशी:क्षेमपुण्यादौ प्रकर्षे लङ्घनेऽप्यति ॥ १४१६ स्वित्प्रश्ने च वितर्के च तु स्याद्भेदेऽवधारणे । सकृत्सहैकवारे चाप्यारादरसमीपयोः ॥ १४१६ प्रतीच्यां चरमे पश्चादुताप्यर्थविकल्पयोः । पुनःसहार्थयोः शश्वत्साक्षात्प्रत्यक्षतुल्ययोः ॥ १४१७ खेदानुकम्पासंतोषविस्मयामन्त्रणे बत । हन्त हर्षेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः ॥ १४१८ प्रति प्रतिनिधौ वीप्सालक्षणादौ प्रयोगतः । इति हेतुप्रकरणप्रकाशादिसमाप्तिषु ॥ १४१९ प्राच्यां पुरस्तात्प्रथमे पुरार्थे ऽग्रत इत्यपि । यावत्तावञ्च साकल्येऽवधौ मानेऽवधारणे ॥ १४२० मङ्गलानन्तरारम्भप्रश्नकात्स्न्येष्वथो अथ । वृथा निरर्थकाविध्यो नाऽनेकोभयार्थयोः ॥ १४२१ नु पृच्छायां विकल्पे च पश्चात्सादृश्ययोरनु । प्रश्नावधारणानुज्ञानुनयामन्त्रणे ननु ॥ १४२२ गर्दासमुच्चयप्रश्नशङ्कासंभावनास्वपि । उपमायां विकल्पे वा सामि वर्धे जुगुप्सिते ॥ १४२३ अमा सह समीपे च कं वारिणि च मूर्धनि । इवेत्थमर्थयोरेवं नूनं तर्केऽर्थनिश्चये ॥ १४२४ तणीमर्थे सुखे जोपं किं पृच्छायां जुगुप्सने । नाम प्राकाश्यसंभाव्य क्रोधोपगमकुत्सने ॥१४२५ अलं भूषणपर्याप्तिशक्ति वारणवाचकम् । हं वितर्के परिप्रश्ने समयान्तिकमध्ययोः ॥ १४२६ पुनरप्रथमे भेदे निर्निश्चयनिषेधयोः । स्यात्प्रवन्धे चिरातीते निकटागामिके पुरा ॥ १४२७ ऊर्यरी चोरी च विस्तारेऽङ्गीकृतौ त्रयम् । स्वर्गे परे च लोके स्वर्वार्तासंभाव्ययोः किल १४२८ निषेधवाक्यालंकारजिज्ञासानुनये खलु । समीपोभयतःशीनसाकल्याभिमुखेऽभितः॥ १४२१. नामप्राकाश्ययोः प्रादुर्मियोऽन्योन्यं रहस्यपि । तिरोऽन्तो तिर्यगर्थे हा विषादशुगतिः ॥ १४३० अहहत्य द्भुते खेदे हि हेताववधारणे ॥ इति नानार्थवर्गः ॥३॥ चिराय निरगत्राय चिरस्याद्याश्चिगर्थकाः । मुहुः पुनःपुनः शश्वदभीक्ष्णमसकृत्समाः ॥ १४३२ स्राग्झटित्यञ्जसाहाय द्राङ् मङ्क्ष सपदि दुते । बलवत्सुष्टु किमुत स्वत्यतीव च निर्भरे ॥ १.४३३ पृथग्विनान्तरेणर्ते हिरुङ नाना च वर्जने । यत्तद्यतस्ततो हेतावसाकल्ये तु चिञ्चन ॥ १४३४ कदाचिज्जातु सार्धं तु साकं सत्रा समं सह । आनुकूल्यार्थक प्राध्वं व्यर्थके तु वृथा मुधा १४३५ For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । आहो उताहो किमुत विकल्प किं किमूत च ! तु हि च स्म ह वै पादपूरणे पूजने स्वति॥१४३६ दिवाहीत्यथ दोषा च नक्तं च रजनाविति । तिर्यगर्थे साचि तिरोऽप्यथ संबोधनार्थकाः ॥ १४३७ स्युः प्याट पाडङ्ग हे है भोः समया निकषा हिरुक् । अतर्किते तु सहसा स्यात्पुरः पुरतोऽग्रतः ॥ स्वाहा देवहविर्दाने औषट् वौषट् वषट् स्वधा । किंचिदीषन्मनागल्ये प्रेत्यामुत्र भवान्तरे ॥१४३९ व वा यथा तथेवैवं साम्येऽहो ही च विस्मये । मौने तु तृष्णी तूष्णीकां सद्यः सपदि तत्क्षणे ॥१४४० दिष्टया समुपजोषं चेत्यानन्देऽथान्तरेऽन्तरा ! अन्तरेण च मध्ये स्युः प्रसह्य तु हठार्थकम् १४४१ युक्ते द्वे सांप्रतं स्थानेऽभीक्ष्णं शश्वदनारते । अभावे नह्य नो नापि मास्म मालं च वारणे १४४२ पक्षान्तरे चेद्यदि च तत्त्वे बद्धाञ्जसा द्वयम् । प्राकाश्ये प्रादुराविः स्यादोमेवं परमं मते ॥ १४४३ समन्ततस्तु परितः सर्वता विष्वगित्यपि । अकामानुमतौ काममसूयोपगमेऽस्तु च ॥ १४४४ ननु च स्याद्विरोधोक्तौ कञ्चित्कामप्रवेदने । निःषमं दुःपमं गये यथास्वं तु यथायथम् ॥ १४४५ मृषा मिथ्या च वितथे यथार्थ तु यथातथम् । स्युरेवं तु पुनर्वे वेत्यवधारणवाचकाः ॥ १४४६ प्रागीतार्थकं नूनमवश्यं निश्चये द्वयम् । संवद्वर्षेऽवरे लागामेवं स्वयमात्मना ॥ १४४७ अल्पे नीचैमहत्युच्चैः प्रायो भूम्यद्रुते शनैः । सना नित्ये बहिर्वाह्ये स्मातीतेऽस्तमदर्शने ॥ १४४८ अस्ति सत्त्वे रुपोक्तावु ऊं प्रश्नेऽननये त्वयि । हूं तक स्याटुषा रात्रेवसाने नमो नतौ ॥ १४४९ पुनरर्थेऽङ्ग निन्दायां दुष्टु सुष्टु प्रशंसने । सायं साये प्रगे प्रातः प्रभाते निकषान्तिके ॥ १४५० परुत्परायैषमोऽब्दे पूर्व पूर्वतरे यति । अद्यात्रायथ पूर्वेऽहीत्यादौ पूर्वोत्तरापरात् ॥ १४५१ तथाधरान्यान्यतरेतरात्पूर्वेयुरादयः । उभयाश्चोभयेाः परे त्वह्नि परेद्यवि ।। १४५२ ह्यो गते नागतेऽह्नि श्वः परश्वस्तु परेऽहनि । तदा तदानों युगपदेकदा सर्वदा सदा ॥ १४५३ एहि संप्रतीदानीमधुना सांप्रतं तथा । दिग्देशकाले पूर्वादौ प्रागुदक्प्रत्यगादयः ॥ १४५४ इत्यव्ययवगः ।। ४ ॥ सलिङ्गशास्त्रैः सन्नादिकृत्तद्धितसमासजैः । अनुक्तैः संग्रहे लिङ्गं संकीर्णवदिहोन्नयेत् ॥ १४५५ लिङ्गशेषविधिप्पी विशेषैर्यद्यवाधितः । स्त्रियामीद्विरामैकाच्सयोनिप्राणिनाम च ॥ १४५६ नाम विगुन्निशावल्लीवीणादिग्भूनदीहियाम् । अदन्तैद्विगुरेकार्थो न स पात्रयुगादिभिः ॥ १४५७ तल्वृन्दे येनिक ट्यत्रा वैर मैथुनिकादिवुन । स्त्रीभावादावनिक्तिण्ण्वुल्णच्ण्वुच्क्यव्युजिअनिशाः ॥ उणादिपु निरूरीश्च ङयाङन्तं चलं स्थिरम् । तत्क्रीडायां प्रहरणं चेन्मौष्टा पाल्लवा ण दिक् १४५९ वो अः सा क्रियास्यां चेदाण्डपाता हि फाल्गुनी । श्यैनंपाता च मृगया तैलंपाता स्वधेति दिक् ॥ स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिविवक्षापचये यदि । लङ्का शेफालिका टीका धातकी पञ्जिकाढकी १४६१ सिध्रका सारिका हिक्का प्राचिकोल्का पिपीलिका । तिन्दुकी कणिका भङ्गिः सुरङ्गासूचिमाढयः १४६२ पिच्छावितण्डाकाकिण्यचणिः शाणी दुणी दरत् । सातिः कन्था तथासन्दी नाभी गजसभापि च ॥ झल्लरी चर्चगे पारी होरा लटा च सिध्मला । लाक्षा लिक्षा च गण्डूषा गृध्रसी चमसी मसी १४६४ पुंस्त्वे सभेदानुचराः सपर्यायाः सुगसुगः । स्वर्गयागाद्रिमेघाधिद्रुकालासिशगग्यः ॥ १४६५ १ काकिनी च. For Private and Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम्-५ लिङ्गादिसंग्रहवर्गः । करगण्डोष्टदोर्दन्तकण्ठकेशनखस्तनाः । अहाहान्ताः क्ष्वेडभेदा रात्रान्ताः प्रागसंख्यकाः ॥१४६६ श्रीवेष्टाद्याश्च निर्यासा असन्नन्ता अबाधिताः। कशेरुजतुवस्तूनि हिला तुरुविरामकाः ॥ १४६७ कषणभमरोपान्ता यद्यदन्ता अमी अथ । पथनयसटोपान्ता गोत्राख्याश्चरणाहयाः ॥ १४६८ नाम्न्यकर्तरि भावे च घञजनङ्गघाथुचः । ल्युः कर्तरीमनिज्भावे को घोः किः प्रादितोऽन्यतः१४६९ द्वन्द्वेऽश्ववडवावश्ववडवा न समाहृते । कान्तः सूर्येन्दुपर्यायपूर्वोऽयःपूर्वकोऽपि च ॥ १४७० वटकश्चानुवाकश्च रल्लकश्च कुडङ्गकः । पुलो न्यूङ्खः समुद्गश्च विट पट्टधटाः खटाः ॥ १४७१ कोट्टारघट्टहट्टाश्च पिण्डगोण्डपिचण्डवत् । गडुः करण्डो लगुडो वरण्डश्च किणो घुणः ॥ १४७२ दृतिसीमन्तहरितो रोमन्थोद्गीथबुद्दाः । कासमोऽव॒दः कुन्दः फेनस्तूपौ सयूपकौ ॥ १४७३ आतपः क्षत्रिये नाभिः कुणपक्षुरकेदराः । पूरक्षुरप्रचुक्राश्च गोलहिङ्गुलपुद्गलाः ॥ १४७४ वेतालभल्लमल्लाश्च पुरोडाशोऽपि पट्टिशः । कुल्माषो रभसश्चैव सकटाहः पतद्ग्रहः ॥ १४७५ द्विहीनेऽन्यच्च ग्वारण्यपर्णश्वभ्रहिमोदकम् । शीतोष्णमांसरुधिरमुखाक्षिद्रविणं बलम् ॥ १४७६ फलहेमशुल्बलोहसुग्वदुःख शुभाशुभम् । जलपुष्पाणि लवणं व्यञ्जनान्यनुलेपनम् ॥ १४७७ कोट्याः शतादिसंख्यान्या वा लक्षा नियुतं च तत् । ट्यच्कमसिसुसन्नन्तं यदनान्तमकर्तरि १४७८ त्रान्तं सलोपधं शिष्टं रात्रं प्राक्संख्ययान्वितम् । पात्राद्यदन्तैरेकार्थो द्विगुर्लक्ष्यानुसारतः ॥१४७९ द्वन्द्वैकवाव्ययीभावौ पथः संख्याव्ययात्परः। षष्टयाश्छाया बहूनां चेद्विच्छायं संहतौ सभा ॥१४८० शालार्थापि परा राजामनुष्यार्थादगजकात् । दासीसभं नृपसभं रक्षःसभमिमा दिशः ।। १४८? उपज्ञोपक्रमान्तश्च तदादित्वप्रकाशने । कोपज्ञकोपक्रमादि कन्धोशीनरनामसु ॥ १४८२ भावे नणकचिद्भयोऽन्ये समूहे भावकर्मणोः । अदन्तप्रत्ययाः पुण्यसुदिनाभ्यां वहः परः ॥ १४८३ क्रियाव्ययानां भेदकान्येकलेऽप्युक्थतोटके । चोचं पिच्छं गृहस्थूणं तिरीटं मर्म योजनम् ॥ १४८४ राजसूयं वाजपेयं गद्यपद्ये कृतौ कवेः । माणिक्यभाष्यसिन्दूरचीरचीवरपिञ्जरम् ॥ १४८५ लोकायतं हरितालं विदलस्थालबाल्हिकम् । पुनपुंसकयोः शेषोऽर्धर्चपिण्याककण्टकाः ॥ १४८६ मोदकस्तण्डकष्टकः शाटकः कर्पटोऽर्बुदः । पातकोद्योगचरकतमालामलका नडः ॥ १४८७ कुष्टं मुण्डं शीधु युस्तं क्ष्वेडितं क्षेमकुट्टिमम् । संगमं शतमानार्मशम्बलाव्ययताण्डवम् ॥ १४८८ कवियं केन्दकार्पासं पागवारं युगंधरम् । यूपं प्रग्रीवपात्रीवे यूपं चमसचिक्कसौ ॥ १४८९. अर्धर्चादौ वृतादीनां पुंस्त्वाचं वैदिकं ध्रुवम् । तन्नोक्तमिह लोके ऽपि तच्चेदस्त्यस्तु शेषवत् ।। १४९० स्त्रीपुंसयोरपत्यान्ता द्विचतुःषट्पदोग्गाः । जातिभेदाः पुमाख्याश्च स्त्रीयोगैः सह मल्लकः ॥ १४९१ ऊर्मिर्वराटकः खातिर्वर्णको झाटलिर्मनुः । मूषा सृपाटी कर्कन्धूर्यष्टिः शाटी कटी कुटी ॥ १४९२ स्त्रीनपुंसकयोर्भावक्रिययोः व्यक्वचिञ्च वुञ् । औचित्यमौचिती मैत्री मैत्र्यं वुमागुदाहृतः ॥ १४९३ षष्टयन्तप्राक्पदाः सेनाछायाशालासुरानिशाः । स्याद्वा नृसेनं श्वनिशं गोशालमितरे च दिक् १४९४ आवन्नन्तोत्तरपदो द्विगुश्वासि नश्च लुप् । त्रिखटं च त्रिखट्टी च त्रितक्षं च त्रितक्ष्यपि ॥ १४९५ त्रिषु पात्री पुटी वाटी पेटी कुवलदाडिमौ । परं लिङ्गं स्वप्रधाने द्वन्द्वे तत्पुरुषेऽपि तत् ।। १४९६ अर्थान्ताः प्राद्यलंप्राप्तापन्नपूर्वाः परोपगाः । तद्धितार्थो द्विगुः संख्यासर्वनामतदन्तकाः ॥ १४९७ १ दन्त्यादिरापे. २ 'कर्म' इति क्वचित्पाठः-इति मुकुटः. For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१ नामलिङ्गानुशासनम् । बहुव्रीहिरदिङ्नाम्नामुन्नेयं तदुदाहृतम् । गुणद्रव्यक्रियायोगोपाधिभिः परगामिनः ॥ १४९८ कृतः कर्तर्यसंज्ञायां कृत्याः कर्तरि कर्मणि । अणाद्यन्तास्तेन रक्ताद्यर्थे नानार्थभेदकाः ॥ १४९९ षट्संज्ञकास्त्रिषु समा युष्मदस्मत्तिङव्ययम् । परं विरोधे शेषं तु ज्ञेयं शिष्टप्रयोगतः ॥ १५०० इति लिङ्गादिसंग्रहवर्ग: ।।५।। इत्यमरसिंहकृतौ नामलिङ्गानुशासने । सामान्यकाण्डस्तृतीयः साङ्ग एव समर्थितः ॥ १५०१ For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org THE ABHIDHANA-SANGRAHA OR A COLLECTION OF SANSKRIT ANCIENT LEXICONS Nos. 2, 3, 4, 5. THE TRIKANDAS'ESHA, THE TIARA VALE, THE EKAKSHARAKOSHA. AND THE DVIRÛPAKOSHA OF PURUSHOTTAMADEVA. EDITED BY PANDIT DURGA PRASÂD. KASÎNATH PÂNDURANG PARAB AND PANDIT SIVADATTA. PRINTED AND PUBLISHED BY THE PROPRIETOR OF THE NIRNAYA-SAGARA PRESS. BOMBAY, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1889. Price 9 Annas. For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ अभिधानसंग्रहः नाम संस्कृतप्राचीनकोशग्रन्थसमुच्चयः। तत्र (२, ३, ४, ५) पुरुषोत्तमदेवकृताः त्रिकाण्डशेष-हारावली-एकाक्षरकोश द्विरूपकोशाः। काव्यमालामंपादक-पण्डितदुर्गाप्रसाद-काशीनाथाभ्याम्, जयपुरराजकीयसंस्कृतपाठशालाध्यापकदाधीचपण्डितबारनाथात्मजपण्डिशिवदत्तेन च संशोधिताः। शाके १८११ वत्सरे मुम्बय्या निर्णयसागराख्ययत्रालये तदधिपतिना मुद्राक्षरैरङ्कयित्वा प्राकाश्यं नीताः । मूल्यं ९ आणकाः । For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिकाण्डशेषस्य विषयानुक्रमः । विषयाः। पास्ताविक श्लोकाः १ स्वर्गवर्ग: ... २ व्योमवर्ग: ... ... ३ दिग्वर्ग: ... ... १ कालवर्ग: ... , धीवर्ग: प्रथमं काण्डम् । श्लोकाः। विषयाः । श्लोकाः । १- ३६ शब्दादिवर्गः ... ... ...१२१-१२४ ... ४-८३ ७ नाट्यवर्ग: ... ... ... ...१२५-१४१ ... ८४ ८ पातालभोगिवर्गः ... ... ...१४२-१४९ ... ८५--१०६ ९ नरकवर्गः ... ... ... ...१५० ...१०७-११९ १० वारिवर्गः ... ... ... ...१५१-१८० ...१२० द्वितीयं काण्डम् । , भूमिवर्गः ... ... ... ...१८१-२०४ ६ मनुष्यवर्गः ... ... ... ...३००-३४३ : पुरवर्गः ... ... ... ...२०५-२११ ७ ब्रह्मवर्ग: ... ...३४४-३७५ ३ दौलवर्गः ... ... .... ...२१२--२१८ ८ क्षत्रियवर्गः... ... ... ...३७६-४३८ ४ वनौषधिवर्ग: ... ... ...२१९-२६१ ९ वैश्यवगः ... ... ... ...४३९-४७५ , सिंहादिवर्ग: ... ... ...२६२--२९९ १० शूद्रवर्गः ... ... ... ...४७६ ४९४ , विशेनिनवग: ... ... २ सकीणवर्ग: ... ... : नानार्थवर्गः तृतीयं काण्डम् । ४९५-५२२ । ४ अव्ययवर्गः ... ... १०२१-१०२६ ५२३-५५२ । ५ लिङ्गादिसंग्रहवर्गः ... ... १०२७-१०५२ ५५३-१०२० काण्डसमाप्ति श्लोकः ... १०५३ हारावल्या विषयानुक्रमः । विषयाः। श्लोकाः। विषयाः। श्लोकाः। प्रास्ताविक श्लोकाः ... ... ... १- ७ ४ नानार्थेऽर्ध श्लोकावधि: ... ...२२७-२५४ , श्लोकावधिः... ... ... ... ८-२६ । ५ नानार्थे पादावधिः ... ... ...२५५-२७२ २ अर्ध श्लोकावधिः ... ... ... २७-१२२ समाप्ति श्लोकाः ... ... ...२७३-२८. ३ पादावधिः ... ... ... ...१२३-२२६/ - - For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुषोत्तमदेवः। अमरकोषपरिशिष्टरूपस्य त्रिकाण्डशेषस्य कर्ता पुरुषोत्तमदेवो वङ्गदेशीयो हलायुधवंशोत्पन्नः रिवस्ताब्दीयत्रयोदशशतकोत्तरार्धान्न प्राचीन इति नानार्थसंग्रहोपोदाते (१४ पृष्ठे) श्रीआनन्दरामो वक्ति । मराठीभाषानिबद्ध कविचरित्राख्यग्रन्थे तु 'पुरुषोत्तमः कलिङ्गदेशमहीपतिः शालिवाहनशकाब्दचतुर्दशशतक आसीत् । कटकाभिधानं नगरं च तद्राजधानी बभूव । स च ओरिसाक्षत्रिय आसीत् । तेनैव त्रिकाण्डशेपः, हारावली, एकाक्षरकोषः, इति ग्रन्थत्रयं स्वदेशीयपाठशालोपयुक्तं प्रणीतम्' इत्याद्युक्तमस्ति । सकारभेदो जकारभेदश्चेति कोषद्वयमन्यदपि पुरुषोत्तमेन प्रणीतमस्तीति श्रीराजेन्द्रलालमित्रप्रणीतसूचीपत्रतः प्रतीयते । हारावलीसमाप्तौ श्रीधृतिसिंहजनमेजययोः समं निरूप्य धृतिसिंहवचनाधारेण हारावली प्रणीतेति पुरुषोत्तमो वदति । तत्र कोऽयं धृतिसिंहो जनमेजयश्चेति न निश्चयः । राजेन्द्रलालमित्रस्तु 'नोटिसिस् ऑव् संस्कृत म्यान्युस्क्रिप्टस्' नाम्नि सूचीपत्रे दशमे एकादशे वा विस्ताब्दशतके पुरुषोत्तमसत्तां वदति । अस्माभिस्तु पुरुषोत्तमविषये किमपि न ज्ञायते । (१) त्रिकाण्डशेषः, (२) हारावली, (३) वर्णदेशना, इति ग्रन्थत्रयं पुरुषोत्तमदेवप्रणीतमुपलभ्यते । एकाक्षरकोप-द्विरूपकोषौ च पुरुषोत्तमदेवकृताविति संदिग्धम् । यतः क्वचिदेव तत्पुस्तके पुरुषोत्तमदेवनामोपलभ्यते । विष्णुभक्तिकल्पलताभिधं काव्यमपि पुरुषोत्तमप्रणीतमस्ति । सोऽप्ययमेव त्रिकाण्डशेपादिकर्ता पुरुषोत्तम इति भाति । तत्रास्माभिर्मुद्रणं येषां पुस्तकानामाधारेण कृतं तन्नामानि--- त्रिकाण्डशेषपुस्तकानि-.... क-जयपुरराजगुरुभट्टलक्ष्मीदत्तसूनुभश्रीदत्तानां पुस्तकम्, १६९० मिते विक्रमसंवत्सरे काश्यां लिखितम् । ख-जयपुरराजवैद्यश्रीकृष्णशर्मणाम् । ग-जयपुरनिवामिदिगम्बरजैनपण्डितफतेलालानाम् ।। घ-१७८८ मितेऽब्दे मुम्बय्यां चन्द्रप्रकाशयत्रालये मुद्रितम् । हारावलीपुस्तकानि क-जयपुरमहाराजाश्रितमैथिलाभिजनधर्मशास्त्रिनैयायिकश्रीरघुवरशर्मणाम् । ख-~-मुम्बय्यां मुद्रितम् । ग-काश्यां मुद्रितम् । एकाक्षरकोषपुस्तकानि क-पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टश्रीरघुवरशर्मणाम् । ख-मुम्बय्यां मुद्रितम् । ग---कलिकत्तानगरे हृषीकेशभट्टाचार्येण मुद्रितम् । द्विरूपकोषपुस्तकानि--- क-कलिकत्तामुद्रितम् । ख-काश्यां मुद्रितम् । एतत्पुस्तकाधारणास्मन्मुद्रणं संपन्नमिति शिवम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ Feem अभिधानसंग्रहः। (२) श्रीपुरुषोत्तमदेवप्रणीतः त्रिकाण्डशेषः। प्रथम काण्डम् । जयन्ति सन्तः कुशलं प्रजानां नमो मुनीन्द्राय सुराः स्मृताः स्थः । स्तुतासि वाग्देवि दयस्व मातर्विधेहि विनाधिप मङ्गलानि ॥ अलौकिकखादमरः स्वकोषे न यानि नामानि समुल्लिलेख । विलोक्य तैरप्यधुना प्रचारमयं प्रयत्नः पुरुषोत्तमस्य । वर्गक्रमस्तथा नामलिङ्गयोस्तूपदेशता । परिभाषादिकं सर्वमत्राप्यमरकोषवत् ॥ स्वर्लोको देवलोकः स्यादवरोहः फलोदयः । मन्दरः सैरिकः शक्रभवनं खं दिवं नभः ॥ स्वाहाभुजस्तु वसुलाः पूजिताश्च चिरायुषः । शौभा निलिम्पा झुपदः खर्गिणश्च नभःसदः॥ ५ ऋनामा खदितिर्देवमाता स्यादथ पूर्वजाः । पितरश्चन्द्रगोलस्था न्यस्त शस्त्राः खधाभुजः ॥ कव्यवालादयस्ते च दैत्यास्तु प्रघसाः क्षवाः । ऋतुहिषश्चेष्टिमुषो दैत्यमाता दितिर्दनुः ॥ ७ वुद्धाः कनिष्ठगमहामुनिधर्मवक्ररागारयस्त्रिशरणाः खशमो दशार्हः ।। तापी गुणाकरमहासुखचक्रिणश्च मैत्रीवली समजितारिसमन्तभद्राः ॥ महाबोधिर्धर्मधातुः श्वेतकेतजिनः खजित् । त्रिमूर्तिर्दशभूमीशः पञ्चज्ञानो बहुक्षमः ॥ ९ संबुद्धः करुणाकर्चः सर्वदर्शी महाबलः । विश्ववोधो धर्मकायः संगतोऽर्हन्सुनिश्चितः ॥ १० व्योमाभो द्वादशाक्षश्च वीतरागः सुभाषितः । सर्वार्थसिद्धस्तु महाश्रमणः कलिशासनः ॥ ११ गोपेशश्चाथास्य याशोधरेयो वाहुलः सुतः । देवदत्तोऽनुजोऽथ स्युः श्रावकाः शिष्यसंजिनः ॥ १२ प्रत्येकबुद्धाः खगाः स्युः सुदान्ताश्चैकचारिणः । स्वयंभुवोऽथ मारीची त्रिमुखा वज्रकालिका ॥ १३ विकटा वैक्रवाराही गौरी पोत्रिरथा च सा । लोकनाथस्तु लोकेशः सरोजी गुणसागरः ॥ १४ १ ख-ग-पुस्तकयोः प्रारम्भे 'यो निर्गुणो गुणमयं वितनोति विश्वं तापत्रयं हरति यस्तपनोऽप्यजखम् । कालात्मको जगति जीवयते च जन्तन्ब्रह्माण्डसंपुटमणि धुमणि तमीडे ॥' इत्ययमधिक लोक उपलभ्यते. २ 'योः मुपदेशता' क-ख-ग. ३ 'प्यमरसिंहवत्' क. ४ 'सैरिभः ख-ग-घ. ५ 'सुबलाः' केशवे, 'मुबालाः' देमे. ६ 'क्षराः' ख-ग, वराः'घ, ७ हैम-कैशवयोस्तु 'गहुल:'. ८ हैमे 'देवदना प्रजा यस्य स देवदत्ताप्रजः' इति व्याख्यातत्वात् 'देवदत्तानजा' इति पाठः प्रतिभाति. ९ 'वज्रवाराही घ-ख. 'वक्रवाराही' ग. For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । लोकेश्वरः कृपाद्वैतः सुधावर्षी हलाहलः । सुखावतीश्वरः कन्यारामोऽसिताभशेखरः ॥ १५ चिन्तामणिः पद्मपाणिवहुरूपः खसर्पणः । अवीचिदर्शी कारण्डव्यूहः पोतलकप्रियः ॥ १६ जटाधरो महावीर्यो वैक्रसूर्योऽवलोकितः । तारा महाश्रीरोंकारा स्वाहा श्रीश्च मनोरमा ॥ १७ तारिणी च जयानन्ता शिवा लोकेश्वरात्मजा । खदूरवासिनी भद्रा वेश्याली च सरस्वती ॥ १८ शङ्खिनी च महातारा वसुधारा धनन्ददा । त्रिलोचना लोचना स्यान्मणिभद्रस्तु जम्भलः ॥ १९ पूर्वयक्षो जलेन्द्रोऽथ मञ्जुश्रीनिदर्पणः । मञ्जवक्रो मञ्जुघोषः कुमारोऽष्टारचक्रवान् ॥ २० स्थिरचक्रो वज्रधरः प्रज्ञाकायश्च वादिराट् । नीलोत्पली महाराजनील: शार्दूलवाहनः ॥ २१ धियांपतिः पूर्वजिनः खड्गी दण्डी विभूषणः । वालव्रतः पञ्चवीरः सिंहकेलिः शिखाधरः ॥ २२ वागीश्वरोऽथ हेवको हेरुकश्चक्रसंवरः । देवो वज्रकपाली च निशुम्भी शशिशेखरः ॥ २३ वैज्रटीकोऽथ मैत्रेयो युवगजोऽजितश्च सः । चीवरी श्रमणो भिक्षुवन्द्यश्चैत्रोऽथ चेलुकः ॥ २४ श्रामणेरः प्रवजितो महोपासकगोमिकौ । प्रज्ञापारमिता बुद्धमाता तच्छास्त्रनाम च ॥ अथ हंसरथो ब्रह्मा विरिञ्चोऽष्टश्रवाः सनत् । सञ्जः प्राणश्च वेदीशवेदगर्भी पुराणगीः ॥ २६ धरूँजो विश्वरेताश्च कमलः प्रपितामहः । नाभिजन्मा शतधृतिर्ब्राह्मी तु ब्रह्मकन्यका ॥ २७ वाग्देवी शारदा शुक्ला महाश्वेता सरस्वती ॥ अथ हरिशशबिन्दुश्रीकरश्रीवराहाजितपरपुरुषश्रीगर्भषबिन्द्वनन्ताः । नरकजिहतधामा केशटो जन्मकीलः ऋतुपुरुषनृसिंहक्थजस्चदेवाः ॥ कोकः पुराणपुरुषो नलिनेशयश्च वासुनरायणपुनर्वसुविश्वरूपाः । अ: श्रीनिवासधरणीधरवामनैकशृङ्गाश्च वृष्णिषशत्रुदशावताराः ॥ सोमगर्भादिदेवादिवराहस्वर्णविन्दवः । गदाग्रजो मुञ्जकेशी सदायोगी सनातनः ॥ रन्तिदेवशिवकीर्तनौ त्रिपात्सोमसिन्धुरपि राहुमूर्धभित् । कालनेमियवनारिपाण्डवाभीलसिन्धुवृषकृष्णकेशिनः ।। हेमशङ्कुशतावर्तासन्दसात्वतवारिशाः । वर्धमानः शतानन्दो जगन्नाथः सुयामुनः ॥ पूतनाधेनुकारिष्टकेशिवाणूरतूंदनः । भूकश्यपस्वस्य पिता दुन्दुः क्षित्यदितिः प्रसूः ॥ स्यन्दनस्तु शतानन्दः सारपिश्चास्य दारुकः । तुरंगाः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः ॥ ध्वजो भुजंगहा मत्री पवनव्याधिरुद्भवः । शैनेयस्तु शिनेनप्ता युयुधानश्च सात्यकिः ॥ बलभद्रस्तु हालः स्यात्सौनन्दी हलतालभृत । संवर्तकी गुप्तचरो रुक्मिदापैककुण्डलः ।। मधुप्रियोऽथ प्रद्युमो जराभीरुः शमान्तकः । प्रसूनाशनिपञ्चेषू कंजनो मधुसारथिः ॥ रागरञ्जः कलाकेलिमधुदीपरवीपवः ।। १ 'हलायुधः' क. २ 'मुग्यी रतीश्वरः ख-ग. ३ 'कन्याशमो' ख-ग. ४ 'वज्रसूर्यः' घ, 'वक्रसूर्यावलोकितः' ख-ग. ५ 'वैश्या नीलसरस्वती' घ. ६ 'मञ्जचक्री' ख-ग. 'म अभद्रः' घ. ७ 'महाराजो नीलः' घ. ८ 'हेरम्बः' घ. ९ 'वत्री कीटो' क. १० मेलिको' ख-ग, 'गोमिनौ' व. ११ इदं नानार्थवर्गीचितमपि क-ख-ग-पस्तकानरोधेनोपन्यस्तम. १२ 'वेदगर्भपराणगाः' क-ख-घ, 'वेदगर्भपुराणजाः' ग. १३ 'अब्जजो' घ. १४ वृपशक क ख ग', १५ अरिपद यान-कालनेमिपदायाभन्वेति. १६ सूदनपदं पूतनादिभिश्चतुभिरन्वति. For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ १ काण्डम्----१ स्वर्गवर्गः । इ: कन्तुर्मकराङ्कः संकल्पभवोऽङ्गजश्च रूपास्त्रः । रणरणको रतिरमणः संसारगुरुमनोजन्मा ॥ कार्मिणश्चास्य प्रिया रागलता केलिकला रतिः । से: केलती चास्य वाणा मदनो मोहनस्तथा ॥ ४१ संतापनः शोषणश्च निश्चेष्टीकरणोऽपि च । सुतोऽनिरुद्धः स्यादृश्यकेतुः प्रीतितृषौ सुते ॥ ४२ श्री च लक्ष्मी चला सा मा रमा जलधिजेन्दिरा । मणिः स्यमन्तको हस्ते विष्णोरुरसि कौस्तुभः ४३ ताWः शिलौकाः कामायुररुणावरजश्चिरात् । पक्षिसिंह उलूतीशो वज्रतुण्डः सुधाहरः॥ ४४ स्वर्णपक्षः सुमुखसूः शाल्मली भुजगाशनः ।। शंभुर्भगाली कपिशाञ्जनश्च हीरः कटपूर्भरुरेरिहाणौ । पुरारिपचाननभैरवाट्टहासप्रहासाश्च खकुन्तलश्च ॥ कण्ठेकालजयन्तगुंह्यगुरवो जोटिङ्गगोपालको __पिङ्गाक्षः कटमर्दरैवतकटाटङ्काव्ययाः कूटकृत् । चन्द्रापीडमहानटौ च शमिरो हः शैलधन्वा जटा टीनोऽथर्वणनन्दिवर्धनगुडाकेशोग्रकालंजराः ॥ मिहिराणो जगद्योनिः कङ्कटीकोऽब्दवाहनः । कृतंकरो वरो बुद्धः सुप्रतापोऽकुंतश्चलः ॥ ४८ उ: स्थाणुः शिपिविष्टश्च मः कीलो धर्मवाहनः । विरूपविषमत्र्यक्षैः संध्यानाटी वृषाचनः ॥ ४९ एकपाद्भौतिको भद्रोर्ध्वरेतःपांसुचन्दनाः । अस्थिमाली शिवश्चास्य खटाङ्गं तु सुखंखणः॥ ५० अजीवकोऽजकावश्च वृषो भङ्गी रिटिस्वसौ । भृङ्गिरीटः शलो भृङ्गी नाडीदेहोऽस्थिविग्रहः ॥ ५१ महाकालो महाभीमो महाकायो वृषाणकः । द्वाःस्थस्तु नन्दी शालङ्कायनस्ताण्डवतालिकः॥ ५२ स्यान्नन्दिकेश्वरोऽथार्या हिण्डी शिखरवासिनी । शक्तिः सिंहरथा गोला सिनीवाली दृषद्वती॥५३ सौः कृष्णपिङ्गला लम्बा शैलेयी गणनायिका । वारालिकैकानंशा च शिवदूती यमस्वसा ॥ ५४ कोटवी बाभ्रवी कैटभी कैटभा यादवी कर्वरी चेश्वरी चेश्वरा ।। __ भ्रामरी दक्षकन्या च वर्हिध्वजा नन्दपुत्री च मारीचकालंजरी ॥ गौतमी तामसी षष्ठी जयन्ती शूलधक्सती । सिंहस्वस्या मनस्ताल: सख्यौ च विजयाजये ॥ ५६ वन्त्रशुण्डः करिमुखः पृश्निशृङ्गो गणाग्रणीः । त्रिधातुरेकदंष्टश्च द्विदेहो मूषिकाचनः ॥ ५७ विघ्नहारी कुमारस्तु स्वामी द्वादशलोचनः । बालचर्यः सिद्धसेनः कृकवाकुध्वजश्च सः ॥ मार्जारकर्णी चामुण्डा कर्णमोटी च चर्चिका ॥ देवराजस्तुलः कौशिकोऽसन्महा बाहुदन्तेयदल्मी वराणोऽद्रिभित् । वज्रपाणिमहेन्द्रः सुरग्रामणीर्यामनेमिर्वृषा नाकनाथो हरिः ॥ प्राचीनबर्हिः खदिरः कपिलाश्वो वरक्रतुः । प्राचीपतिस्तपस्तङ्कः पुलोमारिश्च माहिरः ॥ ६१ पृतनापाट् प्रिया बस्य चौरुधारा शतावरी। शचिः सुता देवसेना मातलिस्तु हयंकषः॥ ६२ १ 'केलिकिला' क-ख-ग, 'कलिकलावती' व. २ 'गुह्य-गुरु' इति व्यस्तं समस्तं च. ३ 'झोटिङ्ग' ख-ग. ४ 'शशिधरो' क-ख-ग. ५ 'कृष्करो वरवृद्धश्च' घ. ६ 'वरबुद्धः' क-ख-ग. ७ 'ऽद्भुतश्वनः' घ. ८ विरूपाक्षविषमाक्षत्यक्षाः. ९ 'सुखं घुणः' घ, 'सुष्ठ खं सुनोति सुखंसुणः' इति हैमः, १० 'तपस्तभा' ख-ग. ११'चाकरावा.' १२ 'शची' ग-य. For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः---२ त्रिकाण्डशेषः । उच्चैःश्रवाः श्वेतहयो वृषणश्वोऽमरावती । वृषभासा सुरपुरी वनमैन्द्रं वृषण्वसु ॥ नन्दनं कन्दसारं स्यान्मिश्रकावणमित्यपि । हस्तिमल्लश्चतुर्दन्तो भद्ररेणुर्मदाम्बरः ॥ श्वेतद्विपः सुदामाथ वज्रोऽस्त्री गिरिकण्टकः । वन्नाशनिर्भिदुर्भिद्रो जैम्भावी त्रिदशायुधम् ॥ ६५ शतधारं शतारं चाभ्रोत्थं भिदिरमम्बुजम् । विद्याधरः कामरूपी खेचरः स्थिरयौवनः ॥ ६६ स्पर्शानन्दारतिमदाप्सरसः सुदमात्मजाः । दैवोद्यानानि वैभ्राज मिश्रकं सिध्रकावणम् ॥ ६७ चैत्ररथं च नासिक्यौ युजौ दस्रौ गदागदौ ॥ शुष्मघासिघसवोऽञ्चतिर्जुहूराण ईषिरंतुषग्रहाशिराः । छागवाहनपृदाकुबर्हिषः स्वर्णसप्तधूतमत्रदीधितिः ॥ पर्परीकहवनानिपीथाः सप्तजिह्वसमिधावसितार्चिः । नाचिकेतभुजिभारथविश्वप्साः शुचिः पेचिसमन्तभुजौ च ॥ वडवाग्नौ तु सलिलेन्धनः स्याद्वडवामुखः । कीकध्वजो वाणिजश्च स्कन्धाग्निः स्थूलकाष्टधक् ॥७१ छांगणस्तु करीपाग्निस्तृणाग्निः स्यात्तरत्समः । तुषानलः कुकूलः स्यान्मुसुरोधाग्निकुकुटे ॥ ७२ शुष्कलो दहनोल्का स्यादङ्गारे कोकिलाज्झलौ । धूमोऽम्भसूर्मरुद्वाहखतमालशिखिध्वजाः ॥ ७३ अग्निवाहः स्तरी स्वाहा त्वग्नायी दहनप्रिया । जीवितेशो यमः शीर्णपादश्च महिषध्वजः ॥ ७४ मन्दोऽस्य कान्ता धूमोर्णा चित्रगुप्तस्तु लेखकः । भृत्यौ चण्डमहाचण्डौ कालीची तु विचारभूः ७५ पञ्जिका त्वग्रसंधानी नृचक्षास्तु खसात्मजः । कीलालपाः पलाशी च क्षपाटो नरविष्वणः ॥ ७६ संध्यावलो रात्रिमटो हनुषः शमनीषदः । पलाशो विखुरः शङ्कः कापिशेयस्तु पिङ्गकः ॥ ७७ पिशाचो मेघनादस्तु वरुणो वः परंजयः । दैत्यदेवस्तु वातिश्च नभः प्राणो जगदलः ॥ ७८ भोगिकान्त: कम्पलक्ष्मा यश्च धारावलिश्च वाः । खश्वासः क्षिपणुधूलिध्वजः शरयुरङ्कतिः ॥ ७९ वातलो वातगुल्मः स्याञ्चरवायुनिदाघजः । झञ्झानिलः प्रावृषिजो वासन्तो मलयानिलः ॥ ८० आःसङ्गिनी च वाताली स्याद्वात्या वातमण्डली ॥ श्रीदधनकेलिमयुराश्वेतोदररत्नगर्भनिधिनायाः । कुतनुकुहेच्छावसवः पिशाचकी सत्यसंगरत्रिशिराः ॥ लुतोऽस्य मायुराजः स्यात्तथा वर्णकविर्निधौ ॥ इति स्वर्गवर्गः ॥ १॥ कुनागिः म्याविहायस्तु ग्वं मरुन्मेपवर्म च ।। इति व्योमवर्गः ।। २ ।। अक्षरं चाथ पायोदः ग्वतमालो गदाम्बरः । मदयित्नुर्वायुदारुयोमधूमो नभोगजः ॥ ८५ १ 'श्वेतद्वीपः क-ख-ग-घ. २ 'जम्भारिस्त्रिदशायधम' क-घ, 'जम्भारित्रिदशायुधम्' ख-ग. ३ 'सधयो' क-ब-ग-ध. ४ 'ईपिव' क. ५ 'शिवाः' क-ख-ग. ६ दीधितिशब्दस्य स्वर्णादिभिर्योगः. ७ 'हसनीमणि' घ, 'हवनायुनि' क-ख-ग. ८. 'भारत' क-ख-ग-घ. ९ 'पति' क-ख-ग. १० 'कायध्वजो' ख-ग, 'कारयजो' क. ११ 'इङ्गण' क-ख-ग. १२ 'मुस्कलो' क, 'संकिलो' प. १३ 'लाज्वलौ' ख-ग. १४ 'धूमझभः' क, 'धममम्म' घ, धमभङ्गि ख-ग. १५ 'अमिवाहु' क-ख-ग. १६ 'कानीची' क, 'कानिचित्खुख-ग. १७ 'चारवायु:' क-ख-ग. १८ भरुद्रम, मेघधर्म, For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ काण्डम् ---४ कालवर्गः । गडेर: कंदरो वातरथो वारिमसिः स्त्रियाम् । करका स्याद्धनकको बीजोदकमिरावरम् ॥ ८६ मेघास्थि वर्षणं तु स्याद्गोघृतं च परामृतम् । सौदाम्नी वशनिविद्युदेणुभा चाचिरद्युतिः ॥ ८७ तिथिप्रणीदर्शविपन्निशामणिस्त्रिनेत्रचूडामणिरत्रिनेत्रभः । सुधाङ्गपैटौ मृगपिझुपक्षजौ दशाश्वसिप्रग्रहनेमिचन्दिराः ॥ ८८ छायामृगधरो राजा माः परिज्ञो वलक्षगुः । द्विजदाक्षायणीतुङ्गीरोहिणीयज्वनां पतिः ॥ ८९ उटुपः पर्वरिः क्लेदुर्जयन्तस्तपसो हरिः । तारापीडः खचमसो विकुसः सिन्धुनन्दनः ॥ ९० चन्द्रिका चन्द्रशाला स्यान्नीहार: खनिशाजलम् । शीतं तु शीतलं पत्रहिमं तु हिमदुर्दिनम् ॥९१ कुज्झटिवूममहिषी रतार्था च कुहेटिका । धूमिका च नभोरेणुग्थागत्याग्निमारुती ॥ सत्याग्निर्वारुणिविन्ध्यकूटो वातापिसूदनः । दीप्ताग्निरौर्वशेयश्च समुद्रचुलुकोऽस्य तु ॥ ९३ प्रिया कौशीतकी लोपामुद्राख्या च विदर्भजा । प्राक्फाल्गुनेयस्तूतथ्यानुजः पारुष्यगीरथौ ॥ ९४ दीदिविदशकरश्वक्षाः सुरगुरुर्गुरुः । शुक्रो भः शतपर्वेशो मघाभू गुरास्फुजित् ॥ ९५ षोडशाचिर्नवाचिस्तु मङ्गलः खोल्मुकः कुजः । वुधो हेमा राजपुत्र एकदेहः प्रहर्षुलः ॥ ९६ स्यात्पश्चाचिः श्रविष्ठाज: श्यामाङ्गै काङ्गरोधनाः । शनैश्चरो नीलवासा मन्द छायात्मजः शनिः ॥ ९७ राहुस्तु ग्रहकल्लोलोऽभ्रपिशाचोऽप्यथाहिकः । केतुर्योतीरथस्तु स्याद्हाधारो ध्रुवश्च सः ॥ ९८ तत्क्षणं सूर्यमुक्ता दिग्बुधैरङ्गारिणी स्मृता । आसन्नास्तमया धीरैरुच्यते सोपधूपिता ॥ ९९ सुनीतिधुवमाता स्यान्माता दक्षस्य मारिषा । छायापथो देवपथः सोमधारा नभःसरित् ॥ १०० दिनप्रणीबव्यथिषो भानेमिर्गवरव्रतः । गभस्तिहस्तोंऽशुधरः खरांशु रविर्भगः ॥ वेदोदयः प्रतिदिवा भान्तः पीतुस्तमोपहः ।। दिनमणिहरिहेलिबध्नभाकोषभानूदरथिखगपतङ्गेनाद्रयः सप्तसप्तिः । ___ मिहिरमहिरपीथाः कालकृत्पद्मपाणिः खमणिररुणशूरावंशुमानंशुमाली ॥ छाया स्यात्तपनी मन्दजननी भूमयी वरी । संज्ञा तु यमकालिन्दीरेवन्तमनुदस्रसः॥ त्रसरेणुमहावीर्या स्वातिः सूर्या सुवर्चला । सुरेणुर्युमयी वाष्ट्री प्रिये चैते विवस्वतः ॥ १०५ आश्मनो रमणोऽनूरुर्जटायुस्त्वरुणात्मजः ॥ इति दिग्वर्गः ॥ ३॥ कालस्वपष्टुर्जहको भवन्तो भसदित्यपि । पीथः पीयुस्तिपश्चाथ वास्रो व्युष्टांशके दिनम् ॥ १०७ उषा प्रभातं गोसर्गः सायोत्सूगै विकालके । १०८ गत्री रक्षोजननी निषद्वरी चक्रभेदिनी घोरा । श्यामा याम्या दोषा तुङ्गी भौती शताक्षी च ।। वासुगेषा निशाख्या च वासतेयी तमानिशौ । यस्यां मत्ता निशि श्वानः श्वनिशं श्वनिशा च सा॥ ११० निःसंपातोऽर्धगत्रः स्यात्सर्वावसर इत्यपि । उच्चन्द्रापररात्रौ द्वौ दर्शोऽमामावसी च सा ॥ १११ १ वशमी' क-ख. २ 'दण्डभावाचिरद्युतिः' क-घ. ३ 'पिप्लु' क-ख-ग-घ. ४ धरो द्वाभ्यामन्वेति. ५ 'पर्वधिः' ख-ग-व. ६ वारुणी' क-ख-ग. ७ 'गौरथी' घ. ८ 'अमरव्रतः' ख-ग. ९ 'भानूदवकि' कख-ग, भासूदरथि' घ. १० 'मिहर-मणिर' घ. ११ सूः' इति यमादिभिर्योज्यम्. १२ 'स्वरेणुः' घ. १३ 'भसन्तो' व. १४ 'सायोत्सत्रौ' क-ख-ग-घ. १५ 'वायुरा' क-ख-ग, 'वास्तवोषा' घ. For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभिधान संग्रह: - २ त्रिकाण्डशेषः । ११५ भूतः कृष्णचतुर्दश्यां पूर्णिमा धर्मवासरः । शक्रोत्सवो ध्वजोत्थानं शारदी द्यूतपूर्णिमा || ११२ कोजागरः शरत्पर्व कौमुदीचारमखियाम् | यक्षरात्रिस्तु दीपाली चैत्रावल्यां मधूत्सवः ॥ ११३ सुवसन्तः काममहो वासन्ती कूर्दनी स्त्रियौ । श्रमस्तु मासो वर्षांशो वत्सरस्तु युगांशकः ॥ ११४ ऋतुवृत्तिर्मैसमालः स्यात्कालग्रन्थिरुर्वटः । कालप्रभातं शरदा प्रावृषा तु जलार्णवः ॥ Į कौमुदः कार्तिको मासः फाल्गुनालस्तु फाल्गुनः । ज्येष्ठामूलीयमिच्छन्ति मासमाषाढ पूर्वजम् ११६ कृतं सत्ययुगं त्रेतानायी द्वापरयज्ञियौ । कलिर्झर्झरकः कर्मयुगं पापं तु पातकम् ॥ शल्यं तैस्तं च कल्कोऽथ भद्रं भलं शिवं तथा । शं शुभं चाव्यये प्राणी सत्त्वो रूपं चतुष्पदे ११८ अधारमा कर्मभुग्देही जीवः पुरुषर्पुद्गलौ । अन्तर्यामीश्वरचान्तःकरणं तु मनो निगु ॥ ११७ ११९ इति कालवर्गः ॥ ४ ॥ बुद्धिः पण्डा विदा चार्वी विचारे तर्कनिश्चयौ | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इति धीवर्गः ॥ ५ ॥ गुञ्जा चर्चा सिद्धान्तोत्तरपक्षसमाधयः । कृतान्तः पूर्वपक्षस्तु चोद्यं गीर्भणितिर्गिरा || वाचा छन्दस्तु निगमः साम्न्युक्थं स्वरपत्तनम् । ब्रह्माक्षरं स्यादोंकारः प्रश्नदूती प्रहेलिका ॥ संज्ञाधिवचनं संद्यःकृतं लक्षणनामनी । व्यपदेशः प्रसिद्धिस्तु टंकारोऽथ नवः स्तवः ॥ शब्दाभिलापौ भिवाभिधानं वाचको ध्वनिः ॥ इति शब्दादिवर्गः ॥ ६ ॥ १२० For Private and Personal Use Only १२१ १२२ १२३ १२४ १२६ १२७ १२८ १२९ १३० द्वासः कुहरितं चाथ मन्मनो गद्गदध्वनौ । तूरं तु तूर्य स्यात्ताड्यमानास्तु पटहादयः ।। कवर्दिः करताली स्याद्धनिनाला तु काहला । मड्डुको मर्दलो मन्त्रो ढक्का विजयमर्दलः ॥ द्रगडः प्रतिपत्तूर्य डमरुः सूत्रकोणकः । नाली घटी यामनाली दण्डढेका यमेरुका || यामघोष्यथ ताम्री स्यान्मानरन्ध्रा विकालिका । भवरुत्प्रेतपटहो मृत्युदण्डकरश्च सः ॥ रणतूर्य तु संग्रामपट हो भयडिण्डिमः । भुक्ततूर्यं नृपाभीलं मलतूर्य महाखनः ॥ मुखवाद्यं वक्रताल वेणौ विवरनालिका | वारवाणिः प्रगाता स्यात्कथकैकनटौ समौ ॥ सर्ववेशी लयालम्भः स्यात्तलावचरो नटः । लयपुत्री नटी नर्तुः खड्गधारादिनर्तके ॥ लवकः केलकञ्चाथ भण्डश्चादुवटुः समौ । गायनो गाथकः स्त्रीणां हल्लीसं सह नर्तनम् ॥ १३२ I वात्सल्यशान्तौ तु रसौ शृङ्गारः कैशिकः स्मृतः । संभोगो विप्रयोगश्च तद्भेदौ वर्णिका मसी १३३ मसिर्ना ध्यामलं तु स्याद्भ्यामेऽवज्ञा तु 'पांसनम् । डमरस्तु चमत्कारः प्रौढिस्तु किर्यदेतिका ॥ १३४ स्वेदः प्रस्रवणं सिप्रो द्वयोर्व्रीडो नटार्थिका । भामः क्रोधे निःशमस्तु शोके वीर्य शुटीरता ।। १३५ छलं मिपं च वैदग्धी भङ्गिश्चेभनिमीलिका | उत्कण्टा रुहरुहिका हैव्यासस्वतिचिन्तिया ।। १३६ १३१ १२५ " १ ‘सवसन्तः’ क-ख. २ 'कर्दमी' व ३ 'मासमानः' क-घ, 'मासमनः' ख-ग. ४ 'कलप्रभा तु' ख-ग. ५ 'तूकमं' ख-ग. ६ 'मुद्गलौ' क घ. ७ 'सत्यंकृत' ख-ग. ८ 'करधिः' व 'कपर्दि : ' ख-ग. ९ 'ढक्काथमेरुका' ख- ग. १० 'प्रणेता' व 'प्रभात' क. ११ 'ल्यारम्भः' घ. १२ ' त्तलोवचरो' क, 'त्तलोचनो' ख - ग. १३ 'विप्रलम्भ' ख ग घ १४ 'व्यामनं तु व्यामे' घ. १५ 'पंसनम्' क ख ग १६ 'कियदेहिका ' क, 'कियदेतिहा' ख-ग. १७ ' नटान्धिका' व १८ उत्कण्ठेत्यर्ध श्लोको घ-पुस्तके न. १९ 'हव्याशस्तुतिचिन्तिया' व ग. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १. काण्डम् - १० वारिवर्गः । १३८ १३९ स्याचिन्ता चिन्तियाथोद्वाहुलं रणरणं च तत् । सोत्कण्ठा स्मृतिराध्यानं हेवाकोऽध्यवसायिता १३७ परिहासः केलिमुखः केलिर्देवननर्मणी । आटोपारोपटंकारा भवेदारभटी स्त्रियाम् || रोमोद्गमस्तु पुलकस्त्वक्पुष्पं च खगङ्करः । स्वदोषगूहनं ग्रक्षो रागसङ्गौ तु गृनुता ॥ कामचारः स यच्चित्ते पापमाधाय शंसनम् । कौकृत्यं विप्रतीसारो विद्याधातु विहेडनम् || १४० दुःखलोको भवश्चैव संसारः कैष्टचारकः । निर्वाणमन्तको मोक्षः शीतीभावः शमोऽमृतम् ॥ १४१ इति नाट्यवर्गः ॥ ७ ॥ अकं दुःखम चैन्द्री लक्ष्मीः कालकर्णिका || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४५ अधोऽव्ययं स्यात्पाताले सप्तधा तदुदीरितम् । अतलं सुतलं चैव वितलं च गभस्तिमत् ॥ १४२ तलं प्रतलपाताले विशेकं श्वभ्रमस्त्रियाम् । तमसं तु निशाचर्म नीलपङ्कं रजोबलम् ॥ १४३ दिक्कण्टको वियद्भूतिः खंखग्वृत्रोऽथ नागभित् । दृम्भूः स्त्री स्याद्वलूताजगरावथ हलाहलः ॥ १४४ ब्रह्मसर्पोऽश्वलाला च द्विमुखाहिरहीरणिः । राजाहिरलगर्दस्तु कालसर्पो महाविषः || niosgger भुजगो भवेत्कौकुटिकंदल: । गोनासगोनसौ हालाहलं हालहलं विषम् ॥ अथान्भक्षो द्विरसनः समकोलश्च भेकभुक् । कुम्भीनसो मण्डली च गरलं जेङ्गुलं विषम् ॥ १४७ अनन्तो वासुकिः पद्मो महापद्मोऽपि तक्षकः । कर्कोट: कुलिकः शङ्ख इयष्टौ नागनायकाः ॥ १४८ तद्बन्धवस्तु कुमुदकम्बलाश्वतरादयः । पुरी भोगवती चैषां भोगिन्यो नागकन्यकाः ॥ इति पातालभोगिवर्गः ॥ ८ ॥ १४६ १४९ इति नरकवर्गः || ९ | 9 १५० | १५१ १५२ १५४ पाथोधिसिन्धुमकरालयवारिराशिगङ्गाधरेन्दुजनकास्तिमिरूर्मिमाली वार्धिर्मिर्तद्रुतिमिक्रोषमहाशयाश्च क्लीवं च शैलशिविरं धरणीम्लश्च ॥ पुमान्कचंगलो वाङ्कः कूलंकपैरंगवौ । तरन्तो दारदः पेरुर्महीप्राचीरमद्वयोः || नदीच कमलं नीरं नाराः स्त्रियामिरा । कं दकं जलस्थायमगाथाम्भसां भ्रमः ॥ १५३ तालूरो वायुगुल्मश्च कैललाभः कलंकुरः । पुरोटि : पत्रझंकारे देरेणिः कूल चुण्डुकः ॥ चुलुको वनजम्बाले दलाढ्ये पङ्गकर्वट: । तरणी भेलके वारिरथो नौस्तरिकः प्लवः ॥ risस्तन्धुर्वहनं तरण्डो वावेट : पुमान् । पादारकः स्यात्पोलिन्दः पत्रवाले तुलाघटः ॥ कैवर्ते जालिकः कोटि कुपिनी स्यादथ लवः । पलावः पञ्जराखेट : कॅण्टकी तु जलेशयः ।। १५७ आत्माशी शंवरो मूकोऽनिमेषो वल्कवानपि । मीने वदाल: पाठीनो मत्स्यराजस्तु रोहितः || १५८ तालाङ्गचा कुलिशः कटङ्काष्ठील इत्यपि । फलकी स्याच्चित्रफली वाजग्रीवां मदार्मदः ॥ १५५ १५६ १५९ For Private and Personal Use Only १ व पुस्तकेऽस्याप्यर्धस्याभावः २ अस्याप्यर्धस्य व पुस्तकेऽभावः ४ 'विप्रतीकारः ख ग ५ 'रिवाधा तु रिहेटनम्' क. ८ इतः पादचतुष्टयं व पुस्तके नास्ति ९ ' दिनान्तको ' घ. १२ 'भाण्डपुच्छ' ख-ग, 'भाण्डपुष्प' व. १० 'खलुक' व. ११ 'हम्फू' क, 'डुण्डुः' व. १३ 'कौटिलः ' क. १४ 'जाङ्गलं' ख-ग, 'जङ्गमं' घ. १५ ' भगिन्यो' ख. १६ ‘शितद्रु' ख-ग. १७ 'पराङ्गव' व. १८ 'महाप्रावार' ख- ग. १९ 'नैरं' ख. २० 'अस्थायम्' क घ. २१ 'कलमाभः ' ख-ग, 'कणलाभः ' घ. क ख ग २४ इतः पूर्वम् 'समुद्रकफ-डिण्डीर-जलहासास्तु पेनके' इत्यधिकं व पुस्तकेऽस्ति २५ ' करण्डी' घ. २२ 'वदालः ' व. २३ 'स्तारिकोलवाः ' ३ 'कामाचारः ' क, 'काप्यकारः ' घ. ६ 'कष्टकारकः' व. ७ 'शान्तीभावः ' क ख ग. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । कवी ऋकचपृष्टी कत्रोटो जलव्यधः । शफरः श्वेतकोल: स्यात्खशेटस्तु खलेशयः ॥ १६० इल्लिशे वारिकर्पूरगाङ्गेयशफराधिपाः । जलतालोऽप्यथ चलत्पूर्णिमा चन्द्रचञ्चलौ ॥ १६? जलवृश्चिक इञ्चाके गङ्गाटेयो गलानिलः । शालः शकुलगण्डः स्यादन्धाहिः कृचिका द्वयोः ॥१६२ ब्राह्मी तु पङ्कगडको लघुगर्गस्त्रिकण्टकः । तिर्यग्यानः कुलीरः स्यान्मुखास्त्रो हरिलोचनः ॥ १६३ बहिःकुटीचर: पोताधानं तु स्याज्जलाण्डकम् । जलरूपस्तु मकरो मरोलिरसिदंष्ट्रकः ॥ १६४ मीनरस्तन्तुनागस्तु नक्रवाडवहारकः । नक्रस्तु वार्भटः स्यादम्बुकिरातोऽम्बुकण्टकः ॥ १६५ जलशूकरमायादझैषाशनद्वदग्रहाः । जलकूर्मस्त्वम्बुकीशो वैसाढ्यः शिशुकश्च सः ॥ १६६ उद्रस्तु जलमार्जारजलाखुनकुलप्लवाः । मृत्किग धुवुरी वारिकृमिस्तु जलमक्षिका ॥ १६७ पटालुका जलौकाम्बुसर्पिणी वेणिवेधिनी । व्यङ्गस्तु नन्दको भेको गूढवीः क्षतालयः ॥ १६८ कोकोऽजिह्वोऽथ पञ्चाङ्गगुप्ते कोडाझिकच्छपौ । गण्डुः किंचुलिकोऽथान्धुविकिरचूडकश्च सः१६९ Vण्टा चुण्टी च लताथान्धकपः कर्करान्धुकः । पल्वलं दीपिका वापी यष्टिका मीनगोधिका १७० अवघट्टावटौ तुल्यौ तल्लं विलं तलं च तत् । द्विजप्रपालवालं स्यात्केदार: पांसुमर्दनः ॥ १७१ नदी निर्झरिणी रोधोवका सागरगामिनी । तलोदा चम्पिला सिन्धुर्ऋषिकुल्या वहा च सा ॥१७२ यध्वगा गान्दिनी गङ्गा हैमवत्युग्रशेखरा । धर्मद्रवी सिद्धसिन्धुस्तापी तु यमुना यमी ॥ १७३ ग्वा तु पूर्वगङ्गा स्यान्मुग्ला च मुरंदला । स्यादर्धगङ्गा कावेरी वासिष्टी गौतमी समे ॥ १७४ अथ गोदावरी भीमोपला गोला च गौतमी । सप्तगोदावरं तत्र कुवलं तूत्पलं कुवम् ॥ १७५ करवं गन्धसोमं स्यात्कन्दोदृश्च निशाहसः । श्रीकरं कृष्णकन्दं च रक्तोत्पलमलिप्रियम् ॥ १७६ लक्ष्मीगृहं कुमुच्चाथ शालकः पङ्कसूरणः । पृश्नी तु कुम्भिका वारिमूलीपो खमूलिका ॥ १७७ स्थाद्वारिचत्वरोऽथाम्बुतालः सलिलकुन्तलः । शैवलो हटपर्णी स्त्री कावारं वारिचामरम् ॥ १७८ पद्मे कावारं पङ्कजं विसनाभिस्तुं पद्मिनी । पुटकिन्येवमेवान्याः कुन्दिनीतालिनीमुखाः ॥ १७९ विसण्डं तन्तुलविलं शृङ्गाटो वारिकुब्जकः ॥ इति वारिवगः ।। १०॥ इति त्रिकाण्डशेषे प्रथम काण्डम् । द्वितीयं काण्डम् । भर्भतधात्री गिरिकर्णिकाधिद्वीपा समुद्राम्बरमेखला कुः ।। क्षमाद्रिकीला च जगद्वहा च पुंसि स्मृती मध्यमलोकमौ ॥ सहा कान्ता गन्धवती रत्नगर्भा च मेदिनी । खंस्थली भारताख्यं तु वर्ष हैमवतं विदुः ॥ १८२ भारतं नरभृः किंपुरुषं हरिव ततः । भद्राश्वमुत्तरकुहिरण्मयमिलावृतम् ॥ १८३ १ 'मत्स्याद.' २ 'बाधाशन' क-ख-ग. ३ 'रसाब्यः' क-ख-ग. ४ ‘जलात्लवाखुनकुलविडालशुनका अपि' इति केशवाज्जलशब्दस्याख्यादिभिस्त्रिभिरन्वयः. ५ 'कृतालयः' घ. ६ 'रेको' घ. ७ 'चुण्टः' क-ख-ग. ८ 'चूडा' घ. ९ 'अध्वगा' ख-ग-घ. १० 'गान्धिनी' घ. ११ 'कुंटिनी' ख-ग, 'कुंदिन्यम्लानिनीमुखाः' घ. १२ 'विसं नु' घ, 'विसंडतन्त्र' क. १३ तन्तुलविसं' क-ध. १४ समुद्रशब्दस्य द्वाभ्याम'यम्बर-मेखलाशब्दाभ्यां योगः, १५ 'देहिनी' क. १६ खस्थली ख-ग, 'स्वस्तनी' ध. For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २ काण्डम् - २ पुरवर्ग: । १८४ १८५ १९० १९१ १९२ १९३ केतुमालममूनि स्युर्भुवो वर्षाणि वै नव । जम्बूप्लक्षकुशक्रौञ्चशाकशाल्मलिपुष्करैः || द्वीपाः सप्ताथ सप्तैव समुद्रा अपि कीर्तिताः । लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धर्पयोमयाः ॥ उपरस्तूपवानूपो ब्रह्मावर्तस्तपोवटः । कुरुक्षेत्रं प्रयागं च हिमाद्रिं विन्ध्यमन्तरा || १८६ मध्यदेशोऽथ पुण्ड्राः स्युर्वरेन्द्री गौडनीवृति । प्रभासः सोमतीर्थ स्यादन्तर्वेदी कुशस्थली || १८७ प्राग्ज्योतिषः कामरूपे तीरभुक्तिस्तु निच्छविः । विदेहाचाथ कश्मीरे कीराः स्युः शास्त्रशिल्पिनः १८८ तुरुष्काः खशयष्टका वाह्रीकाश्च त्रिगर्तकाः । दशेरका मरुभुवो मालवाः सुरवन्तयः || १८९ डाहलाश्चेदयश्चैद्याः कारूषास्तु वृहद्गृहाः । यदवस्तु दशार्हाः स्युः सात्वताः कुकुराश्च ते ॥ ओण्ड्रा उत्कलनामानो मगधाः कीकटा मताः । वेलाकूलं तामलिप्तं तामलिप्ती तमालिका ।। एकचक्रं हरिगृहं शंभुपुर्यथ वर्तनिः । पूर्वदेशोऽथ साकेतमयोध्योत्तरकोशला || कुशस्थलं कान्यकुब्जं नागाङ्गं हस्तिनापुरम् । गजाहूं हास्तिनं चाथ श्रावस्ती धर्मपत्तनम् ॥ कुरुक्षेत्रं विनशनं कौशाम्बी वत्सपत्तनम् । प्राजापत्यः प्रयागः स्याहारका वनमालिनी ॥ द्वारवत्यधिनगरी विदेहामिथिले समे । मथुरा तु मधूपनं जिवरी तु तपःस्थली ॥ वाराणसी तीर्थराजी विशालोज्जयिनी समे । चम्पा तु मालिनी पुष्पपुरं पाटलिपुत्रकम् ॥ देवीकोटो वाणपुरं कोटी वर्षमुमावनम् । स्याच्छोणितपुरं चाथ योजनं मार्गधेनुकम् ॥ क्रिमिशैलस्तु वल्मीकः शक्रमूर्धा संचर: । धरणः पिण्डलः सेतुः पन्थास्तु क्षुद्धमो वहः || १९८ वाटः पथश्च माथश्च खपुरं तूर्ध्वगं पुरम् । हरिश्चन्द्रपुरं शौभमुद्रङ्गः प्रतिमार्गकः ॥ त्रङ्गात्रौ निर्मुटं तु पण्याजीवकचङ्गले । पुंसि हट्टक्रयारोहौ जन्यं ग्राममुखं च तत् ॥ स्यादभिष्यन्दिमनं शाखानगरमित्यपि । शासनं धर्मकीलः स्यान्मकुतिः शूद्रशासनम् ॥ पैड्रोलिका कॢप्तकीला पांसुकीलं न कस्यचित् । षभिर्यवैः स्यादङ्गुष्ठ एतैर्द्वादशभिर्भवेत् ॥ वितस्तिः स्यादतो द्वाभ्यां हस्तः स्यात्तच्चतुष्टयम् । दण्डो धन्वन्तरं तस्य सहस्रद्वितयेन तु ॥ २०३ क्रोशस्ताभ्यां तु गव्यूतिस्तहूयं योजनं मतम् । चतुरष्टशतग्रामान्तद्रणमुखकवैटौ ॥ १९४ १९५ १९६ १९७ १९९ २०० २०१ २०२ २०४ इति भूमिवर्गः ॥ १ ॥ १ 'जलान्तकाः ' व. २ 'रमणम्' व. ६ 'कुलायिका' व. ७ ' वरांगरः ' क-ख-ग. द- पल्याट' इति व्याख्येयमिति भाति, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्भागारावर वास्तु स्यादृहपोतकः । स्यात्प्रासादो देवकुलं पुत्रिका शालभञ्जिका || २०५ ओको गृहं पिटं चालो वॅलभी चन्द्रशालिका । कूटागारं चाथ कपिशीर्ष बोटैकशीर्षकम् || २०६ क्रमशीर्ष चाथ खरकुटी नापितशालिका । कुशालिका पक्षिशाला कारावेश्म वैधाङ्गकम् || २०७ कायमानं तृणकुटी दर्भटो निभृतं गृहम् । कुंडङ्गोद्घाटपिठरा इन्द्रकोषस्तु मञ्चकः ॥ वासागारं भोगगृहं कन्यापत्न्यादनिष्कुटाः । देवीगृहं तु वलभी लयनं सौगतालयः ॥ शिवस्य वृपमण्डप्यां बुधैर्गोपिटकं स्मृतम् । वातायनं गवाक्षः स्याद्वधूटशयनं तथा ॥ उपशल्योपकण्ठे द्वे कपाटो द्वारकण्टकः । कवाटचाएं कन्थावाटः प्राकार इत्यपि ॥ इति पुरवर्गः ॥ २ ॥ २०८ २०९ २१० २११ ३ 'पदोलिका' ख. ४ 'वडभी' घ. ५ 'खोडकशीर्षकम्' घ. ८ 'दर्भतो' ख-ग, 'दर्भ व ९ 'कुद्रको' घ. १० 'कन्या For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १.० www.kobatirth.org अभिधान संग्रह: - २ त्रिकाण्डशेषः । शैले स्थावरधातुभद्धकुंकीलो व्यंशकः सानुमाजीमूतः पृथुशेखरश्च कटकी दन्ती नगो निर्झरी | कुट्टाऽथ हिमालयो नगपतिर्मेनाधको मागुरू कैलासे गणपर्वतश्च रजतप्रस्थः कुवेराचलः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१२ २१३ हिरण्यनाभमैनाकसुनाभा हिमवत्सुते । शैलाये शिखरं शृङ्गं दन्तः प्रारभार इत्यपि ॥ पूर्वाद्रिर्दिनसूर्या स्यादस्ताद्रिश्चरमाचल: । चन्दनाद्रिस्तु मलयः कौञ्चः क्रौञ्चश्च माल्यवान् ॥ २१४ महेन्द्रो मलयः सद्यः शुक्तिमान्पोरियात्रकः । ऋक्षो विन्ध्यश्च सप्तैते जम्बूद्वीपकुलाचलाः || २१५ अश्मा पैझरुकः पटः पारटीटच मृन्मरुः । घर्षणाल: शिलापुत्रो गृहारमा गृहकच्छपः || २१६ गैरिकं तु वनालक्तं रक्तधातुर्गवेरुकम् । प्रेसरमा गिरिमृच्चाथ शिलाधातुः सितोपलः || मृत्कोलो वर्णलेखा च कटिनी कक्खटी खटी ॥ २१७ २१८ इति शैलवर्गः ॥ ३ ।। २२४ २२५ २२६ वा वनं तलं तल्कं हिङ्गुलं समजं त्रसम् । लीलोद्यानं देवनं स्यादिञ्छोली पङ्किरावली || २१९ वृक्षः कारस्कगे गच्छः पलाशी विष्टरः स्थिरः । चैयो देवतरुर्देवावासे करिभकुञ्जरौ || २२० छायातरुः स्थैिरच्छायो बन्दा काकरुहा स्मृता । वनस्पतिर्निलुटः स्यात्फुल्लोन्निन्द्रविकखराः ॥ २२१ स्मितोन्मुद्रौ किलिञ्जं तु सूक्ष्मदाय पल्लवः । विसलं किसलं चाथोत्कलिकाङ्गारिते समे ॥ २२२ गुच्छो गुलुञ्छः क्षेपः स्याचमरी मञ्जरं न ना । मञ्जिच गोन्दी गुन्दी च मकरन्दो मन्दवत् २२३ वेधकः कण्टके पत्रसूचिद्रुनखवङ्किलाः । पिलो वादरङ्गः स्याच्चैत्यदुः केशैवालयः ॥ यक्षोदुम्बरकं त्वस्य फलेऽथ गृहनाशनः । देववृक्षो दानगन्धिः सप्तपत्र: शिरोरुजा ॥ दन्तहर्षणजम्बीरौ कतकोऽम्बुप्रसादनः । वरुणस्त्वश्मरीनोऽथाध्वगभोग्यो मधुद्रुमः कपिचूतोऽम्रातकेऽस्य फले पशुहरीतकी | पिकबन्धुस्तु चूतः स्यात्स्त्रीप्रियः षट्पदातिथिः ॥ २२७ मधुदूतो वसन्तद्रुर्महाकालरुकालकौ । शोभाञ्जनस्तु स्त्रीचित्तहारी विद्रधिनाशनः ॥ २२८ प्राभाञ्जनोऽथ प्राचीनपनसो गोहरीतकी । महाकपित्थो विल्वश्व कोली गृध्रनखी स्मृता ॥ २२९ स्यापिच्छिलदला स्वादुफलायो नागरङ्गकः । तैकाधिवासी नारङ्गः किर्मीरस्त्वक्सुगन्धकः || २३० स्याद्वर्मणः पिच्छिलवग्धवस्तु मधुरत्वचः । पिशाचः पीतैफलः शाखोटः कर्कशच्छदः ॥ २३१ अर्शोहितस्तु रक्षोन्नो भल्लातक्यथ शाल्मली । दुरारोहा स्मृता पिण्डीतगर: कॅफेवर्धनः ॥ काँकचिची तुलावीजं खंदिरो बालपत्रकः । यूपदुः कुष्टहृचाथ करओ घृतपूर्णकः || रसायनफला पथ्या शक्रसृष्टा सुधोद्भवा । सरलो धूपवृक्षः स्याच्छोणको न्यङ्कुभूरुहः ॥ २३४ २३२ २३३ १ 'कुटीलोर्झशका: ' क, 'कुकीलो व्यंगकः' व. २ 'गन्धमादनः । विन्ध्यश्च पारियात्रश्च' घ. ३ 'पवारुकः ' व, 'पद्मरः कः' ख-ग. ४ 'काट व ५ 'पूत्यमा' क. ६ 'गुहिनं' घ. ७ 'नीलोद्यानं' क ख ग. ८ 'तेनं' क ख ग ९ 'विओोली' व १० 'स्थिरच्छायो' घ. ११ निलुंठ: ' ख-ग, 'निर्मुट : ' व १२ 'किलिअः' व 'कलिज' केशवे. १३ 'सूक्ष्मं च 'स' केशवे. १४ 'लिप्सलो क. १५ 'किशवालयः' ख-ग. १६ 'ग्रहनाशनः ' क. १७ 'वरण' ख-ग. १८ 'चक्राधिवासी' घ. १९ 'किसर' ख-ग. २० 'पीतकल: ' क. २१ 'शः पुमान्' ख-ग. २२ 'ककवर्धनः' क, 'ककवर्धनः ' ख ग २३ ' काकचिन्ती' ख ग २४ 'कथिरो' ख-ग. २५ 'कुष्ठकृत्' ख-ग. For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् --४ वनौषधिवर्गः । चम्पकालुस्तु मुरजफल: स्यात्पनसश्च सः । डहुः क्षुद्राम्ब्लपनसो निचुलो रक्तमञ्जरः ॥ २३५ निम्बोऽर्कपादपः पुण्यगन्धस्तु कुसुमाधिगट् । चम्पको वरलब्धश्च वकुलः सिंहकेसरः ॥ २३६ शीधुगन्धोऽथ कङ्केल्लिनटः कान्तानिदोहदः । अशोकः पिण्डपुष्पस्तु दाडिमः फलशाडवः।। २३७ दाडिम्बः पर्वरुट् च स्यात्स्वादम्ब्ल: शुकवल्लभः । पिण्डीरोऽथ सुवर्णेभनागाख्यो नागकेसर: २३८ स्यात्पुष्परोचनश्चापि चूर्ण तस्य हरिद्रवः । निशिपुष्पा तु शेफाली कुटजः पाण्डुरद्रुमः॥ २३९ लताशङ्कतरु: शालो नीपो धाराकदम्बकः । कटंकटेरी हरिद्रा शिंशपा युग्मपत्रिका ॥ २४० पंटोलं स्याद्राजफलं तस्य मूले तु रम्यकम् । सूत्रपुष्पस्तु कर्पासे जीर्णपर्ण कदम्बकम् ॥ २४१ प्रहसन्ती तु यूथी स्याद्दमनः पुष्पचामरः । मालतीपुष्पकलिकां सौमनस्यायनीं विदुः ॥ २४२ कुन्दे स्याद्वोरटः पुंसि गृष्मी तु नवमालिका । रक्तपिण्डस्वोण्डपुष्पं स्यादम्लानः कुरण्टकः॥ २४३ कन्दलशिलीन्ध्रपुष्पे श्लेष्मन्नी त्रिपुरमल्लिका प्रोक्ता। एरण्डहस्तिकणे प्राचीनामलकवारिबदरे द्वे ॥ २४४ बृहत्पाटलिधुस्तूरी कदली वायतच्छदा । स्यात्तन्तुविग्रहा मञ्जिफला वारणवल्लभा ॥ वातिङ्गणस्तु वार्ताकुर्वार्ताकः शाकबिल्वकः । क्लीवे वङ्गं च वार्ताकी स्यान्महाबृहतीत्यपि ॥ २४६ कुष्ठं गदाह्वयं मूलं वस्य पुष्करमूलकम् । वङ्गसेनस्त्वगस्तिदुः शुकनासो मुनिद्रुमः ॥ २४७ अनलिः कुनली पुत्रंजीवस्तु लीपदापहः । छत्रको मल्लिपत्रं स्यात्कुब्जको वज्रकण्टकः॥ २४८ वास्तूकष्टकदेशीयः शाकवीगे घनामलः । शोथजिद्गरहा कालशाकोऽप्यथ महौषधी॥ २४९ मही विपन्नी चक्राङ्गी मत्स्याक्षी हिलमोचिका । जेलब्रह्मी च सालीचे पैकूगे लोहमारकः ॥ २५० केंचुकं पेचुली पेचा नारीचो विश्वलोचनः । केशराजो नागमारः पररुर्भङ्गसोदरः ॥ २५१ सुनिषण्णं चचुः पुंसि च्छत्रपत्रं तमालकम् । स्थलपद्ममथो देवपत्नीमध्वालुकं विदुः ॥ २५२ फलपुच्छो वरण्डालुः स्याद्रङ्गेष्टालुकं च यत् । श्रीमस्तकः स्वस्तिकः स्याद्राहूच्छिष्टो रसोनकः२५३ कूप्माडस्तु घृणावासस्तिमिषो ग्राम्यकर्कटी । वालुकी कर्कटीर्वारुमूत्रला रोमशा च सा ॥ २५४ म्याञ्चेलानचित्रफलः सुखाशो राजतामिषः । लतापनसमाँटाम्रौ सेटुरूर्वासितस्तु यः ॥ २५५ पगरुः कारवेल्लोऽसौ गोडुम्बा गजचिचिटः । मृत्युवीजस्तु वंशः स्यात्केतकः क्रकचच्छदः ॥२५६ इकटो बहुमूल: स्यात्कगैरे वेणुकर्कटः । काशोऽश्ववाल: काकेार्वनहासश्च चर्णला ॥ २५७ गुडदारुमधुतृणं स्यादिक्षुरसिपत्रकः । खानोदको नालिकेरः करकाम्भाः शिरःफलः ॥ २५८ सुरञ्जनो गोपदलो राजताल छटाफलः । केग्मट्टस्तन्तुसारो गुवाको झोर इत्यपि ॥ २५९ गेमपूगस्तु कामीनो मुनिपूगः सेरेवटः । पूगरोटस्तु हिन्ताल: क्लीवं तिरिटि तत्फलम् ॥ २६० धनामयः स्यात्खजूरो द्वौ तु काँचिमभ अरू । तरौ देवकुलोद्भूते दूर्वा तु हरितालिका॥ २६१ __इति वनौषधिवर्गः ।। ४ ॥ १ 'चञ्चकालु' ख-ग, चम्पकोल्व' घ. २ 'क्षुद्राम्वुपनसौ' घ. ३ 'शाडल: ख-ग, ४ 'सुपर्णभ' व. ५ 'गुरुपत्रिका' घ. ६ ‘पच्छोलं' ख-ग. ७ 'मुनिः पुमान्' ख-ग. ८ 'मधीक-ख-ग. ९ 'जलब्राह्मी' खग. १० सालीचे ख-ग, 'शालिचे घ. ११ ‘पत्तरो' घ. १२ 'चेलुकं' ख-ग. १३ 'पेचुर' घ. १४ 'लकं' क-ख-ग. १५ 'वालंगी' क-ख-ग. १६ 'चेलालः' व. १७ 'राजतो मिपः' घ. १८ 'नाटाम्रौ' घ. १९ 'चूर्णला' ख-ग, जंतुला' घ. २० 'कलमट्ट' क, 'करम' ख-ग. २१ 'शमपग' ख-ग. २२ 'स्तुरेवटः' घ. पगवोट' घ. २४ कारिमभंजकः क. 'कारीमभंजक: ख-ग. For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ अभिधान संग्रहः -२ त्रिकाण्डशेषः । सिंहः कण्ठीरवो भीमविक्रान्तः कैरिमाचलः । पञ्चशिखश्च शैलाट: पारीन्द्रः श्वेतपिङ्गलः || २६२ मैरुत्प्लवञ्च नादोऽस्य चुकारः क्ष्वेडितं च तत् । उत्पादकस्तु शरभः शार्दूलोऽष्टापदश्च सः || २६३ अथ हिंस्रपशुर्व्याडः श्वापदः शिविरित्यपि । वानीणसस्त्वेकचरो गणोत्साहच गण्डकः || २६४ हिसारुश्वापद व्याघ्रे महिषस्तु रजस्वलः । दंशभीरुर्जरन्तश्च लालिको यमवाहनः || अथ शूकरे वनाहिरदन्तायुधवज्रवदीर्घरताः । सूचीरोमा वैहुसूराखनिकः स्थूलनासिको भूक्षित् ॥ २६५ २६६ २६५ २७१ २७२ एणः कुरंगमो रिश्यः स्यादृश्यश्चारुलोचनः । गोलाङ्गूले कपित्थास्यदधिशोणनगाटनाः ॥ किखि फेरवस्तु स्याच्छृगालो घोरेवाशनः । लोपशो मृतमत्तश्च वनश्वाथ शृगालिका ॥ २६८ लोपाशिका दीप्तजिह्वा किविरुल्कामुखी च सा । विडालः कुंदमो नक्तंचारी दीप्ताक्षजाहको २६९ शशकस्तु वनाखुः स्यात्खंट्टाशी पूर्तिशालिका । गवयस्तु गवानूक एण्डकः शिशुवाह्यकः ॥ २७० वनच्छागोऽथ गन्धोतुः खट्टाशो वनवासनः । उन्दुरुस्तु दुमो रन्ध्रवदना तु मूषिका ॥ स्याच्चिको वेश्मनकुलः पुंवृषो गन्धमूषिकः । स्याद्वेदारः क्रकचपात्कृकलासस्तृणाञ्जनः ॥ प्रतिसूर्योऽञ्जिनामा तु चित्रकोलो हलाहलः । कारस्कराटिका कर्णजलौका स्यादथो वटिः ॥ २७३ उत्पादिको देहिका स्यादष्टपादस्तु किर्तनुः । प्रासादकुक्कुटो झिल्लीकण्ठो गृहकपोतकः ॥ पारावतोऽथ शक्राख्यो दिवान्धो वक्रनासिकः । हरिनेत्रो दिवाभीतो नखाशी पीयुर्धरौ ।। काकभीरुर्नक्तंचारी कणाटीनस्तु खञ्जनः । काकच्छदः खञ्जखेलस्तीतलो मुनिपुत्रकः ॥ भद्रनामा रतनिधिः काष्ठकुट्टः शतच्छदे । दीर्घपादस्तु कङ्कः स्याद्गलेगण्डस्तु मर्कटः || चातके बभ्रुवाहन तोलत्रिशङ्कवः । वर्षप्रियोऽथ मेधावी चिभिः कीरः फलाशनः ॥ कुकुटस्तु विवृत्ताक्षी त्रिवेदी कलाविकः । उपाकलोऽथ ताम्राक्षः काकपुष्टः कुहूमुखः ॥ २७९ मधुकण्ठो घोषयित्नुः कामतालः सुतर्दनः । काको रेतंजरः सूत्री आवको गूढमैथुनः || कारवः परमृत्यु लुण्टाको मौकुलिर्द्विकः । शक्रजः सत्यवाकाणोऽपकृष्टो नगरीवकः || २८१. ऐन्द्रिश्च नाडीजङ्घोऽथ गृध्रः स्याद्दूरदर्शिनि । शितिकण्ठस्तु दात्यूहः काकमदुः केंगेदुरः ॥ २८२ चिरंभस्तु चिल्लः स्यात्खभ्रान्तिः कण्ठनीडकः ॥ १४ २७८ २८० २८३ सूक्ता मदनशलाका चित्राक्षी शारिका वचण्डा च | शकुनज्ञा तु ज्येष्ठा गृहोलिका टट्टेनी मूली ॥ दीर्घजो निडे: स्यालकोट : शुक्लवायसः । कङ्केरुर्दारुवलिभुक्शिखी चन्द्रविहंगमः ॥ रुका वलाका स्यात्कुररो मत्स्यनाशनः । द्वन्द्वचारी चक्रवाकः सारसस्तु कलांकुरः ॥ गर्निर्दश्चित्रपक्षस्तु तित्तिरिः स्यात्कपिञ्जलः । लघुमांसो मयूरस्तु चन्द्रकी चित्रमेखलः || प्रचलाकी शिखापाङ्गः शिखावलगरव्रतौ । मार्जारकण्ठोऽथ तिलमयूरः स्याद्गुरण्डकः ॥ For Private and Personal Use Only २७४ २७५ २७६ २७७ २८४ २८५ २८६ २८७ ૮૮ १ ‘करिमाठलः' क. २ ‘मरुत्पव' क घ. ३ 'बहुरा' क-ख-ग. ४ 'कुरवः' क ख ग 'हूखः ' व. ५ 'धोररासनः ' घ. ६ 'लोपाको' क ख ग घ ७ 'लोमालिका' व ८ 'खदाशी' ख ग ९ 'तृणंजनः ' क ख ग. १० 'सूर्योऽप्यञ्जनस्तु' घ. ११ ‘कंत्वनुः ' ख-ग. १२ 'तातनो' घ. १३ 'वनताल' क ख ग १४ 'विभिः ' ख-ग, 'चिरिः ' व १५ 'विवृताख्यो' क ख ग १६ 'दात्रिदेवी' क ख ग १७ 'रजज्वरः' व. १८ 'परमृत्युश्च' क, 'परभृत्कश्च' ख-ग. १९ ‘अपकृष्ण्यो' व. २० 'कचाटुरः' व. २१ 'होलिका' केशवे. २२ 'हइली' क-ख-ग. २३ 'निशैतः' घ. २४ 'गोमर्द' घ. २५ 'चित्रकी' ख- ग. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् -- ६ मनुष्यवर्गः । १३ झम्पाशनो मीनरङ्को नासाच्छिन्ना तु पूर्णिका । पिपीलिका तु होरी स्याद्यमकीटस्तु घुघुरः ॥ २८९ स्यान्मर्कटस्तु शैलक आशाबन्धोऽस्य जालके । फालखेले गैरुगोवा भारती व्योमलासिका ॥ २९० चक्षुसूचिस्तु संगृहः पीतमुण्डोऽथ सर्षपा । हापुत्रिका खञ्जनिका तुलिका स्फोटिका समे ॥ २९१ करटो व्याधनः कर्चूर्नर: कूणिश्च वाग्गुदः । वर्तिका विष्णुलिङ्गा स्याल्लावको लघुजङ्गलः ॥ २९२ सरःकाकस्तु हंसः स्याज्जालपात्पुरुदंशकः । गोभण्डीरः पङ्ककीरः कोयष्टिर्जलकुकुभः || २९३ जीवंजीवो विषमृत्युर्जीवजीवोऽथ मक्षिका । माचिका भम्भराली च देशः स्याद्भाम्भरालिकः ॥ २९४ भांकारी चर्मचट्ट्यां तु जतुनी गृहमाचिका । विषसृका भृङ्गरोलो वरोलस्तृणषट्पदः ॥ २९५ बरटी तु वरोली स्याद्ब्राह्मण्यथ तमोमणिः । ध्वान्तोन्मेषश्च खद्योतो ज्योतिर्बीजं निमेषरुक || २९६ भ्रमरश्चञ्चरीकः स्याद्रोलम्बो मधुसूदनः । इन्दिन्दिरः पुष्पकीटो मधुद्रोग्मधुकेशटः ॥ वेणुवामोऽथ मशको घोषो रणरणश्च सः । पक्षी तु नोंडीचरणः स्याच्चञ्चभूदनेकजः || खगोत्रकण्ठानिव्योमचारिणः । युगलद्वन्द्वयुग्मानि युगं यमलयामले | इति सिंहादिवर्गः ॥ ५ ॥ २९७ २९८ २९९ वधूपिता रामा मण्डयन्तो वधूजनः । कन्यकालकनन्दा सांदूषिता धर्मकारिणी || सम्वेदा चाथ तरुणी दिक्करी धनिका च सा । मरुण्डोञ्चललाटा स्यात्सश्मश्रुर्नरमानिनी || ३०० For Private and Personal Use Only २०१ ३०६ पा वधूटी मधुरनिस्वना हंसगद्गदा । सुखोष्णशीता तुहिनग्रीष्म योर्वरवर्णिनी || क्रोधना भामिनी चण्डी दारुस्त्री शालभञ्जिका । विर्वृक्ता दुर्भगा सप्तपुत्रसूः सुतवस्करा ॥ पतिव्रतैकपत्नी स्याद्विधवा जालिका मता । विश्वस्ता अनी तु स्याल्लञ्जिका कैलकूजिका ॥ वेश्या शूला वारवाणिर्झर्झराप्यथ कुट्टनी | ईज्या स्याद्रतताली च घटदास्यां गणेरुका ॥ मलिष्टा सरजाः पाण्मातुरद्वैमातुरौ समौ । समर्दुहिता पुत्रो द्वितीयः कुलधारकः ॥ पिता जनयिता नप्ता शिशुकः क्षीरेकैण्टकः । बालो मुष्टियचा शालिका केलिकुञ्चिका || २०७ बगारो देवरः श्यालो वारकीरोऽथ साश्रुधीः । श्रश्रूवृद्धः शतानीको जरन्तः स्यादथांशकः ॥ ३०८ सगन्धज्ञातिदायादा मातुलो मातृकेशरः । भर्ता भरुर्नर्मकील: प्राणनाथः सुखोत्सवः ॥ हृदयेशो रतगुरुर्जारः पापपतिः समौ । कुमारभृत्या स्याद्बालतन्वं गर्भिण्यवेक्षणम् ॥ गर्भाष्टमो देवमासो नभिनाला मला स्मृता । आधानिकं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनं च तत् ॥ खल्लीटः खलतिः कँलो बधिरः खोरखञ्जको | दोगडुर्बाहुकुण्ठः स्यादौषधं तु भिषग्जितम् || ३१२ त्वक्पुष्पिका किलासं स्याच्छ्रीपदं पादगण्डिरः । योन्यर्शः कन्दसंज्ञः स्यात्किणः सूक्ष्मत्रणोऽपि च३१३ ३०९ ३१० ३११ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ १ 'मत्स्याशनो' व २ 'होरा' घ. ३ 'शकक' ख ग ४ 'गरुद्योधी' घ. ५ 'व्योमनासिका' घ. ६ 'चमूचि व ७ 'सुगृहा' क. ८ 'स्कोकिके' व. ९ ' करटव्याधनलः स्यात्तरकूणिस्तु : ' क, 'करटव्याघतछः स्यात्तस्कूणिस्तु' ख-ग, 'करेटव्याधनछुः स्यात्तरुकूणिस्तु' व. इह तु 'वागुदस्तु गणाधिपः । करटो व्याधनः कर्चूनर : कृणिः कुमारक:' इति केशवानुरोधी पाठ: स्थापितः १० 'विषं मृत्युः ' घ. ११ 'मधुद्रो' घ. १२ 'नाडीवरण: ' - ग. १३ ' वारङ्ग' हैमपरिशिष्टे. १४ 'भूषिता' घ. १५ घ- पुस्तके नास्ति १६ 'विरक्ता' व १७ 'शस्त' ग. १८ ' वाञ्छिनी' घ. १९ 'कलतूलिका' व २० 'रज्या' घ. २१ ' क्षीणकण्ठकः ' व. २२ 'नागरः ' व. २३ 'केशट: ' क ख ग २४ 'नाभिनाममला' क्र. २५ 'पौंसवनं' क. २६ 'खल्लो' क. २७ 'शुष्कं व्रणोऽपि च' व. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___ अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । अजीणे वायुगण्डोऽण्डं धमिश्च पललाशयः । पापरोगो रक्तवटी मसूर्यथ तमोत्रणः। ३१४ वल्मीकोऽथातिसारोऽन्नगन्धिः स्यादुदरामयः । कुरण्डवृद्धौ शिवाणखेशे स्कन्दनरेचने ॥ ३१५ गर्भण्डो नाभिगुडकेऽभिमन्यो लोचनामये । युवगण्डोऽवरण्डः स्यात्पित्तं मायुः पैलज्वरः ॥ ३१६ श्लेष्मा रसाशो मांसं तु जरूथमथ शोणितम् । पलक्षारोऽथ मस्तिष्को मस्तुलुङ्कोऽप्यथ स्नसा ३१७ वस्नसायाधरमधु क्लीवे वासवः पुमान् । जिह्यामलं तु कुलुकं पिप्पिका दन्तजे मले॥ ३१८ पिण्डोऽस्त्रियां कुलं क्षेत्रं शरीरं स्कन्धपञ्जरौ । जस्तं वपुः पुद्गलं स्यादाङ्गमङ्गं तु कोमलम् ॥ ३१९ पायुस्तनुहूदो मार्ग उच्चारस्तु पुरीषणः । भगं गुह्यं वराङ्गं च कलत्रं जन्मवर्त्म च ॥ ३२० स्मरागारं ग्तगृहमधोऽधस्तादिमेऽव्यये । ना संधिरधरोऽवाच्यदेशश्च स्मरकृपकः ॥ ३२१ संसारमार्गश्च गतिकुहरं प्रकृतिः स्त्रियाम् । पुष्पापत्यपथौ चाथ नितम्बः स्यात्कटीरकः ॥ ३२२ लिङ्गं तु लाङ्गलं शेफः साधनं मदनाङ्कुशः । स्मरस्तम्भश्च कंदर्पमुसलो ध्वज इत्यपि ॥ ३२३ स्त्रियां गगलता चाण्डकोपन्तु फलकोषकः । नाभियोस्तुन्दकूपी तुन्दिस्तुण्डिगडुः पुमान् ॥ ३२४ भुजा वाहा च बाहौ स्याकुलिहस्तो भुजादलः । कुचौ वक्षोरुहौ प्रोक्तौ हस्तपुच्छं तु कैल्पुषम् ३२५ नख: पुनर्भवः कामाशः स्यात्करकण्टकः । कारटः करशूकश्च मुचुट्यङ्गुलिमोटनम् ॥ ३२६ म्याल्काकलं कण्टमणिर्नसा नस्या च नासिका। गन्धनाली च नासिक्यं वाग्दलं दन्तवाससि ३२७ दन्तः खवखुरो जम्भो हार्द्विजस्तथा । राजदन्तास्तु चखारो दशनानां पुरःस्थिताः॥ ३२८ गोधिभालौ महाशङ्खो देवदीपस्तु लोचनम् । अम्बकं चाय नेत्राम्बु वाष्पो नालोतमस्त्रियाम् ॥३२९ कटाक्षकाक्षी काकुस्तु जिह्वाथ प्रतिजिदिका । सुधारवा च कर्णस्तु श्रोतः क्लीवे ध्वनिग्रहः ॥३३० स्याच्छन्दाधिष्टानमथ कवरः केशगर्भकः । कवरी जूटकाचाथ कोटीर: स्याज्जटा सटा ॥ ३३१ कगरोटोऽङ्गुलीक: स्यात्ताटङ्कः कर्णदर्पणः । अन्दुक: पादकटकोऽभिषेकः स्नानमित्यपि ॥ ३३२ पटचरं जीर्णवस्त्रं सिचयप्रोतशाटकाः । पटवापः पटमयं दृष्यं वस्त्रगृहं स्थैलम् ॥ ३३३ ग्वरग्रहः खरगृहं शुचा तु स्थूलशाटकः । चेलोऽण्डकः शिरोवेष्टे निरिङ्गिण्यवगुण्ठिका ॥ ३३४ पटी जवनिका सूर्यरक्तसंज्ञं तु कुङ्कमम् । जागुडं दीपनं चास्रं सौरभं घुसणं च तत् ॥ ३३५ स्याद्रङ्गमातृका लाक्षा गन्धकाष्टं तु जोङ्गकम् । कपिचन्दनमैलाख्यः सिहोऽथ सरलद्रवः ॥ ३३६ दधिक्षीरवृताहुः स्याद्भुणको वहिवल्लभः । सालवेष्टः सर्जमणिः कस्तूरी गन्धचेलिका ॥ ३३७ मदाढ्यथाथ मंचारी धूपो गन्धपिशाचिका । वेणुसारस्तु कर्पूरश्चन्द्रभस्म हिमालयः॥ ३३८ वेधको मालयस्तु स्याच्छीखण्डो रौहिणश्च सः । विच्छित्तिस्तु कषायः स्यात्समालम्भनमित्यपि ३३९ ललाटिका शङ्खचर्चा विष्टर: पीठमस्त्रियाम् । निषद्या खट्रिकासन्दी चातुरस्तु मसूरकः॥ ३४० प्रतियत्नम्तु रचना कटकोल: पतद्हः । पूगपीठं च दीपस्तु नेहाशः कज्जलध्वजः ॥ ३४१ दशेन्धनो गृहमणिपिातिलक इत्यपि । शिखातरुर्दीपवृक्षो ज्योत्स्नावृक्षोऽथ लोचकः ॥ ३४२ १ 'तनुव्रणः' क-ख-ग. २ 'शेटौ' घ. ३ 'वगण्डः' घ. ४ 'पलंकरः' घ. ५ 'वलाशो' घ. ६ 'जकथ' ग्व-ग. ७ 'शस्तं' व. ८ 'दिहाव्यये' घ-युक्तः पाटः. ९ पुष्पपथः अपत्यपथः १० 'गरुःख-ग, 'करः' व. ११ 'कल्मपम्' घ. १२ 'नान्धनाली' क-ख-ग. १३ 'अङ्गुलीयः' ख-ग, 'अङ्गुलीट:' घ. १४ 'प्रोथ घ. १५ स्थलम्' क, 'स्तुल्यम्' ख-ग. १६ 'निरिगिणी' ख-ग, विरिंगिनी' घ. १७ 'असपर्यायि काश्मीरं सूर्यपर्यायि दीपन' इति केशवात् सूर्यसंज्ञम् , रक्तसंज्ञम. १८ 'कपिचञ्चलतैलाख्यः' ख-ग-घ. १९ 'दीपमाणिः' क-ख-ग. For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् -७ ब्रह्मवर्गः । कज्जले स्यागिरियके कन्दुकश्चोदना गुडः । निश्रुकनं दन्तशाणं पिष्टातो धूलिगुत्सकः ॥ ३४३ ___ इति मनुष्यवर्ग: ।। ६ ॥ वंश्यः कल्यश्च बीज्यश्च ब्रह्मचारी बटुः समौ । स्याट्रकरणं तूपनयनं गृहमेधिनि ॥ ३४४ ज्येष्टाश्रमी गृही वानप्रस्थो वैखानसोऽगृहः । वक्रजस्वनमो विप्रो वर्णज्येष्ठः कठो द्विजः ॥३४५ मैत्रः पुनरुक्त जन्मा स्यादथ ब्राह्मणायनः । शुद्धसंतानजो विप्रः श्रौत्रं श्रोत्रियतां विदुः ॥ ३४६ स्यादक्षरमुखः कालाक्षरिकः शिक्षिताक्षरः । काव्यस्य कर्ता भेविनो गुणनी शीलनं स्मृतम् ॥३४७ क्रियाकारो नवच्छात्रः कार्पटिकः स मर्मवित् । पर्षत्परिषदौ गोष्टी राजसूयो नृपाध्वरः ॥ ३४८ क्रतृत्तमश्चाथ चान्द्रायणमिन्दुव्रतं स्मृतम् । हवनी होमकुण्डं स्यान्महावीरो मखानले ॥ ३४९ होमधूमस्तु निगणो होमभस्म तु वैष्टुभम् । आर्यकं पिण्डदानादिपितृकार्यमथो हविः॥ ३५० होत्रं हविष्यं सांनाय्यं पाठको धर्मभाणकः । सभ्यास्तु प्राश्निका देवद्रोणी यात्रा दिवौकसाम३५१ इष्टापूर्त तदेकोक्त्या यागखातादि कर्म यत् । यज्ञद्रव्यं तु पात्रीयं प्राधुणस्त्वतिथियोः ॥ ३५२ कौशली कुशलप्रश्न: समीची वन्दना मता । उपोषणं तूपवासो रोगाबैलचनं च तत् ॥ ३५३ ब्यन्तरे व्यन्तरे भुक्तमाहुः षष्टान्नकालकम् । राद्धं सिद्धमथो चारुवृता मासोपवासिनी ॥ ३५४ स्यादायत्री तु सावित्री ब्रह्मारण्यं तु पाठभूः । पवित्रं यज्ञोपवीतं ब्रह्मसूत्रं द्विजायनी ॥ ३५५ कच्छा कच्छटिका कक्षापटी कौपीनमित्यपि । वैडालबतिकः सर्वाभिसंधी छद्मतापसः ॥ ३५६ कमण्डलुश्चैत्यमुखो जोटिङ्गस्तु महाव्रती । उरस्कुटः पञ्चवटो बालयज्ञोपवीतकम् ॥ ३५७ भाले तिस्रो भस्मरेखास्त्रिपुण्डकमथर्षयः । शापास्त्राः सत्यवचसो व्यासाद्यास्तु महर्षयः ॥ ३५८ परमर्षयो भेलाचा देवर्षयः कचादयः । ब्रह्मर्षयो वसिष्ठाद्याः सुश्रुताद्याः श्रुतर्षयः ॥ ३५९ ऋतुपर्णादयो राजर्पयः काण्डर्पयस्त्वमी । जैमिन्याचा नारदस्तु कपिवक्रो विधातृभूः ॥ २६० देवब्रह्मा देवलश्च दुर्वासास्तु कुशारणिः । प्राचेतसस्तु वाल्मीकिः कविज्येष्टः कुशी वशः ।। ३६१ अपि वल्मीकवाल्मीको कृतकोटिस्तु काश्यपः । कृष्णद्वैपायनो वेदव्यासः स्यात्सत्यभारतः ॥ ३६२ पागशरिः सात्यवतो माठरो बादरायणः । वसिष्ठोऽरुन्धतीनाथो विश्वामित्रच गाधिजः ॥ ३६३ गौतमस्तु शतानन्दः कणादः काश्यपः समौ । धन्वन्तरिदिवोदासः काशिराजः सुधोद्भवः ॥३६४ पालकाप्यो गणवतीकरेणुरुचिगसुतः । विष्णुगुप्रस्तु कौटिल्यश्चाणक्यो द्रामिलोऽङ्गुलः ॥ ३६५ वात्स्यायनी मल्लनाग: पक्षिलस्वामिनावपि । उपवर्षो हलभूतिः कृतकोटिरयाचितः ॥ ३६६ पाणिनिस्वाहिको दाक्षीपुत्रः शालकिपाणिनौ । सालातुरीयोऽथ व्याडिविन्ध्यस्थो नन्दिनीसुतः ॥३६७ मेघावी चाथ मेधाजित्कात्यः कात्यायनश्च सः । पुनर्वसुर्वररुचिर्गोनर्दीयः पतञ्जलिः ॥ ३६८ चूर्णिकृद्भाष्यकारश्च हरिर्भर्तृहरिः स्मृतः । रघुकारः कालिदासो मेधारुद्रश्च कोटिकृत् ॥ ३६९ भारविः शत्रुलुम्पः स्याद्भवभूतिस्तु विस्मृतः । भूगर्भोऽप्यथ यः प्रातः स्मर्यते शुभकाम्यया ॥ ३७० स सुगृहीतनामा स्यात्पैण्डिन्यं भैक्षजीविका । पाखण्डकौलिको खञ्जनरतं यतिमैथुनम् ॥ २७१. अभावादङ्गनात्यागस्तुरगब्रह्मचर्यकम् । मुखघण्टा हुलहुली नागरीटस्तु टोत्करः ॥ ३७२ १ 'गिरिपकः' ख-ग-घ. २ 'भविनी' घ. ३ 'धमधृपः' क. ४ 'निगनो' क. ५ 'पात्रीवं' क. ६ 'सुत'शब्दो गणवत्यादिभिरन्यः . ७ 'भ्राग्मणो' क-ख-ग, 'द्रोमिणो घ. ८ 'अंशुनः' क-ख-ग, 'अंशुलः' घ. इह त्वभिधानचिन्तामण्यनुसारेण पाठः स्थापितः. ९ 'नागरीक' क ख-ग, 'नागवीटः घ. १० यत्करः' ख-ग, टांकरः'घ. For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७५ अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । कटकरूयक्षपश्चाथ दारकर्म करग्रहः । वाधुक्यं च विवाहः स्यात्कुहलिः पूगपुष्पिका ॥ ३७३ नान्दीकौ तोरणस्तम्भौ सुरतं खभिमानितम् । धर्षितं संप्रयोगो ना रतं चाब्रह्मचर्यकम् ॥ ३७४ उपसृष्टं त्रिभद्रं च क्रीडारत्नं महासुखम् ॥ इति ब्रह्मवर्गः ॥ ७॥ द्विजलिङ्गी नृपः क्षत्रः क्षत्रियोऽथ प्रजेश्वरः । राजाधिपो मण्डलेश एकजन्मा भयापहः ॥ ३७६ स्कन्धावारस्तु कटकः शिविरं तु बलस्थितिः । आदिगजः पृथुर्वैन्यः काकुत्स्थस्तु परंजयः ॥ २७७ यौवनाश्वस्तु मांधाता खटाङ्गस्तु दिलीपराट् । रामो दाशरथिः कौशल्यायनिर्दशकण्ठजित् ।। ३७८ मैथिली जानकी सीता वैदेही भूमिजा च सा । गमपुत्रौ कुशलवावेकयोक्त्या कुशीलवौ ॥ ३७९ सौमित्रिलक्ष्मणो मेघनादजिञ्चाथ रावणः । राक्षसेन्द्रो दशमुखो लद्देशो धनदानुजः ॥ ३८० मन्दोदरीशः पौलस्त्यो मेघनादस्तु शक्रजित् । हनूमान्हनुमानञ्जनेयो योगचरानिली ॥ ३८१ हिडिम्बारमणो गमदूतश्चैवार्जुनध्वजः । ऐन्द्रिस्तु वाली वालिश्च सुग्रीवो रविनन्दनः ॥ ३८२ ऐल: पुरूरवा बौधिरुवंशीवल्लभश्च सः । ययाति हुषिः शाकुन्तलेयो भरतः स्मृतः ॥ ३८३ दौष्यन्तिः सर्वदमनोऽर्जुनो बाहुसहस्रभूत् । हैहयः कार्तवीर्यश्च पुण्यश्लोकस्तु बाहुकः ॥ ३८४ नलोऽश्वविन्नैषधश्च महाभीष्मस्तु शान्तनुः । प्रतीपोऽस्य प्रिया काली दासेयी च झषोदरी ॥ ३८५ विचित्रवीर्यचित्राङ्गदसूर्योजनगन्धिका। व्यासमाता सत्यवती गाङ्गेयो गान्दिनीसुतः ॥ ३८६ देवव्रतः शान्तनवो गाङ्गो गाङ्गायनिश्च सः । भीष्मः कोणपदन्तश्च स्वेच्छामृत्युः पुरावसुः ॥ ३८७ धृतराष्ट्रस्त्वाम्बिकेयः पाण्डुर्माद्रीपृथाप॑तिः । दुर्योधनस्तु कुरुगङ्गान्धारेयः सुयोधनः ॥ ३८८ धर्मपुत्रोऽजमीढः स्यात्कर्णानुजयुधिष्ठिरौ । अजातशत्रुः कोऽथ भीमसेनः कटत्रणः ॥ ३८९ वीरेणु गवली गुणकारो वृकोदरः । वककीचककिर्मीरजरासंधहिडम्वजित् ॥ ३९० पार्थः किरीटी गाण्डीवी गुडाकेशो वृहन्नडा । अर्जुनः फाल्गुनो जिष्णुर्विजयश्च धनंजयः ॥ ३९१ सव्यसाची सुभद्रेशो गंधावेधी कपिध्वजः । वार्जनश्चापि वीभत्सुद्रौपदी पाण्डुशर्मिला ॥ ३९२ पाञ्चाली पार्षती कृष्णा वेदिजा नित्ययौवना । याज्ञसेन्यथ राधेयो वसुषेणोऽर्कनन्दनः ॥ ३९३ घटोत्कचान्तकः कर्णश्चम्पेश: सूतपुत्रकः । द्रोणस्तु गुरुराचार्योऽश्वत्थामा तु कृपासुतः ॥ ३९४ द्रोणायनोऽथ राजर्षिर्जनमेजयसंज्ञकः । पारीक्षितोऽप्यथ जरत्कारुर्यायावरो मतः ॥ ३९५ प्रियास्य मनसा देवी जरत्कारुरथैतयोः । आस्तीकनामा तनयो विरोचनसुतो बलिः ॥ ३९६ बाणो विन्ध्यावलिसुतस्वाष्टो वृत्रोऽप्यहिश्च सः । दमघोषसुतश्चैद्यश्चेदिराट् शिशुपालकः ॥ ३९७ बार्हद्रथिर्जरासंधः कंस: स्यादुग्रसेनजः । कर्णीसुतो मलदेवो मूलभद्रः कलाङ्करः ॥ ३९८ मन्त्री ग्रन्थिहरोऽमात्यो द्वाःस्थितो वेत्रधारकः । दौःसाधिको वर्तकको गर्वाटो दण्डवासिनि ॥३९९ सहपांशुलिकः स्नेही वयस्योऽप्यथ वार्तिकः । वार्तायनः प्रवृत्तिज्ञो मौहूर्तो दैवलेखकः॥ ४०० चित्तोक्तिः पुष्पशकटी दैवप्रश्न उपश्रुतिः । लेखके मसिपण्यः स्याद्वोलेकः किरकोऽपि सः ।। ४०१ मसीधानी मसिमणिर्मेलान्धुवर्णकूपिका । मेला मसीजलं पत्राञ्जनं च स्यान्मसिद्धयोः ॥ ४०२ लेखनी वर्णतुली स्याल्लेखो वाचिकहारकः । वर्णदूतः खस्तिमुखः काचनं तन्निबन्धनम् ॥ ४०३ १ विचित्रवीर्यसः । चित्राङ्गदसः. २ माद्रीपतिः । पृथापतिः. ३ 'जित्'शब्दस्य बकादिभिरन्वयः. ४ 'वाधावेधी' ख-ग, 'शब्दभेदी' घ. ५ 'सहपांसुनिकः क, सहपांशुकिलः' घ. ६ 'वोरकः' व. For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम् --८ क्षत्रियवर्गः | ४०४ ४०६ ४०७ ४०८ ४०९ ४१० ४१२ ४१३ ४१४ ४१७ ortri ग्रन्थकुटी मुद्रा प्रत्ययकारिणी । यातुर्गन्तुश्च पथिको हारिः पथिकसंततिः ॥ संदेशः प्राभृतं कौशल्युत्कोचस्तूपदानकम् । जनान्तिकं वप्रकाशो लुण्डी स्यान्यायसारिणी || ४०५ ताम्बूलदो वाग्गुलिकः संवाहकोऽङ्गमर्दकः । चामरा चामरं रोमगुत्सकं चावचूलकम् ॥ कुटेरस्तन्मरुत्प्रोतोत्सादनं वस्त्रकुट्टिमम् । छत्रं पुटोटजं राजगृङ्गं कनकदण्डके ॥ हस्ती महामृग: पीलुः सिन्धुरो दीर्घमारुतः । वाजिरो जलकाङ्क्षय निर्लूर: करटी कटी ॥ विलोमजिह्वोऽन्तः स्वेदपिण्डपादलतालकाः । वराङ्गः पुष्करी शूर्पकर्णसामजपैचिलाः ॥ करिणी वासिता गम्भीरवेद्यकुशदुर्धरः । चालकव्यालकौ राजवाह्यो विजयकुञ्जरः ॥ ईशादन्तो महादन्तः कर्णास्फाले झलज्झला । मदप्रयोगो व्यस्तारं विकस्तु करिशावकः || ४११ आरक्षः कुम्भसंधिः स्यात्संदानोऽष्टीवतोरधः । नासापूर्व स्थूलहस्तं दन्तमूले करीरिका ॥ शङ्खः कूटो दन्तमध्यं प्रवेष्टः पृष्टतल्पने । अयस्कारः प्रजङ्घा पोहचरणपर्वणि || न ना गात्रावरे नाली कर्णारा कर्णवेधिनी । आलानं शङ्करैक्षोभः प्रारब्धर्ग जबन्धिनी ॥ प्राची तु शृङ्खला हिँजीरोऽस्त्री स्यादन्दुकञ्च सः । पित्तज्वरः पाकलोऽस्य कूटपूर्वस्त्रिदोषजः ।। ४१५ अश्वः किंण्वी हरिः क्रान्तः शालिहोत्रश्च मुद्द्रभुक् । श्रीपुत्रश्चामरी हेषी राजस्कन्धो मरुद्रथः।। ४१३ वातायनश्चैकशफो यस्तु पञ्चाङ्गपुष्पितः । स पञ्चभद्रः सूर्याचे वाताटहरितौ समौ ॥ यायावरोऽश्वमेधीय: पारसीयः परादनः । आरहजश्च चोक्षस्तु सिन्धुवारो हयोत्तमः ॥ वाताश्वजात्याजानेया वेशरोऽश्वतरः खरः । श्रीवृक्षोऽस्य हृदावर्तो रोचमानो गलोद्भवः ॥ ऊर्ध्वस्थितिः पुरुषकं विक्रान्तिस्तु पुलायितम् । पुला संनाहप्रखरौ कवियं कविकोच्यते ॥ ग्रीवाघण्टा घरा स्याद्रश्मिः प्रवेपणं च तत् । प्रतोदोऽथ खुरो विङ्खः पुढो लुठनवेल्लने ॥ वल्गा दन्तालिका पल्ययनं पर्याणमस्य तु । वङ्कायभागः स्यादश्ववारो वल्लभपालकः ॥ नन्दिघोषः पार्थरथो नीतिघोषस्तु गीर्पतेः । चङ्कुरं धोरणं यानमात्रे चक्रं त्वरि स्मृतम् ॥ लघ्वी लाष्ट्री रथी काललवनं वक्रवर्मणी । मेढो मेण्डो हस्तिपके जङ्घात्राणं तु मङ्गुणम् ॥ ४२४ स्यान्नायकाप्रेसरको नासीरं दर्प ऊष्मणि । शस्त्रमायुध उद्घातः स्थावरं तु धनुर्गुणी ॥ शरावापो धनूः स्त्री स्यात्तृणता त्रिणतापि च । व्यधस्तु प्रतिकायः स्याज्जीवा ज्या तौरव 'गुणः ||४२६ शस्त्राभ्यासस्तु खुरली वाणः स्यादस्त्रकण्टकः । स्थूलक्ष्वेडो विपाठश्च चित्रपुङ्खः शरः सरः || ४२७ पत्रवाहो विकर्षोऽथ तीरी विज्जलसायके । लोहनालस्तु नाराचः प्रसरः काण्डगोचरः || ४२८ ऋष्टिः खङ्गस्तग्वारिः शस्त्रो भद्रात्मजश्च सः । धाराविषो विशसनो न्युब्जखड्गः कटीतलः ||४२९ स्यादेत्तनं चक्रफलं पर्शुः परशुरित्यपि । दीर्घायुधः शलः कुन्तः शल्यः शङ्कुर्विषांङ्करः ॥ ४३० शूलोऽस्त्री सीसकं नग्नाः प्रातर्गेयाः स्तुतित्रताः । भोगावली वन्दिपाटो वसुकीटस्तु यचकः || ४३१ वातकेतुः क्षितिकणः स्यात्पांशुर्मेदिनीद्रवः । संभारः सर्वपूर्णत्वं पताका व्योममञ्जरी || कदलीकन्दली चीनमक्षवाटस्तु महभूः । भीरुस्तु भेलो हरिणहृदयः स्यात्पलंकटः ॥ ४२३ | ४२५ ४३२ ४३३ For Private and Personal Use Only १७ ४१८ ४१९ ४२० ४२१ ४२२ १ 'ताम्वृलिको' ख-ग. २ 'कुठेरुर्मन्थरु: ' घ. ३ 'राजीवो' घ. ४ 'निर्झर' व. ५ 'अक्षोड : ' क- ख-ग. ६ ‘पारी' घ. ७ ‘शिञ्जीरः ' क ख ग. ८ 'अन्धुकः ' क ख ग 'अङ्कुशः' घ. ९ 'किंधी' क ख ग 'किल्की' घ. १० 'प्रवयणं' क ख ग ११ 'भारखं' व १२ 'अनं' व १३ 'विषंकुर ः ' क. १४ ' याचितः ' घ. १५ 'मञ्जरं' घ. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । ४३८ विद्रवस्तु शृगाली स्यादाघातस्तु वधस्थली । कदनं मारणं मन्यः सौप्तिकं रात्रिमारणम् ॥ ४३४ निपातो भूमिलाभश्च मृत्युरप्यथ मारकः । मरको मारिरुत्पातः शवस्तु क्षितिवर्धनः ॥ ४३५ पञ्चावस्थः केटः स्थालः श्मशानं तु शयानकम् । रुद्राक्रीडो दाहसरः संस्क्रिया सक्रिया समे ॥ ४३६ चिता काष्टमटी चैत्यं चिताचूडकमिष्यते । चित्तं चाचान्त्यशय्यायां खाटिवारूढ इत्यपि ॥ ४३७ उपग्रहस्तु प्राहः स्याद्वन्दी करमरीत्यपि ॥ इति क्षत्रियवर्गः ॥ ८॥ तृष्णा धनपिशाची स्याद्वा(प्यं धान्यवर्धने । प्रंमार्यमृणमर्थानां प्रयोगः स्यान्मलाम्लिका ॥ ४३९ ऋणमुक्तिर्विगणनं क्षेत्रं वाग्टमुच्यते । हलिबृहद्धले मुद्दे हरिनामा बनाग्नुकः ॥ ४४० वासन्तश्चाथ मसुरो मसूगे ब्रीहिकाश्चनः । सर्षपः स्यात्सरिषपः कटुस्नेहश्च तन्तुभः ॥ ४४१ प्रवेटः सितशूकः स्याद्गोधमो म्लेच्छभोजनः । ताम्रवृन्तः कुलत्यः स्यान्निःस्नेहश्चण्डिकातसी ॥ ४४२ मूर्खः पुगपलो मापो गजमापस्तु वर्वटः । फुल्लफाल: शूर्पवाते न स्त्री तितउ चालनी ॥ ४४३ कण्डन्युलखलं प्रस्थः पालिः सूदः पचेलुकः । कुसूलोऽस्त्री ब्रीह्यगारं कन्दुरग्निष्ट उच्यते ॥ ४४४ अलिंजरो ननन्दा स्त्री मृत्स्नाभाण्ड कमुष्टिका । वारासनं वा:सदनं काणनो हण्डिकासुतः ॥ ४४५ कलशी गर्गरी तुल्ये स्याच्छरावस्तु मार्तिकः । शालाजिरः पार्थिवश्च मृत्कांस्यमथ लौहिका ॥४४६ खंग्सोल्लः खरपात्रं शिवाणं काचभाजनम् । काष्टलोही तु वातर्दिीरको दीपकः स्मृतः ॥ ४४७ कटुभङ्गास्तु शुण्ठी स्यात्काञ्जिकं तु तुषोदकम् । गृहाम्ब्लं सिद्धसलिलं रक्षोन्नं धातुनाशनम् ॥४४८ गृहिणी मधुग हिङ्गु गलहत्सूपधूपनम् । घर्षिणीहेमरागिण्यौ हरिद्रा पीतवालुका ॥ ४४९ गण्डोलं स्याद्रुडः स्वादुः पिप्पटा गुडशर्करा । महाश्वेता तु मधुजा प्रयस्तं स्यात्सुसंस्कृतम् ॥ ४५० चिपिटो धान्यचमसश्चित्रापूपश्चरुव्रणः । आलिम्पना तर्पणा दीपनं मण्डोदकं च तत् ॥ ४५१ वटकः पिष्टपूरः स्याद्रतोपायनाचने । प्रहेणकं चाथ पोली पूपली चर्पटी च सा॥ ४५२ सक्तुश्चूर्णक आपूप्यो भक्तं कूरः प्रसादनः । मण्डो ज्येष्टाम्वु खदिका लाजाः पारी तु दोहनी ४५३ निपानं स्त्री गवीतुम्बा निलिम्पा रोहिणी च सा । गव्यज्येष्टं प्रस्तवनं स्याद्दोहापनयः पुमान् ॥ ४५४ अवदोहः पयः क्षीरं प्राँग्गाहें श्रीधनं दधि । कद्वरस्तु दधिखेदो जग्धिर्भोजनभक्षणे ॥ ४५५ देहयात्रा विष्वणनं भुक्तं प्रत्यवसानवत् । कल्यवर्तः प्रातराशः प्रात जनमित्यपि ॥ ४५६ अनडाशाकरो गन्धमैथुनः शक्करिव॒षा । ककुद्मान्पुंगवश्वाथ कण्ठाला जालगोणिका ॥ ४५७ दोग्धा शकृत्करिर्वत्सस्तेषामाटीकनं क्रमः । गवादिकं जीवधनं पलिक्नी बालगर्भिणी ॥ ४५८ कैवाकं गोमयच्छत्रे गोग्रन्थिः शुष्कगोमयम् । करीपश्छगणो हंभा रेभणं च गवां ध्वनौ ॥ ४५९ नैचिकं गोः शिरोदेशो वन्दनीया तु रोचना । मन्थानमन्धतक्राटाः स्यादुष्टः कण्टकाशनः ॥४६० लम्बोष्टाध्वगवासन्तकुलनाशमरुद्विपाः । भोलिबहुकरो वक्रग्रीवो मेषस्तु लोमशः ॥ ४६१ १ 'कटः' ख-ग-व. २ 'स्थानः' क-ख-ग, 'स्थागः' घ. ३ 'शतानकम्' क-घ. ४ 'चित्यं' ख-ग. ५ 'खवि' घ. ६ वारुट' घ, 'वारुच्छ' ख-ग. ७ 'प्रामीत्य' घ, 'प्रमात्य' क-ख-ग. ८ 'कलाम्बिका' घ. ९ 'चण्डिकातनी' क-ख-ग. १० 'पुरीपमो' घ. ११ 'क्वणनो' घ. १२ 'खरसोन्दः' घ. १३ 'गृहणी' क. १४ 'काण्डोलं' क. १५ 'पिप्पडा ख-ग. १६ 'वायने घ. १७ 'करः' घ. १८ 'प्राग्लीढं' ख-ग, 'प्राग्राढं चाधनं घ. १९ 'कवकं' क-ख-ग, 'कराक' व. For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ काण्डम्-१० शूद्रवर्गः । संफालहुडभेडाश्च मेषी स्याज्जालकिन्यविः । वर्करस्तु लम्बकर्णश्छागो वस्त: शिवाप्रियः ॥ ४६२ अल्पायुर्लघुकायश्च मेनादः पर्णभोजनः । परिक्रमसहो बुको देवानांप्रिय इत्यपि ॥ ४६३ छागी सञ्जा चुलुम्पा स्याच्छङ्कुकर्णस्तु गर्दभः । स्मरस्मर्यश्चिरमेही ग्राम्याश्वो रेणुरूषितः ॥ ४६४ पशुश्चरिः शुद्धजङ्घो रत्नं चारुशिला मणिः । स्वाध्यायी पत्तनवणिरहे 'डावुकोऽश्वविक्रयी ॥ ४६५ सर्वमूल्यं द्यूतवीजं हिरण्यं च कपर्दके । वराटकः पणास्थि स्याद्भास्करः स्फटिकोपलः ॥ ४६६ शालिपिष्टं धौतशिलं गल्बर्कश्च सुसाग्वत् । मसार इन्द्रनीलः स्याद्वैडूर्य वालवायजम् ।। ४६७ बालसूर्यमथो रक्तकन्दलो विद्रुमश्च सः । लतामणिः प्रवालः स्याद्राजपट्टो विराटजः॥ ४६८ कुंरुविन्दः पद्मरागो दधीचास्थि तु हीरकम् । स्वर्ण लोहवरं चाग्निवीजं चाम्पेयमित्यपि ॥ ४६९ रूप्ये श्वेतं रङ्गवीजमिन्दुकान्ते मणीचकम् । ताम्रकं तु लोहितायः सूर्याङ्गं मुनिपित्तलम् ॥ ४७० कंसे तु कांस्यकंसास्थिताम्रार्धमथ मौक्तिकम् । रसोपलं शुक्तिबीजं सिन्दूरं रक्तवालुकम् ॥ ४७१ पारदः सिद्धधातुः स्यादरवीजं च सूतकम् । रङ्गं सुरेभं मृद्वङ्गं कुसुम्भं ग्राम्यकुङ्कुमम् ॥ ४७२ हरिताले तु कयूं गोनर्दो नटसंज्ञकः । दारदं तु हिङ्गुलु स्याद्धिगुलं रक्तपारदम् ॥ ४७२ रसगन्धो गन्धरसो गन्धोरं मसिवर्धनम् । क्षारस्तु स्याद्यवक्षारो यवशूकश्च रेचकः ॥ ४७४ शिलाजतु शिलाव्याधित्रिफला तृफलापि च ॥ ४७५ इति वैश्यवर्गः ॥ ९॥ शूद्रस्तु पादजो दासो ग्रामकूटो महत्तरः । मालिकः पुष्पलावः स्यात्कुम्भकारस्तु मृत्करः ॥ ४७६ दण्डभृत्पलगण्डस्तु सुधाजीवी च लेपकः । कायस्थे कूटकृत्पञ्जीकरश्चित्रकरे कृणुः ॥ ४७७ चर्मरः कुरटः पादूकुकलादस्तु गौञ्जिकः । नाडिंधमः स्वर्णतालो वात्सीपुत्रस्तु नापितः ॥ ४७८ चन्द्रिलो नखकुट्टश्च रजकः कर्मकीलकः । कल्यपाल: पानवणिग्देवलस्त्वमरद्विजः ॥ ४७९ अजाजीवस्तु जावालो निष्कश्चण्डाल उच्यते । कुकुरे दीर्घसुरतवान्तादरसनालिहः ॥ ४८० रतत्रणो ग्राममृगस्तथेन्द्रमहकामुकः । कपिलो वक्रपुच्छश्च शयालुरग्तत्रपः ॥ ४८१ शुन्याः स्तन्यं शुनीरं स्याञ्चौरः शङ्कितवर्णकः । स्यात्कुम्भिलश्च प्रचुरपुरुषोऽथ कुजम्भिलः ॥ ४८२ सुरङ्गाहिरधश्चौरो वन्दीकारस्तु माचलः । प्रसह्य चौरश्चिल्लाभः स्त्रीचौगे रतहिण्डकः ॥ ४८३ काव्यचौरश्चन्द्ररेणुः कुड्यच्छेद्यं तु खानिकम् । संधिः सुरङ्गा तद्भेदाः श्रीवत्सगोमुखादयः ॥४८४ कपाललासिका तर्कुस्तकुशाणस्तु झामकः । वर्तनी तर्कुपीठी स्यापिञ्जनं तूलकार्मुकम् ॥ ४८५ तूलः पिचुः पिच तुलं पिञ्जिका तूलनालिका । त्रिषु द्वारापणं सूत्रपर्ण यत्तेन वेष्टयते ॥ ४८६ निर्वेटनं नाडिचीरमेकाष्टी तूलशर्करा । तत्रकाष्टं तुरी स्त्री स्याद्रीष्महासेन्द्रतूलके ॥ ४८७ पन्नद्री पादुका प्राणहिता पादरथीत्यपि । कारावी जङ्गमकुटी भ्रमत्कुट्यथ खर्परा ॥ ४८८ रारित्रा मूर्धखोलं च सैव पत्रपिशाचिका । वासी तु तक्षणी न स्त्री क्रकचं पत्रदारकः ॥ ४८९ मद्यं वरिष्टं मैरेयं कत्तोयं कापिशायनम् । माध्वीकं मधुमाध्वीकं कपिशी काचमालिका ॥ ४९० वीरा दैत्या प्रसन्ना च माधवी गन्धमादनी । गौडी च वाल्कली मध्वासवपकरसौ नरौ ॥ ४९१ १ 'भासुरः' व. २ 'अश्मसारस्त्विन्द्रनीलो' घ. ३ 'वैदूर्य' घ. ४' कुरुविल्लः' घ. ५ 'कूटवित्' क-ख-ग. ६ स्वर्णकारो' घ. ७ 'रतहिण्डिकः' क-ख-ग. ८ 'कपालपासिका' क, 'कपालनालिका' व. 'कोसलासिका' इति योग्यम्, ९ 'सामकः' घ. For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० अभिधान संग्रह :- -२ त्रिकाण्डशेषः । नलिनी नारिकेलस्य सुरा तालस्य तालकी । स्मरासवं मुखसुरं पारी स्त्री पानभाजनम् ॥ शुण्डापानं मदस्थानं द्यूतकृत्कृष्णकोहलः । देवसभ्यस्तु सभिको लग्नकस्तृणमत्कुणः || चक्षुरी तिन्तिडीद्यूते पचनी शारिशृङ्खला । अष्टकाङ्गं नयपीठी नयस्तु जतुपुत्रकः ॥ इति शूद्रवर्गः ॥ १० ॥ इति त्रिकाण्डशेषे द्वितीयं काण्डम् । ४९२ ४९३ ४९४ तृतीयं काण्डम् | ४९५ ४९६ ४९७ ५०४ क्षेमंकरोऽरिष्टतातिः स्वद्भकरशंकरौ । आमुष्यायणनिजतौ पुत्रान्नादः कुटीचकः ॥ स्वपुटं विषमं संचारजीवी शरणार्पकः । अभिपन्नः शरण्यार्थी पाण्डुष्पृष्टस्वलक्षणः ॥ उद्भटोड्डामरोत्ताला आविष्टः प्रेतवाहितः । प्रेङ्खोलितस्तरलितस्तृषितस्तर्षितः सतृट् ॥ ऊर्ध्वयोर्ध्वदम तुल्य ग्राम्यो ग्रामेयकः स्मृतः । पराचीनः प्रतीपः स्यात्समीचीनः समञ्जसः || ४९८ स्वस्थानस्थः परान्द्वेष्टि यः स गोष्ठव उच्यते । दाता तु दारुर्मुचिरः स्याद्विदग्धस्तु नागरः ॥४९९ पिङ्गो व्यलीकः पट्प्रज्ञः कामकेलिर्विदूषकः । पीठकेलिः पीठमर्दो भविलश्छिदुरो विटः || ५०० safariust मेधावी मेधिरः समौ । युक्तं परिमिते भीमं त्वाभीले प्रथमः || ५०१ farasara आ याच्छिरस्थो नायकः स्मृतः । स्यादायः शूलिकस्तीक्ष्णकर्मा शोचोऽन हंकृति: ५०२ कुसृत्या विभवान्वेषी पार्श्वकः संधिजीवकः । वाक्याभिधायी पुरुषः पृष्टमांसाद उच्यते ॥ ५०३ भार्याटः स्वस्त्रिया दातान्नार्थं दूषकपांसनौ । धृष्णुर्धृष्णग्दधृग्धृष्टो दशेरः सुप्तधातुकः ॥ देशकः शासिता शास्ता शिक्नुव्यवसायवान् । चकितः शङ्कितो भीतः प्रतियत्नः प्रयत्नवान् ||५०५ आधर्मिकाधार्मिकः स्यात्प्रसृतान्तरितौ समौ । कृपणो दृढमुष्टिः स्याद्देवयुर्धार्मिकः सुकृत् ॥ ५०६ मैनःस्मयो मनोज्ञः स्याचक्षुष्यः प्रियदर्शनः । लडहं भद्रकं न्यूई लगडं चारु बन्धुरम् || ५०७ भट्टारो भगवान्पूज्यः शक्तिप्रतिबलौ समौ । पटुः पाटविको धूर्तः स्थगस्तीक्ष्णस्तु राजधः || ५०८ संबन्धी गुणवान्संयुग्मित्रयुर्मित्रवत्सलः । धर्मार्थकाममोक्षेषु लोकतत्त्वार्थयोरपि ॥ ५०९ षट्सु प्रज्ञास्ति यत्योच्चैः स षट्प्रज्ञ इति स्मृतः । मध्यस्थस्तु विष्टः स्याद्भुग्नपृष्टस्त्वसंमुखः ॥ ५१० स्यात्ककथिकः प्रष्टा विचक्षुर्विमनाः स्मृतः । प्रतारितो व्यंसितः स्यात्प्रोव्यस्तु प्रार्थितो मतः || ५११ माशब्दिकः प्रतिषेद्धा जडमातृमुखौ समौ । प्राणं पुराणं भिन्नं तु व्यवच्छिन्नं विशेषितम् ॥ ५१२ विनाकृतं विरहितं मुक्तं निर्व्यूढमुच्यते । तिक्तः कषायः सुरभिः कक्खटो निर्भरो दृढः || ५१३ निःसंधिश्च निवातश्च समूढं शोधितं समे । स्यादागन्तुकमाहार्य समे पक्रिमपाकिमे ॥ ५१४ कोमलं पेलवं पापे धमापसदबुवा: । रोमाञ्चितो हृष्टरोमा आजानेयास्तु निर्भयाः || ५१५ अन्यासाधारणं त्वावेशिकं प्रतिष्ठितं च तत् । भिन्नकः क्षपणोऽहीको बौद्धो वैनाशिकः स्मृतः ५१६ और्ध्वस्रोतसिकः शैवः कौल आन्वयिकः स्मृतः । पाञ्चार्थिकः पाशुपतश्चिद्रूपः स्फूर्तिमान्मतः || ५१७ प्राज्ञ उद्घाटितज्ञः स्याच्छंव शंयुशुभंयवः । गौरवितास्वार्यमिश्राः श्राध्ये तत्रभवन्मुखाः ॥ ५१८ स्याद्देवानांप्रियः क्षेपे हतको बन्धुदग्धवत् । अणुः कनीयानल्पिष्टः पिण्डितं गुणितं हतम् || ६१९ For Private and Personal Use Only १ 'विज्ञाती' घ. २ 'कुसृष्टया' क ख ग ३ 'शिकः' व. ४ 'मनआपो व. ५ 'निसृष्टः ' घ ६ 'स्तु संमुखः ' घ. ७ 'विवक्षुः ' क ख ग ८ 'लते' घ. ९ 'प्रातिस्विकं ' क, 'प्रातिष्ठिकं' ख-ग. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् -२ संकीर्णवर्गः । २१ पवारूढोऽविनीतः स्यान्मरालमसृणे समे । प्राञ्जलः प्रगुणोऽजिहा: प्राणाय्यः साध्वनिन्दितः ५२० त्वं त्वद्भिन्नं चान्यतरदपलमपष्ठु च । करम्बितं तु खचितं रूषितं त्ववगुण्ठितम् ॥ स पात्रेसमितोऽन्यत्र भोजनान्मिलितो न यः ॥ ५२१ ५२२ इति विशेष्यनिघ्नवर्गः ॥ १ ॥ विधिविधानं कर्म किया कृत्या विधा कृतिः । व्याप्यं तु साधनं कर्म युताजर्ये तु संगतम् ५२३ अङ्गारितं पाशानां कलिकोद्गमने मतम् | जलयन्त्रगृहं धीरैः समुद्रगृहमुच्यते ॥ ५२४ ५२५ ५२९ ५३० I हुडं च विदुः खल्पे सोमालं कुसुमाकरे । स्तनाभोगः स्तनभरः परभागः स्वसंपदि ॥ आलिङ्गनं बैंङ्कपालिः श्रिषा खट्टिस्त्वसग्रहः । स्यादज्ञेऽनेकः सग्धिः सहभोजनमित्यपि ॥ ५२६ 'धार्मिकाणां तु संभूय भोजनं गणचक्रकम् । क्रीडाक्रीडकयोश्च सेवायां सेवके च सः ॥ ५२७ दानं दायोऽथ दुर्जातं दुःषमं चासमञ्जसम् । कलञ्जौ तौ विषास्त्रेण हतौ यौ मृगपक्षिणौ ।। ५२८ छेकोक्तिर्वक्रभणितं गोमुखं तूपलेपनम् । वर्धापनार्थं यत्पूर्णपात्रं पूर्णानकं च तत् || थुत्युको विक्रियामात्रादुद्भटायनमुच्यते । बुद्धद्रव्यं स्तौपिकं स्यात्सर्व द्रव्यं च वस्तु च ॥ लेशस्तुपपदं गन्धोऽनुबन्धेषकरावपि । छेद: खण्डोऽस्त्रियां गालिः शपनं शमनं शमः || ५३१ वस्तु धूलिकेदारः सा वीतिर्भक्षणं न सा । मैत्रेयिका मित्रयुद्धं पर्यङ्कस्ववसक्थिका ॥ ५३२ अथ हेतुरुपादानं प्रत्ययाः सहकारिणः । अनुमा वनुमानं स्याद्व्याप्यं लिङ्गं च साधनम् ॥ ५३३ प्रत्यक्षोपाध्यक्षं धन्धो धान्ध्यमपाटवम् । बोधो बोधिः समज्ञा तु ज्ञानं स्यात्समुदागमः || ५३४ ऋषिः शास्त्रकृदाचार्यः शास्त्रं तु स्मृतिरागमः । सांख्यं समीक्ष्यं स्याद्दिव्यदोहनं तूपयाचितम् ५३५ करणिं रूपमिच्छन्ति स्यादास्फाले झलझला । रामेण रावणवधी रामायणमथोच्चयः ॥ ५३६ वस्त्रग्रन्थिञ्च नीवी च मणितं रतकूजितम् । श्वोऽवपातो दृल्लेखस्तर्कचीर्ण तु शीलितम् ॥ ५२७ एकीयाएकपक्षाः स्युः सहीयाः सहभाविनः । कुलीरात्स्येगविर्जनपदा राष्ट्रनिवासिनः ॥ प्रत्यक्षव्यक्तदृष्टार्थश्चाथ वर्तनतर्कुटे | चिररात्रं दीर्घरात्रमामिक्षा भस्तु वाजिनम् ॥ तदा प्रमुख राजमल उत्सिक्त उद्धतः । द्वैधं विवाद आरम्भ आदराडम्बरार्थकः ॥ रभसो गमकारित्वं कौमुदी कार्तिकोत्सवे । आवेशाटोपसंरम्भाः प्रियवाक्चटुचाटुनी ॥ प्रतिरूपं प्रतिच्छन्दः संवेशन रतिक्रिये । अभ्यासः खुरली योग्या निर्वर्णननिभालने || शालिनीकरणं न्यग्भावनं गन्धनसूचने । भावः पदार्थो धर्मः स्यात्सत्त्वं तत्त्वं च वस्तु च ॥ ५४३ संदर्भस्तु प्रबन्धः स्याग्रन्थो द्वात्रिंशदक्षरी । सर्गबन्धी महाकाव्यं महारूपकनाटके ॥ ५४४ अथ वाङ्मयभेदाः स्युचम्पूः खण्डकथा कथा | आख्यायिका परिकथा कलापकविशेषकौ ॥। ५४५ संदानमनिरुद्धं च प्रकीर्णे गुच्छकादि च । सर्ग वर्ग: परिच्छेदोहयोताध्यायाङ्कसंग्रहाः ॥ ५४६ उल्लासः परिवर्तश्च पटलः काण्डमस्त्रियाम् । स्थानं प्रकरणं पर्वाह्निकं च ग्रन्थसंधयः ॥ ५४७ प्रज्ञप्तिः परिभाषाशैलीसंकेत समयकाराश्च । प्रतिवाणिः प्रतिवचनं समुदाचारस्त्वभिप्रायः || ५३८ ५३९ ५४२ For Private and Personal Use Only ५४० ५४९ ५४८ १ इदमर्धपद्यं क ख ग. पुस्तकेषु 'धार्मिकाणां तु' इत्यतः प्राक्पठितम्. २ 'जलहं तु' घ, 'लहुमं' ख-ग. ३ 'अङ्गपालि:' व ४ 'दोःस्थः ' व ५ 'सः' घ. ६ 'वार्थायनातं' घ, 'वधापकाष्टं' क ख ग ७ 'अवसाविका' खग. ८ 'दैविध्यं द्विविधं वाधि क ख ग ९ 'सर्वत्रन्धो' व 'सर्वगन्धो' ख-ग. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २२ www.kobatirth.org अभिधान संग्रह::-२ त्रिकाण्डशेषः । अप्रतिरूपकथा स्यात्संगणिका छोरणं परित्यागः । स्यादुद्वर्तनमन्तर्हास स्त्रिषु पिण्डमाहारः ॥ अध्यवसर्गः प्राकाम्यं स्वाच्छन्द्यानुमननमित्यपि च । आकल्पक उत्कण्ठा चिन्ताकर्मण्यथास्यानम् ॥ आक्षेपोऽत्याकारः स्वाध्यायः स्यान्निरन्तराभ्यासः । हर्षस्वनः किलकिला सदृशस्पन्दस्तु निस्पन्दः ॥ अवसानं तु विरामोऽमध्यमथो मण्डलं चक्रम् । स्वादारम्भः प्रस्तावना तदामुखमपि ज्ञेयम् ॥ इति संकीर्णवर्गः ॥ २ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ५४९ ५५० ५५१ ५५२ ५५३ स्वरकाद्यादिकाद्यन्तक्रमान्नानार्थसंग्रहम् । विहायामरकोषोक्तमकार्षीत्पुरुषोत्तमः ॥ शक्रार्कपर्णयोश्चार्कोऽभीकस्वभयकामिनोः । रूपकान्तिकयोश्चाङ्कोऽलिमको भेककौकिलो ५५४ अन्तिकं निकटं चुलिर्नाक्योक्तौ चात्रजान्तिका । अनीकोऽस्त्री रणे सैन्ये गौर्या मातरि चाम्बिका | स्यादश्मन्तकमुद्धाने मल्लिकाच्छदनेऽपि च । आह्निकं दिननिर्वर्ये तक्लीवं नित्यकर्मणि ॥ ५५६ स्वादाच्छुरितकं हासविशेषे च नखक्षते । उदर्क एष्यत्कालीयफले मदनकण्टके ॥ ५५७ स्त्रियामुत्कलिका हेलोत्कण्टासलिलवीचिषु । कोशज्ञे कौशिको विश्वामित्रे गौ च कौशिकी ५५८ कृष्णले च हिमान्यां च गौरीकाल्योश्च कालिका । वर्षोपले स्त्री करका करके करकोऽस्त्रियाम् ||५५९ कुसुम्भे दाडिमे पक्षिभेदे च करकः पुमान् । करमध्याङ्गुलौ च स्यात्कर्णिकार द्रुमान्तरे ।। ५६० द्विष्टे च काकः स्यात्कौतुकं मङ्गलेच्छयोः । भोग्येऽप्यथ स्यात्कुलकं श्लोकैकार्थ्यपटोलयोः ५६१ कुलको नाककान्दूक आत्मा च सुखं च कम् । पेचकस्त्रीजितौ काकरूकौ कौलेयकः शुनि || कुलीने चाथ कनकं धत्तूरे नागकेसरे । चम्पके किंशुके हेनि कृषकौ फालकर्षकौ ॥ रोमाचे क्षुद्रशत्रौ च द्रुमाङ्गे कण्टको ऽखियाम् । राजधान्यां नितम्बेऽदेवलये कटकोऽस्त्रियाम् ॥ ५६४ वेणौ ना कार्मुकं चापे गुणवृक्षेऽपि कूपकः । केल्को विभीतके तैलादिशेषे चाथ कशुकः ।। ६६५ निर्मोके चोलके वारवाणेऽथ कुशिको मुनौ । शाले किष्कुः प्रकोष्ठे ऽपि व्याख्याश्लोकेऽपि कारिका ॥ खगे यमे छद्मविप्रे कङ्कः सूच्यां च कूचिका । क्रमुको भद्रमस्तेऽपि कोक के वृकेऽपि च ५६७ पुनर्नवाकारवेल्लपर्णासेषु कठिल्लकः । कृकवाकुर्मयूरेऽपि वंशे दैये च कीचकः ॥ ५६८ ५६३ 1 पिलको सूत्राणे नाकौ च खोलकः । चौरोन्दुरू च खनको गोलको मणिजारजौ || खगे नग्ने च गोरङ्कुः संख्याभेदेऽपि गण्डकः । शृङ्गयां च ग्रामयुद्धे च ग्राममद्गुरिका स्त्रियाम्५७० गान्धिको लेखकेऽपि स्याद्गृह्यकरछेकनिन्नयोः । ग्रन्थिकौ पार्थदैवज्ञौ प्रथिपर्णे च न द्वयोः ॥५७१ वेश्यायोश्च गणिका चपकं सरकेऽपिच । कण्ठालंकारखद्योतविद्युत्सु चिलमीलिका ॥ ५७२ चारको भोजके बन्धे नाटकाङ्गेऽपि चूलिका | चित्रकं चित्रके क्लीवं व्याघ्रैरण्डौ च चित्रकौ ॥ गृहासते पक्षिमृगे छेको नागरके त्रिषु । कम्बौ जलकरङ्कः स्यान्नारिकेलफलेऽपि च ।। ५७४ १ 'मालुकाछदने' क-ख-ग. २ 'कल्पे' क. ३ अनेकार्थकैरवाकरकौमुद्यां तु 'फाले' इति मूलं पठिला "फाले यथा--' दारयन्कुशिकेनोर्वीम्" इति व्याख्यातम्. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् – ३ नानार्थवर्गः । २३ ५७६ ५८२ ५८६ ५८८ ५८९ ५९० जैवातृकः कृशे चन्द्रे दीर्घायुषि च स त्रिषु । जालिका वस्त्रभित्कूटकृत्कैवर्तौ च जालिकौ ५७५ जङ्घायामद्रिभित्तौ च खनित्रे प्रावदारणे । कपित्थे चास्त्रियां टङ्कष्टण्टुकावल्पशोणकौ ॥ तिलकं चित्र कोनि ना तरौ तिलकालके । गृहदारौ तण्डकोऽस्त्री समासप्रायवाचि च ॥ ५७७ तुरुष्कः सिह के देशे प्राण्यङ्गे त्रितये त्रिकम् । कूपाने स्त्री तिक्तशाकः खदिरे वरुणद्रुमे ॥ ५७८ दैये ना कर्णधारे च तारकं दृशि भे न ना । द्विकौ काकचक्रवाकौ पृश्यां कन्दे दलाढकः ॥ ५७९ नरको निरये ये नौवाहे स्यान्नियामकः । सभ्ये गुरौ च नवफलिका नवरजस्यपि ॥ ५८० नालीकौ पद्मनाराचौ वृन्देऽपि पेटकोऽखियाम् । सौभाग्येऽपि पताका स्यात्पङ्कोऽखी कर्दमांहसोः ॥ पञ्चालिका वस्त्रकृतपुत्रिकागीतभेदयोः । मणिदोषे शिलाभेदे पुलको लोमहर्षणे । पर्यस्त्यामपि पल्यङ्कः प्रियको मृगनीपयोः । पुष्पकं कंकणेऽपि स्यात्पराको व्रतखङ्गयोः || ५८३ चामरे ग्रन्थभेदे च विस्तरेऽपि प्रकीर्णकम् । सितच्छत्राब्जयोः पुण्डरीकं पुंसि तु दिग्गजे ॥ ५८४ व्याघ्रे च कोषकारे च पाकौ पचनशावकौ । पुष्कलको गन्धमृगे कीलके क्षपणेऽपि च ।। ५८५ कपर्दरज्जुराजीवबीजकोषे वराटकः । वृन्दारकौ सुरश्रेष्ठौ गिरिमेघौ बलाहकौ || पिञ्जे ना सिकता कर्णभूषा कन्या च वालिका । शिवमल्लयां बकः कहे राज्ञि भट्टारकः सुरे || ५८७ भूमिका रचनायां च मूर्यन्तरपरिग्रहे । मधुका वल्लिभेदे च बहिचन्द्रे च मेचकः ॥ हारभेदे माणवको वाले कुपुरुषे वटौ । मयूरकोऽपामार्गे च हंसभेदेऽपि मल्लिका ॥ युतकं वस्त्रभेदे च यौतके संशयेऽपि च । यमकं संयमे शब्दालंकारे यमजे त्रिषु ॥ याज्ञिको याजके दर्भे बिले रोकं रुचौ पुमान् । राका दृष्टरजःकन्या कच्छूः पूर्णेन्दु पूर्णिमा || ५९१ नीलवस्त्रेऽक्षितारायां लोचको निर्मतौ त्रिषु । नगरीशाखयोर्लङ्का करिण्यामपि बन्धकी ॥ ५९२ गुप्तावनाथे गरुडे जिने वने विनायकः । वृषाङ्कौ शिवमल्ला वञ्चकौ धूर्तफेरी ॥ वैदेहको वाणिजके वैश्यायामपि शूद्रजे । वैलक्ष्याकार्ययोः क्लीवं व्यलीकं त्रिषु नागरे ॥ ५९४ 1 वाल्हीकं बाल्हिकं धीरहिङ्गुनोर्नाश्वदेशयोः । विपाकः परिणामेऽपि तिलकेऽपि विशेषकः ॥ ५९५ शङ्कः : कीलकसंख्यास्त्र जलजन्तुषु दृश्यते । शिशुकः शिशुमारेऽपि शुकं ग्रन्थिशिरीषयोः ॥ ५९६ कीरे रावणपात्रे ना वचापि शतपत्रिका | शल्कचूर्णेऽपि शुकस्तु स्यादनुक्रोशशुङ्गयोः ॥ ५९७ शिलातको विट्टे शुल्को यौतकदानयोः । श्वाविद्वृक्षश्च शलक्यौ मणिखङ्गे च सस्यकः ५९८ शीघ्रौ च शीधुपाने च सरकोऽख्यथ जन्मनि । सूतकं पारदेऽप्यस्त्री सूचकौ खलकुक्कुरौ ॥ ५९९ युग्मे संघाटिका कुट्टन्यां च गद्येऽपि हारकः । वाद्यभेदे हुडुक्कः स्याद्दात्यूहे च मदोत्कले ।। ६०० इन्दुरेखा गुडूच्यां च पूः सुखं स्वर्नभश्च खम् । गोमुखं लेपने वाद्यभाण्डे सर्वेऽपि दुर्मुखः || ६०१ त्रिशिखं स्यात्रिशूलेऽपि न्यूङ्खः सान्नि मनोरमे । नखं शुक्त कररुहे कूर्मे पञ्चनखो गजे ॥ ६०२ आदौ प्रधाने प्रमुखं वैशाखो मन्यमासयोः । काण्डे ना विशिखा रथ्या विशाखा भे गुहे पुमान् ॥ लेखो देवेऽपि पङ्कौ स्त्री शिखा चूडाप्रयोरपि । शाखा वेदविभागेऽपि सखा मित्रसहाययोः ||६०४ सुमुखस्तार्क्ष्यपुत्रे च शोभनास्यगणेशयोः । सुमुखी शोभनास्याथापवर्गस्यागमोक्षयोः || ६०५ शरीरोपायाप्रधानेष्वङ्गं पुंभूनि नीवृति । संबोधनेऽङ्गाव्ययं स्यादयोगो विधुरेऽपि च ॥ शपथेऽप्यभिषङ्गः स्यादनङ्गं खे स्मरे पुमान् । पूर्णत्वयत्नावाभोगावायोगो व्यापृतावपि ।। ६०७ १ 'गृहकारौ' क-व-ग. २ ख-ग-पुस्तकयोरिदं पादद्वयमधिकं वर्तते. ५९३ ६०६ For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । जङ्गमेङ्गितयोरिङ्गो नाट्य ईहामृगो वृके । फलं पूगस्य चोद्वेगमुत्सर्गो न्यायदानयोः ॥ ६०८ सामान्येऽप्युपरागस्तु ग्रहेऽन्द्वोश्च दुर्नये । हस्तच्छेदे तु सस्यानां कटभङ्गो नृपात्यये ॥ ६०९ कथाप्रसङ्गो बातूले विषवैद्य च वाच्यवत् । देशे कलिङ्गो धूम्याटे कलिङ्ग कौटजे फले ॥ ६१० त्रिषु दक्षे विदग्धे च खड्गी निस्त्रिंशगण्डको । स्वर्गे वने च रश्मौ च बलोवर्दे च गौः पुमान् ६११ स्त्री बाणरोहिणीदग्धी दिग्वाग्भूष्वासु भूम्नि च । वैधव्ये नृपनाशे च छत्रभङ्गः प्रकीर्तितः ॥६१२ अश्वगन्धापि तुरगी तुङ्गो नागसोच्छयौ । दीर्घाध्वगः स्यादुष्टेऽपि निषतः सङ्गतणयोः ॥६१३ नागः श्रेष्टेभसपु क्लीवं सीसकरङ्गयोः । वृक्षे स्यात्पुंसि नागः पतङ्गः शलभे रवौ ॥ ६१४ काकोदुम्बरिकायां स्त्री फल्गुस्त्रिषु निरर्थके । पालने व्यवहारे च निर्वेशे पण्ययोषिताम् ॥ ६१५ भोगः सुखे धने चाहेः शरीरफणयोरपि । भगं वैराग्ययोनीच्छाज्ञानेश्वर्येषु चेष्यते ॥ ६१६ तरङ्गभेदयोभङ्गो भङ्गा सस्ये शणाह्वये । एकदेशांशयोर्भागो भृङ्गो धूम्याटके ऽपि च ॥ ६१७ भुजंगो भुजगे पिङ्गे जामदग्न्यतटौ भृगू । मृगोऽन्विष्टौ च मार्गस्तु मासान्वेषणवर्त्मसु ।। ६१८ योगवारेऽपूर्वलाभे सूत्रे विस्रब्धघातिनि । उपाये संगतौ ध्यानौषधसंनाहयुक्तिषु ॥ ६१९ नृत्ये रणे खले रागे रङ्गः क्लीवे त्रपुण्यपि । रागः क्लेशादिके रक्ते मात्सर्ये लोहितादिषु ॥ ६२० चक्रे रथाङ्ग कोके ना रक्ताङ्गो मङ्गलेऽपि च । व्यक्ते सांख्योदिते लिङ्गं स्थाणौ शेफसि लक्षणे ६२१ पुंस्वादौ च वराङ्गं तु गुडत्वचि गजे पुमान् । वल्गुच्छागेऽपि वेगस्तु महाकालफलेऽपि च ॥ ६२२ अलोरक्षेपे समुद्रेऽपि शृङ्गमुत्कर्षचिह्नयोः । शार्ङ्ग धनुर्विष्णुधनुः संभोगो रतभोगयोः ॥ ६२३ ओघः स्यातनृयेऽपि काचिघौ काञ्चनोन्दुरू। निदाघौ स्वेदतापौ च प्रतिधा रोषघातयोः ६२४ परिघो योगभेदेऽपि मेघो वारिदमुस्तयोः । महाघस्तु महामूल्ये पुंसि लावकपक्षिणि ॥ ६२५ पृकायां स्त्री लघुः क्लीवं शीने कृष्णागुरुण्यपि । प्रतिमापूजयोरों क्रौञ्चः पक्ष्यद्रिभेदयोः॥ ६२६ कर्चमस्त्री भ्रुवोर्मध्ये श्मश्रुकैतवयोरपि । इभ्यां स्त्री गुरुपुत्रे ना केशे शुष्कत्रणे कचः॥ ६२७ देशभेदेऽपि काची स्यादथ स्थासकतर्कयोः । चर्चिकायां च चर्चा स्यात्त्वक्त्री चर्मगुडत्वचोः ।।६२८ वामने पामरे नीचो नमुचिदितिजे स्मरे । मरीचिमुनिभेदेऽपि चौग्वह्री मलिन्लुचौ ॥ ६२९ ककोलेऽपि च मारीचो मोचा शाल्मलिगम्भयोः । कुकुरे रतनारीचः शीकारे वरयोपिताम् ६३० केतुग्रहे तु विकचो वीचिः सुखतरङ्गयोः । स्वल्पेऽपि शारिकायां च वचा ग्रीष्मामलौ शुची॥६३१ सूची नृत्यप्रभेदे च व्यधनीशिखयोरपि । वाराही चीरिका कच्छा कच्छोऽनूपे द्रुमान्तरे ॥ ६३२ पिच्छा स्त्री भक्तमण्डेऽपि लाङ्गले पिच्छमस्त्रियाम । पद्मधन्वन्तरी चाब्जावण्डजः खगमीनयोः ।। निचुलेऽप्यम्बुजोऽजस्तु ब्रह्मविष्णुस्मरेष्वपि । स्यादङ्गजः स्मरे केशे पुत्रे रक्त नपुंसकम् ॥ ६३४ उत्साहकार्तिकावूर्जी कम्बोजो देशशङ्खयोः । नखे करले करजः कुब्जो न्युटने दुमान्तरे ॥ ६३५ खनौ सुरागृहे गा गु पटहकृष्णले । जघन्यजोऽनुजे शूद्रे जलजं शङ्खपद्मयोः ॥ ६३६ चिह्नशेफ:पताकासु खटाङ्गेऽपि ध्वजोऽस्त्रियाम् । नीरजं कमले कुष्ठे पिता हिंसाहरिद्रयोः ॥ ६३७ भरद्वाजो गुरोः पुत्रे व्याघाटाख्ये च पक्षिणि । बुधैः ख्यातो भरद्वाजो द्रोणाचार्ये मुनावपि ६३८ भृङ्गराजः खगोषध्योर्लङ्घने मुनिभेषजम् । आगस्त्यहरीतक्यां च रुजा स्याद्रोगभङ्गयोः ॥६३९ मुस्तेऽपि वनजो बीजं रेतस्तत्त्वार्थहेतुषु । व्याजः शाठ्येऽपदेशे च स्वेदरक्तात्मजाः स्वजाः ६४० १ लटे' क-ख-ग. २ 'विल्य' क-ख-ग. ३ 'खगाशे क-ख-ग. ४ 'भारद्राजो' हममेदिन्योः . For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३ काण्डम् — २ नानार्थवर्गः । २५ ६५२ ६५३ निसर्गे सहजः पुंसि सहोत्ये वाच्यलिङ्गकः । संनद्धसंभृतौ सज्जा हिमजा पार्वती शची || ६४१ अज्ञत्रिषु जडे मूर्खे कृतज्ञः कुकुरेऽपि च । संज्ञा सूर्यप्रियायां च सर्वज्ञः शंकरेऽपिच ॥ ६४२ अरिष्टं सूतिकागारे तक्रेऽपि च पुमांस्त्वयम् । काके निम्वे च लशुने गर्ते कूपे खिलेऽवटः॥ ६४३ अत्यर्थक्षौमयोरट्टः ऋताविष्टं प्रिये त्रिषु । केशटस्त्वोकणे विष्णौ कृपीठमुदरे जले || ६४४ पुंले कुण्डकीटः स्याज्जाराच ब्राह्मणीसुते । समये च क्रियाकारे किलि अशवयोः कटः ॥ ६४५ कोटिः संख्यापि करटो वाद्यभाण्डकुविप्रयोः । कुलीरे कर्कटो राशौ कृष्टिः कर्षे बुधे पुमान् ॥ ६४६ अप्रियेsपि कटुः कुम्भे कुटी ना भवने द्वयोः । सुरायां स्त्री कीकटस्तु निःखे देशे मितंपचे || ६४७ खेटः शङ्खाणके हीने गृष्टिर्धेन्वोषधीभिदोः । सूकरे पुंसि वृष्टिः स्यात्स्पर्धाघर्षणयोः स्त्रियाम् ||६४८ घोण्टा तु बदरे पूगे देहांशे वर्णने चटुः । निश्वासे दशनोच्छिष्टश्रुम्बे दन्तच्छदेऽपि च ॥ ६४९ परिमाणमुदोर्दिष्टिर्दिष्टः कालोपदिष्टयोः । धाराटौ चातकयौ कपाटेऽपि च निष्कुटः || ६५० कोटरेऽप्यथ पट्टः स्यात्फलके नृपशासने । प्रत्याख्याते प्रेषिते च प्रतिशिष्टं त्रिलिङ्गकम् || ६५१ पर्कटी लक्षवृक्षे च पूगादेश्च नवे फले । वटी त्रिषु गुणे पुंसि न्यग्रोधे च कपर्दके || वर्वट्यौ व्रीहिभिद्वेश्ये नदी भरतकामुक । मोरटं गोर्नवे क्षीरेऽङ्कोटपुष्पेक्षुमूलयोः ॥ क्लिष्टं म्लाने कुवचने मर्कटी शकशिम्यपि । लाटोंऽयुकेच देशे च व्युष्टं कल्ये त्रिभूषिते ॥ ६६४ पथि वस्तुनि वाटः स्याद्विकटं विवृतं वृहत् । वर्कराटः कटाक्षे च सीणां स्तननखक्षते || ६५५ भद्राप्रेषणविष्टिर्व कामगायनौ । विटोsविणे पिने मूषिके खदिरेऽपि च ॥ ६५६ प्राथल्लो श्रुतिकटः प्रायश्चित्तभुजङ्गयोः । स्फुटिः स्फोटे च कर्कट्यां हृष्टः प्रतिहतेऽपि च ॥ ६५७ वैश्याद्विजन्मजेऽम्बष्ठः पाठायूथिकयीः स्त्रियाम् । काष्ठा कालेऽपि कोष्ठस्तु स्वकीयेऽप्यथ सुध्वनौ || ग्रीवादेशेऽपि कण्ठः स्यात्कुष्ठं गौवधीभिदः । दात्यूहे कालकण्ठः स्याच्छिवखञ्जनयोरपि ।। ६५९ ज्येष्ठो मासि च वृद्धे च ज्येष्ठा व गृहगोधिका । अम्ब्ललोण्यां दन्तशठा ना जम्बीरकपित्थयोः ॥ प्रकोष्ठ बागेश वरिष्ठं मरिनेऽपि च । ताम्रे चोरुतरे चाथ मध्यस्थखलयोः शठः ॥ ६६१ शोठोsसे च मूर्खे च सूत्रकण्ठो द्विजन्मनि । कपोतविहगेऽपि स्यात्युभ्यां च प्रसभे हठः || ६६२ प्राण्यङ्गकोपयोरण्डं कूष्माण्डौ फलभिङ्गणौ । कुण्डं खातोखयोर्जारजे ना कुण्डी कमण्डलौ ॥ ६६३ सिंहोक्त स्त्री विषे वेड : पशौ क्रोडो न नोरसि । खण्डीऽस्त्री शकले नेक्षुविकारमणिदोषयोः ॥ ६६४ गण्डः कपोले पिटके श्रेष्ठे गण्डकयोगयोः । चण्डौषधिः खरश्चण्डो दण्डौ सैन्यार्कपार्श्वगौ ॥ ६६५ व्यथा कृपा च पीडे द्वे पाण्डुः कुन्तीपतौ सितं । पिण्डः सान्द्रे गृहांशेऽङ्गे पण्डः शण्ठे मतौ स्त्रियाम् ॥ स्वस्त्रे शस्ते प्रकाण्डोsaी बरण्डो वदनामये । समूहे चान्तरावेद्यां मण्डः स्यात्सारपिच्छयोः ॥ ६६७ एरण्डे मस्तुनि क्लीवं मार्तण्डौ खगदंष्ट्रिणौ । राहो दैत्यान्तरे मुण्डो मूर्त्यस्त्री मुण्डिते त्रिषु ॥ ६६८ rust स्याद्विधवौषध्योर्वितण्डा शाकभिद्यपि । शिखण्डौ तु शिखावह गुण्डा करिकरः सुरा ॥ आषाढो व्रतिनां दण्डे मासे मलयपर्वते । विचेष्टवालिशौ मूढौ राढा स्याद्दीप्तिदेशयोः ।। ६७० पण्डक किनौ शण्डौ समूढः पुञ्जिते नवे । भुग्ने निहलवेऽप्येष वाच्यलिङ्ग उदीर्यते ॥ ६७१ अरुणो भास्करेऽनूरौ मञ्जिष्टातिविषारुणा । त्रिष्वारक्ते व्याकुलेऽथ सूक्ष्मे ब्रीह्यन्तरेऽप्यणुः ॥ ६७२ १ 'शोणके' च. २ 'शपथे' व ३ 'चास्तरे' कन्खन्गन्ध, ४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । कोलकामाश्रिीमासु स्यादाणिवदणियोः । अभीक्ष्णं तु भृशे नित्ये स्यादिन्द्राणीन्द्रयोषिति ॥६७३ स्त्रीवन्धे सिन्दुवारे च चक्षुर्दर्शनमीक्षणम् । उन्मूलनेऽप्युद्धरणमुष्णं दक्षेऽपि ना तपे ॥ ६७४ साधने गीतनृत्यप्रभेदे कायस्थकर्मणि । करणं पुंसि संकीर्णे कल्याणं काञ्चने शुभे ॥ ६७५ कृष्णो वर्ण हरौ व्यासे कृष्णं मरिचकोलयोः । पिप्पली द्रौपदी कृष्णा हस्तसत्रेऽपि कङ्कणम् ॥६७६ श्रुतिराधेययोः कर्णः पिप्पल्यां जीरके कणा । कोणोऽश्री वाद्यलगुडे वधे हेतौ च कारणम् ॥६७७ ग्रहणं स्वीकृतौ हस्ते गुणः स्याद्रज्जुसूदयोः । अङ्गुष्टानामिकोन्माने गोकर्णोऽहौ मृगेऽपि च ॥ ६७८ नासिकाघ्राणयोर्घाणं चूर्ण गन्धयुतावपि । वेदांशे वढूचादौ च बुन्ने पादेऽपि चास्त्रियाम् ॥ ६७९ चरणश्चीर्णपर्णस्तु खर्जूरपिचुमन्दयोः । जेतरीन्द्रेऽर्जुने जिष्णुजूणिः कठिनपूगयोः ॥ ६८० तरुणः कुजपुष्पेऽपि त्राणं रक्षितरक्षयोः । द्युमणौ तरणिः पुंसि कुमारीनौकयोस्त्रिषु ॥ ६८१ काष्टागारेऽम्बुवाहिन्यां शैलसंधौ च योषिति । द्रोणी न स्त्री मानभेदे द्रोणः काके कृपीपतौ ॥ ६८२ दुर्वर्ण रजतेऽपि स्यादृणोऽलिः कच्छपी दुणी । दक्षिणा दिशि दाने च दक्षिणः सरलेऽपि च ॥ धर्षणी स्यादसती च धर्षणं निकृतौ रते । बुद्धमन्त्रे नाडिकायां धारणाय च मज्जने ॥ ६८४ निर्वाणं निर्वृतौ माक्षे प्रघणोऽस्त्रगृहांशयोः । बोले वाते बले प्राणः पूर्ण भून्नि चासुषु ।। ६८५ पर्ण पक्षे च पत्रे च प्रोक्षणं सेचने वधे । ग्रन्थे कार्षापणे चास्त्री पुराणमनवे त्रिषु॥ ६८६ पाणिः पादे व्यहपृष्टं वाणी व्यूतिश्च भारती । मन्त्रान्यवेदे विप्रौधे क्लीवं ना ब्राह्मणो द्विजे ॥ ६८७ लिङ्गाग्रेऽलिंजरे मौक्तिकादौ स्त्रीपुंसयोमणिः । अजागलस्तने चापि मसृणो मृहकर्कशौ ॥ ६८८ निःश्मश्रुपुरुषोदंशी मत्कुणावथ रोहिणी । नक्षत्रे रोहितायां च रणः कणनयुद्धयोः ॥ ६८९ लक्ष्मणा सारसी दाशरथिः श्रीमांश्च लक्ष्मणः।छागेऽपि लम्बकर्णः स्याद्वेणुवंशे नृपान्तरे॥६९० बाणा झिण्ट्यां शरे बाणो वृष्णिादवमेषयोः । कर्णे श्रुतौ च श्रवणं शरणं मारणेऽपि च ।। ६९१ श्रेणिः पङ्गौ सेकपात्रे न कीवं कारुसंहतौ । कर्षे माषचतुष्के च शाणः शोणो नदेऽरुणे ॥ ६९२ पक्के श्राणं यवाग्वां स्त्री श्रीपर्ण गणिकारिका । पद्मं च श्रमणा भिक्षुक्यां मुण्डियाँ च दृश्यते ॥ सुवर्ण मानभेदे च स्थूणा शर्मी च दारु च । स्थाणू शङ्कशिवी विष्णौ सुषेणः करमर्दके ।। ६९४ कपिवैये चाथ हृतौ हरणं यौतकेऽपि च । मोक्षः सुधा यज्ञशेषोऽयाचितं वारि चामृतम् ॥ ६९५ अमृता तु गुडूची स्याद्धरीतक्यामलक्यपि । शेषे विष्णावनन्तो ना गुचीदूर्वयोः स्त्रियाम् ॥ ६९६ कीयं खे त्रिवनवधावस्वन्तं मरणेऽशुभे । चुल्यां च पूर्णिमाभेदेऽनुमतिः संमतावपि ॥ ६९७ स्वरूपेऽन्तं विनाशे ना न स्त्री शेषेऽन्तिके त्रिषु । गते ज्ञातेऽप्यवसितमर्वन्तावश्वकुत्सितौ ॥ ६९८ अवती कुम्भदास्यश्वाथादितं प्रार्थित हते । क्षिप्ताद्रिभेदयोरस्तः स्याल्लाजेष्वपि चाक्षतम् ।। ६९९ कृपावसत्यंऽप्यनृतमाकृतिजीतिरूपयोः । आप्तौ लव्धहितौ दैये भाविकालेऽपि चायतिः ॥ ७०० आचितः शकटोन्मेयेऽप्यावर्तश्चिन्तनेऽपि च । आयस्तस्तेजिते क्षिप्तेऽथाख्यातं तिङि भाषिते ॥ भ्रंशे तदाखे चापात आहतं गुणित हते । मृषोक्ते चाथ दग्धे स्यादुपितं स्थितवत्यपि ॥ ७०२ व्यसनाते चोपरक्त उदितं प्रोक्त उद्गते । स्याद्धस्तूरेऽपि चोन्मत्तः क्षिप्ते सृष्टेऽपि चोद्धतम् ।। ७०३ उत्तप्तं शुष्कमांसेऽपि वह्नयुत्पातऽप्युपाहितः। उदास्थितश्चरे द्वाःस्थे स्यादतिः स्यूतिरक्षयोः।।७०४ १ 'धारणा) चक, 'धारणाप्येव ख-ग, 'धारण्यथ चव२ मन्त्राक्ष' क-ख-ग, 'मन्त्राख्य' घ. ३ 'मृदुककशा' क-ख. ४ 'अनवधौ' इति मध्यमणिन्यायेनानन्तास्वन्ताभ्यामन्वेति हैमसंवादात्. ५ 'अश्मन्तं' घ, For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम - ३ नानार्थवर्गः । ७०५ ७१२ ऋतमुञ्छशिले सस्ये एतावागतकर्बुरौ । ऐरावतो नागरङ्गेऽप्यथ कान्तितीच्छयोः ॥ किराती म्लेच्छभूनिम्बौ कान्तस्तु प्रियरम्ययोः । केतुर्ग्रहोत्पातचि कलितं विदिताप्तयोः ॥ ७०६ कपोतः पक्षिमात्रेऽपि गुप्तं रक्षितगूढयोः । गतिर्यात्रादशोपायाः पण्डः सूर्यश्च गोपतिः ॥ ७०७ गृही सन्त्री गृहपतिर्गीतं शब्दितगानयोः । गर्जितं स्तनिते नेभे ग्रस्तं वाग्भेदभुक्तयोः ॥ ७०८ चर्मण्वत्यौ नदीरम्भे जातं व्यक्तौवजन्मसु । सूर्यावर्तेऽपि जामाता ना वाले पिष्टपे जगत् ॥ ७०९ जातिश्छन्दसि मालयां चुल्यां जातीफले कुले । व्याप्तविस्तृतवाद्येषु ततं क्लीवं सुगन्ध्यपि ।। ७१० चपे तृणले तृणता तातः पित्रनुकम्पयोः । दुर्गतिर्नर के नैः रूये दुर्जातं व्यसनेऽपि च ।। ७११. दिवाभीत उलूके स्यात्कुम्भिले कुमुदाकरे । विसृष्टे रक्षिते दत्तं दुतं शीघ्रविलीनयोः ॥ दशने शैलशृङ्गे च दन्तः स्यादोषधौ स्त्रियाम् । दिती खण्डनदैत्याम्बे धृतिस्तुष्टौ तावपि ।। ७१३ राशौ च धातुर्निर्वाणे सुस्थितत्वे च निर्वृतिः । अस्वाध्याये कुरूपे ना प्रत्युक्तौ स्त्री निराकृतिः ।। ७१४ जम्ब्वां स्त्री ना नदीकान्तः सिन्दुवारे जलाब्धिषु । निमित्तं हेतुचिह्नागन्तुदैवादेशपर्वसु ॥ ७१५ प्रसृतः कुजिते पाणी जङ्घायां स्त्री गते त्रिषु । प्रकृतिर्गुणसाम्ये स्यात्स्वभावामात्ययोरपि ॥ ७१६ प्रतीकारे प्रतिकृतिः प्रतिबिम्बेऽथ पद्धतिः । पङ्कौ मार्गेऽपि पूतं तु पवित्रे बहुलीकृते ।। ७१७ श्रेणिर्दश च पङ्क्तिः स्यात्प्रसूतिर्जन्म तोकयोः । प्रतिपत्तिश्चित्प्रवृत्तिप्राप्तिप्रागल्भ्यगौरवे ॥ ७१८ पारावती गोपगीतिलवलीफलयोरपि । पलितं कर्दमेऽपि स्याद्विधौ भूपे प्रजापतिः ॥ ७१९ शक्ते निवारणे तृप्तौ पर्याप्तं स्याद्यथेप्सिते । प्रेतो मृते प्राणिभेदेपित्सन्पातेच्छुपक्षिणोः ॥ ७२० क्लीत्रं बिन्दौ पृपन्नैणैः पृषतोऽप्यनयोर्नरि । खातादौ पूरिते पूर्त पातो भ्रंशे च रक्षिते ॥ ७२१ प्रोषिते च प्रतिक्षिप्तं प्रतीतः सादरेऽपि च । श्रुतः खरे चाभियुक्तहतौ च प्रार्थितौ स्मृतौ ॥ ७२२ द्विष्टेऽपि च प्रतिहतः पिण्डितं गुणिते घने । प्राप्ते ज्ञाते परिगतं प्रपातौ भृगुनिर्झरौ ॥ ७२३ लोकायते कच्छपे च पञ्चगुप्तः स्मृतो बुधैः । लब्धे समञ्जसे प्राप्तं पक्तिगौरवपाकयोः ॥ ७२४ पारिजातो देवरी मन्दारे पारिजातके । वृत्तिवार्ताप्रवाहेषु प्रवृत्तिरथ घोटके || ७२५ पाने च पीतिः सिक्ते तु प्रोक्षितं निहतेऽपि च । रामानुजे नाट्यशास्त्रे दौष्यन्तौ भरतो नटे । ७२६ जिने पूज्ये च भगवान्भोगवानाव्यनागयोः । सेवाविभागयोर्भक्तिर्भवद्युष्मत्सदर्थयोः ॥ ७२७ पक्षियां वाचि वृत्तौ च भारती भारतं पुनः । जम्बूद्वीपे व्यासकृतौ भृतिर्भरणमूल्ययोः ॥ ७२८ कुड्यभेदनयोभित्तिर्भास्वन्तौ सूर्यभाखरौ । पृथिवीजननीगावो ब्रह्माण्याद्याश्च मातरः ॥ ७२९ मूर्धाभिषिक्तोऽमात्येऽपि मुक्तौ निर्वृतमोचितौ । मूर्तं स्यात्रिषु मूर्छाले कठिने मूर्तिमत्यपि ।।७३० मतिरिच्छाप्यथ यतिः पाठच्छेदे मुनौ पुमान् । न्याययोजनयोर्युक्तिः पाश्यब्धी यादसांपती ॥ ७३१ रेवती हलियां में मपल्यां रते रतिः । रिक्तं वनेऽपि रीतिस्तु लोहकिट्टारकूटयोः || ७३२ रोहिताचे रक्ते ना मृगमीनयोः । शैलभेदे सुवर्णाला शंकरेऽपि च रैवतः ॥ स्वर्णाद्यतेऽपि रसितं कस्तूरीप्रकयोलता | वर्तुलाधीतयोर्वृत्तं वार्त कुशलनीरुजोः ॥ वासेऽपि वसतिर्वृक्षमात्रेऽपि च वनस्पतिः । वर्तने विवृतौ वृत्तिर्वर्तिदपदशापि च ॥ लाभसंबन्धयोर्व्याप्तिर्विश्वस्ता विश्वापि च । छेदे विलासे विच्छित्तिर्विगतौ वीतनिष्प्रभौ ॥७३६ 1 1 ७३३ ७३४ ७३५ १ 'शष्ट कवि-गप. २ 'च' ३ 'सुखितनितों क. ४ 'स्वर्णाभ्य' व ५ 'दीपशिखापि च' क. For Private and Personal Use Only २७ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २८ अभिधान संग्रह: --- २ त्रिकाण्डशेषः । ७३७ असाराभोवतं वीतमङ्कुशकर्मणि । अभ्युद्गते विकसिते चेष्टितेच विजृम्भितम् ॥ विकृतौ रोगिवीभत्स वित्तं ख्याते धनेऽपि च । दृहेऽपि व्यायतं शुक्तिर्मुक्तास्फोटाच लक्ष्मणोः ॥ अस्त्रभेदेऽपि शक्तिः स्याच्छान्तिः स्यान्मङ्गले शमे । वेनसेऽपि च शीतो ना शुक्तं पूताम्ब्लनिष्ठुरम् ॥ शितिर्भूर्जे सिते कृष्णे श्रीमन्ती लिके । त्री शतधुती वार्तायां श्रवणे श्रुतिः ॥ ७४० दुर्बले निशिते स्यानां शितशातावयो वचः । सरस्वती नरिद्रोध सूतो बन्दिनि पारदे || ७४१ स्मृतिः स्याद्धर्मशास्त्रेऽपि प्रवाहेऽपि च संततिः । रणे सभायां समितिः स्तिमितौ निनिश्चलौ ।। स्थपतिः कचुकी कामभेदे गीतियागकृत । संवन्येऽपि न संवित्तिर्मर्यादायामपि स्थितिः ॥ ७४३ सीता लाङ्गलरेखा स्यायोगङ्गा व जानकी । सुतं कुशले सत्ये सुदोहा गौश्च सुत्रता ॥ ७४४ शर्करापि सिता सत्प्रतिजेऽपि च स्थितः । ती कायायनीसाळ्योः संघातो नरके चये ॥ airat aadi गौरी शुक्रवचापि च । श्री हरिद्दिशि वर्ण ना दूर्वापि हरिता मता ॥ ७४६ अतिथिः कुशपुत्रेऽपि हरीतक्यपि चाव्यथा । अपेक्षालम्बनं चास्था स्यादर्थो विषयेऽपिच ॥ ७४७ भटे पुंस्यप्रतिरथं यात्रामङ्गलानि च । उन्माथः कूटऽपि कुथः कम्बलवर्हिषोः || ७४८ कासे क्षुते च क्षवथुर्ग्रन्थो द्वात्रिंशदक्षरी । वनं च श्रथा चापि तीर्थ तूपाययोगयोः ॥ ७४९ कोणयोः प्रोथो वीथी पङ्की गृहांशके । वानप्रस्थो मधूकेऽपि स्यातृतीयेऽपि चाश्रमे ॥ ७५० काकोल्यामलकी ब्राह्मी वयस्था तदणे त्रिषु । सूर्यमन्धानयोर्सन्थः साक्तवेऽप्यथ मन्मथः ॥ ७५१ कपित्थे कामदेवे च रथः पौरुषदेहयोः । पुंसि स्त्रियांच पन्धः करजवचयोः क्रमात् ॥ ७५२ सिद्धार्थः सर्पपे बुद्धे संस्था स्थितिविनाशयोः । संस्था समाप्तिक्रतुषु चरत्र निजराष्ट्रगः ॥ ७५३ सिक्थो भक्तपुला ना मधूच्छिष्टे नपुंसकम् । अष्टापदं शारिफले सुवर्णेऽस्त्री पशौ पुमान् ॥७५४ वामनेभ्यां स्त्रियां क्लीवं केयूरे नाङ्गदः पौ । अर्बुदो रुजि संख्यायामामोदो गन्धहर्षयोः ॥ १५५ रहस्ये स्यादुपनिषत्समीपसदनेऽपि च । कन्दोऽस्त्री सूरणे मूले राजलिङ्गविपाणयोः ॥ ७५६ स्त्री ककुत्कटुकन्दस्तु शृङ्गवेररसोनयोः । स्त्री गम्भार्थी क्लीवमब्जे दिङ्नागे कुमुदः कपौ ॥७५७ पुष्पे क्लीवं भ्रमौ कुन्दः क्षोदो रजसि पेत्र | शिवजूटे वराटे च कपर्दोऽथामये गदः ॥ ७५८ विष्णोर्भ्रातरि चात्रे स्त्री पलाशे गरुति च्छद्रः । देशे जने जनपदो निपादौ श्वपचखरौ ॥ ७५९ वाक्ये शब्देऽपदेशेऽपि पदं पादस्तु न द्वयोः । मूले प्रयन्तशैले च प्रसादस्वनुरोधने ॥ ७६० स्वास्थ्ये काव्यगुणे चाथ प्रतिपत्तिभिसंविदः । विमुटु ज्ञाता च विन्दुः स्यान्मन्दौ स्वैरशनैश्चरौ ।। हस्तिभेदश्चाथ मदः स्यात्कस्तूरीभदानयोः । गर्ने शुक्रेऽथ माकन्यामलक्यां नाम्रपादपे ॥ ७६२ मर्यादा धारणासीनोर्महानादो गजेंऽपि च । मेनादास्तु बागमार्जारकशिखण्डिनः ॥ ७६३ विशदः पाण्डुरे व्यक्ते शारदो जलजेऽपि च । चियां तु शारदी तोयपिप्पली सप्तपर्णयोः ॥ ७६४ संवित्संकेतकेऽपि स्यात्समर्यादोऽन्तिके स्थिरे । व्यञ्जने सूपकारे च सूदः सूपवदिष्यते ॥ ७६५ धर्मस्वेदयोः स्वेदः संपलक्ष्म्यां समुच्चये । खण्डे ना समभागेऽर्धमवधिः सीमकालयोः ॥ ७६६ आविद्धं प्रहतं वक्रमानद्धं वावद्वयोः । अलंकारेऽपि चाबन्धः प्रत्याशाप्याधिरुच्यते ॥ ७६७ कुटुम्बव्यापृते धर्मचिन्तायां च विशेषणे । उपाधिरुग्रगन्धे तु वचाक्षेत्रपमानिके ॥ ७६८ १ 'संसृतिः' व. २ 'खच्छे' व २ इदं पद्यं क पुस्तके नास्ति, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३ काण्डम् – ३ नानार्थवर्गः । २९ उपलब्धिर्मतिप्राप्त्योर्ऋद्धिः संपदि चौषधे । राहौ शिरःशून्यकाये कबन्धः क्लीवमम्बुनि ॥ ७६९ गोधा तले निहाकायां गन्धो गर्वे लवेऽपि च । दोग्धा गोपे कवौ वत्से दुग्धं क्षीरे प्रपूरिते ॥ ७७० दिग्धं लिप्ते विषाक्ते च दुर्विधौ खलदुर्गतौ । रोधे विरोधो नाशे च बुद्धो ज्ञाते जिने बुधे || ७७१ निषेधदुःखयोर्वाधो गैहिणेये कवौ बुधः । दैत्यचैत्रवसन्तेषु द्रुमभेदे च ना मधुः ॥ मिद्धं चिन्तातिसंक्षेपे निद्रायां चाथ मागधी | पिप्पल्यां यूथिकायां ना लग्ने मगधजे त्रिषु ॥ ७७३ लशुनेऽतिविषायां च शुण्ठ्यामपि महौषधम् । सीता योजनगन्धा स्यात्कस्तूरी व्याससुर || ७७४ विधि काले च प्रकारे वेधने विधा ॥ 992 ७७५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विस्रब्धः । प्रका महिलाच वधूर्विश्वस्तोऽनु विस्रब्धं वाढार्थं शुद्धं त्रिषु पूतकेवलयोः || ७७६ ७७९ ७८२ ७८५ श्राद्धं निवापे श्रद्धालौ पुंसि साधुर्धनिन्यपि । स्कन्धः संघेऽपि सिद्धस्तु नित्यनिष्पन्ननाकिषु ॥ 999 संधिः पुमान्सुरङ्गायां भेदे संघट्टने भगे । कुले ख्यातौ चाभिजनः स्यादध्वा कालवर्त्मनोः ॥ ७७८ इतिवृत्तेऽवदानं स्यात्कर्मखण्डनयोरपि । अग्रजन्मा जे विप्रे स्यादन्नं भक्तमुक्तयोः || विनीते विप्रभेदे चानूचानोऽर्थी विवाद्यपि । अन्तावसायी चाण्डाले मुनिभेदे च नापिते ||७८० अश्वकुत्सितयोर्वा व विद्युति चाशनिः । वर्णमात्रे विसर्गे चाभिनिष्ठानोऽथ हैहये ।। ७८१ पार्थे दुमे मयूरे च नार्जुनविषु पाण्डुरे । अर्जुनी गव्युषायां च भृङ्गवृश्चिकयोरली ॥ आत्मा मनोऽ Isप्याकलना विबन्धपरिसंख्ययोः । आवेशनं शिल्पगेहे भूतावेशेऽथ गेन्दुके || ७८३ विशेषे चोपधानं स्याल्लयामुद्धानमुद्गमे । अगभीरेऽपि चोत्तानः शराभ्यासोऽप्युपासनम् ७८४ स्यात्कात्यायन्यर्धवृद्धागौर्योर्वररुचौ नरि । शिरीषाम्रातकाश्रत्यगर्दभाण्डे कपीतनः ॥ aise कौपीनम पुंनागेऽपि च केसरी । कुलीनले च गुह्ये च कौलीनमथ कचुकी ॥ ७८६ स्थापत्ये वर्मिते सर्पे क्लृप्तौ छेदे च कल्पनम् । कामिनी स्त्रैणचन्द्रौ च कृतिनौ योग्यपण्डितौ७८७ काञ्चनं तु नि नागकेसरे काञ्चनी निशा । धातुवादरते कांस्यकारे कारंधमी नरि || चर्चिकाचिदयिते खेकामिन्यौ प्रकीर्तिते । विषदिग्धपशोर्मासे गृञ्जनं ना रसोनके || गहनं गहरे दुःखे वनेऽथाम्बुदमुस्तयोः । घनः पुंसि घनं वाद्यं चर्म स्यात्फलकलचोः ॥ arat aadat चिह्नं लक्ष्मपताकयोः । चक्रिणो विष्णुभुजगकुलालग्रामजालिनः ॥ ७९१ कम्प्रे ना चलनं कम्पे चलनी वस्त्रधर्धरी । भूर्जे फलकपाणौ च चर्म्यपालंबुषे पुमान् ॥ ७९२ निम्बेsपि छर्दनं वान्तौ जवनो वेगवेगिनोः । बुद्धे जिनो जिवरे च जीवनं वर्तनाम्भसो || ७९३ शूरे दातरि च त्यागी प्रतिशोच्यौ तपस्विनौ । तपनो नरके भानौ विरलेऽल्पे कृशे तनुः ॥ ७९४ hariat देवनं नाक्षे द्विजन्मा दन्तविप्रयोः । दानं गजमदे त्यागे खण्डने रक्षणेऽपि च ।। ७९५ दर्शनं वर्णमुकुरचक्षुः शास्त्रोपलब्धिषु । स्त्री दीर्घकोष्यां दुर्नामार्शसि द्युम्नं बले धने || ७९६ धन्वा मरौ धन्व चापे धावनं गतिशौचयोः । निर्भर्त्सनं खलीकारालक्तयोरथ नन्दनम् ॥७९७ देवोद्याने सुते पुंसि नग्नौ क्षपणवन्दिनौ । श्रुतौ दृष्ट्यां निशमनं खगङ्गापि नलिन्यथ ॥ ७९८ ग्रन्थिप्रस्तावयोः पर्व विषुवत्प्रभृतिष्वपि । प्रतिमानं प्रतिच्छायागजदन्तान्तरालयोः ॥ ७९९ ७९० 1 १ 'चित्ताभिसंक्षेपे' व 'विक्षातिसंक्षेपे' ख ग २ 'खगामिन्यौ' क ख ग ३ 'देशवेगिनो: ' क. For Private and Personal Use Only ७८८ ७८९ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० अभिधान संग्रहः :-२ त्रिकाण्डशेषः । ८०० ८०२ ८०३ ८०४ ८०५ 1 ८१३ पाकस्थाने कुलालस्य वाते च पवनः पुमान् । हरीतकी राक्षसी च पूतनाथ वरालके ॥ पाठीनो गुग्गुलुद्रौ च रक्षोवृक्षौ पलाशिनौ । फाल्गुनो मासि पार्थे च स्त्री विदग्धा च वाणिनी ॥ वर्धमानः प्रश्नभेदशरावैरण्डविष्णुषु । सेना नदी च वाहिन्यौ छेदे वृद्धौ च वर्धनम् || भुवनं वि तोये भिन्नं दीर्णे विशेषिते । जन्माश्रयश्च भवनं भाजनं पात्रयोग्ययोः ॥ भृतिकाञ्चनयोर्भर्म मलिनं दूषितेऽसिते । माने प्रमाणे तौल्ये च मीनो राश्यन्तरे झपे || मदनाः सिक्थधुस्तूरतरुभेदमनोभवाः । मुनिर्वाचंयमे बुद्धे छन्दचम्पा च मालिनी ॥ मातुलानी तु भङ्गायां मातृभ्रातृस्त्रियामपि । राशौ युग्मे च मिथुनं विष्ण्वली मधुसूदनौ ।। ८०६ यापनं स्यान्निरसने कालक्षेपे च वर्तने । चतुः कोश्यां च योगे च योजनं स्यात्तु वाहने || गतौ च यानं योनिस्तूत्पत्तिस्थाने भगेऽपि च । रसनं तु ध्वनौ स्वादे रसज्ञारास्त्रयोः स्त्रियाम् ८०८ यक्षे चन्द्रे च राजा स्याद्रक्तः कामी च रागिणौ । गोपित्ते रोचना कूटशाल्मली रोचनः पुमान् ।। निशा हरिद्रा रजनी छेदे भूर्जे च लेखनम् । गशीनामुदयो लग्नं सक्तलज्जितयोस्त्रिषु || ८१० योषिज्जिह्वा च ललना लाञ्छनं नामचिह्नयोः । रक्ते वितानमुल्लोचे विलग्नं मध्यग्नयोः ||८११ देवानिष्टफले सक्तौ व्यसनं निष्फलोद्यमे । स्वतन्त्रता च व्युत्थानं वामनौ विष्णुदिग्गजौ ॥ ८१२ वर्चश्वाथ फले शुष्केवानं स्यादुत्कटे गतौ । वृषपर्वा शिवे दैत्ये वेष्टनं मुकुटे वृतौ ॥ arest fart कामिनि क्लीवमिन्द्रिये । वृक्षादनी स्याद्वन्दायां स्त्रियां कुद्दालके पुमान्८१४ समालब्धे विभक्ते च विच्छिन्नं वाच्यलिङ्गकम् | लब्धे ज्ञाते स्थिते विन्नं वेदना ज्ञानपीडयोः || ८१५ वर्तनी तर्कपठेऽपि स्त्रियां वर्तनवर्त्मनोः । वनश्वा जम्बुके व्याघ्रे विपन्नोऽपि ॥ ८१६ दैवशंसिनिमित्ते च शकुनं पुंसि पक्षिणि । चूडावान्कुकुटञ्चापि शिखी शृङ्गारिणौ विमौ ।। ८१७ क्रमुकच सुवेशश्च पार्थेन्द्रोः श्वेतवाहनः । मयूरे भीष्मशत्रौ च शिखण्ड्यथ विहेटनम् ॥ ८१८ विहिंसायां विडम्बे च यमे ना शमनं वधे । श्येनः शुक्ले पक्षिभेदे शकुनिः सौबले खगे ॥ ८१९ धान्यभेदे पुमान्यष्टिहायनः कुञ्जरेऽपि च । ना साधौ सज्जनं कृतो साधनं सिद्धिमेद्रयोः ।। ८२० मानो देहवायौ च संस्थानं मृत्युरूपयोः । संतानः संततौ देववृक्षे चापत्यगोत्रयोः ॥ ८२१ ऋतौ स्नाने च सवनं मारणेऽपि समापनम् । स्वन्दनं स्रवणे ना तु रथे तिनिशपादपे ।। ८२२ सुप्तज्ञाने च शयने स्वप्नोऽथ स्पर्शदानयोः । स्पर्शनं स्पर्शनो वाते सूनं पुष्पे वधालये || ८२३ सेवनं सीवनोपास्त्योः शाश्वताजौ सनातनौ । पुत्रे वौ च सूनुः स्याद्भ्रातर्यपि कनीयसि || ८२४ सीमा वाटे स्थितौ क्षेत्रे स्वामी भर्तरि षण्मुखे । धूमवंशशगमर्त्याः सुपर्वाणः प्रकीर्तिताः ॥ ८२५ हनुविलासियां कपोलावयवेऽपि च । सजले महिषेऽनूपोऽवलेपः सङ्गगर्वयोः ॥ ८२६ आक्षेपौ भर्त्सनाकष्टी आकल्पौ वेशकल्पने । तृणभिदुल्मिन्युपश्चन्द्रे नाख्युडुपः पुत्रे || ८२७ कल्पः शास्त्रे विधौ न्याय्ये संवर्ते ब्रह्मणो दिने । धान्ये कुशेऽष्टमांशेऽह्नः कुतपश्छागकम्बले || ८२८ गुणवृक्षेऽपि कूपो विशार्थी स्त्री कुणपः शवे । जिह्वापः शुनि मार्जारे त्रपु सीसकरङ्गयोः।। ८२९ पादुकायां स्त्रियां वृक्षे पादपीठे च पादपः । पिण्डपुष्पौ जवाशोकौ पुष्पं कुसुम आवे || ८२० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 6102 १ 'लक्षणम्' इति त्र पुस्तकपाठो समीचीनः २ क ख ग पुस्तकोपलब्धोऽयं पाठः, परंतु 'आकारे' इति योग्यः पाठ: अतएव 'व पुनस्तनौ । प्रमाणे सुन्दराकारे' इति मूलव्याख्यायाम् "सुन्दराकारे यथा - 'वर्मणा विदधती जगज्जयम्" इत्यनेकार्थैकैरवाकर कौमुद्यामुदाहृतम्, 'वेशकारे' घ. ३ ' भर्त्सनात्यागौ' क ख ग . Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काण्डम् – ३ नानार्थवर्ग: । ८३१ ८२८ ८३९ ग्रन्थावृत्तौ पशौ शब्दे स्वभावे नाटकादिषु । रूपमाकार सौन्दर्यमान केष्वपि दृश्यते || शररोपणयो रोपो लेपों लेपनजेमनौ । विटपः पल्लवे स्तम्बे पिने मेदो बलं वपा ॥ ८३२ आक्रोशे शपथे शापः स्वापः शयननिद्रयोः । त्रिषु स्यात्कुत्सिते रेफो वर्णे तु पुमानयम् ॥ ८३३ गजे ग्रीवालके कम्बुः कलम्बः शरनालयोः । वृन्दे कदम्बं नीपे ना कादम्बौ शरपक्षिणौ ८३४ लहविप्लवयोर्डिम्बः प्रलम्बो वैशाखयो: । बिम्बं विम्बीफले रूपे शम्बस्तु मुसलान || ८३५ कल्याणवति वत्रे च हेरम्बो महिषेऽपि च । खर्णारम्भाववष्टम्भौ वाणी छन्दोऽप्यनुष्टुभौ ॥ ८२६ आरम्भ उद्यमे दर्षे कामे ब्रह्मणि चात्मभूः । ऋषभौ श्रेष्ठवृषभौ करभोऽधःकरोष्ट्रयोः || ८३७ 1 कुम्भो वारस्त्रियाः कान्ते रक्षोराशिप्रभेदयोः । वीणाप्रसेवे ककुभो गंगभेदेऽर्जुनद्रुमे ॥ गर्दभं शुक्लकुमुदे खरे पुंस्यथ दानवे । जम्बीरे व्यवहारे च जम्भो दन्तेऽपि चेष्यते ।। दुन्दुभिर्दैत्यभेदे च दम्भः कैतवकल्कयोः । दुर्लभः कच्छुरे काम्ये सदृशव्याजयोनिभः || ८४० मुख्यराट्क्षत्रयोः पुंसि नाभिः प्राण्यङ्गके द्वयोः । चक्रमध्ये प्रधाने च स्त्रियां कस्तूरिकामदे ||८४१ भूर्भूमौ स्थानमात्रे च भमृक्षे भृगुजे पुमान् । रम्भा कदल्यप्सरसोर्विभुः स्यात्स्वामिनित्ययोः ८४२ पुनर्नवायां वर्षाभूः स्त्री ना कझुलुके प्लवे । विस्रम्भः केलिकलहे विश्वासे प्रणयेऽपि च || ८४३ सुरभिः स्याद्वसन्तेऽपि सभा द्यूतालयेऽपि च । अभ्यागमो विरोधेऽपि शास्त्रमायातमागमः ८४४ महादौ ब्रह्मचर्यादिचतुष्के चाश्रमोऽखियाम् । अङ्गीकृतावुपगमः समीपगमनेऽपि च ॥ ८४५ उमा दुर्गातसी चाथ पीडायां वीचित्रेगयोः । वस्त्रसंकोचरेखायां चोमिः स्त्रीपुंसयोर्मतः || ८४६ कुसुमं स्त्रीरज: पुष्पं क्षेमं कल्याणरक्षयोः । क्षेमा चण्डाथ कलमा लेखनीचौरशालयः || रेतोनिकामकाम्येषु कामं पुंसि स्मरेच्छयोः । क्षौममट्टे दुकूले च ग्रामः संवसथे खरे | ८४८ गुल्मः स्तम्बेट्टभेदे धर्माः स्वेदातपोष्मकाः । जिह्मः स्यात्कुटिले मन्दे तलिमं तल्पकुट्टिमे ८४९ तोक्मं कर्णमले पुंसि हरिते च हरिद्यवे । द्रुमो यक्षेश्वरे वृक्षे दमो दमथदण्डयोः ॥ ८५० धर्मो हिंसोपमायोगोपनिषत्सु धनुष्यपि । कटे लुण्ड्यां च निगमो नियमो निश्चये व्रते || ८५ १ यत्रणाबन्धयोश्चाथ पञ्चमः स्वरसंख्ययोः । पद्मोऽस्त्री बिन्दुजालेऽब्जे व्यूहे संख्यान्नरे निधौ ८५२ गजानां दन्तबन्धेऽपि प्रतिमानुकृतावपि । भूमिः स्थानेऽपि कुन्दाम्बुनिर्गमभ्रान्तिषु भ्रमः ८५३ गाङ्गेयभीषणौ भीष्मो भीमः शंभौ च पाण्डवे । नरके मङ्गले भौमः स्वरे मध्ये च मध्यमः ८५४ यमः संयमकीनाशयुग्मजेष्वथ राघवे । रामः पशौ भार्गवे च रुक्मं लोहसुवर्णयोः ॥ ८५५ संपत्कमलयोर्लक्ष्मीर्विभ्रमो भ्रमहावयोः । श्यामा गुन्द्रा कोकिला च श्रामो मण्डपकालयोः ८५६ सार्वभौम गजे राज्ञि संभ्रमौ साध्वसादरौ । कण्टकेऽल्पे च सूक्ष्मं स्यात्साधौ तुल्येऽखिले समः || सीमावाटे स्थितौ क्षेत्रे हिमं शीतलशीतयोः । भिन्नासमानयोरन्यः स्यादभिख्या यशस्यपि ८५८ आत्रेयी पुष्पवत्यां स्यान्नदीभेदे च ना मुनौ । आशयश्छन्द आधार आदित्यो भास्करे सुरे || ८५९ वेदोपदेशावान हृषीके रेतसीन्द्रियम् । इज्या स्यात्संगमे दाने योगेऽचयां गुरौ पुमान् ॥ ८६० उदयोऽद्रावुन्नतौ च कषायः सुरभौ रसे । कायः स्वभावे लक्ष्ये च संधे मूर्ती कदैवते ॥ ८६१ ८४७ For Private and Personal Use Only ३१ १ ख-ग-पुस्तकयोस्त्वितः परम् 'भ्रमरेऽपि द्विरेफः स्यान्मर्मरे प्रवरेऽपि च' इत्यधिकमुपलभ्यते. २ 'ग्रीवा - विले' 'घ. ३ 'नागयो:' क ख ग ४ 'गेपभेदे' क-ख-ग, 'नगभेदे' घ. ५ 'योगयो:' क. ६ 'आश्रयश्छद्म आधारे ' 'आश्रयः स्कन्ध आधारे व. ख-ग, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्ड शेषः । कोकृत्यमनुतापे स्यादयुक्त करणेऽपि च । कश्यं कशाहे मद्ये च काद्रवेयोऽहिरङ्गयोः ॥ ८६२ काव्यं प्रबन्धे शुक्रे ना कुलायः स्थाननीडयोः । गव्यं गोहितदुग्धादौ ज्यायां गव्या तु गोकुले।। भीष्मे ना हेम्नि गाङ्गेयं गोप्यो गोप्तव्यचेटको । गातव्यगायनौ गेयों गृह्यमस्वैरिपक्षयोः ॥ ८६४ चैत्यमायतने ना वुद्धविम्बोद्देशवृक्षयोः । चक्षुष्यं सुभगे चहिते स्त्री कतकेऽपि च ॥ ८६५ युद्धे हटे च जन्यं स्याज्ज्या स्यान्मौल् क्षितावपि । जटायुर्गुग्गुलुद्रौ च त्रिवेद्यां त्रितये त्रयी८६६ निन्द्ये वस्त्रगृहे दृष्यं दस्युस्तस्करवैरिणोः । भेषजे दुविकारे च द्रव्यं भव्ये च पित्तले ॥ ८६७ द्वितीया तिथिभित्पत्न्योः पार्थेऽग्नौ च धनंजयः । निकायो संघनिलयौ नित्ये सततशाश्वते॥८६८ पर्यायः स्यात्प्रकारेऽपि प्रायो ना भूमतुल्ययोः। पथ्यं हितेऽभया पथ्या पानीयं पेयनीरयोः।।८६९ पौलस्त्या गवणश्रीदौ स्वर्गलाभौ फलोदयो । ब्राह्मण्यं ब्रह्मसंधेऽपि बालेयौ मृदुगर्दभौ ॥८७० वीर्य प्रधानधातौ च भयं भीकुंज पुष्पयोः । अनधीने सहाये च भुजिष्यो हस्तसूत्रके ॥ ८७१ स्यान्माया सांवरीवुयोर्दैत्यशिल्प्युट्रयोर्मयः । ययुरश्वे क्रतुहये रूप्यं त्रिषु सुरूपके ॥ ८७२ आहतस्वर्णरजते रजते च नपुंसकम् । वत्से वले बुधे रोहिणेयोऽथ श्लेषवाद्ययोः ॥ ८७३ लयो युक्ते च लभ्यं स्याद्विषयौं देशगोचरौ । वर्गप्रस्थानयोव्रज्या वदान्यस्त्यागवान्सुवाक् ॥ ८७४ स्त्री मल्लयां निर्जने शून्यं शोर्य चारभटी बलम् । शाण्डिल्यौ मुनिमालूरौ सौरभ्यं चारुतापि च ॥ सौम्या बुधग्रहे पुंसि वाच्यवन्नीचबोधने । साध्या देवाः फलं साध्यं स्थेयो नेतृपुरोधसोः ॥ ८७६ ना शैले सह्यमारोग्ये सामर्थ्य शक्तियोग्यते । एकड्यादौ विचारे च संख्या क्लीबं तु संयुगे॥८७७ हिरण्यं रेतसि स्वर्णे मानभेदवराटयोः । उरस्यपि च बुकायां हृदयं मानसेऽपि च ॥ ८७८ अङ्करी रोम्णि रुधिरे वारिण्यभिनवोद्भिदि । अमरा नाभिनालायां गुडूच्यामप्यथाम्बरम् ॥ ८७९ नाकेऽतिगन्धद्रव्ये च स्यादत्रं रुधिरास्तुणोः । प्रस्तावेऽवसरो वर्षे ओष्टे नीचंऽपि चाधरः ॥८८० श्रेष्ठेऽप्यग्रोऽवतारस्तु तीर्थेऽवतरणेऽपि च । गलहस्तेऽप्यर्धचन्द्रोऽकूपारः कमठेऽम्बुधौ ।।८८१ अलातेऽस्त्री कुजेऽङ्गारः श्रेष्ठावाचावनुत्तरौ । नके चौरेऽवहारः स्यात्स्यादभ्रं व्योममेघयोः ।।८८२ हविर्वती त्वग्निहोत्रो वृक्षे लघुनि चागुरुः । शक्तो निरण्डश्चाण्डीरावद्भिः स्यात्पादमूलयोः८८३ आसारः स्यात्प्रसरणे वेगवृष्टौ सुहृद्धले । आरः शनैश्चरे भौम इन्द्र आत्मनि वासवे ॥ ८८४ गौरीश्वरा शिवस्वामिकंदर्पष्वीश्वरः पुमान् । उदारी दक्षिणस्थूलौ हस्खमेहेऽप्युदुम्बरः ॥ ८८५ उग्रोऽन्त्यजे शिवेऽत्युच्चे उस्रो दीप्तो गवि स्त्रियाम् । सिंहसटासु पुनागे बकुले नागकेसरे ॥८८६ केसरः पुंसि किंजल्के न स्त्री हिङ्गुनि न द्वयोः । मक्षिकायामपि क्षुद्रा क्षुद्रः स्यात्कृपणे त्रिषु ८८७ कदुनिषु कडारे स्यात्कदः स्त्रीनागमातरि । नापितस्योपकरणे कोकिलाक्षेऽपि च क्षुरः ॥ ८८८ भस्मकाचरसाः क्षाराः कारुः कारकशिल्पिनोः । कबुरो गक्षसे पापे कर्बुरं शवले जले ॥ ८८९ कारे पीडावन्धशाले क्रूरो कठिनभीषणौ । जम्बूद्वीपसहाकन्याः कुमार्योऽथाश्ववारके ॥ ८९० वालके कार्तिकेये च कुमारो भर्तृदारके । कलिकारस्तु धूम्पाटे करले पीतमस्तके ॥ ८९१ सिद्धस्थानेऽपि च क्षेत्रं कर्करों दृढदर्पणौ । शिशपायां कृष्णसारा स्नुह्यां चाथोत्पलेऽपि च ॥ ८९२ कर्णपूरः कुबेरस्तु नन्दीवृक्षकपिङ्गयोः । शट्यां च शूकशिम्ब्यां च कच्छुरा पामने त्रिषु ॥ ८९३ १ 'कुष्ठ' क. २ 'शक्तोऽपि षण्ड' घ, 'अण्डीरः पुरुषे शक्ते' इति मेदिन्याम् , 'अण्डीरः शक्तनरयोः' इति च हैम उपलभ्यते, क-ख-ग-पुस्तकेगु निरण्ड' इति दश्यते. ३ 'ईश्वरी' ख-ग-घ, ४ 'दुमे मेट्रे' व. For Private and Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ काण्डम् -३ नानार्थवर्गः । कन्दरः स्याद्गृहासण्योः कोहारो कूपनागरौ । कदरः क्रकचे रोगे कदरः खदिरे सिते ॥ ८९४ कदरं कुत्सिते तके किर्मीरौ शबलासुरौ । कपाले च कटाहे च शस्त्रभेदे च कर्परः॥ ८९५ भिक्षापात्रे कपाले च खर्परस्तस्करेऽपि च । देवताडे खरा स्त्री स्यात्खरो गर्दभतीक्ष्णयोः ॥ ८९६ भद्रमुस्ते गुवाके च खपुरोऽथ दुमे पुमान् । रूप्ये खलेऽपि खजूरः खुरः कोलदले शफे ॥ ८९७ खरुरश्चे हरे दर्प दन्ते श्वेते तु वाच्यवत् । गुरुस्त्रिलिङ्गयां महति दुर्जरालघुनोरपि ॥ ८९८ गायत्री खदिरे स्त्री स्याच्छन्दस्यपि षडक्षरे । गुन्द्रस्तेजनके गुन्द्रा प्रियंग्वां भद्रमुस्तके ॥ ८९९ गहरे द्वे गुहाकुले पूर्वारि द्वारि गोपुरम् । नग्नकन्योमयोौरी गौरः स्यादुज्ज्वलेऽपि च ॥९०० गोत्रं नाम्नि कुले पुंसि शैले भूगव्ययोः स्त्रियाम् । स्वरे वले च गान्धारो गृध्रः स्यालोभिपक्षिणोः।। कर्बुरे तिलके चित्रं सुभद्रातारयोः स्त्रियाम् । चन्द्रः शशिनि कपूरे चारो बन्धापसर्पयोः ॥९०२ मृतदेवकुले चैत्रं ना भूभृन्मासभेदयोः । सर्प विष्णौ चक्रधरश्चिकुरौ वृक्षभित्कचौ ॥ ९०३ चक्रः कोके बजे पुंसि क्लीवे सैन्यरथाङ्गयोः । ग्रामजाले कुम्भकारभाण्डे राष्ट्रे च दृश्यते ॥ ९०४ नदप्रभेदे वाद्ये च झझरोऽथ गुणध्वनौ । प्रसिद्धावपि टंकारस्तारोऽत्युञ्चस्वरे त्रिषु ॥ ९०५ तारिण्यङ्गदमात्रोः स्त्री न ना ऋक्षाक्षिमध्ययोः । हयोगे तिमिरं ध्वान्ते तोत्रे प्राजनवेणुके ॥ ९०६ धान्याके तुम्बुरी शुण्ठ्यां तानं शुल्वेऽरुणे त्रिषु । पेडायां नावि च तरी तुषारः शीतले हिमे ।। इतिकर्तव्यता तन्त्रमुपायश्च द्विसाधकः । तीव्र कटु नितान्तं च ददेरः शैलभग्नयोः ॥ ९०८ उपाये निर्गमे द्वारं दारु स्याद्देवदारु च । दासीसुतोष्टौ दासेरौ देहयात्राशने मृतौ ॥ ९०९ दिगम्बरोऽन्धकारेऽपि वाद्यमेघौ च ददुरौ। धात्री भुव्यामलक्यां च हरिशैलौ धराधरौ॥९१० धारा हरिद्राश्वगतिनिद्राम्वुस्रुतिराजिषु । धाराधरो खड्गमेघौ धीरः पण्डितमन्दयोः॥ ९११ धीरं च कङ्कममथो धरा पृथ्वी धरो गिरिः । नेत्रो नेतरि नेत्रं च गुणे मूले विलोचने ॥ ९१२ ना षि) नागरं शुण्ठ्यां नरोऽजे मनुजेऽर्जुने । नरेन्द्रो वार्तिके राज्ञि विषवैयेऽपि दृश्यते ॥९१३ धान्योत्क्षेपे निकारः स्याद्गुडूच्यामपि निर्जरा । नभश्चरो पक्षिदेवौ पांसुला च निशाचरी॥९१४ वलीकवनयोर्नीधं पूरः खाद्ये पयश्चये । यत्नारम्भौ परिकरौ खड्गफलेऽपि पुष्करम् ॥ ९१५ नद्यन्तराले पात्रं स्याद्भाण्डे चाथ निशापतौ । पृथक्चारिगजे यूथभ्रष्टे पक्षचरः स्मृतः ॥ ९१६ स्थाल्यां मन्येऽपि पिठरं पवित्रं कुशमध्ययोः । देहे पाटलिपुत्रे च पुरं स्यागुग्गुलौ पुरः॥ ९१७ वरो जामातरि वृतौ कमे च नपुंसकम् । वक्रः शनैश्चरे क्रूरे पुटभेदे तथानृजौ ॥ ९१८ कुब्जवृक्षे हरे वारो बन्धुरं रम्यनम्रयोः । भ्रमरः कामुके भङ्गे भरोऽतिशयभारयोः ॥ ९१९ विषे स्वादौ च मधुरं मल्लिकायां च मुंद्गरम् । मखाग्नौ च महावीरो मक्षिकायां च मत्सरा ॥ ९२० महेन्द्रो भूधरे शके मन्दे वक्रे च मन्थरः । विन्नमन्मथयोर्मारो मकरो राशियादसोः ॥ ९२१ गमनोत्सवयोर्यात्रा रुधिरं कुङ्कमेऽपि च । वृक्षभित्पापयो रोध्रो दैत्यभेदे मृगे रुरुः॥ ९२२ लम्बोदरः स्यादुद्धाने गणानामधिपेऽपि च । लक्ष्मीपुत्रो स्मरहयौ विस्तारौ स्तम्बविस्तृती ॥९२३ वप्रस्ताते स्त्रियां क्षेत्रे चये रेणौ च रोधसि । स्यादृषरे वनक्षेत्रे वल्लरं ग्रहणेऽपि च ॥ ९२४ वल्लरा त्रिषु संशुष्कमांससूकरमांसयोः । वैकल्पेऽपि च विश्लेषे विधुरं विकले त्रिषु ॥ ९२५ १ 'श्रुति' क-ख-ग, 'सृति' घ. २ 'नारं शुण्ठ्यां नरौघे च' प. ३ 'राजिके' घ. ४ 'तीव्र' घ. ५ 'सनारम्भौ' व. ६ माधुरम्' घ, For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधान संग्रह ::-२ त्रिकाण्डशेषः । विकारी विकृतौ गेगे विश्वकगुः श्रभित्खलौ । बेरोऽङ्गे कुङ्कुमे बेरं वठरः शटमन्दयोः ॥ ९२६ अथ व्यतिकरः पुंसि व्यसनव्यतिषङ्गयोः । पर्याणेऽक्षोपकरणे शारिः शकुनिकान्तरे || ९२७ श्रीलक्ष्मीवेषसंपत्सु भारतीशोभयोरपि । शिखरं शैलवृक्षाग्रकक्षापुलककोटिषु || ९२८ एकदाडिमबीजाभमाणिक्यशकलेऽपि च । शुक्रं रेतोऽक्षिरुक्शुक्रो ना काव्यज्यैष्ठवह्निषु ॥ ९२९ गजभूषा च शृङ्गारः शुषिरं गर्तवाद्ययोः । कुटजे वासवे शक्रो वरीशच्योः शतावरी ॥ ९३० शकरी मेखला छन्द: शबरः सलिले शिवे । स्थिरा महीशालपर्ण्योः संबरं संयमे जले ॥ ९३१ Hatter स स्यात्कैतवे वने । स्रोतोञ्जने च सौवीरं काञ्जिके बदरेऽपिच ॥ 1 ९३२ तिग्मकरी सीरौ सान्द्रो मृदौ घने वने । तन्त्वाद्यग्रन्थयोः सूत्रं कारणेऽपि च दृश्यते ॥ ९३३ शैलेऽचलोऽचला भूमावरालः सर्जवक्रयोः । अलिः सुरापुष्पलिहोः कल्लोलेऽप्याकुलं त्रिषु ॥९३४ आलुर्गलन्तिकायां स्त्री क्लीवं मूले च भेलके । आलिः सेतुः सखी यज्वा शौण्डिकचासुतीबलः ॥ आभील भीषणे कुच्छ्रे इला भूवाग्बुधाङ्गनाः । आर्द्रशूरणयोरोल्लः कालः स्यान्मृत्युकृष्णयोः ९३६ अंशे वृद्धावपि कला कदली ध्वजरम्भयोः । कफोणिघाते ज्वाले च कीलावत्कील इष्यते ||९३७ शिरसोऽस्rि कपालोsस्त्री घटादेः शकले व्रजे । काको विषं च काकोलौं सास्नायामपि कम्बलः ॥ 1 केऽपि कलकलः कामलः कामुके मधौ । कुलं गोत्रे गणे देहे न ना ज्ञाने च केवलम् ॥ ९३९ कपिला शिशपाकौन्त्योः कपिलोऽग्नौ मुनो शुनि । कोलोऽङ्कपालावुत्सङ्गे वराहे भेलकेऽपिच ॥ ९४० पिप्पल्यपि च कोला स्यात्कालं च वदरीफलम् । मृगे जले च कमलं कुवले बदले || ९४१ कल्लोलाँ शात्रवोलोलो पर्कट्यां च कमण्डलुः । कर्मरङ्गतरौ कर्मफलं दुःखे सुखेऽपिच ॥ ९४२ करालो गुणतैलेऽपि देो केशे च कुन्तलः । कुतूहलं प्रशस्तेऽपि खलधर्मणि चातके ॥ ९४३ वस्त्रे नित्रे चाथ खलं सस्यस्थाने शटे त्रिषु । मण्डले मणिके गोलं गोला गोदावरी सखी || ९४४ गोपी भूप गोपाल चपलः पारदेऽपि च । चपलाः पिप्पलीलक्ष्मीपुंश्चलीविद्युतः स्मृताः ॥ ९४५ छलं छअस्खलितयोर्जम्बाला पङ्गशैवलौ । जङ्गली निर्जले देशे त्रिलिङ्गः पिशितेऽस्त्रियाम् ॥९४६ जालं दस्मेऽपि जम्बीरे देवभेदेऽपि जम्भलः । झलात पोर्मिर्दुहिता तलं मूलचपेटयोः ॥ ९४७ ताली गीतक्रियामाने हरिताले दुमान्तरे । लोहे हारमणौ पुंसि यवाग्वां तरला स्त्रियाम् ॥ ९४८ ब्रह्मदारौ पिचा तूलं स्थूणासादृश्ययोस्तुला । तमाली वरुणं खड्ने तापिच्छे तिलकेऽपिच ॥ ९४९ सुवाकेऽपि च ताम्बूलं विडङ्गेऽपि च तण्डुलः । दुकूलं गुक्तवस्त्रेऽपि चार्थे पत्रे छदे दलम् ९५० धवलागविना शब्दे शुक्कसुन्दरयोखिनु । परमाणौ च पीलुः स्याद्देहे चात्मनि पुद्गलः ॥ ९५१ paraitstar तरौ पिप्पलः पिप्पलं जले । शाल्मली शिंशिपा चैव पोतकी चापि पिच्छिला ॥ समयुवती पालिः प्रस्थः कर्णलतापि च । वीणादण्डे प्रवालsत्री विद्रुमे नवपल्लवे ॥ ९५३ नकाशे पोटगलः पित्तयुक्ते च पित्तलः । पिङ्गलः स्यात्कपावन्नावाशुत्रीहिश्च पाटल: ।। ९५४ फलं जातीफले लाभ वाणाये फलकेऽपि च । फेनिलं बदरे रिष्टे बालो होवेरकेशयोः ॥ ९५५ बलिजंग श्री गृहदासुरौ बली । बलं गन्धरसे रूपे क्लीवं वाट्यालके स्त्रियाम् ॥ ९५६ बहुलः कृष्णपक्षेऽपि मेलान्धावपि वार्दलः । दुर्दिनेऽप्यथ वेला स्यात्सिन्धोः कूले च भोजने ।। ९५७ ऋपिभेदेवं पुंसि भेल भीरुहृदि त्रिषु । मेखलाद्विनितम्वेऽपि महे ना मङ्गलं शुभे ॥ ९५८ १ पति व २ 'वाला' क ख ग. For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काण्डम-३ नानार्थवर्गः । ३५ निकटेऽपि च मूलं स्याद्भस्तूरेऽपि च मातुलः । मौलिः कङ्केल्लिवृक्षेऽपि मल्लः पात्रे कपालिनि || बलीयसि च मत्स्ये च मण्डलं परिधौ गणे । बिम्बे देशे ना च शुनि रसालस्त्विाचूतयोः।।९६० जिहाकमलयोर्लोला शाला म्याग्रहशाखयोः । तरुजातो मत्स्यभेदे शालो हालनृपेऽपि च।। ९६१ निगडे पुंस्कटीवस्त्रवन्धे च शृङ्खलं त्रिषु । शालिगन्धमृगे धान्ये शयालुः कुकुरेऽलने ॥ ९६२. शकलं वल्कले खण्डे शीतलः शिशिरे ऽलसे । पण्डाली तैलमाने म्यात्सरनीकामुकत्रियोः।।९६३ सिध्मला शुकमीने स्त्री त्रिलिङ्गयां तु किलासिनि । ऋजी वृक्षे च सरलः मालो चरणसर्जयोः ।। हम्तिमल्लो गजास्ये च हलावज्ञाविलासयोः । यागे च मद्यसंधाने स्नाने चाभिषवः पुमान ॥ ९६० मृतावसत्त्वे चाभावः स्याद्रजः पुष्पमार्तवम् । आश्रवोऽङ्गीकृतौ वश्ये आहवा यागमंगगै॥९६६ उपल्लवो गहत्पाती कितवी मत्तवञ्चकौ । खलीने स्त्री कविः पुंमि काव्यकृच्छुकमरिण ॥ ९६७ कैतवं तु छले दाते गनिकायां क्षुति क्षवः । केशवः केशवान्विष्णुगालवो मुनिलोध्रयोः ।।९६८ जीवोऽस्त्री जीविते पुमि गुरुजन्त्योः स्त्रियां गुणे । तत्त्वं विलम्बिते नृत्ये स्वरूपे परमात्मनि।।९६०. मेघे राज्ञि सुरे देवो द्विजिद्दी व्यालसूचकौ । ध्रुवो वटे शरागै च गीतिस्वरभेदयोधवा ॥ ९७० धवो धूर्तेऽष्यथ नवो नूतने वायसे स्तुतौ । प्लवो निषादे पर्कश्यों भेके भेले गतौ कपौ ॥ ९७१ पल्लवो विस्तरे पिङ्गे किसले विटपे चले । घटादौ पार्थिवो राजि बल्लवः सूदगोपयोः ॥ ९७२ गजे धन्विनि शुक्रे च पशुरामे च भार्गवः । दूर्वा गौरी च भार्गव्या सत्तासंसारयोर्भवः।। ९७३ भावो गौरविते जन्तौ पदार्थेऽभिनयान्तरे । माधवौ हरिवैशाखौ राजीवो मगमीनयोः ॥ ९७४ रौरवौ घोरनरको लवश्छेदनलेशयोः । कर अभित्फले लट्ठा वाद्यपक्षिप्रभेदयोः ॥ ९७५ विश्वं शुण्ठ्यां समस्ते च निर्वाणे विभवो धने । अश्वौघे वाडवं न स्त्री पाताले ना हिजौर्वगोः ॥ बडवाश्वाकुम्भदास्योोंगे कीले हरे शिवः । सुखं क्षेमं शिवं शम्यामलकी चाभया शिवा ।। पाडवस्तु रमे गाने सैन्धवो लवणाश्वयोः। आधेयधारणे सत्त्वे मेलकेऽपि च संभवः ॥ ९.७८ अपभ्रंशो दुष्पतने भाषाभेदापशब्दयोः । टीकादर्पणावादावाशा तृष्णादिशोः स्त्रियाम् ॥९७९ प्रभुशंकरयोरीशः स्त्रियां लाङ्गलदण्डके । दिगम्बरे कपो कीशः केशो वालप्रचेतसोः ॥ ९८० जीवितेशो यमे नाथे दंशः संनहनेऽपि च । सर्पक्षतेऽथ ज्ञाने च लोचने दर्शने च दृक्॥९८१ नाशः पलायने मृत्यौ निस्त्रिंशो खड्गनिर्दयौ । निशा गहिरिद्रा च मगादौ प्रमथे पशुः ।। २.८२ पुरोडाशो हविर्भेदे चमस्यां पिष्टकस्य च । रेसे सोमलतायाश्च हुतशेषे च कीर्त्यते ॥ ९८३ पाशः कचान्ते संवार्थः कर्णान्ते शोभनार्थकः । छात्राद्यन्ते च निन्दार्थः पाशः पक्ष्यादिबन्धने ॥ वार्ताहारे पुरोगे च सहाये च प्रतिष्कशः। लोमशो मेण्टकेऽपि स्याद्विवशो वशविह्वलौ ॥९८५ वंशो वर्गे च पृष्टांशे वेशो वेशागृहेऽपि च । आयत्तत्वाप्रभुत्वे द्वे वशः परवशे त्रिषु ॥ ९८६ दीने रोगे'ऽपि च स्पर्शः सदृशं तूचिते समे । भोष्टे युध्यम्बरीषं ना किशोरहरिशंभुषु ।। ९८७ अभिलाषेऽनुतपः स्यात्पानेच्छायामथामिषम् । संभोगोत्कोचमांसेषु उषा बाणात्मजा निशा॥९८८ १ 'सवलः' क-ख-ग. २ 'अवद्य' क-व, 'वटा ख-ग. ३ वलवा' क. ४ 'कुम्भवास्योः ' क. ', इतः परम् 'स्वोऽस्त्रियां ज्ञातिधनयोः स्वमात्मनि नपुंसकम्' इति व-पुस्तकेऽधिकः पाठः. ६ 'प्रथमे क-घ. ७ 'सबक, 'वसे' ख-ग, ८ 'छत्राद्यन्ते' क-घ, ९ 'आयत्तता प्रभुत्वेछे' घ. १० इदमर्धपायं क-पुस्तके नास्ति, ११ 'वेगे' ख-ग. १२ इदमर्धपदां क-पुस्तके नास्ति. For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-२ त्रिकाण्डशेषः । भल्लुके शोणके चर्को नक्षत्रे पुनपुंसकम । ऋषिदेऽपि कक्षस्तु दोर्मूले शुष्ककानने ॥ ९८९ कक्षा वरत्राप्रकोष्ठस्पर्धोद्राहणिकासु च । कुल्माषं काञ्जिके ना तु यावके स्यादथाबिले ॥ ९९० पापे च कलुषं घोषः शब्दाभीरनिवासयोः । शुचौ दक्षे च चोक्षः स्यात्तर्षो लिप्सापिपासयोः ।। दक्षः प्रजापतौ ताम्रचूडे हरवृषे पटौ । पौरुषं मानभेदे च पुनागे पुरुषो नरे ॥ ९९२ पक्षौ मासार्धपार्टी च महिषी राजपत्न्यपि । मूर्खे माने पले माषो मेषौ राश्यन्तरोरणौ ।। ९९३ संख्यायां तु न ना लक्षा क्लीबं व्याजशरव्ययोः । हरताक्ष्यो विशालाक्षी शेषो नानन्तसीरिणोः॥ उपयुक्तेतरे वस्त्री शैलूपो नटबिल्वयोः । शुश्रूषा परिचर्या च संहर्षः स्पर्धने मुदि ॥ ९९५ योग्यायामन्तिकेऽभ्यासोऽधिवासो स्थानसंस्क्रिये । आख्यायिकापरिच्छेदे चाश्वासो निर्वृतावपि॥ उचिरुत्प्रभे वहावेनः पापापराधयोः । कनीयाननुजेऽल्पे च कसो मानेऽसुरान्तरे ॥ ९९७ नैजसे तस्य पात्रे च गुत्सः स्तबकहारयोः । छन्दः पद्यश्रुतीच्छासु तरो वेगे बलेऽपि च ॥९९८ तमः शोकेऽप्यथ हिमतो ना धर्मे व्रते तपः। पद्मे स्वर्णे तामरसं निशा दुर्गा च तामसी॥९९९ मणिदोषे दरे त्रासो दासो वित्तात्मचेटयोः । झिण्ट्यां च दासी दीर्घायुर्ऋषिः काकश्च शाल्मलि: योके च वसुगख्याने स्वान्ते सरसि मानसम् । माश्चन्द्रमासयोः पुंसि खर्जुरेश्वोर्महारसः१००१ राजहंसो नृपाये च जिद्दा भूः शल्लकी रसा | जले शरीरधातौ च पारदस्खादयो रसः ॥१००२ भाषाशृङ्खलके रासः क्रीडायामपि गोदुहाम् । रहो ग्ते च गुह्ये च रभसो हर्षवेगयोः ॥१००३ विहायाः शकुनौ पुंसि विहायः खे नपुंसकम् । पुत्रादौ तर्णके वर्षे वत्सः क्लीबं तु वक्षसि१००४ ग्मे करे न विकृते बीभत्सस्त्रिषु नार्मुने । व्यासो मुनौ च विस्तारे वर्हिर्ना कुशशुष्मणोः॥१००५ अग्रे प्रधाने च शिरः श्रीवामी विष्णुधूपयोः । सुमनाः पुष्पमालत्योः स्त्रियां ना देवधीरयोः १००६ वीणाभेदे मर्जरसो वृणके ऽथ मारसम् । पो ना पक्षिभेदे च मरो नीरतडागयोः ।। १००७ हविः मर्पिषि हव्ये च हंसस्तु खगर्ययोः । निलोंभे नृपतौ विष्णावन्तगत्मनि चेष्यते ॥ १००८ अवग्रहः स्यात्प्रकृतिभाववृष्टिविबन्धयोः । अवरोहोऽवतरणे त्रिदिवे च तलोद्गमे ॥ १००९ आरोहस्तु नितम्बे म्यादीबन्ये च समुच्छो । सक्तौ स्नेहे चाग्रहः म्यादीहा तूयमवाञ्छयोः१०१० मपे च पाकपात्रे च कटाहो महिषीदिशशौ । खड्गकोषे च कलहो दात्यूहश्चातकेऽपि च ॥१०११ ममारम्भे च पटहो ब्रह्मण्यपि पितामहः । प्रवाहो व्यवहारे च बहुर्विपुलसंख्ययोः ॥ १०१२ वराहः मकरे मेरे मुस्तकेऽप्यय मर्छने । अविद्यायां च मोहः स्यादृक्षस्कन्धेऽनिले वहः १०१३ देहनिर्माणमैन्येषु व्यूहः म्यादय विग्रहः । मंग्रामे प्रविभागे च देहविस्तारयोरपि ॥ १०१४ वैदही पिप्पलीमीतावणिक्त्रीरोचनास्वपि । संक्षेपेऽपि संग्रहः स्यात्सिंह्यो वार्ताकुवासकौ ॥१०१५ गशिभेदे हगै सिंहः श्रेष्टार्थे चोत्तरस्थितः । सौहृदे घृततैलादौ स्यात्स्नेहोऽथाव्ययाः परे ।। १०१६ नजभावे निषेधे च तद्विरुद्धतदन्ययोः । सादृश्ये चेषदर्थे च हिरुक मध्यविनायोः ॥ १०१७ पुनगर्थेऽङ्ग भोऽर्थे च सुष्वत्यर्थप्रशंसयोः । च पादपूरणे पक्षान्तरे हेतौ विनिश्चये ॥ १०१८ - १ 'ऋपिभेद क-ख-ग. २ 'नोक्षः' ब. ३ 'विश्वासो' ख-ग. ४ 'दासी' घ. ५ 'चित्रात्म' ख-ग, 'वित्तार्थ' घ, 'विन्नात्म' क. ६ 'स्तुपे' क.७ मिषे' घ. ८ 'सिंहौ' ख-ग. ९ 'वासवौ' घ, 'वासफौ' ख-ग. १० अस्यार्धपद्यस्य स्थाने 'अथाव्ययाः परे वाच्या नत्रभावे निगद्यते । तद्विरुद्धे तदन्यत्वे निषेधेऽपि च दृश्यते ॥' इति लोको व-पस्तके दृश्यने. ११ 'विलासयोः' घ. १२ 'व' ख-ग. For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२८ ३ काण्डम्-५ लिङ्गादिसंग्रहवर्गः । ही विस्मये प्रमोदे च ओमेवं प्रणवार्थयोः । युक्तार्थमधुनार्थं च सांप्रतं तद्विदो विदुः ॥ १०१९ हुं विक्रमे चानुमतौ वार्तायामरुचौ किल । प्रातर्दिने च पूर्ववेत्यर्थे पूर्वे द्युरिष्यते ॥ १०२० इति नानार्थवर्गः ॥ ३ ॥ आनन्देऽस्तु शुभं दिष्टया कटरे कटराद्भुते । भूर्भुवः स्वस्त्रिभुवनं मनागर्थे दर स्मृतम् ॥ १०२१ आमोमुमभ्युपगमे नवरं केवलार्थकम् । प्रातरर्थे नेपयति क्षणमात्रे क्षणक्षणम् ॥ १.०२२ क्षेमेणार्थे स्वस्तिना स्यादुच्चैरर्थेऽट कीर्तितम् । वारंवारं शश्वदर्थे वारंवारेण चेष्यते ॥ १०२३ उताहो यदिवा यद्वा किंवा वेति समा इमे । किंत्वर्थेऽपितु यद्यर्थे सचेत् प्राक् त्वादिवाचकम् १०२४ अस्त्याह कालसामान्ये तिङन्तप्रतिरूपकम् । सेजूः सहाथै नेत्याह निषेधे यदि शेषगीः ॥ १०२५ विभाषान्यतरस्यां वा विकल्पार्थाः प्रकीर्तिताः । ते इति स्यात्त्वयेत्यर्थे मयेत्यर्थे च मे इति ।। १०२६ इत्यव्ययवर्गः ॥ ४ ॥ लिङ्गादिसंग्रहेऽनुक्तममरेणाभिदध्महे । त्रियामाजिर्दरज्जाति: पुरु द्वाः समाः शरत् ॥ १०२७ सिकताद्या बहुत्वेऽपि विंशत्याद्येकवागपि ॥ पुंस्त्वे हाहा हुहुन्थिः पाणिः कलिईतिौलिः । अञ्जलिरभिः कुक्षिीवकलोकोत्तरासङ्गाः ॥ १०२९ अवटवातसंकेतपोतगर्तगच्छदाः । श्लेष्मोष्मपापयक्ष्माश्मात्मानो वातायनः स्तनः ॥ १०३० फेनाभिजनकलापनिकाय्याहारोचारोपलकल्लोलाः । फालचषालकीलनलतण्डुलशैवलखलविभवप्रैभवाश्च ॥ अनोपजननाडीभ्यो युगमङ्गपदं त्रणम् । अनक्षे दुन्दुभिरथ बहुलेऽप्यसवो गृहाः ॥ १०३२ सक्तवो वल्कजा लाजा दाराः प्राणा दशा इति ॥ १०३३ क्लीवे कलत्रविषबीजकुटुम्बरत्नतल्पोथकुङ्कुमपुरीतदृणाक्षराणि । शृङ्गाटपीठगृहभेषजपृष्टकिण्वदैवाण्डेभाण्डचिबुकोडुपसाहमानि ॥ १०१४ यकृत्कुहकसिध्मानि तीरं कशिपु जानु च । धमार्थसारमित्राण्यङ्गदैनन्यायबन्धुषु ॥ पुनपुंसकयो रुजीवातुस्थाणुसीधवः । स्याद्वास्तु हिङ्गु तितउ सानु कम्बु कमण्डलु ॥ १०३६ गोमयकुमुदबिम्बशङ्खाश्रमशूलसुवर्णतोरणाः । नूपुरशिखरतूर्यनिर्यासगृहाङ्कुशवर्हपल्लवाः ॥ १०३७ व्रतदिनमासवर्षदलवल्कलकोटरषण्डचामराः । चन्दनपद्मधर्मकोलाहलकिसलयदेहदोहदाः ॥ १०३८ १. 'हा' घ. २ 'कटवे कटवा' घ, 'कटरे कदरा' ख-ग. ३ 'नपतति' ख-ग, 'उनपयति' घ. ४ 'क्षणक्षणम्' ग्व-ग. ५ 'स्वस्तिनीच्चै' ख-ग. ६ 'नेति' घ. ७ 'प्रोक्तादि' . ८ 'कानसामान्ये' क-ग्व-ग. ९ 'सर्ज: ग्व-ग, 'सज्जः' घ. १० पुमद्भापाः' घ. ११ 'सरित्' ख-ग. १२ 'भारक' घ. १३ 'स्यान्मोनो' घ. १४ 'निकाह्या' ख-ग, 'निकाल्या' क. १५ 'द्वारो' व. १६ 'प्रसवाः' घ. १७ 'आनाऽप' घ. १८ 'भङ्ग' ख-ग-ध. १९ 'वबजा' ख-ग, 'वल्लजा' घ. २० 'क्त' घ. २१ 'गुद' घ. २२ 'शुभाशु' घ. २३ 'दन घ. २४ 'शीधवः' कख्न-ग. २५ 'शूर' क, 'सण' घ. २६ 'वर्मा' घ. २७ 'नर्मक, 'धर्ग' ग्व-ग. For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ३८ www.kobatirth.org अभिधान संग्रह: -- २ त्रिकाण्डशेषः । कुलिशध्वज कार्षापणपिधानमुस्तीन्धकारशृङ्गवलयाः । पठलप्रवालचषकोपवासकासारकटकसंतानाः || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३९ आकाशकु अकुत पौदनवारवाणप्रस्थावतंसनखमण्डपकच्छपुच्छाः । कान्तारकङ्कणतडागकिरीटराष्ट्रतीर्थव्रणस्तवक संक्रमपीठकानि ॥ समरसरकरणविटपङ्गारदैवतगैरिककूटागाराः । १०४१ १०४२ प्रोथमुहूर्तदिवस फलकानि काशनिदाघतिलकमुसलानि ॥ वल्मीकवृषणद्रोणगाण्डीवनिगडानि च । मुकुलादि च विज्ञेयं शिष्टसंदर्भतोऽपरम् ॥ अथ स्त्रीपुंसयोः केलिर्मणिर्यानिर्मसिर्मुनिः । मरीचिः शाल्मलिः स्वातिः श्रेणिर्मुष्टिस्तिथिः सृणिः १०४३ भस्तिरशनी पर्णीषुधिराशयः । वस्तिश्च विष्कुः कन्दुध वेणुतन्विषुवाहवः ॥ १०४४ गण्डूषगर्जजागरभुजकीलज्वालवर्तकत्रीडाः । I For Private and Personal Use Only १०४० उत्कण्टसटवराटकरभसाः स्त्रीले त टावन्ताः १०४५ शल्लको वृश्चिक: कीटः शारस्तूणो घटः कटः । शफगे वेतसचामी खियां ङयन्ताः प्रकीर्तिताः ॥ स्त्रीक्लीवयोरुडुर्दामा छर्दिर्ज्योतिः सदोर्चिषः । अथ लक्षं वणिज्यं च बडिशक्रोडपाटलम् ॥ १०४७ तारकं रसनं नीडमेते टान्तकाः स्त्रियाम् । ङयन्तास्तु नगरास्थानस्थलानि पाटलं पुरम् ।। १०४८ त्रिलिङ्गयां तु प्रतिसरस्फुलिङ्गनखरार्गलाः । कन्दरं शृङ्खलं नालं वल्लूरफलपुंस्तकाः || जृम्भश्च टावन्ता एते स्त्रियामथ विभीतकः । हरीतकाढकतटकवाटाञ्च गुणे वटः ॥ मण्डलं शललं भल्लातकं कलसकन्दलौ । मृणालामलको दाडिमश्च जयन्ताः स्त्रियामिमे || १०५१ करणे ल्युट् त्रिषु यथा तस्य व्याख्यान इत्यदः । सूत्रकृद्भाष्यकृत्को सावनुमान इतीच्छति ॥ १०५२ इति लिङ्गादिसंग्रह वर्गः ॥ ५ ॥ १०४९ १०५० दृष्टप्रयोगा ये शब्दाः प्रायस्त इह कीर्तिताः । अप्रयुक्तास्तूत्पलिन्यादिदृष्टा अप्युपेक्षिताः || १०५३ इति त्रिकाण्डशेष तृतीयं काण्डम् । · १ 'निधान' घ. २ 'स्तान्ककार' क, 'स्ताककरु' व ३ 'प्रस्ता' क, 'मुस्ता' व ४ 'पाङ्गना' व ५ 'कुटा' व. ६ 'छदि' क. ७ 'मुस्तका: ' व ८ ' तस्य व्याख्यान इति व्याख्यातव्यनाम्नः' (४ | ३ | ६६ ) इति पाणिनिसूत्रम्. ९ ‘भूवादयो धातवः' इति सूत्रव्याख्याने महाभाष्ये. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ अभिधानसंग्रहः। (३) श्रीपुरुषोत्तमदेवप्रणीता हारावली। भुजगपतिविमुक्तस्वच्छनिर्मोकवल्लीविलसितमनुकुर्वन्यस्य गङ्गाप्रवाहः । शिरसि सरसभास्वन्मालतीदामलक्ष्मी लघयति हिमगौरः सोऽस्तु वः साध्यसिद्ध्यै ॥ १ कल्पावसानसमये स्थितये कवीनां देहान्तरं सृजति या किमपि प्रसन्ना । यस्याः प्रसादपरमाणुरपि प्रतिष्ठामभ्येति कामपि नमामि सरस्वती ताम् ॥ निर्मत्सराः सुकृतिनः खलु ये विविच्य कणे गुणस्य कणमप्यवतंसयन्ति । येषां मनो न रमते परदोषवाद ते केचिदेव विरला भवि संचरन्ति ॥ मुक्तामयातिमधुरा मसृणावदातच्छायाधिरागतरलामलसद्गुणश्रीः । साध्वी सतां भजतु कण्टमसौ प्रियेव हारावली विरचिता पुरुषोत्तमेन ॥ कि नात्र सन्ति सुधियामभिधानकोषाः किंतु प्रसिद्धविषयव्यवहारभाजः । गोष्ठीषु वादपरमोहफलासु केषां हारावली न विदधाति विदग्धिमानम् ॥ एकं तमेव गणयन्ति परं विदग्धा वाचां विदग्धिमनि मज्जति यस्य लोकः । गोष्टीपु यः परमशाब्दिकदुर्गमासु दुर्बोधशब्दगतसंशयमुच्छिनत्ति ॥ आव्याधशब्दतः श्लोकैरर्धरातलिमात्ततः । शब्दाः पादैविबोद्धव्याः प्रागनेकार्थतस्ततः ।। विषमनयनशंभू चन्द्रमौलिर्भगाली वृषभपतिगणेशौ रेरिहाणो वृषाङ्कः । त्रिपुरदहनशूलिस्थाणुखटाङ्गिहिण्डिप्रियतमशितिकण्ठा भर्यकल्माषकण्ठौ ॥ शतधामा चतुष्पाणिः पृष्णिगर्भो गदाग्रजः । गदी कौस्तुभवक्षाश्च पाश्चजन्यधरोऽच्युतः ॥ वैनतेयः पक्षिसिंहः शाल्मली हरिवाहनः । अमृताहरणस्ताक्ष्यो नागाशनखगेश्वरौ ॥ खगपतङ्गवियन्मणिभानवो हरिभगेननिदाघकराद्रयः ।। ____किरणमालिविरोचनहेलयो दिनमणिस्तरणिश्च दिनप्रणीः ॥ श्रुतःश्रवानुजः क्रोडो मन्दश्छायासुतः शनिः । सप्ताचिर्नीलवसनः पातङ्गिः क्रूरलोचनः ॥ १२ दाक्षायणीपतिवलक्षगुपक्षजन्मतुङ्गीशरात्रिमणिदर्शविपत्सुधाङ्गाः । राजा समुद्रनवनीततमोनुदौ मा ग्लौरिन्दुरेणतिलको हरिरोहिणीशौ ॥ १३ १ 'लपयति' ग. २ 'किमपि या सृजति प्रसन्ना' ख-ग. ३ 'नैव' ख-ग. ४ 'शङ्क' ख-ग. ५ 'वृषभगति' ख.ग. ६ 'कालो' क, ७ 'सुधांशुः क, 'सुधाङ्गः' ख-ग', For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभिधान संग्रहः – ३ हारावली | - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महामृगः पुष्करिदीर्घमारुतौ विलोलजिह्वो जलकाङ्क्षसिन्धुरौ । द्विपायिशूर्पश्रुतिकुम्भिसामजा महामद: पेत्रकिपद्मिपीलवः ॥ दर्वीकरो विषधरः श्वसनाशनोऽहिश्चक्री फणाधरविषायुधदीर्घपृष्टाः । कुम्भीनसद्विरसनौ समकोल इंष्टिगोकर्णकुण्डलिलतारसना विषास्यः ॥ सवा चोपकृतं पूर्वमयं चोपकरिष्यति । इति यः क्रियते संधिः प्रतीकारः स उच्यते ॥ शेषमक्षरमादाय प्रतिश्लोकं क्रमेण यत् । अन्योन्यं पठ्यते श्लोकः प्रतिमालेति सा मता ॥ नभश्वरो वायुदारुर्वनदो गगनध्वजः । व्योमधूमो जलमसिः खतमालः पयोधरः ॥ हर्षादुत्सवकाले यदकाराम्बरादिकम् | आकृष्य गृह्यते पूर्णपात्रं पूर्णानकं च तत् ॥ सुरते कर्णमूले च यच देशीयभाषया । दम्पत्योर्जल्पितं मन्दं मन्मनं तद्विदुर्बुधाः || यद्दीयते देवताभ्यो मनोराज्यस्य सिद्धये । उपयाचितकं दिव्यदोहदं तद्विदुर्बुधाः ॥ नक्तं निर्गत्य यत्किचिच्छुभाशुभकरं वचः । श्रूयते तद्विदुधरा दैवप्रमुपश्रुतिम् ॥ वृद्ध सूत्रकमित्याहुरिन्द्रतुलं मनीषिणः । ग्रीष्महासं वंशकर्फ वाततूलं मरुद्धजम् ॥ arrest गृहमणिः स्नेहाशः कज्जलध्वजः । जटाज्वालो दशाकर्षः कथितो बहुवभिः || गोमयच्छत्रिकामाहुर्दिलीरं च शिलीन्ध्रकम् । ऊर्व्यङ्ग च रसावोटं गोनासमपरे विदुः || हिमवान्हेमकूटञ्च निषधो मेरुरेव च । चैत्रः कर्णी च शृङ्गी च सप्तैते वर्षपर्वताः || इति श्रावधिः ॥ १ ॥ १.४ For Private and Personal Use Only १५ १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ ૨૭ २९ व्याधी मृगवधाजीवो निपाद: पुष्कसः प्लवः । वालवायजमिच्छन्ति वैदूर्यमणिमुत्तमाः || कालग्रन्थिः समाः संवन्मांसमालो युगांशकः । मासो वर्षाशकः श्रमो वर्षाङ्गः स्यादहर्गणः || २८ मदयोग विधानं तु व्यस्तारं करिणां विदुः । पृष्ठवंशस्य यन्मांसं तल्पनं तत्प्रचक्षते ॥ कर्णवेधनका प्रोक्ता नालिकेति विषाणिनाम् । प्रवेष्टमन्तः स्वेदानां दन्तमांसं विदुर्बुधाः ॥ कुमारभृत्या गर्भिण्याः परिचर्याभिधीयते । नवोढावस्त्रमानन्द पटमिच्छन्ति सूरयः ॥ कर्णीसुतो मूलदेवो मूलभद्रः कलाङ्करः । ज्येष्ठामूलीयमिच्छन्ति मासमाषाढपूर्वजम् || नित्यकर्मसमाचारनिष्ठुरत्वे कैंटङ्कता । वैरानुबन्धो धीमद्भिरुपनाहो विधीयते ॥ स्यात्पालिका कुन्तलिका दध्यादिच्छेदनी तु या । वैशाखो दधिचारः स्यात्तं काटकरघर्षणौ ॥ स्यादापादभवो भौमो नवाचिर्गगनोल्मुकः । पञ्चाचिः स्याच्छ्रविष्टाजो ज्ञ एकाङ्गः प्रहर्षणः || ३५ दीदिविर्द्वादशाचिः स्याज्जीवः प्राक्फल्गुनीसुतः । काव्यो दैत्यपुरोधाः स्यात्षोडशार्चिर्मद्याभवः ३६ उपप्लवोकचः केतुरश्लेषाभव अहिकः । ज्योतीरथ ग्रहाधारो ध्रुव उत्तानपादजः ॥ स्वर्भानुं ग्रहकल्लोलं विदुरभ्रपिशाचकम् । वनीयको यचनको वसुकीटो मुखंपचः || जायमानविषाणाये कटाहो महिषीशिशौ । छेदो हस्तेन सस्यानां कटभङ्ग उदाहृतः ॥ जलत्रा जङ्गमकुटी कावारी मूर्धकपरी । उष्णवारणमुत्कूटं चक्राङ्गं च पेटीटजम् ॥ ३७ ३८ ३९ ४० ३० ३१ ३२ ३३ ३४ १ 'यत्' क. २ 'प्रतीहारः ' ख ग ३ 'तु देवेभ्यो' ख ग ४ 'वशारोह' ख-ग. ५ 'गोलास' ख-ग. ६ 'नियाद:' क. ७ 'पुल्कसः' ख-ग. ८ 'मासमानो ख-ग. ९ 'विधीयते' क. १० 'कटुङ्कता' ख ग. ११ वी - गानुबन्धी' ख-ग, १२ 'तक्राट: करघर्षणः ' ख-ग. १३ 'पञ्चाचिश्च ख- ग. १४ ‘प्राक्फाल्गुनीभवः' ख-ग. १५ 'आङ्गिकः क. १६ 'वाचक' क १७ 'म' खग १८ 'पु·ोटजम्' ख-भ. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ अर्धोकावधिः । 1 मुनीनां च चिताकुट्यां पर्णाटजसहोटजौ । कारोत्तरश्च वीनाही प्रहिरन्धुर्जलाम्बिका || जलकूपी जलाष्टीली तलकं पुष्करिण्यपि । आसन्नास्तमयः कैश्चिदुपधूपित उच्यते ॥ तत्क्षणादित्यमुक्तां तु वदन्त्यङ्गारिणीं दिशम् । अङ्गारितं पलाशानां कलिकानिर्गमो भवेत् ॥ गन्धारं रक्तचूर्ण च सिन्दूरं रक्तवालुकम् | कुसृत्या विभवान्वेषी पार्श्वकः संधिजीवकः || अधश्चगे भवेञ्चौरः कुसुमाल: कुजम्भलः । प्रोक्तः करिकुसुम्भस्तु नागकेसर चूर्णके ॥ वर्वरी वर्वरीकं च वर्बुरीत्यपि चेष्यते । अभावात्त्रीपरित्यागस्तुरगब्रह्मचर्यकम् || यमिनां यद्रतं गोप्यं तत्वञ्जनरतं विदुः । स्यादाचामनकः प्रोष्टः कटकोलः पतद्रहः ॥ मेलानन्दा मसिमणिर्मसिधानी मसिप्रसूः । वालपवीतं तु विदुः पञ्चावदमुरस्कटम् || नारीणां मण्डलीनृत्यं बुधा हल्लीसकं विदुः । मारीचो याजकगजो राजहस्ती मदोत्कटः ॥ अलंकारसुवर्ण यत्तच्छृङ्गीकनकं मतम् । रतिलक्षं निधुवनं संयोजनमिति स्मृतम् ॥ जीमूतकूटकुट्टीरकुट्टारा: कन्दराकरः । उद्देशो गण्डकूपस्तु पर्वतस्याभिधीयते || वासिता धेनुका चैव वशा च गणिका कटा । ब्रह्माप्रभूः ऋतुपशुः सिंहविक्रान्तवाजिनौ || समुद्रगा निर्झरिणी तलोदा जम्बालिनी शैवलिनी तरङ्गिणी । विपाठकादम्बकपत्रवाहाः पत्री खगो वीरतरोऽस्त्रकण्टकः ॥ 3 For Private and Personal Use Only ४१ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ ४७ ४८ ४९ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ पलमामिषमुद्धसम् ।। वर्णदूतः स्वस्तिमुख लेखो वाचिकहारकः । लेखो निबध्यते येन तत्र काचनकाभिधा || चारोत्थं मणिमन्थं च विदुः सिन्धूपलं बुधाः । पिशितं पल पारावारमहाकच्छौ महीप्राचीरदारदौ । जिह्वारदः कीर्कैसास्यचक्षुमत्तरुशायिनौ ॥ इन्द्रक्रीडासरः प्राज्ञैर्नन्दीसर इति स्मृतम् । धूमोर्णापतिरुद्दिष्टो यमो महिषवाहनः ॥ पोनो मेको पलो मेघास्थिबीजोदकतोयैडिम्बाः । शम्पाचिराभा चपला छटाभा हादिन्यधीरा घनवल्लिका च ॥ ६१. पादालिन्दी तरण्डा नौस्तरणिस्तारणिस्तरिः । किलाट : शोषितक्षीरपिण्डः सूरिभिरिष्यते ॥ कालायसमग्रस्तीक्ष्णं गिरिसारं च स्किम् । हैयङ्गवीनं रिजं मन्थजं च कैलम्बुदम् ॥ ऐकशफाङ्किकं बन्धमाहुर्दामाञ्जनं बुधाः । वेत्ता स्त्रीपुंसयोचि सामुद्रिक उदाहृतः ॥ तिन्तिडीकास्थिभिद्यूतक्रीडायां चुञ्जुली भवेत् । वक्रा ललाटगास्तिस्रो भस्मरेखास्त्रिपुण्डकम् ॥ ६२ हाला कॉमालिका मण्डा वीरों स्यान्मदिनी च मध्वी च । (?) आहुचषकं तु पानपात्रं पारीमप्यनुतर्पणं कवीन्द्राः ॥ ( 3 ) कुसुम्भः करकचैत्यमुखः कमण्डलुः स्मृतः । असहायो नर्तकश्च तालावर इष्यते ॥ ५८ ५९ ६० ६३ ६४ १ अयं श्लोकार्थः क-पुस्तके नास्ति २ 'करोत्तर' क. ३ ' वर्वरं' ख ग ४ 'ववेरी' ख ग ५ अयमर्थ श्लोकः क पुस्तके नास्ति ६ 'हल्लीपकम् ' ख ग ७ 'कमिष्यते' क. ८ 'करिणी मता' ख ग ९ 'अभिवयते' क. १० ' क्षाराच्छं' ख ग ११ 'महीपाचीर' क. १२ 'जिह्वादर : ' ख ग १३ 'कीकशास्यः' ख-ग. १४ 'घनोफलो' ख ग १५ 'तोयडिम्भाः ' ख-ग. १६ 'शस्तकम्' ख ग १७ 'हृय्यंगवीनं' ख-ग. १८ 'सरजं' ख-ग. १९ ‘कलम्बुटम्' क २० 'एकं शफालिकं' ख-ग. २१ 'सामुद्रिय' क. २२ 'तिन्तिलिका ' - ग. २३ ' कचमालिका' क. २४ 'धीरा' ख ग २५ 'मदनी' ख ग २६ 'माधवी' क. २७ छन्दोभङ्गदृपित एव पाट: सर्व पुस्तकेषु वर्तत. ६ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 2 अभिधानसंग्रह :- -३ हारावली । कथितः कौमुदीवृक्षो दीपवृक्षः शिखातरुः । कोजागरे तथा सद्भिः कौमुदीचार इष्यते ।। समुद्रगृहमित्याहुर्जलयन्त्रनिकेतनम् । प्रेतादिभिर्गृहीतो यः स आविष्टो भ्रमन्बहिः ॥ हिममिन्द्राग्निधूमश्च खवाष्पो रजनीजलम् । ये शिवायतन उत्सृष्टास्ते संध्यावलयो वृषाः || विषाक्तास्त्रहतस्याहुः पशोर्मासं तु गृञ्जनम् । धूमिका धूममहिषी हिंमसृष्टिः कुहेलिका | पौत्राच्छादनमाहुस्तु वैरकमथ वस्त्रकुट्टिमं कवयः | तन्त्रविमुक्तं वाम विणं निष्प्रवाणि च ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६९ ७० ७२ ऋयारोहं महाघोषं हट्टं पण्याजिरं विदुः । बहुमानुषसंकीर्ण निर्मुटं च कैराङ्गणम् ॥ शालभञ्जी दारुगर्भा कुरुण्टी दारुपुत्रिका । नवः कादिम्बिनी मेघः काली स्यात्कालिकापि च ७१ कोशध्वनिः क्रोशतालो ढक्का विजयमईलः । स्यात्प्रतिपत्तिपटहो लम्पापटह इत्यपि ॥ कर्तन कीयवलनं तनुत्रं दशनं विदुः । शिरखं तु शीर्षरक्षं शीर्षण्यं शीर्षकं च तत् ॥ स्याज्जालिका लोहमयी जालप्रायाङ्गरक्षिणी । पन्नी पादविरजाः कोशी पादरी भवेत् ॥ चकं लवणं क्षारं तीक्ष्णं जलरसं विदुः । ज्योतिर्बीजं च खद्योतं ध्वान्तोन्मेषं तमोमणिः || ७५ जलशुकरजलजिौ जलकण्टकवार्भटौ तथा नक्रे । जलनकुलजलविडालौ नीरानुजलप्लावुद्रे || ७३ ७४ शिशुमारो जलपिपलाङ्गोऽसिपुच्छकः । ग्राहो जलकिरातश्च नक्रराजो जलाण्टकः ॥ मृतकान्तकः श्रभीरुर्वृकधूर्तशयालुसूचका भरुजः । शालामृगोऽस्थिभक्षो ग्राममृगो मण्डलः कपिलः ॥ ६५ ६६ ६७ ६८ For Private and Personal Use Only ७६ ७७ ७८ ८० उल्कामुखी मृगाली या दीप्तजिद्वेति सा मता । स्कन्धवाहः शांकरश्च शृङ्गी गोरक्षमूर्ति ॥ ७९ ires: कामरचैव रक्ताक्षः सैरिभस्तथा । रोमशो बहुरोमा स्यादुरणश्च पृथूदरः || इडिकस्तु बालवाह्यो वनच्छागो निरोमशः । वणो धूम्रशुकः स्यादुष्ट्रः शृङ्खलकस्तथा ॥ चक्रमुखः सूचिरोमा वराहः स्थूलनासिकः । कण्ठीरवस्तु पारीन्द्रः केशरी गजमाचलः ॥ नेत्रपिण्डो वृषाहारो मेनादः कुन्दमः स्मृतः । गन्धाखुर्गृहन कुलञ्छुः पुंवृष उच्यते ॥ द्रोणोऽरिष्टो नाडिजङ्घ आत्मवोपस्तु मौद्गुलिः । गोभण्डीरः पङ्ककीरो हापुत्री जपट्टिका || ङ्गाङ्ग तु देवट्टी विश्वका जलकुकुटी । विट्सारिका तु कुणपी गोराटी गोकिराटिका ।। मृगेन्द्रटको घानपक्षी ग्राहकमारकौ । कुलाले कुकुटं प्राहुः कुकुभं कुहकस्वरम् ॥ कर्कराक्षः कलाटीनः खञ्जलेग्वस्तु खञ्जनः । प्रासादकुक्कुटो झलकण्टो गृहकपोतकः ॥ व्वाङ्गपुष्टः कलकण्ठो मधुकण्टः कुमुखः । झम्पाशी मत्स्यरङ्कः स्याज्जैलेशङ्कर्मणीचकः ॥ कलविङ्कचित्र गृहनीडो गृहायणः । वैरेण्डा चित्रपादा च चित्रनेत्रा च सारिका ॥ मयूरचटको दक्षः कृकवाकुर्निशोकलः । शतपत्र: सितापाङ्गः प्रचलाकी च चन्द्रकी || ८१. ረ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८९. ९० १ 'हिमझष्टिः खग. २ 'पोताच्छादन' ख ग ३ 'वचक' ख-ग. ४ 'निष्प्रवणि' ख-ग. ५ 'निर्घट' स्व-ग. ६ करङ्गणमः क. ७ 'कादम्बिनी नवो' ख-ग. ८ 'कोशो ध्वनिः' क ९ 'प्रतिपत्तिः पटहो' ख-ग १० 'कुकुटः ख ग ११ ' कायकलने ख-ग. १२ 'करचं' क. १३ 'पिः पलाङ्गश्वा' ख-ग. १४ 'जलविहार क. १५ 'तिला' ख-ग. १६ 'वरणो' ख ग १७ 'राजभड़िका' ख ग १८ 'गङ्गाचिली' ख-ग. १९ 'जलमत्र' ख-ग. २० 'वृषायणः' ख-ग. २१ 'वचण्डा' क. २२ 'निशाकरः' ख-ग. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ अर्धश्नांकावधिः। किसलयमपि तरुरागं विदुर्लतायावकं प्रवालं च । कण्टकसंज्ञास्तरुनखशिंताग्रदलसूचिवडिलद्रुमवाः ।। द्रोणीदलः सूचिपुष्पो जम्बूलः क्रकचच्छदः । मण्डा तिष्यफला धात्री बल्या पञ्चरसा शिवा॥९२ सहस्रवीर्या विरजा भार्गवी मण्डलारुहा । प्रहर्षिणी निशाह्वा च लसा गन्धपलाशिका ॥ ९३ मृदुपुष्पः शुकतरु: शिरीषो विषनाशनः । वराहकाली कथितः सूर्यावर्तस्तु शाब्दिकैः ॥ ९४ वैवल्लयस्थिसंहागे हस्तिशुण्डी वनालिका । वनतिक्तः स्त्रियां ग्रीष्मातिरीढः पथ्यसुन्दरः ॥ ९५ मधुपुष्पो मधूकश्च गुडपुष्पो मधुद्रुमः । वृत्तपुष्पः प्रावृषेण्यो 'हलिद्रुश्च हलिप्रियः ॥ ९६ एला चिसुगन्धा च पुटिका चर्मसंभवा । कूष्माण्डकः पुष्पफलो घनवासश्च वेष्टकः ॥ ९७ वेषणः कासमर्दश्व पत्रोपस्कर इत्यपि । ओकोदशाली प्राचीरमेधौलिरवहालिका ॥ ९८ कल्यवर्तः प्रातराशः प्रातर्भोजनमिष्यते । शृगालिका च डिम्बं च डमरं विद्रवोऽपि च ॥ ९९ स्कन्धफल: सुभङ्गश्च नारिकेल: पटोदकः । गुडदारर्मधुतृणमसिपत्रो महारसः ॥ १०० गंजाकुलो महाकन्दो मूलको हस्तिदन्तकः । इंद्रवंशा तिक्तगुञ्जा सरघा विद्धपर्कटी ॥ १०१ शुद्रपत्रा च चाङ्गेरी क्षुद्राम्ला चाम्ललोणिका । प्राचीनामलकं रक्तं वेदरामलकं तथा ॥ १०२ पिष्टसौरभमेकाङ्गं श्रीखण्डं मालयं विदुः । मृगनाभिं मृगमदं गन्धशेखरमित्यपि ॥ १०३ सिताभ्रं तरुसारं च वेधकं रसकेसरम् । कालेयं वंशकं जोङ्गं कालीयं वरचन्दनम् ॥ १०४ तृणसारामृतफला रम्भा च शाल्मली भवेत् । ऊर्ध्वासितः परारुः स्यात्तथा राजपटोलकः ॥ १०५ कुकमं पीतकावेरं घुसणं कुसुमात्मकम् । अरको जलकेशः स्यात्कोवारं शैवलं विदुः॥ १०६ उन्मत्तः काहलापुष्पो वृहत्पाटलिघाण्टिको । किंशुकः कनकः पर्णो लाक्षावृक्षः सुभीरवः ॥ १०७ ऐरेण्डपश्चाङ्गुलवर्धमानगन्धर्वहस्तास्त्रिपुटीफलश्च । वेणुः सतीलस्तृणकेतुमृत्युबीजौ किलाटी च तथा सुपर्वा ॥ १.०८ कचमालो मरुद्वाहो धूमो भैम्भः शिखिध्वजः । शाखानगरमित्याहुर्यदेभ्यर्णं पुरान्तरम् ॥ १०९ आहुर्जलकरङ्गश्च जलजं सूचिकामुखम् । उपजिविकोत्पादिका वैटिरुद्दोहिका दरी॥ ११० शुल्वमौम्बरं रक्तं म्लेच्छास्यं ताम्रकं विदुः । दुर्नामा दीर्घकोषी स्यात्पङ्कशुक्तिः सितालिका १११ आकाशमूली कुतृणं कुम्भिका जलवल्कलम् । शम्बूको जलडिम्बः स्याद्वैन्धुरः पङ्कबन्धुरः ॥ १.१२ आटीकनं तर्णकानां स्थलीसु क्रीडनं मतम् । यष्टिः शब्दवती धीरैः खेखरीक इति स्मृतः ॥ ११३ रेखात्रयाङ्कितं भालं त्रिपताकं विदुर्बुधाः । अर्धचन्द्रं कर्करेटमाहुरङ्गुलितोरणम् ॥ ११४ १ 'कण्टकसंज्ञ' क. २ क-पुस्तके नास्ति. ३ 'राङ्किल' ख-ग, ४ 'द्रुमराः' ख-ग. ५ 'तिक्षफला' क. ६ 'बन्या' क. ७ 'मण्डली रुहा' ख-ग. ८ 'गन्धपलासिका क. ९ 'विपनाशकः' क. १० 'विराहकाली' क. १: 'वनपल्लय' क. १२ 'तिरिट:' क. १३ 'पक्षमन्दर' ख-ग. १४ 'माविषेण्यो' क. १५ 'हारिद्र' ख-ग. १६ 'त्वची' क. १७ 'भेष्टकः' क. १८ 'मोघोली' ख-ग. १९ 'राजालुको क. २० 'क्षद्ररसा' ख-ग. २१ 'वदरावलकं' क. २२ 'मृत्युफला' ख-ग. २३ 'कुसुमालयम्' क, २४ 'स्रावकम क. २', 'कवालम्' क. २६ 'करकः' ख-ग, २७ 'अमण्ड' ख-ग. २८ 'सचीन' क. २९ 'मम्मः ' ख-ग. ३० दखण्डं' क. ३१ 'सद्देहिकादिवी' ख-ग. ३२ 'मुदुम्बरं' क. ३३ 'दीर्घघोषी' क. ३४ 'शिहालिका' क. ३५ 'दश्वरः पङ्कमण्डुकः' ख-ग, ३६ 'आटीलकं' ख-ग. ३७ कर्करेटं विदु ख-ग, For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-३ हारावली । ११५ सिद्धजलं च गृहाम्लमवन्तिसोमं तुषोदकं शुक्तम् । नग्नाटकनिम्रन्थकभदन्तदिगम्बरा नग्ने ॥ करपन्नं जलक्रीडा व्यात्युक्षी कॅरपत्रिका । शराणां पत्ररचना पत्रणा परिकीर्तिता ॥ ११६ पञ्चभद्रा हयास्ते ये पश्चसङ्गेषु पुष्पिताः । यश्चारको मुद्गभुजां स स्याद्वल्लभपालकः ॥ ११७ निगालस्थो य आवर्तः स हि देवमणिः स्मृतः । तथा वक्षसि वाहस्य श्रीवृक्षक उदाहृतः ॥ ११८ वन्धः पलाशपत्राणां शीर्षे पत्रपिशाचिका । सुवसन्तकशब्देन कथ्यते मदनोत्सवः॥ ११९ कटं द्विशतग्राममध्ये ग्राममनोहरम् । तथा चतुःशतग्राममध्ये द्रोणीमुखं विदुः ॥ १२० यद्यात्रामङ्गलं साम तदप्रतिरथं विदुः । शाला प्रासादशिखरे चन्द्रशालेति कीर्तिता ॥ १२१ गुद्धे यत्क्रियते पानं वीरपानं तदुच्यते । पक्कदाडिम्बबीजाभं माणिक्यं शिखरं विदुः ॥ १२२ इत्यधश्लोकावधिः ॥२॥ नलिनं तुच्छमित्याहुगुहारमा गृहकच्छपः । खसंचारि पुरं सौभं रथ्यां पांशुकुलं विदुः ॥ १२३ एकनटः स्यात्कथको भण्डचाटुपटः स्मृतः । मक्षिका भम्भराली स्यात्पांशुलो दूषकः स्मृतः॥ १२४ देवोद्यानं तु वैभ्राजं दीपाली दीपशृङ्खला । सुकुमारेऽपि सोपानं विषमं स्थपुटं विदुः ॥ १२५ फलकः खगपिधानं स्यात्सारणी च प्रणालिका । यज्ञस्थानं यज्ञवाटस्तृष्णा धनपिशाचिका ॥१२६ स्मृता वाल्वङ्गिरिारुः स्फुटिरिवारुशुक्तिका । नाटाम्रस्तिमिषः सेदुस्तालाङ्करः पुञ्जातकः ॥ १२७ कांशासिका जालिका तु तृणता धनुरिष्यते । कैरातो 'ग्रहः क्षम्यः सिंहाङ्कः सिंहभाजनम् ॥१२८ वटो दण्डवादी स्थासुतः शतिनवर्णकः । प्रारब्धिः करिवन्धः स्यात्कष्ठस्थानं तु वारकम् ॥ १२९ भोगावली वन्दिपाठः सतुम्तरणपिण्डलौ । देवयात्रा देवद्रोणी सूनाधोजिबिका मता ॥ १३० पालिः समुत्थितश्मश्रुमरुण्डोच्चललाटिका । राका दृष्टरजाः कन्या पोटा स्त्रीपुंसलक्षणा ॥ १३५ महत्तरो ग्रामकृटो मर्मरो व्यक्तनिःस्वनः । शिवालयः पितृवनं चिता काष्ठमयी चितिः॥ १३२ कर्णवंशो भवेन्मश्चः श्रीग्रहः शकुनिप्रपा । ताम्बूलदो वागुलिकः सुरभिः फाल्गुनानुजः ॥ १३३ ताम्बूलरागा मसुरस्तरवारिः कृपाणकः । स्वागतं कुशलप्रश्नः सामीची वन्दना मता ॥ १३४ समुद्गः संपुटो शेयो हयस्कन्धो हयच्छटा । पिण्डारो महिषीपाले मसूरे चौङ्गभोगिकः ॥ १३५ तलनी काहली प्रोक्ता क्षुधा तु कथिता सुधा । कम्पिल्लको रोचनिका कालिका वस्कराटिका||१३६ कालिका क्षीरकीटः स्यात्खण्डपालस्तु खण्डिकः । पांशुल: पीठसी स्यात्तनुलो रोमशः स्मृतः१३७ 2. 'सिद्धोदकम्' क. २ निर्गण्डक' क.३ 'दिगम्बरका' ख-ग. ४ 'जलपत्रिका' क. ५ 'कर्कटं' क. ६ अयं लोकः ख-ग-पुस्तकयोनास्ति. ७ 'गृह्याश्मा गिरिकच्छपः' क. ८ 'सौधं ख-ग. ९ 'पांशुकुली' ख-ग. १० एकनटः' ख-ग. १. 'चाट्वटुः क. १२ 'पांशुरो देशकः' ख-ग. १३ 'सोमाले' ख-ग. १४ 'गुणहः ख-ग. १५ 'लटाम्न' क. १६ 'कोमासिका तु जालिका । पुञ्जातुकः फलेलांकु' ख-ग. १७ 'त्रिणता' क, १८ 'दोहक्षामाः खग. १९ सिद्धाणं काचभाजनम्' ग्व-ग. २० 'गवाटी दावामी स्याम्तेनः शापिकवणकः' क. २१ 'तु: पूरण रख-1, २२ शना ख-ग, २३ 'पाली’ क. २४ 'गुरुण्डा न. २५ 'शिवानकः क. २६ 'श्रीद्रहः' क. २७ 'वागुविकः क. २८ 'पूगपात्रेय पालकम् । तरवारि: कृ.पाणे स्यात्' क. २९ 'च गभोलिकः' ख-ग. ३० तरुणी' ख-ग. ३१ च्छुरा' ख-ग. ३२ मण्डपालस्तु पण्डिकः' के. ३३ 'दुलालो' ख-ग. For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ पादावधिः । पगपात्रे फरुवकं कवन्धी रेण्डमुच्यते । तूलिका स्यान्नवलिका स्त्यानमालस्यमिष्यते ॥ १३८ भाजने कमटं विद्यात्पुण्यश्लोको नलो मतः । गौग्वे प्रतिपत्तिः स्याद्धारिः पथिकसंहतिः ॥ १३९ यामिकिन्यपि यामिस्त्री हाफिका चोपपुष्पिका । वातपुत्रे विटधरौ निर्माल्यं निर्मलं मतम् ।। १४० इन्द्रासने मता गुञ्जा गुलुच्छो गुच्छको मतः । भोगावासो वासगृहं मेण्ठो हस्तिपकः स्मृतः॥१४१ मायुः पलाग्निः पलनं ज्वरः स्यादजीर्णमत्रंधमिगमयश्च । तृप्तिश्च सौहित्यमुदन्तिका स्यात्क्षुक्षारिका भोगपिशाचिका च ॥ १४२ गालो जलवरण्डः स्यात्कला कुम्भीरमक्षिका । वहनं वार्भट: पोतस्तरालुश्चाहिपुत्रकः ।। १४३ काहलं तु महानादं मन्त्राङ्गं पत्तनं मतम् । स्यादरित्रं तरिरथः पात्रपालस्तुला घटः ॥ काकिनी पणतुर्याशे ज्वलदङ्गाग्मुल्मकम् । औजानं च स्वभावः स्यान्मञ्जिका वारसुन्दरी ॥ १४५ नीलमणिर्मसार: स्याद्रुा पाठहिका मता । भार्या पाणिगृहीती च दुकूलं क्षौममुच्यते ॥ १४६ ग्रन्थस्य निर्मितौ शय्या वधूटी वधुटी जनी । वन्दिचौरो माचलः कुम्भिल: संधिहारकः॥ १४७ अभ्रमुस्त्वभ्रनागस्य कुमुदस्य तु पिङ्गला । अङ्गना वामनस्य स्याद अनस्याञ्जनावती ॥ १४८ कपिला पुण्डरीकस्यानुपमा सुप्रतीकस्य । शेषस्य ताम्रकर्णी च शुभ्रदन्ती सार्वभौमस्य ॥ १४९ सेवाचाटूक्तिरालोको मठो गन्त्री स्थः स्मृतः । चिपिटो धान्यचमसः खादिको लाज उत्तुषः॥१५० अभ्यासे खुरली योग्या माटिः पत्रशिरा मता । शैवः स्मृतो देवलकः खेटको वसुनन्दकः ॥१५१ पुरन्दरा तु मुग्ला कावेरी चार्थजाह्नवी । कौमुदः कार्तिको मास: सौभिकस्त्वैन्द्रजालिकः ॥ १५२ प्रहेलकं वाचनकं वीक्षापन्नः सविस्मयः । कुटलं पटलं नीवं वीथी गृहतटी मता ॥ १५३ सर्ववेशी नटः प्रोक्तो मन्दाक्षे तु नेटान्तिका । मृत्फली कुचिकः प्रोक्तः शालूरो वृष्टिभः प्लवः१५४ स्वेदः सिप्रस्तनुग्सस्वक्पुष्पं तु वगङ्कुरः । नवोढा नववरिका दिक्करी नवयौवना ॥ १५५ सौवर्चले तु रुचकं हिङ्गुरे रक्तपाग्दम् । रत्तोपलं गैरिकं च पारदे सूतकं विदुः ॥ १५६ शालूरः कम्बलः ख्यातश्चमित्वकण्डुगे व्रणः । कंपटः पारिहार्यः स्यादीालुः कुहनः स्मृतः॥ १५७ ऋणमोक्षो विगणनं लग्नके ऋणमार्गणः । भिक्षाशित्वं तु पैण्डिन्यं मण्डः पिच्छान्धसस्तथा ॥१५८ वायुकेतुः क्षितिकणः स्यादास्फाले झलज्झला । नष्टाप्तिसूत्रे लोप्वं स्यात्पाप्ययानं शिवीरथः ॥ १५९ मल्लयात्रा मल्लवी स्यान्निर्भर्त्सनमलक्तकः । कौशलिका प्राभतकमट्टकं लासकं विदुः ॥ १६० स्वदोषाच्छादनं मक्षश्चुल्ली स्यान्मूलकारिका । वाताश्वो भूमियक्षश्च वारुर्विजयकुञ्जरः ।। १६१ प्रभाते गोसगोसावञ्जनी लेपकामिनी । उत्कटो गण्डकुसुमं सिद्धः सौमेधिको मतः ॥ १६२ वृषाकपिः शिग्वी शुष्मा भस्म पार्घटमर्घटम् । उष्ट्रवामीगयोध्युष्टो गत्री लध्वी द्विवेसरा ॥ १६३ १ स्यान' क. २ 'प्रोतं.' ख-ग, ३ संततिः' क. ४ वातापत्र विटरवा' क. ५ तथा' क. ६ 'गा' क. ७ 'गुलछा' ख-ग. ८ 'भागा ख-ग. ९ 'कणा' ख-ग. १० 'वहलं बार्वट:' ख-ग. ११ स्थिराम्बुश्चापि हालकः' क. १२ 'मार्दङ्ग ख-ग, १३ 'अयानं' ख-ग. १४ 'ल्लनिका क. १५ 'पटहिका क. १६ वधंटी क. १७ वानिको लाजः उहपः' क-व. १८ 'भौतो ख-ग. १९ 'सुबला' क. २० 'विन्द्रजालिकः' ख-ग. २१ 'नाधिका' क. २२ साशकः' ख-ग. २३ ईमम्' क, 'ईमा' ख-ग. २४ 'कटकः' क. २', 'पैशुन्यं' ख-ग. २६ 'मालवी' रख-ग. २७ 'भमिपक्ष रख-ग. २८ 'गोसन्दी' क. २९ अजनियकारिणी' क, ३० 'मोत्कटे' क. ३१ पाभेटमभंम् क. For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८ अभिधानसंग्रह : - ३ हारावली | १७४ ऋणः कृमिरुद्दिष्टः शकृत्कीटेऽल्पके रुका । ॲण्डीगेऽसत्कृतं प्रोक्तः स्कन्धा विङ्गिका ॥ १६४ उलूतोऽजगरः प्रोक्तो द्विमुखोहिरहीरणिः । पुरोटि : पुरसंस्कारे हट्टी पुरतटी मता ॥ १६५ मृणालिनी पुटकिनी स्पासको बुदो भवेत् । कलाची तु प्रकोष्ठः स्याद्धस्तपुच्छस्तु कैन्युषम् || १६६ उत्साहः सूत्रतन्तुः स्यार्लिंण्डीरो नीरसः स्मृतः । हरिणहृदयो भीरुः संदेशोक्तिस्तु वाचिकम १६७ शालाजिरों वर्धमानं कुसीदं तु फैलाम्बिका । चर्चा तलप्रहारः स्यात्कर्करं मुद्गरं विदुः ॥ १६८ गोष्टागारोऽपि गुंजा स्याच्चिन्तावेश्मनि दार्वटम् । मानग्रन्थिर्भवेन्मन्तुर्निष्कुटो गृहवाटिका १६९ शैलस्य कटके दन्तस्तद्दिनं प्रतिवासरम् । सूत्रमेवं सूत्रतन्तुः कृशरापि तिलोदने || १.७० स्यादासवोऽपि कुरसः सरकं मद्यभाजनम् । निश्शुक्कणं दन्तशाणं गोग्रन्थिः शुष्कगोमये || १७१ अष्टापदं नयपीठ नयस्तु जतुपुत्रकः । बिन्दुतत्रो भवेदक्षः पाञ्चालीशारिशृङ्खलाः ॥ १७२ प्रस्तारस्तलिनं शय्या रोमगुच्छं प्रकीर्णकम् । शिवा लोपाशिका ज्ञेयां सरमा तुम्बरी शुनी ॥ १७३ पादाङ्गदं हंसकः स्यात्प्रतिकर्म प्रसाधनम् । कर्णपाशी तु कर्णान्दूरङ्गरीयकमूर्मिका ॥ खौतभूः प्रतिकूपः स्यालम्भा स्याद्वाटटङ्खला । कंधरातोरणं कण्टी सूत्राली गलमेखला ॥ शासनं धर्मकीलः स्याकृतं शूद्रशासनम् । पट्टोलिका कॢप्तकीला सिन्दूरं रक्तशासनम् ॥ रासस्तु गोदुहां क्रीडा गीतं पारावती तथा । वेणुर्यवफलो वंशो नवीने नवकालिका || मुखवटा कुलकुली तैलाची नलपट्टिका । नीपो धाराकदम्बः स्याद्वीरभद्रं तु वीरणम् || खङ्गटस्तु वृहत्काशः कोशाङ्गमिस्कटं विदुः । गण्डीरस्तु समण्डः स्याद्धीवेरं वारिबालकम् ॥ १७९ सितोत्पलं गन्धसोमं हरिमन्थोऽतिमुक्तकः । कर्कारिकस्तु कालिङ्गः शृङ्गाटो जलकण्टकः ॥ १८० हिलमांची जलत्रह्मी वायसी काकमाचिका । पुंनागः केसरश्चैव चाम्पेयो नागकेसरः ॥ १८१ स्याहोलिका तु हिन्दीला लावण्यं लवणं मतम् । सुखाशी राजतिमिशः कटुको राजसर्षपः || १८२ सितमात्री राजमाषो मसूरो व्रीहिगजकम् । मधुक्षीरस्तु खर्जूरः शालः शङ्कतरुर्मतः ॥ सुस्ती राजकशेरुः स्याद्रौहिणश्चन्दनद्रुमः । काकमदुर्जलरङ्कः कोयष्टिर्जलकुकुभः ॥ वर्तिका विष्णुलिङ्गी स्याद्वनाखुः शशकः स्मृतः । ताम्रक्रमिरिन्द्रगोपो गृहगोधा गृहालिका || १८५ दिवान्धो हरिनेत्रः स्याद्गोनर्दी लक्ष्मणा मता । कुरंकुरः पुष्कराह्नो दुलिस्तरुकूलिका ॥ १८६ कोलपुच्छस्तु कङ्कः स्याद्वैङ्गाटो योगलालिनः । ग्राममहुरिका शृङ्गी राजशृङ्गस्तु मद्गुरः ॥ १८७ पङ्कग्राहस्तु मकरः शफर: वेतकोलकः । चिंटस्तु महाशल्क: पोतीधानं जलाण्डकम् ॥ फलकी तु चित्रफली मत्स्यराजस्तु रोहितः । ककविकस्तु काकाची वकाची वकवर्तिका || १८९ कवी ऋष्टी खेलेशस्तु खलेशयः । इल्लिशो राजशफर इश्वाको जलवृश्चिकः ॥ १७८ १८३ १८४ १८८ १९० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only १७५ १७६ १.७७ १ 'कुशकीटेऽन्यकारका' ख ग २ 'भारवाहो भारिकः स्यात् ख ग ३ 'उन्नतो' ख ग ४ 'मुहालिनी' क. ५ कल्पम' क. ६ 'पिण्डरी' क. ७ 'काम्बिका वग. ८ 'मुकुर' क. ९ 'गञ्जः' ख-ग. १० 'प्रोक्ता' क. ११ ‘कर्णपाली' ख-ग. १२ 'वृत्तकील:' क. १३ 'सूत्रनी' क. १४ 'न्माकृतिः सूत्रशासनम्' क. १५ 'नवहालिका' क. १६ 'मुखघण्टः क. १७ अयमश्लोकः क पुस्तके नास्ति १८ 'बृहत्कोश' क. १९ 'मिकट' क २० 'समण्ट: ' ख ग २१ 'हिन्दोले' क २२ 'श्रीहिकाञ्चनः ' खग २३ 'कुरुकुरु: ' क. २४ 'वातुलिस्तरुतृलिका' ख-ग. २५ 'गर्गाटो योगनाविकः' स्वन्म २६ 'चिट' क २७ 'पोत्राधानं' क. २८ 'काकचिकस्तु काकोची' ख ग २३ 'खङ्गस्तु' क. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ पादावधिः । दण्डपालोऽर्धशफरः कंङ्कञोटो जलव्यथः । लघुगर्गत्रिकण्टाख्यः शिताङ्गो बालुकागडः ॥ १९१ कनकपलः कुरुविस्तः करिवलो विधानं स्यात् १९२ १९६ arat g पगडः शकुलो दण्डवालकः । निचोलकं निचुलकं मन्दामणिरलिंजरः || १९३ वेदिः स्थण्डिलसितं पन्याटो निष्कुटः स्मृतः । लोपासिका खिङ्घरी स्याद्वक्षिग सङ्गसङ्गिनी १९४ अङ्गेष्वेवाङ्गमङ्गानि स्मृतमुत्तानमुत्कटम् । स्यान्मार्जिता रसाला च चुकारः सिंहनादकः || १९५ कर्णगूथं कर्णमलं सिंहाणं नासिकामलम् । दन्तमले पुष्पिका स्यात्कुलुकं रसनामलम् || कारंधमी धातुवादी दरिद्रो दुर्विधो मतः । स्यान्मत्रगण्डकं विद्यात्पक्षद्वारं खडकिका || १९७ आर्द्रवस्त्रं जलार्द्रा स्यादोष आदीनवो मतः । योजनं मार्गधेनुः स्यान्नत्वः किष्कुचतुःशतम् || १९८ चोलको वारवाणः स्यात्कूर्पासस्त्वर्धचोलकः । नागोदरमुरखाणं जङ्घात्राणं तु मङ्कणम् ॥ १९९ स्यात्प्रासादो देवकुलं तत्तु चैत्यं विना मुखम् । तृणपूली तु चञ्चा स्याद्यधार्थे तु यथातथम् ॥ २०० आघातनं स्थानं कारा बन्धनवेश्मनि । स्कन्धाग्निः स्थूलकाष्ठाग्निस्तृणाग्निस्तु भवेत्समः || २०१ गंगणस्तु करीषाग्निर्ज्वराग्निस्त्वाधिमन्यवः । वशुरः स्वामिजनकः साधुधीर्वेरवत्सला || २०२ २०३ २०७ २०८ २०९ २१० सास्तथाविद्धो हेलीकोऽश्वविक्रमी । गृहवित्तो गृहपतितुम्बीपुष्पं लताम्बुजम् ॥ लोहिका खरसोनिः स्यान्निलिम्पस्त्रिदशः स्मृतः । गण्डूपदी भूलता स्यान्मंण्डरी बुघुरी मता || २०४ मुच्छट्यङ्गुलिसंदेशो लङ्घनं चापतर्पणम् । गजढका मदाम्नातः शृङ्गारो गजमण्डनः || २०५ प्रतिमो रणरङ्गः स्यात्कटक: कदर: सृणिः । वीची जललता ण्डि : फेनाग्रं बुद्बुदं विदुः ॥ २०६ जम्बालो जलकल्कः स्यादौरणिः कुलदुन्दुकः । विनाकृतं विरहितं गण्डूषो मुखपूरणे ॥ काष्ठमल्लः शवयानं कषायस्तुवरो रसः । पर्वावधिः परन्थिः पिजेला पत्रकाहला || गोडं छगलं गोविट् परियो द्वारकण्टकः । कर्करं चूर्णखण्डेष्टं कर्कसारं करम्भकम् ॥ स्पर्धायामपि सहर्षः कठोरं कर्कशं विदुः । बन्दी कवरकीमाहुरीसन्दी लघुखविका ॥ I घटराजः स्मृतः कुम्भो गर्गरी कलसी मता । विदूरे जन्यमुत्पातं निर्घाते व्योममुद्गरः || पर्यस्तिका गुणभ्रंशो गाङ्गेष्टी कटशर्करा । उक्का कुलुकगुञ्जा स्याकुलकस्तालमर्दलः || सूत्रकोणो डमरुकं सूत्रत्रीणा च लावुकी । मेलानन्दो मसिमणिलेखनी वर्णतूलिका || धातूपल: कठिनिका मेला पत्राञ्जनं मसिः । तर्कुटी सूत्रला तर्कुर्झल्लोलस्तर्कुलासकः || "तुला तर्कपाटी स्यात्पञ्जिका तूलनालिका । निर्वेष्टनं नोंलिचीरं दग्धेष्टकं च झामकम् ॥ २१५ दोला प्रेङ्खा पुमान्प्रेो वारासनं वाः सदनम् । पिष्टवर्तिस्तु चमसश्चित्रापूपश्चरुणः ॥ २१६ म्लेच्छितं परभाषायां लुण्टिका न्यायसारिणी | कापूटस्तृणमणिछात्रगण्डः पदाद्यवित् ॥ २५७ २११ २१४ For Private and Personal Use Only २१२ २१३ ' कागल : ' क. १ 'कङ्कतोडो जलव्यधः ' क. २ 'लघुगङ्गस्त्रिकण्टाक्षः ' क, 'स्त्रिकण्टः स्यात् ' ख ग ३ 'शितचिदो बाल४ 'पक्षग्राहस्तु माकरः ' क ५ 'वामी' क्र. ६ 'दण्डपालक: ' ख- ग. ७ 'रलिंजनम्' क. ८ 'स्तण्डिलसिकतम्' क. ९ 'दुर्विधः स्मृतः ' ख ग १० ' जलार्द्र: ' ख- ग. ११ 'तरुकुलम्' क. १२ 'इङ्गलः ख-ग. १३ अयमर्धश्लोकः क - पुस्तके नास्ति १४ 'रङ्गसार्थ' क. १५ 'हेटावुकी' ख ग १६ 'लौहिका खरल: स्मृतः’ क. १७ ‘न्मृत्करी' क. १८ 'स्वच्छट्य' ख-ग. १९ 'भाण्ड : ' क २० 'हरणि: कूलदुन्दुक : ' क. २१ 'पिञ्जोला' ख-ग. २२ 'गोहल' क. २३ 'कर्कशारं करम्बकम्' क २४ 'कर्कर' ख-ग. २५ 'रानन्दी' क.. २६ 'वर्तनं तर्कपीठा' ख ग २७ 'नाडिचीरं ' ख ग २८ 'शूकापूहः ' ख ग २९ ' छात्रखण्ड : पादघटावित' क. • Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org २२७ अभिधानमंग्रहः-३ हागवली । कोशकार: कीटतन्तुर्भुणः स्यात्काष्टलेखकः । धनाया तु धनेच्छायां प्राणाद्यो निःस्पृहे मतः ॥२१८ वृषशृङ्गी भृङ्गराजो वरोलस्तृणषट्पदः । तुटुमो रन्ध्रवभ्रुः स्याद्दीना लिङ्गालिका मता ॥ २१९ विदारु: कचपादो द्रुणश्वाली च वृश्चिकः । पद्माक्षं पद्मबीजं च कर्णिका बीजमातृका ।। २२० रङ्गमाता भवेल्लाक्षा धीतंटी दुहिता मता । चाटुलोलश्चटुल्लोलो जेकटो दोहदः स्मृतः ॥ २२१ धौताञ्जली धौतवली व नकं दुग्धपाचनम् । चित्रोक्तिः पुप्पशकटी चासेचनमतृप्तिकृत ॥ २२२ कालरात्रिीमरथी अस्वाध्यायो निराकृतिः । ब्रह्मवादः श्रुतादानं विश्वकद्रुरोवेटिकः ॥ २२३ हिंसालुकः खादुकः श्वा योगितोऽलर्क इप्यते | द्रगटस्तूर्यगण्डः स्यादादर्शो मुकुरः स्मृतः ॥ २२४ गहत्सृष्टो रसोनः स्याद्वङ्गी कोलनासिका । मयटस्तृणहर्म्यः स्यान्मद्राको मञ्चमण्डपः ॥ २२५ भ्रवद्रङ्गः पणग्रन्धिश्चितिका कटिशृङ्खला । विशारदः प्रसिद्धः स्याच्छीलक्ष्मीरिन्दिग मता ॥ २२६ इति पादावधिः ॥ ३॥ प्राक शालावृकशब्दादर्धेः, पादैरतः परं शब्दाः । नानार्थी अपि शब्दैगज(गुड)शब्दान्प्रभृति विज्ञेयाः ॥ क्षीरदागै गुडक्षोदे गुडो मधुनि चेष्यते । कृपीटपानमिच्छन्ति केनिपाते च वारिधौ ॥ २२८ रसाला रमनायां स्यान्मथिते दनि पाणिना । पाश्चलोहे श्रुतिकटः प्रायश्चित्ते सरीसृपे ॥ २२९ विटोऽद्रौ लवणे पिङ्गे मूषके खदिरेऽपि च । वितण्डा करवीयर्या च दर्वीवादप्रभेदयोः ॥ २३० कारण्डवे करण्डः स्यान्मधुकोशे दलाढके । खटः श्रेष्मण्यन्धकूपे प्रहारान्तरकृपयोः ॥ २३१ पिच्छा पृगच्छटाकोषे चोलिकॉफणिलालयोः । पिच्छिलः स्फोटिकावात्यावामानातान्बुपांशवः२३२ धाराङ्को वायुपले नाशीरे शीकरेऽपि च । कोहारो नागरे कृपे पुष्करिण्यां च पाटके ॥ २३३ नागाञ्जना नागयष्टिः करिसुन्दरिका कचित । प्रत्यण्डः पतिकीटे च गन्धकीटे च दृश्यते २३४ कटुकायां कश्चतटे कथिता शकुलादनी । क्रौञ्चादनस्तु घेक्षुल्यां चिश्त्रोटकमृणालयोः ॥ २३५ सन्तानिका क्षीरग्से तथा मर्कटजालके । बङ्गधेनुफले फेने पराञ्जस्तैलयत्रके ॥ २३६ भालाको लोहिते दृष्टः करपत्रे च कच्छपे । संकरोऽग्निचटत्कारे संमार्जन्यपसारिते ॥ २३७ गोधाकलम्बिकादन्तिवधूषु च कटंभरा । पंकारः शैवले सेतो सोपाने जलकुजके ॥ २३८ पृष्ठशङ्गीति शब्दोऽयं दंशभीरौ पृथूदरे । मेघपुष्पं तु नादेये पिण्डाभ्रे सलिले विदुः ॥ २३९ पित्तज्वरे कुलालस्य पवने कूटपाकलः । स्तनवृन्ते पिप्पलक तथा सीवनसूत्रके ॥ २४० कॉर्पटिकोऽन्यमर्मज्ञे छात्रे स्यात्कालदेशिनि । जिवापो वृषदंशे च स्यादिन्द्रमहकीमुके ।। २४१ लाभे कामगुणे रूपे आमिषाख्या च भोजने । छायापथे च दूर्वायां हरितालीध्वनिर्मतः ॥ २४२ १ 'कोष्ठलेखकः' क. २ अयमर्ध श्लोकः ख-ग-पुस्तकयोनास्ति. ३ 'कचे पादो' ख-ग. ४ 'साधुधीर्वरवसला' क. ५ 'धीलटि१' ख-ग. ६ 'चाटलोल' ख-ग. ७ जंगटो' ख-ग. ८ 'दुग्धपाचकम्' क. ९ रग्वेटिकः' ख-ग. १० 'कुत्रनो' ख-ग. ११ 'अरत्रङ्गः' क. १२ 'थि: क्षितिका' क. १३ अयमर्धश्लोकः कपुस्तके नास्ति. १४ 'गुडक्षोदो' क. १५ शङ्के' क. १६ 'घटः' क. १७ 'कोणिका' क. १८ 'पिच्छलो' ख-ग. १९ 'वायुफले क-ख-ग. २० 'प्रत्यण्डः प्रतिकीटे' क. २१ 'कचटके क. २२ इतः प्रभृति साधद्वय श्लोकी क-पुस्तके नास्ति, २३ 'पालिको' ख-ग, 'कापटिको' मेदिन्याम. २४ 'कर्मणि' ख-ग. २५ 'आमिष्या स्यात्तु' क. For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ नानार्थे पादावधिः। मालुधानश्चित्रसर्प महापद्मेऽपि दृश्यते । उन्मत्ते क्षपणेऽनर्थकरे कार्यपुटध्वनिः ॥ २४३ संघाटिकां विदुर्युग्मे कुट्टन्यां जलकण्टके । शराहते च सर्वं च प्रचलाकं प्रचक्षते ॥ २४४ चन्द्रिकायामजधूलौ रक्ताङ्गे हरिचन्दनम् । स्त्रीरत्ने च हरिद्रायां लाक्षायां वरवणिनी ॥ २४५ कृकलासे चित्रकोले तृणगोधाध्वनि विदुः । डिम्ब भये कलकले फुप्फुसे च प्रचक्षते ॥ २४६ धुन्धुमारः शक्रगोपे गृहधूमे गृहालिके । तिक्तपर्वा हिलमोचीगुलूचिमधुयष्टिषु ॥ २४७ जलबिल्वः कर्कटके पञ्चाङ्गे जलवल्कले । चोलकी नागरङ्गे च करीरे किष्कुपर्वणि ॥ २४८ कुलालचक्रे वाहने दण्डारः शेरपत्रके । दिग्जये वरयात्रायां दण्डयात्रां विदुर्बुधाः ॥ २४९ उष्ट्रे दासीसुते चैव दासेरक इति स्मृतः । जलगुल्मो जलावर्ते कच्छपे जलचत्वरे ॥ २५० काहलां वेणुवीणादिध्वनि नानाध्वनि विदुः । घोचे कारुण्डिकायां च जाहकध्वनिरिष्यते ॥ २५१ विद्यादुत्कलिकाशब्दमुत्कण्ठावीचिवाचकम् । दृष्टिविषे सूचके च द्विजिह्वः परिकीर्तितः ॥ २५२ मत्ताङ्गनाविदग्धस्त्रीनर्तकीषु च वाणिनी । रोमावलीमेघमालाकरटीषु च कालिका ॥ २५३ मञ्जलो मधुरे कुजे जलरङ्गे जलाश्चले । अनुकम्प्यस्तपस्वी स्यात्तपस्वी च धृतव्रतः ॥ २५४ __ इति नानार्थेऽर्धश्लोकावधिः ॥ ४ ॥ शालावृकौ कपिश्वानौ निष्ठुरः कठिनेऽत्रपे । छर्दनोऽलंबुषे निम्वे व्युष्टं कल्ये तथोषिते ॥२५५ इक्षौ करीरे कोषाङ्गं व्रणचिह्न घुणे किणः । नर्मठश्चिबुके षिङ्गे छेकः षट्पदवक्रयोः॥ २५६ धाराटश्चातके वाहे लञ्जः स्यात्पंगुकच्छयोः । निर्मटः कर्परे सूर्प गोकीलो मुशले हले ॥ २५७ भुण्डिरीर्वारुकृष्माण्डौ फाणिगुंडकलम्बयोः । तण्डुकः खञ्जने फेने लँदाशिन्यां खगान्तरे॥२५८ गजेऽपि नागमातङ्गो विशेषस्तिलकेऽपि च । निष्पावः शूर्पवातेऽपि सूत्रकण्ठो द्विजेऽपि च २५९ विदुष्यपि स्मृतो वेधाः पुरं देहेऽपि दृश्यते । खरेऽपि कण्ठ आख्यातः शरत्संवत्सरेऽपि च २६० लाक्षापि जतुका प्रोक्ता नग्नाचार्येऽपि हिण्डकः। नौसेचनेऽपि वारुण्डः पादालिन्देऽपि पङ्किलः ॥ कचो गीपतिपुत्रेऽपि कुन्देऽपि भ्रमरो वटौ । भाण्ड भूषणमात्रेऽपि रुधिरं कुङ्कमेऽपि च २६२ गोमेद केऽपि गङ्गालः कटाहो निरयेऽपि च । मरीचेऽपि भवेत्कृष्णः शूनाङ्गे गुणिका भवेत् ॥ शरुयामपि खड्गधेनुनिस्त्रिंशोऽकरुणेऽपि च । स्कन्धावारेऽपि कटको बिन्दुस्तु विदुरेऽपि च ॥ जलसूचिर्जलौकापि वेश्यायामपि पिङ्गला । अहिरप्युदरावर्ते विशिखापि खनित्रकः ॥ २६५ भ्रमरः कामुकेऽपि स्यादङ्गीकारेऽपि चाथकिम् । महालयोऽपि तीर्थ स्याद्भोजनेऽपि तथाह्निकम्।। वलिश्चामरदण्डेऽपि पादपीछेऽपि पादपः । गोदन्तो हरितालेऽपि वानीरश्चित्रकेऽपि च ॥२६७ आधारेऽप्याशयः प्रोक्तो गजसंधेऽप्यवग्रहः । कथिता प्ता जटायां च मार्गणेऽपि मृगः कचित्।। मूषिकापिभ वेद्दीना जटाटङ्को हरेऽपि च । अश्रमकृतेऽपि फाण्टं मृद्भाण्डेऽप्युष्ट्रिका भवेत् २६९ अङ्गसादेऽपि सदनं वनदावेऽपि झङ्गिलः । दन्तमासेऽपि वेला स्याच्छुल्कं नारीधनेऽपि च२७० निम्वेऽपि हिनियांसो मेलानन्देऽपि वादलम् । लेखन्यां कणिकापि स्यात्कटिन्यामपि वर्णिका।। ___१ रक्तपा' क. २ 'शरयन्त्रके' ख-ग. ३ 'नालायनि' क. ४ 'जालक' क. ५ 'जलाञ्जने' क. ६ 'नर्मटं चम्बुके' ख-ग. ७ 'प्रज्ञ' क. ८ 'निर्मुटः' क. ९ 'गोकिलो' क. १. 'भुण्डारिवारि' क. ११ 'तण्डकः' क. १२ वटा क. १३ 'सङ्किलः' क. १४ इतः प्रभति श्लोकद्वयी क-पुस्तके नास्ति. १५ 'कटाट को क. १६ 'अधमकृते' क. १९ 'वनदाने ख-ग, १८ 'दण्डमासे' क. १९ मादलम्' क. For Private and Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ अभिधानसंग्रहः-३ हारावली । पटलेऽपि कासमर्दो दिष्टं दैवेऽपि कीर्तितम् । दाडिमेऽपि च हिण्डीरं वंशो वेणौ कुलेऽपि च ॥ ___ इति नानार्थे पादावधिः ॥ ५॥ काव्यदीनामनन्तत्वाच्छब्दानां तु विशेषतः । क कदा केन किं दृष्टमिति को वेदितुं क्षमः ।। २७३ अतः शब्दः क दृष्टोऽयमर्थतश्चापि कीदृशः । इति काव्यमलीकं स्यान्मात्सर्यमलिनात्मनाम् ॥ २७४ शब्दार्णव उत्पलिनी संसारावर्त इत्यपि । कोषा वाचस्पतिव्याडिविक्रमादित्यनिर्मिताः ॥ २७५ आदाय सारमेतेषामन्येषां च विशेषतः । हारावली निबद्धेयं मया द्वादशवत्सरैः ॥ २७६ उपास्य सर्वज्ञमनन्तमीशं भूत्वातिथिः श्रीधृतिसिंहवाचाम् । हारावली द्वादशमासमालैर्विनिर्मितेयं पुरुषोत्तमेन ॥ नानाकाव्यपुराणनाटककथाकोषेतिहासस्मृति ज्योतिःशास्त्रगजाश्वमानवभिषकोषान्प्रयत्नादियम् । दृष्ट्वान्यानि च शाब्दिकैः सह कृता हारावली यत्नतः ___ कर्तव्योऽत्र न संशयः सुमनसः शब्दार्थलिङ्गेष्वपि ॥ सुधिया जनमेजयेन यत्नातिसिंहेन समं निरूपितेयम् । विदितो बहुदृश्वभिः कवीन्द्र वि कोषानुमतः श्रमो मदीयः ॥ हित्वा महाशाब्दिकताभिमानं मात्सर्यमन्यत्र मुहुर्निधाय । हारावली यः प्रकरोति कण्ठे विदग्धगोष्ठीषु परं स भाति ।। इति श्रीमहामहोपाध्यायपुरुषोत्तमदेवप्रणीता हारावली समाप्ता। २७८ २८० १ 'वाच्य' क. २ 'सुवर्णवेषं क. ३ 'दिकम्' ख-ग. ४ 'वतः क. ५ इदं श्लोकद्वयं क-पुस्तके नास्ति, ६ 'महामहोपाध्याय क-पुस्तके नास्ति. ७ 'पर्यवसिता' क, For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 11 ft: 11 अभिधानसंग्रहः । ( ४ ) श्रीपुरुषोत्तमदेवप्रणीत एकाक्षरकोषः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ ३ ४ अकारो' वासुदेवः स्यादाकारश्च पितामहः । पूँजायामपि माङ्गल्ये आकारः परिकीर्तितः ॥ इकार उच्यते कामो लक्ष्मीरीकार उच्यते । उकारः शंकरः प्रोक्त उकारश्चापि रक्षणे || ऋकारो देवमाता स्याद्दृकारो दनुजप्रसूः । लृकारो देवयोनिः स्यात् लृर्माता सद्भिरुच्यते ॥ एकारः कथितो विष्णुरैकारश्च महेश्वरे । ओकारस्तु भवेला औकारो रुद्र उच्यते ॥ अं" स्याच्च परमं ब्रह्म अः स्याद्देवो महेश्वरः । कः प्रजापतिरुद्दिष्टो को " वायुरिति शब्दितः || ५ कैश्चात्मा च समाख्यातः कः प्रकाश उदाहृतः । कं शिरो जलमाख्यातं कं सुखं च प्रकीर्तितम् ६ पृथिव्यां कुः समाख्याता कुत्सायां कुः प्रकीर्तितः । खैमिन्द्रियं समाख्यातं खमाकाशमुदाहृतम् ॥७ खं" स्वर्गे च समाख्यातं खं सर्पे च प्रकीर्तितम् । तथा श्वभ्रे च खं प्राहुः खं शून्ये च प्रकीर्तितम् ८ गो गणपतिरुद्दिष्टो गो गन्धर्वः प्रकीर्तितः । गं गीतं गा च गाथा स्यांगौर्धेनुगः सरखती ॥ ९ गौर्मातापि समुद्दिष्टा पृथिव्यां गौः प्रकीर्तिता । घो" घण्टायां समाख्यातः किङ्किणी या प्रकीर्तिता ॥ उपमा घा समाख्याता कुखरे घुः प्रकीर्तितः । हेनेने घा समाख्याता गन्धने वः प्रकीर्तिता ॥ ११ Fकारो भैरवः ख्यातः ङकारो विर्षेये स्मृतः । चकारश्चन्द्रमाः ख्यातैस्तस्करच प्रकीर्तितः ॥ १२ निर्मलं छं समाख्यातं तेरणी छः प्रकीर्तितः । छेदने छः समाख्यातो विद्वद्भिः शब्दकोविदैः ॥ १३ / १ 'र: केशवः प्रोक्तः ' ग. २ अयं श्लोकार्थः क ग पुस्तकयोर्नास्ति ३ 'लक्षणे । रक्षणे चापि ऊकार ऊ कारो ब्रह्मणि स्मृतः ' ख ३ 'वेदमाता' ख. ५ ' देवजातीनां माता सद्भिः प्रकीर्तिता । लकारः स्मर्यते पूर्वैजननी शब्दकोविदैः' ख ६ 'ल च माता प्रकीर्तिता' क ७ 'उच्यते' ख - ग. ८ 'रः स्यान्म' क- ख. ९ 'रोऽनल' ग, 'रोऽनन्त' ख. १० 'अं स्यात्परमं' क, 'अमिति स्यात्परं ब्रह्म' ग. ११ 'स्याश्चैव महेश्वर: ' ख-ग. १२ 'कोऽर्कवाय्वनले च' ख १३ ' कश्चात्मनि मयूरे च' ख १४ 'कुः शब्देऽपि ख. १५ 'खमिन्द्रिये खमाकाशे खः स्वर्गेऽपि प्रकीर्तितः । सामान्ये च तथा शून्ये खशब्दः परिकीर्तितः' ख १६ ' तथा स्वर्गेऽपि खं प्रोक्तं खं शून्येऽपि तदीरितम् ।' ग. १७ 'गणेशः समुद्दिष्टो' ख. १८ 'गं च गीतं च गाथा स्यात् ' क, 'गं गीतं च शाखा च' ग. १९ 'गौश्च धेनुः सरस्वती' ख ग २० अर्धोऽयं श्लोकः क-ग-पुस्तकयोर्नास्ति २१ 'घो घण्टिका समाख्याता' क, 'धा घण्टाथ समाख्याता घो घनश्च प्रकीर्तितः' ख २२ अर्धोऽयं कख पुस्तकयोर्नास्ति. २३ 'घंटीशे हनने धर्मे त्रुर्द्रोणा धूध्वनावपि' ख २४ 'विषयस्पृहा' ख ग २५ ' तो भास्वरे तस्करे मत: ' ख. २६ 'तरले' ख-ग. २७ 'छेदके' ख For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधान संग्रह:ह: - ४ एकाक्षरकोषः । १९ २० वेंगते जः समाख्यातो जघने जः प्रकीर्तितः । जेता च जः समाख्यातः प्रसिद्धैः शब्द कोविदैः || १४ 1 झेन्झावाते झकारः स्यान्नष्टे झः समुदाहृतः । ञकारो गायने प्रोक्तो नकारो घर्घरध्वनौ || १५ कारे पृथिव्यां टाटो ध्वनौ च प्रकीर्तितः । टो महेश्वर आख्यातः शून्ये च टः प्रकीर्तितः १६ बृहनौ चटः प्रोक्तस्तथा चन्द्रस्य मण्डले । डेकार: शंकरः प्रोक्तस्त्रामध्वन्योः प्रकीर्तितः ॥ १७ ढकारः कीर्तिता ढका निर्गुणे च ध्वनावपि । णकारः कीर्तितो ज्ञाने निर्णयेऽपि प्रकीर्तितः ॥ १८ तकारः कथितचौरः कोड़े पुच्छे प्रकीर्तितः । शिलोच्चये धकारः स्यात्पकारो भैयरक्षणे ॥ है कलत्रे समाख्यातं दो दानच्छेददातृषु । धं धने च धनेशे धो धा धातरि निंदर्शितः ॥ धिषणा धीः समाख्याता श्रूश्च स्याद्भारचिन्तयोः । नकारः सुँगते बन्धे नुः स्तुतौ च प्रकीर्तितः ॥ २१ नेता नीच समाख्यातस्तरणौ नौः प्रकीर्तितः । पवने पः समाख्यातः पाः पाने पाच पातरि ॥ २२ 1 Hard फकारः स्यादक्षरे च प्रकीर्तितः । कोपे फिञ्च समाख्यातस्तथा निष्फलभाषणे ॥ २३ 1 प्रचेता वः समाख्यातः कलसे वः प्रकीर्तितः । पक्षी च बिर्निगदितो गमने बिः प्रकीर्तितः ॥ २४ नक्षत्रं भं बुधैः प्रोक्तं भ्रमरे भः प्रकीर्तितः । भा दीप्तिरपि भूर्भूमिर्भीर्भयं कथितं बुधैः ॥ २५ मः शिवश्चन्द्रमा वेधा मा च लक्ष्मीः प्रकीर्तिता । मा च मातरि माने च बन्धने 'मूँ: प्रकीर्तितः २६ यशो यः कथितः शिष्टैर्यो वायुरिति शब्दितः । याने यातरि यत्यागे कथितः शब्दवेदिभिः ॥ २७ histant शब्दे रुः परिकीर्तितः । धने से रीश्र से धान्ये रुर्भये च प्रकीर्तितः ॥ २८ ले इन्द्रे लवणे लः स्याल्ला दाने लेषणेऽपि ली । वेदैन्ति शं बुधाः श्रेयः शश्च शास्ता निगद्यते ॥ २९ शीः शसं शयनं चाहुहिंसा शुश्च निगद्यते । षकारः कीर्त्यते श्रेष्ठे च गर्भविमोचने || ३० 1 I १ 'निशिते जः समाख्यातः स्वजने जः प्रकीर्तितः । जो जेतरि समाख्यातो व्यञ्जने जः प्रकीर्तितः । वेगिते जः समाख्यातो जनने जः प्रकीर्तितः । योजने जिः समाख्यातो विद्वद्भिः शब्दशासनैः ' क, 'जकारो गायने योक्तो जयने जः प्रकीर्तितः । जेता जश्र प्रकथितः सूरिभिः शब्दशासने' ख. २ ' झकारः कथितो नष्टे झश्रोच्यते बुधैः । शकारश्च तथा वायौ नेपथ्ये समुदाहृतः ' ख. ३ 'टो धरित्र्यां च करटे टो वनौ परिकीर्तितः ' क-ख. ४ ‘डकारः शंकरे त्रासे ध्वनौ भीमे निरुच्यते' ख. ५ 'मर्दले किंनरे ध्वनौ' क, 'निर्गुणे निर्धने मतः ' ख. ६ 'मूकरे ज्ञाने निश्चये निर्णये मतः' ख. ७ 'नय' ख. ८ ' दकारोऽभ्रे कलत्रे च' ख. ९ ' मनावपि ' ख. १० 'मुरते ' ग. ११ 'नकार : सौगते बुद्धौ स्तुतौ सूर्य च कीर्तितः । नशब्दः स्वागते बन्धौ वृक्षे सूर्ये च कीतितः' इत्यधिकं ख-पुस्तके. १२ इतः पूर्वम् 'पः कुबेरः समाख्यातः पश्चिमे च प्रकीर्तितः' इत्यपि ख-पुस्तके. १३ 'कफे बाते फकारः स्यात्तथाद्दाने प्रकीर्तितः । फूत्कारेऽपि च पः प्रोक्तस्तथा निष्फलभाषणे' ख, 'कठोरे फः प्रकारे फस्तथा निष्फलभाषणे' क. १४ 'फलेऽपि च । वक्षःस्थले च वः प्रोक्तो गदायां समुदाहृतः ' ख. १५ 'भवने' ख. १६ 'च' क, 'मः ' ख. १७ 'याते याने वियोगे च' क. १८ 'रामे' ख, 'कामानले' ग. १९ 'भूमावपि धनेऽपि च ' ख. २० 'इन्द्रिये धनरोधे च' ख. २१ 'च राः समाख्यातो रास्तु दाने प्रकीर्तितः ' क. २२ 'लो दीप्तौ द्यां च भूमौ भये चाह्लादनेऽपि च । लो वाते लवणे च स्यालो दाने च प्रकीर्तितः । लः श्लेषे चाराये चैव प्रलये साधनेऽपि लः । मानसे वरुणे चैव लकारः सान्त्वनेऽपि च ' ख. २३ 'शं सुखं शंकरः श्रेयः शश्च सीम्नि निगद्यते । शयने शः समाख्यातो हिंसायां शो निगद्यते' ख २४ 'पश्च गम्भीरलोचने । उपसर्गे प1 रोक्षे च पकारः परिकीर्तितः' ख. For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ एकाक्षरकोषः । と सोऽपसर्गः समाख्यातः सा तु लक्ष्मीर्निगद्यते । सा चैव गौः समाख्याता संसर्गः सः प्रकीर्तितः ॥ हैं: कोपे धारणेऽपि स्यात् हः शूलिनि समीरितः । क्षेत्रे रक्षसि क्षः प्रोक्तो नियतं शब्दवेदिभिः ॥ इति श्रीपुरुषोत्तमदेव विरचित एकाक्षरकोषः समाप्तः । १ 'स: कोपे वरणे सः स्यात्तथा शूलिनि कीर्तितः । सा च लक्ष्मीर्बुधैः प्रोक्ता गौरी सा च स ईश्वरः ' ख, 'सकारो वानरः प्रोक्तः सकार: सर्व उच्यते' क २ 'हो वेदे हरिणे हारे हश्च शूलिनि गद्यते । हे संबोधनमित्युक्तं ही हेताववधारणे' क, 'ह: कोपे वारणे हश्च तथा शुली प्रकीर्तितः । हि: पद्मावरणे प्रोक्तो हिः स्याद्धेत्यवधारणे' ख. ३ 'क्षः क्षेत्रे क्षपणे क्षान्तौ तथा वक्षसि शूलिनि' क, 'क्षः क्षेत्रे वक्षसि प्रोक्तो बुधैः क्षः शब्दशासने । क्षिः क्षेत्रे क्षत्ररक्षे च नृसिंहे च प्रकीर्तितः' ख ४ इत उत्तरम् 'आगमेभ्योऽभिधानेभ्यो धातुभ्यः शब्दशासनात् । एवमेकाक्षरं नामाभिधानं क्रियते मया ॥' इयधिकं व पुस्तके. For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ श्रीः ॥ अभिधानसंग्रहः । 525 (५) श्रीपुरुषोत्तमदेवविरचितो द्विरूपकोषः । J Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ ८ भवेदाषाढ आशाढो विषुवद्विषुवं तथा । मातुःष्वसा मातुःस्वसा कशायां कथिता कषा ॥ वरं संवरं प्रोक्तं कुशलं कुसलं तथा । वासरो वाशरोऽपि स्याद्वशिष्टोऽपि वसिष्ठकः || मुँषलो मुसलः प्रोक्तः शूकरः सूकरोऽपि च । सृगालोऽपि शृगालः स्याच्छारः सारोऽपि संमतः ३ कथितमनु चापि सतां मतम् । शण्डः षण्डस्तथाख्यातः सॅण्डोऽपि त्रिविधो मतः ४ शूरः सूरोऽपि चादित्ये विष्वग्विश्वक्स्मृतं बुधैः । किसलयं किशलयं वैसूकं वसुकं तथा ॥ 1 fat स्यादारिप्येवं बाह्रीको बाहिको मतः । गाण्डीवं गाण्डिवं प्रोक्तं पाण्डुरः पाण्डरस्तथा ॥ ६ पारावतः पारवतः कवाटं च कपाटकम् | अन्त्यश्चान्तः सुखं सौख्यं नखं च नखरं स्मृतम् ॥ वाल्मीको वाल्मिकञ्चैव वालुका वालिका तथा । मैथुरा मधुरा प्रोक्ता कफोणिः कैफणिस्तथा ॥ द्वार्द्वारमपि च प्रोक्तं सरिषपस्तु सर्षपः । धूस्तूरो धूस्तुरः प्रोक्तस्त्वन्तिकाप्यत्तिका तथा ॥ जमदग्निर्जानिः कैरेञ्जश्च कलिञ्जकः । 'प्रतिकारः प्रतीकारो विहारादेर्द्विरूपता ॥ रेंजन्यवनिभूम्यादेद्वैरूप्यमपि दृश्यते । अपोगण्डस्तु पोगण्डोऽप्यपिधानं विधानकम् || अवतंसो वर्तसश्च वहितोऽवहितस्तथा । अर्य आर्यस्तथा प्रोक्तः खुरप्रश्च क्षुरप्रकः ॥ जामातापि च यामाता जाया याया प्रकीर्तिता । योषा जोषाणि च ख्याता वासिन्यां सुवासिनी १३ कङ्गुः कर्यवागुश्च यवागूरप्युदाहृता । सुत्रामापि च सूत्रामा किङ्किणी किङ्किणी तथा ॥ १४ जतीफलं जातिफलं यष्टीमधु मतं तथा । तनुस्तनूर्हनुचैवं पञ्च परिषत्तथा ॥ १५ अभ्रमभ्रमपि ख्यातं खौनित्रं च खनित्रकम् । धान्याकमपि धन्याकं खडी खड्ड्रो द्विधा मतः ॥ १६ विरिञ्चिश्च विरिथोऽपि परशुः शुरेव च । पृषतः पृषदुद्दिष्टो वेश्या वेष्यापि कीर्तिता ॥ ९ १० ११ १२ १७ १ 'आसाढो' ख. २ 'विषुपत्' ख. ३ 'विशुवं' ख. ४ 'मातृष्वसा ' ग. ५ 'शेवलं संवलं' क 'शवलं सवलं' ग. ६ 'मूषलो मूसल: ' क. ७ 'च्छावः सावोऽपि' ख ८ साण्डोऽपि क. ९ 'वशुकं' ख. १० 'अली स्यादलि' क. ११ 'वल्हीको' ख. १२ ' मथुरा मथुरा' ख. १३ ' कफण' ख. १४ 'र्यमदमिः ' ख. १५ 'कारञ्जश्च कलिञ्जकः' ख, ‘कीलिञ्जश्च किलिञ्जकः ' क. १६ 'परिहारः परीहारो' ख. १७ 'अरण्य' ख. १८ 'आपोगण्डस्त्व पोगण्डो' ख. १९ 'आर्य आये' क २० 'स्ववासिन्यां स्ववासिनी' क, 'सुवासिन्यां सुवासिनी' ख. २१ ‘कीलिनी कीलिणी' क, 'काकिनी काकिणी' ग. २२ 'यातीफलं ' क. २३ 'परीषत् परिषत्तथा' क 'पर्यन्तं परिजं तथा' ख, 'दीर्घान्तमपि संमतम् ' व २४ 'मम्ब' ख. २५ ' धवित्रं स्याद्धपत्रकम् ' क, 'धुवित्रं स्याद्धवित्रकम्' ग घ २६ 'परशूरपि' क. For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-५ द्विरूपकोषः । सुरापाणं सुरापानं भुजंगो भुजगो मतः । तुरंगस्तुरगश्चैव कबन्धं च कमन्धकम् ॥ अग्रमण्यमपि ख्यातं शारिः सारोऽपि कथ्यते । बन्धूर वन्धुरं चापि कैन्दरं कन्दमित्यपि ॥ १९ उध्मानमपि चोद्धानमायुश्चायूरपि स्मृतम् । जम्बीरोऽपि च जम्भीरो वरुणो वरणोऽपि च ॥ २० रात्रिंचरो रात्रिचरः सततं संततं तथा । जिह्वा जिह्वश्च कथितो जिंहलो येन गीयते ॥ २१ रिक्थमूक्थमपि प्रोक्तं रिष्टिष्टिश्च संमतः । विश्रामो विश्रमो वापि पुरुषः पूरुषस्तथा ॥ २२ उदकं च दकं चैव कटः कटिकटीरको । लज्जा लज्ज्या पुनः प्रोक्ता प्रततिर्बततिस्तथा ॥ २३ नृत्यं नृत्तं च कथितं शय्यायां कथ्यते शयः । फलितं फालितं चैव विद्वद्भिः परिकीर्तितम् ॥ २४ गम्भीरं च गभीरं स्यात्प्रकाणः प्रकणस्तथा । प्रादेशोऽपि प्रदेशः स्यात्करजोऽपि करञ्जकः॥ २५ लकुचो लिकुचो वापि ख्याताविज्जलहिज्जलौ । अगस्तिः स्यादगस्त्योऽपि यमेश्च यमजो मतः॥२६ वातूलो वातुलः प्रोक्तो वृत्तश्च वर्तुलस्तथा । कटकं कण्टकं चापि तथा पूर्वैश्च दृश्यते ॥ २७ कुंटीरकुटिरौ ख्यातौ ननन्दा च ननन्दिका। आमिक्षायाममिक्षा स्याज्जेंटिलो जटुलस्तथा ॥ २८ मासि ज्यैष्ठे तथा ज्येष्टः पौषे पुष्योऽपि संमतः । अष्ठिवानस्थिवानेव वाग्वाचा दिग्दिशादयः ॥२९ अमिषं चामिषं चाहुस्तिमस्तिमिरिव स्मृतः । चेडी चेटी च कथिता रेजः ख्यातं रज मतम् ॥३० मेह एव महमाहुश्चिन्तनं चिन्तना तथा । नारिकेलादिषु द्वैधैमाह केलादिवर्जनात् ॥ ३१ डिम्भो डिम्बश्व विख्यातः कुँवरः कूवरो मतः । अर्द्रमादें धुतं धौतं निशातं निशितं तथा ॥ ३२ घ्राणं घातं पुनः प्रोक्तं गूढं गुप्तं सतां मतम् । हीणं होतं च विख्यातं घुष्टं च घुषितं तथा ॥३३ दान्तं दमित शान्तं शमितं घूर्णपूर्णिते । जप्तं च जपितं चैव क्लिष्टं क्लेशितमेव च ॥ ३४ तुष्टं च तुषितं विद्धं वेधितं विनवित्तके । अंतं स्यूतमुतं चैव भिन्नं भेदितमेव च ॥ ३५ दितं दातं च दत्तं स्यापितं धुपितं तथा । धूपायितं च मृगितं मार्गितं पूर्णपूरिते ॥ ३६ अन्वेषितं तथान्विष्टं त्राणं त्रातं च संमतम् । गुप्तं गोपायितं चैव बुद्धं च बुधितं तथा ॥ ३७ पणायितं च पणितं पनितं च पनायितम् । छन्नं च छादितं चैव पृष्टं प्लष्टं स्मृतं बुधैः॥ २८ तीर्थ तिर्थमर्धमध्य पर्व स्यात्पर्वणी तथा । गुग्गलमुग्गुलः प्रोक्तः किकिदीविः किकीदिविः॥ ३९ जीवंजीवो जीवजीवस्तडागस्तडगस्तथा । यती ख्यातो यतिश्च स्यादन्तरीक्षान्तरिक्षके ॥ ४० १ 'बन्धुकं बन्धुरं' क. २ 'ककुदं ककुदप्यथ' क. ३ 'लुद्यानं च पुरुद्यानं पुरी पुरमपि स्मृतम्' क. ४ 'ज. बिरोऽपि च जम्बीरो' ख.५ 'वरूणो वरुणो मतः' ख. ६ 'जिह्वनो' ख. ७ 'उक्थमुक्थमपि प्रोक्तं मीष्टं मिष्टमपि स्मृतम्' क. ८ 'उदर्कमुदकं प्रोक्तम्' क, 'उदकं चोदकश्चैव' ख. ९ गयायां कथ्यते गयः' ख. १० 'फणितं फाणितं चैव विद्वद्भिः संप्रकीर्तितम्' ग. क-पुस्तके तु नास्त्येव. ११ 'प्रकाश: प्रकशः' ख. १२ 'निकुचो' ख. १३ 'हिज्जलो हज्जलो मतः' क. १४ 'आगस्तिः' ख. १५ 'यमदो' क. १६ 'वातिलो' क, 'बहुलो बाहुल: प्रोक्तः प्रोक्तो वृद्धश्च वर्धनः' ग. १७ 'नारको नरको मतः' क. १८ 'ननन्दा च ननान्दा च कुटीरं कुटिरं तथा' क. १९ 'आमीक्षायाम्' ख. २० 'जटीलो जटिलस्तथा' क. २१ 'वाचि वाचा दिशादयः' ख. २२ अयमर्ध श्लोकः क पुस्तके नास्ति. २३ रजःसु रजसो मतः' क. २४ मह एव महदाहुः' ख. २५ 'श्चन्तनं चिन्तनं ख, 'चेतनं चिन्तन' ग, २६ 'द्वैधं महाकालादिवर्जनात्' ख. २७ 'कबरः' ख. २८ 'अर्धमय ख. २९ 'गुढं गूढं' ख. ३० 'पुष्टं पुषितं तथा' क. ३१ 'पिष्टं च पिषितं चैव' क. ३२ 'शुष्कं च शुषितं चैव' क, 'तप्तं च तपितं चैव' ग, ३३ 'ब्रुवले बुधाः ' ख For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ीि .. संनिहित: संनिहित्यां कीलः कोलापि कार्तिता । अकुलोऽप्याकुलः ख्यातः पूषोऽपूपश्च संमतः ॥ ४१ अपर्वमर्पणा च भण्यते चावमर्षणम् । अपमानोऽवमानश्च बिम्बोप्टेऽपि द्विरूपता ॥ ४२ मृदङ्गापि च मृट्ठङ्गी नेत्रानेव्यादिके तथा । मज्जा ख्यातः स्मृता मज्जा झान्तापि च विचक्षणैः ४३ म्फटा फंटा च चण्डारचण्डालश्च प्रकीर्तितः । काव्येषु गीयते हों हरिषोऽपि च कीर्त्यते ॥ ४४ मधिर्मधा शरव्ये च लक्ष लक्ष्यमुदाहृतम् । संख्या लक्षा च लक्षं च करभोऽपि करम्भकः ॥ ४५ मृदुर्मुद्री गगुर्वी तृप्ता न च संमता । म्रष्टा मृष्टा मतं तद्नैञ्जनं रजनं तथा ॥ नतिर्नत्यां गतिर्गत्यां भृतिर्भूत्यादिकं तथा । ख्यातौ निमेषनिमिषौ स्मृतो भीरुकभीलुकौ ॥ १७ उपाः म्यादुषमा तद्गत्सेवनं सीवनं मतम् । तत्री तन्त्रा च कथिता मृजा स्यान्मार्जनी तथा॥ १८ मंध्या मंधा 'प्रतिज्ञाता भारता भग्ता नटाः । स्मृतौ दासेरदासेयो पिटकः पेटकस्तथा ॥ परिस्थता परिश्रुत: स्यौदालस्योऽलमोऽपि च । कमलः कामलो वापि गृवर्गर्धन इत्यपि ॥ ५० भष्ण विष्णुः क्षमिता क्षन्ता चिकणचिकणौ । नवं नव्यं च मृदुलं मृदु स्याद्वहुलं बहु॥ ५१ पृथुलं पृथु विख्यातं मञ्जुलं मञ्ज चेप्यते । प्रागल्भ्यं कीर्त्यते यत्र प्रागल्भी तत्र कीर्तिता ॥ २ लोडनं लडनं चैव त्रुटिस्तर्टिगपि स्मृता । वयो वशोऽभिकोऽभीको लपो लोलुपलोलभौ ॥ ५३ घष्णुधष्टको विशालं विशलं स्मर्यते बुधैः । बाहुर्बाहोऽतिरातिः स्यादुरीकृतमुरीकृतम् ॥ ५४ वैद्वाम्पि पठ्यते कैश्चित्तथा बदम्पि चैव हि । बसपानि नथा भट्टिस्त्रितयं तेन मिध्यनि ॥ ५५ स्फूरणं स्फुरणं ख्यातिः कचित्साम च "" | लम्बघनन्तु स्तम्बत्रो मसिश्चापि ममी स्मृता ॥ ५६ कालनेमिः कीलनेमी दैत्यनाम द्विधा मतम् । कुम्भी चापि तथा कुम्भा भण्यते शब्दशासने ॥ ५७ व्याते माङ्गल्यमङ्गल्ये विवंधो वीवधो मतः । भृङ्गरिटि रीटि: स्यात्स्तवस्तापोऽपि गीयते ॥ ५८ भृकटं भकटं प्रादुर्मन्दारो मन्दगेऽपि सः । फलं च फलनं ख्यातं नसा नासा च कीर्त्यते ॥ ५९ कृषकः कर्षको दृष्टः खलीनं ग्वालिनं तथा । मणी इव मणीव स्याद्रोदसी गेदसा अपि ॥ ६० दम्पती इव शब्देन संहतो तेषु पक्षकः । प्रग्राहः प्रग्रहो हष्टः पारिप्लवपरिप्लवौ ॥ ६॥ उच्छाय उच्छ्यः प्रोक्तो धारणं धरणं तथा । त्रिखट्टी च त्रिग्वटुं स्यादुल ग्वलमुदूखलम् ॥ ६२ क्षमा भूमिः क्षमा नल्या तृली तूला मतं मताम् । मसुरोऽपि ममृरस्तु समः सद्योऽपि दृश्यते।।६३ कापुरुषः कुपुरुषो वाचिका वाचकः क्रिया । विहंगमेति कथिता तथा ग्याता विहंगिका ॥ ६४ आपःशब्दः सकागन्तो दृश्यते शब्दशासने । चारभटश्चारुभटः ग्वाल्विटो खल्विटो मतः ।। ६५ १ 'अर्गलायर्गलः ख्यातः' ग, 'अपूपश्चैव पूपश्च अघमर्षोऽधमर्पणम्' क. २ 'अवसानोऽपसानश्च ग. ३ 'विम्बोष्टादविरूपता । हलीशा च लीपा च लागलीपा तथा मता क. ४ इतः सार्ध श्लोकः क-पुस्तके नास्ति. , फण्टा' ख. ६ इतः पादद्वयं क-पुस्तके नास्ति. ७ 'रजतं क. ८ 'सेवनं सीवनं तन्द्री तन्द्रा च मार्जनं मृजा' क. 'उपा उणा तथा तुल्या सेवनं शेवनं तथा' ग. ९ मार्जना पुनः' ग. १० 'प्रतिज्ञायां' क. ११ 'परीसता परिसता क, 'प्रतिश्रुतः प्रतिश्रुतं' ग. १२ दलसश्चालशोऽपि च' ग. १३ 'धुल' ग, १४ 'विकलविक्लवौ नवं नवा क. १५ 'नटनं नाटनं चैव भृकुटिभ्रंकुटिस्तथा क, 'लाटली लाटनं चैव' ख. १६ 'स्युटिस्त्रटि' ग. १७ 'वविश्यो वविशोभिज्ञो धृष्टो घृष्णविशाणकः । विषाणो क. १८ 'वङ्गापि पठ्यते कैश्चित्तथा वङ्गेऽपि चेप्यते' क. १९ 'स्फरणं स्फरणं ख्यातं स्तम्बघ्नः स्तम्बधनोऽपि च' क. २० 'कालनेमा' क. २१ इदमर्धपद्यं कपुस्तके नास्ति. २२ 'विधिरो वीधिरः स्मृतः ख. २३ इतः श्लोकद्वादशक क पुस्तके नास्ति. २४ अत एव गोशिमा जन कन्वा हात मकटदर्शितप्रयोग: संगमने, For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org も अभिधान संग्रह: --- ५ हिरूपकोषः । ६७ ६८ खल्लीटं च तथा दृष्टं हाञ्जिरुक्ता च हाञ्जिकम् । कोटितण्डुलशब्दौ च दृष्टौ पुंक्लीवयोः पुनः ॥६६ aaaaa प्रोक्तौ दृष्टौ भिक्षुकभिक्षकौ । कर्कटी कर्कुटी नान्ता इकारान्ता च केचन || लावूरलावूरिर्वारुरुवरुश्च मतं सताम् । आननश्चाननं चैव आमेषी चाम्रपेषिका ॥ शालिश्चैव तथा शाली कलम्बु कलम्बिका । नीलिका चैव नीली च कर्करुः पुंसि च स्त्रियाम ६९ पोतिका पोतका ख्याता स्मृतौ वास्तूक वास्तुकौ । भृङ्गराजो भृङ्गरजः समौ दाडिमदालिमौ || ७० को गुच्छको वापि तथा चोत्सुकचोतको । शादिः शादी च विख्याता मटो मयट एव च ७१ समौ दात्यूहदायौ पटवासः पटवसः । अवसत्थ आवसत्थस्तुद्रङ्गाद्रङ्गकौ समौ ॥ शूकपिटः शुकपटः खकिखटकिकके । ख्यातौ पटपर्णाट प्रवाणः प्रघणेऽपिच ॥ भ्रुकुटिकुटौ प्रोक्तौ कलिः स्त्रीपुंसमार्थता । क्रौञ्चापि च पुनः क्रौञ्चस्तथा च प्रतिपद्यते ॥ हलन्तो गीयते कैश्चिदजन्तोऽयं च गीयते । दुर्लभो ग्रथितो लोके बीजधातुप्रमाणतः ॥ इति श्रीपुरुषोत्तमदेवविरचितो द्विरूपकोषः समाप्तः । ७२ ७३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ७४ ७५ १ 'मुकुटं मकुटं तथा' क २ एतत्पूर्वम 'मुकुरो मकुरोऽपि स्यात्फलं च फलितं मतम् । सृष्टं ग्लिष्टं नसा नासा कर्षक: कृषिकोऽपि च । खलिनं च खलीनं च गत गर्तापि चेष्यते । अहो आहो तथा प्रायः प्रायं स्यात्तु तथा मतम् || मणावपि मणी चैव रोधसी रोधसिस्तथा । दंपती जंपती चैव प्रग्राहः प्रग्रहः स्मृतः || अरे आरे इति ख्यातं द्विरूपं च तथा मतम ॥ इति क-पुस्तकेऽधिकम्. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोधनपत्रम् । -- नामलिङ्गानुशासनम् । लोकाङ्कः । शुद्धपाठः । ५३५० वितिर यामलक्यपि । ५३७३ बहुलाः कृतिका जावा बहुलो नौ शितो श्लोकाः । शुद्ध पाठः । ११ विद्याधगमरोयक्ष१३३ शर्मसात२७७ पण्डमस्त्रियाम् । ३१६ स्यात्संकरोऽवकरस्तया ॥ १.१२०. पृथुपीववहुप्रकर्षार्थाः ।। ११८६ शल्के शकलवल्कले । १३१५ जामिः स्वसूकुलस्त्रियोः । २३८. निकृतावापि निहवः । १४४५. ननुच स्या त्रिका शेषः। ८.०५ मार्न प्रमाणे ८६८ वेदोपदेशाबाम्नायौ हपीके रतसीन्द्रियम् । ३४ कशिचागरसूदनः । ८३ निधी । कुनाभिः स्याद ८४ भरुन्मेघवर्म च । अक्षरंच २८८ सितापाङ्गः ४७३ कवरं गोदन्तो ४८८ कावारी ४८९ वारित्रा ५८३ व्रतखड्गयोः । ५९९ शाधौ च ६.८३ दक्षिणः सरलेपि च ॥ ७२० पुषन्नेणे ८९१ धूम्याटे ८९२ शिशपायां कृष्णसारा ९२५ वेकल्येऽपि च १५. मेलान्धावपि २.६४ सालो वरणसञ्जयोः ।। १.७५ लवरछेदनलेशयोः । हारावली। काव्यादीना-. १८७ गङ्गाटमा गलानिलः। २६९ मूषिकापि मवद्दाना For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विज्ञापनम् । प्राप्तकोशाः। अमरसिंहः-नामलिङ्गानुशासनम्. के शवः- कल्पद्रुः. दुर्गादासः-शब्दार्णवः. धनंजयः-प्रमाणनाममाला. पुरुषोत्तमदेवः-एकाक्षरकोशः, त्रिकाण्ड शेपः, द्विरूपकोशः, हारावली. भरतसनमल्लिक:-द्विरूपकोशः महीदासः-मातृकानिघण्टुः. महाक्षपणकः-अनेकार्थनिमकरी. महादेवः- अव्ययक शः. महेश्वर:-विश्वप्रकाशः, टाब्दभेदप्रकाशः. मंदिनिकर:-नानाथशब्दकोशः. यादवः-वैजयन्ती. वररुचिः-लिङ्गविशेषविधि: वणीदत्तः-पञ्चतत्त्वप्रकाशः. शाश्वतः-नानार्थसमुच्चयः, शिवरामः-लक्ष्मीनिवास:. हरिदत्तः-गणितनाममाला. हलायुधः-अभिधानरत्नमाला, हर्षकीर्तिः-शारदीनाममाला, हेमचन्द्रः-अनेकार्थसंग्रहः, अभिधान चिन्तामणिनाममाला, अभिधानचिन्तामणिनाममालापरिशिष्टम् , लिङ्गानुशासनम्, अप्राप्तकोशाः। अगस्त्यः-शब्दसंग्रहनिघण्टुः. अजयपाल:-नानार्थमंग्रहः. अप्पयदीक्षितः-नामसंग्रहमाला. अमरसिंहः एकाक्षरनाममाला. कालिदासः-प्रयुक्तपदमञ्जरी. काशिनाथः-शब्दार्णवः, केशवः-लनिघण्टसार:. क्षेमेन्द्र लोकप्रकाश:. गदसिंहः-अनेकार्थध्वनिमञ्जरी. गोपिनाथः-शब्दमाला. गोवर्धनः-नामावली. गोविन्द शर्मा शब्दमागरः. चक्रपाणिदत्तः-शब्दचन्द्रिका. जटाधराचार्यः-अभिधानतन्त्रम्. जैमिनिः-निघण्टुः, तीर्थस्वामी-कोमलकोशसंग्रहः. त्रिविक्रमाचार्यः-गीर्वाणभाषाभूपणम्, दण्डनाथः-नानाथरत्नमाला. दुर्गः-- नाममाला. देवकीनन्दनः-वैष्णवाभिधानम्. धरणिदासः-नानार्थसमुच्चयः. धर्मराजः-कविजीवनम्. नत्कि कविः-बालप्रवाधिका. नन्दनभट्टाचार्यः-वणाभिधानम्. नरसिंहपण्डितः-राजनिघण्टुः. नारायण दासःराजबल्लभः. नृमिहमुनिः-रत्नकोशः. पद्मनाभः-भूरि प्रयोगः. पुण्डरीकाविट्ठलः-शीघ्रबोधिनीनामगाला. पुरुषोत्तमदेवः-वर्णदशनम. पृथ्वीधराचार्यः-रत्नकोशः. बाणकविः-शब्दचन्द्रिका. वाल्हि केयमिश्रः-- निघाटककाध्यायः. विहणः--त्रिरूपकोश:. भार्गवाचार्यः-नामसंग्रहनिघण्टु.. भोजः- नाममाला. मङ्ख:-मन योग:. मथरेशः-शब्दरत्नावली. मयूरः-पदचन्द्रिका. महीपः-अनेकार्थतिलकः, शब्दरत्नाकरः. मुरारिः- सु प्रसिद्ध पदगअरी. रत्नमालाकार:-आयुर्वेदपर्यायरत्नमाला. राक्षसः-शब्दार्थनिर्णयः. रामः-कविदर्पणनिघण्टुः; गम शर्मा- उणादिकोश:. रामेश्वर:-शब्दमाला. रूपचन्द्र:-रूपमञ्जरीनाममाला. वरदराजः-नाममातृकानिधाट:. वररुचिः-ऐन्द्रनिघण्टुः. वल्लभः-कविमरी. वामनभट्टः-शब्दरत्नाकरः. विक्रमादित्यः-कविदीपिकानिधाटः विठ्ठलाचार्यः-शब्दचिन्तामणिः. विश्वनाथः--कोशकल्पतरुः. विश्वशंभुः-एकाक्षरनाममाला. वङ्क:-मादायकल्पतरुः, शाब्दिकविद्वत्कविप्रमोदकः, वेदान्ताचार्य:-दशदीपनिघण्टुः. शंकर:-संयमि नाममाला, शिवदत्तः-शिवकोशः. श्रीहर्षः-द्विरूपकोशः, श्लेपार्थपदसंग्रहः. सदाचार्यः-एकाक्षरनि:, सारेश्वरः-लिङ्गप्रकाशः, सार्वभौममिश्रः-भुवनप्रदीपिका. सुन्दरगणिः- शब्दरत्नाकरः. सोमभवः- अन कातिलकः. सौभरि:-कार्थनाममाला, अक्षरनाममाला. For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एतद्भिन्नाः अमरदत्त-कात्य-गङ्गाधर-चन्द्रगोमि-तारपाल-दामोदर-धर्मदास-बोपालित-भागरि-भोगीन्द्र-मङ्कल-माधव-मार्तण्ड-रन्तिदेव-रभसपाल-राजशेखर-रुद्र-वाग्भट-वाचस्पतिवामन-विक्रमादित्य-विश्वरूप-व्याडि-शुभाङ्क-सज्जन-साहसाङ्क-हट्टचन्द्र-हर-इत्यादिकृताः कोशाः, अमरमाला-असालतिप्रकाश-आनन्दकोश--एकवर्णसंग्रह -एकाक्षरकोश उत्पलिनी-ऊष्मविवेक कल्पतरुकोश-कविजनसेवधि-ग्रहाभिधान-जकारभेद-दण्डिकोश-धन्वन्तरिनिघण्टु-नक्षत्राभिधान- नानार्थमञ्जरी-पद्मकोश-चकारभेद-बीजकोश-बृहदमरकोश-महाखण्डनकोश-राजकोशनिघण्टु लिङ्गप्रकाश-वर्णप्रकाशकोश-वात्स्यायनकोश-शब्दतरङ्गिणीदाब्ददीपिका-शब्दरत्नसमुच्चय--शब्दसारनिघण्टु:.-संसारावर्त-सकलग्रन्थदीपिका-सकार - भेद संजीवनी सन्मुखवृत्तिनिघण्टु सरसशब्दसरणि--सरस्वतीनिवण्टु साध्यकोश सारस्वताभिधान हनुमन्निघण्टु . प्रभृतयः कोशाच रान्तीति श्रयते । ते येषां सज्जनानां संग्रह रान्ति, ते तेषां प्रेषणनास्मानुपकुर्वन्त्वित्यभ्यर्थना अभिधानसंग्रहकर्तृणाम् । For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org THE ABHIDHANA-SANGRAHA OR A COLLECTION OF SANSKRIT ANCIENT LEXICONS. Nos. 6, 7, 8, 9, 10. THE ABHIDHANA-CHINTAMANI, THE ABHIDHÂNACHINTAMANI-PARIS'ISHTA, THE ANEKÂRTHA SANGRAHA, THE NIGHANTU-S'ESHA AND THE LINGANUS'ASANA OF HEMACHANDRA. AND No. 11. THE ABHIDHANA-CHINTAMANI-S'ILONCHCHHA. OF JINADEVA MUNISVARA. EDITED BY PANDIT SIVADATTA AND KAS'INATH PANDURANG PARAB. esc PRINTED AND PUBLISHED BY THE PROPRIETOR OF Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir THE NIRNAYA-SAGARA PRESS. BOMBAY. 1896. Price Rupee. For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (All rights reserved by the publisher:) (Reyistered accowling is eel ITV of 1897.) For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ अभिधानसंग्रहः नाम संस्कृतप्राचीनकोशग्रन्थसमुच्चयः। ---------→ore--------- तत्र (६,७, ८, ९, १०) श्रीमदाचार्य हेमचन्द्रविरचिताः अभिधानचिन्तामणि-अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्ट-अनेकार्थ संग्रह-निघण्टुशेष--लिङ्गानुशासनकोशाः। जिनदेवमुनीश्वरविरचितः अभिधानचिन्तामणिशिलोञ्छश्च । काव्यमालागंपादक- पण्डितशिवदत्त काशीनाथाभ्यां मंशोधिताः। ते च शाके १८१८ वत्सरे मुम्बय्यां निर्णयसागराख्ययन्त्रालये तदधिपतिना मुद्राक्षरैरङ्कयित्वा प्राकाश्यं नीताः । मूल्यं सपादो रूप्यकः। For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हेमचन्द्रः । अयं श्रेताम्बर जैनाचार्य श्री हेमचन्द्रः कदा कतमं भूमिमण्डलं मण्डयामासेति जिज्ञासायामनेकग्रन्थपर्यालोचने प्रवृत्ते Dr. P. Peterson महाशयानां Fifth Report पुस्तके - 'तत्पट्टपूर्वाद्विसहस्ररश्मिः सोमप्रभाचार्य इति प्रसिद्धः । श्रीमसुरे कुमारपालदेवस्य चेदं न्यगदच्चरित्रम् ॥' इति सोमप्रभाचार्यविरचितहेमकुमारचरित्रकाव्यतः, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'स्तुमस्त्रिसंध्यं प्रभुहेमसुरेरनन्यतुल्यामुपदेशशक्तिम् । अतीन्द्रियज्ञानविवर्जितोऽपि यः क्षोणिभर्तुर्व्यधित प्रबोधम् ॥ सत्त्वानुकम्पा न महीभुजां स्यादित्येष क्लृप्तो वितथः प्रवादः । जिनेन्द्रधर्मं प्रतिपद्य येन श्लाघ्यः स केषां न कुमारपालः ॥ इति सोमप्रभकथिते कुमारनृपहेमचन्द्रसंवादे | जिनधर्मप्रतिबोधे प्रस्तावः पञ्चमः प्रोक्तः ॥ इति सोमप्रभविरचितकुमारपालमतिबोधकाव्यतः. 'शिष्यो जम्बुमहामुनेः प्रभव इत्यासीदमुष्यापि च श्रीशय्यंभव इत्यमुष्य च यशोभद्राभिधानो मुनिः । संभूतो मुनिभद्रवाहुरिवंद्वौ तस्य शिष्योत्तमौ संभूतस्य च पादपद्ममधुलिट्थी स्थूलभद्राह्वयः ॥ वंशक्रमागत चतुर्दशपूर्वरत्नकोशस्य तस्य दशपूर्वधरो महर्षिः । नाम्ना महागिरिरिति स्थिरतागिरीन्द्रो ज्येष्ठान्तिषत्समजनिष्ट विशिष्टलब्धिः || शिष्योऽन्यो दशपूर्वभृन्मुनिवृषो नाम्ना सुहस्तीत्यरुट् यत्पादाम्बुजसे वनात्समुदिते राज्ये प्रबोधर्धिकाः । चक्रे संप्रतिपार्थिवः प्रतिपुरग्रामाकरं भारतेऽस्मिन्नर्थे जिनचैत्यमण्डितमिलापृष्ठं समन्तादपि ॥ अजनि स्थित- सुप्रतिबुद्ध इत्यभिधयार्य सुहस्तिमहामुनेः । शमधनो दशपूर्वधरान्तिषद्भवमहातरुभञ्जनकुञ्जरः ॥ महर्षिसंसेवितपादसंनिधेः प्रचारभागालवणोदसागरम् । महान्गणः कोटिक इत्यभूत्ततो गङ्गाप्रवाहो हिमवद्गिरेरिव ॥ तस्मिन्गणे कतिपयेष्वपि यातवत्सु साधूत्तमेषु चरमो दशपूर्वधारी । उद्दामतुम्बवनपत्तनवज्रशाखावज्रं महामुनिरजायत वज्रमूरिः ॥ दुर्भिक्षे समुपस्थिते प्रलयवद्धीमत्वभाज्यन्यदा भीतं न्यस्य महर्षिसंघमभितो विद्यावदातः पटे । योऽभ्युद्धृत्य कराम्बुजेन नभसा पुर्यामनैषीन्महा पुर्या मञ्जु सुभिक्षधामनि तपोधाम्नामसीम्नां निधिः ।। तस्माद्वज्राभिधा शाखाभूत्कोटिकगणद्रुमे । उच्च नागरिकामुख्यशाखात्रितयगोचरा ।। तस्यां च वज्रशाखायां निलीनमुनिषट्पदः । पुष्पगुच्छायतो गच्छश्चन्द्र इत्याख्ययाभवत् ॥ १. अस्य जिनधर्मप्रतिबोधकाव्यस्य निर्माणसमयस्तु - ' शशिजलधिसूर्यवर्षे शुचिमासे र विदिने सिताष्टम्याम् | जिनधर्मप्रतिबोधः कुप्तोऽयं गुर्जरेन्द्रपुरे ॥' इति वदता ग्रन्थकचैव १२४१ (A, D. 1184 ) विक्रमसंवत्सरात्मक उक्तः २. 'इति च' इति भवेत्. ३. सुस्थितः सुप्रतिबद्ध:, इति मुनिद्रयम्. For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमचन्द्रः । धर्मध्यानसुधासुधांशुग्मल: संघार्थरत्नाकरो भव्याम्भोरुहभास्करः म्मरकरिप्रोन्माथकण्ठीरवः । ग तत्र बभूव संयमधनः कारुण्यराशियशोभद्रः सूरिरपूरि येन भुवनं शुद्धैर्यशोभिनिङः ॥ श्रीमन्नेमिजिनेन्द्रपावितशिरम्यद्रौ म संलेखनां कृत्वादौ प्रतिपन्नवाननशनं प्रान्ते शुभध्यानभाक् । निष्ठञ्झान्तमनास्त्रयोदशदिनान्याश्चर्यमुत्पादयन्नुच्चैः पूर्वमहर्षिसंयमकथाः सत्यापयामासिवान् ।। श्रीमान्प्रद्युम्नमरिः समजनि जनितानेकभव्यप्रबोध. म्नच्छिप्यो विश्वविश्वप्रथितगुणगणः प्रावृडम्भोदवद्यः । प्रीणाति माविलक्ष्मां प्रवचनजलधेरुद्धतैरर्थनीरै गतत्य म्थानकानि श्रुतिविषयसुधामारसध्यञ्चि विष्वक् ।। सर्वग्रन्थरहम्यग्नमुकुर: कल्याणवलीतरुः कारुण्यामृतसागर: प्रवचनव्योभाङ्गणाहस्करः । चारित्रादिकरत्नरोहणगिरिः मां पावयन्धर्मराट सेनानीर्गुणसेनमूरिरभवच्छिष्यस्तदीयस्ततः ॥ शिप्यन्तम्य च नीर्थमकमवनेः पावित्र्यक्रजंगमः स्याद्वादविदशापगाहिमगिरिविश्वप्रबोधार्यमा । कृत्वा स्थानकवृत्तिशान्ति चरिते प्राप्तः प्रसिद्धि पगं सूरि रितपःप्रभाववसतिः श्रीदेवचन्द्रोऽभवत् ॥ आचार्या हेमचन्द्रोऽभृत्तपादाम्भोजषट्पदः । तत्प्रसादादधिगतज्ञानसंपन्महोदयः ॥ शुविदयार्णमालवमहाराष्ट्रापगन्तं कुरून्सिन्धूनन्यतमांश्च दुर्गविषयान्दोर्वीर्यशक्तगा हरिः । गलियः परमाईनो विनयवाश्रीलराजान्वयी तं नत्वेति कुमारपालपृथिवीपालोऽब्रवीदेकदा ॥ पापदिधृतमद्यप्रभृति किमपि यन्नारकायुनिमित्तं नमय निनिभिनोपकृतिकृतधियां प्राप्य युप्माकमाज्ञाम् । चामिन्नव्या निपिद्धं धनमसुतमृतम्याथ मुक्तं तथाई अत्यैरुत्तसिता भृग्भवमिति समः संपतेः संप्रतीह ।। अगत्पूर्वसिद्धराजनृपतेभक्तिस्पृशो याञया साझं व्याकरणं सबृत्ति सुगमं चक्रुर्भवन्तः पुरा। मोतीरथ योगशास्त्रममलं लोकाय च व्याश्रयच्छन्दोलंकृतिनामसंग्रहमुखान्यन्यानि शास्त्राण्यगि ॥ लोकोपकारकरणे म्वयमेन यूयं मज्जाः स्थ यद्यपि तथाप्यहमर्थयेदः । माजी परिवोधकृते गलाका पुंसां प्रकाशयत वृत्तमपि त्रिपणेः ।। योपोगादिति हेमचन्द्रानार्यः शलाकापुरुषेतिवृत्त । पिदशैकफलप्रधानं न्यवीविगच्चारु गिगं प्रपञ्चे ।। महीपारबिन्द्र कनकगिरिमावश्नुते कर्णिकात्वं __ याबगावच द्यत्ते जलनिधिवनेरन्तरीयत्वमुचैः । गायोगानपान्यो तरणिशशधरी भ्राम्यनम्नावदेत काव्यं नाना शलाकापुरुषचरितमित्यस्तु जैत्रं धरित्र्याम् ॥' इत्याचार्यहेमचन्द्रविर्गचतशलाकापुरुपचरितपशस्तितश्च चौलुक्यकुमारपालराज्ये हेमचन्द्राचार्याणां मत्ताया अवगतेः 'नृपन्य जीवाभयदानडिण्डिममहीतले नृत्यति कीर्तिनर्तकी । श्रीहेमचन्द्रप्रभुपादपरं वन्दे भवाब्धेस्तरणैकपोतम् ।। ललाटपट्टान्तरकान्तगट्याक्षगवली येन मम चलोपि ।। For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमचन्द्रः । बोधयित्वा महाराजं देवलोकं जगाम यः । पश्चात्कुमारपालोऽयं शोकं गत्वा मुमूर्छ सः ॥ तनु धैर्यमवलम्ब्य धर्मध्यानं करोति ।' इति हेमकुमारचरित्रकाव्ये हेमचन्द्राचार्याणां देवलोकगमनस्योक्तेश्च कुमारपाल राज्यसमय एवाचाहेमचन्द्रसमयः कुमारपालराजधान्येव भूमिमण्डलमित्यवागतम् । विशेषकथा तु प्रवन्धकोशप्रवन्धचिन्तामणिभ्यामवगन्तव्या । कुमारपालराज्यसमयस्तु 'ॐ नमः शिवाय | ब्रह्मविया मुमुक्षुभिरभिध्यातस्य वद्धाक्षरैरिच्छाशक्तिमभिष्टमि जगतां पत्युः श्रुतीनां निधेः । या व्यापारितसंहृतः स्वभमये ब्रह्माण्डपिण्डैर्नवैः क्रीडन्ती मणिकन्दुकैरिव सदा स्वच्छन्द्रमाहादते || गीर्वाणवीतगर्व दनुजपरिभवात्प्रार्थितस्त्रायकार्थं वेधाः संध्यां नमस्यन्नपि निजचुल्लुके पुण्यगङ्गाम्बुपूर्ण । सद्यो वीरं चुल्लुक्याह्वयम सृजदिमं येन कीर्तिप्रवाहैः पूतं त्रैलोक्यमेतन्नियतमनुहरत्येव हेतोः फलं श्रीः ॥ वंशः कोऽपि ततो बभूव विविधाश्चयैकलीलास्पदं यस्माद्भुमिभृतोऽपि वीतगणिता (णना): प्रादुर्भवन्त्यन्वहम् । छायां यः प्रथितप्रतापमहती दूधे विपन्नोऽपि सन्यो जन्यावधि सर्वदापि जगतो विश्वस्य दत्ते फलम् ॥ वंशस्यास्य यशःप्रकाशनविधौ निर्मृत्यमुक्तामणिः क्षोणीपाल किरीटकल्पितपदः श्रीमूलराजोऽभवत् । यो मूलं कलिदावदग्धनिखिलन्यायडुमोत्पादने यो राजेव करेः प्रकामशिशिरैः प्रीतिं निनाय प्रजाः ॥ यश्चापोत्कटराजराज्यकमलां खच्छन्दवन्दीकृतां विद्वान्यवविप्रवन्दिमृतकव्यूहोपभोग्यां व्यधात् । यत्खङ्गाश्रयिणीं तदा श्रियमलं युद्धस्फुरद्विक्रमक्रीताः सर्वदिगन्तरक्षितिभुजां लक्ष्म्याश्चिरं भेजिरे || सूनुस्तस्य बभूव भूपतिलकचामुण्डराजाइयो यद्गन्धद्विपदानगन्धपवनाश्राणेन दूरादपि । विश्रश्यन्मद्गन्धभग्नकरिभिः श्रीसिन्धुराजस्तथा नष्टः क्षोणिपतेर्यथास्य यशसां गन्धोऽपि निर्णाशितः ॥ तस्माद्वल्लभराज इत्यभिवया क्ष्मापालचूडामणिर्जज्ञे साहसकर्मनिर्मित चमत्कारः क्षमामण्डले । यत्कोपानलजृम्भितं पिशुनयत्येतत्प्रयाणश्रुतिक्षुभ्यन्मालयभूपचक्रविकसन्मालिन्यधूमोद्गमः ॥ श्रीमदुर्लभ राजनामनृपतिभ्रातास्य राज्यं दधे शृङ्गारेऽपि निषण्णश्रीः परवधूवर्गस्य यो दुर्लभः । यस्य क्रोधपरायणस्य किमपि भृवल्लरी भरा सद्यो दर्शयति स्म लाटवसुधाभङ्गस्वरूपं फलम् || मोऽपि द्वितां सदा प्रणयिनां भोग्यत्वमासेदिवान्क्षोणीभारमिदं (मं) बभार नृपतिः श्री भीमदेवो नृपः । धारापञ्चकसाधनैक चतुरेतद्वाजिभिः साधिता क्षिप्रं मालवचक्रवर्तिनगरी धारेति को विस्मयः || तस्माद्भूमिपतिर्वभूव वसुधा कर्णावतंसः स्फुरत्कीर्तिप्रीणितविश्वकर्णविवरः श्रीकर्णदेवाह्वयः । येन ज्या प्रथितस्वनं च्युतशरं धर्मं पुरस्कुर्वता न्यायज्ञेन न केवलं रिपुगणः कालोऽपि विद्धः कलिः || दृप्यन्मालवभूपबन्धनविधित्रस्ताखिलक्ष्मापतिर्भक्त्याकृष्टवितीर्णदर्शनशिवो मूर्तः प्रभावोदयः । सद्यः सिद्धरसान्रणीकृतजगद्गीतोपमा (तावदा) नस्थितिर्जज्ञे श्रीजयसिंह देवनृपतिः सिद्धादिराजस्ततः ॥ १. मूलराजराज्यम् - वि० सं० ९९३ - १०५३. २. चामुण्डराजराज्यम् - वि० सं० १०५३-१०६६ ३. दुर्लभराजराज्यम् - वि० सं० १०६६-१०७८. ४ गीमदेवराज्यम् - वि० सं० १०७८-११२० ५. कर्णदेवराज्यम् - वि० सं० ११२०-११९०६ समापन ११५-११ For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४ www.kobatirth.org हेमचन्द्रः । ......... "भोक्तुम' रे ॥ वश्या वेश्म रसातलं च विलसद्भोगि 'क्षत्राणि रक्षांसि च । यः क्षोणीधरयागिनीं च सुमहाभोगां सिषेवे चिरं हेलासिद्धरसाः सदा क्षितिभुजः' [संख्या]तीतवितीर्णदाननिवहैः संपन्न पुण्योच्चयः क्रीडाक्रान्तदिगन्तराल " ****** **** **** **** | 11 ................ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3000 For Private and Personal Use Only *******...... ....वः । 'कुलभूप .........बलाम्ब ''''क्रीडाकोड इवोदधार वसुधां देवाधिदेवाज्ञया । देवः सोऽथ कुमारपालनृपतिः श्रीराज्य चूडामणिर्यः स्वर्गादवतीर्णवान्हरिरिति ज्ञातः प्रभावाज्जनैः अर्णोराज नराधिराजहृदये क्षिप्बैक (व) वाणत्रजं योतल्लोहिततर्पणादमदयच्चण्डी भुजस्थायिनीम् । द्वारालम्बितमालवेश्वरशिरःपद्मेन यश्चाहरल्लीला पङ्कजसंग्रहव्यसनिनीं चौलुक्यराजान्वयः || शुद्धाचारनवावतारसरणिः सद्धर्मकर्मक्रमप्रादुर्भावविशारदो नयपथप्रस्थानसार्थाधिपः । यः संप्रत्यवतारयन्कृतयुगं योगं कलेर्लङ्घयन्मन्ये संहरति स्म भूमिवलयं कालव्यवस्थामपि ॥ प्रत्यू" 'खण्डिताङ्गुलिदलैः पर्युल्लसत्पल्लवो नष्टोदीच्यनराधिपोज्झितसितच्छत्रैः प्रसूनोज्ज्वलः । छिन्नप्राच्यनरेन्द्रमौलिकमलैः प्रौम्प (प्रोद्य) त्फलद्योतितश्छायां दूरमवर्धयन्निजकुले यस्य प्रतापद्रुमः ॥ आचारः किल तस्य रक्षणविधिर्विघ्नेश निर्ना (र्णा) शितप्रत्यूहस्य फलावलोकिशकुनज्ञानस्य सं देवी मण्डलखण्डिताखिलरिपोर्युद्धं विनोदोत्सवः श्री सोमेश्वरदत्तराज्य विभवस्याडम्बरं वाहिनी ॥ राज्ञानेन च भुज्यमानसुभगा विश्वंभरा विस्फुरद्रलद्योतितवारिराशिरशना शीताद्रिविन्ध्यस्तनी । एषाभूषयस्थिकुण्डलमिव श्रुत्याश्रयं पंता विभ्राणा नगराह्वयं द्विजमहास्थानं सुवर्णोदयम् ॥ आब्रह्मादिऋषिप्रवर्तितमहायज्ञक्रमोत्तम्भितैर्यूपैर्दत्तकरावलम्बनतया पादव्यपेक्षाच्युतः । धर्मोऽत्रैव चतुर्युगेऽपि कलितानन्दः परिस्पन्दते तेनानन्दपुरेति यस्य विबुधैर्नामान्तरं निर्मितम् ॥ अश्रान्तद्विजवर्गवेदतुमुलैर्बाधिर्यमारोपितः शधद्ध महुताशधूमपटलैरान्ध्यव्यथां लम्भितः । नानादेव निकेतनध्वज शिखाघातैश्च खञ्जीकृतो यस्मिन्नद्य कलिः स्वकालविहितोत्साहोऽपि नोत्सर्पति ॥ सर्पद्विप्रवधूजनस्य विविधालंकाररत्नांशुभिः स्मेराः संततगीतमङ्गलरवैर्वाचालतां प्रापिताः । अस्ता(श्रा)न्तोत्सवलक्ष्यमाणविभवोत्कर्षप्रकाशस्थितौ मार्गा एव वदन्ति यत्र नृपतेः सौराज्यसंपद्गुणम् ॥ अस्मिन्नागरवंशजद्विजजनस्त्राणं करोत्यध्वरे रक्षां शान्तिकपौष्टिकैर्वितनुते भूपस्य राष्ट्रस्य च । मा भूतस्य तथापि तीव्रतपसो बाधेति भक्त्या नृपो वप्रं विप्रपुराभिरक्षणकृते निर्मापयामास सः ॥ अस्मिन्वप्रगुणेन तोयनिलयाः प्रीणन्ति लोकं जलैः कामं क्षेत्रभुवोऽपि वप्रकलितास्तन्वन्ति धान्यश्रियम् । एवं चेतसि संप्रधार्य सकलब्रह्मोपकारेच्छया चक्रे वप्रविभूषितं पुरमिदं चौलुक्यचूडामणिः || पादाक्रान्तरसातलो गिरिरिव श्लाघ्यो महाभोगतः शृङ्गारीव तरङ्गिणीपतिरिव स्फारोदयद्वारभूः । उत्सर्पत्कपिशीर्षको जय इव क्रव्यादनार्थाद्विषां नारीवर्ग इवेष्टकान्तरुचिरः सालोऽयमालोक्यते ॥ भोगाभोगमनोहरः फणशतैरुतुङ्गतां धारयन्यातः कुण्डलितां च यज्ञपुरुषस्याज्ञावशेनागतः । रत्नस्वर्णमहानिधिं पुरमिव त्रातुं स शेषः स्थितः प्राकारः सुधया सितोपलशिराः संलक्ष्यते वृत्तवान् ॥ १. कुमारपालराज्यम् - वि० सं० ११९९ - १२३०. २. अयमगोराजश्च वीरधवलमहाराज पितामह इति कीर्तिकीमुर्दा काव्यस्य नरेन्द्रवंशवर्णनात्मके द्वितीयसर्गे व्याख्यात एव भवेत्. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमचन्द्रः। कामं कामसमृद्धिपूरकरमारामाभिरामाः सदा स्वच्छन्दखनतत्परैतिजकुलैरत्यन्तवाचालिताः । उत्सर्पद्गुणशालिवप्रवलयप्रीतैः प्रसन्ना जनैरत्रान्तश्च बहिश्च संप्रति भुवः शोभाद्भुतं बिभ्रति ॥ लक्ष्मीकुलं क्षोणिभुजो दधानः प्रौढोदयाधिष्ठितविग्रहोऽयम् । विभ्राजते नागरकाम्यवृष्टिर्वप्रश्च चौलुक्यनराधिपश्च । यावत्पृथ्वी पृथुविरचिताशेषभूभृन्निवेशा यावत्कीतिः सगरनृपतेर्विद्यते सागरोऽयम् । तावन्नन्द्याद्विजवरमहास्थानरक्षानिदानं श्रीचौलुक्यक्षितिपतियशःकीर्तनं वप्र एषः ॥ एकाहनिप्पन्नमहाप्रबन्धः श्रीसिद्धराजप्रतिपन्नबन्धुः । श्रीपालनामा कविचक्रवर्ती प्रशस्तिमेतामकरोत्प्रशस्ताम् ॥ संवत् १२०८ वर्षे आश्विन शुदि (२) गुरौ लिखितं नागरब्राह्मणपण्डितबालणेन ॥' इति काव्यमालापुस्तकान्तर्गतप्राचीनलेखमालायां G. Biihler Ph. D., L. L. 1)., ('. I. E. महाशयप्रेषित ४५ तमलेखतः विक्रमसंवत् १२०८ (.1. D. 1151) रूपः स्फुटमेव प्रतीयते । एवं च द्वादशी ख्रिस्तशतिका हेमचन्द्रसत्ताधारभूतावगम्यते । अनेनाचार्यश्रीहेमचन्द्रेणेयन्तो ग्रन्था निर्मिता इति निश्चितं नैव । परंतु तन्निमितग्रन्थेषु-अनेकार्थकोषः, अनेकार्थशेषः, अभिधानचिन्तामणिः (नाममालाव्याख्या), अलंकारचूडामणिः (काव्यानुशासनव्याख्या). उणादिसूत्रवृत्तिः, काव्यानुशासनम् , छन्दोनुशासनम् , छन्दोनुशासनवृत्तिः. देशीनाममाला सवृत्तिः, [याश्रयकाव्यं सवृत्ति], धातुपाठः सवृत्तिः, धातुपारायणं सवृत्ति, धातुमाला, नाममाला, नाममालाशेपः, निघण्टुशेषः, [प्रमाणमीमांसा सवृत्तिः,] बलाबलसूत्रबृहद्वत्तिः, बालभाषाव्याकरणसूत्रवृत्तिः, योगशास्त्रम् , विभ्रमसूत्रम् , [लिङ्गानुशासनं सवृत्ति. शब्दानुशासनं सवृत्ति, शेषसंग्रहः, शेषसंग्रहसारोद्धारः, एते ग्रन्थाः (atalogus ( ':atalogurum ग्रन्थे Dr. Theorlor Aafrecht महाशयैः प्रकाशिताः। एवमनेकलक्षात्मकग्रन्थकर्तृश्वेताम्बरजैनाचार्यश्रीहेमचन्द्रकृतान्यभिधानान्येवास्मिन्पुस्तके संगृहीतानि । तदेतेपामभिधानानां मुद्रणाय शोधनसमय येषां सहृदयाना पुस्तकानि प्राप्तानि, तेषां नामानि धन्यबादपुरःसरं प्रकाश्यन्त -- १. अभिधानचिन्तामणिः (नाममाला, -वाराणसीमुद्रितः । .-जयपुरराजगुरुश्रीलक्ष्मीदत्तभट्टात्मजश्रीदत्तानाम् । ----जयपुरराजकीयपुस्तकालयतः । २. अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टम् (नागमालाशपः)----अभिधानचिन्तामणितोऽस्माभिरुद्धतम् । ३, अनेकार्थसंग्रहः ----वाराणसीमुद्रितः । -जयपुरराजगुरुश्रीलक्ष्मीदत्तात्मजश्रीदत्तानाम् । अनकाथकबाकरकोगुदा -~-जयपुरराजगुरुपर्वणीकरश्रीनारायणभट्टानाम् । ----जंगमयुगप्रधानबृहत्खरतरगच्छप्रधानभट्टारक श्रीजिनमुक्तिसूरिणाम् । ४. निघण्टुशेपः - पुण्यपत्तनस्थपुस्तकालयतः । For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेमचन्द्रः। ५. लिङ्गानुशासनम् .-लवपुरीयविश्वविद्यालयाध्यापकदुर्गादत्तशास्त्रिणाम् । -जंगमयुगप्रधानबृहत्खरतरगच्छप्रधानभट्टारक श्रीजिनमुक्तिसूरिणाम् । ९. अभिधानचिन्तामणिशिलोच्छ: -खरतरगच्छस्योजीराममुनीनाम् । तदेवमेकानेकपुस्तकाधारेण शोधितमुद्रिताभिधानसंग्रहेऽस्मदोषादक्षरयोजकदोषाद्वा यत्र कचनाशुद्धिः स्थिता जाता वा तत्र सहृदयाः सौहार्दण समाधास्यन्ति । यत:-- गच्छतः स्खलनं कापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति सजनाः ॥ इति प्रार्थयत:-- पण्डित-शिवदत्त-काशीनाथा । For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 11 T: 11 अभिधानसंग्रहः । (६) श्री हेमचन्द्राचार्यविरचितः अभिधानचिन्तामणिः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ प्रणिपत्यार्हतः सिद्धसाङ्गशब्दानुशासनः । रूढयौगिकमिश्राणां नाम्नां मालां तनोम्यहम् ॥ व्युत्पत्तिरहिताः शब्दा रूढा आखण्डलादयः । योगोऽन्वयः स तु गुणक्रियासंबन्धसंभवः ॥ २ गुणतो नीलकण्ठायाः क्रियातः स्रष्टृसंनिभाः । वैस्वामित्वादिसंबन्धस्तत्राहुर्नाम तद्वताम् ॥ १. “प्रणिपत्यार्हत इति मङ्गलार्थम् । मङ्गलं चाविघ्नेन शास्त्रस्य समास्यर्थम् । सिद्धं प्रतिष्ठां प्राप्तं साङ्गं शब्दानुशासनं यस्येति कर्तृविशेषणम् । अङ्गानि लिङ्गधातुपारायणादीनि । एतावता शब्दानुशासनेन सहास्या एककर्तृकत्वमाह । एककर्तृकत्वख्यापनं चान्योन्यसंवादात्प्रतीतिदाय पदर्शनार्थम् । शब्दानुशासनस्य कीर्तनं तदधीनः सर्वविद्यानां प्रकर्म इति प्रदर्शनार्थम् || यदाह - 'वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानादृते तन्न द्वयमप्युपपद्यते ॥ रूढादीनां शब्दानां नाम्नां मालामभिधानचिन्तामणिनाम्नी तनोमि । अहमिति कर्तृनिर्देश: ॥" इति विवृतिः २. “तत्र रूढाञ्शब्दान्व्याचष्टे - प्रकृतिप्रत्ययविभागेनान्वर्थवर्जिता व्युत्पत्तिरहिताः । शब्दा इत्यनुवाद्यनिर्देश: । रूढा इति विधेयपदम् । आखण्डलादय इत्युदाहरणम् । नात्र प्रकृतिप्रत्ययविभागेन व्युत्पत्तिरस्ति । आदिशब्दान्मण्डपादयः ॥ यद्यपि ' नाम च धातुजम् -' इति शाकटायनमतेन रूढा अपि व्युत्पत्तिभाजः, तथापि वर्णानुपूर्वीज्ञानमात्रप्रयोजना तेषां व्युत्पत्तिः, न पुनरन्वर्थार्थप्रवृत्तौ कारणमिति रूढा अव्युत्पन्ना एव ॥ " इति विवृतिः. ३. “यौगिकाञ्शब्दान्व्याचष्टे - शब्दानां परस्परमर्थानुगमनमन्वयः स योगः । स पुनर्योगो गुणात्, क्रियायाः संबन्धाच्च भवति । गुणो नीलपीतादिः । क्रिया करोत्यादिका । संबन्धो वक्ष्यमाणः संभवो यस्य स तथा ॥ " इति विश्रुतिः. ४. “गुणक्रियासंभवयोगेन यौगिकानामुदाहरणम् - गुणतो गुणनिबन्धनो येषां योगस्ते शब्दा नीलकण्ठाद्याः । नीलः कण्ठोऽस्य इति गुणप्राधान्यान्नीलकण्ठः शंकरः । आदिशब्दात् शितिकण्ठः कालकण्ठ : इत्यादि ॥ संख्यापि गुण एव इति त्रिलोचनः । तेन – पञ्चवाणः पण्मुखः अष्टश्रवाः दशग्रीवः इत्यादि संगृहीतम् ॥ क्रियातः क्रियानिबन्धनो योगो येषां ते राष्ट्रप्रभृतयः । सृजति इति सर्जनप्राधान्यात्स्रष्टा ब्रह्मा । एवं धाता इत्यादयः ॥” इति विवृतिः ५. " संवन्धं व्याचष्टे – स्वम् आत्मीयम्, स्वामी यस्तत्र प्रभविष्णुः, तयोर्भावः स्वस्वामित्वम् । तदादिः संबन्ध: । आदिशब्दाज्जन्यजनकभावादिपरिग्रहः ॥” इति विवृतिः ६. " तत्र स्वस्वामिभावसंबन्धे पालादयः शब्दाः स्वात्परे नियोजिताः तद्वतां स्वामिनां नाम आहुः || मत्वर्थक इति । मतुस्तद्धितः । तस्यार्थोऽस्त्यर्थविशिष्टप्रकृत्यर्थेन सह देवदत्तादेः संबन्धः । तदाधारो वा 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुः ' इति मतुप्रत्ययविधानात् । मतोरर्थो यस्य स मत्वर्थकस्तद्धितो मतुना समानार्थ इत्यर्थः । स च इन्नणिकादिः । मत्वर्थाव्यभिचारान्मतुरपि । आदिशब्दात्पादयोऽपि ॥ तत्राहुर्नाम तद्वताम्' इति उत्तरेष्वप्यनुवर्तनीयम् ॥” इति विवृति:. For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir o 5 w gvo अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । स्वात्पालधनभुग्नेतृपतिमत्वर्थकादयः । भूपालो भूधनो भूभुग्भूनेता भूपतिस्तथा ॥ भूमाँश्चेति कविरूदया ज्ञेयोदाहरणावली । जैन्यात्कृकर्तृमृट्स्रष्टविधातृकरसूसमाः ॥ जनकाद्योनिजरुहजन्मभसूत्यणादयः । धार्याद्भजास्त्रपाण्यङ्कमौलिभूषणभृन्निभाः॥ शालिशेखरमत्वर्थमालिभर्तृधरा अपि । भोज्यागुगन्धोव्रतलिट्पायिपाशाशनादयः ।। पत्युः कान्ताप्रियतमावधूप्रणयिनीनिभाः । कलत्राद्वररमणप्रणयीशप्रियादयः ।। संख्युः सखिसमा वाह्याद्गामियानासनादयः । ज्ञातेः स्वसृदुहित्रात्मजाग्रजावरजादयः । १. "क्रमेणोदाहरणान्याह-इतिशब्दः प्रकारार्थः । तेन भूपादयोऽपि ॥ कवीनां रूढिः परम्परा तया न तु कविरूढ्यतिक्रमेण । यथा 'कपाली' इत्यादौ सत्यपि स्वस्वामिभावसंबन्धे 'कपाली' इति मत्वर्थीयान्त एव भवति, न तु 'कपालपालः, कपालधनः, कपालभुक्, कपालनेता, कपालपतिः' इत्यादि ॥” इति विवृतिः. २. “जन्यजनकभावसंबन्धे यथा----जन्यात्कार्यात्परे कृदादयस्तद्वतां जनकानां कारणानां नाम आहुः । यथा-विश्वकृत्, विश्वकर्ता, विश्वसृट् , विश्वस्रष्टा, विश्वविधाता, विश्वकरः, विश्वसू: ब्रह्मा । तस्य हि विश्वं जन्यमिति रूढिः ॥ सम आद्यर्थः । तेन-'विश्वकारकः, विश्वजनकः' इत्याद्यपि ॥ कविरूदया इत्येव । नहि यथा चित्रकृदुच्यते तथा चित्रसूः इति ॥" इति विवृतिः. ३. "तथा जनकात् परे योन्यादयः शब्दास्तद्वतां कारणवतां कार्याणां नाम आहुः ।। यथा-आत्मयोनिः, आत्मजः, आत्मरुहः, आत्मजन्मा, आत्मभूः, आत्मसूतिः, ब्रह्मा ।। तस्य ह्यात्मा कारणमिति रूढिः ॥ वक्ष्यमाणस्यादिशब्दस्याभिसंबन्धात् संभवादयोऽपि गृह्यन्ते ॥ अणादयस्तु-भृगोरपत्यं भार्गवः । दितेरपत्यं दैत्यः । वात्स्यस्यापत्यं वात्स्यायनः । अत्रापि हि भार्गवादीनां भृग्वादयो हि जनका इति रूढिः ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नदि-आत्मयोनिवत् 'आत्मजनकः, आत्मकारकः' इति भवति ॥” इति विवृतिः. ४. "धार्यधारकसंबन्धे यथा-~-धार्यवाचकात् परे ध्वजादयो धरान्ता धारकस्य नाम आहुः ॥ यथा--वृषध्वजः, शूलास्त्रः, पिनाकपाणिः, वृषाङ्कः, चन्द्रमौलि:, शशिभूषणः, शूलभृत् । निभग्रहणात्तत्सदृशा वृषकेतन-शूलायुध-वृषलक्ष्म-चन्द्रशिरस्-चन्द्राभरणादयो गृह्यन्ते । तथा—पिनाकशाली, शशिशेखरः, शूली, पिनाकमाली । पिनाकं मलते धारयतीति कृत्वा पिनाकभर्ता, गङ्गाधरः ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । तेन सत्यपि धार्यधारकसंबन्धे न सर्वेभ्यो धार्येभ्यो ध्वजाद्यर्थाः शब्दाः प्रयोज्याः । नहि भवति वृषध्वजवत् शूलध्वजः, शूलास्त्रवत् चन्द्रास्त्रः, पिनाकपाणिवत् अहिपाणिः, वृपाङ्कवत् चन्द्राङ्कः, चन्द्रमौलिवत् गङ्गामौलिः, शशिभूषणवत् शूलभूषणः, शूलशालिवत् चन्द्रशाली, चन्द्रशेखरवत् गङ्गाशेखरः, शूलिवत् शूलवान् , पिनाकमालिवत् सर्पमाली, पिनाकभर्तृवत् चन्द्रभर्ता, गङ्गाधरवत् चन्द्रधरः, इति ॥” इति विवृतिः. ५. "भोज्यभोजकभावसंबन्धे यथा--भोज्यं भक्ष्यं तद्वाचिनः शब्दात् परे भु. गादयः शब्दास्तद्वतां भोज्यवतां भोक्तृणां नाम आहुः । यथा-अमृतभुजः, अमृतान्धसः, अमृतव्रताः, अमृतलिहः, अमृतपायिनः, अमृतपाः, अमृताशाः, अमृताशनाः, देवाः ॥ तेषां ह्यमृतं भोज्यम्' इति रूढिः ।। आदिशब्दस्तत्समानार्थभोजनादिशब्दपरिग्रहाय ।। 'कविरूब्या' इत्येव । नहि यथा अमृतभुजः, तथा अमृतवल्मा इति भवति ॥” इति विवृतिः. ६. "पतिकलत्रभावसंबन्धे यथा---पतिर्वरयिता तद्वाचकाच्छब्दात् कान्तादिसदृशाः शब्दाः तद्वतीनां पतिमतीनां भार्याणां नाम आहुः ॥ यथा-शिवकान्ता, शिवप्रियतमा, शिववधूः, शिवप्रणयिनी, गौरी ॥ तस्या हि शिवः पतिः इति रूढिः ॥ निभग्रहणाद्रमणी-वल्लभा-प्रिया-प्रभृतयो गृह्यन्ते ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नहि भवति यथा शिवकान्ता तथा शिवपरिग्रहः इति ॥ तथा-कलत्रवाचिनः शब्दात्परे वरादयः शब्दास्तद्वतां कलत्रवतां वरयितृणां नाम आहुः ॥ यथा-गौरीवरः, गौरीरमणः, गौरीप्रणयी, गौरीशः, गौरीप्रियः, शिवः ॥ 'तस्य हि गौरी कलत्रम्' इति रूढिः ॥ आदिशब्दात् तत्समानार्थाः पत्यादयो गृह्यन्ते ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नहि भवति यथा गौरीवरः शिवः, तथा गङ्गावरः' इति ॥” इति विवृतिः. ७. "सख्युः संबन्धे यथा-सखिवाचकाच्छब्दात् परे सखिसमानार्थाः तद्वतां सख्यवतां नाम आहुः ।। यथा-श्रीकण्ठस्य सखा श्रीकण्ठसखः कुबेरः। मधुसखः कामः । समग्रहणात् सुहृदादयो गृह्यन्ते ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नहि भवति यथा-श्रीकण्ठसखो धनदः, तथाधनदसखः श्रीकण्ठ इति ॥" इति विवृतिः. ८. "वाह्यवाहकभावसंबन्धे यथा-वाह्यात वाह्यवाचिनः शब्दात् परे For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ देवाधिदेवकाण्डः । आश्रयात्सद्मपर्यायशयवासिसदादयः । वैध्याद्भिदृषिजिद्धातिध्रुनिपुध्वंसिशासनाः ॥ अप्यन्तकारिदमनदर्पच्छिन्मथनादयः । विवक्षितो हि संबन्ध एकतोऽपि पदात्ततः ।। प्राक्प्रदर्शितसंबन्धिशब्दा योज्या यथोचितम् । ईश्यते खलु वाह्यवे वृषस्य वृषवाहनः ॥ १२ स्वले पुनर्वृषपतिर्धार्यवे वृषलाञ्छनः । अंशोहर्यत्वेऽशुमाली स्वत्वेऽशुपतिरंशुमान ॥ १३ वध्यत्वेऽहेरहिरिपुर्भोज्यत्वे चाहिभुक्शिखी । चिरैयक्तैर्भवेव्यक्तेर्जातिशब्दोऽपि वाचकः ॥ १४ तथाह्यगस्तिपूता दिग्दक्षिणाशा निगद्यते । अयुग्विषमशब्दौ त्रिपञ्चसप्तादिवाचकौ ॥ गाभिप्रभृतयः तद्वतां वाह्यवतां वाहयितॄणां नाम आहुः ॥ यथा----वृषगामी, वृषयानः, वृषासनः, शंभुः ।। तस्य हिं वृषो यानम् इति रूढिः ॥ आदिशब्दाद वृषवाहन इत्यादयोऽपि ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नहि भवति यथा'नरवाहन: कुबेरः' तथा 'नरगामी, नरयानः' इति ॥” इति विवृतिः. ९. "ज्ञातेयसंबन्धे यथा-शातिः स्वजनः, तद्वाचिनः शब्दात् परे स्वस्रादयस्तद्वतां ज्ञातेयवतां ज्ञातीनां नाम आहुः ॥ स्वस्रादीनां च ज्ञातिविशेषवाचित्वाज्ज्ञातिविशेषादेव प्रयोगो यथा-यमस्वसा यमुना । हिमवद्दहिता गौरी । चन्द्रात्मजो बुधः । गदाग्रज इन्द्रावरजश्च विएणुः । यमादयो हि यमुनादीनां भ्रात्रादिज्ञातय इति रूढिः ॥ आदिशब्दात्सोदरादयो गृह्यन्ते ॥ यथा-कालिन्दीसोदरो यमः ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नहि भवति यथा 'यमुना यमस्वसा', 'तथा शनिस्वसापि ॥” इति विवृतिः. १. "आश्रयाश्रयिसंबन्धे यथा--आश्रयो निवास: तद्वाचिनः शब्दात् परे सद्मपर्यायाः शयवासिसदादयश्च तद्वताम् आश्रयवताम् आश्रितानां नाम आहुः । यथा--द्युसमानः, द्युसदनाः, दिवौकसः । दिवशब्दो वृत्तावकारान्तोऽप्यस्तीति । द्युवसतयः, दिवाश्रयाः, द्युशयाः, युवासिनः, युसदः, देवाः ॥ द्यौः स्वर्गः, स च तेपामाश्रयः इति रूढिः ॥ 'कविरूढ्या' इत्येव । नहि भवति यथा ग्रुसद्मानो देवाः, तथा भूमिसमानो मनुष्याः इति ॥” इति विवृतिः. २. "वध्यवधकभावसंबन्धे यथा-वथ्यो घात्यः तद्वाचिनः शब्दात् परे भिदादयः अन्तकार्यादयोऽपि तद्वतां वधकानां नाम आहुः । यथा-पुरभित् , पुरद्वेषी, पुरजित्, पुरघाती, पुरध्रुक्, पुरारिः, पुरध्वंसी, पुरशासनः, पुरान्तकारी, पुरदमनः, पुरदर्पच्छित , पुरमथनः, शिवः ।। 'तस्य हि पुरो वध्याः' इति रूढिः ॥ आदिशब्दात्--पुरदारी, पुरनिहन्ता, पुरकेतुः, पुरहा, पुरसूदनः, पुरान्तकः, पुरजयी, इति । वध्य इति वधाहमात्रेऽपि । तेन--कालियदमनः, कालियारिः, कालियशासनः, विष्णुः' इत्यादयोऽपि गृह्यन्ते ॥ 'कविरूदया' इत्येव । तेन कालियदमनादिवत् 'कालियघाती' इति न भवति ॥” इति विवृतिः. ३. "उक्ताः स्वस्वामित्वादयः संबन्धाः । ते च यथा भिन्नद्रव्याश्रयास्तथैकद्रव्याश्रया अपि भवन्ति इति दर्शयितुमाह-विवक्षानिवन्धनो हि संबन्धः, तत एकस्मादपि वृपादेः संबन्धिपदात् परे संबन्धान्तरनिबन्धना वाहनादयः शब्दा यथोचितं प्रयुज्यन्ते ॥” इति विवृतिः. ४, एतदेवाह-वाह्यवाहकभावसंबन्धे विवक्षायां यथा--'वृषवाहनो रुद्रः' इति भवति । तथा स्वस्वामिभावसंबन्धविवक्षायां 'वृषपतिः' ॥ धार्यधारकभावसंबन्धविवक्षायां च 'वृषलाञ्छनः' इत्यपि ॥ धार्यधारकसंबन्धविवक्षायां यथा-'अंशुमाली रविः' इति भवति । तथा-स्वस्वामिभावसंबन्धविवक्षायाम् 'अंशुपतिः, अंशुमान्' इत्यपि ॥ तथा-वध्यवधकभावसंबन्धे यथा---'अहिरिपुर्मयरः' । तथा--भोज्यभोजकभावसंबन्धे 'अहिभुक' इत्यपि भवति ॥" इति विवृतिः. ५. "संबन्धनिबन्धनां व्युत्पत्तिमुक्त्वा व्युत्पत्त्यन्तन्तरमाह---चिलैविशेषणैर्व्यक्तैनिःसंदेहैर्जात्यभिधायकोऽपि शब्दो व्यक्तेर्वाचको भवेत् । व्यक्ते मतां यातीत्यर्थः ॥ तथाहीत्यादिनोदाहरणमाह----अगस्तिना ऋषिविशेषेण पूता स्वस्थित्या पवित्रिता इति व्यक्तं चिह्नम् । तेन चिह्नितो 'दिक्' इति जातिशब्दो दक्षिणाशाया व्यक्तेरभिधायी भवति ॥ एवं 'सप्तर्षिपूता दिक् उत्तराशा,' 'अत्रे यनसमुत्थं ज्योतिश्चन्द्रः' इत्यादयोऽपि ॥” इति विवृतिः. ६. "व्युत्पत्त्यन्तरमाह-----त्रि-पञ्च-सप्तादिस्थाने अयुग्-विषम-शब्दौ त्रिनेत्रादिपदेषु योजनीयौ । यथा---त्रिनेत्रः, अयुग्नेत्रः, विषमनेत्रश्च शंभुः ॥ पञ्चेषुः, अयुगिपुः, विषमेषुश्च कामः । सप्तपलाशः, अयुक्पलाशः, विषमपलाशश्च सप्तपर्णः ॥ आदिशब्दात् नवशक्तिः, अयुक्शक्तिः, विषमशक्तिश्च शंभुः ॥ एवं व्यक्ष-पञ्चबाण-सप्तच्छदादिष्वपि ॥” इति विवृतिः. For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः । १८ त्रिनेत्रपक्षे सप्तपलाशादिषु योजयेत् । गुणशब्दो विरोध्यर्थं नजादिरितरोत्तरः । अभिधत्ते यथा कृष्णः स्यादसितः सितेतरः । वार्ध्यादिषु पदे पूर्वे वाडवाग्न्यादिषूत्तरे ॥ द्वयेऽपि भूभृदाद्येषु पर्यायपरिवर्तनम् । एवं परावृत्तिसहा योगाः स्युरिति यौगिकाः ॥ मिश्राः पुनः परावृत्त्यसहा गीर्वाणसंनिभाः । प्रवक्ष्यन्तेऽत्र लिंङ्गं तु ज्ञेयं लिङ्गानुशासनात् ॥ १९ देवाधिदेवाः प्रथमे काण्डे देवा द्वितीयके । नरस्तृतीये तिर्यञ्चस्तुर्य एकेन्द्रियादयः ॥ एकेन्द्रियाः पृथिव्यम्बुतेजोत्रायुमहीरुहः | कृमिपीलकलूताद्याः स्युर्द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः || पञ्चेन्द्रियाश्चेभकेकिमत्स्याद्याः स्थलखाम्बुगाः । पञ्चेन्द्रिया एव देवा नरा नैरयिका अपि ॥ नारकाः पथमे साङ्गाः षष्ठे साधारणाः स्फुटम् । प्रस्तोष्यन्तेऽव्ययाचात्र वन्तायादी न पूर्वगौ ॥ २३ २० २१ २२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only १६ १.७ १. “ व्युत्पत्त्यन्तरमाह – गुणवाची शब्दो नत्रपूर्व इतरशब्दोत्तरश्र विरोधिनमर्थमभिधत्ते ॥ यथा -- असितः, सितेतरः, कृष्णः ॥ एवम् - अकृशः, कृशेतरश्च स्थूल इत्यादि ॥' इति विवृतिः २. "व्युत्पत्यन्तरमाह--- वार्ध्यादिषु शब्देषु पूर्वस्मिन्नेव पदे पर्यायस्य परिवर्तनं भवति ॥ यथा -- वाधिः, जलधिः, तोयधिः || आदिशब्दग्रहणात् जलदः, तोयदः, नीरदः इत्यादि ॥ वडवाम्यादिषु शब्देषु उत्तरस्मिन्नेव पदे पर्यायपरिवर्तनम् । यथा - वडवाभि:, वडवानलः, वडवावह्निः ॥ आदिशब्दात् सरोजम्, सरोरुहम्, इत्यादि ॥ भूभृदाद्येषु शब्देषु द्वयेऽपि पूर्वत्र उत्तरत्र व पदे पर्यायस्य परिवर्तनम् । यथा - भूभृत्, उर्वीभृत्, भूधरः, उर्वीधरः ॥ आद्यशब्दात् सुरपतिः, देवराजः, इत्यादयः ||" इति विवृतिः ३. " एवमिति पूर्वत्र उत्तरत्र उभयत्र च पदे परावृत्ति पर्यायपरिवर्तनं सहन्ते क्षमन्ते परावृत्तिसहा वादयः शब्दा योगाद् अन्वयाद् भवेयुः इति यौगिकाः ||" इति विवृति: ४. “ गीर्वाणादयः शब्दाः पूर्वत्र उत्तरत्र च पदे पर्यायपरावृत्तिमसहमाना मिश्रा योगयुक्ता रूढिमन्तश्च अत्राभिधानचिन्तामणौ नाममा - लायां प्रवक्ष्यन्ते || संनिभग्रहणाद् दशरथ- कृतान्त-प्रभृतयः ।। " इति विवृतिः ५. “लिङ्गमिति । पुंलिङ्गं स्त्रीलिङ्गं नपुंसकलिङ्गं चास्मदुपज्ञलिङ्गानुशासनात् ज्ञेयं निर्णेतव्यम् । अत एवास्माभिरमरकोशा द्यभिधानमालास्विक लिङ्गनियो नोक्तः ॥ इह तु विनेयजनानुग्रहार्थं संदिग्धलिङ्गानां नानालिङ्गानां च शब्दानां लिङ्गनिर्णयो वक्ष्यते ॥” इति विवृतिः. ६. “इह हि 'भुक्तगतिः, देवगतिः, मनुष्यगतिः, तिर्यग्गतिः, नारकगतिः' इति जीवानां पञ्च गतयो भवन्ति । तद्भेदा जीवा अपि 'मुक्ताः, देवाः, मनुष्याः, तिर्यञ्चः, नारकाश्च' इति पञ्चधा भवन्ति । ततोऽभिधास्यमानरूढयौगिक मिश्रशब्दविभागमुक्त्वा प्रथमादिकाण्डेष्वभिधास्यमानमुक्तादिनामक्रमनिर्देशमाह--देवाधिदेवा अर्हन्तो वर्तमानातीतानागताः । तद्वाचकशब्दा अपि देवाधिदेवाः, वाच्यवाचकयोरभेदोपचारात् ॥ एवं वक्ष्यमाणदेवादिष्वपि योज्यम् || साङ्गा इति सर्वत्र संबध्यते ॥ ततः प्रथमे काण्डे गणधराद्यङ्गैः सह देवाधिदेवाः सर्वप्राधान्यात् ॥ द्वितीये काण्डे देवाः साङ्गाः ॥ तृतीये काण्डे मनुष्याः साङ्गाः ॥ चतुर्थे तिर्यञ्चः साङ्गाः । ते च एकेन्द्रियादयः । तत्र एकं स्पर्शनम् इन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रियाः पृथ्वीकायादयः पञ्च । तत्र पृथ्वीकायोऽनेकविधः -- शुद्धपृथ्वीशकैरावालुकादिः । अप्कायो हिमादिः । तेजःकायोऽङ्गारादिः । वायुकाय उत्कलिकादि: । वनस्पतिकाय: शैवलादिः ॥ द्वे स्पर्शन-रसने, त्रीणि स्पर्शनरसनप्राणानि, चत्वारि तान्येव चक्षुः सहितानि इन्द्रियाणि येषां ते तथा ॥ ततो द्वीन्द्रियाः कृम्यादयः, चीन्द्रियाः पीलकादयः, चतुरिन्द्रिया लूतादयः ॥ पञ्च स्पर्शादीनि श्रोत्रसहितानि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः । ते च त्रिविधा: - स्थलचराः, खचराः, अम्बुचराश्च । तत्र स्थलचरा इमाद्याः, खचराः केकिप्रभृतयः, अम्बुचरा मत्स्याद्याः || देवा नरा नारका पञ्चेन्द्रिया एव । न तु तिर्यञ्च इव एकद्वित्रिचतुरिन्द्रिया अपि ॥ पञ्चमे काण्डे नारकाः साङ्गाः || पठे काण्डे साधारणाः सामान्यवाचिनः || अव्ययाश्च अत्रेति पठ एव काण्डे प्रस्तोष्यन्ते प्रक्रम्यन्त इति ॥” इति विश्रुतिः ७. “तुशब्दोऽन्ते यस्यासौ त्वन्तः, अथशब्द आदिर्यस्यासावथादिश्च शब्दः पूर्वे न गच्छति । अग्रिमेण संबध्यते' इत्यर्थः ॥ न्यायसिद्धं चैतत् । तुना पूर्वस्माद्विशेपद्योतनात् । अथशब्देन चार्थान्तरारम्भात् । यथा --- ' स्यादनन्तजिदनन्तः सुविधिस्तु पुष्पदन्तः' इति, 'मुक्तिमाँक्षोऽपवर्गोऽथ मुमुक्षुः श्रमणो यतिः' इति ॥ भ्रान्तिस्थानविपये चैतत्' इति ||" इति वितृतिः, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ देवाधिदेवकाण्डः। अर्हञ्जिनः पारगतस्त्रिकालविल्क्षीणाष्टकर्मापरमेष्टयधीश्वरः । शंभुः स्वयंभूभगवाज्जगत्प्रभुस्तीर्थकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः ॥ स्याद्वाद्यभयदसार्वाः सर्वज्ञः सर्वदर्शिकेवलिनौ । देवाधिदेववोधदपुरुषोत्तमवीतरागाप्ताः ।। एतस्यामवसर्पिण्यामृषभोऽजितशंभवौ । अभिनन्दनः सुमतिस्ततः पद्मप्रभाभिधः ॥ सुपार्श्वश्चन्द्रप्रभश्च सुविधिश्चाथ शीतलः । श्रेयांसो वासुपूज्यश्च विमलोऽनन्ततीर्थकृत् ॥ धर्मः शान्तिः कुंथुररो मल्लिश्च मुनिसुव्रतः । नमिर्नेमिः पार्थो वीरश्चतुर्विंशतिरहताम् ॥ ऋषभो वृपभः श्रेयाश्रेयांसः स्यादनन्तजिदनन्तः । सुविधिस्तु पुष्पदन्तो मुनिसुव्रतसुव्रतौ तुल्यौ ॥ अरिष्टनेमिस्तु नेमिर्वीरश्चरमतीर्थकृत् । महावीरो वर्धमानो देवार्यों ज्ञातनन्दनः ॥ गणा नवास्यर्षिसंघा एकादश गणाधिपाः । इन्द्रभूतिरग्निभूतिर्वायुभूतिश्च गौतमाः ॥ व्यक्तः सुधर्मा मण्डितमौर्यपुत्रावकम्पितः । अचलभ्राता मेतार्यः प्रभासश्च पृथकुलाः ॥ केवली चरमो जम्बूस्वाम्यथ प्रभवत्प्रभुः । शय्यंभवो यशोभद्रः संभूतविजयस्ततः ॥ भद्रबाहुः स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् । महागिरिसुहस्त्याद्या वज्रान्ता दशपूर्विणः ॥ इक्ष्वाकुकुलसंभूताः स्याहाविंशतिरहताम् । मुनिसुव्रतनेमी तु हरिवंशसमुद्भवौ ॥ नाभिश्च जितशत्रुश्च जितारिरथ संवरः । मेघो धरः प्रतिष्टश्च महासेननरेश्वरः ॥ सुग्रीवश्च दृढग्थो विष्णुश्च वसुपूज्यराट् । कृतवर्मा सिंहसेनो भानुश्च विश्वसेनराट् ॥ सूरः सुदर्शनः कुम्भः सुमित्रो विजयस्तथा । समुद्रविजयश्चाश्वसेनः सिद्धार्थ एव च ॥ ३८ . मरुदेवा विजया सेना सिद्धार्था च मङ्गला । ततः सुसीमा पृथ्वी लक्ष्मणा रामा ततः परम् ॥ ३९ नन्दा विष्णुर्जया श्यामा सुयशाः मुव्रताचिरा । श्रीदेवी प्रभावती च पद्मा वप्रा शिवा तथा ॥४० वामा त्रिशला क्रमतः पितरो मातगेऽर्हताम् । स्याद्गोमुखो महायक्षस्त्रिमुखो यक्षनायकः॥ ४१ तुम्वरुः कुसुमश्चापि मातङ्गो विजयोऽजितः । ब्रह्मा यक्षेट कुमारः षण्मुखपातालकिनगः॥ ४२ गरुडो गन्धर्वो यक्षेट् कुवेगे वरुणोऽपि च । भृकुटिर्गोमेधः पार्थो मातङ्गोऽर्हदुपासकाः ॥ ४३ चक्रेश्वर्जितवला दुरितारिश्च कालिका । महाकाली श्यामा शान्ता भृकुटिश्च सुतारका ॥ ४४ अशोका मानवी चण्डा विदिता चाङ्कुशा तथा । कंदर्पा निर्वाणी बला धारिणी धरणप्रिया ॥ ४५ नग्दत्ताथ गान्धार्यम्बिका पद्मावती तथा । सिद्धायिका चेति जैन्यः क्रमाच्छासनदेवताः ॥ ४६ वृषो गजोऽश्वः प्लवगः क्रौञ्चोऽब्ज स्वस्तिकः शशी । मकरः श्रीवत्सः खड़ी महिषः सूकरस्तथा४७ श्येनों वनं मृग छागो नन्द्यावर्तो घटोऽपि च । कूर्मो नीलोत्पलं शङ्कः फणी सिंहोऽहतां ध्वजाः४८ ___रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यौ शुक्लौ तु चन्द्रप्रभपुष्पदन्तौ । कृष्णौ पुनर्नेमिमुनी विनीलो श्रीमल्लिपाधी कनकत्विपोऽन्ये ॥ उत्सर्पिण्यामतीतायां चतुर्विंशतिरर्हताम् । केवलज्ञानी निर्वाणी सागरोऽथ महायशाः ॥ ५० विमलः सर्वानुभूतिः श्रीधरो दत्ततीर्थकृत् । दामोदरः सुतेजाश्च स्वाम्यथो मुनिसुव्रतः ॥ ५१ १. 'सर्वीय'. २. 'संभवौ'. ३. 'नेमी' नान्तोऽपि. ४. 'अजिता' इत्यपि. ५. 'अच्युतदेवी' इत्यपि. ६. 'सुतारा' इत्यपि. ७. 'कुष्माण्डी' इत्यपि. For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । सुमतिः शिवगतिश्चैवात्यागोऽथ निमीश्वरः । अनिलो यशोधराख्यः कृतार्थोऽथ जिनेश्वरः॥ ५२ शुद्धमतिः शिवकरः स्यन्दनवाथ संप्रतिः । भाविन्यां तु पद्मनाभः शूरदेवः सुपार्श्वकः ॥ ५३ स्वयंप्रभश्च सर्वानुभूतिर्देवश्रुतोदयौ । पेढालः पोट्टिलश्चापि शतकीर्तिश्च सुव्रतः ॥ अममो निष्कपायश्च निष्पुलाकोऽथ निर्ममः । चित्रगुप्तः समाधिश्च संवरश्च यशोधरः ।। विजयो मल्लदेवी चानन्तवीर्यश्च भद्रकृत् । एवं सर्वावसर्पिण्युत्सर्पिणीषु जिनोत्तमाः ॥ तेषां च देहोऽद्भुतरूपगन्धो निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च । श्वासोऽजगन्धो रुधिरामिषं तु गोक्षीरधाराधवलं ह्यविस्रम् ॥ आहारनीहारविधिस्त्वदृश्यश्चत्वार एतेऽतिशयाः सहोत्थाः । क्षेत्र स्थितिर्योजनमात्रकेऽपि नृदेवतिर्यग्जनकोटिकोटेः॥ वाणी नृतियक्सुरलोकभाषासंवादिनी योजनगामिनी च । भामण्डलं चारु च मौलिपृष्टे विडम्विताहर्पतिमण्डलश्रीः ॥ साग्रे च गव्यूतिशतद्वये रुजावैरेतयो मार्यतिवृष्टयवृष्टयः । दुर्भिक्षमन्यवकचक्रतो भयं स्यान्नैत एकादश कर्मघातजाः ॥ खे धर्मचक्रं चमराः सपादपीठं मृगेन्द्रासनमुज्ज्वलं च । छत्रत्रयं रत्नमयध्वजोऽङ्ग्रिन्यासे च चामीकरपङ्कजानि ॥ वप्रत्रयं चारु चतुर्मुखाङ्गताश्चैत्यगुमोऽधोवदनाश्च कण्टकाः । द्रुमानतिर्दुन्दुभिनाद उच्चकैर्वातोऽनुकूलः शकुनाः प्रदक्षिणाः ॥ गन्धाम्बुवर्ष वहुवर्णपुष्पवृष्टिः कचश्मश्रुनखाप्रवृद्धिः । चतुर्विधा महँनिकायकोटिर्जघन्यभावादपि पार्श्वदेशे ॥ ऋतूनामिन्द्रियार्थानामनुकलत्वमिलमी । एकोनविंशतिर्देव्याश्चतुस्त्रिंशच मीलिताः ॥ संस्कारवत्त्वमौदार्यमुपचारपरीतता । मेघनिर्घोषगाम्भीर्य प्रतिनादविधायिता ॥ दक्षिणत्वमुपनीतरागत्वं च महार्थता । अव्याहतलं शिष्टलं संशयानामसंभवः ॥ निराकृतान्योत्तरत्वं हृदयंगमितापि च । मिथः साकाङ्गता प्रस्तावौचित्यं तत्त्वनिष्ठता ॥ अप्रकीर्णप्रसृतत्वमवश्लाघान्यनिन्दिता । आभिजात्यमतिस्निग्धमधुरवं प्रशस्यता ॥ अमर्मवेधितौदार्य धर्मार्थप्रतिवद्धता । कारकाद्यविपर्यासो विभ्रमादिवियुक्तता ॥ चित्रकृत्त्वमद्भुतलं तथानतिविलस्विता । अनेकजातिवैचित्र्यमारोपितविशेषिता ॥ सत्त्वप्रधानता वर्णपदवाक्यविविक्तता । अव्युच्छित्तिरखेदिलं पञ्चत्रिंशच्च वाग्गुणाः ॥ अन्तगया दानलाभवीर्यभोगोपभोगगाः । हासो रत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ कामो मिथ्यालमज्ञानं निद्रा चाविरतिस्तथा । रोगो द्वेषश्च नो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥ महानन्दोऽमृतं सिद्धिः कैवल्यमपुनर्भवः । शिवं निःश्रेयसं श्रेयो निर्वाणं बहा निर्वृतिः ॥ ७४ महोदयः सर्वदुःखक्षयो निर्माणमक्षरम् । मुक्तिर्मोक्षोऽपवर्गोऽथ मुमुक्षुः श्रमणो यतिः ॥ ७५ बाचंयमो व्रती साधुरनगार ऋषिपर्मुनिः । नियो भिक्षुरस्य स्वं तपोयोगशमादयः ॥ मोक्षोपायो योगो ज्ञानं श्रद्धानं चरणात्मकः । अभाषणं पुनर्मोनं गुरुर्धर्मोपदेशकः ॥ ७७ १. 'भद्रः' अपि. For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ देवकाण्डः । ७८ ८० ८१. ८२ ८३ अनुयोगकृदाचार्य उपाध्यायस्तु पाठकः । अनूचानः प्रवचने साङ्गेऽधीती गणिश्च सः शिष्यो विनेयोऽन्तेवासी शैक्षः प्राथमकल्पिकः । सतीर्थ्यास्त्वेकगुरवो विवेकः पृथगात्मता ॥ ७९ एकत्र व्रताचारा मिथः सब्रह्मचारिणः । स्यात्पारम्पर्य माम्नायः संप्रदायो गुरुक्रमः ॥ व्रतादानं परित्रज्या तपस्या नियमस्थितिः | अहिंमासूनृतास्तेयब्रह्माकिंचनता यमाः || नियमाः शौचसंतोषौ स्वाध्यायतपसी अपि । देवताप्रणिधानं च करणं पुनरासनम् ॥ प्राणायामः प्राणयमः श्वासप्रश्वासरोधनम् । प्रत्याहारस्त्विन्द्रियाणां विषयेभ्यः समाहृतिः ॥ धारणा तु कचिद्धये चित्तस्य स्थिरवन्धनम् । ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंततिः ॥ समाधिस्तु तदेवार्थमात्राभासनरूपकम् । एवं योगो यमायङ्गैरष्टभिः संमतोऽष्टधा ॥ ari शुभवेि कल्याणं श्वोवसीयसं श्रेयः । क्षेमं भावुकभविककुशलमङ्गलभद्रमस्तानि || इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितायामभिधानचिन्तामणी नाममालायां देवाधिदेवकाण्डः प्रथमः ।। १ ।। शुक्रसहस्रारानतप्राणतजा आरणाच्युतजाः ॥ कल्पातीता नव ग्रैवेयकाः पञ्च वनुत्तराः | निकायभेदादेवं स्युर्देवाः किल चतुर्विधाः ॥ आदित्यः सवितार्यमा खरसहस्रोष्णांशुरंशू रविमर्तण्डस्तरणिर्गभस्तिररुणो भानुर्नभोऽहमणिः | सूर्योऽर्कः किरणो भगो ग्रहपुत्रः पूषा पतङ्गः खगो मार्ताण्डो यमुनाकृतान्तर्जनकः प्रद्योतनस्तापनः ॥ ७ For Private and Personal Use Only ८४ ८५ स्वर्गस्त्रिविष्टपं द्योदिवौ भुविस्तविषताविव नाकः । गौत्रिदिवमूर्ध्वलोकः सुरालयस्तत्सदस्वमराः ॥ देवाः सुपर्वसुरनिर्जरदेवतर्भुवर्हिर्मुखानिमिषदैव तनाकिलेखाः । वृन्दारकाः सुमनसस्त्रिदशा अमर्त्याः स्वाहास्वधाऋतुसुधार्भुज आदितेयाः || गीर्वाणा मरुतोऽस्मा विबुधा दानवारयः । तेषां यानं विमानोऽन्धः पीयूषममृतं सुधा ॥ असुरा नागास्तडितः सुपर्णका वह्नयोऽनिलाः स्तनिताः । उदधिद्वपदिशो दश भवनाधीशाः कुमारान्तीः ॥ ९० स्युः पिशाचा भूता यक्षा राक्षसाः किंनरा अपि । किंपुरुषा महोरगा गन्धर्वाश्चान्तरा अमी ॥ ९१ ज्योतिष्काः पञ्च चन्द्रार्कग्रहनक्षत्रतारकाः । वैमानिकाः पुनः कल्पभवा द्वादश ते त्वमी || सौधर्मेशानसनत्कुमारमाहेन्द्र ब्रह्मलान्तकर्जाः । १२ ८६ 62 ८८ ८९ ९३ ९४ ९५ १. ‘त्रिपिष्टपम्' इति प्राच्याः २. स्वर्गसदः; यौगिकत्वात् 'सद्मानः' इत्यादयोऽपि. २. यौगिकत्वात् ' स्वगिणः, त्रिदिवाधीशा:' इत्यादयोऽपि. ४. 'भुज् 'शब्दः स्वाहादिना प्रत्येकं संबध्यते; यौगिकत्वात् 'स्वाहाशनाः, स्वधाशनाः, यज्ञाशनाः, अमृतान्धसः' इत्यादयोऽपि ५. 'कुमार' शब्दस्य प्रत्येकममुरादिभिः संबन्धः ६. 'जशब्दस्य सौधर्मादिभिरन्वयः ७. 'ज'शब्दस्य शुक्रादिभिरन्वयः ८. 'अंशु' शब्द: प्रत्येकं स्वरादिभिरन्वेति ; यौगिकत्वात् 'खररश्मिः, दशशतरश्मिः शीतेतररश्मिः' इत्यादयोऽपि ९. 'मणि' शब्द: प्रत्येकं नभआदिभ्यामन्वेति; यौगिकत्वात् ‘व्योमरत्नम्, दिनरत्वम्' इत्यादि. १०. 'जनक' शब्द: प्रत्येकमन्वेति ; यौगिकत्वात् 'कालिन्दीसूः, यमसू:' इत्यादयोऽपि. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८ अभिधान संग्रह: --- ६ अभिधानचिन्तामणिः । त्रघ्नो हंसचित्रभानुर्विवस्वान्सूरस्त्वष्टा द्वादशात्मा च हेलिः । मित्रो ध्वान्तारातिरब्जांशुहस्तञ्चाजाहवन्धिवः सप्तसप्तिः ॥ दिवादिनाहर्दिवसप्रभाविभाभासः करः स्यान्मिहिरो विरोचनः । ग्रहाच्जिनीगोद्युतित्रिकर्तनो हरिः शुचीनौ गगनादुजाध्वगौ ॥ हरिदश्वो जगत्कर्मसाक्षी भास्वान्विभावसुः । त्रयीतनुर्जगञ्चक्षुस्तपनोऽरुणसारथिः ॥ गेचिरुस्ररुचिशोचिरंशुगो ज्योतिरचैिरुपधृत्य भोशवः । प्रग्रहः शुचिमरीचिदीप्तयो धामकेतुवृणिरश्मिपृश्रयैः ॥ पाददीधतिकरद्युतिद्युतो रुग्विरोककिरण विपित्विषः । भाः प्रभावसुगभस्तिभानवो भा मयूखमहसी छविर्विभा ॥ १०० १०२ १०३ प्रकाशस्तेज उद्दयोत आलोको वर्च आतपः । मरीचिका मृगतृष्णा मण्डलं तूप सूर्यकम् ॥ १०१ परिधिः परिवेषश्च सूरसूतस्तु काश्यपिः । अनूरुविनतासूनुररुणो गरुडाग्रजः ॥ रेवन्तस्त्वर्करेतोजः प्लवगो हयवाहनः । अष्टादश माठराद्याः सवितुः परिपार्श्वकाः ॥ चन्द्रमाः कुमुदबान्ध॑वो दशश्वेतैवाज्यमृतसूस्तिथिप्रणीः । कौमुदीकुमुदिनीभदक्षजारोहिणीद्विजनिशौषधीपतिः ॥ targatsar कलाशरौणच्छायादिन्दुर्विधुरत्रिहेग्ज: । राजा निशो रत्नकरौ च चन्द्रः सोमोऽमृतश्वेतहिमद्युतिग्लौः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९७ ९८ For Private and Personal Use Only ९९ १०४ १०५ १०८ षोडशोंऽशः कला चिह्नं लक्षणं लक्ष्म लाञ्छनम् । अङ्गः कलङ्कोऽभिज्ञानं चन्द्रिका चन्द्रगोलिका १०६ चन्द्रातपः कौमुदी च ज्योत्स्ना विम्बं तु मण्डलम् । नक्षत्रं तारका ताराज्योतिषी भमुटु ग्रहः ॥ १०७ धिष्ण्यमृक्षमथाश्विन्यश्वकिनी दखदेवता । अश्वयुग्वालिनी चाथ भरणी यमदेवता ॥ कृत्तिका बहुलाश्चाग्निदेवा ब्राह्मी तु रोहिणी । मृगशीर्ष मृगशिरो मार्गश्चान्द्रमसं मृगः ॥ इल्वलस्तु मृगशिरःशिरस्थाः पञ्च तारकाः । आर्द्रा तु कालिनी रौद्री पुनर्वसू तु यामकौ ॥ आदित्यौ च पुष्पस्तिष्यः सिध्यच गुरुदैवतः । सार्पोऽश्लेषा मत्रा पित्र्या फाल्गुनी योनिदेवता ॥ १११ सा तूत्तरार्यमदेवा हस्तः सवितृदैवतः । त्वाष्ट्री चित्रानिली स्वातिर्विशाखेन्द्राग्निदेवताः ॥ ११२ १०९ ११० १. तालव्यादिरित्यन्ये. २. यौगिकत्वात् 'तिमिरारिः' इत्यादयः ३. 'हस्त' शब्द: प्रत्येकमन्जादिनान्वेति ; यौगिकत्वात् पद्मपाणिः, गभस्तिपाणि:' इत्यादयोऽपि ४. 'वान्धव' शब्द: प्रत्येकं चक्रादिभिरन्वेति; यौगिकत्वात् 'चक्र - वाकबन्धुः, 'पद्मबन्धुः, दिनबन्धुः' इत्यादयः ५. 'कर' शब्द: प्रत्येकं दिवादिभिरन्वेति यौगिकत्वात् 'वासरकृत्, दिनप्रणीः, दिनकृत्,' इत्यादयः. ६. पतिशब्दः प्रत्येकं ग्रहादिभिरन्वेति ; यौगिकत्वात् - प्रदेशः, पद्मिनीशः, त्विषामीशः, इत्यादयोऽपि. ७. 'गगन' शब्द: प्रत्येकं ध्वजादिनान्वेति ; यौगिकत्वात् 'नभः केतनम् नमः पान्थ : ' इत्यादयः. ८. ‘साक्षिन्’शब्दः प्रत्येकमन्वेति ९. अभीपुरिति गौड : १०. पृष्णिरित्येके; वृष्णिरित्यन्ये. ११. यौगिकत्वात् 'कैरवबन्धुः, कुमुदसुहृत्' इत्यादयोऽपि १२. 'वाजिन् 'शब्दः प्रत्येकमन्वेति यौगिकत्वात् 'श्वेताश्वः, दशाश्वः' इत्यादयः. १३. 'पति' शब्द : कौमुद्यादिभिरन्वेति ; यौगिकत्वात् 'ज्योत्स्नेशः, कुमुद्वतीशः, दाक्षायणीशः ' इत्यादयः. १४. समुद्रनवनीतमपि १५. 'भृत् 'शब्द: प्रत्येकं कलादिरन्वयः ; यौगिकत्वात् ‘छायाङ्कः' इत्यादयः. १६. अत्रिनेत्रप्रसूतः इत्यादय: १७. 'निशा 'शब्दः प्रत्येकं संबध्यते; यौगिकत्वात् 'निशामणिः, रजनीकर : ' इत्यादयः. १८. ' द्युति'शब्दः प्रत्येकममृतादिभिः संबध्यते; यौगिकत्वात् 'सुधांशुः सितांशुः शीतांशुः इत्यादयः. १९. 'इन्का' इसपि. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ देवकाण्डः । ९ ११४ १२० राधानुराधा तु मैत्री ज्येष्ठैन्द्री मूल आस्रपः । पूर्वाषाढा तु सोत्तरा स्याद्वैश्वी श्रवणः पुनः ॥ ११३ हरिदेव श्रविष्टा तु धनिष्ठा वसुदेवता । वारुणी तु शतभिषगजाहिर्बुध्नदेवताः ॥ पूर्वोत्तरा भाद्रपदा द्वय्यः प्रोष्ठपदाश्च ताः । रेवती तु पौष्णं दाक्षायण्यः सर्वाः शशिप्रियाः ॥ ११५ राशीनामुदयो लग्नं मेषप्रभृतयस्तु ते । आरो वो लोहिताङ्गो मङ्गलोऽङ्गारक: कुंजः ॥ ११६ आपाढाभूर्नवार्चिश्च बुधः सौम्यः प्रहर्षुलः । ज्ञः पञ्चाचिः श्रविष्टाभूः श्यामाङ्गो रोहिणीसुतः । ११७ बृहस्पतिः सुराचार्यो जीवचित्रशिखण्डिजः । वाचस्पतिर्द्वादशाचिर्धिषणः फाल्गुनीभवः ॥ ११८ गीर्ब्रहत्योः पैंतिरुतथ्यानुजाङ्गिरसौ गुरुः । शुक्रो मघाभवः काव्य उशना भार्गवः कविः ॥ ११९ षोडशाचिदैत्यगुरुर्विष्ण्यः शनैश्वरः शनिः । छायासुतोऽसितः सौरिः सप्तार्थी रेवतीभवः ॥ मन्दः क्रोडो नीलवासाः खर्भाणुस्तु विधुंतुदः । तमो राहुः सैंहिकेयो भरणीभूरथाहिकः ॥ अश्लेषाभूः शिखी केतुर्ध्रुवस्तूत्तानपादजः । अगस्त्योऽगस्तिः पीतान्धिर्वातापिद्विटोद्भवः ॥ मैत्रावरुणिराग्नेय और्वशेयाग्निमारुतौ । लोपामुद्रा तु तद्भार्या कौषीतकी वरप्रदा ॥ मरीचिप्रमुखाः सप्तर्षयश्चित्रशिखण्डिनः । पुष्पदन्तौ पुष्पवन्तावेकोत्त्या शशिभास्करौ ॥ राहुप्रासोऽर्केन्द्वोर्ग्रह उपराग उपप्लवः । उपलिङ्गं वरिष्टं स्यादुपसर्ग उपद्रवः || अजन्यमीतिरुत्पातो वह्नयुत्पात उपाहितः । स्यात्कालः समयो दिष्टानेहसौ सर्वमूषकः ॥ कालो द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीविभेदतः । सागरकोटिकोटीनां विंशत्या स समाप्यते ॥ | अवसर्पिण्यां पडरा उत्सर्पिण्यांत एव विपरीताः । एवं द्वादशभिररैर्विवर्तते कालचक्रमिदम् ॥ तत्रैकान्तसुषमारञ्चतस्रः कोटिकोटयः । सागराणां सुषमा तु तिस्रस्तूत्कोटिकोटयः ॥ सुषमदुःषमा ते द्वे दुःषमसुषमा पुनः । सैका सहस्रैर्वर्षाणां द्विचत्वारिंशतोनिता ॥ अथ दुःषमैकविंशतिरब्दसहस्राणि तावती तु स्यात् । एकान्तदुःषमापि ह्येतत्संख्याः परेऽपि विपरीताः ॥ १३१ १३२ १३३ १३४ १३५ १३६ प्रथमेऽरत्रये मर्त्यास्त्रिद्व्येकपल्यजीविताः । त्रिकगव्यूत्युच्छ्रायास्त्रिव्येकदिनभोजनाः ॥ कल्पद्रुफलसंतुष्टाश्चतुर्थे त्वरके नराः । पूर्वकोट्यायुषः पञ्चधनुःशतसमुच्छ्रयाः ॥ पथमे तु वर्षशतायुषः सप्तकरोच्छ्रयाः । षष्ठे पुनः षोडशाब्दायुषो हस्तसमुच्छ्रयाः ॥ एकान्तदुःखप्रचिता उत्सर्पिण्यामपीदृशाः । पञ्चानुपूर्व्या विज्ञेया अरेषु किल पट्स्वपि ॥ अष्टादश निमेषास्तु काष्ठा काष्ठाद्वयं लवः । कला तैः पञ्चदशभिर्लेशस्तङ्कितयेन च ॥ क्षणस्तैः पञ्चदशभिः क्षणैः पतिस्तु नाडिका । सा धारिका च घटिका मुहूर्तस्तद्वयेन च ॥ १३७ त्रिंशता तैरहोरात्रस्तत्राहदिवसो दिनम् । दिवं दुर्वासरो घस्रः प्रभातं स्यादहर्मुखम् ॥ व्युष्टं विभातं प्रत्यूषं कल्यप्रत्युषसी उषः । काल्यं मध्याह्नस्तु दिवामध्यं मध्यंदिनं च सः || १३९ दिनावसानमुत्सूरो विकालसबली अपि । सायं संध्या तु पितृसूत्रिसंध्यं तूपवैणवम् ॥ 1 १.४० श्राद्धकालस्तु कुतपोऽष्टमो भागो दिनस्य यः । निशा निशीथिनी रात्रिः शर्वरी क्षणदा क्षपा ।। १४१ त्रियामा यामिनी भौती तमी तमा विभावरी । रजनी वसतिः श्यामा वासतेयी तमस्विनी || १४२ १३८ For Private and Personal Use Only १२१ १२२ १२३ १२४ १२५ १२६ १२७ १.२८ १२९ १.३० १. यौगिकत्वात् भौमः, माहेयः, धरणीसुतः, इत्यादयः. २. पतिशब्दः प्रत्येकमन्वेति ३. 'सौरः' अपि. ४. 'पूर्वपदात्' इति णत्वम्. ५. विपरीतक्रमेण इत्यर्थः ६. यौगिकत्वात् 'यामवती' इत्यपि. 2 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणि: । १४५ १५० 1 १५६ उषा दोषेन्दुकान्ताथ तमिस्रा दर्शयामिनी । ज्योत्स्ना तु पूर्णिमारात्रिर्गणरात्री निशागणः ॥ १४३ पक्षिणी पक्ष तुल्याभ्यामहोभ्यां वेष्टिता निशा । गर्भकं रजनीद्वन्द्वं प्रदोषो रजनीमुखम् || १४४ यामः प्रहरो निशीथस्त्वर्धरात्रो महानिशा । उच्चन्द्रस्त्वपररात्रस्तमिस्रं तिमिरं तमः ॥ ध्वान्तं भूछायान्धकारं तमसं समवान्धतः । तुल्यनक्तंदिने काले विषुवद्विषुवं च तत् ॥ पञ्चदशाहोरात्रः स्यात्पक्षः स बहुलोऽसितः । तिथिः पुनः कर्मवाटी प्रतिपत्पक्षतिः समे || पञ्चदश्यौ यज्ञकालौ पक्षान्तौ पर्वणी अपि । तत्पर्वमूलं भूतेष्टापञ्चदश्योर्यदन्तरम् ॥ स पर्व संधिः प्रतिपत्पञ्चदश्योर्यदन्तरम् । पूर्णिमा पौर्णमासी सा राका पूर्णे निशाकरे || कलाहीने त्वनुमतिर्मार्गशीर्ष्याग्रहायणी । अमामावस्यमावस्या दर्शसूर्येन्दुसंगमः || अमावास्यामावासी च सा नष्टेन्दुः कुहुः कुद्धः । दृष्टेन्दुस्तु सिनीवाली भूतेष्टा तु चतुर्दशी ॥ १५१ पक्षो मासो वत्सरादिमर्गशीर्षः संहः सहाः । आग्रहायणकचाथ पौषस्तैषः सहस्यवत् ॥ १५२ मात्रस्तपाः फाल्गुनस्तु फाल्गुनिकस्तपस्यवत् । चैत्रो मधुत्रिकच वैशाखे रामाधवौ || 1 १.५३ ज्येष्ठस्तु शुक्रोऽथापाढः शुचिः स्याच्छ्रावणो नभाः । श्रावणिकोऽथ नभस्यः प्रोष्टभाद्रपरः पैदः ।। १६४ भाद्रश्चाप्याश्विने वाश्वयुजेषावथ कार्तिकः । कार्तिकिको बाहुलोर्जी द्वौ द्वौ मार्गादिकावृतुः ॥ १५५ हेमन्तः प्रशलो रौद्रोऽथ शैपशिशिरौ समौ । वसन्त इष्यः सुरभिः पुष्पकालो बलाङ्गकः ॥ उष्ण उष्णागमो ग्रीष्मो निदाघस्तप ऊष्मकः । वर्षास्तपात्ययः प्रावृण्मेघकालागमौ क्षरी ॥ शरद्धनात्ययोऽयनं शिशिराद्यैस्त्रिभिस्त्रिभिः । अयने द्वे गतिरुदग्दक्षिणार्कस्य वत्सरः ॥ स संपर्यनृद्भथो वर्षे हायनोऽब्दं समाः शरत् । भवेत्वैत्रं त्वहोरात्रं मासेनाब्देन दैवतम् ॥ दैवे युगसहस्रे द्वे ब्राह्मं कल्पौ तु तौ नृणाम् । मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ॥ कल्पो युगान्तः कल्पान्तः संहारः प्रलयः क्षयः । संवर्तः परिवर्तश्च समसुप्तिर्जिहानकः ॥ १६१ तत्कालस्तु तदात्वं स्यात्तज्जं सांदृष्टिकं फलम् । आयतिस्तूत्तरः काल उदर्कस्तद्भवं फलम् ॥ १६२ व्योमन्तरिक्षं गगनं घनाश्रयो विहाय आकाशमनन्तपुष्करे । अभ्रं सुराम्रोडुमरुत्पथोऽम्बरं खं द्योदियौ विष्णुपदं वियन्नभः ॥ नभ्राट्तडित्वान्मुदिरो घनाघनोऽभ्रं धूमयोनिस्तनयित्नुमेघाः । जीमूतपर्जन्यबलाहका घनो धाराधरो वाहदमुग्धरा जैलात् ॥ कादम्बिनी मेवमाला दुर्दिनं मेघजं तमः । आसारो वेगवान्वर्षो वातास्तं वारि शीकरः ॥ वृष्टयां वर्षणवर्षे तद्विने ग्राग्रहाववात् । घनोपलस्तु करकः काष्टाशा दिग्वरित्ककुप् ॥ पूर्वा प्राची दक्षिणपाची प्रतीची तु पश्चिमा। अपराधोत्तरोदीची विदिक्चोपदिशं प्रदिक् ॥ १६७ दिश्यं दिग्भववस्तुन्यपागपाचीनमुदगुदीचीनम् । प्राक्प्राचीनं च समे प्रत्यक्तु स्यात्प्रतीचीनम् ॥ १५७ १५८ १५९ १६० १६४ १६५ १६६ For Private and Personal Use Only १४६ १४७ १४८ १४९ १६३ १६८ १. निःसंपातोऽपि. २. संतमसम्, अवतमसम्, अन्धतमसम् ३. यौगिकत्वात् 'मार्गः '. ४. अदन्तः. ५. प्रोष्ठपदः, भाद्रपदः ६. 'वरिपा' इत्यपि ७ मेघशब्दस्य प्रत्येकमन्वयः ८. संवत्सरः परिवत्सरः, अनुववत्सरः, उद्वत्सरः. ९ अन्तरीक्षमित्यपि १०. 'पथ'शब्दः सुरादिभिः संबध्यते यौगिकत्वात् देववर्त्म, मेघवर्त्म, नक्षत्रवर्त्म, वायुवर्त्म, इत्यादय: ११. जलशब्दस्य वाहादिभिरन्वयः; यौगिकत्वात् वारिवाहः, वारिदः, वारिमुक् वारिधरः इत्यादय: १२. अवशब्दस्य ग्राहग्रहाभ्यामन्वयः १३. अवाचीत्यपि. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ देवकाण्डः। तिर्यग्दिशां तु पतय इन्द्राग्नियमनैर्ऋताः । वरुणो वायुकुवेरावीशानश्च यथाक्रमम् ॥ १६९ ऐरावतः पुण्डरीको वामनः कुमुदोऽञ्जनः । पुष्पदन्तः मार्वभौमः सुप्रतीकश्च दिग्गजाः ॥ १७० इन्द्रो हरिर्दु,यवनोऽच्युताग्रजो वज्री विडोजा मघवान्पुरंदरः । प्राचीनवर्हिः पुरुहूतवासवौ संक्रन्दनाखण्डलमेघवाहनाः ॥ सत्रामवास्तोष्पतिदल्मिशक्रा वृषा शुनासीरसहस्रनेत्रौ । पर्जन्यहर्यश्वऋभुक्षिवाहुदन्तेयवृद्धश्रवसस्तुरापाट् ॥ सुरर्षभस्तपस्तक्षो जिष्णुवरंशतक्रतुः । कौशिकः पूर्वदिग्देवाप्सरःस्वर्गशचीप॑तिः ॥ १७३ पृतनापाडुग्रधन्वा मरुत्वान्मघवास्य तु । द्विषः पाकोऽद्रयो वृत्रः पुलोमा नमुचिर्बलः ॥ १७४ जम्भः प्रिया शचीन्द्राणी पौलोमी जयवाहिनी । तनयस्तु जयन्तः स्याज्जयदत्तो जयश्च सः ॥ १७५ सुता जयन्ती तवीपी ताविष्युचैःश्रवा हयः । मातलि: सारथिर्देवनन्दी द्वाःस्थो गजः पुनः ॥ १७६ ऐरावणोऽभ्रमातङ्गश्चतुर्दन्तोऽर्कसोदरः । ऐरावतो हस्तिमल्लः श्वेतगजोऽभ्रमुप्रियः ॥ १७७ वैजयन्तौ तु प्रासादध्वजौ पुर्यमरावती । सगे नन्दीसरः पर्षत्सुधर्मा नन्दनं वनम् ॥ १७८ वृक्षः कल्पः पारिजातो मन्दारो हरिचन्दनः । संतानश्च धनुर्देवायुधं नहेजु गेहितम् ॥ १७९ दीर्घ_रावतं वज्रं त्वशनिदिनी खरुः । शतकोटिः पविः शम्बो दम्भोलिभिदुरं भिदुः ॥ १८० व्याधामः कुलिशोऽस्याचिरतिभीः स्फूर्जथुर्ध्वनिः । स्ववैद्यावश्विनीपुत्रावश्विनौ वडवासुतौ ॥ १८१ नासिक्यावर्कजौ दम्रो नासत्यावधिजौ यमौ । विश्वकर्मा पुनस्त्वष्टा विश्वकद्देववर्धकिः ॥ १८२ स्वःस्वर्गिवध्वोऽप्सरसः स्वर्वेश्या उर्वशीमुखाः । हाहादयस्तु गन्धर्वा गान्धर्वा देवगायनाः ।। १८३ यमः कृतान्तः पितृदक्षिणाशाप्रेतात्पतिर्दण्डधरोऽर्कसूनुः । कीनाशमृत्यू समवर्तिकालौ शीर्णाङ्ग्रिहर्यन्तकधर्मगजाः॥ १८४ यमराजः श्राद्धदेवः शमनो महिषध्वजः । कालिन्दीसोदरश्चापि धूमोर्णा तस्य वल्लभा ॥ १८५ पुरी पुनः संयमनी प्रतीहारस्तु वैध्यतः । दासौ चण्डमहाचण्डौ चित्रगुप्तश्च लेखकः ॥ १८६ स्याद्राक्षस: पुण्यजनो नृचक्षा यात्वाशरः कौणपयातुधानौ । रात्रिंचरो रात्रिचर: पलादः कीनाशरक्षो निकसात्मजाश्च ॥ १८७ कव्याकर्बुरनैर्ऋताक्मृक्पो वरुणस्त्वर्णवमन्दिरः प्रचेताः । जलयादःपतिपाशिमेघनादा जलकान्तारः स्यात्परंजनश्च ।। १८८ श्रीदः सितोदरकुहेशसखाः पिशाचकीछावसुत्रिशिर ऐलविलैकपिङ्गाः । पौलस्यवैश्रवणरत्नकराः कुवेरयक्षौ नृधर्मधनदौ नरवाहनश्च । कैलासौका यक्षधननिधिकिंपुरुपेश्वराः । विमानं पुष्पकं चैत्ररथं वनं पुरी प्रभा ॥ १९० १. सूत्रामा च. २. दन्त्यादिरपि. ३. वरशब्दोऽपि क्रतुना संबध्यते. ४. पतिशब्दः पूर्वदिगादिभिः संबध्यते; यौगिकत्वात् प्राचीशः, सुरस्त्रीश:, नाकेशः, पौलोमीशः, इत्यादयः. ५. केचित्तु 'ऋजुरोहितम्' इति समस्तमिच्छन्ति. ६. उदन्तः. ७. यौगिकत्वात् शतारः, शतधारश्च. ८. वधूशब्दस्य स्वरादिनान्वयः; यौगिकत्वात् स्वगन्त्रियः, सुरस्त्रियः. ९. पतिशब्दस्य पित्रादिनान्वयः. १०. पतिशब्दस्य जलेनाप्यन्वयः; यौगिकत्वात् अपांनाथः, यादोनाथः, इत्यादयः. ११. यौगिकत्वात् पाशपाणिः, इत्यादयः. १२. पिशाचकी इन्नन्तः. १३. ईश्वरशब्दस्य यक्षादिनान्वयः; यौगिकत्वात् गुह्यकेशः, वित्तेशः, निधानेशः, किंनरेश:. १८९ For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । अलका वस्वोकसारा सुतोऽस्य नलकूवरः । वित्तं रिक्थं स्वापतेयं राः सारं विभवो वसु ॥ १९१ द्युम्नं द्रव्यं पृक्थमृक्थं स्वमृणं द्रविणं धनम् । हिरण्यार्थी निधानं तु कुनाभिः शेवधिनिधिः।। १९२ महापद्मश्च पद्मश्च शङ्खो मकरकच्छपौ । मुकुन्दकुन्दनीलाश्च खर्वश्च निधयो नव ॥ १९३ यक्षः पुण्यजनो गजा गुह्यको वटवास्यपि । किंनरस्तु किंपुरुषस्तुरंगवदनो मयुः ।। १९४ शंभुः शर्वः स्थाणुरीशान ईशो रुद्रोड्डीशौ वामदेवो वृषाङ्कः । कण्ठेकालः शंकरो नीलकण्ठः श्रीकण्टोग्रौ धूर्जटिीमभनें ॥ मृत्युंजयः पञ्चमुखोऽष्टमूर्तिः श्मशानवेश्मा गिरिशो गिरीशः । पण्डः कपर्दीश्वर ऊर्ध्वलिङ्ग एकत्रिदृग्भालहगेकपादः ॥ मृडोऽट्टहासी धनवाहनोऽहिर्बुध्नो विरूपाक्षविषान्तकौ च । महाव्रती वैविहिरण्यरेताः शिवोऽस्थिधन्वा पुरुषास्थिमाली ॥ १९७ स्याद्व्योमकेश: शिपिविष्टभैरवौ दिकृत्तिवासा भवनीललोहितौ । सर्वज्ञनाट्यप्रियखण्टपर्शवो महापरा देवनटेश्वरा हरः॥ पशुप्रमथभूतोमाप॑तिः पिङ्गजटेक्षणः । पिनाकशूलखट्वाङ्गगङ्गाहीन्दुकपालभृत् ॥ गजपूषपुरानङ्गकालान्धकमासुहृत् । कपर्दोऽस्य जटाजूट: खटाङ्गस्तु सुखंसुणः ॥ पिनाकं स्यादाजगवमजकावं च तद्धनुः । ब्राहृयाद्या मातरः सप्त प्रमथाः पापंदा गणाः ॥ २०१ लघिमा वशितेशित्वं प्राकाम्यं महिमाणिमा । यत्र कामावसायित्वं प्राप्तिरैश्वर्यमष्टधा ॥ गौरी काली पार्वती मातृमातापर्णा रुद्रायम्बिका त्र्यम्बकोमा । दुर्गा चण्डी सिंहयाना मृडानीकात्यायन्यौ दक्षजार्या कुमारी ॥ २०३ सती शिवा महादेवी शर्वाणी सर्वमङ्गला । भवानी कृष्णमैनाकस्सा मेनाद्रिजेश्वरा ॥ २०४ निशुम्भशुम्भमहिषमर्दिनी भूतनायिका । तस्याः सिंहो मनस्तानः सख्यौ तु विजया जया ॥ २०५ चामुण्डा चर्चिका चर्ममुण्डा मार्जारकर्णिका । कर्णमोटी महागन्धा भैरवी च कपालिनी ॥ २०६ हेरम्बो गणविनेश: पशुपाणिविनायकः । द्वैमातुरो गजास्यैकदन्तौ लम्बोदरोंखुगौ ॥ २०७ स्कन्दः स्वामी महासेनः सेनानीः शिखिवाहनः । पाण्मातुरो ब्रह्मचारी गङ्गोमाकृत्तिकासुतः ॥ २०८ १. 'दृक्'शब्दः एकशब्देनाप्यन्वेति; यौगिकत्वात् एकनेत्रः, विषमनेत्रः. २. यौगिकत्वात् अब्दवाहनोऽपि. ३. द्वाभ्यां प्रथमैकवचनान्ताभ्यामेकं नाम; विभक्त्यन्तरेऽपि यथा-'अये बुध्नाय नमोऽस्तु गणपतये'. ४. वहिहिरण्यशब्दाभ्यां परोटरेतःशब्दः. ५. 'वासस्'शब्दो दिकृत्तिशब्दाभ्यां परः; यौगिकत्वात् दिग्वस्त्रः, चर्मवसनः, इ. त्यादयः. ६. तेन महादेवः, महानटः, महेश्वरः. ७. पतिशब्दस्य पश्वादिभिरन्वयः; यौगिकत्वात् पशुनाथः, भूतनाथः, गणनाथः, गौरीनाथः, इत्यादयः. ८. पिङ्गशब्दस्येक्षणेनाप्यन्वयः. ९. 'भृत्'पदस्य पिनाकादिभिरन्वयः; यौगिकत्वात् पिनाकपाणिः, शूली, खटाङ्गधरः, गङ्गाधरः, उरगभूषणः, शशिभूषणः, कपाली, इत्यादयः. १०. असुहृत् (द्विप)पदं गजादिभिरन्वेति; यौगिकत्वात् गजासुरद्वेषी, पूषदन्तहरः, त्रिपुरान्तकः, कामध्वंसी, यमजित्, अन्धकारिः, दक्षाध्वरध्वंसकः, इत्यादयः. ११. यौगिकत्वात् सिंहवाहना च. १२. यौगिकत्वात् दाक्षायणी. १३. शिवी. १४. 'स्वसृ'पदं कृष्णेनाप्यन्वेति. १५. 'जा'पदं मेनापदेनाप्यन्वेयम्. १६. मर्दिनीपदं निशुम्भादिनान्वेयम्. १७ ई. शपदं गणेनाप्यन्वेति; यौगिकत्वात् प्रमथाधिपः, विघ्नराजः, इत्यादयः. १८. यौगिकत्वात् परशुधरः, इत्यादयः. १९. यौगिकत्वात् मूषिरथोऽपि. २०. सुतपदं गङ्गादिनान्वेति; यौगिकत्वात् गाङ्गेयः, पार्वतीनन्दनः, कार्तिकेयः, याहुलेयः, इत्यादयः. For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ २ देवकाण्डः । द्वादशाक्षो महातेजाः कुमारः पण्मुखो गुहः । विशाखः शक्तिमुत्क्रौञ्चतारकोरिः शराग्निर्भूः ॥ २०९ भृङ्गी भृङ्गिरिदिभृङ्गिरीटिर्नाड्यस्थिविग्रहः । कुष्माण्डके केलिकिलो नन्दीशे तण्डुनन्दनौ || २१० द्रुहिणो विरिञ्चिर्दुघणो विरिञ्चः परमेष्टयजोऽष्टश्रवणः स्वयंभूः । कमनः कविः सात्त्विकवेदगर्भो स्थविरः शतानन्द पितामहौ कः || धाता विधाता विधौ ध्रुवः पुराणगो हंसगविश्वरेतसौ | प्रजापतिर्ब्रह्मचतुर्मुखौ भवान्तकृज्जगत्कैर्तृसरोरुहासनौ || शंभुः शतधृतिः स्रष्टा सुरज्येष्ठो विरिञ्चनः । हिरण्यगर्भो लोकेशो नाभिपद्मात्मभूरपि ॥ विष्णुजिष्णुजनार्दनौ हरिहृषीकेशाच्युताः केशवो दाशाहः पुरुषोत्तमोऽब्धिशयनोपेन्द्रवजेन्द्रानुजौ । fararaarरायणौ जलशयो नारायणः श्रीपति २११ For Private and Personal Use Only २१२ २१३ दैत्यारिच पुराणयज्ञपुरुषस्तार्क्ष्यध्वजोऽधोक्षजः || गोविन्दपङ्घ्रिन्दुमुकुन्दकृष्णा वैकुण्ठपद्मशयपद्मनाभाः । वृषाकपिर्माधववासुदेव विश्वंभरः श्रीधरविश्वरूपौ ॥ दामोदरः शौरिसनातनौ विधुः पीताम्बरो मार्जजिनौ कुमोदकः । त्रिविक्रमो जह्रुचतुर्भुजौ पुनर्वसुः शतावर्तगदाग्रजौ स्वभूः ॥ मुञ्जकेशिवनमालिपुण्डरीकाक्षव शशविन्दुवेधसः | प्रनिशृङ्गर्धरणीधरात्मभूः पाण्डवायनसुवर्णविन्दवः ॥ २१७ २१८ २१९ २२० २२१ श्रीवत्सो देवकीसूनुर्गोपेन्द्र विष्टरश्रवाः । सोमसिन्धुर्जगन्नाथो गोवर्धनधरोऽपि च ॥ यदुनाथो गदाशार्ङ्गचक्रश्रीवत्सशङ्खभूत् । मधुधेनुकचाणूरपूतनायमलार्जुनाः ॥ कालनेमिहयग्रीवशकटारिष्टकैटभाः । कंसः केशिमुरौ साल्वमैन्दद्विविदराहवः || हिरण्यकशिपुर्वाणः कालियो नरको वलिः । शिशुपालञ्चास्य वैध्या वैनतेयस्तु वाहनम् ॥ शङ्खोऽस्य पाञ्चजन्योऽङ्कः श्रीवत्सोऽसिस्तु नन्दकः । गदा कौमोदकी चापं शार्ङ्ग चक्रं सुदर्शनः ॥ २२२ मणिः स्यमन्तको हस्ते भुजमध्ये तु कौस्तुभः । वसुदेवो भूकश्यपो दुन्दुरानकदुन्दुभिः || २२३ रामो ही मुसलिसात्त्वतकामपालाः संकर्षणः प्रियमधुर्बलरौहिणेयौ । रुक्मिप्रलम्बयमुनाभि॑िर्दैनन्तताललक्ष्मैककुण्डलसितासितरेवतीशाः || २१४ २१५ २५६ २२४ १. अरिपदं क्रौञ्चनाप्यन्वेति ; यौगिकत्वात् क्रौञ्चदारणः, तारकान्तकः, इत्यादयः २. भूपदं शरेणाप्यन्वेति; यौगिकत्वात् शरजन्मा, अग्निजन्मा, इत्यादयः २. यौगिकत्वात् विश्वसृद्, इत्यादयः ४. भूपदं नाभिनाप्यन्वेति; यौगिकत्वात् नाभिजन्मा, कमलयोनिः, आत्मयोनिः इत्यादयः. ५. यौगिकत्वात् वासवावरजः, इत्यादयः. ६. जलेशयोऽपि. ७. यौगिकत्वात् लक्ष्मीनाथः इत्यादय: ८. पुरुषपदं पुराणेनाप्यन्वेति ९ यौगिकत्वात् गरुडाङ्कः, इत्यादयः. १०. यौगिकत्वात् महीधरादयः ११. 'भृत् पदं गदादिभिरन्वेति यौगिकत्वात् गदाधरः, शार्ङ्ग, चक्रपाणिः, श्रीवत्साङ्कः, शङ्खपाणिः, इत्यादयः १२. मध्वादयो विष्णोर्वध्याः तेन मधुमथनः, धेनुकध्वंसी, चाणूरसूदनः, पूतनादूषणः, यमलार्जुनभञ्जनः कालनेमिहरः, हयग्रीवरिपुः शकटारिः, अरिष्टहा, कैटभारिः, कंसजित् केशिहा, मुरारिः, साल्वारिः, मेन्दमर्दनः, द्विविदारिः, राहुमूर्धहरः, हिरण्यकशिपुदारणः, बाणजित्, कालियदमनः, नरकारिः, बलिबन्धनः, शिशुपालनिषूदनः, इत्यादयः. १३. भित्पदं रुक्मिप्रभृतिनान्वेति यौगिकत्वात् रुक्मिवारणः, कालिन्दीकर्षणः, इत्यादयः. प्रलम्बनः, Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ अभिधान संग्रह:ह: --- ६ अभिधानचिन्तामणिः । २२५ बलदेवो वलभद्रो नीलवस्त्रो ऽच्युताग्रजः । मुसलं त्वस्य सौनन्दं हलं संवर्तकाद्दयम् ॥ लक्ष्मीः पद्मारमा यी मा ता सा श्रीः कमलेन्दिरा । हरिप्रिया पद्मवासा क्षीरोदतनयापि च ॥ २२६ मदनो जराभीरुरनङ्गमन्मथौ कमनः कलाकेलिरनन्यजोऽङ्गजः । मधुदीपमा मधुसारथिः स्मरो विषमायुधो दर्पककाम हेच्छयाः ॥ प्रद्युम्नः श्रीनन्दनच कंदर्पः पुष्पकेतनः । पुष्पाण्यस्येषुचापाखाण्यरी शंकरशूर्पकौ ॥ केतनं मीनमकरो बाणाः पञ्च रतिः प्रिंया । मनः शृङ्गारसंकल्पात्मानो योनिः सुहृन्मधुः || सुतोऽनिरुद्धो झपाङ्ग 'उषेशो ब्रह्मसूश्च सः । गरुडः शाल्मल्यरुणावरजो विष्णुवाहनः || सौपर्णेयो वैनतेयः सुपर्णसर्पारातिर्वज्रजिद्रतुण्डः । पक्षिखामी काश्यपिः स्वर्णकायस्ताक्ष्यैः कामायुर्गरुत्मान्सुधाहृत् ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२७ २२८ For Private and Personal Use Only २२९ २३० २३१ २३२ २३३ २३४ २३५ २३७ २३८ बुद्धस्तु सुतो धर्मधातुविकालविज्जिनः । बोधिसत्त्वो महाबोधिरार्यः शास्ता तथागतः ॥ पञ्चज्ञानो पडभिज्ञो दशार्हो दशभूमिग: । चतुस्त्रिंशज्जातकज्ञो दशपारमिताधरः ॥ द्वादशाक्षो दशवलस्विकारः श्रीघनाद्वयौ । समन्तभद्रः संगुप्तो दयाकूर्ची विनायकः ॥ मारलोक खर्जिर्मराजो विज्ञानमातृकः । महामैत्रो मुनीन्द्रश्च बुद्धाः स्युः सप्त ते लमी ॥ विपश्यी शिखी विश्वभूः क्रकुच्छन्दश्च काञ्चनः । काश्यपश्च सप्तमस्तु शाक्यसिंहोऽर्कबान्धवः ॥२३६ तथा राहुलसूः सर्वार्थसिद्ध गौतमान्वयः । मायाशुद्धोदन सुतो देवदत्ताजच सः || अलुरा दितिदनुर्जीः पातालौकः सुरारयः । पूर्वदेवाः शुक्रशिष्या विद्यादेव्यस्तु षोडश ॥ रोहिणी प्रज्ञप्ती वज्रशृङ्खला कुलिशाङ्कुशा । चक्रेश्वरी नरदत्ता काल्यथासौ महापरा ॥ २३९ गौरी गान्धारी सर्वाखमहाज्वाला च मानवी । वैरोळ्यात मानसी महामानसिकेति ताः || २४० arrar भारती गौर्गीर्वाणी भाषा सरखती । श्रुतदेवी वचनं तु व्याहारो भाषितं वचः ।। २४१ सविशेषणमाख्यातं वाक्यं स्याद्यन्तकं पदम् । राद्धसिद्धकुतेभ्योऽन्ते आप्तोक्तिः समयागमौ || २४२ आचाराङ्गं सूत्रकृतं स्थानाङ्गं समवाययुक् । पञ्चमं भगवत्यङ्गं ज्ञातधर्मकथापि च ॥ २४३ उपासकान्तकृदनुत्तरोपपातिकाद्देशाः । प्रश्नव्याकरणं चैव विपाकश्रुतमेव च ॥ इत्येकादश सोपाङ्गान्यङ्गानि द्वादश पुनः । दृष्टिवादो द्वादशाङ्गी स्याद्गणिपिटकाहुया || परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोग पूर्वगत चूलिकाः पथ । पुष्टिवादभेदाः पूर्वाणि चतुर्दशापि पूर्वगते || उत्पाद पूर्वमग्रायणीयमथ वीर्यतः प्रवादं स्यात् । अस्तेर्ज्ञानात्सत्यात्तदात्मनः कर्मणश्च परम् ॥ २४४ २४५ २४६ २४७ १. ई, आ, इति नामद्वयम्; 'या' इलखण्डं च २. यौगिकत्वात् मनसिशयः ३. पुष्पेषुः कुसुमबाणः, पुष्पचापः, कुसुमधन्वा, पुप्पास्त्रः, कुसुमायुधः, इति फलितम्. ४. तेन शंकरारिः, शूर्पकारि: ५ तेन मीनकेतनः, मकरध्वजः, झषध्वजः, मकरकेतनः. ६. तेन पञ्चवाणः, विषमेषुः ७. तेन रतिवरः, रतिपतिः . ८. तेन मनोयोनिः, चेतोभवः, शृङ्गारयोनिः शृङ्गारजन्मा, संकल्पयोनिः, स्मृतिभूः, आत्मयोनिः, आत्मभूः . ९. तेन मधुमुहृत्, चैत्रसखः १०. यौगिकत्वात् उपारमणः. ११. गरुल:. १२. जित्पदं मारप्रभृतिनान्वेति . १३ . सुतपदं माययाप्यन्वेति; यौगिकत्वात् शौद्धोदनिः १४. जपदं दितिपदेनाप्यन्वेति ; यौगिकत्वात् दैतेयाः, दानवाः, इत्यादयः. १५. अन्तशब्दः प्रत्येकं राद्धादिभ्यः परो योज्यः. १६. तथा च उपासकृद्दशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २ देवकाण्ड: । प्रत्याख्यानं विद्याप्रवादकल्याणनामधेये च | प्राणावायं च क्रियाविशालमन लोकबिन्दुसारमिति ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५ For Private and Personal Use Only २४८ २४९ २५० २५१ २५२ १५३ २५४ २५५ २५७ २५८ २५९ स्वाध्यायः श्रुतिराम्नायञ्छन्दो वेदत्रयी पुनः । ऋग्यजुः सामवेदाः स्युरथर्वा तु तदुद्धृतिः ॥ वेदान्तः स्यादुपनिषदोङ्कारप्रणवौ समौ । शिक्षा कल्पो व्याकरणं छन्दो ज्योतिर्निरुक्तयः ॥ षडङ्गानि धर्मशास्त्रं स्यात्स्मृतिर्धर्मसंहिता । आन्वीक्षिकी तर्कविद्या मीमांसा तु विचारणा ।। सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च । वंशानुवंशचरितं पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ षडङ्गा वेदाश्चत्वारो मीमांसान्वीक्षिकी तथा । धर्मशास्त्रं पुराणं च विद्या एताञ्चतुर्दश || सूत्रं सूचनद्भाष्यं सूत्रोक्तार्थप्रपञ्चकम् । प्रस्तावस्तु प्रकरणं निरुक्तं पदभञ्जनम् ॥ अवान्तरप्रकरणविश्रामे शीघ्रपाटतः । आह्निकमधिकरणं वेकन्यायोपपादनम् || उक्तानुक्तदुरुक्तार्थचिन्ताकारि तु वार्तिकम् । टीका निरन्तरव्याख्या पञ्जिका पदभञ्जिका || २५६ निबन्धवृत्ती अन्वर्थे संग्रहस्तु समाहृतिः । परिशिष्टपद्धयादीन्पधानेन समुन्नयेत् ॥ कारिका तु स्वल्पवृत्तौ बहोरर्थस्य सूचनी । कैलिन्दिका सर्वविद्या निघण्टुर्नामसंग्रहः ॥ इतिहासः पुरावृत्तं प्रबह्निका प्रहेलिका | जनश्रुतिः किंवदन्ती वार्तेतिह्यं पुरातनी || वार्ता प्रवृत्तिर्वृत्तान्त उदन्तोऽधायोऽभिधा । गोत्रसंज्ञानामधेयाख्याद्दाभिख्याश्च नाम च || २६० संबोधनमामन्त्रणमाद्दानं वभिमन्त्रणम् । आकारणं हवो हूतिः संहूतिर्बहुभिः कृता ॥ २६१ उदाहार उपोद्घात उपन्यासश्च वाङ्मुखम् । व्यवहारो विवादः स्याच्छपथः शपनं शपः || २६२ उत्तरं तु प्रतिवचः प्रश्नः पृच्छानुयोजनम् । कथंकथिकता चाथ देवप्रश्न उपश्रुतिः ॥ चटु चाटु प्रियप्रायं प्रियसत्यं तु सूनृतम् । सत्यं सम्यक्समीचीनमृतं तथ्यं यथातथम् ॥ यथास्थितं च सद्भूतेऽलीके तु वितथानृते । अथ क्लिष्टं संकुलं च परस्परपराहतम् ॥ सान्त्वं सुमधुरं ग्राम्यमशीलं म्लिष्टमस्फुटम् । लुप्तवर्णपदं ग्रस्तमवाच्यं स्यादनक्षरम् || अम्बूकृतं सत्कारं निरस्तं त्वरयोदितम् । आम्रेडितं द्वित्रिरुक्तमबद्धं तु निरर्थकम् ॥ पृष्टमांसादनं तद्यत्परोक्षे दोषकीर्तनम् । मिथ्याभियोगोऽभ्याख्यानं संगतं हृदयंगमम् || परुषं निष्ठुरं रूक्षं विक्रुष्टमथ घोषणा | उच्चैर्युष्टं वर्णनेडा स्तवः स्तोत्रं स्तुतिर्बुतिः ॥ i श्लाघा प्रशंसार्थवादः सा तु मिथ्या विकत्थनम् । जनप्रवादः कौलीनं विगानं वचनीयता || २७० स्यादवर्ण उपक्रोशो वादो निःपर्यपात्परः । गर्हणा धिक्रिया निन्दा कुत्साक्षेपो जुगुप्सनम् ॥ २७१ आक्रोशाभीपङ्गाक्षेपाः शापः स क्षारणा रते । विरुद्धशंसनं गालिराशीर्मङ्गलशंसनम् ॥ श्लोकः कीर्तिर्यशोऽभिख्या समाज्ञा रुशती पुनः । अशुभा वाक्शुभा कल्या चर्चरी चर्भटी समे२७३ यः सनिन्द उपालम्भस्तत्र स्यात्परिभाषणम् | आपृच्छालापः संभाषोऽनुलापः स्यान्मुहुर्वचः २७४ अनर्थकं तु प्रलापो विलापः परिदेवनम् । उल्लापः काकुवागन्योन्योक्तिः संलापसंकथे ॥ २७५ विप्रलापो विरुद्धोक्तिरपलापस्तु निह्नवः । सुप्रलापः सुवचनं संदेशवाक्तु वाचिकम् || २७६ आज्ञा शिष्टिर्निराङ्किभ्यो देशो नियोगशासने । अववादोऽप्यथाहूय प्रेषणं प्रतिशासनम् ॥ २७७ २६३ २६४ २६५ २६६ २६७ २६८ २६९ २७२ १. कडिन्दिका च. २. यौगिकत्वात् असत्यम्, सत्येतरत्, इत्यादि. २. तेन निर्वादः, परिवादः, अपवादः. ४. गहपि. ५. जुगुप्सापि ६. समाख्या ७ रिशती. ८. कात्या च. ९. तेन निर्देश:, आदेशः, निदेश:. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । संवित्संधास्थाभ्युपायः संप्रत्याभ्यः परः श्रवः । अङ्गीकारोऽभ्युपगमः प्रतिज्ञागूश्च संगरः ॥२७८ गीतनृत्तवाद्यत्रयं नाट्यं तौर्यत्रिकं च तत् । संगीत प्रेक्षणार्थेऽस्मिशास्त्रोक्ते नाट्यधर्मिका ॥२७९ गीतं गानं गेयं गीतिर्गान्धर्वमथ नर्तनम् । नटनं नृत्यं नृत्तं च लास्यं नाट्यं च ताण्डवम् ॥ २८० मण्डलेन तु यन्नृत्यं स्त्रीणां हल्लीसकं तु तत् । पानगोष्ठयामुञ्चतालं रणे वीरजयन्तिका ॥ २८१ स्थानं नाट्यस्य रङ्गः स्यात्पूर्वरङ्ग उपक्रमः । अङ्गहारोऽङ्गविक्षेपो व्यञ्जकोऽभिनयः समौ ॥ २८२ स चतुर्विध आहार्यो रचितो भूषणादिना । वचसा वाचिकोऽङ्गेनाङ्गिकः सत्वेन सात्त्विकः ॥२८३ स्यान्नाटकं प्रकरणं भाणः प्रहसनं डिमः । व्यायोगः समवाकारो विथ्य हामृगा इति ॥ २८४ अभिनेयप्रकाराः स्युर्भापाः पटसंस्कृतादिकाः । भारती सात्वती कैशिक्यारभट्यौ च वृत्तयः॥२८५ वाद्यं वादित्रमातोद्यं तूर्य तुरं स्मरध्वजः । ततं वीणाप्रभृतिकं तालप्रभृतिकं घनम् ॥ २८६ वंशादिकं तु शुषिरमानद्धं मुरजादिकम् । वीणा पुनर्घोपवती विपश्ची कण्टकूणिका ॥ २८७ वल्लकी साथ तत्रीभिः सप्तभिः पग्विादिनी । शिवस्य वीणा नालम्बी सरस्वत्यास्तु कच्छपी ॥२८८ नारदस्य तु महती गणानां तु प्रभावती । विश्वावसोस्तु बृहती तुम्बरोस्तु कलावती ॥ २८९ चाण्डालानां तु कण्डोलवीणा चाण्डालिका च सा । कायः कोलम्बकस्तस्या उपनाहो निबन्धनम् ॥ दण्डः पुनः प्रवालः स्यात्ककुभस्तु प्रसेवकः । मूले वंशशलाका स्यात्कलिका कूणिकापि च ॥ २९१ कालस्य क्रियया मानं तालः साम्यं पुनर्लयः । द्रुतं विलम्बितं मध्यमोघस्तत्त्वं धनं क्रमात ॥ २९२ मृदङ्गो मुरजः सोमयालिङ्गयूर्ध्वक इति त्रिधा । स्याद्यशःपटहो ढक्का भेरी दुन्दुभिरानकः ॥ २९३ पटहोऽथ शारिका स्यात्कोणो वीणादिवादनम् । शृङ्गारहास्यकरुणारौद्रवीरभयानकाः ॥ २९४ बीभत्साद्भुत शान्ताश्च रसा भावाः पुनम्विधा । स्थायिसात्त्विकसंचारिप्रभेदैः स्यादतिः पुनः ॥२९५ रागोऽनुगगोऽनुरतिहाँसस्तु हसनं हसः । घर्घरो हासिका हास्यं तत्रादृष्टरदे स्मितम् ॥ २९६ वक्रोष्टिकाथ हसितं किंचिदृष्टरदाङ्कुरे । किंचिच्छूते विहसितमट्टहासो महीयसि ॥ २९७ अतिहासस्त्वनुस्यूतेऽपहासोऽकारणात्कृते । सोत्पासे लाछुरितकं हसनं स्फुरदोष्टके ॥ २९८ शोकः शुक्शोचनं खेदः क्रोधो मन्युः क्रुधा रुषा । क्रुत्कोपः प्रतिघो गेषो रुट चोत्साहः प्रगल्भता ।। अभियोगोद्यमौ प्रौढिरुद्योगः कियदेतिका । अध्यवसाय ऊर्जाऽथ वीर्य सोऽतिशयान्वितः ।। ३०० भयं भी तिगत आशङ्का साध्वसं दरः । भिया च तचाहिभयं भूपतीनां स्वपक्षजम् ॥ ३०१ अदृष्टं वह्नितोयादेईष्टं स्वपरचक्रजम् । भयंकरं प्रतिभयं भीमं भीष्मं भयानकम् ॥ ३०२ भीषणं भैरवं घोरं दारुणं च भयावहम् । जुगुप्सा तु वृणाथ स्याद्विस्मयश्चित्रमद्भुतम् ।। ३०३ चोद्याश्चर्ये शमः शान्तिः शमथोपशमावपि । तृष्णाक्षयः स्थायिनोऽमी रसानां कारणं क्रमात्॥३०४ स्तम्भो जाड्यं वेदो धर्मनिदाघौ पुलकः पुनः । रोमाञ्चः कण्टको रोमविकारो रोमहर्षणम् ॥३०५ गेमोद्गम उद्धषणमुल्लकसनमित्यपि । स्वरभेदस्तु कलत्वं स्वरे कम्पस्तु वेपथुः ॥ ३०६ वैवर्ण्य कालिकाथाश्रु बाष्पो नेत्राम्बु रोदनम् । असमस्तु प्रलयस्त्वचेष्टतेत्यष्ट सात्त्विकाः ॥ ३०७ धृतिः संतोषः स्वास्थ्यं स्यादाध्यानं स्मरणं स्मृतिः । मतिर्मनीषा बुद्धि(धिषणाज्ञप्तिचेतनाः ॥ ३०८ प्रतिभापतिपत्प्रज्ञाप्रेक्षाचिदुपलब्धयः । संवित्तिः शेमुषी दृष्टिः सा मेधा धारणक्षमा ॥ ३०९ पण्डा तत्त्वानुगा मोक्षे ज्ञानं विज्ञानमन्यतः । शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा ॥ ३१० १. तेन संश्रवः, प्रतिश्रवः, आश्रवः. For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मत्येकाण्डः | ३१४ ३१५ ३१६ ३१८ I * ऊहापोहविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च श्रीगुणाः । व्रीडा लज्जा मन्दाक्षं हीस्रपा सापत्रपान्यतः || ३११ जाड्यं मौख्यै विषादोऽवसादः सादो विषण्णता । मदो मुन्मोहसंभेदो व्याधिस्त्वाधी रुजाकरः ३१२ निद्रा प्रमीला शयनं संवेशस्वाप संलयाः । नन्दीमुखी श्वासहेतिस्तन्द्रा सुप्तं तु साधिका ॥ ३१३ aagri turantaण्टे आयल्लकारती । हल्लेखोत्कलिके चाथावहित्थाकार गोपनम् ॥ शङ्कानिष्टोत्प्रेक्षणं स्याच्चापलं वनवस्थिति: । आलस्यं तन्द्रा कौसीयं हर्षश्चित्तप्रसन्नता || ह्लादः प्रमोदः प्रमदो मुत्प्रीत्यामोदसंमदाः | आनन्दानन्दथू गर्वस्त्वहंकारोऽविलप्तता || दर्षोऽभिमानो ममता मानचित्तोन्नतिः स्मयः । सा मिथोऽहमहमिका या तु संभावनात्मनि || ३१७ दर्पात्साहोपुरुषका स्यादहं पूर्विका पुनः । अहं पूर्वमहं पूर्वमित्युग्रत्वं तु चण्डता ॥ प्रबोधस्तु विनिद्रत्वं ग्लानिस्तु बलदीनता । दैन्यं कार्पण्यं श्रमस्तु कमः क्लेशः परिश्रमः ॥ 1 ३१९ प्रयासायास व्यायामा उन्मादचित्तविप्लवः । मोहो मौठ्यं चिन्ता ध्यानममर्षः क्रोधसंभवः ॥ ३२० गुण जिगीपोत्सवांत्रासस्त्वाकस्मिकं भयम् । अपस्मारः स्यादावेशो निर्वेदः स्वावमाननम् || ३२१ आवेगस्तु त्वरिस्तूणिः संवेगः संभ्रमस्वरा । वितर्कः स्यादुन्नयनं परामर्शो विमर्शनम् ॥ अध्याहारस्तर्क ऊँहोऽसृगान्यगुणदूषणम् | मृतिः संस्था मृत्युकालौ परलोकगमोऽत्ययः ॥ ३२३ पञ्चत्वं निधनं नाशो दीर्घनिद्रा निमीलनम् । दिष्टान्तोऽस्तं कालधर्मोऽवसानं सा तु सर्वगा || ३२४ मरको मारियस्त्रिंशदमी स्युर्व्यभिचारिणः । स्युः कारणानि कार्याणि सहचारीणि यानि च || ३२५ रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाव्यकाव्ययोः । विभावा अनुभावाच व्यभिचारिण एव च ॥ ३२६ व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो भवेद्रसः । पात्राणि नाट्येऽधिकृतास्तत्तद्वेषस्तु भूमिका ॥ ३२७ शैलूषो भरतः सर्वकेशी भरतपुत्रकः । धात्रीपुत्रो रङ्गाजायाजीवी रङ्गावतारकः ॥ ३२८ नटः कृशाश्री शैलाली चारणस्तु कुशीलवः । भ्रभ्रूभूपरः कुँसो नटः स्त्रीवेषधारकः ॥ ३२९. वेश्याचार्यः पीठमर्दः सूत्रधारस्तु सूचकः । नन्दी तु पाटको नान्याः पार्श्वस्थः पारिपार्श्विकः ।।३३० वासन्तिकः केलिकिलो वैहासिको विदूषकः । प्रहासी प्रीतिदाय पिङ्गः पल्लवको विटः || २३१ पिता वावुक आयुक्त भावुक भगिनीपतौ । भावो विद्वान्युवराजः कुमारो भर्तृदारकः ॥ ३३२ बाला वासूमर्पि आर्या देवी भट्टारको नृपः । राष्ट्रीयो नृपतेः श्यालो दुहिता भर्तृदारिका ।। ३३३ देवी कृताभिषेकान्या भट्टिनी गणिकाज्जुका । नीचाचेटीसखीहूतौ हण्डेह जेहलाः क्रमान अब्रह्मण्यमवध्योक्तौ ज्यायसी तु स्वसात्तिका । भर्तार्यपुत्री माताम्बा भदन्ताः सौगतादयः ॥ २३५ पूज्ये तत्रभवानत्रभवांश्च भगवानपि । पादा भट्टारको देवः प्रयोज्याः पूज्यनामतः ॥ ३३४ २३६ इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितायामभिधानचिन्तामणी नाममालायां देवकाण्डो द्वितीयः ॥ २ ॥ १७ मर्त्यः पञ्चजनो भूम्पृक्पुरुषः पुरुषो नरः । मनुष्यो मानुषो ना विट मनुजो मानवः पुमान || २३८ बालः पाकः शिशुडिम्भः पोतः शात्रः स्तनंधयः । पृथुकाभत्तानशयाः क्षीरकण्ठः कुमारकः ॥ ३२८ शिशुवं शैशवं बाल्यं वयस्थस्तरुणां युवा । तारुण्यं यौवनं वृद्धः प्रवयाः स्थवि जरन ॥ ३३९ जरी जीर्णो यातयामो जीनोऽथ विस्रमा जरा । वार्धकं स्थाविरं ज्यायान्वर्षीयान्दशमीत्यपि ।। ३४० For Private and Personal Use Only १. तन्द्री इत्यपि २. उत्कण्ठोऽपि ३. ऊहापि ४. रङ्गाजीव:, जायाजीव: ५. 'कुस शब्दः प्रत्येक दि नान्वेति ६. मारियोऽपि ७. यौगिकत्वात् स्तनपोऽपि ८ यौगिकत्वात् क्षीरपोऽपि ९. यौवनिकापि. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८ अभिधान संग्रहः ६ अभिधानचिन्तामणिः । ३४९ ३४३ ३४४ ३४६ ६४७ ३४८ ३४९ ३५० ३५४ विद्वान्सुधीः केविविचक्षणलब्धवर्णा ज्ञः प्राप्तरूपकृतिकृष्टभिरूपधीराः | मेधाविकोविदविशारद सूरिदोषज्ञाः प्राज्ञपण्डितमेनीषिबुधप्रबुद्धाः || व्यक्तो विपश्चित्संख्यावान्सन्प्रवीणे तु शिक्षितः । निष्णातो निपुणो दक्षः कर्महस्तमुखाः कृतान् ॥ कुशलश्चतुरोऽभिज्ञविज्ञवैज्ञानिकाः पटुः । छेको विदग्धे प्रौढस्तु प्रगल्भः प्रतिभामुखः || कुशाग्रीयमतिः सूक्ष्मदर्शी तत्कालधीः पुनः । प्रत्युत्पन्नमतिर्दूराद्यः पश्येदीर्घदर्श्यसौ ॥ हृदयालुः सहृदयश्चिद्रूपोऽप्यथ संस्कृते । व्युत्पन्नप्रहृतक्षुण्णा अन्तर्वाणिस्तु शास्त्रवित् ॥ ariiii arrantaranी वाचोयुक्तिपटुः प्रवाक् । समुखी वावदूकोऽथ वदो वक्ता वदावदः ३४६. स्याज्जल्पाकस्तु वाचालो वाचाटो बहुगवाक् । योऽनुत्तरे दुर्वाकदे स्यादधाधरः ॥ हीनवादिन्येडमूकानेडमूकौ त्ववाक्श्रुतौ । रवणः शब्दनस्तुल्यो कुवाकुचरौ समौ ॥ लोहोsस्फुटवकोsवागसौम्यस्वरोऽस्वरः । वेदिता विदुरो विन्दुर्वन्दारुस्त्वभिवादकः || आशंसुराशंसितरि कँवरस्त्वतिकुत्सितः । निराकरिष्णुः क्षिप्नुः स्याद्विकासी तु विकस्वरः ॥ दुर्मुखे मुखरात्रद्धमुखौं शल्कः प्रियंवदः । दानशीलः स वदान्यों वदन्योऽप्यथ वालिशः ॥ ३५१ मूढो मन्दो यथाजातो वालो मातृमुखो जडः । मूर्खोऽमेधो विवर्णाज्ञौ वैधेयो मातृशासितः।। ३५२ देवानांप्रियजाल्मौ च दीर्घसूत्रश्चिरक्रियः । मन्दः क्रियासु कुण्टः स्यात्क्रियावान्कर्मसूद्यतः || ३५३ कर्मक्षमोऽलंकर्मणः कर्मशूरस्तु कर्मटः । कर्मशीलः कार्म आयः शूलिकस्तीक्ष्णकर्मकृत् ॥ सिंहसंहननः स्वङ्गः स्वतत्री निरवग्रहः । यथाकामी स्वरुचिश्च स्वच्छन्दः स्वैपाकृतः ॥ यदृच्छा स्वैरिता स्वेच्छा नाथवान्निन्नगृह्यकौ । तत्रायत्तवशाधीनच्छन्दवन्तः पैंगलरे || ३५६ लक्ष्मीवांलक्ष्मणः श्रील इभ्य आढ्यो धनीश्वरः । ऋद्धे विभूति: संपत्तिलक्ष्मीः श्रीऋद्धिसंपदः ।। ३५७ दरिद्रो दुर्विधो दुम्यो दुर्गती निःस्वकीकटौ । अकिंचनोऽधिपस्त्रीशो नेता परिवृढोऽधिः || ३५८ पतीन्द्रखामिनाथार्याः प्रभुर्भव विभुः । ईशितेनो नायकश्च नियोज्यः परिचारकः ॥ डिङ्गरः किंकरो भृत्यश्चेटो गोप्यः पराचितः । दासः प्रेष्यः परिस्कन्दो भुजिष्यपरिकर्मिणौ ॥ ३६० परान्नः परिपिण्डादः परजातः परैधितः । भृतके भृतिभुग्वैतनिकः कर्मकरोऽपि च ॥ स निर्भूतिः कर्मकरो भृतिः स्यान्निष्क्रयः पणः । कर्मण्या वेतनं मूल्यं निर्वेशो भरणं विधा || ३६२ भर्मण्या भर्म भृत्या च भोगस्तु गणिकाभूतिः । खलपूः स्याद्बहुकरो भारवाहस्तु भारिकः || ३६३ वैवधिको भारे विवीध । काचः शिक्यं तदालम्बो भारयष्टिहिङ्गिका ॥ ३६४ चारभटो वीरो विक्रान्तचाथ कातरः । दरिद्रश्चकित भीतो भीरुभीरुकभीलुकाः ॥ ३६५ विहस्तव्याकुल व्यये कांदिशीको भयद्रुते । उत्पिञ्जलसमुत्पिञ्जपिञ्जलाभृशमाकुले ॥ महेच्छे तृटीदारोदात्तोदीर्णमहाशयाः । महामना महात्मा च कृपणस्तु मितंपचः ॥ कीनाशस्तद्धन क्षुद्रकदर्यदृढमुष्टयः । किंपचानां दयालुस्तु कृपालुः करुणापरः ॥ सूरतोऽथ दया शूकः कारुण्यं करुणा घृणा | कृपानुकम्पानुक्रोशो हिंस्रे शरारुधातुकौ ॥ ३५५ ३५९ ३६१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ३६६ ३६७ ३६८ ३६९ यौगिकत्वात् कृतकृत्यः कृतार्थः, कृती च. परवशः, पराधीनः परच्छन्द, परवान. ७. १. कवितापि २. यौगिकत्वात् श्रीमान्, मतिमान् इत्यादयः. ३. तेन कृतकर्मा, कृतहस्तः कृतमुख:: ४. कटूर इत्यन्ये. ५. यथोद्गतोऽपि ६. तेन परतन्त्रः, परायन्तः, श्रीमान् इत्यपि Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मकाण्डः । व्यापादनं विशरणं प्रमयः प्रमापणं निग्रन्थनं प्रमथनं कदनं निवर्हणम् । निसूदनं विशसनं क्षणनं परासनं प्रोज्जामनं प्रशमनं प्रतिघातनं वधः ॥ प्रवासनोद्रासनघातनिर्वासनानि संज्ञप्तिनिशुम्भहिंसाः । निर्वाणाम्भनिसूदनानि निर्यातनोन्मन्थसमापनानि || अपासनं वर्जन मारपिञ्जा निष्कारणाकाथविशारणानि । १९ For Private and Personal Use Only ३७० ३७१ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३८० ३८१ ३८२ तु ३८४ स्युः कर्तने कल्पनवर्धने च च्छेद वातोद्यत आततापी ॥ मशीर्षच्छेदिकः शीर्षच्छेद्यो यो बधमर्हति । प्रमीत उपसंपन्नः परेतप्रेतसंस्थिताः ॥ नाम लेख्ययशः शेषो व्यापन्नोऽपगतो मृतः । परासुस्तदहे दानं तदर्थमूर्ध्वदेहिकम् ॥ मृतस्नानमपस्नानं निवापः पितृतर्पणम् । चितिचित्याचितास्तुल्या ऋजुस्तु प्राञ्जलोऽञ्जसः ॥ दक्षिणे सग्लोदारौ शैटस्तु निकृतोऽनृजुः । क्रूरे नृशंसनिस्त्रिंशपापा धूर्तस्तु वञ्चकः ॥ व्यंसकः कुहको दाण्डाजिनिको मायिजालिकौ । माया तु शठता शाठ्यं कुसृतिर्निष्कृतिश्च सा ॥ ३७७ कपटं कैतवं दम्भः कूटं छझोधिछलम् । व्यपदेशो मिषं लक्षं निर्भ व्याजोऽथ कुक्कुटिः || ३७८ कुहना दम्भचर्या च वचनं तु प्रतारणम् । व्यलीकमतिसाधनं साधौ सभ्यार्यसज्जनाः ॥ ३७९ artner पुरोभागी कर्णेजपस्तु दुर्जनः । पिशुनः सूत्रको नीचो द्विजिह्नो मत्सरी खलः ॥ व्यसनार्तस्तुपरक्तश्चरंस्तु प्रतिरोधकः । दस्युः पीटवरः स्तेनस्तस्कर: पारिपन्धिकः ॥ परिमोषिपरास्कन्द्यैकागारिकमलिम्लुचाः । यः पश्यतो हरेदर्थं स चौरः पश्यतोहरः ॥ चौर्य चौरिका स्वयं लोनं त्वतं धनम् । यद्भविष्यो देवपरोऽथालस्य: शीतकोऽलसः || ३८३ मन्दस्तुन्दपरिमृजोऽनुष्णो दक्षस्तु पेशलः । पटूष्णोष्णकसूत्थानचतुराश्चाथ तत्परः || आसक्तः प्रवणः-प्रह्नः प्रसितश्च परायणः । दातोदारः स्थूललक्षो दानशौण्डो बहुप्रदे || दानमुत्सर्जनं त्यागः प्रदेशनविसर्जने । विहापितं वितरण स्पर्शनं प्रतिपादनम् ॥ विश्राणनं निर्वपणमपवर्जनमंहतिः । अर्थव्ययज्ञः सुकलो याचकस्तु वनीपकः ॥ मार्गणोऽर्थी याचनकस्तर्कुकोऽभार्थनैषणा | अर्दना प्रणयो याच्या याचनाध्येषणा सनिः || ३८८ उत्पतिष्णुस्तूत्पतितालंकरिष्णुश्च मण्डनः । भविष्णुर्भविता भूष्णुः समौ वर्तिष्णुवर्तनौ | ३८९ विसृत्व विसृमरः प्रसारी च विसारिणी । लज्जाशीलोऽपत्रपिष्णुः सहिष्णुः क्षमिता क्षमी ३९० तितिक्षुः सहनः क्षन्ता तितिक्षा सहनं क्षमा । ईर्ष्यालुः कुहनोक्षान्तिरीय क्रोधी तु रोषणः || ३९१ अमर्षणः क्रोधेनश्च चण्डस्त्वत्यन्तकोपनः । बुभुक्षितः स्यात्क्षुधितो जिघत्सुरशनायितः ॥ ३९२ बुभुक्षायमानाया जिघत्सा रोचको रुचिः । पिपासुस्तृषितस्तृष्ण तृष्णा तर्षोऽपलासिका ।। ३९३ पिपासा पोदन्या श्रीतिः पानेऽथ शोषणम् | रसादानं भक्षकस्तु घस्मरोझर आशिता || ३९४ भक्तमन्नं कुरमन्धो भित्सा दीदिविरोदनः । अशनं जीवनकं च याजो वाज: प्रसादनम् ॥ ३९५ भिस्टा रिका सर्वरसाग्र्यं मण्डमत्र तु । दधिजे मस्तु भक्तोत्थे निःस्रावाचाममासराः || ३९६ श्राणाविलेपी तरला यवागूरुणिकापि च । सूपः स्यात्प्रहितं सूदो व्यञ्जनं तु वृतादिकम् || ३९७ तुल्यौ तिलान्ने क्रमरत्रिमरावथ पिष्टकः । पूपोऽपूपः पृलिका तु पोलिकापौलिपूपिकाः ॥ ३९८ ३८५ ૮૬ ३८७ 39 १. 'शेष' शब्दो नामादिभिः प्रत्येकमन्वेति २ और्ध्वदेहिकमपि ३. ण्ठः ४ उपधापि ५. चौरोऽपि. ६. पटचोरोऽपि ७. स्तैन्यमपि ८ आन्तिरित्यपि ९ कोपनोऽपि १०, आशिरोऽपि ११. विलेप्यापि. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 20 www.kobatirth.org अभिधान संग्रह: ६ अभिधानचिन्तामणिः । ३९९ ४०० पुलापत् स्युरभ्यूपाभ्योपपौलयः । निष्टानं तु तेमनं स्यात्करम्भो दधिसक्तवः ॥ व्रतपूरो वृतवरः पिष्टपूर वार्तिकः । चमसी पिष्टवर्तिः स्याद्वटकस्त्ववसेकिमः || भ्रष्टा यवाः पुनर्भाना धानाचूर्ण तु सक्तवः । पृथुकचिपुटस्तुल्यौ लाजाः स्युः पुनरक्षताः ॥ ४०१ गोधूमचूर्णे समिता यवक्षोदे तु चिक्कसः । गुड इक्षुरसः काथः शर्करा तु सितोपला || सिता च मधुधूलिस्तु खण्डस्तद्विकृतिः पुनः । मत्स्यण्डी फाणितं चापि रसालायां तु मार्जिता ॥ ४०३ शिखरिण्यथ युर्युरो रसो दुग्धं तु सोमजम् । गोरमः क्षीरमूधस्यं स्वन्यं पुंसवनं पयः ॥ ४०२ ४०४ ४०५ ४०६ 1 ४०७ ૪૦૮ ४०९ ४११ ४१२ ४१३ यं तदभ्यादि पेयृपोऽभिनवं पयः । उभे क्षीरस्य विकृती किलाटी कूर्चिकापि च ॥ पायसं परमान्नं च क्षीरेीक्षीरजं दधि । गोरसश्च तदधनं द्रामं पत्रमित्यपि ॥ वृतं हविष्यमाज्यं च हविराधारसर्पिषी । योगोदोहोद्भवं हैयंगवीनं शरजं पुनः || विसारं सारं नवनीतं नवोद्धृतम् । दण्डाहते काल सेयघोलारिष्टानि गोरसः ॥ रसायनमथार्थाम्वृदश्विच्छेतं समोदकम् । तकं पुनः पादजलं मथितं वारिवर्जितम् ॥ सार्विष्कं दाधिकं सर्विदधिभ्यां संस्कृतं क्रमात् । लवणोदकाभ्यामुदकलावणिकमुदश्चिति ॥ ४१० औश्रितमदवित्कं लवणे स्यात्तु लावणम् । पैटगेख्ये उखासिद्धे प्रयस्तं तु सुसंस्कृतम् ॥ पके गद्धं च सिद्धं च भृष्टं पकं विनाम्बुना । भृष्टामिषं भटित्रं स्याद्भूतिर्भरूटकं च तत् || शुल्यं गुलामांसं निष्कायो रसकः समौ । प्रणीतमुपसंपन्नं स्निग्धे मसृणचिकणे || पिच्छिलं तु विर्जिलिं विज्जलं विजलं च तत् । भावितं तु वासितं स्यात्तुल्ये संमृष्टशोधिते ४१४ काक्षिकं काञ्जिकं धान्याम्लाग्नाले तुषोदकम् । कुल्माषाभिषुतावन्तिसोमशुक्तानि कुञ्जलम् ||४१५ चुकं श्रान्नमुन्नाहं रक्षोघ्नं कुण्डगोलकम् । महारसं सुवीरामलं सौवीरं म्रक्षणं पुनः || ४१६ तैलं स्नेहोऽभ्यञ्जनं च पवार उपस्करः । स्यात्तिन्तिडीकं तु चुकं वृक्षाम्लं चाम्लवेतसे ॥ ४१७ हरिद्रा कानी पीता निशाख्या वरवर्णिनी । क्षवः क्षुताभिजननो राजिका राजसर्षपः ॥ ४१८ आसुरी कृष्णिका चामौ कुस्तुम्बुरु तु धान्यकम् । धन्या धन्याकं धान्याकं मरीचं कृष्णमूषणम् ४१९ कोलकं वेल्लजं धार्मपत्तनं यवनप्रियम् । शुण्ठी महौषधी विश्वा नागरं विश्वभेषजम् ॥ aat fruit कृष्णकुल्या मागधी कणा । तन्मूलं ग्रन्थिकं सर्वग्रन्थिकं चटकाशिरः || ४२१ त्रिकटु व्यूपणं व्योषमजाजी जीरकः कणा । सहस्रवेधि वाह्लीकं जतुकं हिङ्गु रामटम् ॥ ४२२ न्यादः स्वदनं वादनमशनं निवसो वल्भनमभ्यवहारः । जग्धिर्जक्षणभक्षणलेहाः प्रत्यवसानं धमिराहारः ॥ ४२० १. मजितापि. ६. आभाणोऽपि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२३ ४२४ "मानावष्वाणविष्वाणा भोजनं जेमनादने । चर्वणं चूर्णनं दन्तैर्जिह्वास्वादस्तु लेहनम् ॥ कल्पवर्तः प्रातराशः सग्धिस्तु सहभोजनम् । ग्रासो गुडेरकः पिण्डो गडोल: कवको गुडः || ४२५ गण्डोलः कवलस्तृप्ते वाघ्रात सुहिताशिताः । तृमिः सौहित्यमात्राणमथ भुक्तसमुज्झिते ॥ ४२६ फेला पिण्डोलिफैली च स्वोदरपूरके पुनः । कुभिरिरात्मंभरिरुदरंभरिरष्यथ ॥ स्याददरको विजिगीपाविवर्जिते । उदरपिशाचः सर्वान्नीनः सर्वान्नभक्षकः || आद्यूनः शाकुलः पिशिताश्युन्मदिष्णुस्तुन्माद संयुतः । ग्रनुस्तु गर्धनस्तृष्णग्लिप्सुलुब्धोऽभिलाषुकः ॥ ४२९ ४२७ ४२८ २. पीयूपमित्यपि. २. चिकणमपि. ४. विजिपिलमित्यपि. ५. जमनम् जवनं च. For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मर्त्यकाण्डः । लोलपो लोलभी लोभस्तृष्णा लिप्सा वशः स्पृहा । काङ्ग्राशंसागर्धवाञ्छाशेच्छेहातृमनोरथाः ॥ ४३० कामोऽभिलापोऽभिध्या तु परस्वेहोद्धतः पुनः । अविनीतो विनीतस्तु निभृतः प्रश्रितोऽपि च ।। ४३१ विधये विनयस्थः म्यादाश्रवो वचनेस्थितः । वश्यः प्रणेयो धृष्टस्तु वियातो धृणुधृष्णजौ ॥ ४३२ वीक्षापन्नो विलक्षोऽथाटे शालीनशारदौ । शुभंयुः शुभसंयुक्तः म्यादयुरहंकृतः ॥ ३३ कामकः कमिता कम्रोऽनुकः कामयिताभिकः । कामनः कमरोऽभीकः पञ्चभद्रस्तु विप्लुतः ॥ ४३४ व्यमनी हर्पमाणम्तु प्रमना दृष्टमानसः । विकुर्वाणो विचेतास्तु दैरन्तविपरो मनाः ॥ ४३५ मत्ते शौण्डोत्कटीवा उत्कम्तमक उन्मनाः । उत्कण्टि तोऽभिशस्ते तु वाच्यक्षारितदृषिताः ।। ४३६ गुणैः प्रतीते बाहतलक्षणः कृतलक्षण: । निर्लक्षणस्तु पाण्डुरपृष्टः मंकमकोऽस्थिरे ।। ४२७ तृष्णांशीलस्तु तृष्णीको विवशोऽनिष्टदुष्टधीः । बद्धो निगडितो नद्धः कीलितो यत्रितः सितः॥४३८ संदानितः संयतश्च स्याद दानं तु बन्धनम् । मनोहतः प्रतिहतः प्रतिबद्धो हतश्च सः ॥ ४३९ प्रतिक्षिप्तोऽधिक्षिपोऽवकृष्टनिष्कासितौ समौ । आत्तगन्धेऽभिभूतोऽपध्वस्ते न्यकृतधिकृतौ ।। ४४० निकृतम्तु विप्रकृतो न्यकारस्तु तिरस्क्रिया । परिभावो विपकारः पॅरापर्यभितो भवः ॥ १४५ अत्याकारो निकारश्च विप्रलब्धस्तु वश्चितः । स्वप्नक्शयालुनिद्रालघूणिते प्रचलायितः ॥ ४४२ निद्राणः शयितः सुप्तो जागरूकम्तु जागरी । जागर्या म्याज्जागरणं जागरा जागरोऽपि च ॥४४३ विष्वगञ्चति विष्वद्यदेवद्यङ्देवमभनि | महाश्चति तु सध्यङ् स्यात्तिर्यङ् पुनस्तिरोऽवति ॥ ४४४ मंशयालुः संशयिता गृहयालुब्रहीतरि । पतयालः पातुकः स्यात्समौ रोचिष्णुरोचनौ ।। ४४५ दक्षिणाईस्तु दक्षिण्यो दक्षिणीयोऽय दण्डितः । दापितः साधितोऽय॑स्तु प्रतीक्ष्यः पूजितोऽर्हितः४४६ नमस्यितो नममितापचितावञ्चितोऽर्चितः । पूजाहणासपर्या; उपहारवली समौ ॥ ४४७ विवो विहल: स्थल: पीवा पीनश्च पीवरः । चक्षुष्यः सुभगो द्वेष्योऽक्षिगतोऽथांसलो बली ॥४४८ निर्दिग्धो मांसलचोपचिनोऽथ दुर्बलः कृशः । आमः क्षीणस्तनुश्छातस्तलिनामांसपेलवाः ॥ ४४९ पिण्डिलो बृहत्कुक्षिस्तुन्दितुन्दिकतुन्दिलाः । उदर्युदग्लेि विग्वधिरत्रुविना अनासिके ॥ ४५० नतनामिकेऽवनाटोऽवटीटोऽवभ्रटोऽपि च । खरणास्तु खरणसो नःक्षुद्रः क्षुद्रनासिकः ॥ ४५१ बुरणाः स्यातबुग्णस उन्नसस्तूप्रनामिकः । पङ्गुः श्रोणः खलतिस्तु खल्वाट ऐन्द्रलुप्तिकः ॥ ४५२ शिपिविष्टो बभ्रुग्ध काणः कनन एकटक । पृश्निग्ल्पतनौ कुठजे गडुलः कुकरे कुणिः ॥ ४५३ निवर्सः बटनः खर्वः खर्वशाखश्च वामनः । अकर्ण एडो बधिरो दुश्चर्मा तु द्विनग्नकः ॥ ४५४ वण्डश्च शिपिविष्टश्च खोडखोगे तु खनके । विकलाङ्गस्तु पोगण्ड ऊर्ध्वज़ुरूर्ध्वजानुकः ॥ ४५५ अवज्ञश्चाप्यच प्रजुप्रज्ञौ विरल जानुके । संजुसंज्ञौ युतजानौ बलिनो वलिभः समौ ॥ ४५६ उदग्रदन्दन्तुरः स्यात्पलम्वाण्डस्तु मुष्करः । अन्धो गताक्ष उत्पश्य उन्मुग्वोऽधोमुखम्बवाङ् ॥ ४५७ मुण्डस्तु मुण्डितः केशी केशवः केशिकोऽपि च । वलिरः केकरो वृद्धनाभौ तुण्डिलतुण्डिभौ ४५८ आमयाव्यपटुरानो ग्लास्तविकृत आतुरः । व्याधितोऽभ्यमितोऽभ्यान्तो दद्रुरोगी तु दगुणः ।। ४५९ पामनः कच्छरस्तुल्यौ सातिसारोऽतिसारकी । वातकी वातरोगी स्याच्छेमल: श्रेष्मणः कफी ४६० 2. होऽपि. २. मनोगवी च. ३. कमनोऽपि. ४. तेन दुर्भनाः, अन्तर्मना:. विमनाः. ५. आक्षारितोऽपि. ६. अनिष्टा दुष्टा च वीर्यम्य. ७. तेन पराभवः, परिभवः, अभिभवः. ८. जागांरेतोऽपि. ९. सांशयिकोऽपि. ५०. अपचाथिता -पि. ११. ग्यलतोऽपि. १२. न्युजोऽपि. १३. रोगितोऽपि. १४. 'पाभरः' इत्येके. For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधाचिन्तामणिः । क्लिन्न नेत्रे चिल्लचुल्ली पिल्लोऽथार्शोयुगर्शसः । मूर्छिते मूर्तमूर्छालौ सिध्मलस्तु किलासिनि ।। ४६५ पित्तं मायुः कफः श्लेष्मा बलाशः स्नेहभूः खटः । रोगो रुजा रुगातको मान्द्यं व्याधिरपाठवम्॥४६२ आम आमय आकल्यमुपतापो गदः समाः । क्षयः शोषो राजयक्ष्मा यक्ष्माथ क्षुक्षुतं क्षवः ।।४६३ कामस्तु क्षवथः पामा ग्वसः कविचिका । कण्डः कण्ड्रयनं खर्जुः कण्ड्रयाथ क्षतं त्रणः।।४६४ अमरीम अणतुश्च रूढवणपदं किणः । श्रीपदं पादवल्मीकः पादस्फोटो विपादिका ॥ ४६५ स्फोटकः पिडको गण्डः पृष्टप्रन्धिः पुनर्गड्डुः । श्वित्रं स्यात्पाण्डुरं, कुष्टं केशनं विन्द्रलुप्तकम्॥४६६ मिथ्म किलासं त्वक्पुष्पं सिध्मं कोटस्तु भैण्डलम् । गलगण्डे गण्डमाला रोहिणी तु गलाङ्करः४६७ हिक्का हेका च हल्लासः प्रतिश्यायस्तु पीनसः । शोथस्तु श्वयथुः शोफे दुर्नामाझे गुदाङ्करः ।। ४६४ छर्दे प्रच्छर्दिका छर्दिर्वमथुर्वमनं वमिः । गुल्मे स्यादुदरग्रन्धिरुदावर्तो गुदग्रहः ॥ गतिर्नाडीव्रणे वृद्धिः कुरुण्डश्चाण्डवर्धने । अइमरी स्यान्मूत्रकृच्छे प्रमेहो बहुमूत्रता ॥ ४७० अनाहस्तु निवन्धः स्याद्गृहणी रुक्प्रवाहिका । व्याधिप्रभेदा विद्रधिभगंदरज्वरादयः ॥ ४७१ दोषज्ञस्तु भिषग्वैद्य आयुर्वेदी चिकित्मकः । रोगहार्यगदंकारो भेषजं तन्त्रमौषधम् ॥ ४७२ भैषज्यमगदो जायुश्चिकित्सा रुक्प्रतिक्रिया । उपचर्योपचारौ च लङ्घनं वपतर्पणम् ॥ जालिको विषभिषक्स्वास्थ्यं वार्तमनामयम् । सह्यारोग्ये पल्लाघवार्तकल्यास्तु नीरुजि ॥ ४७४ कमया विभवान्वेपी पार्श्वकः संधिजीवकः । सत्कृत्यालंकृतां कन्यां यो ददाति स कदः।। ४७५ चपलश्चिकुगे नीली गगस्तु स्थिरसौहदः । ततो हरिद्रारागोऽन्यः सान्द्रस्निग्धस्तु मेदुरः ॥ ४७६ गेहेनर्दी गेहेशरः पिण्डीशूरोऽम्तिमान्धनी । स्वस्थानस्थः परद्वेषी गोष्टश्वोऽथापदि स्थितः ॥ ४७७ आपन्नोऽथापद्विपत्तिविपत्स्निग्धस्तु वत्सलः । उपाध्यभ्यागारिको तु कुटुम्बव्यापृते नरि ॥ ४७८ जैबातृकस्तु दीर्घायुस्त्रामदायी तु शङ्करः । अभिपन्नः शरणार्थी कारणिकः परीक्षकः ॥ ४७९ ममर्धकस्तु बरदो वातीनाः मंघजीविनः । सभ्याः सदस्याः पार्षद्याः सभास्ताराः सभासदः ॥ ४८० सामाजिकाः सभा संसत्समाजः परिपत्मदः । पर्षसमज्यागोष्ठयास्था आस्थान समितिघंटा ||४८१ मांवत्सरो ज्योतिषिको मौहृतिको निमित्तवित् । दैवज़गणकादेशिज्ञानिकार्तान्तिका अपि ॥ ४८२ विप्रनिकेक्षणिकौ च सैद्धान्तिकस्तु तान्त्रिकः । लेखकेऽक्षरपूर्वाः स्युश्चणजीवकचञ्चवः ॥ ४८३ वार्णिको लिपिकरश्चाक्षरन्यासे लिपिलिविः । मषिधानं मषिकूपी मलिनाम्बु मषिर्मसिः ॥ ४८४ कुलिकस्तु कुलश्रेष्ठी सभिको हातकारकः । कितवो द्यूतकृद्धर्तोऽक्षधूर्तश्चाक्षदेविनि ॥ ४८५ दुगेदरं कैतवं म्यादयूतमक्षवती पणः । पाशकः पासकोऽसश्च देवनस्तत्पणो ग्लहः ॥ ४८६ अष्टापदः शारिफलं शार: शारिश्च ग्वेलनी । परिणायस्तु शारीणां नयनं स्यात्समन्ततः ॥ ४८७ ग्ममायः प्राणिगृतं व्यालग्राह्याहि तुण्डिकः । म्यान्मनोजवसस्ताततुल्यः शास्ता तु देशकः ॥ ४८८ सुकृती पुण्यवान्यन्यो मित्रयुमित्रवत्सलः । शेमंकरोऽरिष्टतातिः शिवतातिः शिवंकरः ॥ ४८९ श्रद्धालुरास्तिकः श्राद्धो नास्तिकतद्विपर्यये । वैगङ्गिको विगगा) वीतदम्भस्त्वकल्कनः ॥ ४९० प्रणाय्योऽसंमतोन्वेष्टानुपद्यथ महः क्षमः । शक्तः प्रभूष्णु तात्तस्त्वाविष्टः शिथिलः श्लथः ॥ ४९१ १. नान्त आवन्तश्च. २. विस्कोटापि. ३. मण्डलकमपि. ४. आक्षपटलिकोऽपि. ५. पारिषद्या अपि. ६. मौहूर्तोऽपि. ७. नैमित्त नैमित्तिकावपि. ८. मनोरमायां तु 'चञ्चः' उकारद्वयवान्' इत्युक्तम. ९. लिविकरोऽपि. १०. मपी, मसी. ११. शारिफलकोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मर्त्यकाण्डः । संवाहकोऽङ्गमर्दः स्यान्नष्टवीजस्तु निष्कलः । आसीन उपविष्टः स्यादृर्ध्व ऊवंदभः स्थितः ॥ ४९२ अध्वनीनोऽध्वगोऽध्वन्यः पान्थः पथिकदेशिकौ । प्रवासी तद्गणो हारिः पाथेयं शम्बलं समे ॥४९३ जङ्घालोऽतिजवो जङ्घाकरिको जाङ्घिको जवी । जवनस्त्वरिते वेगे रयो रंहस्तरः स्यदः ॥ ४९४ जवा वाजः प्रसरश्न मन्दगामी तु मन्थरः । कामंगाम्यनुगामीनोऽत्यन्तीनोऽत्यन्तगामिनि ॥ ४९५ सहायोऽभिचगेनाश्च जीविगामिचरप्लवाः । सेवकोऽथ सेवा भक्तिः परिचर्या प्रसादना ॥ ४९६ शुश्रूषागधनोपास्तिवरिवस्यापरीष्टयः । उपचारः पदातिस्तु पत्तिः पद्गः पदातिकः ॥ ४९७ पादातिकः पादचारी पदाजिपदिकावपि । सर: पुरोऽग्रतोऽग्रेभ्यः पुरस्तो गमगामिगाः ॥ ४९८ प्रष्टोऽथावेशिकागन्तु प्रणोऽभ्यागतोऽतिथिः । प्रापूर्णिके थावेशिकमातिथ्यं चातिर्थयपि ॥ ४९०. सूर्योढस्तु स संप्राप्तो यः सूर्येऽस्तं गते तिथिः । पादार्थ पाद्यमर्धार्थमध्ये वार्यध गौरवम् ॥ ५०० अभ्युत्थानं व्यथकस्तु स्यान्मर्मस्पृगरंतुदः । ग्रामेयके तु ग्रामीणग्राम्यौ लोको जनः प्रजाः ॥ ५०१ स्यादामुप्यायणोऽमुष्यपुत्रः प्रख्यातवातकः । कुल्यः कुलीनोऽभिजात: कौलेयकमहाकुलौ ॥ ५०२ जात्यो गोत्रं तु संतानोऽन्ववायोऽभिजनः कुलम् । अन्वयो जननं वंशः स्त्री नारी वनिता वधूः ५०३ वशा सीमन्तिनी वामा वर्णिनी महिलाबला । योषा योषिद्विशेषास्तु कान्ता भीरुनितम्बिनी ५०४ प्रमदा सुन्दरी रामा रमणी ललनाङ्गना । स्वगुणेनापमानेन मनोज्ञादिपदेन च ॥ विशेषिताङ्गकर्मा स्त्री यथा तरललोचना । अलसेक्षणा मृगाक्षी मत्तेभगमनापि च ॥ ५०६ वामाक्षी सुस्मितास्याः वं मानलीलास्मरादयः । लीला विलासो विच्छित्तिर्विचोकः किलकिश्चितम् ।। मोट्टायितं कुट्टमितं ललितं विहृतं तथा । विभ्रमश्चेत्यलंकागः स्त्रीणां स्वाभाविका दश ॥ ५०८ प्रागल्भ्यौदार्थमाधुर्य शोभाधीरत्वकान्तयः । दीप्तिश्चायनजा भावहावहेलास्त्रयोऽङ्गजाः ॥ ५०९. सा कोपना भामिनी स्याच्छेका मत्ता च वाणिनी । कन्या कनी कुमारी च गौरी तु नग्निकारजाः ।। मध्यमा तु दृष्टग्जास्तरुणी युवैतिश्चगे । तलुनी दिकरी वर्या पतिवग स्वयंवरा ॥ ५११ सुवासिनी बचटी न्याच्चिरिण्ट्यथ सर्मिणी । पत्नी सहचरी पाणिगृहीती गृहिणी गृहाः ॥ ५१२ दाराः क्षेत्रं वधर्भार्या जनी जाया परिग्रहः । द्वितीयोढा कलत्रं व पुरंधी तु कुटम्बिनी ॥ ५१३ प्रजावती भ्रातु या सूनाः स्नपा जनी वधूः । भ्रातृवर्गम्य या जाया यातरस्ताः परस्परम् ।। ५१४ वीरपत्नी वीरभार्या कुलस्त्री कुलवालिका | प्रेयसी दयिता कान्ता प्राणेशा वल्लभा प्रिया ॥ ५१५ हृदयेशा प्राणसमा प्रेष्ठा प्रणयणी च सा । प्रेयस्याद्याः पुंसि पत्यौ भर्ता सेक्ता पतिवरः ॥ ५१६ विवोढा ग्मणो भोक्ता रुच्या वरयिता थवः । जन्यास्तु तस्य सुहृदो विवाहः पाणिपीडनम् ।।२१. पाणिग्रहणमुद्वाह उपाद्यामयमावपि । दारकर्म परिणयो जामाता दुहितः पतिः ॥ उपपतिस्तु जार: स्याङ्गजङ्गो गणिकापतिः । जम्पती दम्पती भार्यापती जायापती समाः ॥ ५१९ यौतकं युतयोर्दयं सुदायो हरणं च तत् । कृताभिषेका महिषी भोगिन्याऽन्या नृपस्त्रियः ॥ ५९० सैरंध्रो यान्यवेश्मस्था स्वतन्त्रा शिल्पजीविनी । असिनयन्तःपुरःप्रेष्या दृतीसंचारिके ममे ॥५२॥ १. जाङ्ग्राकरोऽपि. २. जीव्यादयोऽनाः परे ज्ञेयाः. ३. अनुगोऽपि. ४. पर्यंषणापि. ५. पुरआदिभ्यः परः सरो ज्ञेयः ६. 'पुरम' इत्यम्गात्परे गगाढ यो बोध्या: ५, आतिथ्यमपि. ८. अभिज्ञोऽपि. १. महेलापि. १०. योपितापि. ११. 'यवती' इत्यपि. १२. 'चरिण्टी इत्यपि. १३. वघटीत्यपि. १४. प्रेमवत्यपि. १५. उपात पगे यास-यपशब्दो. For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । प्राज्ञी प्रज्ञा प्रजानन्त्यां प्राज्ञा तु प्रज्ञयान्विता । स्यादाभीरी महाशूद्री जातियोगयोः समे ।। ५२२ पुंयुज्याचार्याचार्यानी मातुलानी तु मातुली । उपाध्यायान्युपाध्यायी क्षत्रिय्यार्थी च शूद्यपि ।। ५२३ स्वत आचार्या शद्रा च क्षत्रियाक्षत्रियाण्यपि । उपाध्याय्युपाध्याया स्यादर्यार्याण्यौ पुनः समे ॥५२४ दिधिषूस्तु पुनर्भूढेिरूढास्या दिधिपूः पतिः । स तु द्विजोऽग्रेदिधिषुर्यस्य स्यात्सैव गेहिनी ॥ ५२५ ज्येष्टेऽनूढे परिवेत्तानुजो दारपरिग्रही । तस्य ज्येष्टः परिवित्तिर्जाया तु परिवेदिनी ।। ५२६ वृषस्यन्ती कामुकी स्यादिच्छायुक्ता तु कामुका । कृतसापत्निकाध्यूढाधिविन्नाथ पतिव्रता ॥ ५२७ एकपत्नी सुचरित्रा माध्वी सत्यसतीवरी । पुंश्चली चर्षणी बन्धक्यविनीता च पांशुला ॥ ५२८ वैरिणी कुलटा याति या प्रियं साभिसारिका । वयस्यालिः सखी सध्रीच्यशिश्वी तु शिशु विना ५२९ पतिवनी जीवत्पतिविश्वस्ता विधवा समे । निर्वीरा निष्पतिसुता जीवत्तोका तु जीवसूः॥ ५३० नश्यत्प्रसूतिका नन्दुः सश्मश्रुर्वरमालिनी । कात्यायिनी त्वर्धवृद्धा काषायवसनाधवा ।। ५३१ श्रवणा भिक्षुकी मुण्डा पोटा तु स्त्रीनृलक्षणा । साधारणस्त्री गणिका वेश्या पण्यपणाङ्गना ॥५३२ भुजिष्या लञ्जिका रूपाजीवा वारवधः पुनः । सा वारमुख्याथ चुन्दी कुट्टनी शंभली समाः ॥५३३ पोटा वोटा च चेटी च दासी च कुटहारिका । नग्ना तु कोटवी वृद्धा पलिया रजस्वला ॥२३४ पुष्पवत्यधिरात्रेयी स्त्रीधर्मिणी मलिन्यवी । उदक्या ऋतुमती च पुष्पहीना तु निष्कला ॥ ५३५ राका तु सरजाः कन्या स्त्रीधर्मः पुष्पमार्तवम् । रजस्तकालस्तु ऋतुः सुरतं मोहनं गतम् ॥ ५३६ संवेशनं संप्रयोग: संभोगश्च रहा रतिः । ग्राम्यधर्मो निधुवनं कामकेलि: पंशुक्रिया ॥ ५३७ व्यवायो मैथुनं स्त्रीपुंसोद्रं मिथुनं च तत् । अन्तर्वनी गुर्बिणी स्याद्गर्भवत्युदरिष्यपि ॥ ५३८ आपन्नसत्त्वा गुर्वी च श्रद्धालुोहदान्विता | विजाना च प्रजाता च जातापल्या प्रसृतिका ॥ ५३९ गर्भस्तु गरभो भ्रूणा दोहदलक्षणं च मः । गर्भाशयो जगल्वे कललोल्वे पुनः समे ॥ ५४० दोहदं दोहनं श्रद्धा लालसा मृतिमासितु । वैजननो विज ननं प्रसवा नन्दनः पुनः॥ ५४१ उद्वहोऽङ्गात्मजः मनुतनयो दारकः सुतः । पुत्रे दुहितरि स्त्रीले तोकापत्य प्रसूतयः ॥ ५४२ नुक्प्रजाभयोधात्रीयो भ्रातृव्यो भ्रातुरात्मजे । स्वस्रीयो भागिनेयश्च जामेयः कुतपश्च सः॥ ५४३ नता पौत्र: पुत्रपुत्रा दौहित्रो दुहितुः सुतः । प्रतिनता प्रपौत्रः स्यात्तत्पुत्रस्तु परम्परः ॥ ५४४ पैतृष्वसेयः स्यात्पैतृष्वस्रीयश्च पितृवसुः । मातृष्वम्रीयस्तुरमातृष्वसुर्मातृवसंयवत ॥ विमातृजो वैमात्रेयो द्वैमातुगे विमातृजः । सत्यास्तु तनये सांमातुरवनाद्रमातुरः ।। सौभागिनेयकानीनौ सुभगाकन्ययाः सुतौ । पौनर्भवपारस्त्रैणेयौ पुनर्भूपरस्त्रियोः ॥ ५४७ दास्या दामग्दासयौ नाटेग्स्तु नटीसुतः । बन्धुलो बान्धकिनेयः कौलटेरोऽसतीसुतः ॥ ५४८ स तु कौलटिनेयः म्याद्यो भिक्षुकसतीसुतः । द्वावयेतो कौलटेयो क्षेत्रजो देवरादिजः ॥ ५४९ स्वजाते चौरसारस्यौ मृत भर्तरि जारजः । गोलकोऽथामृते कुण्डे भ्राता तु स्यात्सहोदरः ।। ५५० समानोदर्यमादयमगर्भसहजा अपि । सोदरश्च स तु ज्येष्ठः स्यात्पित्र्यः पूर्वजोऽग्रजः॥ ५५१ जघन्यजे यविष्ठः स्यात्कनिष्टोऽवरजोऽनुजः । स यवीयान्कनीयांश्च पितृव्यश्यालमातुलाः ॥ ५५२ पितुः पल्याच मातुश्च धानो देवदेवगे । देवा चाबरजे पत्युर्जामिस्तु भगिनी ग्वसा ॥ ५५३ १. अवीरापि. २. अङ्गनाशब्दस्य पप्येनाप्यन्वयः, ३. ननिकापि. ४. कुसुममपि. ५. पशुधर्मो पि. ६.जयाब्दस्याङ्गेनाप्यन्वयः, ७, नाटयो-पि. ८. अग्रिमोऽपि, For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३ मकाण्डः । २५ ५५७ ५५८ ननान्दा तु वसा पत्युर्ननन्दा नन्दिनीत्यपि । पत्न्यास्तु भगिनी ज्येष्ठा ज्येष्ठश्वश्रूः कुलीचसा ५५४ कनिष्टा श्यालिका हाली यत्रणीकेलिकुञ्चिका । केलिर्द्रवः परीहास: क्रीडा लीला च नर्म च ५५५ देवनं कूर्दनं खेला ललनं वर्करोऽपि च । वप्ता च जनकस्तातो बीजी जनयिता पिता ॥ ५५६ पितामहस्तस्य पिता तत्पिता प्रपितामहः । मातुर्मातामहाद्येवं माताम्बा जननी प्रसूः ॥ सवित्री जनयित्री च कृमिला तु बहुप्रसूः । धात्री तु स्यादुपमाता वीरमाता तु वीरसूः ॥ श्वश्रूर्माता पतिपत्न्योः श्वशुरस्तु तयोः पिता । पितरस्तु पितुर्वश्या मातुर्मातामहा कुले | ५५९ पितरौ मातापितरौ मातरपितरौ पिता च माता च । श्वश्रूश्वशुरौ वशुरौ पुत्रौ पुत्रश्च दुहिता च५६० भ्राता च भगिनी चापि भ्रातरावथ बान्धवः । खो ज्ञातिः स्वजनो बन्धुः सगोत्रश्च निजः पुनः ।। ५६१ आत्मीयः स्वः स्वकीयश्च सपिण्डास्तु सनाभयः । तृतीयाप्रकृतिः पण्डः षण्ढः क्लीबो नपुंसकम् ५६२ इन्द्रियायतनमङ्गविग्रहौ क्षेत्रगात्रतनुभूवनास्तनूः । मूर्तिमत्करणकाय मूर्तयो वेरसंहननदेहसंचराः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ५६९ घनो बन्धः पुरं पिण्डो वपुः पुद्गलवर्म्मणी । कलेवरं शरीरेऽस्मिन्नजीवे कुणपं शवः || मृतकं रुण्डकवन्धौ वपशीर्षे क्रियायुजि । वयांसि तु दशाः प्रायाः सामुद्रं देहलक्षणम् ॥ एकदेशे प्रतीकाङ्गावयवापचना अपि । उत्तमाङ्गं शिरो मूर्ध्ना मौलिर्मस्तकमुण्डके || वराङ्गं ऋग्णत्राणं शीर्षं मस्तिकमित्यपि । तज्जाः केशास्तीर्थवाकार्श्विकुराः कुन्तलाः कचाः || ५६७ वालाः स्युस्तत्पराः पाशो रचना भार उच्चयः । हस्तः पक्षः कलापञ्च केशभूयस्त्ववाचकाः ॥ ५६८ अलकस्तु कर्करालः खंखरचूर्णकुन्तलः । स तु भाले भ्रमरकः कुरुलो भ्रमरालकः ॥ धमिल्लः संयताः केशाः केशवेशे कवर्यथा । वेणिः प्रवेणिः शीर्षण्यशिरस्यौ विशदे कचे ॥ ५७० केशेषु वर्त्म सीमन्तः पलितं पाण्डुरः कचः । चूडा केशी केशपाशी शिखा शिखण्डिका समाः ५७१ सावलानां काकपक्षः शिखण्डकशिखाण्डकौ । तुण्डमास्यं मुखं वक्रं लपनं वदनानने ।। ५७२ भाले गोध्यलिकालीकललाटानि श्रुतौ श्रवः । शब्दाधिष्ठानपैलूषमहानादध्वनिग्रहाः ॥ ५७३ कर्णः श्रोत्रं श्रवणं च वेष्टनं कर्णशष्कुली । पालिस्तु कर्णलतिकाशङ्खो भालश्रवोऽन्तरे || ५७४ चक्षुरक्षीक्षणं नेत्रं नयनं दृष्टिरम्बकम् । लोचैनं दर्शनं दृक्च तत्तांग तु कनीनिका ॥ ५७५ वामं तु नयनं सौम्यं भानवीयं तु दक्षिणम् । असौम्येऽक्षण्यनक्षि स्यादीक्षणं तु निशामनम् ।। ५७६ निभालनं निशमनं निध्यानमवलोकनम् । दर्शनं द्योतनं निर्वर्णनं चाथार्धवीक्षणम् ॥ अपाङ्गदर्शनं काक्षः कटाक्षोऽक्षिविकूणितम् । स्यादुन्मीलनमुन्मेषो निमेषस्तु निमीलनम् ॥ ५७८ अक्ष्णोर्वाह्यान्तावपाङ्गौ भ्रूरु पद्धतिः । सकोपविकारे स्याद्वैधुभ्रूभृपरा कुटिः ॥ कूर्च कूप भ्रुवोर्मध्ये पक्ष्म स्यान्नेत्ररोमणि । गन्धज्ञा नासिका नासा घ्राणं घोणा विकूणिका ॥ ५८० नकं नर्कुटकं शिङ्खिन्योष्टोऽधरो रदच्छदः । दन्तवस्त्रं च तत्प्रान्तौ सृकणी असिकं वधः ॥ ५८१ असिकास्तु चिबुकं स्याद्गलः कणः परः । गल्लात्परः कपोलच परो गण्डः कपोलतः ॥ ५८२ ततो हनुः श्मश्रु कूर्चमास्यलोम च मासुरी । दाँढिका दंष्ट्रिका दाढा दंष्ट्रा जम्भो द्विजा रदाः ५८३ रदना दशना दन्ता देशखादनमल्लकाः । राजदन्ती तु मध्यस्थापरिश्रेणिकौ कचित् ॥ ५८४ रसज्ञा रसना जिह्वा लोला तालु तु काकुदम् । सुधास्रवा घण्टिकाचलम्विका गलशुण्डिका ।। ५८५ ५७७ ५७९ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६ १. पण्डुरपि. २. चिहुरा:. ३. शब्दग्रहोप. ४. विलोचनमपि. ५. तारकापि. ६. तेन 'भ्रकुटि:' इत्यादयः. ७. द्रादिकापि For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । कंधग धमनिर्जीवा शिरोधिश्च शिरोधरा । सा त्रिरेखा कम्युग्रीवावटुर्वाटा कृकाटिका ॥ ५८६ कृकस्तु कंधगमध्यं कृकपाची तु वीतनौ । ग्रीवाधमन्यौ प्राग्नीले पश्चान्मन्ये कलम्बिके ॥ ५८७ गलो निगरणः कण्ठः काकलकस्तु तन्मणिः । अंसो भुजशिरः स्कन्धो जत्रु संधिरुरोंऽसगः ॥५८८ भुजो बाहुः प्रवेष्टो दोर्बाहाथ भुजकोटरः । दोर्मूलं खण्डिकः कक्षा पार्श्व स्यादेतयोरधः ॥ ५८९ कफोणिस्तु भुजामध्यं कफणि: कूपरश्च सः । अधस्तस्या मणिबन्धात्प्रकोष्टः स्यात्कलाचिका ।। ५९० प्रगण्डः कूपरासान्तः पञ्चशाखः शयःशमः । हस्तः पाणिः करस्यादौ मणिबन्धो मणिश्च सः ॥ ५९? करभोऽस्मादाकनिष्टं करशाखाङ्गुली समे । अङ्गुरिश्चाङ्गुलोऽङ्गुष्टस्तर्जनी तु प्रदेशिनी ॥ ५९२ ज्येष्टा तु मध्यमा मध्या सावित्री स्यादनामिका । कनीनिका तु कनिष्ठावहस्तो हस्तपृष्टतः ।। ५९३ कामाशो महाराज: करजो नखरो नखः । करशूकोभुजाकण्टः पुनर्भवपुनर्नवौ ॥ ५९४ प्रदेशिन्यादिभिः सार्धमङ्गुष्ठं वितते सति । प्रादेशतालगोकर्णवितस्तयो यथाक्रमम् ॥ ५९५ प्रसारिताङ्गुलौ पाणौ चपेटः प्रतलस्तलः । प्रहस्तस्तालिकस्तालः सिंहतालस्तु तौ युतौ ॥ ५९६ संपिण्डिताङ्गुलिः पाणिर्मुष्टिर्मुस्तुर्मुचुट्यपि । संग्राहश्वार्धमुष्टिः स्यात्खटकः कुन्जितः पुनः ॥ ५९७ पाणिः प्रसृतः प्रसूतिस्तौ युताव अलि: पुनः । प्रसृते तु जलाधारे गण्डूषश्शुलुकश्चलुः ॥ ५९८ हस्तः प्रामाणिको मध्येमध्यमाङ्गुलिकृर्परम् । बद्धमुष्टिरसौ रनिररनिनिष्कनिष्टिकः।। ५९९ व्यामव्यायामन्यग्रोधास्तिर्यग्बाह प्रसारितौ । ऊर्वीकृतभुजापाणिनरमानं तु पौरुषम् ॥ ६०० दन्नद्वयसमात्रास्तु जान्वादेस्तत्तदुन्मिते । रीढकः पृष्टवंशः स्यात्पृष्ठं तु चरमं तनोः ।। ६०१ पूर्वभाग उपस्थोऽङ्कः क्रोड उत्सङ्ग इत्यपि । कोडोरो हृदयस्थानं वक्षो वत्सो भुजान्तरम् ॥ ६०२ स्तनान्तरं हृवृदयं स्तनौ कुचौ पयोधरौ । उरोजौ च चूचकं तु स्तनान्तशिखामुखाः॥ ६०३ तुन्दं तुन्दिगर्भकुक्षी पिचण्डो जठगेदरे । कालखण्डं कालखझं कालेयं कालकं यकृत् ॥ ६०४ दक्षिणे तिलकं क्लोम वामे तु रक्तफेनजः । पुष्पस: स्थादथ प्लीहा गुल्मोऽत्रं तु पुरीतति ॥ ६०५ रोमावली रोमलता नाभिः स्यात्तुन्दकृपिका । नाभेरथो मृत्रपुटं वस्तिमूत्राशयोऽपि च ॥ ६०६ मध्योऽवलग्नं विलग्नं मध्यमोऽथ कटः कटिः । श्रोणिः कलत्रं कटीरंकाञ्चीपदं ककुद्मती ॥ ६०७ नितम्बारोही स्वीकट्याः पश्चाज्जधनमश्रतः । त्रिकं वंशाधस्तत्पार्श्वकपको तु कुकुन्दरे ॥ ६०८ पतौ स्फिजौ कटिप्रोथौ वराङ्गं तु च्युतियुलि: । भगोऽपत्यपथो योनिः स्मगन्मन्दिरकृपिके ॥ ६०९ स्त्रीचिह्नमथ पुंश्चिह्न मेहनं शेपशेपसी । शिश्नं मेढ़ः कामलता लिङ्गं च द्वयमप्यदः ॥ ६१० गुह्यप्रजननोपस्था गुह्यमध्यं गुलो मणिः । सीवनी तदधःसूत्रं स्याँदण्डं पेलमण्डकः ॥ ६११ मुष्कोऽण्डकोषो वृषणोऽपानं पायुर्मुदं च्युतिः । अधोमर्म शकृहारं त्रिबलीकवुली अपि ॥ ६१२ विटपं तु महावीज्यमन्तरा मुष्कवङ्गणम । ऊरुसंधिर्वणः स्यात्सक्भ्यूरुस्तस्य पर्व तु ॥ ६१३ जानुनलकीलोऽष्टीवान्पश्चाद्भागोऽस्य मन्दिरः । कपोली खग्रिमो जङ्घा प्रसूता नलकिन्यपि ॥६१४ प्रतिजङ्घा त्वग्रजङ्घा पिण्डिका तु पिचण्डिका । गुल्फस्तु चरणग्रन्थिqटिको वुण्टको घुटः ॥ ६१५ चरणः क्रमणः पादः पदंहिश्चलनः क्रमः । पादमूलं गोहिरं स्यात्पाणिस्तु घुटयोरधः ॥ ६१६ पादाग्रं प्रपदं सिप त्वङ्गुष्टाङ्गुलिमध्यतः । कूच क्षिप्रस्योपयहिस्कन्धः कृर्चशिरः समे ॥ ६१७ ___१. कुर्परोऽपि. २. संहताल इत्यपि. ३. चलुकोऽपि. ४. यौगिकत्वादुरसिजवक्षोजादयः. ५. स्तनशब्दस्य वृ. न्तादिभिरन्वयः. ६. तेन स्मरमन्दिरं, स्मरकापका. ७. आण्डोऽपि. ८. पेलकोऽपि. ९, अभिरपि. For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : ३ मर्यकाण्डः । ६२३ ६२४ ६२९ ६३० तलहृदयं तु तलं मध्ये पादतलस्य तत् । तिलकः कालकः पिल्लुडुलस्तिलकालकः ॥ रसासृङ्मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्राणि धातवः । सप्तैव दश वैकेषां गेमत्वक्स्नायुभिः सह ॥ रस आहारतेजोऽग्निसंभवः पड़सासवः । आत्रेयोऽसृकरो धातुमूलमहापरः ॥ रक्तं रुधिरमाग्नेयं विस्रं तेजोभवं रसात् । शोणितं लोहितमसुक्वासिष्ठं प्राणदासुरे || क्षतजं मांसकार्यत्रं मांसं पललजाङ्गले । रेक्तात्तेजोभवे कव्यं काश्यपं तरसामिषे ॥ मेदस्कृपिशितं की पलं पेश्यस्तु तल्लताः । बुक्का हृद्धृदयं वृक्का सुरसं च तदग्रिमम् ॥ शुष्कं वल्लूरमुत्ततं पूयष्ये पुनः समे । मेदोऽस्थिकृपा मांसात्तेजोजे गौतमं वसा ॥ गोदं तु मस्तकस्नेहो मस्तिष्को मस्तुलुङ्गकः । अस्थि कुल्यं भारद्वाजं मेदस्तेजश्च मज्जकृत् ।। ६२५ मांसपित्तं वदयितं कर्करो देहधारकम् । मेदोजं कीकसं सारं करोटिः शिरसोऽस्थनि ॥ ६२६ कपालकरौ तुल्यौ पृष्टस्यास्थि कैशेरुका । शाखाम्थनि स्यान्नलकं पार्श्वास्थि वङ्गिके ॥ ६२७ शरीरास्थि करङ्गः स्यात्कङ्कालस्थिपञ्जरः । मज्जा तु कौशिकः शुक्रकरोऽस्थः स्नेहसंभवौ ||६२८ शुक्रं रेतो बलं वीर्य वीजं मज्जसमुद्भवम् । आनन्दप्रभवं पुंस्त्वमिन्द्रियं किट्टवर्जितम् ॥ पौरुषं प्रधानधातुर्लोम रोम तनूरुहम् । वक्छविश्छादनी कृत्तिञ्चर्माजिनमसृग्धरा ॥ वनसा तु नसास्नायुनयो धमनयः शिराः । कण्डरा तु महास्नायुर्मलं कि तदक्षिणम् || ६३१ दूषीका दूषिका जैहूं कुलुकं पिपिका पुनः । दन्त्यं कार्णे तु पिञ्जूषः शिङ्खाणो प्राणसंभवम् ।। ६३२ सृणीका स्यन्दिनी लालास्यासवः कफकूर्चिका । मूत्रं बस्तिमलं मेहः प्रस्रावो नृजलं स्रवः || ६३३ पुष्पिका तु लिङ्गमविडिष्टावस्करः शकृत् । गूथं पुरीषं शमलोच्चारौ वर्चस्कवर्चसी ॥ वेषो नेपथ्यमाकल्पः परिकर्माङ्गसंस्क्रिया । उद्वर्तनमुत्सादनमङ्गरागो विलेपनम् || चर्चिक्यं समालभनं चर्चा स्यान्मण्डनं पुनः । प्रसाधनं प्रतिकर्म माष्टिः स्यान्मार्जना मृजा ॥ ६३६ वासयोगस्तु चूर्ण स्थापिष्ट्रातः पदवासकः । गन्धमाल्यादिना यस्तु संस्कारः सोऽधिवासनम् || ६३७ निर्वेश उपभोगः स्यात्स्नानं सवनभावः । कर्पूरागुरुक कोलकस्तूरीचन्दनद्रवैः ॥ स्याद्यक्षकर्दमो मिश्रैर्वर्तिर्गात्रानुलेपनी । चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमैस्तु चतुःसमम् ।। अरु राजा लोहं कृमिजवंशिके । अनार्यजं जोङ्गिकं च मङ्गल्यामल्लिगन्धि यत् ॥ कालागुरुः कालतुण्डः श्रीखण्डो गेहणद्रुमः । गन्धसारो मलयजश्चन्दने हरिचन्दने ॥ तैलपर्णिकगोशीर्षौ पत्राङ्गं रक्तचन्दनम् । कुचन्दनं ताम्रसारं रञ्जनं तिलपर्णिका ॥ जातिकोशं जातिफलं कर्पूरो हिमवालुका | घनसारः सिताभ्रश्च चन्द्रोऽथ मृगनाभिजा ॥। ६४३ मृगनाभिर्मृगमदः कस्तूरी गन्धधूल्यपि । कश्मीरजन्म सृणं वर्ण लोहितचन्दनम् ॥ कुङ्कुमं शिखं कालेयजागुडे । संकोचपिशुनं रक्तं धीरं पीतनदीपने | लवङ्गं देवकुसुमं श्रीसंज्ञमथ कोलकम् । ककोलकं कोशफलं कोलीयकं तु जापकम् ॥ यक्ष धूपो बहुरूपः सालवेष्टोऽग्निवल्लभः । सर्जमणिः सर्जरसो रालः सर्वरसोऽपि च ॥ ६३४ ६३५ ६३८ ६३९ ६४० ६४१ ६४२ ६४४ ६४५ ६४६ ६४७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only २७ ६१८ ६१९ ६२० ६२१ ६२२ १. तेन घनधातु:, मूलधातुः, महाधातुः २ तेन रसतेज:, रसभवम्. ३. तेन रक्ततेजः, रक्तभवम्. ४. तेन मांसतेजः, मांसत्रम. ५. कशारुका. ६. तेन अस्थिस्नेहः, अस्थिसंभवः ७ नाडिरपि ८ अशुचि च. ९. आलावोऽपि १०. बाह्लिकमपि ११. संकोचं पिशुनम् इति नामद्वयमपि १२. कालानुसार्यमपि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । धपो वृक्षात्कृत्रिमाज रुष्कः मिल्हपिण्डकौ । पायमस्तु वृक्षधूपः श्रीवास: मग्लद्रवः॥ ६४८ म्यानात्स्थानान्तरं गच्छन्धूपो गन्धपिशाचिका । स्थासकन्तु हस्तबिम्बमलंकारस्तु भूषणम् ॥६४९ परिष्काराभरणे च चूडामणिः शिरोमणिः । नायकस्तरलो हागन्तर्मणिमुकुटं पुनः ॥ ६५० मौलि: किरीटकोटीग्मुष्णीपं पुष्पदाम तु । मूनि माल्यं माला स्रक्वगर्भकः केशमध्यगम् ॥ ६५१ प्रभ्रष्टकं शिग्वालम्बि पुगेन्यस्तं लैंलामकम् । तिर्यग्वक्षसि वैकक्षं प्रालम्बमृजुलम्बि यत् ॥ ६५२ मंदर्भो रचना गुम्फ: सन्धनं ग्रन्थनं समाः । तिलके तमालपत्रचिंत्रपुण्ड्रविशेषकाः ॥ ६५३ आपीडशेवगेत्तंसाः वर्तमाः शिरसः सजि । उत्तरौ कर्णपूरेऽपि पत्रलेखा तु पंत्रतः॥ ६५४ भङ्गिवल्लीलताङ्गुल्यः पत्रपाश्या ललाटिका । वालपाश्या पारितथ्याकर्णिका कर्णभूषणम् ॥ ६५५ ताडस्तु ताडपत्रं कुण्टलं कर्णवेष्टकः । उत्क्षिप्तिका तु कर्णान्दुर्वालीका कर्णपृष्ठगा ॥ ६५६ प्रैवेयकं कण्टभूषा लम्बमाना ललम्बिका । प्रालम्विका कृता हेनोरःसूत्रिका तु मौक्तिकैः ॥ ६५७ हागे मुक्तातःप्रालम्बम्रकलापावलीलता । देवच्छन्दः शतं साष्टं विन्द्रच्छन्दःसहस्रकम् ॥ ६५८ तदर्धविजयच्छन्दो हारस्त्वष्टोत्तरं शतम् । अर्धे रश्मिकलापोऽस्य द्वादश वर्धमाणवः ॥ ६५९ द्विादशार्धगुच्छः म्यात्पञ्च हारफलं लताः । अर्धहारश्चतुःषष्टिर्गुच्छमाणवमन्दराः ॥ अपि गोस्तनगोपुच्छावर्षमय यथोत्तरम् । इति हारायष्टिभेदादेकावल्येकयष्टिका ॥ कण्टिकाप्यथ नक्षत्रमाला तत्संख्यमौक्तिकैः । केयूरमङ्गदं वाहुभूषाथ करभूषणम् ॥ ६६२ कटको वलयं पारिहार्यावापौ तु कङ्कणम् । हस्तसूत्रं प्रतिसर ऊर्मिका बङ्गुलीयकम् ॥ ६६३ माक्षराङ्गलिमुद्रा सा कटिसूत्रं तु मेखला । कलापो रशना सा रसनं काञ्ची च सप्तकी ॥ ६६४ मा शृङ्खलं पुंस्कटीस्था किंकिणी क्षुद्रघण्टिका । नूपुरं तु तुलाकोटिः पादत: कटकाङ्गदे ॥ ६६५ मञ्जीरं हंसकं शिजिन्यंशुकं वस्त्रमम्बरम् । सिचयो वसनं चीराच्छादौ सिक्चेलवाससी ॥ ६६६ पटः प्रोतोऽश्चलोऽस्यान्तो वर्तिर्वस्तिश्च तद्दशाः । पत्रोर्ण धौतकौशेयमुष्णीषो मूर्धवेष्टनम् ॥ ६६७ नत्स्यादुद्गमनीयं यद्वौनयोर्वस्त्रयोर्युगम् । त्वक्फलकृमिरोमभ्यः संभवत्वाच्चतुर्विधम् ॥ ६६८ सौमकासकौशेयराववादिविभेदतः । क्षौमं दुकूलं दुगूलं स्यात्कार्पासं तु बादरम् ॥ ६६९ कौशेयं कृमिकोशोत्यं गवं मृगरोमजम । कम्बलः पुनरुर्णायुराविकौरभ्ररल्लकाः ॥ नवं वासोऽनाहतं स्यात्तत्रकं निष्प्रवाणि च । प्रच्छादनं प्रावरणं संव्यानं चोत्तरीयकम् ॥ ६७१ वैकक्षे प्रावागेत्तरासङ्गो वृहतिकापि च । वराशिः स्थूलशाट: स्यात्परिधानं वधोंशुकम् ॥ ६७२ अन्तरीयं निवसनमुपसंव्यानमित्यपि । तदन्थिरुञ्चयो नीवीवरख्योरुकांशुकम् ॥ ६७३ चण्डातकं चलनकं चलनी वितरस्त्रियाः । चोलः कक्षुलिका कूर्पासकोङ्गिका च कञ्चके ॥ ६७४ शाटी चोट्यथ नीशारो हिमवातापहांशुके । कच्छा कच्छाटिका कक्षा परिधानापराञ्चले ॥ ६७५ कक्षापटस्तु कौपीनं समौ नक्तककर्पटौ । निचोलः प्रच्छदपटो निचुलश्चोत्तरच्छदे ॥ ६७६ उत्सवेषु सुहृद्भिर्यदलादाकृष्य गृह्यते । वस्त्रमाल्यादि तत्पूर्णपात्रं पूर्णानकं च तत् ॥ ६७७ तत्तु म्यादाप्रपदीनं व्याप्नोस्याप्रपदं हि यत् । चीवरं भिक्षुसंघाटी जीर्णवस्त्रं पटञ्चरम् ॥ ६७८ १. तेन वृक्षधूपः, कृत्रिमधूपः. २. यावनोऽपि. ३. चूडारत्नशिरोरत्ने अपि. ४. ललाम नान्तमदन्तं च. ५. चित्रकमपि. ६. उत्तंसावतंसी. ७. तेनत्पत्रभङ्गिः, पत्रवल्लिः, पत्राङ्गलिः; एवं पत्रवल्लरी-पत्रमञ्जरीत्यादयोऽपि. ८. मुक्ताशब्दात्परं प्रालम्बादिलतान्ताः. ९. परिहार्यमपि. १०. कङ्कणीत्येके. ११, पादकटकम्, पादाङ्गदम्. For Private and Personal Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मर्त्यकाण्डः । शाणी गोणी छिद्रवस्त्रे जलार्दा क्लिन्नवाससि । पर्यस्तिकापरिकरः पर्यश्वावसक्थिका ॥ ६७९. कुथे वर्णपरिस्तोमप्रवेणीनवतास्तराः । अपटी काण्डपटः स्यात्प्रतिसीरा जैवन्यपि ॥ ६८० तिरस्करिण्यथोल्लोचो वितानं कदकोऽपि च । चन्द्रोदये स्थुलं दृष्ये केणिका पटकुट्यपि ॥ ६८१ गुणलयनिकायां स्यात्मंस्तरसस्तरौ समौ । तल्पं शय्या शयनीयं शयनं तलिनं च तत् ॥ ६८२ मञ्चमञ्चकपर्यङ्कपल्यङ्काः ग्वट्या समाः । उच्छीर्षकमुपादानवौंपाले पतद्ग्रहः ॥ ६८३ प्रतिग्राहे मुकुरात्मदर्शादर्शास्तु दर्पणे । स्याद्वेत्रासनमासन्दी विष्टर: पीटर्मासनम् ॥ ६८४ कमिपुभोजनाच्छादावौशिरंशयनाशने । लाक्षा द्रुमामयो राक्षा रङ्गमाता पलंकषा॥ १८५ जतु क्षतन्ना कृमिजा यावालक्तौ तु तद्रसः । अञ्जनं कज्जलं दीपः प्रदीपः कज्जलध्वजः ॥ ६८६ स्नेहप्रियो गृहमणिर्दशाकर्षो दशेन्धनः । व्यजनं तालवृन्तं तद्धवित्रं मृगचर्मणा ॥ ६८७ आलावत तु वस्त्रस्य कङ्कत: केशमार्जनम् । प्रमाधनश्वाथ बालक्रीडनके गुडो गिरिः॥ ६८८ गिरियको गिरिगुडः समौ कन्दुकगेन्दुको । राजा रापृथिवीशक्रमध्यलोकेशभूभृतः ॥ ६८९ महीक्षित्पार्थिवो मूर्धाभिषिक्तो भूप्रजानृपः । मध्यमो मण्डलाधीशः स सम्राट शास्ति यो नृपान ६९० यः मर्वमण्डलस्येशो राजसूयं च योऽजयत । चक्रवर्ती सार्वभौमस्ते तु द्वादश भारते ॥ ६९१ आर्षभिर्भरतस्तत्र मगरस्तु सुमित्रभूः । मघवा वैजयिरधाश्वसेननृपनन्दनः ॥ मनत्कुमारोऽथ शान्तिः कुन्थुरगे जिना अपि । सुभूमस्तु कार्तवीर्य पद्मः पद्मोत्तरात्मजः ।। ६९३ हरिषेणो हरिसुतो जयो विजयनन्दनः । ब्रह्मसूनुर्ब्रह्मदत्तः सर्वेऽपीक्ष्वाकुवंशजाः ॥ ६९४ प्रजापत्यस्त्रिपृष्ठोऽथ द्विपृष्टो ब्रह्मसंभवः । स्वयंभू रुद्रतनयः सोमभूः पुरुषोत्तमः ॥ शैवः पुरुषसिंहोऽथ महाशिर:समुद्भवः । स्यात्पुरुषपुण्डरीको दत्तोऽग्निसिंहनन्दनः ॥ ६९६ नारायणो दाशरथिः कृष्णस्तु वसुदेवभूः । वासुदेवा अमी कृष्णा नव शुक्ला बलास्वमी ॥ ६९७ अचलो विजयो भद्रः सुप्रभश्च सुदर्शनः । आनन्दो नन्दनः पद्मो रामो विष्णुद्विषस्त्वमी ॥ ६९८ अश्वग्रीवस्तारकश्च मेरको मधुरेव च । निशुम्भवलिप्रल्हादलङ्केशमगधेश्वराः ॥ ६९९ जिनैः सह त्रिषष्टिः स्युः शलाकापुरुषा अमी । आदिराजः पृथुर्वैन्यो मांधाता युवनाश्वजः ॥ ७०० धुन्धुमारः कुवलाश्वो हरिश्चन्द्रस्त्रिशङ्कुजः । पुरूरवा वौध ऐल उर्वशीरमणश्च सः॥ ७०१ दौष्यन्तिर्भरतः 'मदमः शकुन्तलात्मजः । हैहयस्तु कार्तवीर्यो दो:सहन्त्रभृदर्जुनः ॥ ७०२ कौशल्यानन्दनो दाशरथी रामोऽस्य तु प्रिया । वैदेही मैथिली सीता जानकी धरणीसुता ॥ ७०३ गमपुत्रौ कुशलवावेकयोत्तया कुशीलवौ । सौमित्रिर्लक्ष्मणो वाली वालिरिन्द्रसुतश्च सः ॥ ७०४ आदित्यसूनुः सुग्रीवो हनुमान्वज्रकङ्कटः । मारुतिः केसरिसुत आञ्जनेयोऽर्जुनध्वजः॥ ७०५ पौलस्त्यो गवणो रक्षो लड्देशो देशकंधरः । रावणिः शक्रजिन्मेघनादो मन्दोदरीसुतः ॥ ७०६ अजातशत्रुः शल्यारिधर्मपुत्रो युधिष्ठिरः । कङ्कोऽजमीढो भीमस्तु मरुत्पुत्रो वृकोदरः ॥ ७०७ १. पल्यकोऽपि. २. यमनीत्यपि. ३. प्रस्तरोऽपि. ४. तेन उपधानम्, उपबहः. ५. प्रतिग्रहोऽपि. ६. पतद्गाहोऽपि. ७. गिरिकोऽपि. ८. गिरीयकोऽपि. ९. गेण्डुकोऽपि. १०. मूर्धावसिक्तोऽपि. ११. 'प'शब्दस्य 'भू'प्रभृतिनान्वयः; यौगिकत्वात् भूपालः, लोकपालः, नरपालः, इत्यादयः. १२. सर्वदमनोऽपि. १३. सुग्रीवाग्रजोऽपि. १४. हनूमानपि. १५. 'ईश'शब्दस्य रक्षसाप्यन्वयः; यौगिकत्वात् राक्षसेश:, लङ्कापतिः. १६. दशास्य-दशशिरोदशकण्ठा अपि. For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः । ७०८ ७१२ ७१३ ७१५ ७१६ ७१७ किर्मीरकीचकबकहिडम्वानां निसूदनः | अर्जुनः फाल्गुनः पार्थः सव्यसाची धनंजयः || राधावेधी किरिन्द्रिर्जिष्णुः श्वेतयो नरः । वृहन्नलो गुडाकेशः सुभद्रेशः कपिध्वजः ॥ ७०९ बीभत्सः कर्णजित्तस्य गाण्डीवं गाण्डिवं धनुः । पाञ्चाली द्रौपदी कृष्णा सैरंध्री नित्ययौवना || ७१० वेदिजा याज्ञसेनी च कर्णश्चम्पाधिपोऽङ्गराट् । राधासुतोऽर्कतनयः कालपृष्ठं तु तद्धनुः ॥ ७११ श्रेणिकस्तु भंभासारो हालः स्यात्सीतवाहनः । कुमारपाल चौलुक्यो राजर्षिः परमार्हतः || मृत मोक्ता धर्मात्मा मारिव्यसनवारकः । राजवीजी राजवंश्यो बीजवंश्यौ तु वंशजे || स्वाम्यमात्यः सुहृत्कोशो राष्ट्रदुर्गबलानि च । राज्याङ्गानि प्रकृतयः पौराणां श्रेणयोऽपि च ।। ७१४ तन्त्रं स्वराष्ट्रचिन्ता स्यादावापस्त्वरिचिन्तनम् | परिस्पन्दः परिकरः परिवारः परिग्रहः ॥ परिच्छदः परिबर्हस्तत्रोपकरणे अपि । राजशय्या महाशय्या भद्रासनं नृपासनम् ॥ सिंहासनं तु तद्वैमं छत्रमातपवारणम् । चामरं बालव्यजनं रोमगुच्छः प्रकीर्णकम् || स्थगी ताम्बूलकरङ्को भृङ्गारः कनकालुका | भद्रकुम्भः पूर्णकुम्भः पादपीठं पदासनम् ॥ अमात्यः सचिवो मत्री धीसखः सामवायिकः । नियोगी कर्मसचिव आयुक्तो व्याप्रतश्च सः ।। ७१९ द्रष्टा तु व्यवहाराणां प्राड्रिवाकोऽक्षदर्शकः । महामात्रः प्रधानानि पुरोधास्तु पुरोहितः ॥ ७२० सौवस्तिकोऽथ द्वारस्थः क्षत्ता स्याद्वारपालकः । दौवारिकः प्रतीहारो वेत्रयुत्सारकदण्डिनः ॥ ७२१ रक्षिवर्गेऽनीकस्थः स्यादध्यक्षाधिकृतौ समौ । पौरोगवः सूदाध्यक्षः सूदस्वौदनिको गुणः ॥ ७२२ भक्तकार: सूपकारः सूपारालिकवल्लवाः । भौरिकः कनकाध्यक्षो रुप्याध्यक्षस्तु नैष्किकः ॥ ७२३ स्थानाध्यक्षः स्थानिकः स्याच्छुल्काध्यक्षस्तु शौल्किकः । शुल्कस्तु बट्टादिदेयं धर्माध्यक्षस्तु धार्मिकः ७२४ धर्माधिकरणी चाथ हट्टाध्यक्षोऽधिकर्मिकः । चतुरङ्गबलाध्यक्षः सेनानीर्दण्डनायकः || ७२५ स्थायुकोऽधिकृतो ग्रामे गोपो ग्रामेषु भूरिषु । स्यातामन्तःपुराध्यक्षेऽन्तर्वशिकावरोधिकौ ॥ ७२६ शुद्धान्तः स्यादन्तःपुरमवरोधोऽवरोधनम् । सौविदल्ला कञ्चुकिनः स्थापत्याः सौविदाश्च ते || ७२७ vodafor: at प्रतिपक्षः परो रिपुः । शात्रवः प्रत्यवस्थाता प्रत्यनीकोभियात्यरी ॥ ७१८ ७२८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दस्युः सपत्नोऽसनो विपक्ष द्वेषी द्विषन्वैर्यहितो जिघांसुः । दुर्हृत्रेः पथकपन्थिनौ द्वित्यर्थ्यमित्रावभिमायराती ॥ ७२९ ७३१ ७३२ वैरं विरोध विद्वेषो वयस्यः सवयाः सुहृत् । स्निग्धः सहचरो मित्रं सखा सख्यं तु सौहृदम् ॥ ७३० सौहार्द साप्तपदीनमैत्रयजर्याणि संगतम् । आनन्दनं त्वाप्रच्छनं स्यात्सभाजनमित्यपि ॥ विषयानन्तरो राजा शत्रुर्मित्रमतः परम् । उदासीनः परतरः पाणिग्राहस्तु पृष्ठतः ॥ अनुवृत्तिस्त्वनुरोध हेरिको गूढपूरुषः । प्रणिधिर्यथार्ह वर्णोऽवसर्पो मन्त्रविञ्चरः ॥ वार्तायनः स्पशश्चार आप्तप्रत्ययितौ समौ । सत्रिणि स्याद्गृहपतिर्दूत संदेशहारकः ॥ 1 संधिविग्रहयानान्यासनद्वैधाश्रया अपि । षड्गुणाः शक्तयस्तिस्रः प्रभुत्वोत्साहमन्त्रजाः ॥ सामदानभेददण्डा उपायाः साम सान्त्वनम् | उपजापः पुनर्भेदो दण्डः स्यात्साहसं दमः || ७३६ ७३३ ७३४ ७३५ १. 'निसूदन 'पदस्य किर्मीरेणाप्यन्वयः; यौगिकत्वात् किर्मारारित्यादयोऽपि २. बीभत्सुरपि ३. यौगिकत्वात् कर्णारिरित्यादयोऽपि. ४. यौगिकत्वात् राधेय इत्यादयोऽपि ५. सालवाहनोऽपि ६. परिजनोऽपि. ७. ८ङ्कपतिरपि ८. आन्तःपुरिकोऽपि. ९. तेन परिपन्थक; परिपन्थी. For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मकाण्डः । ३१ 1 ७३८ ७३९ ७४९ ७४२ प्राभृतं ढौकनं लम्बोत्कोचः कौशलिकामिषे । उपाञ्चारः प्रदानं दा हारो ग्राह्यायने अपि || ७३७ मायोपेक्षेन्द्रजालानि क्षुद्रेपाया इमे त्रयः । मृगयाक्षः स्त्रियः पानं वाक्पारुष्यार्थदूषणे ॥ दण्डपारुष्यमित्येतद्धेयं व्यसनसप्तकम् । पौरुषं विक्रमः शौर्य शौटीर्यं च पराक्रमः ॥ यत्कोषदण्डजं तेजः स प्रभावः प्रतापवत् । भिया धर्मार्थकामैश्च परीक्षा या तु सोपधा ॥ ७४० तन्मन्त्राद्यषडक्षीणं यत्तृतीयाद्यगोचरः । रहस्यालोचनं मत्रो रहन्छन्नमुपह्वरम् ॥ विविक्तविजनैकान्तनिःशलाकानि केवलम् । गुह्ये रहस्यं न्यायस्तु देशरूपं समञ्जसम् ॥ कल्याौ नयो न्याय्यं तूचितं युक्तसांप्रते । लभ्यं प्राप्तं भजमानाभिनीतोपयिकानि च ॥ ७४३ प्रक्रिया त्वधिकारोऽथ मर्यादा धारणा स्थितिः । संस्थापराधस्तु मन्तुर्व्यलीकं विप्रियागसी || ७४४ बलिः करो भागधेयो द्विपाद्य द्विगुणो दमः । वाहिनी पृतना सेना बलं सैन्यमनीकिनी ॥ ७४५ कटकं ध्वजिनी तत्रं दण्डोऽनीकं पताकिनी । वरूथिनी चमूचक्रं स्कन्धावारोऽस्य तु स्थिति: ७४६ शिबिरं रचना तु स्याद्वयूहो दण्डादिको युधि । प्रत्यासारो व्यूहपाणिः सैन्यपृष्ठे प्रतिग्रहः ॥ ७४७ एकेभैकरथा त्र्यश्वा पत्ति: पञ्चपदातिका । सेना सेनामुखं गुल्मो वाहिनी प्रताना चमूः ॥ ७४८ अनिकिनी च पत्तेः स्यादिभ्याद्यैस्त्रिगुणैः क्रमात् । दशानि किन्येऽक्षौहिणी सज्जनं तूपरक्षणम् ॥७४९ वैजयन्ती पुनः केतुः पैंताका केतनं ध्वजः । अस्योच्चूलावचूलाख्यावूर्ध्वाधोमुखकूर्चकौ ॥ ७५० जो वाजी रथः पत्तिः सेनाङ्गं स्याच्चतुर्विधम् | युद्धार्थे चक्रवद्याने शताङ्गः स्यन्दनो रथः ॥ ७५१ क्रीडार्थः पुष्परथो देवार्थस्तु मरुद्रथः । योग्यो रथो वैनयिकोऽध्वरथः परियानिकः ॥ ७५२ कर्णीरथः प्रवहणं डयनं रथगर्भकः । अनस्तु शकटोऽथ स्याद्गत्रीकम्बलिवाह्यकम् ॥ अथ काम्बलवास्त्राद्यास्तैस्तैः परिवृते रथे । स पाण्डुकम्बली यः स्यात्संवीतः पाण्डुकम्बलैः ॥ ७६४ स तु द्वैपो वैयाघ्रश्च यो वृतो द्विपिचर्मणा । रथाङ्गं रथपादोऽरि चक्रं धारा पुनः प्रधिः ॥ ७५५ मरक्षाकी aण्याणी नाभिस्तु पिण्डिका । युगंधरं कूवरं स्याद्युगमीशान्तबन्धनम् ॥ ७५६ युगकीलकस्तु शम्या प्रासङ्गस्तु युगान्तरम् । अनुकर्षो दार्वधःस्थं धुर्वी यानमुखं च धूः ॥ ७५७ रथगुप्तिस्तु वरूथ रथाङ्गानि त्वपस्कराः । शिविका याप्ययानेऽथ दोला प्रेङ्खादिका भवेत् || ७५८ वैनीतकं परस्परावाहनं शिविकादिकम् । यानं युग्यं पत्रं वाह्यं वह्यं वाहनधोरणे ॥ ७५९ नियन्ता प्राजिता यन्ता सूतः सव्येष्ठसारथी । दक्षिणस्थप्रचेतारौ क्षत्ता रथकुटुम्बिकः || रथारोहिणि तु रथी रथिके रथिरो रथी । अश्वारोहे त्वश्ववारः सादी च तुरगी च सः ॥ हस्यारोहे सादियन्तृमहामातृनिषादिनः । आधोरणा हस्तिपकगजाजीवेभपालकाः || योद्धारश्च भटा योधाः सेनारक्षास्तु सैनिकाः । सेनायां ये समवेतास्ते सैन्याः सैनिका अपि ||७६३ ये सहस्रेण योद्धारस्ते साहस्राः सहस्रिणः । छायाकर छत्रधारः पताकी वैजयन्तिकः ॥ ७६४ परिधिस्थः परिचर आमुक्तः प्रतिमुक्तवत् । अपिनद्धः पिनद्धोऽथ संनद्धो व्यूढकङ्कटः ॥ ७६५ दंशितो वैर्मितः सज्जः संनाहो वर्म कङ्कटः । जगरः कवचं देशस्तनुत्रं माठ्युरछदः ॥ निचोलकः स्यात्कूर्पासो वारवाणश्च कशुकः । सारसनं त्वधिकाङ्गहृदि धार्यं सकञ्जुकैः ॥ ७६७ शिरखाणे सु शीर्ष शिरस्कं शीर्षकं च तत् । नागोदमुदरत्राणं जङ्गात्राणं तु मत्कुणम् || ७६८ ७५३ ७६० ७६१ ७६२ ७६६ १. तेन उपचारः, उपप्रदानम, उपदा, उपहारः, उपग्राह्यः, उपापनम्. २. शिविरमित्यन्ये ३. पटाकापि. ४. कवचितोऽपि. ५. तनुत्राणमपि ६. अधियाङ्गमित्येके धियाङ्गमित्यन्ये, ७. खोलमपि, For Private and Personal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२ अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः | ७७० ७७२ ७७३ बाहुवा बाहुलं स्याज्जालिका वङ्गरक्षणी । जालप्रायायसी स्यादायुधीयः शत्रजीविनि ॥ ७६९ काण्डष्टष्टायुधिकौ च तुल्यौ प्रासिक कौन्तिकौ । पारश्वधिकस्तु पारश्वधः परश्वधायुधः || स्युनैस्त्रिंशिक शाक्तीकयाष्ट्रीकारत त्तदायुधाः । तूणी धेनुर्भृद्धानुष्कः स्यात्काण्डीरस्तु काण्डवान् ||७७१, कृतहस्तः कृतपुङ्खः सुप्रयुक्तशरो हि यः । शीघ्रवेधी लघुहस्तोऽपराद्धेषुस्तु लक्ष्यतः ॥ च्युतेपुर्दृवेधी तु दुरापाल्यायुधं पुनः । हेतिः प्रहरणं शस्त्रमस्त्रं तच्च चतुर्विधम् || मुक्तं द्विधा पाणियत्रमुक्तं शक्तिशरादिकम् | अमुक्तं शस्त्रिकादि स्याद्यष्ट्याद्यं तु द्वयात्मकम् || ७७४ धनुश्चापोऽस्त्रमिष्वासः कोदण्डं धन्व कार्मुकम् । द्रुणासौ लस्तकोऽस्यान्तरयं त्वर्तिरटन्यपि ॥ ७७६ मात्र जीवा गुणो गन्या शिक्षा वाणासनं गुणा । शिञ्जिनी ज्या च गोधा तु तलं ज्याघातवारणम् ॥७७६ स्थानान्यालीढवैशाखप्रत्यालीढानि मण्डलम् । समपादं च वेध्यं तु लक्ष्यं लक्षं शरव्यकम् ॥ ७७७ वाणे guafaraौ खगगार्धपक्षौ काण्डाशुगप्रदरसायकपत्रवाहाः । पत्रीवजिह्मगशिलीमुखकङ्कपत्ररोपाः कलम्बशरमार्गणचित्रपुङ्खाः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रक्ष्वेडनः सर्वलोहो नाराच एषणश्च सः । निरस्तः प्रहिते बाणे विषाक्ते दिग्धलिप्तकौ ॥ बाणमुक्तिर्व्यवच्छेदो दीप्तिर्वेगस्य तीव्रता | क्षुरप्रतलार्धेन्दुतीरामुख्यास्तु तद्भिदः || पक्षी वाजः पत्रणा तन्यासः पुङ्खस्तु कर्तरी । तूणो निषङ्गस्तूणीर उपासङ्गः शराश्रयः ॥ शरधिः कलापोऽप्यथ चन्द्रहासः करवालनिस्त्रिंशकृपाणखङ्गाः । तरवारिकौक्षेयक मण्डलामा असिॠष्टिरिष्टी त्सरुरस्य मुष्टिः || प्राणः स्थाम तरः पराक्रमबलद्युन्नानि शौर्यौजसी शुष्मं शुष्म च शक्तिरूर्जसहसी युद्धं तु संख्यं कलिः | ७८२ ७८३ ७८४ ७८६ ७८७ प्रत्याकारः परीवारः कोशः खङ्गपिधानकम् । अड्डनं फलकं चर्म खेटकावरणस्राः || अस्य मुष्टिस्तु संग्राहः क्षुरी छुरी कृपाणिका । शरूयसेर्धेनुपुत्र्यौ च पत्रपालस्तु सायता ॥ दण्डो यष्टिश्च लगुडः स्यादीली करवालिका । भिन्दिपाले सृगः कुन्ते प्रासोऽथ द्रुघणो वनः ७८५ मुद्रः स्यात्कुठारस्तु परशुः पशुपर्श्वधौ । परश्वधः स्वधितिश्च परिघः परिघातनः ॥ सर्वला तोमरे शल्यं शङ्को शुलेविशीर्षकम् । शक्ति पट्टिशदुः स्फोटचक्राद्याः शस्त्रजातयः ॥ खुरली तु श्रमो योग्याभ्यासस्तद्भूः खलूरिका | सर्वाभिसारः सर्वोचः सर्वसंहननं समाः || ७८८ लोहाभिसारो दशम्यां विधिर्नोराजनात्परः । प्रस्थानं गमनं व्रज्याभिनिर्याणं प्रयाणकम् ॥ यात्राभिषेणनं तु स्यात्सेनयाभिगमो रिपौ । स्यात्सुहद्बलमासारः प्रचक्रं चलितं बलम् ॥ प्रसारस्तु प्रसरणं तृणकाष्टादिहेतवे । अभिक्रमो रणे यानमभीतस्य रिपून्प्रति ॥ अभ्यमित्रयोऽभ्यमित्रीयोऽभ्यमित्रीणोऽभ्यरि व्रजन् । स्यादुस्वानुरसिल उर्जरूयुर्जस्वलौ समौ ॥७९२ सांगीनों रणे साधुजेता जिष्णुश्च जित्वरः । जय्यो यः शक्यते जेतुं जेयो जेतव्यमात्रके ॥ ७९३ वैतालिका बोध करा अधिकाः सौखसुप्तिकाः । घाण्टिकाश्चाक्रिकाः सूतो बन्दी मङ्गलपाठकः ॥ ७९४ मग मगधः संशप्तका युद्धानिवर्तिनः । नग्नः स्तुतित्रतस्तस्य ग्रन्थो भोगावली भवेत् ॥ ७९६ ७८९ ७९० ७९१ ७७८ ७७९ ७८० ७८१ For Private and Personal Use Only १. निपङ्गीत्यपि. २. यौगिकत्वात् धनुर्धरः, धन्वी, धनुष्मानित्यादयः ३. धनूरपि. ४. स्फरकोऽपि. ५. असिधेनुः, असिपुत्री ६. तरवालिकेत्यन्ये ७, पलिघोऽपि ८. सौखशायनिक-सौखसुप्तिका पि. ९. ऊर्गपि. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३ मकाण्डः । संग्रामाहत्रसंप्रहारसमरा जन्यं युदायोधनं 'स्फोट : कलहो मृधं प्रहरणं संयद्रणो विग्रहः || इन्द्रं समाघातसमायाभिसंपात संमर्द समित्प्रघाताः । आस्कन्दनाजिप्रधनान्यनीकमभ्यागमत्र्य प्रविदारणं च ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३ For Private and Personal Use Only ७९६ ७९७ ७९८ ७९९ ८०० ८०२ ८०३ ८०४ ८०५ समुदायः समुदयो राटिः समितिसंगरौ । अभ्यामईः संपरायः समीकं सांपरायिकम् ॥ आक्रन्दः संयुगञ्चाथ नियुद्धं तद्भुजोद्भवम् । पटहाडम्बरौ तुल्यौ तुमुलं रणसंकुलम् ॥ नासीरं त्वप्रयानं स्यादवमर्दस्तु पीडनम् । प्रपातस्त्वभ्यवस्कन्दो धाट्यभ्यासादनं च सः ॥ तद्रात्रौ सौप्तिकं वीराशंसनं त्वाजिभीष्मभूः । नियुद्धभूरक्षवाटो मोहो मूर्छा च कश्मलम् ॥ ८०१ वृत्ते भाविनि वा युद्धे पानं स्याद्वीरपाणकम् । पलायनमपयानं संदावद्रवविद्रवाः ॥ अपक्रमः समुत्प्रेभ्यो द्रावोऽथ विजयो जयः । पराजयो रणे भङ्गो डमरे डिम्बविप्लव ॥ वैरनिर्यातनं वैरशुद्धिर्वैरप्रतिक्रिया | बलाकारस्तु प्रसभं हठोऽथ स्खलितं छलम् || परापर्यभितो भूतो जितो भग्नः पराजितः । पलायितस्तु नष्टः स्यादृहीतदिक्तिरोहितः ॥ जिताहवो जितकाशी प्रस्कन्नः पतितः समौ । चारः कारा गुप्तौ वन्द्यां ग्रहकः प्रापतो हः||८०६ चातुर्वर्ण्यं द्विजक्षत्रवैश्यशूद्रा नृणां भिदः । ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुरिति क्रमात् ॥ ८०७ चार आश्रमास्तत्र वर्णी स्याद्रह्मचारिणि । ज्येष्ठाश्रमीगृहमेवी गृहस्थः स्नातको गृही ॥ ८०८ वैखानसो वानप्रस्थो भिक्षुः सांन्यासिको यतिः । कर्मन्दी रक्तवसनः परिव्राजकतापसौ ॥ ८०९ पाराशरी पारिकाङ्क्षी मस्करी पारिरक्षकः । स्थाण्डिलः स्थण्डिलशायी यः शेते स्थण्डिले व्रतात् ॥ ८१० तपःक्लेशसहो दान्तः शान्तः श्रान्तो जितेन्द्रियः । अवदानं कर्म शुद्धं ब्राह्मणस्तु त्रयीमुखः ॥ ८११ भूदेवो वाडवो विप्रो व्यग्राभ्यां जातिजन्मजाः । वर्णज्येष्ठः सूत्रकण्ठः षट्कर्मा मुखसंभवः ॥ ८१२ वेदगर्भः शमीगर्भः सावित्रो मैत्र एव सः । वटुः पुनर्माणवको भिक्षा स्थानासमात्रकम् ॥ ८१३ उपनयस्तूपनयो बटूकरणमानयः । अमीन्धनं त्वग्निकार्यमग्नीना चाग्निकारिका || पालाशो दण्ड आषाढी व्रते राम्भस्तु वैणवः । वैल्वः सारस्वतो रौच्यः पैलवस्त्वौपरोधिकः ॥ ८१५ आवत्थस्तु जितनेमिरौदुम्बर उलूखलः । जटा सटा वृषी पीठं कुण्डिका तु कमण्डलुः ॥ ८१६ श्रोत्रियछान्दसो यष्टान्वादेष्टा स्यान्मखे व्रती । याजको यजमानश्च सोमयाजी तु दीक्षितः || ८१७ इज्याशीलो यायजूको यज्वा स्यादासुतीबलः । सोमपः सोमपीथी स्यात्स्थपतिर्गीः पतीष्टिकृत् ॥ ८१८ सर्ववेदास्तु सर्वस्वदक्षिणं यज्ञमिष्टवान् । यजुर्विदध्वर्युऋग्विद्धोतोद्वाता तु सामवित् ॥ यज्ञो यागः सवः सत्रं स्तोमो मन्युर्मखः क्रतुः । संस्तरः सप्ततन्तुश्च वितानं बर्हिरध्वरः ॥ अध्ययनं ब्रह्मयज्ञः स्याद्देवयज्ञ आहुतिः । होमो होत्रं वषट्कार: पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ॥ तच्छ्राद्धं पिण्डदानं च नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् । भूतयज्ञो बलिः पञ्च महायज्ञा भवन्त्यमी ॥ पौर्णमासञ्च दर्शश्च यज्ञौ पक्षान्तयोः पृथक् । सौमिकी दीक्षिणीयेष्टिर्दीक्षा तु व्रतसंग्रहः || ८२३ वृत्तिः सुगहना कुम्बा वेदी भूमिः परिष्कृता । स्थण्डिलं चत्वरं चान्या यूपः स्याद्यज्ञकीलकः ||८२४ पालो यूवकको यूपकणों घृतावनौ । यूपा प्रभागेस्यातर्मारणिर्निर्मन्थदारुणि ॥ ८१४ ८१९ ८२० ८२१ ८२२ ८२५ १. संस्फेटोऽपि. २. अवस्कन्दोऽपि. ३. द्रावशब्दस्य समादिभिरन्वयः, नशनमपि. ४. भूतशब्दस्य परादिभिरन्वयः ५. ग्रहशब्दः प्रादिनान्वेति ५. ग्रशब्दौ प्रत्येकं जात्यादिनान्वेति ५ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । स्युर्दक्षिणाहवनीयगार्हपत्यास्त्रयोऽग्नयः । इदमग्नित्रयं त्रेता प्रणीतः संस्कृतोऽनलः ॥ ८२६ ऋक्सामिधेनी धाय्या च समिदाधीयते यया । समिदिन्धनमेधेध्मतर्पणैधांसि भस्म तु ॥ ८२७ स्याभूतिर्भसितं रक्षा क्षारः पात्रं नुवादिकम् । सुवस्त्रुगधरा सोपभृज्जुह्नः पुनरुत्तरा ॥ ८२८ ध्रुवा तु सर्वसंज्ञार्थ यस्यामाज्यं निधीयते । योऽभिमन्य निहन्येत स स्यात्पशुरुपाकृतः ॥ ८२९ परम्पराकं शसनं प्रोक्षणं च वधो मखे । हिंसार्थ कर्माभिचारः स्याद्यज्ञाहै तु यज्ञियम् ॥ ८३० हविः सानाय्यमामिक्षा शतोष्णक्षीरगं दधि | क्षीरशरः पयस्या च तन्मस्तुनि तु वाजिनम् ॥८३१ हव्यं सुरेभ्यो दातव्यं पितृभ्यः कव्यमोदनम् । आये तु दधिमंयुक्ते पृषदाज्यं प्रपातकम् ॥ ८३२ दना तु मधुसंयुक्तं मधुपर्क महोदयः । हवित्री तु होमकुण्डं हव्यपाक: पुनश्चरुः ॥ ८३३ अमृतं यज्ञशेपे म्याद्वियसो भुक्तशेषके । यज्ञान्तोऽवभृथः पूर्व वाप्यादीष्टं मखक्रिया ॥ ८३४ इष्टापूर्त तदुभयं वहिर्मुष्टिस्तु विष्टरः । अग्निहोत्र्यग्निविञ्चाहिताग्नावधाग्निरक्षणम् ॥ ८३५ अभ्याधानमग्निहोत्रं दर्वी तु घृतलेखनी । होमाग्निस्तु महाज्वालो महावीरः प्रवर्गवत् ॥ ८३६ होमधूमस्तु निगणो होमभस्म तु वैष्टुतम् । उपस्पर्शत्वाचमनं घारसेकौ तु सेचनम् ॥ ८३७ ब्रह्मासनं ध्यानयोगासनेऽथ ब्रह्मवर्चसम् । वृत्ताध्ययनर्द्धिः पाटे स्याब्रह्माञ्जलिरञ्जलिः ॥ ८३८ पाटे तु मुग्वनिक्रान्ता विग्रुपो ब्रह्मविन्दवः । साकल्गवचनं पारायणं कल्पे विधिक्रमौ ॥ ८३९ मूलेऽङ्गष्टस्य स्याद्राहां तीर्थ कायं कनिष्ठयोः । पित्र्यं तर्जन्यङ्गुष्ठान्तर्दैवतं खङ्गुलीमुखे ॥ ८४० ब्रह्मत्वं तु ब्रह्मभूयं ब्रह्मसायुज्यमित्यपि । देवभूयादिकं तद्वदथोपाकरणं श्रुतेः ।। ८४१ संस्कारपूर्व ग्रहणं स्यात्स्वाध्यायः पुनर्जपः । औपवस्तं तूपवासः कृच्छं मांतपनादिकम् ॥ ८४२ प्रायः संन्यास्यनशने नियमः पुण्यकं ब्रतम् । चरित्रं चरिताचारी चारित्रचरणे अपि ॥ ८४३ वृत्तं शीलं च सर्वनोध्वंसिजप्येऽघमर्षणम् । समास्तु पादग्रहणाभिवादनोपसंग्रहाः ॥ ८४४ उपवीतं यज्ञमत्रं प्रोद्भते दक्षिणे करे । प्राचीनावीतमन्यस्मिन्निवीतं कण्ठलम्बितम् ॥ ८४५ प्राचेतसस्तु वाल्मीकिर्वल्मीककुशिनौ कविः । मैत्रावरुणवाल्मीको वेदव्यासस्तु माठरः ॥ ८४६ द्वैपायनः पाराशर्यः कानीनो बादरायणः । व्यासोऽस्याम्बा सत्यवती वासवी गन्धकालिका ॥८४७ योजनगन्धा दाशेयी शालङ्कायनजा च सा । जामदग्न्यस्तु रामः स्याद्भार्गवो रेणुकासुतः ॥ ८४८ नाग्दस्तु देवब्रह्मा पिशुनः कलिकारकः । वसिष्टोऽरुन्धतीजानिरक्षमाला वरुन्धती ॥ ८४९ त्रिशङ्कयाजी गाथेयो विश्वामित्रश्च कौशिकः । कुशारणिस्तु दुर्वासाः शतानन्दस्तु गौतमः ॥ ८५० याज्ञवल्क्यो ब्रह्मरात्रियोंगेशोऽप्यथ पाणिनौ । सालातुरीयदाक्षेयौ गोनर्दीये पतञ्जलिः ॥ ८५१ कात्यायनो वररुचिर्मेधाजिञ्च पुनर्वसुः । अथ व्याडिविन्ध्यवासी नन्दिनीतनयश्च सः ॥ ८५२ स्फोटायनस्तु कक्षीवान्पालकाप्ये करणुभः । वात्स्यायने मल्लनागः कौटल्यश्चणकात्मजः ॥ ८५३ द्रामिल: पक्षिलस्वामीविष्णुगुप्तोऽङ्गुलश्च सः । क्षततोऽवकीर्णी स्याद्रात्यः संस्कारवर्जितः ॥ ८५४ शिश्विदानः कृष्णकर्मा ब्रह्मवन्धुद्धिजोऽधमः । नष्टाग्निर्वीरहा जातिमात्रजीवी द्विजब्रुवः ॥ ८५५ धर्मध्वजी लिङ्गवृत्तिर्वेदहीनो निराकृतिः । वार्ताशी भोजनार्थ यो गोत्रादि वदति स्वकम् ॥ ८५६ उच्छिष्टभोजनो देवनैवेद्यबलिभोजनः । अजपस्वसदध्येता शाखारण्डोऽन्यशाखकः ॥ ८५७ १. शमनमित्यन्ये. २. आदिकविरपि. ३. मैत्रावरुणिरपि. ४. रैणुकेयोऽपि. ५. योगीशोऽपि. ६. कात्योऽपि. ७. चाणक्योऽपि. For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मकाण्डः | ३५ ८५८ ८५९ 1 ८६९ ८७० ८७३ शस्त्राजीवः काण्डपृष्टो गुरुहा नरकीलकः । मलो देवादिपूजायाम श्राद्धोऽथ मलिम्लुचः ॥ पञ्चयज्ञपरिभ्रष्टो निषिद्वैकरुचिः खरुः । सुप्ते यस्मिन्नुदेयर्कोऽस्तमेति च क्रमेण तौ ॥ अभ्युदिताभिनिर्मुक्तौ वीरोज्झो न जुहोति यः । अग्निहोत्रच्छाद्याच्यापरो वीरोपजीविकः ||८६० वीरविप्लावको जुडुद्धनैः शूद्रसमाहितैः । स्याद्वादवाद्यर्हितः स्याच्छून्यवादी तु सौगतः ॥ ८६९ नैयायिकस्त्वक्षपादो यौगः सांख्यस्तु कापिलः । वैशेषिकः स्यादौलूक्यो बार्हस्पत्यस्तु नास्तिकः ||८३२ चार्वाको लोकायतिकञ्चैते पडपि तार्किकाः । क्षत्रं तु क्षत्रियो राजा राजन्यो बाहुसंभवः ॥ ८६३ अर्या भूमिस्पृशो वैश्या ऊरव्या ऊरजा विशः । वाणिज्यं पाशुपाल्यं च कर्षणं चेति वृत्तयः ॥ ८६४ आजीवो जीवनं वार्ता जीविका वृत्तिवेतने । उच्छो धान्यकणादानं कणिशाद्यर्जनं शिलम् ||८६६ ऋतं तयमनृतं कृष्टिर्मृतं तु याचितम् । अयाचितं स्यादमृतं सेवावृत्तिः श्वजीविका ॥ ८६६ सत्यानृतं तु वाणिज्यं वणिज्या वाणिजो वणिक् । क्रयविक्रयिकपण्याजीवापणिकनैगमाः || ८६७ वैदेहः सार्थवाहश्च क्रायकः ऋषिकः क्रयी । क्रेयदे तु विपूर्वास्ते मूल्ये वस्त्रार्धवक्रयाः ॥ ८६८ मूलद्रव्यं परिपणो नीवी लाभोऽधिकं फलम् । परिदानं विनिमयो नैमेयः परिवर्तनम् ॥ व्यतिहारः परावर्ती वैमेयो विमयोऽपि च । निक्षेपोपनिधी न्यासे प्रतिदानं तदर्पणम् ॥ क्रेतव्यमात्रके क्रेयं क्रय्यं न्यस्तं ऋयाय यत् । पणितव्यं तु विक्रेयं पण्यं सत्यापनं पुनः || ८७१ सत्यंकारः सत्याकृतिस्तुल्यौ त्रिपणविक्रयौ । गण्यं गणेयं संख्येयं संख्या वेकादिका भवेत् ||८७२ यथोत्तरं दशगुणं भवेदेको दशामुतः । शतं सहस्रमयुतं लक्षप्रयुतकोदयः ॥ अर्बुदमजं खर्व च निखर्व च महाम्बुजम् । शङ्कुर्वार्धरन्त्यं मध्यं परार्ध चेति नामतः || असंख्यं द्वीपवायदि पुङ्गलात्माद्यनन्तकम् । सांयात्रिकः पोतवणिग्यानापात्रं वहित्रकम् ॥ वोहित्यं वहनं पोतः पोतवाही नियामकः । निर्यामः कर्णधारस्तु नाविको नौस्तु मङ्गिनी || ८७६ तरीतरिण्यौ वेडी च द्रोणी काष्ठाम्बुवाहिनी | नौकादण्डः क्षेपणी स्याद्गुणवृक्षस्तु कूपकः || ८७७ पोलिन्दास्त्वन्तरादण्डाः स्यान्मङ्गो मङ्गिनीशिरः । अभिस्तु काष्ठकुद्दालः सेकपात्रं तु सेचनम् ||८७८ केनिपातः कोटिपात्रमरित्रेऽथोडुपः लवः । कोलो भेलस्तरण्डश्च स्यात्तरपण्यमातरः ॥ वृद्ध्यजीव द्वैगुणिको वार्धुषिकः कुसीदकः । वार्धुषिश्व कुसीदार्थप्रयोगौ वृद्धिजीवने ॥ वृद्धिः कलान्तरमृणं तूद्धारः पर्युदञ्चनम् । याच्ञयाप्तं याचितकं परिवृत्त्यापलिकम् ॥ अधमर्णी ग्राहकः स्यादुत्तमर्णस्तु दायकः । प्रतिभूर्लनकः साक्षी स्थेय आधिस्तु बन्धकः || ८८२ तुलाद्यैः पौतवं मानं द्रुवयं कुडवादिभिः । पाय्यं हस्तादिभिस्तत्र स्याद्वुञ्जः पञ्च मापकः || ८८३ ते तु पोडश कक्षः पलं कर्षचतुष्टयम् । त्रिस्तः सुवर्णो हेनोऽक्षे कुरुविस्तस्तु तत्पले ॥ तुला पलशतं तासां विंशत्या भार आचितः । शाकटः शाकटीन शलाटस्ते दशाचितः ॥ चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः प्रस्थैश्चतुर्भिराढकः । चतुर्भिराढकै द्रोणः खारी षोडशभिश्च तैः ॥ चतुर्विशत्यङ्गुलानां हस्तो दण्डश्चतुष्करः । तत्सहस्रं तु गव्यूतं क्रोशस्तौ द्वौ तु गोरुतम् ॥ गव्या गन्तब्यूती चतुष्कोशं तु योजनम् । पाशुपाल्यं जीववृत्तिगमान्गोमी गैवीश्वरे ॥ ८८८ गोपाले गोधुगाभीर गोपगोसंख्यवहवाः । गोविन्दोऽधिकृतो गोषु जाबालस्वजजीविकः ॥ ८७४ ८७५ ८७९ ८८० ८८५. ८८४ ८८५ ८८६ ८८७ ८८९ १. अनेकान्तवाद्यपि, २. जैनोऽपि ३. बौद्धोऽपि ४ लौकावितिकोऽपि ५. प्रापणिकोऽपि ६. गवेश्वरोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । कुटुम्बी कर्षकः क्षेत्री हली कृषिककार्षिकौ । कृषीवलोऽपि जित्या तु हलिः सीरस्तु लाङ्गलम् ॥८९० गोदारणं हलमीषासीते तद्दण्डपद्धती । निरीषे कुटकं फाले कृषकः कुशिकः फलम् ॥ ८९१ दानं लवित्रं तन्मुष्टौ वण्टो मयं समीकृतौ । गोदारणं तु कुद्दालः खनित्रं त्ववदारणम् ॥ ८९२ प्रतोदस्तु प्रवयणं प्राजनं तोत्रतोदने । योत्रं तु योक्रमाबद्धः कोटिशो लोष्टभेदनः ॥ ८९३ मेधिर्मेथिः खले वाली खले गोवन्धदारु यत् । शूद्रान्त्यवर्णी वृषलः पद्यः पज्जो जघन्यजः ।।८९४ ते तु मूर्धाभिषिक्ताद्या रथकृन्मिश्रजातयः । क्षत्रियायां द्विजान्मूर्धाभिषिक्तो विस्त्रियां पुनः ॥८९५ अम्बष्टोऽथ पारशवनिषादौ शूद्रयोषिति । क्षत्रान्माहिष्यो वैश्यायामुग्रस्तु वृषलस्त्रियाम् ॥ ८९६ वैश्यात्तु करणः शूद्रात्त्वायोगवो विशः स्त्रियाम् । क्षत्रियायां पुनः क्षत्ता चाण्डालो ब्राह्मणस्त्रियाम्८९७ वैश्यात्तु मागधः क्षत्र्यां वैदेहिको द्विजस्त्रियाम् । सूतस्तु क्षत्रियाज्जात इति द्वादश तद्भिदः ॥८९८ माहिष्येण तु जातः स्यात्करण्यां रथकारकः । कारुस्तु कारी प्रकृतिः शिल्पी श्रेणिस्तु तद्गणे ॥८९९ शिल्पं कला विज्ञानं च मालाकारस्तु मालिकः । पुष्पाजीवी पुष्पलावी पुष्पाणामवचायिनी ॥९०० कल्पपालः सुगजिवी शौण्डिको मण्डहारकः । वारिवास: पानवणिग्ध्वजो ध्वज्यासुतीबलः ॥९०१ मद्यं मदिष्टा मदिरा परित्रुता कश्यं परिस्युन्मधु कापिशायनम् । ___ गन्धोत्तमा कल्पमिरा परिप्लता कादम्बरी स्वादुरसा हलिप्रिया ।। ९०२ शुण्डाहाला हारहरं प्रसन्ना वारुणी सुरा । मार्दीक मदना देवसृष्टा कापिशमब्धिजा ॥ ९०३ मध्वासवे माधवको मैरेये शीधुरासवः । जगलो मेदको मद्यपङ्कः किण्वं तु नग्नहः ॥ ९०४ नग्नहुर्मद्यवीजं च मद्यसंधानमासुतिः । आसवोऽभिषवो मद्यमण्डकारोत्तमौ समौ ॥ ९०५ गल्वर्कस्तु चषक: स्यात्सरकश्चानुतर्षणम् । शुण्डापानं मदस्थानं मधुवारा मधुक्रमाः ॥ ९०६ सपीति: सहपानं स्यादापानं पानगोष्टिका । उपदंशस्ववदंशश्चक्षणं मद्यपाशनम् ॥ ९०७ नाडिंधमः स्वर्णकारः कलादो मुष्टिकश्च सः । तैजसावर्तनी मूषा भस्वा चर्मप्रसेविका ॥ ९०८ आस्फोटिनी वेधनिका शाणस्तु निकषः कपः । संदंश: स्यात्कमुखो भ्रमः कुन्दं च यन्त्रकम्।।९०९ वैकटिको मणिकारः शौल्विकस्ताम्रकुट्टकः । शाङ्खिकः स्याल्काम्बविकस्तुन्नवायस्तु सौचिकः ॥९१० कृपाणी कर्तरी कल्पन्यपि सूची तु सेवनी । सूचीसूत्रं पिप्पलिकं त': कर्तनसाधने ॥ ९११ पिञ्जनं विननं च तूलस्फोटनकार्मुकम् । सेवनं सीवनं स्यूतिस्तुल्यौ स्यूतप्रसेवकौ ॥ ९१२ तन्तुवायः कुविन्दः स्यात्रसरः सूत्रवेष्टनम् । वाणिव्यूँतिर्वाणदण्डो वेमा सूत्राणि तन्तवः ॥ ९१३ निर्णे कस्तु रजकः पादुकाकृत्तु चर्मकृत् । उपानत्पादुका पादः पनद्धा पादरक्षणम् ॥ ९१४ प्राणहितानुपदीना वावद्धानुपदं हि या । नधी व वरत्रा स्यादारा चर्मप्रभेदिका ॥ ९१५ कुलालः स्यात्कुम्भकारो दण्डभृचक्रजीवकः । शाणाजीवः शस्त्रमाजों भ्रमासक्तोऽसिधावकः॥९१६ धूसरश्चाक्रिकस्तैली स्यापिण्याकखलौ समौ । थकुत्स्थपतिस्त्वष्टा काष्टतड्तक्षवर्धकी ॥ ९१७ ग्रामायत्तो ग्रामतक्षः कौटतक्षोऽनधीनकः । वृक्षभित्तक्षणी वासी क्रकचं करपत्रकम् ॥ ९१८ स उद्धनो यत्र काष्ठे काष्ठं निक्षिप्य तक्ष्यते । वृक्षादनो वृक्षभेदी टङ्कः पाषाणदारकः ॥ ९१९ व्योकारः कर्मारो लोहकारः कूटं त्वयोधनः । ब्रश्चनः पत्रपरशुरीषीका तूलिकेषिका ॥ ९२० भक्ष्यकार: कान्दविकः कन्दुस्वेदनिके समे । रङ्गाजीवस्तौलकिकश्चित्रकृच्चाथ तूलिका ॥ ९२१ १. कपकोऽपि. २. कोटीशोऽपि. ३. धावकोऽपि. ४. पादत्राणम् अपि. ५. तिलंतुदोऽपि. ६. रथकारोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ तिर्यकाण्डः। ३७ कृचिका चित्रमालेख्यं पलगण्डस्तु ले यकृत् । पुस्तं लेप्यादिकर्म स्यान्नापितश्चण्डिलः क्षुरी ॥ ९२२ क्षरमर्दी दिवाकीर्तिर्मुण्डकोऽन्तावसाय्यपि । मुण्डनं भद्राकरणं वपनं परिवापनम् ॥ ९२३ क्षौरं नाराची त्वेषण्यां देवाजीवस्तु देवलः । मार्दङ्गिको मौरजिको वीणावादस्तु वैणिकः ॥ ९२४ वेणुध्मः स्याद्वैणविकः पाणिघः पाणिवादकः । स्यात्प्रातिहारिको मायाजीवी माया तु शाम्बरी।।९२५ इन्द्रजालं तु कहकं जालं कुमृतिरित्यपि । कौतूहलं तु कुतुकं कौतुकं च कुतूहलम् ॥ ९२६ व्याधो मृगवधाजीवी लुब्धको मृगयुश्च सः । पापर्द्धिम॒गयाखेटो मृगव्याच्छोदने अपि ॥ ९२७ जालिकश्च वागुरिको वागुरा मृगजालिका । शुम्वं वराटको रज्जुः शुल्वं तत्री वटी गुणः ॥ ९२८ धीवरे दाशकैवतौ बडिशं मत्स्यवेधनम् । आनायस्तु मत्स्यजालं कुवेणी मत्स्यबन्धनी ॥ ९२९ जीवान्तकः शाकुनिको वैतंसिकस्तु सौनिकः । मासिकः कौटिकश्चाथ सूना स्थानं वधस्य यत् ॥९३० स्याद्वन्धनोपकरणं वीतंसो मृगपक्षिणाम् । पाशस्तु बन्धनप्रन्थिरवपातावटौ समौ ॥ ९३१ उन्माथः कूटयत्रं स्याद्विवर्णस्तु पृथग्जनः । इतरः प्राकृतो नीचः पामरो बर्बरश्च सः ॥ ९३२ चण्डालेऽन्तावसाय्यन्तेवासिश्वपचपुकसाः । निषादप्लवमातङ्गदिवाकीर्तिजनंगमाः ॥ ९३३ पुलिन्दा नाहला निष्टयाः शवरा वरुटा भटाः।माला भिल्लाः किराताश्च सर्वेऽपि म्लेच्छजातयः ॥ ९३४ __ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितायामभिधानचिन्तामणौ नाममालायां मर्यकाण्डस्तृतीयः ।। ३ ॥ भ मिः पृथिवी पृथ्वी वसुधोर्वी वसुंधरा । धात्री धरित्री धरणी विश्वा विश्वंभरा धरा ।। ९३५ क्षितिः क्षोणी क्षमानन्ता ज्या कुर्वसुमती मही । गौर्गोत्रा भूतधात्री मा गन्धमाताचलावनिः ॥ ९३६ सर्वसहा ग्नगर्भा जगती मेदिनी रसा । काश्यपी पर्वताधारा स्थिरेला रत्नबीजः॥ ९३७ विपुला सागराचाग्रे स्युर्नेमीमेखलाम्बराः । द्यावापृथिव्यौ तु द्यावाभूमी द्यावाक्षमे अपि ॥ ९३८ दिवस्पृथिव्यौ रोदस्यौ रोदसी रोदसी च ते । उर्वरा सर्वसस्या भूरिरिणं पुनरूषरम् ॥ ९३९ स्थलं स्थली मरुधन्वा क्षेत्राद्यप्रहतं खिलम् । मृन्मृत्तिका सा क्षारोषो मृत्सा मृत्स्ना च साशुभा॥९४० रुमा लवणखानिः स्यात्सामुद्रं लवणं हि यत् । तदक्षीवं वशिरश्च सैन्धवं तु नदीभवम् ॥ ९४१ माणिमन्थं शीतशिवं रोमकं तु रुमाभवम् । वसुकं वस्तकं तच्च विडपाक्ये तु कृत्रिमे ॥ ९४२ सौवर्चलेऽसं रुचकं दुर्गन्धं शूलनाशनम् । कृष्णे तु तत्र तिलकं यवक्षारो यवाग्रजः ॥ ९४३ यवनाजल: पाक्यश्च पाचनकस्तु टङ्कणः । मालतीतीरजो लोहश्लेषणो रसशोधनः ॥ ९४४ समास्तु खर्जिकाक्षारकापोतसुखर्चिकाः । स्वर्जिस्तु स्वर्जिका त्रुघ्नी योगवाही सुवर्चिका ॥ ९४५ भरतान्यैरावतानि विदेहाश्च कुरून्विना । वर्षाणि कर्मभूम्यः स्युः शेषाणि फलभूमयः ॥ ९४६ वर्ष वर्षधरायझं विषयस्तूपवर्तनम् । देशो जनपदो नीवृद्राष्ट्र निर्गश्च मण्डलम् ॥ ९४७ आर्यावर्तो जन्मभूमिजिनचयर्धचक्रिणाम् । पुण्यभूराचारवेदी मध्यं विन्ध्यहिमागयोः ॥ ९४८ गङ्गायमुनयोर्मध्यमन्तर्वेदिः समस्थली । ब्रह्मावर्तः सरस्वत्या दृषद्वत्याश्च मध्यतः ।। ब्रह्मवेदिः कुरुक्षेत्रे पञ्चरामहूदान्तरम् । धर्मक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं द्वादशयोजनावधि ॥ हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि । प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः स मध्यमः ॥ ९५१ १. लेपकोऽपि. २. खट्टिकोऽपि. ३. चाण्डालोऽपि. ४. सूशब्दो रत्नशब्देनाप्यन्वेति. ५. सागरशब्दस्याग्रे नेम्यादीनामन्वयः; यौगिकत्वात्-समुद्रशना, समुद्रमेखला, समुद्रवसना, इत्यादयः, ६. माणिबन्धं माणिमन्तं च. For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ अभिधानसंग्रहः – ६ अभिधानचिन्तामणिः । ९५४ ९५५ देशः प्राग्दक्षिणः प्राच्यो नदीं यावच्छरावतीम् । पश्चिमोत्तरस्तूदीच्यः प्रयन्तो म्लेच्छमण्डलम् ९५२ पाण्डूदकृष्णतो भूमिः पाण्डूदकृष्णमृत्तिके । जंङ्गलो निर्जलोऽनूपोऽम्बुमान्कच्छस्तु तद्विधः ॥ ९५३ कुमुद्वान्कुमुदावासो वेतस्वान्भूरिवेतसः । नडप्रायो नडकीयो नवांश्च नडुलश्च सः ॥ शाइल: शादहरिते देशो नद्यम्बुजीवनः । स्यान्नदीमातृको देवमातृको वृष्टिजीवनः ॥ प्राग्ज्योतिषाः कामरूपा मालवाः स्रवन्तयः । त्रैपुरास्तु डाहलाः स्युश्चैद्यास्ते चेदयश्च ते ॥ ९५६ वङ्गास्तु हरिकेलीया अङ्गाश्वम्पोपलक्षिताः । साल्वास्तु कारकुक्षीया मरवस्तु दशेरकाः ॥ ९५७ जालंधरास्त्रिगर्ताः स्युस्तायिकास्तर्जिकाभियाः । काश्मीरास्तु माधुमताः सारखता विकर्णिकाः ||९५८ वाष्टकनामानो वाल्हीका बल्हिकाह्वयाः । तुरुष्कास्तु साखयः स्युः कारूषास्तु वृहद्गुहाः || ९५९ लम्पाकास्तु मुरण्डाः स्युः सौवीरास्तु कुमालकाः । प्रत्यग्रथास्त्वहिच्छत्राः कीकटा मगधाह्वयाः ॥ ९६० ओड्राः केरलपर्यायाः कुन्तला उपहालको: । ग्रामस्तु वैसथः संनिप्रतिपर्युपतः परः ॥ ९६१ पटकस्तु तदर्थे स्यादाघाटस्तु घटोऽवधिः । अन्तोऽवसानं सीमा च मर्यादापि च सीमनि ग्रामसीमा तूपशल्यं मालं ग्रामान्तराटवी । पर्यन्तभूः परिसरः स्यात्कर्मान्तस्तु कर्मभूः ॥ गोस्थानं गोष्टमेतत्तु गौष्टीनं भूतपूर्वकम् । तदाशितंगवीनं स्याद्गावो यत्राशिताः पुरा ॥ क्षेत्रे तु वप्रः केदारः सेतौ पाल्यालिसंवरा: । क्षेत्रं तु शाकस्य शाकशाकडं शाकशाकिनम् ॥९६५ ari शालेयं पष्टियं कौद्रवीण मौद्गीने । त्रीद्यादीनां क्षेत्रेऽणव्यं स्यादाणवीनमणोः || ॥ ९६२ ९६३ ९६४ ९७० ९७१ ९७२ ९६६ भङ्ग भङ्गीन मोमीनमुम्यं यत्र्यं यवक्यवत् । तिल्यं तैलीनं माषीणं माध्यं भङ्गादिसंभवम् ॥ ९६७ सी हल्यं त्रियं तु त्रिसीत्यं त्रिगुणाकृतम् । तृतीयाकृतं द्विहल्याद्येवं शस्त्राकृतं च तत् ॥ ९६८ वीजाकृतं तृप्तकृष्टं द्रौणिकाढकिपादयः । स्युद्रणाढकवापादौ खलवानं पुनः खलम् ॥ ९६९ चूर्णे क्षोदोऽथ रजसि स्युधूलीपांसुरेणवः । लोटे लोप्टुलिर्लेटुर्वल्मीक: कृमिपर्वतः ॥ वम्रीकूटं वामलुगे नाकुः शक्रशिरश्च सः । नगरी पूः पुरी ङ्गः पंत्तनं पुटभेदनम् ॥ निवेशनमधिष्ठानं स्थानीयं निगमोऽपि च । शाखापुरं तूपपुरं खेट: पुरार्धविस्तरः ॥ स्कन्धावारो राजधानी कोट्टदुर्गे पुनः समे । गया पूर्गयराजर्षेः कान्यकुब्जं महोदयम् ॥ कन्याकुजं गाधिपुरं कौशं कुशस्थलं च तत् । काशिर्वगणसी वाराणसी शिवपुरी च सा ॥ ९७४ साकेत कोशलायोध्या विदेहा मिथिला समे । त्रिपुरी चेदिनगरी कौशाम्बी वत्सपत्तनम् ॥ ९७५ उज्जयिनी स्याद्विशालान्त पुण्यकरण्डिनी । पाटलिपुत्रं कुसुमपुरं चम्पा तु मालिनी ॥ ९७६ लोमपादकर्णयोः देवीकोट उमावनम् | कोटीवर्ष वाणपुरं स्याच्छोणितपुरं च तत् ॥ मथुरातुमधूपनं मधुरा गंजाह्वयम् । स्याद्धास्तिनपुरं हस्तिनीपुरं हस्तिनापुरम् ॥ तामलिप्तं दामलिप्तं तामलिती तमालिनी । स्तम्बपूर्विष्णुगृहं च स्याद्विदर्भा तु कुण्डिनम् ॥ ९७९ द्वारवती द्वारिका स्यान्निपधा तु नलस्य पूः । प्राकारो वरणः साले चयो वप्रोऽस्य पीठभूः ॥ ९८० ९७३ ९७७ ९७८ १. भूमशब्द: पाण्ड्रादिभिरन्वेति; एवं मृत्तिकशब्दोऽपि २. जाङ्गलोऽपि ३. अत्र प्राग्ज्योतिष- मालव- चेदिवङ्ग-अङ्ग-मगधाः प्राच्या:, मरवः सात्वार्थ प्रतीच्याः, जालंधर- तायिक-कश्मीर वाहीक बाल्हीक तुरुष्क-कारूप-लपाक-सौवीर- प्रत्यग्रथा उदीच्याः, ओड़ाः कुन्तलाच अपाच्याः इति ४. 'वसथ शब्दस्य समादितः परप्रयोगः. ५. पट्ट्नमपि, ६, 'पुर'शब्दस्य लोमपाद- कर्णाभ्यामन्वयः ७. गजपुरं नागनगरम् ८. कुण्डिनपुरम् कुण्डिनापुरम्. For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ तिर्यकाण्डः। प्राकाराग्रं कपिशीर्ष क्षौमाट्टाहालकाः समाः । पारे गोपुरं रथ्याप्रतोलीविशिखाः समाः ॥ ९८१ परिकूटं हस्तिनखो नगरद्वारकूट के । मुखं निःसरणे वाटे प्राचीनावेष्टको वृतिः ॥ ९८२ पदव्येकपदी पद्या पद्धतिर्वर्त्म वर्तनी । अयनं सरणिर्मार्गोऽध्वा पन्था निगमः सृतिः ॥ ९८३ सत्पथे स्वतितः पन्था अपन्था अपथं समे । व्यधो दुरध्वः कदध्वा विपथं कापथं तु सः ॥ ९८४ प्रान्तरं दूरशून्योऽध्वा कान्तारो वर्त्म दुर्गमम् । सुरङ्गा तु संधिला स्याटूढमार्गो भुवोऽन्तरे॥९८५ चतुष्पथे तु संस्थाने चतुष्कं त्रिपथे त्रिकम् । द्विपथं तु चारुपयो गजाद्यध्वा त्वसंकुलः ॥ ९८६ घण्टापथः संसरणं श्रीपथो गजवम॑ च । उपनिष्क्रमणं चोपनिष्करं च महापथः ॥ ९८७ विपणिस्तु वणिग्मार्गः स्थानं तु पदमास्पदम् । श्लेषस्त्रिमार्या शृङ्गाट बहुमार्गी तु चत्वरम् ॥९८८ स्मशानं करवीर: स्यापितृप्रेताद्वैनं गृहम । गेहभूर्वास्तु गेहे तु गृहं वेश्म निकेतनम् ॥ ९८९ मन्दिरं सदनं सद्म निकाय्यो भुवनं कुटः । आलयो निलयः शाला सभोदवसितं कुलम् ॥ ९९० धिष्ण्यमावसथं स्थानं पस्त्यं संस्त्याय आश्रयः । ओको निवास आवासो वसतिः शरणं क्षयः॥९९१ धामागारं निशान्तं च कुट्टिमं वस्य बद्धभूः । चतुःशालं संजवनं सौधं तु नृपमन्दिरम् ॥ ९९२ उपकारिकोकार्या सिंहद्वारं प्रवेशनम् । प्रासादो देवभूपानां हयं तु धनिनां गृहम् ॥ ९९३ मटावसथ्यावसथाः स्युश्छात्रव्रतिवेश्मनि । पर्णशालोटजश्चैत्यविहारो जिनसद्मनि ॥ ९९४ गर्भागारेऽपवरको वासौकः शयनास्पदम् । भाण्डागारं तु कोशः स्याचन्द्रशाला शिरोगृहम् ॥९९५ कुप्यशाला तु संधानी कायमानं तृणौकसि । होत्रीयं तु हविगेंहं प्राग्वंशः प्राग्यविहात् ॥ ९९६ आथर्वणं शान्तिगृहमास्थानगृहमिन्द्रकम् । तैलिशालायत्रगृहमरिष्टं सूतिकागृहम् ॥ ९९७ सदशाला रसवती पाकस्थानं महानसम् । हस्तिशाला तु चतुरं वाजिशाला तु मन्दुरा॥ ९९८ संदानिनी तु गोशाला चित्रशाला तु जालिनी । कुम्भशाला पाकपुटी तन्तुशाला तु गतिका ॥९९९ नापितशाला वपनी शिल्पा खरकुटी च सा । आवेशनं शिल्पिशाला सत्रशाला प्रतिश्रयः ॥१००० आश्रमस्तु मुनिस्थानमुपन्नस्त्वन्तिकाश्रयः । प्रपा पानीयशाला स्याद्गा तु मदिरागृहम् ॥ १००१ पक्वणः शवरावासो घोषस्त्वाभीरपल्लिका । पुण्यशाला निषद्याट्टो हट्टो विपणिरापणः ॥ १००२ वेश्याश्रयः पुरं वेशो मण्डपस्तु जनाश्रयः । कुड्यं भित्तिस्तदेडूकमन्तर्निहितकीकसम् ॥ १००३ देवी वितर्दिरजिरं प्राङ्गणं चत्वराङ्गने । वलज प्रतिहारो द्वाद्वारेऽथ परिघोऽर्गला ॥ १००४ साल्पा त्वर्गलिका सूचिः कुञ्चिकायां तु कूर्चिका । साधारण्यङ्कुटश्वासौ द्वारयत्रं तु तालकम्॥१००५ अस्योद्घाटनयत्रं तु ताल्यपि प्रतिताल्यपि । तिर्यग्द्वारोव॑दारूत्तरङ्गं स्यादररं पुनः॥ १००६ कपाटोऽररिः कुवाट: पक्षद्वारं तु पेक्षकः । प्रच्छन्नमन्तरिः स्यादहिवारं तु तोरणम् ॥ १००७ तोरणोघे तु माङ्गल्यं दाम वन्दनमालिका । स्तम्भादेः स्यादधोदारौ शिला नासोद्धदारुणि॥१००८ गोपासनी तु वलभीछादने वक्रदारुणि । गृहावग्रहणी देहल्युम्बरोदुम्बरोम्बुराः ॥ १००९ प्रघाणः प्रघणोलिन्दो बहिरप्रकोष्टके । कपोतपाली विटङ्कः पटलछदिषी समे ॥ १०१० नीव्र वलीकं तत्प्रान्त इन्द्रकोशस्तमङ्गकः । वलभीछदिराधारो नागदन्तास्तु दन्तकाः ॥ १०११ मत्तालम्बोऽपाश्रयः स्यात्प्रग्रीवो मत्तवारणे । वातायनो गवाक्षश्च जालकोऽथानकोष्टकः ॥ १०१२ १. 'पथि'शब्दः स्वतिभ्यां पर:. २. वन-गृहशब्दौ पितृ-प्रेतशब्दाभ्यां प्रत्येकमन्वेति. ३. धाममपि. ४. उपकर्यापि. ५. प्रसादनोऽपि. ६. शान्तीगृहमपि. ७. अङ्गनमपि. ८. कवाटमपि. ९. खटकिकापि, For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४० अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः । कुसू लोsस्त्रिस्तु कोणोणिः कोटि : पाल्यत्र इत्यपि । आरोहणं तु सोपानं निःश्रेणिस्त्वधिरोहणी ।। १०१३ स्थूणा स्तम्भः शालभञ्जी पाञ्चालिका च पुत्रिका । काष्ठादिघटिता लेप्यमयी वञ्जलिकारिका ।। १०१४ नन्द्यावर्तप्रभृतयो विच्छिन्दा आन्यवेश्मनाम् । समुद्गः संपुटः पेटा स्यान्मञ्जूषाथ शोधनी।। १०१५ संमार्जनी बहुकरी वर्धनी च समूहनी । संकरावकरौ तुल्यावुदूखलमुलूखलम् ॥ १०१६ प्रस्फोटनं तु पवनमवघातस्तु कण्डनम् | कटः किलिञ्जो मुसलोऽ यो कण्डोलकः पिटम् ||१०१७ चानी तित: शूर्पं प्रस्फोटनमयान्तिका । चुल्यश्मन्तकमुद्धानं स्यादधिश्रयणी च सा ।। १०१८ स्थायुखा पिटरं कुण्डं चरुः कुम्भी घटः पुनः । कुटः कुम्भः करीरश्च कलशः कलसो निपः || १०१९ ह्सन्यङ्गाराच्छकटीधानीपाच्यो हसन्तिका । भ्राष्ट्रोऽम्बरीष ऋचीषमृजीषं पिष्टपाकभृत् ॥ १०२० कम्बिदेर्विः खजाकाथ स्यान्तर्दूर्दारुहस्तकः । वार्धान्यां तु गलन्त्यालू: कर्करी करकोऽथ सः।। १०२१ नालिकेरजः करङ्कस्तुल्यौ कटाहकरौ । मणिकोऽलिंजरो गर्गरीकलस्यौ तु मन्थनी || १०२२ वैशाखः खजको मन्था मन्धानो मन्थदण्डकः । मन्थः क्षुब्धोऽस्य विष्कम्भो मञ्जीरः कुटरोऽपि च ॥ शालाजिरो वर्धमानः शरावः कौशिका पुनः । मल्लिका चषकः कंसः पारी स्यात्पानभाजनम् || १०२४ कुतूश्चर्मस्नेहपात्रं कुतुपं तु तदल्पकम् । दृतिः खल्लश्चर्ममयी वालूः करकपात्रिका || १०२५ सर्वमावपनं भाण्डं पात्रामत्रे तु भाजनम् । तद्विशालं पुनः स्थालं स्यात्पिधानमुदञ्चनम् ॥। १०२६ शैलोऽद्रिः शिखरी शिलोच्चयगिरी गोत्रोऽचलः सानुमान्यावः पर्वतभूभ्रभूधरधराहार्या नॅगोऽथोदयः । पूर्वाद्रिश्चरमाद्रिरस्त उदगद्रिस्त्वद्रिरामेनका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राणेश हिमवान्हिमालय हिमप्रस्थौ भवानीगुरुः || १०२७ हिरण्यनाभो मैनाकः सुनाभश्च तदात्मजः । रजताद्रिस्तु कैलासोऽष्टापदः स्फटिकाचलः || १०२८ कौथः क्रुञ्चोऽथ मलग आषाढो दक्षिणाचलः । स्यान्माल्यवान्प्रस्रवणो विन्ध्यस्तु जलवालकः ।। १०२९ शत्रुंजयो विमलाद्रिरिन्द्रकीलस्तु मन्दरः । सुवेलः स्यात्रिमुकुटत्रिकूटस्त्रिककुच सः ॥ १०३० उज्जयन्तो रैवतकः सुदारुः पारियात्रिकः । लोकालोकश्चकवालोऽथ मेरुः कर्णिकाचलः || १०३१ 1 रत्नसानुः सुमेरुः स्वः स्वर्गिकाञ्चनतो गिरिः । शृङ्गं तु शिखरं कूटं प्रपातस्त्वतटो भृगुः ॥ १०३२ मेखला मध्यभागोऽद्रेर्नितम्वः कटकश्च सः । दरी स्यात्कन्दरोऽखातबिले तु गहरे गुहा || १०३३ द्रोणी तु शैलयोः संधिः पादाः पर्यन्तपर्वताः । दन्तकास्तु बहिस्तिर्यक्प्रदेशान्निर्गता गिरेः ॥ १०३४ अधियको भूमिः स्यादधोभूमिरुपत्यका । स्रुः प्रस्थः सानुरश्मा तु पाषाणः प्रस्तरो दृषत् ।। १०३५ ग्रावा शिलोपलो गण्डशैलाः स्थूलोपलाच्युताः । स्यादाकरः खनिः खानिर्गञ्जा धातुस्तु गैरिकम् ।। १०३६ शुक्लधातौ पाकशुक्ला कठिनी खटिनी खटी । लोहं कालायसं शस्त्रं पिण्डं पारशवं धनम् || १०३७ गिरिसारं शिलासारं तीक्ष्णकृष्णामिषे अयः । सिंहानधूर्तमण्डूरसरणान्यस्य किटुके || १०३८ सर्वं च तैजसं लोहं विकारस्त्वयसः कुशी । ताम्रं म्लेच्छमुखं शुल्वं रक्तं व्यष्टमुदुम्बरम् ||१०३९ म्लेच्छशावरभेदाख्यं मर्कटास्यं कनीयसम् | ब्रह्मवर्धनं वरिष्ठं सीसं तु सीसपत्रकम् ॥ नागं गण्डूपदभवं वप्रं सिन्दूरकारणम् । व स्वर्णारियोगेष्टे यवनेष्टं सुवर्णकम् ॥ १०४० १०४१ १. कुलोऽपि. २. पवन्याप. ३. अयोनिरपि ४. अङ्गारशब्दः शकट्यांदिनान्वेति ५ अगोऽपि. ६. 'गिरि'शब्दः स्वरादिनान्वेति For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ तिर्यकाण्डः । वङ्गं त्रपुः स्वर्णजनागजीवने मृद्वङ्गरङ्गे गुरुपत्रपिच्चटे | स्याच्चक्रसंज्ञं तमरं च नागजं कस्तीरमालीनकसिंहले अपि ॥ म्याट्रूप्यं कलधौतताररजतश्वेतानि दुर्वर्णकं खर्जूरं च हिमांशुहंसकुमुदाभिख्यं सुवर्ण पुनः । स्वर्ण हिरण्यहाटकवसून्यष्टापदं काञ्चनं कल्याणं कनकं महारजतरै गाङ्गेय रुक्माण्यपि ।। कलधौतलोहोत्तमवह्निवीजान्यपि गारुडं गैरिकजातरूपे | तपनीयचामीकरचन्द्रभर्मार्जुननिष्ककार्तस्वरकर्बुराणि || १०४४ १०४६ १०४७ १०४८ १०४९ १०५० १०५९ १०५२ १०५३ जाम्बूनदं शातकुम्भं रजतं भूरि भूत्तमम् । हिरण्यकोशाकुप्यानि हेनि रूप्ये कृताकृते || १०४५ कुप्यं तु तहृयादन्यद्रूष्यं तहृयमाहतम् | अलंकारसुवर्णे तु शृङ्गी कनकमायुधम् ॥ रजतं च सुवर्ण च संश्रिष्टे घनगोलकः । पित्तलारेऽथारकूटः कपिलोहं सुवर्णकम् ॥ रिरी रीरीच रीतिश्च पीतलोहं सुलोहकम्। ब्राह्मी तु राज्ञी कपिला ब्रह्मरीतिर्महेश्वरी ॥ कांस्ये विद्युत्प्रियं घोषं प्रकाशं वङ्गशुल्वजम् । घण्टाशब्दमसुराह्वं रवणं लोहजं मलम् ॥ सौराष्ट्र के पञ्च लोहं वर्तलोहं तु वर्तकम् । पारदः पारतः सूतो हरवीजं रसश्रेलः ॥ अभ्रकं स्वच्छपत्रं खं मेवाख्यं गिरिजामले । स्रोतोञ्जनं तु कापोतं सौवीरं कृष्णयामुने ॥ अथ तुत्थं शिखिग्रीवं तुत्थाञ्जनमयूरके । मूषातुत्थं कांस्यनीलं हेमतारं वितुन्नकम् ॥ स्यात्तु कर्तेरिकातुत्थममृतासङ्गमञ्जनम् । रसगर्भं तार्क्ष्यशैलं तुत्थेदारसोद्भवे ॥ पुष्पाञ्जनं रीतिपुष्पं पौष्पकं पुष्पकेतु च । माक्षिकं तु कदम्वः स्याच्चक्रनामाजेनामके || १०५४ ताप्ये नदीज: कामारिस्तारारिर्विटमाक्षिकः । सौराष्ट्री पार्वती काक्षी कालिका पर्पटी सती ।। १०५५ आढकी तुबरी कंसोद्भवा काक्षी मृदाइया । कासीसं धातुकासीसं खेचरं धातुशेखरम् || १०५६ द्वितीयं पुष्पकासीसं कंसकं नयनौषधम् । गन्धाश्मा शुल्वपामाकुष्टौरिर्गन्धिकगन्धकौ ॥ १०५७ सौगन्धिकः शुकपुच्छो हरितालं तु पिञ्जरम् । विडालकं विस्रुगन्धि खर्जूरं वंशपत्रकम् ।। १०५८ आलपीतनतालानि गोर्दैन्तं नटमण्डनम् । वङ्गारिर्लोमहच्चाथ मनोगुप्ता मनःशिला ॥ करवीरा नागमाता रोचनी रसनेत्रिका | नेपाली कुनटी गोला मनोद्दा नागजिह्विका ॥ 1 सिन्दूरं नागजं नागं रक्तं शृङ्गारभूषणम् । चीनपिष्टं हंसपादकुरुविन्दे तु हिङ्गुलः ॥ शिलाजतु स्याद्द्भिरिजमर्थ्य गैरैयमश्मजम् | क्षारः काचः कुलाली तु स्याच्चक्षुष्या कुलस्थिका ।। १०६२ बोलो गन्धरसः प्राणः पिण्डो गोपरसः शशः । रतं वसु मणिस्तत्र वैदूर्य बालवायजम् || १०६३ मरकतं त्वश्मगर्भे गारुत्मतं हरिन्मणिः । पद्मरागे लोहितकलक्ष्मीपुष्पारुणोपेलाः ॥ १०६४ नीलमणिस्त्विन्द्रनील: सूचीमुखं तु हीरकः । वरारकं रत्नमुख्यं वज्रपर्यायनाम च ॥ विराटजो राजपट्टो राजावर्तोऽथ विद्रुमः । रक्ताङ्को रक्तकन्दश्च प्रवालं हेमकन्दलः ॥ सूर्यकान्तः सूर्यमणिः सूर्याश्मा दहनोपलः | चन्द्रकान्तश्चन्द्रमणिश्चान्द्रश्चन्द्रोपलश्च सः ॥ १०६७ १. चपलोsपि. २. वैष्णवोsपि ३. अरिशब्द: शुल्वादिभिरन्वेति . ४. गोपित्तमपि. ५. नेपालय पि. ६. शृङ्गारमपि ७. हिङ्गलरपि. ८. गोपो रसोऽपि. ९. शोणरत्नमपि. १०५९ १०६० १०६१ १०६५ १०६६ € For Private and Personal Use Only ४१ १०४२ १०४३ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२ अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः । क्षीरतैलस्फटिकाभ्यामन्यौ खस्फटिकाविमौ । शुक्तिजं मौक्तिकं मुक्ता मुक्ताफलं रसोद्भवम् ॥ १०६८ इति पृथ्वीकायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीरं वारि जलं दकं कमुदकं पानीयमम्भः कुशं तोयं जीवनजीवनीयसलिलार्णास्यम्बु वाः शंवरम् | क्षीरं पुष्करमेघपुष्पकमलान्यापः पयः पावसी कीलालं भुवनं वनं घनरसो यादोनिवासोऽमृतम् ॥ १०६९ १०७० 1 १०७१ कुलीनसं केवन्धं च प्राणदं सर्वतोमुखम् | अस्थाथास्थागमस्ताघमगाधं चातलस्पृशि || निम्नं गभीरं गम्भीरमुत्तानं तद्विलक्षणम् । अच्छे प्रसन्नेऽनच्छं स्यादाविलं कलुषं च तत् ॥ वास्तु हिनं प्रालेयं मिहिका हिमम् । स्यान्नीहारस्तुषारच हिमानी तु महद्धिमम् ॥ १०७२ पारावारः सागरोऽवारपारोऽकूपारोदध्यर्णवा वीचिमाली यादः स्रोनोवार्नदीशैः सरखान्सिन्धूदन्वन्तौ मितद्रुः समुद्रः || १०७३ आरो मकरानाज्जैलान्निधिधिराशयः । द्वीपान्तरा असंख्यास्ते सप्तैवेति तु लौकिकाः || १०७४ लवणक्षीरदध्याज्यसुरेक्षुखादुवारयः । तरङ्गे भङ्गवीच्यूम्युत्कलिका महति त्विह ॥ १०७५ लहर्गुल्लोलकल्लोला आवर्तः पयसां भ्रमः । तालूरो वोलकचासौ बेला स्यादृद्धिरम्भसः ॥ १०७६ डिण्डीरोऽधिकफः फेनो बुदस्थासकौ समौ । मर्यादा कूलभूः कूलं प्रपातः कच्छरोधसी ॥ १०७७ नटं तीरं प्रतीरं च पुलिनं तज्जलोज्झितम् । सैकतं चान्तरीपं तु द्वीपमन्तर्जले तटम् ॥ तत्परं पारमवारं त्वक्पात्रं तदन्तरम् । नदी हिरण्यवर्णा स्याद्रोधोवक्रा तरङ्गिणी ॥ सिन्धुः शैवलिनी वहा च हृदिनी स्रोतस्विनी निम्नगा १०७८ १०७९ स्रोतो निर्झरिणी सरिच तटिनी कूलंकषा वाहिनी । कर्पूपवती समुद्रदयिताधुन्यौ सवतसर स्वत्यौ पर्वतजापगा जलधिगा कुल्या च जम्बालिनी ॥ १०८० ૧૦૮૨ १०८३ १०८४ गङ्गात्रिपथगा भागीरथी त्रिदशदीर्घिका । त्रिस्रोता जाह्नवी मन्दाकिनी भीष्मकुमारः || १०८१ मग विष्णुपदी सिद्धखः स्वर्गिखापगा । ऋषिकुल्या हैमवती स्वर्वापी हरशेखरा ॥ यमुना यमभगिनी कालिन्दी सूर्यजा यमी । रेवेन्दुजा पूर्वगङ्गा नर्मदा मेकलाद्रिजा || गोदा गोदावरी तापी तपनी तपनात्मजा । शुतुद्रिस्तु शतद्रुः स्यात्कावेरी वर्धजाह्नवी करतोया सदानीरा चन्द्रभागा तु चन्द्रका | वासिष्टी गोमती तुल्ये ब्रह्मपुत्री सरस्वती ॥ विपाद्विपाशार्जुनी तु बाहुदा सैतवाहिनी । वैतरणी नरकस्था स्रोतोम्भःसरणं स्वतः || 1 प्रवाहः पुनरोधः स्याद्वेणी धारा रयश्च सः । घट्टस्तीर्थावतारेऽम्बुवृद्धौ पूरः प्रवश्च सः ॥ पुटभेदास्तु वक्राणि भ्रमास्तु जलनिर्गमाः । परवाहा जलोच्छ्रासाः कूपकास्तु विदारकाः || १०८८ १०८५ १०८६ १०८७ For Private and Personal Use Only • १. कं बन्धम् इति द्वे नामनी इत्येके. २. धूममहिषी, धूमिका धूमयोऽपि . ३. ईशपदं यादः प्रभृतिभिरवेति, यौगिकत्वात् - याद ः पतिरित्यादयः. ४. आकरशब्दो रत्नान्ताभ्यामन्वेति यौगिकत्वात् - मकरालयो रत्नराशिरपि. ५. जलशब्दो निध्यादिभिरन्वेति, यौगिकत्वात् - वारिनिधिः वारिराशिरित्यादयः ६. सूपदं भीष्मेणाप्यन्वेति ७. आपगापदं सिद्धपदेनाप्यन्वेति ८. कलिन्दतनयापि. ९. चन्द्रभागा च. १०. चक्राणि च . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ तिर्यकाण्डः। प्रणाली जलमार्गोऽथ पानं कुल्या च सारणिः । सिकता वालुका विन्दौ पृषत्पृषतविग्रुषः ॥१०८९ जम्बालेचिकिलो पङ्कः कर्दमश्च निषदरः । शादो हिरण्यबाहुस्तु शोणो नदे पुनर्वहः ॥ १०९० भिद्य उध्यः सरस्वांश्च द्रहोऽगाधजलो ह्रदः । कूपः स्यादुदपानोऽन्धुः प्रहिर्नेमी तु तत्रिका॥१०९१ नान्दीमुखो नान्दीपटो वीनाहो मुखबन्धने । आहावस्तु निपानं स्यादुपकृपेऽथ दीर्घिका ॥ १०९२ वापी स्याक्षुद्ररूपे तु चरी चूण्डी च चूतकः । उद्घाटकं घटीयन्त्रं पादावर्तोऽरघट्टकः ॥ १०९३ अखातं तु देव ग्वातं पुष्करिण्यां तु खातकम् । पद्माकरस्तडागः स्यात्कासारः सरसी सरः ॥१०९४ वेशन्तः पल्वलोऽल्पं तत्परिखा खेयखातके । स्यादालवालमावालमावापः स्थानकं च सः ॥१०९५ आधारस्त्वम्भसां बन्धो निर्झरस्तु झरः सरिः । उत्सः स्रवः प्रस्रवणं जलाधारा जलाशयाः ॥१०९६ इति जलकायः । १०९८ वहिर्वहद्भानहिरण्यरेतसौ धनंजयो हव्यहविर्हताशनः । कृपीटयोनिर्दमुना विरोचनाशुशुक्षणी छागरथस्तनूनपात् ।। १०९७ कृशानुवैश्वानरवीतिहोत्रा वृषाकपिः पावकचित्रभानू । अप्पित्तधमध्वजकृष्णवार्चिष्मच्छमीगर्भतमोनशुक्राः ।। शोचिषकेशः शुचिहुतवहोपव॒धाः सप्तमन्त्र ज्वालाजिवो ज्वलनशिखिनौ जागृविर्जातवेदाः । बर्हिः शुष्मानिलसखवसू रोहिताश्वाश्रयाशौ बहिर्कोतिर्दहनबहुलौ हव्यवाहोऽनलोऽग्निः ॥ विभावसुः सप्तोदर्चिः स्वाहाग्नेयी प्रियास्य च । और्वः संवर्तकोऽध्यग्निर्वाडवो वडवामुखः॥११०० दवो दावो वनवह्निर्मघवहिरिरंमदः । छागणस्तु करीषाग्निः कुकूलस्तु तुपानलः ॥ ११०१ संतापः संज्वगे बाप्प ऊष्मा जिह्वाः स्युर्गचपः । हेतिः कीला शिखा ज्वालाचिर्झलक्का महत्यपि ॥ स्फुलिङ्गोऽग्निकणो लातज्वालोल्कालातमुल्मुकम् । धूमः स्याद्वायुवाहोऽग्निवाहो दहनकेतनम् ॥११०३ अम्भःसूः करमालश्च स्तरीजीमूतवाह्यपि । तडिदैगवती विद्युञ्चलाशम्पाचिरप्रभा ॥ ११०४ आकालिकी शतदा चञ्चला चपलाशनिः । सौदामनीक्षणिका च हादिनी जलबालिका ॥ ११०५ इत्यग्निकायः। वायुः समीरसमिरौ पवनाशुगौ नभःश्वासो नभस्वदनलश्वसनाः समीरणः । वातोऽहिकान्तपवमानमरुत्प्रकम्पनाः कम्पाङ्कनित्यगतिगन्धवहप्रभञ्जनाः ॥ ११०६ मातरिश्वा जगत्प्राणः पृषदश्वो महाबलः । मारुतः स्पर्शनो दैत्यदेवी झञ्झा स वृष्टियुक् ॥ ११०७ प्राणो नासाग्रहन्नाभिपादाङ्गुष्टान्तगोचरः । अपानपवनो मन्यापृष्टपृष्टान्तपाणिगः ॥ ११०८ समानः संधिहन्नाभिषूदानो हृच्छिरोन्तरे । सर्वत्वग्वृत्तिको व्यान इत्यङ्गे पञ्च वायवः ॥ ११०९ इति वायुकायः । १. चिरकल्लोऽपि. २. उद्घाटनमपि, उद्धातनमपि. ३. तल्लमपि अशनशब्दो हव्याद्यैरन्वेति, यौगिकत्वात्हव्यभुक इत्यादयः. ४. दमूना अपि. ५. जिह्वशब्दः सप्तादिभिरन्वेति. ६. व्यस्तं समस्तं च. ७. क्षणप्रभा च, ८. सदागतिरपि, ९. गन्धवाहो पि. For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । अरण्यमटवी सनं वाक्षं च गहनं झपः । कान्तारं विपिनं कक्षः स्यात्पण्डं काननं वनम् ॥१११० दवो दावः प्रस्तारस्तु तृणाटव्यां झषोऽपि च । अपोपाभ्यां वनं बेलमारामः कृत्रिमे वने ॥ १५१? निष्कुटस्तु गृहारामो वाह्यारामस्तु पौरकः । आक्रीडः पुनरुद्यानं राज्ञां वन्तःपुरोचितम् ॥१११२ तदेव प्रमदवनममात्यादेस्तु निष्कुटे । वाटी पुष्पाक्षाचासौ क्षुद्रारामः प्रसीदिका ॥ १११३ वृक्षोऽग: शिखरी च शाखिफलदावद्रिहरिदुर्दुमो ____ जीर्णो दुर्विटपी कुटः क्षितिरुहः कारस्करो विष्टरः । नन्द्यावर्तकरालिको तरुवसू पर्णी पुलायझिपः सालानांकहगच्छपादपनगा रूक्षागमौ पुष्पदः ॥ कुञ्जनिकुञ्जकु डङ्गाः स्थाने वृक्षैर्वृतान्तरे । पुष्पैस्तु फलवान्वृक्षो वानस्पत्यो विना तु तैः ॥ १११५ फलवान्वनस्पतिः स्यात्फलावन्ध्यः फलेग्रहिः । फलबन्ध्यस्त्ववकेशी फलवान्फलिनः फली ॥१.११६ औषधिः स्यादोषधिस्तु फलपाकावसानिका । क्षुपो हस्वशिफाशाखः प्रततिव्रततिलता ॥ १११७ वल्लयस्यां तु प्रतानिन्यां गुल्मिन्युपलवीरुधः । स्यात्प्ररोहोऽङ्करोऽङ्करो रोहश्च स तु पर्वणः ॥१११८ समुत्थितः स्याद्वलिशं शिखाशाखालताः समाः । साला शाला स्कन्धशाखा स्कन्धः प्रकाण्डमस्तके।। मूलाच्छाखावधिर्गण्डिः प्रकाण्डोऽथ जटाशिफा | प्रकाण्डरहिते स्तम्बो विटपो गुल्म इत्यपि ११२० शिरोनामाग्रं शिखरं मूलं वुघ्नोंतिनाम च । सारो मज्ज्ञि वंचि च्छल्ली चोचं वल्कं च वल्कलम्।।११२१ स्थाणौ तु ध्रुवकः शङ्कः काष्ठे दलिकदारुणी । निष्कुहः कोटरो मामञ्जरिवल्लरिश्व सा ॥ ११२२ पत्रं पलाशं छदनं वह पर्ण छदं दलम् । नवे तस्मिन्किसलयं किसलं पल्लवोऽत्र तु ॥ ११२३ नवे प्रवालोऽस्य कोशी शुङ्गा माढिदलनसा । विस्तारविटपौ तुल्यौ प्रसूनं कुसुमं सुमम् ॥ ११२४ पुष्पं सून सुमनसः प्रसवश्च मणीवकम् । जालकक्षारको तुल्यौ कलिकायां तु कोरकः ॥ ११२५ फुङ्मले मुकुलं गुञ्छे गुच्छस्तवकगुत्सकाः । गुलुछोऽथ रजः पौष्पं परागोऽथ रसो मधु ॥११२६ मकरन्दो मरन्दश्च वृन्तं प्रसवबन्धनम् । प्रबुद्धोज्जम्भफुल्लानि व्याकोशं विकचं स्मितम् ॥११२७ उन्मिषितं विकसितं दलितं स्फुटितं स्फुटम् । प्रफुल्लोत्फुल्लसंफुल्लोच्छसितानि विजृम्भितम् ।।११२८ स्मेरं विनिद्रमुन्निद्रविमुद्रहसितानि च । संकुचितं तु निद्राणं मीलितं मुद्रितं च तत् ॥ ११२९ फलं तु सस्यं तच्छुष्कं वानमाम शलाटु च । ग्रन्थिः पर्व परुर्बीजकोशी शिम्बा शमी शिमिः ११३० शिम्बिश्च पिप्पलोऽश्वत्थः श्रीवृक्षः कुञ्जराशनः । कृष्णावासो बोधितरुः प्लक्षस्तु पर्कटी जटी॥११३१ न्यग्रोधस्तु बहुपात्स्याद्वटो वैश्रवणालयः । उदुम्बरो जन्तुफलो मशकी हेमदुग्धकःः ॥ ११३२ काकोन्दुबरिका फल्गुमलयुर्जघनेफला । आम्रचूतः संहकारः सप्तपर्णस्त्वयुक्छदः ॥ ११३३ शिग्रुः शोभाञ्जनोक्षीवतीक्ष्णगन्धकमोचकाः । श्वेतेऽत्र श्वेतमरिचः पुनागः सुरपर्णिका ॥ ११३४ बकुलः केसरोऽशोकः कंकेल्लिः ककुभोऽर्जुनः । मालूरः श्रीफलो बिल्वः किंकिरातः कुरण्टकः११३५ त्रिपत्रकः पलाशः स्याकिंशुको ब्रह्मपादपः । तृणराजस्तलस्तालो रम्भा मोचा कदल्यपि ॥ ११३६ करवीरो हयमारः कुटजो गिरिमल्लिका । विदुलो वेतसः शीतो वानीरो वञ्जलो रथः ॥ ११३७ कर्कन्धुः कुवली कोलिबंदर्यथ हलिप्रियः । नीपः कदम्बः सालस्तु सर्बोरिष्टस्तु फेनिलः ॥ ११३८ १. वनशब्दः अपोपाभ्यामन्वेति. २. वाटीशब्दः पुष्पवृक्षाभ्यामन्वेति, ३. यौगिकत्वात्-कुजमहीरुहादयः. ४. चरणपोऽपि. ५. स्वचापि. ६. माकन्दोऽपिः ७. कुरुण्टको पि, कुरुण्डक इत्यन्य. ८. कन्धिरपि. For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ तिर्यकाण्डः । ४५ ११४० ११४१ ११५१ ११५२ ११५३ निम्बोऽरिष्टः पिचुमन्दः समौ पिचुलझावुकौ । कर्पासस्तु बादरः स्यासिचव्यस्तूलकं पिचुः ॥ ११३९ आरग्वधः कृतमाले वृषो वासाटरूषके । करञ्जस्तु नक्तमाल: स्नुहिर्वो महातरुः ॥ महाकालस्तु किंपाके मन्दार: पारिभद्रके । मधूकस्तु मधुष्टीलो गुडपुष्पो मधुद्रुमः ॥ पीलुः सिनो गुडफलो गुग्गुलस्तु पलंकषः । राजादन: पियालः स्यात्तिनिशस्तु रथद्रुमः || १९४२ नागरङ्गस्तु नारङ्ग इङ्गुदी तापसद्रुमः । काश्मीरी भद्रपर्णी श्रीपर्ण्यम्लिका तु तिन्तिडी ॥ ११४३ शेलुः श्लेष्मान्तकः पीतसालस्तु प्रियकोsसनः । पाटलिः पाटला भूर्जी बहुत्वको मृदुच्छदः ।। ११४४ डुमोललः कर्णिकारे निचुले हिज्जलेऽज्जलौ । धात्री शिवा चामलकी कलिरक्षो विभीतकः॥११४५ हरीतक्यभया पथ्या त्रिफला तत्फलत्रयम् । तौपिछस्तु तमालः स्याच्चम्पको हेमपुष्पकः || १९४६ निर्गुण्डी सिन्दुवारेऽतिमुक्तके माधवीलता । वासन्ती चौड़पुष्पं तु जैपा जातिस्तु मालती ||११४७ मल्लिका स्याद्विचकिलः सप्तला नवमालिका | मागधी यूथिका सा तु पीता स्याम पुष्पिका ॥। ११४८ प्रियङ्गुः फलिनी श्यामा बन्धूको बन्धुजीवकः । करुणे मल्लिकापुष्पो जम्बीरे जम्भजम्भलौ ॥। ११४९ मातुलुङ्गो बीजपूर : करीरककरौ समौ । पञ्चाङ्गुलः स्यादेरण्डे धातक्यां धातुपुष्पिका || ११५० कपिकच्छूरात्मगुप्ता धत्तूरः कनकाह्वयः । कपित्थस्तु दधिफलो नालिकेरस्तु लाङ्गली ॥ आम्रातको वर्षपाकी केतकः क्रकचच्छदः । कोविदारे युगपत्रः शल्लकी तु गजप्रिया ॥ वंशो वेणुर्यवफलस्वचि सारस्तृणध्वजः । मस्करः शतपर्वा च खनवान्स तु कीचकः ॥ तुकाक्षीरी वंशक्षीरी लक्क्षीरी वंशरोचना । पूगे ऋमुकगूवाकौ तस्योद्वेगं पुनः फलम् ।। ताम्बूलवल्ली ताम्बूली नागपर्यायवल्लवपि । तुम्ब्यलाबूः कृष्णला तु गुआ द्राक्षा तु गोस्तनी ॥ ११५५ मृद्वीका हारहरा च गोक्षुरस्तु त्रिकण्टकः । वदंष्ट्रा स्थलष्टङ्गाटो गिरिकर्ण्यपराजिता ॥ ११५६ व्याघ्री निर्दिग्धिका कण्टकारिका स्यादथामृता । वत्सादनी गुडूची च विशाला त्विन्द्रवारुणी ११५७ उशीरं वीरणीमूले ह्रीवेरे वालकं जलम् । प्रपुन्नाडस्वेडगजो दद्रुतश्चक्रमर्दकः ॥ लद्वायां महारजनं कुसुम्भं कमलोत्तरम् । लोध्रे तु गालवो रोघ्रतित्वशावरमार्जनाः || मृणालिनी पुटकिनी नलिनी पङ्कजिन्यपि । कमलं नलिनं पद्ममरविन्दं कुशेशयम् || परं शतसहस्राभ्यां पत्रं राजीवपुष्करे । बिसप्रसूनं नालीकं तामरसं महोत्पलम् ॥ तज्जलात्सरसः पङ्कात्परे रुँडुहजन्मजाः । पुण्डरीकं सिताम्भोजमथ रक्तसरोरुहे || रक्तोत्पलं कोकनदं कैरविण्यां कुमुद्वती । उत्पलं स्यात्कुवलयं कुवेलं कुवलं कुवम् ॥ श्वेते तु तत्र कुमुदं कैरवं गर्दभाइयम् । नीले तु स्यादिन्दीवरं हलकं रक्तसंध्यके ॥ सौगन्धिकं तु कहारं बीजकोशो वराटकः । कर्णिका पद्मनालं तु मृणालं तन्तुलं बिसम् ॥। ११६५ किंजल्कं केसरं संवर्तिका तु स्यान्नवं दलम् । करहाटः शिफा च स्यात्कन्दे सलिलजन्मनाम् || १९६६ उत्पलानां तु शालूकं नील्यां शैवालशेवले । शेवालं शैवलं शेपाल जैलाच्छूकनीलिके ॥ ११६७ धान्यं तु सस्यं सीत्यं च त्रीहिः स्तम्बकरिश्च तत् । आशुः स्यात्पाटलो व्रीहिर्गर्भपाकी तु षष्ठिकः ।। शालयः कलमाद्याः स्युः कलमस्तु कलामकः । लोहितो रक्तशालिः स्यान्महाशालिः सुगन्धिकः ११६९ ११५४ ११५८ ११५९ ११६० ११६१ ११६२ १९६३ ११६४ १. वाशा च. २. अटरूपोऽपि ३. प्रियालोऽपि. ४. नार्यङ्गोऽपि ५. विभेदकोऽपि ६. तापिच्छोऽपि. ७. जवापि ८. रुट्प्रभृतयो जलादिभ्योऽनुयन्ति, यौगिकत्वात् - वारिजसरसीरुहादयः ९. कुमुदिन्यपि १०. कुमुत् अपि ११. जलशब्दस्य शुकादिनान्वयः. For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ अभिधानसंग्रहः:- ६ अभिधानचिन्तामणिः । ११७२ ११७३ यत्रो हयप्रियस्तीक्ष्णशुकस्तोक्मस्वसौ हरित् । मङ्गल्यको मसूरः स्यात्कलायस्तु संतीनकः || ११७० हरेणुः खण्डिका चणको हरिमन्थकः । माषस्तु मदनो नन्दी वृष्यो बीजवरो बली ।। ११७१ सुतु प्रनो लोभ्यो वाटो हरितो हरित् । पीतेऽस्मिन्वसु खण्डीर प्रवेलज यशारदाः ॥ कृष्णे प्रवरवासन्तहरिमन्थजशिम्बिकाः । वनमुद्रे तुवरकनिगूढक कुलीनकाः ॥ खण्डी च राजमुद्रे तु मकुष्टकमयुष्टौ । गोधूमे सुमनो वले निष्पावः सितशिम्बिकः || ११७४ कुलत्थस्तु कालवृन्तस्ताम्रवृन्ता कुलस्थिका । आढकी तुवरी वर्णा स्याकुल्माषस्तु यावकः ।। ११७५ नीवारस्तु वनव्रीहिः शामाकश्यामकौ समौ । कस्तु कङ्गुनी कङ्गुः प्रियङ्गुः पीततण्डुला ।। ११७६ सा कृष्णा मधुका रक्ता शौधिका मुशटी सिता । पीता माधव्यथोद्दालः कोद्रवः कोरदूषकः। ११७७ चीनकस्तु काककजुर्यवनालस्तु योऽनलः । जूर्णादयो देवधान्यं जोन्नाला बीजपुष्पिका ॥ ११७८ शणं भङ्गा मातुलानी स्यादुमा तु क्षुमातसी । गवेधुका गवेधुः स्याज्जर्तिलोऽरण्यजस्तिलः ॥ ११७९ पण्डतिले तिलपिञ्जस्तिलपेजोऽथ सर्पपः । कदम्बकस्तन्तुभोऽथ सिद्धार्थः श्रुतसर्षपः ॥ ११८० माषादयः शमीधान्यं शुकधान्यं यवादयः । स्यात्सस्यशुकं किंशारुः केणिशं सस्यशीर्षकम् ।। ११८१ स्तम्बस्तु गुच्छो धान्यादेर्नाल काण्डो फलस्तु सः । पलः पलालो धान्यत्वक्तुषो बुसे कडंगरः ॥ धान्यमावसितं रिद्धं तत्पूर्वं निर्बुसीकृतम् । मूलपत्रकरीरामफलकाण्डाविरूढकाः ॥ १९८३ त्वक्पुष्पं कवकं शाकं दशधा शिग्रुकं च तत् । तण्डुलीयस्तण्डुलेरो मेघनादोऽल्पमारिषः ॥ ११८४ विम्बी रक्तफला पीलुपर्णी स्यात्तुण्डिकेरिका । जीवन्ती जीवनी जीवा जीवनीया मधुस्रवा ।। ११८५ वास्तुकं तु क्षारपत्रं पालङ्कयां मधुसूदनी । रसोनो लसुनोऽरिष्टो म्लेच्छकन्दो महौषधम् ॥ ११८६ महाकन्दो रसोनोऽन्यो गृञ्जनो दीर्घपत्रकः । भृङ्गराजो भृङ्गरजो मार्कवः केशरञ्जनः ॥ ११८७ काकमाची वायसी स्यात्कारिवेल्लः कठिल्लकः । कूष्माण्डकस्तु कर्कारुः कोशातकी पटोलिका ११८८ चिर्भटी कर्कटी वालुक्येर्वारुस्रपुसी च सा । अर्शोघ्नः सूरणः कन्दः शृङ्गवेरकमार्दकम् ।। ११८९ कर्कोटकः किलासन्नस्तिक्तपत्रः सुगन्धकः । मूलकं तु हरिपर्ण सेकिमं हस्तिदन्तकम् ॥ ११९० तृणं नडादि नीवारादि च शष्यं तु तन्नवम् । सौगन्धिकं देवजग्धं पौरं कत्तृणरोहिषे ॥ ११९१ दर्भः कुशः कुभो बर्हिः पवित्रमथ तेजनः । गुन्द्रो मुञ्जः शरो दूर्वा खनन्ता शतपर्विका ॥ ११९२ हरिताली रुहा पोटगलस्तु धमनो नङः । कुरुविन्दो मेघनामा मुस्ता गुन्द्रा तु सोत्तमा ॥ ११९३ वल्वज्ञा उलपोऽथेक्षुः स्याद्रसालोऽसिपत्रकः । भेदाः कान्तारपुण्ड्रायास्तस्य मूलं तु मोरटम् ॥ ११९४ काशस्विषीका घासस्तु यवसं तृणमर्जुनम् । विषः क्ष्वेडो रसस्तीक्ष्णं गरलोऽथ हलाहलः ।। ११९५ वत्सनाभः कालकूटो ब्रह्मपुत्रः प्रदीपनः । सौराष्ट्रकः शौल्किकेयः काकोलो दारदोऽपि च ॥ ११९६ अहिच्छत्रो मेषशृङ्गकुष्टवालूकनन्दनाः । कैराटको हैमवतो मर्कटः करवीरकः || ११९७ सर्षपो मूलको गौरार्द्रकः सत्तुककर्दम । अङ्कोल्लसार: कालिङ्गः शृङ्गिको मधुसिक्थकः ॥ ११९८ इन्द्रो लाङ्गलिको विस्फुलिङ्गपिङ्गलगौतमाः । मुस्तको दालवश्चेति स्थावरा विषजातयः || ११९९ कुरख्याद्या अग्रबीजा मूलजास्तूत्पलादयः । पर्वयोऽनय इक्ष्वाद्याः स्कन्धजाः सल्लकीमुखाः॥ १२०० शाल्यादयो वीजरुहाः संमूर्छजास्तृणादयः । स्युर्वनस्पतिकायस्य षडेते मूलजातयः ॥ १२०१ इति वनस्पतिकायः । १. सातीनोऽपि २. कनिशमपि ३. हालाहलः, हालहल: अपि For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ तिर्यकाण्डः । नीलङ्गुः कृमिग्न्तर्जः क्षुद्रः कीटो बहिर्भवः । पूलकास्तूभयेऽपि स्युः कीकसा कृमयोऽणवः ॥ १२०२ काष्ठकीटो घुणो गण्डूपदः किंचुलकः कुसूः । भूलता गण्डूपदी तु शिल्यत्रपा जलौकसः ॥१२०३ जलालोका जलूका च जलौका जलसर्पिणी । मुक्तास्फोटाब्धिमण्डूकी शुक्तिः कम्बुस्तु वारिजः ॥ त्रिरेग्वः षोडशावर्तः शङ्खोऽथ क्षुद्रकम्बवः । शङ्कनकाः क्षुल्लकाश्च शम्बूकास्त्वम्बुमात्रजाः ॥१२०५ कपर्दस्तु हिरण्यः स्यात्पणास्थिकवराटकौ । दुर्नामा तु दीर्घकोशी पिपीलकस्तु पीलकः ॥ १२०६ पिपीलिका तु हीनाङ्गी ब्राह्मणी स्थूलशीर्षिका । वृतली पिङ्गकपिशाथोपजिह्वोपदेहिका ॥ १२०० वन्युपदीका लिक्षा तु रिक्षा यूका च षट्पदी । गोपालिका महाभीरुगोमयोत्था तु गर्दभी ॥१२०८ मत्कुणस्तु कोलकुण उदंश: किटिभोत्कुणौ । इन्द्रगोपस्त्वग्निरजो वैराटस्तितिभोऽग्निकः ॥ १२०९ ऊर्णनाभस्तन्तुवायो जालिको जालकारकः । कृमिर्मर्कट को लूतालालास्रावोष्टपाच सः ॥ १२१० कर्णजलौका तु कर्णकीटा शतपदी च सा । वृश्चिको द्रुण आल्यालिरलं तत्पुच्छकण्टकः ॥१२११ भ्रमरो मधुकृट्टङ्गश्चश्वरीकः शिलीमुखः । इन्दिन्दिरोऽली रोलम्बो द्विरेफोऽस्य पंडयः ॥१२१२ भाज्यं तु पुष्पमधुनी ग्वद्योतो ज्योतिरिङ्गणः । पतङ्गः शलभः क्षुद्रा सरघा मधुमक्षिका ॥ १२१३ माक्षिकादि मधु क्षौद्रं मधूच्छिष्टं तु सिक्थकम् । वर्वणा मक्षिका नीला पुत्तिका तु पतङ्गिका१२१४ वनमक्षिका तु दंशो दंशी तज्जातिगल्पिका । तैलाटी वरटा गन्धोली स्याचीग तु चीरुका।।१२१५ झिल्लीका झिल्लिका वर्षकरी भृङ्गारिका च सा । पशुस्तिर्यचरिहिंस्रेऽस्मिन्व्यालः श्वापदोऽपि च १२१६ हस्ती मतङ्गजगजद्विपकर्यनेकपा मातङ्गवारणमहामृगसामयोनयः ।। स्तम्बेरमद्विरदसिन्धुरनागदन्तिनो दन्तावल: करटिकुञ्जरकुम्भिपीलवः ॥ १२१७ इभः करेणुर्ग|ऽस्य स्त्री धेनुका वशापि च । भद्रो मन्द्रो मृगो मिश्रश्चतस्रो गजजातयः ।। १२१८ कालेऽप्यजातदन्तश्च स्वल्पाश्चापि मत्कुणः । पञ्चवर्षो गजो बालः स्यात्पोतो दशवार्षिकः ॥१२१९ विको विंशतिवर्षः स्यात्कलभस्त्रिंशदव्दकः । यूथनाथो यूथपतिर्मत्ते प्रभिन्नजितौ ॥ १२२० मदोत्कटे मदकल: समावुद्वान्तनिर्मदौ । सज्जितः कल्पितस्तिर्यग्घाती परिणतो गजः ॥ १२२१ व्यालो दुष्टगजो गम्भीरवेद्यवमताङ्कुशः । राजबाह्यस्तूंपबाह्यः संनाह्यः समरोचितः ॥ १२२२ उदग्रदन्नीपादन्तो बहूनां घटना घटा । मदो दानं प्रवृत्तिश्च वमथुः करशीकरः ॥ १२२३ हस्तिनासा करः शुण्डा हस्तोऽस्याग्रं तु पुष्करम् । अङ्गुलिः कर्णिका दन्तौ विषाणौ स्कन्ध आसनम् कर्णमूलं चूलिका स्यादीषिका लक्षिकूटकम् । अपाङ्गदेशो निर्याणं गण्डस्तु करट: कटः ॥ १२२५ अवग्रहो ललाटं स्यादारक्षः कुम्भयोरधः । कुम्भौ तु शिरसः पिण्डौ कुम्भयोरन्तरं विदुः ॥१२२६ वातकुम्भस्तु तस्याधो वाहित्थं तु ततोऽप्यधः । वाहित्याधः प्रतिमानं पुच्छमूलं तु पेचकः ॥१२२७ दन्तभागः पुरोभाग: पक्षभागस्तु पार्श्वकः । पूर्वस्तु जङ्घादिदेशो गात्रं स्यात्पश्चिमोऽपरा ॥ १२२८ बिन्दुजालं पुनः पद्मं शृङ्खलो निगडोऽन्दुकः । हिजीरश्च पादपाशो वारिस्तु गजबन्धभूः ॥१२२९ त्रिपदी गात्रयोर्बन्ध एकस्मिन्नवरेऽपि च । तोत्रं वेणुकमालानं बन्धस्तम्भोऽङ्कुशः शृणिः ॥ १२३० अपष्टं बङ्कुशस्याग्रं यातमङ्कुशवारणम् । निषादिनां पादकर्म यतं वीतं तु तहयम् ॥ १२३१ १. किंचुलुकोऽपि. २. क्रिमिरपि. ३. द्रुतोऽपि. ४. इकारान्तो नकारान्तो वा. ५. तेन षट्पदः, षडंतिः, घट्चरणः, इत्यादयः. ६. तेन पुष्पलिट , पुष्पंधयः, मधुव्रतः, मधुलिट्, मधुपः, इति सिद्धम्. ७. ऊपवाह्योऽपि. ८. अवरापि. ९. निगलोऽपि, For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४८ अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः । १२३६ १२३७ १२३८ १२३९ कक्ष्या दूष्या वरत्रा स्यात्कण्ठबन्धः कलापकः । घोटकस्तुरगस्तार्क्ष्यस्तुरंगोऽश्वस्तुरंगमः || १२३२ गन्धर्वोऽर्वा सप्तिवीती वाहो वाजी हयो हरिः । वडवाश्वा प्रसूर्वामी किशोरोऽल्पवया हयः।। १२३३ जवाधिकस्तु जवनो रथ्यो वोढा रथस्य यः | आजानेयः कुलीनः स्यात्तत्तद्देशास्तु सैन्धवाः || १२३४ वनायुजाः पारशीकाः काम्बोजा वाल्हिकादयः । विनीतस्तु साधुवाही दुर्विनीतस्तु शुकलः ।। १२३५ कश्यः कशाों हृद्रकावर्ती श्रीवृक्षकी हयः । पञ्चभद्रस्तु हृत्पृष्टमुखपार्श्वेषु पुष्पितः ॥ पुच्छोरः खुरके शास्यैः सितैः स्यादष्टमङ्गलः । श्वेते तु कर्ककोकाहौखोङ्गाहः श्वेतपिङ्गले ॥ पीयूपवर्णे सेराहः पीते तु हरियो हये | कृष्णवर्णे तु खङ्गाहः कियाहो लोहितो हयः | आनीलस्तु नीलकोऽथ त्रियूहः कपिलो हयः । वोल्लाहस्त्वयमेव स्यापाण्डुकेसरवालधिः ॥ उगहस्तु मनाक्पाण्डुः कृष्णजङ्घो भवेद्यदि । सुरूहको गर्दभाभो वोरुखानस्तु पाटलः ॥ कुलाहस्तु मनापीतः कृष्णः स्याद्यदि जानुनि | उकनाहः पीतरक्तच्छायः स एव तु कचित् १२४१ कृष्णरक्तच्छविः प्रोक्तः शोणः कोकनदच्छविः । हरितः पीतहरितच्छायः स एव हालकः ।। १२४२ पङ्गुलः सितकाचाभो हलाहश्वित्रितो हयः । ययुरश्वोऽश्वमेधीय: प्रोथमश्वस्य नासिका ॥ १२४३ मध्यं कश्यं निगालस्तु गल्लोदेशः खुराः शफाः । अथ पुच्छे वालहस्तो लाङ्गलं लूम वालधिः १२४४ अपावृत्तपरावृत्तलुठितानि तु वेतेि । धरितं वल्गितं प्लुत्युत्तेजितोत्तेरितानि च || १२४६ गतयः पञ्च धाराख्यास्तुरंगाणां क्रमादिमाः । तत्र धौरितकं धौर्य धोरणं धोरितं च तत् || १२४६ वङ्गशिखिकोडगतिवद्वल्गितं पुनः । अग्रकायसमुल्लासात्कुञ्चितास्यं नतत्रिकम् ॥ १२४० 1 १२४७ १२४८ १२४९ १२५३ तंतु लङ्घनं पक्षिमृगगत्यनुहारकम् । उत्तेजितं रेचितं स्यान्मध्यवेगेन या गतिः ॥ उत्तेरितमुपकण्ठमास्कन्दितकमित्यपि । उत्प्लुत्योत्प्लुत्य गमनं कोपादिवाखिलैः पदैः ॥ आश्वीनोऽध्वा स योऽश्वेन दिनेनैकेन गम्यते । कवी खलीनं कविका कवियं मुखयन्त्रणम् ॥ १२५० पचाङ्गी पट्टे तु तलिका तलसारकम् । दामाञ्चनं पादपाशः प्रक्षरप्रखरौ समौ ॥ १२५१ चर्मदण्डे कशा रश्मौ वै गावक्षेपणी कुशा । पर्याणं तु पल्ययनं वीतं फल्गु हयद्विपम् ।। १२५२ वेरोऽश्वतरी वेगसरचाथ ऋमेलकः । कुलनाशः शिशुनामा शलो भोलिर्मरुप्रियः ॥ मेयो महाङ्गो वासन्तो द्विककुद्दुर्गलङ्घनः । भूतन्न उष्टो दाशेरो रवणः कण्टकासनः ।। दीर्घग्रीवः केलिकीर्णः करभस्तु त्रिहायणः । स तु शृङ्खलको दारुमयैः स्यात्पादबन्धनैः || गर्दभस्तु चिरमेही वायो रासभः खरः । चक्रीवाशङ्कुकर्णोऽथ ऋषभो वृषभो वृषः ॥ वाडवेयः सौरभेयो भद्रः शकरशाकरौ । उक्षानङ्खान्ककुद्मान्गौर्बलीवर्दश्व शांकरः ॥ उक्षा तु जातो जातोक्षः स्कन्धकः स्कन्धवाहकः । महोक्षः स्यादुक्षतरो वृद्धोक्षस्तु जरद्भवः १२५८ तोचि आर्यभ्यः कूटो भमविषाणकः । इंदूरोगोपतिः षण्ढो गीवृषो मदकोहलः ॥ १२५९ वत्सः शकृत्करिस्तर्णो दम्यवत्सतरौ समौ । नस्योतो नस्तितः षष्ठवाट् तु स्याद्युगपार्श्वगः || १२६० युगादीनां तु वोढारो युग्यप्रासङ्गयशाकटाः । स तु सर्वधुरीणः स्यात्सर्वा वहति यो धुरम् || १२६१ एकधुरीणैकधुरावुभावेकधुरावहे । धुरीणधुर्यधौरेयधौरेयकधुरंधराः ॥ १२६२ धूर्व हेऽथ गलिर्दुष्टवृषः शक्तोऽप्यधूर्वहः । स्थैौरीष्टष्टयः पृष्टवायो द्विदन्षडद्विषदौ ॥ १२६३ वहः स्कन्धोंऽसकूटं तु ककुदं नैचिकं शिरः । विषाणं कूणिका शृङ्गं सास्ना तु गलकम्बलः १२६४ १. वल्गवागे अपि २. मयुरित्येके. ३. इत्वर इत्येके. १२५७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only १२५४ १२५५ १२५६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ तिर्यकाण्डः | १२६५ 1 १२६८ १२७२ 1 १२८० गौः सौरभेयी माहेयी माहा सुरभिरर्जुनी । उसाध्या रोहिणी शृङ्गिण्यनड्राह्यनडुह्युषा ॥ तम्पा निलिम्पिका तम्बा सा तु वर्णैरनेकधा । प्रष्टौही गर्भिणी वन्ध्या वंशा बेहद्वृषोपगा || १२६६ अवतीका स्रवद्गर्भा वृषाकान्ता तु संधिनी । प्रौढवत्सा वष्कयिणी धेनुस्तु नवसूतिका || १२६७ रेष्टुर्वसूतिः स्यादृष्टिः सकृत्प्रसूतिका । प्रजने काल्योपसर्या सुखदोह्या तु सुव्रता ॥ दुःखदा तु करा बहुदुग्धा तु बञ्जला । द्रोणदुग्धा द्रोणदुघा पीनोनी पीवरस्तनी ॥ १२६९ पीतदुग्धा तु धेनुष्या संस्थिता दुग्धबन्धकैः । नैचिकी तूत्तमा गोषु पलिक्नी वालगर्भिणी || १२७० समांसमीना तु सा या प्रतिवर्ष प्रजायते । स्यादचण्डी तु सुकरा वत्सकामा तु वत्सला १२७१ चणीयेकाद्धान्येकादिवर्षिका । आपीनमूधो गोविट् तु गोमयं भूमिलेपनम् ॥ तत्र शुष्के तु गोग्रन्थिः करीपळगणे अपि । गवां सर्व गव्यं व्रजे गोकुलं गोधनं धनम् || १२७३ प्रजने स्यादुपसरः कील: पुष्पलकः शिवः । बन्धनं दाम संदानं पशुरज्जुस्तु दामनी ॥ १२७४ अजः स्याच्छगलञ्छागश्छगो बस्तः स्तभः पशुः | अजा तु च्छागिका मञ्जा सर्वभक्षा गलस्तनी || युवाजो वर्करोsaौ तु पोर्णायुहु डोरणाः । उरो मेण्ढको वृष्णिरेडको रोमशो हुहुः || १२७६ संफाल : शृङ्गियो भेडो मेपी तु कुररी रुजा । जालकिन्यविला वेण्यथेडिकः शिशुवाहकः ।। १२७७ पृष्ठशृङ्गो वनाजः स्यादविदुग्धे त्ववेः परम् । सोढं दूस मरीमं च कुक्कुरो वक्रवालधिः || १२७८ अस्थिभुग्भूषणः सारमेयः कौलेयकः शुनः । शुनिः श्रानो गृहमृगः कुर्कुरो गत्रिजागरः || १२७९ रसनालिट्टैतपराः कीलशायित्रणान्दुकाः । शालानुको मृगदंशः श्रालर्कस्तु स रोगितः ॥ विश्वकद्रुस्तु कुशलो मृगव्ये सरमा शुनी । विट् चरः शुकरो ग्राम्ये महिषो यमवाहनः || १२८१ रजखलो बाहरिपुर्लुलायः सैरिभो महः । धीरस्कन्धः कृष्णशृङ्गो जरन्तो दंशभीरुकः || १२८२ रक्ताक्षः कासरो हंसकालीतनयलालिकौ । अरण्य जेऽस्मिन्गवलः सिंहः कण्ठीरवो हरिः || १२८३ हर्यक्षः केसरीभारिः पञ्चास्यो नखरायुधः । महानादः पञ्चशिखः पारीन्द्रः पत्यरी मृगात् ॥ १२८४ श्वेतपिङ्गोऽप्यथ व्यावो द्वीपी शार्दूलचित्रको । चित्रकायः पुण्डरीकस्तरक्षुस्तु मृगादनः || १२८५ शरभः कुञ्जरारातिरुत्पादकोऽष्टपादपि । गवयः स्याद्वनगवो गोसहक्षोऽववारणः । १२८६ ग्वङ्गी वार्ध्रीणसः खङ्गो गण्डकोऽथ किरः किरिः । भूदारः सूकरः कोलो वराहः क्रोडपोत्रिणौ १२८७ घोणी वृष्टिः स्तब्धरोमा दंष्ट्री किट्या स्लाङ्गलौ | आखनिकः शिरोमर्मा स्थूलनासो बहुप्रजः ।। १२८८ भालूक भालूकच्छ भलभल्लुकलुका: । सृगालो जम्बुक: फेरु: फेरण्ड: फेरव: शिवा ।। १२८९ घोरवाशी भूरिमायो गोमायुर्मृगधूर्तकः । हूवो भरुजः क्रोष्टा शिवाभेदेऽल्पके किखि: ।। १२९० पृथौण्डिलोपाको कोकस्वीहामृगो वृकः । अरण्यश्वा मर्कटस्तु कपिः कीशः लवंगमः || १२९१ प्लवंगः प्लवगः शाखामृगो हरिर्वलीमुखः । वनौका वानरोऽथासौ गोलाङ्गलोऽसिताननः || १२९२ मृगः कुरङ्गः सारङ्गो वातायुहरिणावपि । मृगभेदा करुन्यङ्कुरङ्कगोकर्णशम्बराः || १२९३ चम्मचीन मराः समूरैणयेरौहिषाः । कदली कन्दली कृष्णसारः पृषतरोहितौ ॥ दक्षिणेर्मा तु स मृगो व्याधैर्यो दक्षिणे क्षतः । वातप्रमीर्वातमृगः शशस्तु मृदुलोमकः ॥ १२९५ शूलिको लोमकर्णोऽथ शल्ये शललशल्यकौ । श्राविच्च तच्छलाकायां शललं शलमियपि ।। १२९६ १२९४ ७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. तेन अविमरीसमित्यन्ता बोध्या:. २. भपकोऽपि ३. तेन रतकीलः, रतशायी, रतन्रणः, रतान्दुक:. ४. मृगशब्दः पत्यरिभ्यां संबध्यते ५ अष्टापदोऽपि For Private and Personal Use Only ४९ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८० अभिधान संग्रह: --६ अभिधानचिन्तामणिः । १२९९ १३०० १३०१ गोवा हा दुष्टतते । गौधेयोऽन्यत्र मुसली गोधिकागोलिके गृहात् ॥ १२९७ माणिक्या भित्तिका पट्टी कुड्यमत्स्यो गृहोलिका । स्यादञ्जनाधिका हालिन्यञ्जनिका हलाहलः १२९८ स्थूलाञ्जनाधिकायां तु ब्राह्मणी रक्तपुच्छका | कृकलासस्तु सरटः प्रतिसूर्यः शयानकः || मृषिको मृषको वज्रदशनः ग्वनकोन्दुगै । उन्दुरुर्व्वष आखुश्च सूच्यास्यो वृषलोचने || कुछन्दरीगन्धमृयां गिरिका बालमृषिका । विडाल ओतुर्मार्जारो हीकुच वृषदंशकः ॥ जाहको गात्रसंकांची मण्डली नकुलः पुनः । पिङ्गलः सर्पहा बभ्रुः सर्पोऽहिः पवनाशनः || १३०२ भांगी भुजंगभुजगावरगो द्विजिहव्याली भुजंगममरीसृपदीर्घजिह्वाः । काकोदरो विषवरः 'फणभृत्यृदा कुर्द कर्ण कुण्डलिविलेशय दन्दशूकाः || दकरः ककिचकिगृहपात्पन्नगा जिह्मगलेलिहानौ । कुम्भीनसाशीविषदीर्घपृष्टाः स्याद्राजसर्पस्तु भुजंगभोजी || १३०४ १३०९ १३१० १३११ चक्रमण्डल्यजगरः पारीन्द्रो वाहसः शयुः । अलगद जलव्यालः समौ राजिलडुण्डुभौ ।। १३०५ भवेत्तिलित्मो गोनासो गोनसो घोणसोऽपि च । कुकुटाहिः कुकुटाभो वर्णेन च रवेण च ।। १३०६ नागाः पुनः काद्रवेयास्तेषां भोगावती पुरी । शेषो नागाधिपोऽनन्तो द्विसहस्राक्ष आलुकः || १३०७ स च श्यामोऽथवा शुक्लः सितपङ्कजलाञ्छनः । वासुकिस्तु सर्पराजः वेतो नीलसरोजवान || १३०८ तक्षकस्तु लोहिताङ्गः स्वस्तिकाङ्कितमस्तकः । महापद्मस्त्वतिशुक्लो दशविन्दुक मस्तकः ॥ शङ्गस्तु श्रुतो विभ्राणो रेखामिन्दुसितां गये । कुलिकोर्द्धचन्द्रमौलिज्वाला धूमसमप्रभः ॥ अथ कम्बलाश्वतरार्धृतराष्ट्रबलाहकाः । इत्यादयोऽपरे नागास्तत्तत्कुलसमुद्भवाः ॥ निर्मुक्तो मुक्तनिर्माांकः सविषा निर्विषाश्च ते । नागाः स्युर्हग्विपा लूनविपास्तु वृश्चिकादयः ॥ १३१२ व्यावायो लोमविषा नवविया नरादयः । लालाविषास्तु दूतायाः कालान्तरविषाः पुनः ।। १३४३ पिकाद्या दृषीविषं ववर्थमोपचादिभिः । कृत्रिमं तु विषं चारं गरोपविषं च तत् ॥ १३१४ भोगोऽहिकाय दाशीदेवी भोग: फट: स्फट: । फणोऽहिकोशे तु निर्व्वयनी निर्मोककशुकाः ॥ विहगो विहंगमखगौ पतगाँ विहंगः शकुनिः शकुन्तशकुनौ विवयः शकुन्ताः । नभसंगमो विकिरपत्रस्थौ विहायो द्विजपक्षिविष्किरपतत्रिपतत्पतङ्गाः ॥ १३१६ पित्सन्नीडाण्ड जोगौ काञ्च शुश्र स्पाटिका । त्रोटिन पत्रं पत्रं पिच्छं वाजस्तनूरुहम् || १३१७ पक्षो गरुच्छदृचापि पक्षमूलं तु पक्षतिः । प्रडीनोड्डीनसंडीनडयनानि नभोगतौ ॥ १३१८ पेशी कोशांण्डे कुलायो नीडे केकी तु सर्पभुक् । मयूरवर्हिणौ नीलकण्टो मेघसुहच्छिखी ॥ १३१९ शुक्लापाङ्गोऽस्य वाकेका पिच्छे वह शिखण्डकः । प्रचलाकः कलापश्च मेचकश्चन्द्रकः समौ ॥ १३२० वनप्रियः परभृतस्ताम्राक्षः कोकिलः पिकः । कलकण्ठः काकपुष्टः काकोऽरिष्टः सकृत्प्रजः ॥ १३२१ आत्मबोपचिरजीवी चूकारिः कटो द्विकः । एकहरवलिभुग्ध्वाङ्को मौकुलिर्वायमोऽन्यभृत ॥ १३२२ वृद्धद्रोणदग्धकृष्णपर्वतेभ्यस्त्वमौ परः । वनाश्रयच काकोलो मस्तु जलवायसः ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३०३ १३२३ धुके निशाट: काकारिः कौशिकोलूकपेचकाः । दिवान्धोऽथ निशावेदी कुकुटञ्चरणायुधः || १३२४ कृकवाकुस्ताम्रचूडो विवृताक्षः शिखण्डिकः । हंसाञ्चक्राङ्गवाङ्गमानसौकः सितच्छदाः || १३२५ For Private and Personal Use Only १. तेन ग्रहगोधिका, गृहगोलिका. २. 'प्रतिसूर्यशयानकः' इत्येकं नामापि ३. एककुण्डलो पि. ४. निर्लयनीत्यपि. ५. शब्द नीडेनाप्यन्वेति ६ तेन बद्धकाक इत्यादयः. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दतियकाण्डः । गजहंसाम्त्वमी चक्षुचरणैर्गतलाहितैः । मल्लिकाक्षास्तु मलिनतराष्ट्राः सितेतरैः ॥ १३२६ कादम्बास्तु कलहंसाः पौः स्यादतिधूसरैः । वारला वरला हंसी वारटा वरटा च सा ॥ १३२७ दाघाटः शतपत्रः ग्व अरीठस्तु खञ्जनः । सारसस्तु लक्ष्मणः स्यात्पुष्कराख्यः कुरंकरः ॥ १३२८ साग्मी लक्ष्मणाथ क्रौञ्चे चापे किंकीदिविः । चातकः स्तोकको वप्पीह: मारङ्गो नभोम्बुपः१३२९ चक्रवाको ग्याङ्गादः कोको द्वन्द्वचगेऽपि च । टिट्टिभस्तु कटुकाण उत्पादशयनश्च सः ॥ १३३० चटको गृहलिभुक्कलविङ्कः कुविककः । तस्य योषित्त चटका ख्यपत्ये चटका तयोः ॥ १३३१ पुमपत्ये चाटकैरो दात्यूहे कालकण्टकः । जलरङ्कुलर जो बके कहो बकोटवन् ॥ १३३२ वलाहकः स्याद्लाको वलाका विसकण्टिका । भृङ्गः कलिङ्गो धूम्याट: कङ्कस्तु कमनच्छदः।।१३३३ लोहपृष्टो दीर्घपादः कर्कटः स्कन्धमल्लकः । चिल्लः शकुनिरातापी श्येनः पत्री शशादनः ॥ १३३४ दाक्षाय्यो दूरदग्गृध्रोऽथाकोशो मत्स्यनाशनः । कुररः कीरस्तु शुको रक्तपाद: फलादनः ॥ १३३५ शारिका तु पीतपादा गोराटी गोकिगटिका । स्याचर्मचटकायां तु जतुका जिनपत्रिका ॥ १३३६ वल्गुलिका मुग्वविष्टा परोष्णी तैलपायिका । कर्करेटुः करेटुत्स्यात्करटुः कर्कराटुकः ॥ १३३७ आतिराटि: शगरि: स्यात्कृकणक्रकरौ समौ । भासे शकुन्त: कोयष्टौ शिखरी जलकुकुभः।।१३३८ पागवतः कलरवः कपोतो रक्तलोचनः । ज्योत्स्नाप्रिये चलच चकोरविषसूचकाः ॥ १३३१. जीवंजीवस्तु गुन्द्रालो विपदर्शनमृत्युकः । व्यावाटस्तु भरद्वाजः प्लवस्तु गात्रसंप्लवः ॥ १६४० नित्तिग्न्तुि म्बरकोणो हारीतन्तु मृदङ्करः । कारण्डवस्तु माल: सुगृहश्चक्षुसूचिकः ॥ १३४१ कुम्भकारकुकटस्तु कुकभः कुहकम्वनः । पक्षिणा येन गृह्यन्ते पक्षिणोऽन्ये स दीपकः ॥ १३४२ छेका गृह्याश्च ते गेहासत्ता ये मृगपक्षिणः । मत्स्यो मीनः पृथुरोमा झषो वैमारिणोऽण्डजः॥१३४३ संघचारी स्थिजिद्द आत्माशी स्वकुलक्षयः । विसार: शकली शल्की शंबरोऽनिमिषस्तिमिः ॥१३४४ महत्रदंष्ट्र वादाल: पाठीने चित्रवल्लिकः । शकुले स्यात्कलकोऽथ गडकः शकुलार्भकः ॥ १३४५ उलपी शिशुके प्रोष्टी शफर: श्वेतकोलके । नलमीनचिलिचिमो मत्स्यराजन्तु रोहितः ॥ १३४६ मद्गुरस्तु राजशृङ्गः शृङ्गी तु मद्रप्रिया । अद्राण्डमत्स्यजातं तु पोताधानं जलाण्डकम् ॥ १३४७ महामत्स्यास्तु चीरल्लितिमिगिलगिलादयः । अथ यादांसि नकाद्या हिंसका जलजन्तवः ॥ १३४८ नक्रः कुम्भीर आलास्यः कुम्भी महामुखोऽपि च । तालुजिह्वः शङ्खमुखो गोमुखो जलसूकर: १३४९ शिशुमारस्त्वम्वुकूर्म उष्णवीर्यो महावसः । उद्रस्तु जलमार्जार: पानीयनकुलो वसी ॥ १३५० ग्राहे तन्तुस्तन्तुनागोऽवहारो नागतन्तुणौ । अन्येऽपि यादोभेदाः स्युर्वहवो मकरादयः ॥ १३५१ कुलीर: कर्कटः पिङ्गचक्षः पार्थोदरप्रियः । द्विधागति: पोडशांभिः करचिल्लो बहिश्चरः ॥ १३५२ कच्छपः कमटः कर्मः क्रोडपादश्चतुर्गतिः । पञ्चाङ्गगुप्रदौलेयौ जीवथः कच्छपी दुली ॥ १३५३ मण्डूके हरिशालूरप्लवभेकप्लवंगमाः । वर्षाभूः प्लवग: शालुरजिह्वव्यङ्गदर्दुगः ॥ १३५४ म्थले नगदयो ये तु ते जले जलपूर्वकाः । अण्डजाः पक्षिसर्पाद्याः पोतजाः कुञ्जरादयः ।। १३५५ रसजा मद्यकीटाद्या नृगवाद्या जगयुजाः । युकाद्याः स्वेदजा मत्स्यादयः संमूर्च्छनोद्भवाः ॥१३५६ १. लक्ष्मणीत्यपि. २. किकी, दिविः इति द्वे नामनी अपि । किकिदिविरपि. ३. टीटिभ इत्येके. ४. दात्याहो..पि. ५. वकेस्कापि, ६. निशाटन्यपि, ७. चिलीचीमोऽपि. ८. शङ्कमुखोऽपि. ९, वरुणपाशोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२ अभिधानसंग्रहः-६ अभिधानचिन्तामणिः । उद्भिदः खञ्जनाचोपपादुका देवनारकाः । रसयोनय इत्यष्टावद्भिदुङ्गिज्जमुद्धिदम् ॥ १३५७ इत्याचार्यहेमचन्द्रविचितायामभिधानचिन्तामणी नाममालायां तिर्यकाण्डश्चतुर्थः ॥ ४ ॥ स्युनारकास्तु परेतप्रेतयात्यातिवाहिकाः । आजूर्विष्टिर्यातना तु कारणा तीव्रदेवना ॥ नरकस्तु नारकः स्यान्निरयो दुर्गतिश्च सः । घनोदधिधनवाततनुवातनभःस्थिताः ॥ रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमःप्रेभाः। महातमःप्रभा चेत्यधोधो नरकभूमयः ॥ १३६० क्रमात्पृथुतराः सप्ताथ त्रिंशत्पञ्चविंशतिः । पञ्च पञ्चदश त्रीणि लक्षाण्यूनं च पञ्चभिः ॥ १३६१ लक्षं पञ्चैव नरकावासाः सीमन्तकादयः । एतासु स्युः क्रमेणाथ पातालं वडवामुखम् ॥ १३६२ वलिवेश्माधोभुवनं नागलोको रसातलम् । रन्ध्र विलं निर्व्यवनं कुहरं शुषिरं शुषिः ॥ १३६३ छिद्रं रोपं विवरं च निम्नं रोकं वपान्तरम् । गर्तश्वभ्रावटागाधदरास्तु विवरे भुवः ॥ १३६४ ___इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितायामभिधानचिन्तामणो नाममालायां नरककाण्डः पञ्चमः ॥ ५॥ स्याल्लोको विष्टपं विश्वं भुवनं जगती जगत् । जीवाजीवाधारक्षेत्रं लोकोऽलोकस्ततोऽन्यथा ॥१३६५ क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषश्चेतनः स पुनर्भवी । जीवः स्यादसुमान्सत्वं देहभृज्जन्युजन्तवः ॥ १३६६ उत्पत्तिर्जन्मजनुषी जननं जनिरुद्भवः । जीवेऽसुजीवितप्राणा जीवातुर्जीवनौषधम् ॥ १३६७ श्वासस्तु वसितं सोऽन्तर्मुख उच्छास आहरः । आनो बहिर्मुखस्तु स्यान्निःश्वास: पान एतनः॥१३६८ आयुर्जीवितकालोऽन्तःकरणं मानसं मनः । हृञ्चेतो हृदयं चित्तं स्वान्तं गूढपथोच्चले ॥ १३६९ मनसः कर्म संकल्पः स्यादथो शर्मनिवृतिः । सातं सौख्यं सुखं दुःखं त्वसुखं वेदना व्यथा।।१३७० पीडा बाधातिगभीलं कृच्छं कष्टं प्रसूतिजम् । आमनस्यं प्रगाढं स्यादाधि: स्यान्मानसी व्यथा॥१३७१ सपत्राकृतिनिष्पत्राकृती खत्यन्तपीडने । सुज्जाठराग्निजा पीडा व्यापादो द्रोहचिन्तनम् ॥ १३७२ उपजा ज्ञानमाद्यं स्याचर्चा संख्या विचारणा । वासना भावना संस्कारोऽनुभूताद्यविस्मृतिः ॥१३७३ निर्णयो निश्चयोऽन्तः संग्रधारणा समर्थनम् । अविद्याहंमत्यज्ञाने भ्रान्तिर्मिथ्यामतिभ्रमः ॥ १३७४ संदेहद्वापगरेका विचिकित्सा तु संशयः । परभागो गुणोत्कर्षो दोषे त्वादीनवाश्रवौ ॥ १३७५ स्वाद्रूपं लक्षणं भावश्चात्मप्रकृतिरीतयः । सहजो रूपतत्त्वं च धर्मः सर्गो निसर्गवत् ॥ १३७६ शीलं सतत्त्वं संसिद्धिरवस्था तु दशा स्थितिः । स्नेहः प्रीतिः प्रेम हार्दे दाक्षिण्यं त्वनुकूलता॥१३७७ विप्रतिसागेऽनुशयः पश्चात्तापोऽनुतापश्च । अवधानसमाधानप्रणिधानानि तु समाधौ स्युः ।। १३७८ धर्मः पुण्यं वृषः श्रेयः सुकृते नियतौ विधिः । देवं भाग्यं भागधेयं दिष्टं चायस्तु तच्छुभम् ॥१३७९ अलक्ष्मीनि:तिः कालकणिका स्यादथाशुभम् । दुष्कृतं दुरितं पापमेनः पाप्मा च पातकम् ।। १३८० किल्विषं कलुषं किण्वं कल्मषं वृजिनं तमः । अंहः कल्कमचं पङ्क उपाधिर्धर्मचिन्तनम् ॥ १३८१ त्रिवर्गा धर्मकामार्थाश्चतुर्वर्गः समोक्षकाः । बलतूर्याश्चतुर्भद्रं प्रमादोऽनवधानता ॥ १३८२ छन्दोऽभिप्राय आकृतं मतभावाशया अपि । हृषीकमक्षं करणं स्रोतः खं विषयीन्द्रियम् ॥ १३८३ बुद्धीन्द्रियं स्पर्शनादि पाण्यादि तु क्रियेन्द्रियम् । स्पर्शादयस्त्विन्द्रियार्थी विषया गोचरा अपि ॥१३८४ १. यौगिकत्वात्-नारकिक-नैरयिक-नारकीयादयः. २. प्रभाशब्दः प्रत्येकं रतादिभिरन्वयः. ३. दन्त्यादिरित्येके. ४. जीवोऽपि. ५. यौगिकत्वात्-देहभाक् शरीरीत्यादयः ६. अदन्तोऽपि. ७. जीवातुरपि. ८. अनिन्द्रियमपि. ९. विकल्पोऽपि. १०. शर्ममपि. ११. स्वशब्दो रूपादिभिरन्वेति, १२. विप्रतीसारोऽपि. १३. अर्था अपि. For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ मामान्यकाण्डः। शीत तपार: शिशिरः सुशीमः शीतलो जडः । हिमोऽयोमे तिग्मस्तीक्ष्णस्तीत्रश्चण्डः खर: पटः ॥ कोष्णः कवोष्णः कदुष्णा मन्दोणवेषदुष्णवत निष्ठुर: कस्खटः क्रूरः परूषः कर्कशः खरः।।१३८६ दृढः कठोर: कटिनो जग्टः कोमल: पुनः । मृदुलो मृदुसोमालसुकुमारा अकर्कशः ॥ १३८७ मधुरस्तु रसज्येष्टो गुल्यः स्वादुमधूलकः । अम्लस्तु पाचनो दन्तशठोऽथ लवणं सरः ।। १३८८ सर्वरसोऽष कटुः स्यादोपणो मुखशोधनः । वक्रभेदी तु तितोऽथ कषायस्तुवरो रसाः ॥ १३८९ गन्धो जनमनोहार्ग सुभिर्धाणतर्पणः । समाकर्षी तु निर्हारी स आमोदो विदूरगः ॥ १३९० विमत्थिः परिमलोऽथामोदी मुखवासनः । इष्टगन्धः सुगन्धिश्च दुर्गन्धः पूतिगन्धिकः ॥ १३९१ आमगन्धि तु विसं स्याद्वर्णाः श्वेतादिका अमी । वेतः श्येतः सितः शुक्लो हरिणो विशदः शुचिः।। अवदातगौरशुभ्रवलक्षधवलार्जुनाः । पाण्डुरः पाण्डरः पाण्डुरीपत्पाण्डुस्तु धूसरः ॥ १३९३ कापोतस्तु कपोताभः पीतस्तु सितरञ्जनः । हारिद्रः पीतलो गौरः पीते नीलः पुनर्हरित् ॥ १३९४ पालाशो हरितस्तालकाभो रक्तस्तु रोहितः । माञ्जिष्टो लोहितः शोण: श्वेतरक्तस्तु पाटलः ।। १३९५ अरुणो बालसंध्याभः पीतरक्तस्तु पिञ्जरः । कपिल: पिङ्गलः श्यावः पिशङ्गः कपिशो हरिः॥१३९६ वर्धः कद्रः कडारश्च पिङ्ग कृष्णस्तु मेचकः । स्याद्रामः श्यामल: श्यामः कालो नीलोऽसितः शितिः॥ रक्तश्यामे पुनर्धम्रधूमलावथ कव॒रः । किरि एतः शवलश्चित्रकल्माषचित्रलाः ॥ १३९८ शब्दो निनादो निर्घोष: स्वानो ध्वान: स्वगे ध्वनिः । निहादो निनदो हादो निस्वानो निस्वनः स्वनः ।। रखो नादः स्वनिर्घोप: संव्याइभ्या राव आरवः । कणनं निकण: काणो निकाणश्च कणो रणः ।। पढ़ज ऋपभगान्धाग मध्यमः पञ्चमस्तथा । धैवतो निषधः सप्त तत्रीकण्ठोद्भवाः स्वराः ।। १४०१ ने मन्द्रमध्यताराः स्युझरःकण्ठशिरोद्भवाः । रुदितं ऋन्दितं क्रुष्टं तदपुष्टं तु गहरम् ॥ १४०२ शब्दो गुणानुगगोत्थः प्रणाद: सीत्कृतं नृणाम् । पर्दनं गुदजे शब्दे कर्दनं कुक्षिसंभवे ॥ १४०३ वेडा तु सिंहनादोऽथ क्रन्दनं सुभटध्वनिः । कोलाहल: कलकलस्तुमुलो व्याकुलो रवः ॥१४०४ मर्मगे वस्त्रपत्रादेर्भूपणानां तु शिञ्जितम । हेपा हेषा तुरंगाणां गजानां गर्जवहिते ॥ १४०५ विस्फारो धनुषां हंभारम्भे गोर्जलदस्य च । म्तनितं गजितं गर्जिः स्वनितं रसितादि च ॥ १४०६ कृजितं स्याद्विहंगानां तिरश्चां तवाशिते । वृकस्य रेषणं रेषा बुकनं भषणं शुनः ॥ १४०७ पीडितानां तु कणितं मणितं रतकृजितम् । प्रकाण: प्रकणस्तव्या मर्दलस्य तु गुन्दलः ॥ १४०८ क्षीजनं तु कीचकानां भेर्या नादस्तु दर्दुरः । तारोऽत्युच्चैर्ध्वनिमन्द्रो गम्भीरो मधुरः कलः ॥ १४०९ काकली तु कलः सूक्ष्म एकतालो लयानुगः । काकुर्ध्वनिविकारः स्यात्प्रतिश्रुत्तु प्रतिध्वनिः ॥१४१० संघाते प्रकगधवारनिकरव्यूहाः समूहश्चयः संदोहः समुदायराशिविसरत्राताः कलापो व्रजः । कुटं मण्डलचक्रवालपटलस्तोमा गणः पेटकं वृन्दं चक्रकदम्बके समुदयः पुञ्जोत्करौ संहतिः । १४११ समवायो निकरम्वं जालं निवहसंचयौ । जातं तिरश्चां तथं संघसार्थों तु देहिनाम् ॥ १४१२ कुलं तेषां सजातीनां निकायस्तु सर्मिणाम् । वर्गस्तु सदृशां स्कन्धो नरकुञ्जरवाजिनाम् ॥ १४१३ १. मुपीमोऽपि. २. रावशब्द: समादिभिरन्वेति. ३. गर्जापि. ४. मद्रोऽपि. ५. काकलिरपि. ६. आकरोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानमंग्रहः-६ अभिधानचिन्नामाणः । ग्रामो विपयशब्दाम्प्रतन्द्रियगणाहजे । समजस्तु पगृनां स्यात्समाजस्वन्यदेहिनाम् ॥ १४१४ शुकादीनां गणे शौकमायूरतैत्तिरादयः । भिक्षादेर्भक्षसाहनगाभिणयौवतादयः ॥ १४१५ गोत्रार्थप्रत्ययान्तानां स्युरौपगविकादयः । उनादेरौक्षकं मानुष्यकं वार्द्धकमौष्टकम् ॥ १४१६ स्याद्राजपुत्रकं राजन्यकं राजकमाजकम । वात्सकौरभ्रके कावचिकं कवचिनामपि ॥ १४१७ हास्तिकं तु हस्तिनां स्यादापिकाद्यचेतसाम् । धेनूनां धेनुकं धेन्वन्तानां गौधेनुकादयः ॥ १४१८ केदारकं कैदारकं कैदार्यमपि तद्गणे । ब्राह्मणादेाह्मण्यं माणव्यं वाडव्यमित्यपि ।। १४१९ गणिकानां तु गाणिक्यं केशानां कैश्यकैशिके । अश्वानामाश्वमश्वीयं पर्शनां पार्श्वमप्यथ ॥ १४२० वातलवात्ये वातानां गव्यागोत्रे पुनर्गवाम । पाश्याखल्यादि पाशादेः खलादेः खलिनीनिभाः॥१४२१ जनता बन्धुता ग्रामता गजता सहायता । जनादीनां स्थानां तु स्याद्रथ्या रथकट्यया ॥ १४२२ गजिलेंग्वा तती वीथी मालाल्यावलिपतयः । धोरणीश्रेण्युभौ तु द्वौ युगलं द्वितयं द्वयम् ॥ १४२३ गगं द्वैतं यमं द्वन्द्वं युग्मं यमलयामले । पशुभ्यो गोयुगं युग्मपरं षट्वे तु षड् गवम् ॥ १४२४ पर इशताद्यास्ते येषां पग संख्या शतादिकात् । प्राज्यं प्रभूतं प्रचुर बहुलं बहु पुष्कले ॥ १४२५ भूयिष्टं पुरुहं भूयो भूर्यदभ्रं पुरु स्फिरम् । स्तोकं भुल्लं तुच्छमल्पं दभ्राणुतलिनानि च ॥ १४२६ तनु क्षुद्रं कृशं सूक्ष्म पुनः प्रक्ष्णं च पलवम् । त्रुटौ मात्रा लवो लेशः कणो द्वस्वं पुनर्लघु ॥१४२७ अत्यल्पेऽल्पिष्ठमल्पीयः कणीयोऽणीय इत्यपि । दीर्घायते समे तुङ्गमञ्चमुन्नतमुद्रम् ॥ १४२८ प्रांच्छितमुदग्रं च न्यङ्नीचं हस्वमन्धरे । खर्व कुजं वामनं च विशालं तु विशङ्कटम् ॥१४२९ पृथक पृथुलं व्यूढं विकटं विपुलं वृहत । स्फारं वरिष्टं विस्तीर्णं ततं बहु महद्गुरुः ॥ १४३० देय॑मायाम आनाह आगेहस्त समुच्छयः । उत्सेध उदयोच्छायौ परिणाहो विशालता ॥ १४३१ प्रपञ्चाभोगविस्तारव्यामाः शब्दे स विस्तर: | समासस्तु समाहार: संक्षेपः संग्रहोऽपि च ॥१४३२ सर्व समस्तमन्यूनं समग्रं सकलं समम् । विश्वाशेषाखण्डकृत्स्नन्यक्षाणि निखिलाखिले ॥ १४३३ ग्वण्टेऽर्धशकले भित्तं नेमशल्कदलानि च । अंशो भागश्च वण्टर: स्यात्पादस्तु तुरीयकः ॥ १४३४ मलिनं कच्चरं म्लानं कश्मलं च मलीमसम् । पवित्रं पावनं पूतं पुण्यं मेध्यमथोज्ज्वलम् ॥ १४३५ विमलं विशदं वीभ्रमवदातमनाविलम् । विशुद्धं शुचि चोक्षं तु निःशोध्यमनवस्करम् ।। १४३६ निणिक्तं शोधितं मृष्टं धौतं क्षालितमित्यपि । संमुखीनमभिमुखं पराचीनं पराङ्मुखम् ॥ १४२७ मुख्यं प्रकृष्टं प्रमुखं प्रवह वयं वरेण्यं प्रवरं पुरोगम । अनुत्तरं प्राग्रहरं प्रवेकं प्रधानमग्रेसरमुत्तमाये ॥ १४३८ ग्रामण्यग्रण्यग्रिमजात्याय्यानुत्तमान्यनवरायवरे । प्रेष्टपरार्थ्यपराणि श्रेयसि तु श्रेष्ठसत्तमे पुष्कलवत् ॥ म्यरुत्तरपदे व्याघ्रपुंगवर्षभकुञ्जराः । सिंहशार्दूलनागाद्यास्तल्लजश्च मतल्लिका ॥ मचर्चिका प्रकाण्डोद्रो प्रशस्यार्थप्रकाशकाः । गुणोपसर्जनोपायाण्यप्रधानेऽधमं पुनः ॥ १४४१ निकृष्टमणकं गद्यमवयं काण्डकुत्सिते । अपकृष्टं प्रतिकृष्टं याप्यं रेफोऽवमं ब्रुवम् ॥ १४४२ ग्वेटं पापमपशदं कुपूयं चेलमर्व च । तदासेचनकं यस्य दर्शनादृग्न तृप्यति ॥ १४४३ ___१. ग्रामशब्दो गुणान्तैरन्वेति. २. विग्रहोऽपि. ३. निःशेषमपि. ४. खण्डनमपि. ५. कल्मपपि. ६. याव्यमपि. ७. रेपोऽपि. For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५ ६ सामान्यकाण्डः । १४४४ १४४५ चारु हारि रुचिरं मनोहरं वल्गु कान्तमभिगमबन्धुरे | वामरुच्यसुषमाणि शोभनं मञ्जुमञ्जुलमनोरमाणि च || माधुरम्यमनोज्ञानि पेशलं हृद्यसुन्दरे । काम्यं क कमनीयं सौम्यं च मधुरं प्रियम् ॥ व्युष्टिः फलमसारं तु फल्गु शून्यं तु रिक्तकम् । शुन्यं तुच्छं वशिकं च निबिडं तु निरन्तरम् ।। १४४६ निविरीसं धनं सान्द्रं नीरन्धं बहलं दृढम् । गाढमविरलं चाथ विरलं तनु पेलवम् ॥ नवं नवीनं सद्यस्कं प्रत्ययं नूतनूतने । नव्यं चाभिनवे जीर्णे पुरातनं चिरंतनम् ॥ पुराणं प्रतनं प्रत्नं जरन्मूर्तं तु मूर्तिमन । उच्चावचं नैकभेदमतिरिक्ताधिके समे || पार्श्वसमीपं सविधं समीपाभ्याशंसवे शान्तिकसंनिकर्षः । संदेशमभ्यग्रसनीड संनिधानान्युपान्तं निकटोपकण्ठे || १४४७ १४४८ १४४९ १४५० १४५१ १४५२ १४५४ १४५५ १४५६ १४५७ १४५८ १४५९ मंनिकृष्ट मर्यादाभ्यर्णान्यासन्नसंनिधी । अव्यवहितेऽनन्तरं संसक्तमपटान्तरम् ॥ नेदिष्ठमन्तिकतमं विप्रकृष्टपरे पुनः । दूरेऽतिदूरे दविष्टं दवीयोऽथ सनातनम् || शाश्वतावरे नित्यं ध्रुवं स्थेयम्वतिस्थिरम् । स्थास्नु स्पेष्टं तत्कूटस्थं कालव्याप्येकरूपतः || १४५३ स्थावरं तु जङ्गमान्यज्जङ्गमं तु बसं चरम् । चराचरं जगदिङ्गं चरिष्णुचाथ चञ्चलम् || तरलं कम्पनं कम्पं परिप्लवचलाचले । चटुलं चपलं लोलं चलं पारिप्लवास्थिरे ॥ ऋजावजिह्मगुणाववाग्रेऽवनतानते । कुञ्चितं नतमाविद्धं कुटिले वक्रवेहिते ॥ वृजिनं भङ्गुरं भुनमगलं जिहासमित् । अनुगेऽनुपदान्वक्षान्वयेकाक्येक एककः ॥ एकात्तानायनसर्गाप्राण्यैकाग्रं च तद्वतम् । अनन्यवृत्यैकायतनगतं चाथाद्यमादिमम् ॥ पौरस्त्यं प्रथमं पूर्वमादिरग्रमथान्तिमम् । जघन्यमन्यं चरममन्तपाश्चात्यपश्चिमे || मध्यमं माध्यमं मध्यमीयं माध्यंदिनं च तत् । अभ्यन्तरमन्तरालं विचाले मध्यमान्तरे || १४६० तुल्यः समानः सदक्षः सरूपः सदृशः समः । साधारणसधर्माणौ सवर्णः संनिभः सह || १४६१ स्युरुत्तरपदे प्रख्यः प्रकारः प्रतिमो निभः । भूतरूपोपमाः काशः संनीप्रप्रतीतः परः ॥ औपम्यमनुकारोऽनुहारः साम्यं तुलोपमा । कक्षोपमानमच तु प्रतर्मायातना निधिः ॥ छाया छन्द: कायो रूपं त्रिस्वं मानकृती अपि | सूर्मी स्थूणायः प्रतिमा हरिणी स्याद्धिरण्मयी || १४६४ प्रतिकूलं तु विलोम मपसव्यमपरम । वामं प्रसव्यं प्रतीपं प्रतिलोममपष्ट च || वामं शरीरेऽङ्गं सव्यमपसव्यं तु दक्षिणम् । अवाधोच्छृङ्गलोद्दामा नियन्त्रितमनर्गलम् ॥ निरङ्कुशे स्फुटे स्पष्टं प्रकाशं प्रकटोल्वणे । व्यक्तं वर्तुलं तु वृत्तं निस्तलं परिमण्डलम् ।। बन्धुरं तन्नतानतं स्थपुटं विषमोन्नतम् | अन्यदन्यतरद्भिन्नं त्वमेकमितरच तत् ॥ करस्यः कबरो मिश्रः संपृक्तः खचितः समाः । विविधस्तु बहुविधो नानारूपः पृथग्विधः ।। १४६९ त्वरितं सत्वरं पूर्ण शीघ्रं क्षिप्रं द्रुतं लघु । चपलाविलम्बिते च झम्पा संपातपाटवम् ॥ अनारतं त्वविरतं संसक्तं सततानिशे । नित्यानवरताज म्रासक्ताश्रान्तानि संततम् || साधारणं तु सामान्यं दृढसंधि तु संहतम् । कलिलं गहने संकीर्णे तु संकुलमाकुलम् ॥ १४६२ १४६३ १४६५ १४६८ १४७० For Private and Personal Use Only १४६६ १४६७ १४७१ १४७२ १. रमणीयमपि २. लडहोऽपि ३ शाश्वतिकमपि ४ अवगणोऽपि ५. एकशब्दस्य तानादिभिरन्वयः. ६. मध्यंदिनमपि. ७. काशशब्दः समादिभ्यः परो योज्यः. ८ प्रतेः परत्र कृतिपर्यन्ता योज्याः ९ निरर्गलमपि. १०. बहुरूप पृथग्रूप नानाविधा अपि. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः । १४७४ १४७६ १४७७ १४७८ १४७९ १४८० १४८५ १४८६ १.४८७ १४८८ कीर्णमाकीर्ण च पूर्णे त्याचितं छन्नपूरिते । भरितं निचितं व्याप्तं प्रत्याख्याते निराकृतम् || १४७३ प्रत्यादिष्टं प्रतिक्षिप्तमपविद्धं निरस्तवत् । परिक्षिप्ते वलयितं निवृत्तं परिवेष्टितम् || परिस्कृतं परीतं च त्यक्तं तूत्सृष्टमुज्झितम् । भूतं हीनं विधूतं च विन्नं वित्तं विचारिते ।। १४७५ अवकीर्णे त्ववध्वस्तं संवीतं रुद्धमावृतम् । संवृतं पिहितं छन्नं स्थगितं चापवारितम् ॥ अन्तर्हितं तिरोहितमन्तर्धिस्वपवारणम् । छदनं व्यवधान्तर्धापिधानस्थगनानि च ॥ व्यवधानं तिरोधानं दर्शितं तु प्रकाशितम् | आविष्कृतं प्रकटितमुचण्डं त्ववलम्बितम् || अनादृतमेवाज्ज्ञातं मानितं गणितं मतम् । गढावज्ञावहेलान्यैसूर्क्षणं चाप्यनादरे || उन्मूलितमावर्हितं स्यादुत्पाटितमुद्धृतम् । प्रेङ्गोलितं तरलितं लुलितं प्रेङ्गितं धुतम् ॥ चलितं कम्पितं शृतं वेल्लितान्दोलिते अपि । दोलाप्रेङ्खोलनं प्रेङ्खी फाण्टं कृतमयत्नतः ॥ १४८१ अधः क्षिप्तं न्यञ्चितं स्यादूर्ध्वक्षिप्तमुदञ्चितम् । नुन्ननुत्तास्तनिष्टचूतान्याविद्धं क्षिप्तमीरितम् ॥ १४८२ ममे दिग्वलिते रुग्णभुझे रूषितगुण्डिते । गूढगुप्ते च मुषितभूषिते गुणिताहते ॥ १४८३ म्यान्निशातं शितं शतं निशितं तेजितं क्ष्णुतम् । वृत्ते तु वृत्तवावृत्तौ हीतहीणौ तु लज्जिते ॥ १४८४ गूढः स्यात्संकलिते संयोजित उपाहिने । पके परिणतं पाके क्षीराज्यहविषां श्रुतम् ॥ from afrग्येषिताः समाः । तनूकृते ष्टष्टौ विद्धे तितौ ॥ सिद्धे निर्वृत्तनिष्पन्नौ विलीने विद्रुतौ । उतं प्रोते स्यूतमूतमुतं च तन्तुसंतते || पाटितं दारितं भिन्ने विदरः स्फुटनं भिदा । अङ्गीकृतं प्रतिज्ञातमूरीकृतोग्रीकृते ।। मंश्रुतमभ्युपगतमुररीकृतमाश्रुतम | संगीण प्रतिश्रुतं च छिन्ने लूनं छितं दितम् ॥ छेदितं खण्डितं वृक्णं कृत्तं प्राप्तं तु भावितम् । लक्ष्यमासादितं भूतं पतिते गलितं च्युतम् ॥१४९० स्रुतं भ्रष्टं स्कन्नपन्ने संशितं तु सुनिश्चितम् । मृगितं मार्गितान्विष्टान्वेषितानि गवेषिते || १४९१ तिमिते स्तिमितन्निसार्द्राद्रक्ताः समुन्नवत् । प्रस्थापितं प्रतिशिष्टं प्रतिहतप्रेषिते अपि ॥ ख्याते प्रतीतप्रज्ञातवित्तप्रथितविश्रुताः । तप्ते संतापितो दूनो धूपायितश्च भूषितः ॥ शीने स्त्यानमुपनतस्तूपसन्न उपस्थितः । निर्वातस्तु गते वाते निर्वाणः पावकादिषु ॥ वृद्धमेतिं प्रौढं विस्मितान्तर्गते समे । उद्वान्तमुते गूनं हने मीढं तु मूत्रिते ॥ विदितं बुधितं बुद्धं ज्ञातं सितगते अत्रान् । मनितं प्रतिपन्नं च स्यन्ने रीणं स्रुतं स्तुतम् ॥ १४९६ गुमगोपायितत्रतावितत्राणानि रक्षिते । कर्म क्रिया विधा हेतुशून्या वाम्या विलक्षणम् || १४९७ कार्मणं मूलकर्माथ संवननं वशक्रिया | प्रतिबन्धे प्रतिष्टम्भः स्यादास्या वासना स्थितिः ।। १४९८ परस्परं स्यादन्योन्यमितरेतरमित्यपि । आवेशाटोपी संरम्भे निवेशो रचना स्थितौ ॥ निर्वन्धोऽभिनिवेशः स्यात्प्रवेशोऽन्तर्विगाहनम् । गतौ वीङ्खा विहारेपरिसर्पपरिक्रमाः || १५०० टाच्या पर्यटनं चर्या वीर्या पथस्थितिः । व्यत्यासस्तु विपर्यासो वैपरीत्यं विपर्ययः ॥ १५०१ व्यत्ययेऽथ स्फातिर्बुद्धौ प्रीणनेऽवनतर्पणौ । परित्राणं तु पर्याप्तिर्हस्तधारणमित्यपि ॥ प्रणतिः प्रणिपातोऽनुनयेऽथ शयने क्रमान । विशय उपशायश्च पर्यायोऽनुक्रमः क्रमे ॥ परिपाट्यानुपूर्व्यावृदतिपातस्त्वतिक्रमः । उपात्ययः पर्ययश्च समौ संबाधसंकट || १४८९ १४९२ १४९३ १४९४ १४९५ 1 १४९९ । १५०२ १५०३ १५०४ १. अवशब्दस्य ज्ञातादिभिरन्वयः. २. अवमाननावगणने अपि ३. असूक्षणमपि ४ आन्दोलनमपि. ५. चोदितमपि. ६. वित्तमपि ७ अवशब्दातिगते बोध्ये. ८. अटाटापि अस्यापि. For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ सामान्यकाण्डः । १५०५ १५०६ १५०७ १५०८ १५२० १५२१ कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्ठे यथेप्सितम् । अत्यर्थे गाढमुद्गाढं वाढं तीव्रं भृशं दृढम् ॥ अतिमात्रातिमर्यादनितान्तोत्कर्षनिर्भराः । भरैकान्तातिवेलातिशया जृम्भा तु जृम्भणम् ॥ आलिङ्गनं परिष्वङ्गः संश्लेष उपगूहनम् । अङ्गपाली परीरम्भः कोडीकृतिरथोत्सवे ॥ महः क्षणोद्धवोद्धर्षा मेलके सङ्गसङ्गमौ । अनुग्रहोऽभ्युपपत्तिः समौ निरोधनिग्रहौ || विघ्नेऽन्तरायप्रत्यूहव्यवायाः समये क्षणः । वेला वाराववसरः प्रस्तावः प्रक्रमान्तरम् ॥ १५०९ अभ्यादानमुपोद्घात आरम्भः प्रोपतः क्रमः । प्रत्युत्क्रमः प्रयोगः स्यादारोहणं त्वभिक्रमः || १५१० आक्रमेऽधिक्रमक्रान्ती व्युत्क्रमस्तूत्क्रमाक्रम | विप्रलम्भो विप्रयोगो वियोगो विरहः समाः १५११ आभा राढा विभूषा श्रीरभिख्याकान्तिविभ्रमाः । लक्ष्मीश्छाया च शोभायां सुषमा सातिशायिनी १५१२ संस्तवः स्यात्परिचय आकारस्त्विङ्ग इङ्गितम् । निमित्ते कारणं हेतुर्बीजं योनिर्निबन्धनम् ॥ १५१३ निदानमथ कार्य स्यादर्थः कृत्यं प्रयोजनम् । निष्ठानिर्वहणे तुल्ये प्रवाहो गमनं बहिः ॥ १५१४ जातिः सामान्यं व्यक्तिस्तु विशेषः पृथगात्मिका । तिर्यक्साचिः संहर्षस्तु स्पर्धाद्रोहस्वपक्रिया १५१५ वन्ध्ये मोघ फलमुधा अन्तर्गडुर्निरर्थकम् । संस्थानं संनिवेशः स्यादर्थस्यापगमे व्ययः ॥ १५१६ संमूर्छनं त्वभिव्याप्तिर्थेषो भ्रंशो यथोचितात् । अभावो नाशे संक्रामसंक्रमौ दुर्गसंचरे ॥ १५१७ नीवाकस्तु प्रयामः स्यादवेक्षा प्रतिजागरः । समौ विस्रम्भविश्वासौ परिणामस्तु विक्रिया ।। १५१८ चक्रावर्तो भ्रमो भ्रान्तिर्भूमिघूर्णिश्च चूर्णने । विप्रलम्भो विसंवादो विलम्भस्त्वति सर्जनम् ॥ १५१९ उपलम्भस्त्वनुभवः प्रतिलम्भस्तु लम्भनम् । नियोगे विधिसंप्रेषौ विनियोगोऽर्पणं फले ॥ लवोऽभिलावो लवनं निष्पावः पवनं पवः । निष्ठेष्ठीवनष्टतष्ठेवनानि तु भूत्कृते ॥ निवृत्तिः स्यादुपरमो व्यपोपाभ्यः परा रेतिः । विधूननं विधुवनं रिङ्खणं स्खलनं समे || १५२२ रक्ष्णा ग्रहो ग्राहे व्यधो वेधे क्षये क्षिया । स्फरणं स्फुरणे ज्यानिजीर्णावथ वरो वृतौ ॥ १५२३ समुच्चयः समाहारोऽपहारापत्रयौ समौ । प्रत्याहार उपादानं बुद्धिशक्तिस्तु निष्क्रमः || इत्यादयः क्रियाशब्दा लक्ष्या धातुषु लक्षणम् । अथाव्ययानि वक्ष्यन्ते स्वः स्वर्गे भू रसातले ॥ १५२५ भुवो विहायसा व्योम्न्नि द्यावाभूम्योस्तु रोदसी । उपरिष्टादुपर्यूर्ध्वं स्यादभस्तादधोऽप्यवाक् ।। १५२३ वर्जने वन्तरेणर्ते हिरुग्नाना पृथग्विना । साकं सत्ता समं सार्थममा सह कृतं त्वलम् || १५२७ भववस्तु च किं तुल्याः प्रेत्यामुत्र भवान्तरे । तूष्णीं तूष्णीकां जोषं च मौनं दिष्टा तु संमदे || १५२८ परितः सर्वतो विष्वक्समन्ताच्च समन्ततः । पुरः पुरस्तात्पुरतोऽग्रतः प्रायस्तु भूमनि ॥ सांप्रतमधुनेदानीं संप्रत्येतर्ह्यमाञ्जसा । द्राक्खागरं झटित्याशु मङ्क्ष्वद्वाय च सत्वरम् ॥ सदा सनानिशं शश्वद्भूयोऽभीक्ष्णं पुनः पुनः । असकृन्मुहु: सायं तु दिनान्ते दिवसे दिवा || १६३१ सहमैकपदे द्यस्मात्सपदि तत्क्षणे । चिराय चिररात्राय चिरस्य च चिराचिरम् ॥ चिरेण दीर्घकालार्थे कदाचिज्जातु कर्हिचित् । दोषा नक्तमुषा रात्रौ प्रगे प्रातरहर्मुखे || तिर्यगर्थे तिरः साचि निष्फले तु वृथा सुधा । मृषा मिध्यानृतेऽभ्यर्णे समया निकषा हिरुक् ॥ शं सुखे बलवत्सुष्ठु किमुतातीव निर्भरे । प्राक्पुरा प्रथमे संवद्धर्षे परस्परं मिथः ॥ उषा निशान्तेऽल्पे किंचिन्मनागीपच्च किंचन । आहो उताहो किमुत वितर्के किं किमूत च || १५३६ इतिह स्यात्संप्रदाये हेतौ यत्तद्यतस्ततः । संबोधनेऽङ्ग भोः पाट्प्याट् है है हंहोऽरे रेऽपि च ।। १५३७ १. क्रमशब्द: प्रोपाभ्यां परो योज्यः. १५२४ १५२९ १५३० १५३२ १५३३ १५३४ १५३५ २. रतिशब्दः व्यादिभिरन्वेति ८ For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८ अभिधान संग्रह: - ६ अभिधानचिन्तामणिः | १५३८ १५३९ स्वाहा स्वधा देवहविर्हुतौ । रहस्युपांशु मध्येऽन्तरन्तरेणान्तरेऽन्तरा ॥ प्रादुराविः प्रकाशे स्यादभावे त्व न नो नहि । हटे प्रसह्यमा मास्म वरणेऽस्तमदर्शने ॥ अकामानुगतौ कामं स्यादोमां परमं मते । कचिदिष्टपरिप्रश्रेऽवश्यं नूनं च निश्चये ॥ बहिर्वहिर्भवे ह्यः स्यादतीतेऽह्नि व एष्यति । नीचैरल्पे महत्युचैः सखेऽस्ति दुष्ट निन्दने || १५४१ ननुच स्याद्विरोधोक्तौ पक्षान्तरे तु चेद्यदि । शनैर्मन्देऽवरे त्वर्वाग्रोषोक्तावुं नतौ नमः ।। १५४२ १५४० I इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितायामभिधानचिन्तामणी नाममालायां सामान्यकाण्डः पटः ॥ ६ ॥ इति श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितोऽभिधानचिन्तामणिः समाप्तः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 11 2: 11 अभिधानसंग्रहः । ( ७ ) श्री हेमचन्द्राचार्यविरचितः अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्वाणे स्याच्छीतीभावः शान्तिर्नैश्चिन्यमन्तिकः । शिष्ये छात्रो भद्रे भव्यं काम्यं सुकृतसूनृते ।। १ इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे देवाधिदेवकाण्डः प्रथमः ॥ ३ ॥ २ ४ फलोदयो मेरुपृष्टं वासवावाससैरिकौ । दिदिविर्दीदिविर्द्युश्च दिवं च स्वर्गवाचकाः ॥ निलिम्पाः कामरूपाश्च साध्याः शोभाचिरायुषः । पूजिता ममहिताः सुवाला वायुभाः सुराः ॥ ३ द्वादशाक वसवोऽष्टौ विश्वेदेवास्त्रयोदश । षट्त्रिंशत्तुषिताश्चैव षष्टिराभास्वरा अपि ॥ पत्रिंशदधिके माहाराजिकाश्च शते उभे । रुद्रा एकादशैकोनपञ्चाशद्वायवोऽपि च ॥ चतुर्दशतु वैकुण्ठाः सुशर्माणः पुनर्दश । साध्याश्च द्वादशेत्याद्या विज्ञेया गणदेवताः || सूर्ये वाजी लोकबन्धुर्भानेमिर्भानुकेसरः । सहस्राङ्को दिवापुष्टः कालभृद्रात्रिनाशनः ॥ पपीः सदागतिः पीतुः सांवत्सररथः कपिः । दृशानः पुष्करो ब्रह्मा बहुरूपश्च कर्णसूः ॥ वेदोदयः खतिलकः प्रत्युपाण्डं सुरावृतः । लोकप्रकाशनः पीथो जगदीपोऽम्बुतस्करः || अरुणे विपुलस्कन्धो महासारथिराश्मनः । चन्द्रस्तु मास्तपोराजौ शुभांशुः श्वेतवाहनः || जर्णः सृप्रो राजराजो यजतः कृत्तिकाभवः । यक्षराडौषधीगर्भस्तपसः शयतो बुधः ॥ स्यन्दः खसिन्धुः सिन्धूत्थः श्रविष्टारमणस्तपा । आकाशचमसः पीतुः क्लेदुः परिचिक्लिदो ||१२ परिज्वा युवनो नेमिचन्दिरः स्नेहरेकभूः । भौमे व्योमोल्मुकैकाङ्गौ गीः पतिस्तु महामतिः ।। १३ प्रख्याः प्रचक्षाः वाग्वाग्ग्मी गौरो दीदिविगीरथौ । शुक्रे भृगुः शनौ पङ्गः श्रुतकर्मा महाग्रहः || १४ श्रुतश्रवोऽनुजः कालो ब्रह्मण्यश्च यमः स्थिरः । क्रूरात्मा चाथ राहौ स्यादुपराग उपप्लवः ॥ १५ केतावृर्ध्वकचो ज्योतीरथग्रहाश्रयौ भुवे | अगस्त्ये विन्ध्यकूटः स्यादक्षिणाशारतिर्मुनिः ॥ १६ सत्याग्निर्वारुणिः क्राथिस्तपनः कलसीसुतः । व्युष्टे निशालय (न्त ) गोसग निशा चक्रभेदिनी ॥ १७ निषद्वरी निशीथ्या निट् घोरा वासरकन्यका । शताक्षी राक्षसी याम्या वृताचिस्तामसी तमिः || १८ शार्वरीक्षणिनीनक्तापैशाचीवासुरा शा । दिनात्ययः प्रदोषे स्यान्ते वृत्रो रजोवलम् ॥ ११ १९ For Private and Personal Use Only ६ ७ ८ १. 'पूजिला: ' ख. २. 'वना: ' ख. ३. 'भद्राः ' ख. ४. 'यक्षराजो' ख. ५. 'स्तथा' ख. ६. ‘स्नेदुरेकभूः’ख. ७. 'गीपतिः' ख. ८. 'निशि' ख. ९. 'उमा' ख. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-७ अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः । गत्रिरागा नीलपङ्को दिनाण्डं दिनकेसरः । खपरागो निशावर्म वियतिदिगम्बरः ॥ २० पक्षः कृष्णः सितो द्वेधा कृष्णो निशाइयोऽपरः । शुक्लो दिनाह्वयः पूर्वो मासे वर्षांशको भवेत्।।२१ वर्षकोशो दिनमल: फाल्गुनालस्तु फाल्गुने । चैत्रे मौहनिकः कामसखश्च फाल्गुनानुजः ॥ २२ वैशाखे तृत्सगे ज्येष्टमास तु खरकोमलः । ज्येष्टामूलीय इति च कार्तिके सैरिकौमुदौ ॥ २३ हिमागमस्तु हेमन्ते वसन्ते पिकवान्धवः । पुष्पसाधारणश्चापि ग्रीष्मे तूष्मायणो मतः ॥ २४ आखोरपद्मौ वर्षे तु ऋतुवृत्तिर्युगांशकः । कालग्रन्धिर्मासमलः संवत्सर्वर्तुशारदौ ।। वत्स इद्वत्सर इडावत्सर: परवाणिवत् । नक्षत्रवर्त्मनि पुनर्ग्रहनेमिनभोटवी ॥ छायापथश्च मेघे तु व्योमधूमो नभोध्वजः । गडयित्नुर्गदेयित्नुर्वार्मसिर्वारिवाहनः ॥ खतमालोऽप्यथासारे धारासंपात इत्यपि । करकेऽम्बुधनो मेघकफो मेघास्थि मिक्षिका ॥ "वीजोदकं तोयडिम्भो वर्षावीजमिरावग्म् । यथोत्तरेतरापाची तथापाचीतरोत्तरा ॥ इन्द्रे तु खिदिरो नेरी त्रयस्त्रिंशपतिर्जयः । गौरावस्कन्दी बन्दीको वराणो देवदुन्दुभिः ।। ३० किणालातश्च हरिमान्यामनेमिरसन्महाः । शापी विमिहिरो वज्रदक्षिणो वयुनोऽपि च ॥ स्यात्पौलोम्यां तु शकाणी चारुरावा शतावरी । महेन्द्राणी परिपूर्णसहस्रचन्द्रवत्यपि ॥ जयन्ते यागसंतानो वृषणश्वो हरेर्हये । मातलौ हयंकषः स्यादैरावणे मदाम्बरः ॥ सदादानो भद्ररेणुः पुरे बैन्द्रे सुदर्शनम् । नासिक्ययोस्तु नासत्यदलौ प्रवरवाहनौ ॥ गदान्तको यज्ञवाही यमे तु यमुनाग्रजः । महासत्यः पुराणान्त: कालकूटोऽथ राक्षसे ॥ पलप्रियः कखापुत्रः कर्वरो नरविष्वणः । आशिरो हनुषः शङ्कविषुरो जललोहितः ॥ उद्वरः स्तब्धसंभारो रक्तग्रीवः प्रवाहिकः । संध्यावलो रात्रिबलस्त्रिशिगः समितीपदः ॥ वरुणे तु प्रतीचीशो दुन्दुभ्युद्दामसंवृताः । धनदे निधनाक्षः स्यान्महासत्त्वः प्रमोदितः ॥ रत्नगर्भ उत्तगशाधिपतिः सत्यसंगरः । धनकेलि: सुप्रसन्नः परिविद्धोऽलका पुनः ॥ वसुप्रभा वसुसारा शंकरे नन्दिवर्धनः । बहुरूपः सुप्रसादो मिहिराणोऽपराजितः ॥ कटीको गुह्यगुरुभगनेत्रान्तकः खरुः । परिणाहो दशबाहुः सुभगोऽण्वेकलोचनः ॥ ४१ गोपालो वग्वृद्धोऽहिपर्यङ्कः पांसुचन्दनः । कूटकृन्मन्दरमणिर्नवशक्तिमहोम्बकः ॥ कोणवादी शैलधन्वा विशालाक्षोऽक्षतस्वनः । उन्मत्तवेषः शवरः सिताङ्गो धर्मवाहनः ॥ महाकान्तो वह्निनेत्रः स्त्रीदेहा? नृवेष्टनः । महानादो नगधारो भरिरेको दशोत्तमः ॥ यौटी यौटीङ्गोऽर्धकटः समिगे धूम्रयोगिनौ । उलन्दो जयतः कालो जटाधरदशाव्ययौ ॥ ४५ संध्यानाटी रेरिहाणः शङ्कुश्च कपिलाञ्जनः । जगद्दोणिरर्धकालो दिशांप्रियतमोऽतलः ॥ ४६ जगत्स्रष्टा कटाटङ: कटहीरहृत्कगः । गौतमी कौशिकी कृष्णा तामसी बाभ्रवी जया ॥ ४७ कालरात्रिमहामाया भ्रामरी यादवी वरा । वहिध्वजा शूलधरा परमब्रह्मचारिणी ॥ ४८ अमोघा विन्ध्यनिलया षष्ठी कान्तारवासिनी । जाङ्गुली बदरीवासा वरदा कृष्णपिङ्गला ॥ ४९ १. 'दिवाइयः' ख. २. 'सैर' ख. ३. 'नभोवटी' ख. ४. 'नभध्वजः' क. ५. 'गर्दयित्नु' क. ६. 'पु. अिका' ख. ७. 'जीवोदकम्' ख. ८. 'बाय' क-ख. ९. 'शपीवि' ख. १०. 'वियुनो' ख. ११. 'यशवहौ' ख. १२. 'खपापुत्रःख. १३. 'विधरः' ख. १४. 'मेकलोचन:क. १५. 'महावुकः' ख. १६. 'जोटी जोटिङ्गो ख. १७. 'यजतः' ख. १८. 'अर्धकलो' ख. aWN.००० For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ देवकाण्डः। दृषद्वतीन्द्रभगिनी प्रगल्भा रेवती तथा । महाविद्या सिनीवाली रक्तदन्त्येकपाटला ॥ ५० एकपर्णा वहुभुजा नन्दपुत्री महाजया । भद्रकाली महाकाली योगिनी गणनायिका ॥ ५१ हासा भीमा प्रकृमाण्डी गदिनी वारुणी हिमा । अनन्ता विजया क्षेमा मानस्तोका कुहावती ॥५२ चारणा च पितृगणा स्कन्दमाता घनाञ्जनी । गान्धर्वी कर्वरी गार्गी सावित्री ब्रह्मचारिणी ॥ ५३ कोटिश्रीर्मन्दरावासा केशी मलयवासिनी । कालायनी विशालाक्षी किराती गोकुलोद्भवा ॥ ५४ एकानसी नारायणी शैला शाकंभरीश्वरी । प्रकीर्णकेशी कुण्डा च नीलवस्त्रोग्रचारिणी | ५५ अष्टादशभुजा पौत्री शिवदूती यमस्वसा । सुनन्दा विकचा लम्बा जयन्ती नकुलाकुला ॥ ५६ विलङ्का नन्दिनी नन्दा नन्दयन्ती निरञ्जना । कालंजरी शतमुखी विकराली करालिका ॥ ५७ विरजाः पुरला जारी बहुपुत्री कुलेश्वरी । कैटभी कालदमनी दर्दुरा कुलदेवता ॥ ५८ रौद्री कुन्द्रा महारौद्री कालंगमा महानिशा । बलदेवस्वसा पुत्री हीरी क्षेमंकरी प्रभा ॥ ५९ मारी हैमवती चापि गोला शिखरवासिनी । चामुण्डायां महाचण्डी चण्डमुण्डाप्यथाखुगे ॥ ६० पृश्निगर्भः प्रनिशृङ्गो द्विशरीरस्त्रिधातुकः । हस्तिमल्लो विषाणान्तः स्कन्दे तु करवीरकः ॥ ६१ सिद्धसेनो वैजयन्तो बालचर्यो दिगम्बरः । भृङ्गी तु चर्मी ब्रह्मा तु क्षेत्रज्ञः पुरुषः सनत् ॥ ६२ नारायणे तीर्थपादः पुण्यश्लोको वलिंदमः । उरुक्रमोरुगायौ च तमोन्नः श्रवणोऽपि च ॥ ६३ उदारथिलतापर्णः समुद्रः पांसुजालिकः । चतु!हो नवव्यूहो नवशक्तिः पंगण्डजित्॥ ६४ द्वादशमूलः शतको दशावतार एकहक् । हिरण्यकेशः सोमोऽहिस्त्रिधामा त्रिककुत्रिपात् ॥ ६५ मानजरः पराविद्धः पृश्निगर्भोऽपराजितः । हिरण्यनाभः श्रीगर्भो वृषोत्साहः सहस्रजित् ॥ ६६ ऊर्ध्वकर्मा यज्ञधरो धर्मनेमिरसंयुतः । पुरुषो योगनिद्रालुः खण्डास्यः शलकाजितौ ॥ कालकुण्टो वरारोहः श्रीकरो वायुवाहनः । वर्धमानश्चतुर्दष्ट्रो नृसिंहवपुरव्ययः ॥ कपिलो भद्रकपिल: सुषेण: समितिंजयः । ऋतुधामा वासुभद्रो बहुरूपो महाक्रमः ॥ विधाताधार एकाङ्गो वृषाक्षः सुवृषोऽक्षजः । रन्तिदेवः सिन्धुवृषो जितमन्युर्वृकोदरः ॥ बहुशृङ्गो रत्नवाहुः पुष्पहासो महातपाः । लोकनाभः सूक्ष्मनाभो धर्मनाभः पराक्रमः ॥ पद्महासो महाहंसः पद्मगर्भः सुरोत्तमः । शतवीगे महामायो ब्रह्मनाभः सरीसृपः ॥ वृन्दाकोऽधोमुखो धन्वी सुधन्वा विश्वभुस्थिरः । शतानन्दश्चरुश्वापि यवनारिप्रमर्दनः ॥ ७३ यज्ञनेमिर्लोहिताक्ष एकपाहिपदः कपिः । एकशृङ्गो यमकील आसन्दः शिवकीर्तनः ॥ ७४ शद्रुवंशः श्रीवराहः सदायोगी सुयामुनः । बलभद्रे तु भद्राङ्गः फालो गुप्तवरो बली ॥ ७५ प्रलापी भद्रचलनः पौरः शेषाहिनामभृत् । लक्ष्म्यां तु भर्भरी विष्णुशक्तिः क्षीराब्धिमानुषी ॥ ७६ कामे तु यौवनोद्भेदः शिग्विमृत्युमहोत्सवः । शमान्तकः सर्वधन्वी रॉगरज्जुप्रवर्तकः ॥ । मनोदाही मथनश्च गरुडस्तु विपापहः । पक्षिसिंहो महापक्षो महावेगो विशालकः ॥ ७८ उन्नतीशः श्वमुखसः शिलानीहोऽहिभुक्च सः । बुद्धे तु भगवान्योगी बुधो विज्ञानदेशनः ।। ७९ महासत्वो लोकनाथो बोधिरहन्सुनिश्चितः । गणाब्धिर्विगतद्वन्द्वो वचने स्यात्तु जल्पितम् ॥ ८० १. 'गण्डिनी' ख. २. किरामी' ख. ३. 'एकामसा' ख. ४. 'सुमन्दा' ख. ५. 'मन्दिनी मन्दा मन्दयन्ती' ख. ६. 'चिकसला' ख. ७. 'करवारकः' ख. ८. 'पडङ्गजित्' ख. ९. "ऋतधाना' ख. १०. 'वृषोदरः' क. ११. 'सरुश्रापि' ख. १२. 'यवनारि:' ख. १३. 'बरसनेमिः' ख. १४. 'रागरजः प्रकर्षक ' ख. १५. 'उलूतीशः' ख. For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-७ अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः । लपितोदितभणिताभिधानदितानि च । एतौ हकारकागै च चण्डालानां तु वल्लका ॥ ८१ काण्डवीणा कुवीणा च डकारी किंनरी तथा । सारिका खुङ्खणी चाथ ददरे कलसीमुखः ॥ ८२ सूत्रकाणां डमरुकं समौ पणवकिंकणौ । शृङ्गवाद्ये शृङ्गमुखं हुडुकस्तालमर्दलः ॥ काला तु कुहाला स्थाचण्डको लाहला च सा । संवेशप्रतिबोधार्थ द्रगडद्रकटावुभौ ॥ देवतार्चनत्यं तु धूमलो वलिरित्यपि । क्षुल्लकं मृतयात्रायां मङ्गले प्रियवादिका ॥ रणांद्यमे त्वर्धतगे वायभेदास्तथापरे । डिण्डिमो झर्झरो मस्तिमिला किरिकिञ्चिका || लम्विका टट्टरी वेध्या कलापूगदयोऽपि च । भयंकरे तु डमरमाभीलं भासुरं तथा ॥ आश्चर्य फुल्लकं मोहो वीक्ष्यो लोतस्तु दृरजले । निद्रायां तामसी सुप्ते सुष्वापः सुखसुप्तिका ॥ ८८ आकारगृहने चावटिकावकुठारिका । गृहजालिकाथ सूत्रधारे स्यादीर्घदर्शकः ॥ पृज्ये भरटको भट्टः प्रयोज्यः पूज्यनामतः ॥ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे देवकाण्डो द्वितीयः ॥ २ ॥ छेकालच्छेकिलो के काहलोऽस्फटभाषिणि । मके जङकडो मखें खनेडो नामवर्जितः ॥ ९१ परतत्रे वशायत्तावधीनोऽप्यथ दुर्गते । शुद्रो हीनश्च दीनश्च भाटिस्तु गणिकाभृतौ ॥ ९२ स्वस्तौ तु चकितेऽथ शुद्रप्रखलौ खले । चोरे तु चोरटो गत्रिचरो याच्या तु भिक्षणा ।। ९३ अभिषस्तिर्मार्गणा च बुभुक्षायां झुधाक्षुधौ । भक्तमण्डे तु प्रस्रावप्रस्रवाच्छोदनास्रवाः ॥ ९४ अपूपे पारिशालोऽथ करम्बो दधिसक्तुषु । इण्डेरिका तु वटिका शष्कुली खर्धलोटिका ॥ ९५ पर्पटास्तु मर्मगला घृताण्डी तु घृतौषणी । समिता खण्डाज्यकृतौ मोदको लकश्च सः ॥ ९६ एलामग्चिादियुतः स पुनः सिंहकेसरः । लाजेषु भरुडोदूषग्वदिकापरिवारकाः ॥ ९७ दुग्धे योग्यं वॉलसात्म्यं जीवनीयं रसोत्तमम् । स गव्यं मधुज्येष्टं धारोष्णं तु पयोऽमृतम् ॥ ९८ दनि श्रीधनमङ्गल्ये तक्रे कटग्सायणे । अन्निं परमरस: कल्माषाभिषुते पुनः ॥ ९९ गृहाम्बु मधुग चाथ स्यात्कुस्तुम्बुरुग्ल्लुका । मरिचे तु द्वारवृत्तं मरीचं वलितं तथा ॥ १०० पिप्पल्यामोपणा शौण्डी चपला तीक्ष्णतण्डुला। ऊपणा तण्टुलफला काला च कृष्णतण्डुला ॥१०१ जीरे जीरणजरणो हिङ्गौ तु भूतनाशनम् । अगृढगन्धमत्युग्रं लिप्सौ लालसलम्पटौ ॥ १०२ लोलो लिप्सा तु धनाया रुचिरीप्सा च कामना । पृजा त्वपचितिरथ चिपिटो नम्रनासिके ।। १०३ पङ्गलस्नु पीटमी किलातस्त्वल्पवर्मणि । सर्वे ह्रस्वोऽने डमूकस्त्वन्धे न्युजम्त्वधोमुखे ॥ १०४ पित्ते पलाग्निः पललज्वरः स्यादग्निरेचकः । कफे सिंहानकः खेटः स्याकूकुदे तु कूपदः ॥ १०५ पारमितोऽथ कायस्थः करणोऽक्षरजीविनि । क्षमे समर्थोऽलंभूष्णुः पादातपदगौ समौ ॥ १०६ जाम्बूलमालिकोट्ठाहे वरयात्रा तु दौन्दुभी । गोपाली वर्णके शान्तियात्रा वरनिमत्रणे ॥ १०७ स्यादिन्द्राणीमहे हेलिरूलुलुमङ्गलध्वनिः । स्यात्तु स्वस्त्ययनं पूर्णकलसे मङ्गलाह्निकम् ॥ १०८ शान्तिके मङ्गलस्नानं वारिपल्लववारिणा । हस्तलेपे तु करणं हस्तवन्धे तु पीडनम् ॥ १०९ १. 'कंकिणी' ग्य. २. 'चन्द्र' ख. ३. 'अण्णकम्' क. ४. 'लुञ्चिका' ख. ५. 'ढरी' ख. ६. 'वीक्षः' ख. ७. 'भटरक' इति प्रतिभाति; 'भट्टारक' इति ख. पुस्तके पाठः. ८. 'दीनश्च नीचश्च' ख. ९. 'अम्नु' क. १०. 'अर्धमोटिका' ख. ११ 'धृतोत्प्रणी' ख. १२ 'खटिका' क. १३ 'बलसात्म्यम्' क. १४ 'ऊपणा' क. १५ 'उपणा' ख. १६ 'जीरेण' क. १७ 'किरातः' क. For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ मर्त्यकाण्डः। .. .. . तच्छेदे समयभ्रंशो धूलिभक्ते तु वार्तिकम् । कुलटायां तु दुःशृङ्गी बन्धुदा कलकणिका ॥ ११० धर्षणी लाञ्छनी ग्वण्टुशीला मदननालिका । त्रिलोचना मनोहारी पालिः सश्मश्रुयोषिति ॥ १११ श्रमणायां भिक्षुणी म्याद्वेश्यायां तु ग्वगालिका । वारवाणिः कामलेखा क्षुद्रा चेट्यां गणेरुका॥११२ वडवा कुम्भदामी च पुत्रे तु कुलधारकः । सदायादो द्वितीयश्च पुत्र्यां धीदा समधुका ॥ ११३ देहसंचारिणी चाप्यपत्ये संतानसंतती । नप्ता तु दुहितुः पुत्रे स्यात्कनिष्टे तु कन्यसः ॥ ११४ ज्येष्टभगिन्यां तु वीरभवन्ती स्यानु नर्मणि । मुखोत्सवो रागरसो विनोदोऽपि किलोऽपि च॥११५ वप्पो जनित्रो रेतोधास्ताते जानी तु मानरि । दहे मिनं प्रजनुकश्चतुःशाखं पडङ्गकम् ।। ११६ व्याधिस्थानं च देहैकदेशे गावं कचे पुनः । वृजिनो वेल्लिताग्रोऽम्रो धम्मिल्ले मौलिजूटकौ ॥ ११७ कर्परी तु कवर्यां स्यात्प्रलोभ्यो विशदे कचे । मुखे दैन्तालयं स्योनं धनं चरं घनोत्तमम ॥ ११८ कर्णप्रान्तस्तु धारा स्यात्कर्णमूलं तु शीलकम् । अक्ष्णि रूपग्रहो देव दीपो नासा तु गन्धहत् ॥११९ नमा गन्धवहा नस्या नासिक्यं गन्धनालिका । ओष्टे तु दशनोच्छिष्टो रसालेपी च वाग्दलम १२० श्मश्रुणि व्यञ्जनं कोटो दन्ते मुखखरः वरुः । दालुजिह्वा तु रसिका रस्ना च रसमातृका ॥ १२१ रमा काकुर्ललना च वक्रदलं तु तालुनि । अवटी तु शिरःपीठं कफणौ रनिपृष्टकम् ॥ १२२ वाहपत्राहुसंधिश्च हस्ते भुजदल: सलः । अथ व्यामे वियामः स्याद्वाहुचापस्तनूतलः ॥ १२३ हृद्यसहं मर्मवरं गुणाधिष्टानकं मम । स्तनौ तु धरणावग्रे तयोः पिप्पलमेचकौ ॥ १२४ जटरे मलुको गेमलताधागेऽथ कोमनि । स्यात्ताण्ड्यं क्लपुषं क्लोममथ नाभौ पुतारिका ॥ १२५ शिरामूलं कटीकूपौ तूचलिङ्गौ रतावुके । शिश्ने तु लङ्गुलं शङ्कु लागलं शेफशेफसी ॥ १२६ रक्ते तु शोध्यकीलाले मांसे तूद्धः समारटम् । लेपनं च रोमणि तु बग्मलं वालपुत्रकः ॥ १२७ कूपजो मांसनिर्यासः परित्राणमथ स्नसा । तत्रीनखारुनावान: संधिवन्धनमित्यपि ॥ अगरी प्रवरं शृङ्गं शीर्पकं मृदुलं लघु । वरद्रुमः परमदः प्रकरं गन्धदारु च ॥ १२० चन्दने पुनरेकाङ्गं भद्रश्रीः फलकीन्यपि । जातीफले भोमनसं पुटकं मदशौषटकम ॥ १३० कोशफलं कुङ्कमे तु करटं वामनीयकम् । प्रियङ्ग पीनकावे घोरं पुष्पर जो वरम ॥ १३१ कुसुम्भं च जवापुष्पं कुमुमान्तं च गौरवम् । वृक्षपे तु श्रीवेष्टो दपिक्षीग्यताहयः ॥ १३२ रचनायां परिस्पन्दः प्रतियत्नोऽथ कुण्डले । कर्णादी मेखला तु लालिनी कटिमालिक। ॥ १३३ अथ किङ्किण्यां धर्धरी विद्या विद्यामणिस्तथा । नपुरे तु पादशीली मन्दीरं पादनालिका ॥ १३४ पादाङ्गलीयके पादपालिका पादकीलिका । वने निवसनं वस्नं मत्रं कर्पटमित्यपि ॥ १३५ दशामु वरपेश्योऽथ हिमवातापहांशुके । तिखण्डको वरकश्च चक्रवर्तिन्यधीश्वरः॥ १३६ अर्जुने विजयश्चित्रयोधी चित्राङ्गमूदनः । योगी धन्वी कृष्णपक्षो नन्दिघोषस्तु तद्रथः ॥ १३७ ग्रन्थिकस्तु सहदेवो नकुलम्नन्तिपालकः । माद्रेयाविमौ कौन्तेया भीमार्जुनयुधिष्टिगः ॥ १३८ द्वयेऽपि पाण्डवेयाः म्युः पाण्डवाः पाण्डवायनाः गजच्छन्त्रे नृपलक्ष्म चमरः स्यात्तु चामरे॥ १३९. स्यान्यायद्रष्टरि म्थेयो द्वाःये तोस्थितिदर्शकः । क्षुद्रोपकरणानां स्यादध्यक्षः पारिकर्मिकः ॥ १४० १. 'शिनं' ग्व. २. 'स्त:' ख. ३. 'दन्तालयस्तेरं' ख. ४. 'वरं' ख. ५. 'शीलकः' ख. ६. 'तननल:' ख. ७. 'मर्मचरम्' क, ८. 'पुनारिका' व. ९. 'क्षिरामलं क. १०. 'प्रकार' क. ११. 'अलंकारशेखरच' इति पस्तद्येऽप्यधिकमुपलभ्यते. १२ 'दाःस्थितदर्शका' ख. For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-७ अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः । पुराध्यक्षे कोट्टपति: पौरिको दाण्डपाशिकः । वेध्यं निमित्तं बाणे तु लक्ष्यहा मर्मभेदनः ॥ १४१ वरिश्च वीरशङ्कुश्च कदम्बोऽप्यस्रकण्टकः । नाराचो लोहनालोऽस्त्रसायकोऽसिस्तु सायकः ॥ १४२ श्रीगर्भो विजयः शाम्ता व्यवहारः प्रजाकरः । धर्मप्रचारो धाराङ्गो धाराधरकरालिकौ ॥ १४३ चन्द्रभासश्च शस्त्रोऽथ क्षुर्यस्त्री कोशशायिका । पत्रं च धेनुका पत्त्रपाले तु हुलमातृका ॥ १४४ कुट्टन्ती पत्रफलाथ शक्तिः कासमहाफला । अष्टतालायता सा च पट्टिसस्तु खुरोपमः ॥ १४५ लोहदण्डम्तीक्ष्णधारो दुःस्फोटागफलौ समौ । चक्रं तु वलयप्रायमरसंचितमित्यपि ॥ १४६ शतनी तु चतुम्ताला लोहकण्टकसंचिता । अयःकण्टकसंछन्नाशतन्ने च महाशिला ॥ १४७ भुषुण्डी म्याहारुमयी वृत्तायःकीलसंचिता । कणयो लोहमात्रोऽथ चिरिका तु हुलाग्रका ॥ १४८ वराहकर्णकोऽन्वर्थः फलपत्राग्रके हुलम् । मुनयोऽस्त्रशेखरं च शगभ्यास उपासनम् ॥ १४९ जिप्णौ तु विजयी जैत्रः स्यान्गाली तु विप्लवे । करमध्ये सौम्यं तीर्थमथ स्यान्नियमे तपः॥१५० सत्यवत्यां गन्धवती मत्स्योदर्यथ वक्रये । भाटकोऽथ माक्षिणि स्यान्मध्यस्थः प्राश्निकोऽप्यथ ॥ १५१ कटमाक्षी मृपामाक्षी मची स्याहुष्टसाक्षिणि । पादुकायां पादरथी पादजङ्गुः पदवरा ॥ १५२ पादवीथी च पेशी च पादपीठी पदायता । नापिते ग्रामणीभण्डिवाहक्षौरिकभाण्डिकाः ॥ १५३ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्ट मर्यकाण्डस्तृतीयः ॥३॥ अथ पृथ्वी महाकान्ता क्षान्ता मेर्वद्रिकर्णिका । गोत्रकीला घनश्रेणी मध्यलोका जगदहा ॥ १५४ देहिनी केलिनी मौलिमहास्थल्यम्बरस्थली । गिरौ प्रपाती कुट्टार उर्वङ्गः कंदराकरः ॥ १५५ कैलामे धनदावासो हरादिहिमवद्वसः । मलयश्चन्दनगिरिः स्याल्लोहे धीनधीवरे ॥ १५६ ताने पवित्रं काम्यं च सीसके तु महाबलम् । चीनपिष्टं समेलूकं कृष्णं च त्रपुबन्धकम् ।। १५७ त्रपणि श्वेतरूप्यं स्यात्सर्ट सलवणं रजः । पगसं मधुकं ज्येष्ठं धनं च मुखभूषणम् ॥ १५८ ग्जते त्रापुपं वङ्गजीवनं वसु भीमकम् । स्वभ्रं सौम्यं च शोध्यं च रूपं भीरु जवीयसम् ॥ १५९ सुवर्णे लोभनं शुक्रं तारजीवनमौजमम । दाक्षायणं रक्तवर्ण श्रीमत्कुम्भं शिलोद्भवम् ॥ १६० वैणवं तु कर्णिकारच्छायं वेणुतटीभवम् ॥ इति पृथ्वीकायः । जले दिव्यमिग सेव्यं कृपीटं घृतमङ्कुरः । विषं पिप्पलपातालमलिलानि च कम्बलम् ॥ १६२ पावनं पड़मं चापि पल्लरं तु मितं पयः । किट्टिमं तदतिक्षारं शालूकं पङ्कगन्धिकम् ॥ १६३ अन्धं तु कलुपं तोयमतिम्वच्छं तु काचिमम् । समुद्रे तु महाकच्छो दाग्दो धरणीप्लवः ॥ १६४ महीप्रावार उर्वङ्गम्तिमिकोशो महाशयः । मुरंदग तु मुरला सुरवेला तु नन्दिनी ॥ १६५ चर्मण्वती रन्तिनदी मंभेदः मिन्धुमंगमः । नीका तु सारणौ इति जलकायः । अग्नौ चमिर्दीप्रः समन्तभुक् ॥१६६ फ्र्परीकः पविर्षामिः पृथुर्घघरिराशिरः । जुहुराणः पृदाकुच जुषाकुर्हवनो हविः ॥ १६७ १. 'वारश्च' ख. २. 'कलपत्रात्रके' ख. ३. 'समोलूकम्' ख.४. 'श्वभ्रं' ख. ५. 'साध्यं' ख. ६. 'मलिनानि' क. ७. 'वभिः' ख. ८. 'कर्परीकः' ख. ९. 'घसुरिराशिरः' क. १०. 'कुषाकुः' ख, १६१ For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ तिर्यकाण्डः । घृताचिर्नाचिकेतश्च ष्टो वञ्चतिरञ्चतिः । भुजिर्भरथपीथौ च स्वनिः पवनवाहनः ॥ इत्यग्निकायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाय सुरालयः प्राणः संभूतो जलभूषणः । शुचिर्वहालो घटः पश्चिमोत्तरदिपतिः ॥ अङ्कतिः क्षिपणुर्मध्वजप्रहरणश्चलः । शीतलो जलकान्तारो मेघारिः समग्रेऽपिच ॥ इति वायुकायः । वृक्षे त्वारोहकः स्कन्धी सीमिको हरितच्छदः । रुर्जन्तुर्वह्निभूश्च इति वनस्पतिकायः । For Private and Personal Use Only ७ १६८ १६९ १७० १७१. १७७ स्यात्तु श्वेतः कपर्दके || खद्योते तु कीटमणिज्योतिर्माली तमोमणिः । परार्बुदो निमेषद्युत् ध्वान्तचित्रोऽथ कुञ्जरे || १७२ पेचकी पुष्करी पद्मी पेचिल: सूचिकाधरः । विलोलजिह्वोऽन्तः स्वेदो महाकायो महामदः || १७३ शूर्पकर्णो जलाकाङ्क्षो जटी च षष्टिहायनः । असुरो दीर्घपवनः शुण्डालः कपिरित्यपि ।। १७४ वशायां वाशिता कर्णधारिणी गणिकापि च । अश्रे तु क्रमणः कुण्डी प्रोथी हेपी प्रकीर्णकः ॥ १७५ पाकल: परुल: किण्वी कुटरः सिंहविक्रमः । मायाशी केसरी हंसो मुद्रभुग्गूढभोजनः || १७६ वासुदेवः शालिहोत्रो लक्ष्मीपुत्र मरुद्रथः । चामर्येकश फोऽपि स्यादश्वायां पुनरर्वती ॥ मल्लिकाक्षः सितैर्नेत्रैः स्याद्वाजीन्द्रायुधोऽसितैः । ककुदी ककुदावर्तो निर्मुष्कविन्द्रवृद्धिकः ॥ १७८ शुनि क्रोधी रसापायी शिवारिः सूचको रुरुः । वनंतपः स्वजातिद्विकृतज्ञो भल्लहा सः || १७९ दीर्घनादः पुरोगामी स्यादिन्द्रमहकामुकः । मण्डलः कपिलो ग्राममृगश्चेन्द्रमहोऽपि च ॥ १.८० महिषे कलुषः पिङ्गः कटाहो गद्दस्वरः । हेरम्बः स्कन्धशृङ्गश्च सिंहे तु स्यात्पलंकषः ॥ १८१ शैगाटो वनराजश्च नभःक्रान्तो गणेश्वरः । शृङ्गोष्णीषो रक्तजिह्नो व्यादीर्णास्यः सुगन्धिकः ॥ १८२ मूकरे कुमुखः कामरूपी च सलिलप्रियः । तलेक्षणो वक्रदंष्ट्रः पङ्कक्रीडनकोऽपि च ॥ मृगे त्वजिनयोनिः स्यादथो भुजगभोगिनि । अहीरणी द्विमुखश्च भवेत्पक्षिणि चक्षुमान् ॥ कण्ठाग्निः कीकसमुखो लोमकी रसनारदः । वारङ्गिनाडीचरणौ मयूरे चित्रपिङ्गलः || नृत्यप्रियः स्थिरमदः खिलनिलो गरव्रतः । मार्जारकण्ठो मरुको मेघनादानुलासकः ॥ Satara गावासश्च चन्द्रकी । कोकिले तु मदोल्लापी काकजातो तोद्वहः ॥ मधुघोषो मधुकण्ठः सुधाकण्ठः कुहुमुखः । घोषयित्नुः पोषयित्नुः कामवाल : कुनालिकः ॥ कुक्कुटे तु दीर्घनादश्चर्मचूडो नखायुधः । मयूरचटकः शौण्डो रणेच्छुश्च कलाधिकः || आरणी विकिरो बोधिर्नन्दीकः पुष्टिवर्धनः । चित्रवाजो महायोगी स्वस्तिको मणिकण्टकः || १९० उपाकीलो विशोकश्च त्राजस्तु ग्रामकुकुटः । हंसेषु तु मरालाः स्युः सारसे दीर्घजानुकः ॥ १९१ गोनद मैथुनी कामी श्येनाक्षी रक्तमस्तकः । गृध्रे तु पुरुषव्याघ्रः कामायुः कूणितेक्षणः || १९२ सुदर्शनः शकुन्याजौ शुके तु प्रियदर्शनः । श्रीमान्मेधातिथिर्वाग्रमी मत्स्ये तु जलपिप्पिकः ।। १९३ मूको जलाशयः शेवः पाटीने मृदुपाठकः ॥ १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ १९४ इत्याचार्यदेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे तिर्यक्काण्डचतुर्थः ॥ ४ ॥ १. 'पृष्ठो' क. २. 'लघंट' क; 'घट' ख. ३. 'उरु: ' स्व. ४. 'ग्रहभोजन: ' . ५. 'मयको' ख. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-७ अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः । अथ रत्नप्रभा धर्मा वंशानुशर्कराप्रभा । स्याद्वालुकाप्रभा शैला भवेत्पङ्कप्रभाञ्जना ॥ धूमप्रभा पुनारिष्टा माधव्या तु तमःप्रभा । महातमःप्रभा माधव्येवं नरकभूमयः । इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे नारककाण्डः पञ्चमः ॥ ५ ॥ आनुकूल्यार्थकं प्राध्वमसाकल्ये तुचिञ्चन । तुहिचस्महवै पादपूरणे पूजने स्वती ॥ १९७ वद् वा यथा तथैवैवं साम्येऽहो ही च विस्मये । स्युरेवं तु पुनर्वैवेत्यवधारणवाचकाः ।। १९८ ऊं पृच्छायामतीते प्राक् निश्रयेऽद्धाञ्जसाद्वयम् । अतो हेतौ महः प्रत्यारम्भेऽथ स्वयमात्मनि ॥१९९ प्रशंसने तु सुष्टु स्यात्परश्वः श्वः परेऽहनि । अद्यावाइयथ पूर्वेऽहीत्यादौ पूर्वेधुरादयः ॥ २०० समाने हति सद्यः स्यात्परे वह्नि परेद्यवि । उभयद्युस्तूभयेयुः समे युगपदेकदा ॥ २०१ स्यात्तदानीं तदा तर्हि यदा यद्यन्यदैकदा । परुत्पगर्येषमोऽब्दे पूर्वे पूर्वतरेऽत्र च ॥ २०२ प्रकारेऽन्यथेतरथा कथमित्थं यथा तथा । द्विधा द्वेधा त्रिधा त्रेधा चतुर्धा द्वैधमादि च ।। २०३ द्विव्यश्चतुःपञ्चकृत्व इत्याद्यावर्तने कृते । दिग्देशकाले पूर्वादौ प्रागुदक्प्रत्यगादयः ॥ २०४ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे मामान्यकाण्डः षष्टः ॥ ६ ॥ इति श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितोऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः॥ अभिधानसंग्रहः। -Obero (८) श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रविरचितः अनेकार्थसंग्रहः। ध्यात्वार्हतः कृतैकार्थशब्दसंदोहसंग्रहः । एकस्वरादिषट्काण्ड्या कुर्वेऽनेकार्थसंग्रहम् ॥ अकारादिक्रमेणादावत्र कादिक्रमोऽन्ततः । उद्देश्यवचनं पूर्व पश्चादर्थप्रकाशनम् ॥ २ यत्रैक एव रूढोऽर्थो यौगिकस्तत्र दर्शितः । अनेकस्मिंस्तु रूढेऽर्थे यौगिकं प्रोच्यते न वा ॥ ३ पदानां भङ्गतो योऽस्मिन्ननेकार्थः प्रकाशते । प्रदर्शनीयो नैवासौ तस्यानन्त्यप्रसङ्गतः ॥ ४ को ब्रह्मण्यात्मनि ग्वौ मयूरेऽनौ यमेऽनिले । के शीर्षेऽ'सु सुखे खं स्वः संविदि व्योमनीन्द्रिये॥५ शून्ये विन्दौ सुखे खस्तु सूर्ये गौरुदके दृशि । स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ वने भूमाविषौ गिरि ॥६ त्वग्वल्कले चर्मणि च न्यग्निम्ने नीचकाय॑योः । रुक्शोभाकिरणेच्छासु वाग्भारत्यां वचस्यपि ॥ ७ जूराकाशसरस्वत्यां पिशाच्यां जवनेऽपि च । ज्ञः स्याद्विचक्षणे पद्मासने चीन्द्रमसायनौ" ॥ ८ सद्विद्यमाने सत्ये च प्रशस्ताचितसाधुषु । भः शुक्रे भमुडौ भांशौ भूस्तु भूमिरिव क्षितौ ॥ ९ स्थाने च मः पुनः शंभौ मा लक्ष्म्यां वारणेऽव्ययम् । किं क्षेपनिन्दयोः प्रश्ने वितर्के ज्या तु मातरि १० क्ष्मामौर्योर्युर्दिने वह्नौ द्यौस्तु स्वर्गे विहायसि । रस्तीक्ष्णे दहने रास्तु सुवर्णे जलदे धने ॥ ११ =कामरूपिणि स्वर्णे धूर्यानमुखभारयोः । पूः शरीरे च नगरे श्रीलक्ष्म्यां सरलमे ॥ १२ वेपोपकरणे वेपरचनायां मतौ गिरि । शोभात्रिवर्गसंपत्त्योः स्त्रः सवे निर्झरेऽपि च ॥ १३ वः पश्चिमदिगीशे स्यादौपम्ये पुनरव्ययम् । द्यौः स्वर्गनभसोः स्वो ज्ञात्यात्मनोः स्वं निजे धने १४ दृग्दष्टौ दर्शनेऽध्यक्षे विप्रवेशे नृवैश्ययोः । तृट् तृष्णावत्तर्षवञ्च भवेल्लिप्सापिपासयोः ॥ १५ त्विट् शोभायां जिगीषायां व्यवसाये रुचौ गिरि । भाः प्रभावे मयूखे च मास्तु मासे निशाकरे१६ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रह एकस्वरकाण्डः प्रथमः ॥ १॥ अर्को दुभेदे स्फटिके ताने सूर्ये विटौजसि । अकं दुःखाघयोरङ्को भूषारूपकलक्ष्मसु ॥ १७ चित्राजौ नाटकाद्यंशे स्थाने क्रोडेऽन्तिकागसोः । एकोऽन्यः केवलः श्रेष्ठः संख्या कल्कोऽघविष्ठयोः १. 'नत्वा हरिम्' ख. २. 'क्रमोऽत्रादौ ककारादि' ख. ३. 'क्रमस्ततः' ग. ४. 'उद्देश' ख. ५. 'दश्यते' ख; 'दृश्यते' ग. ६. 'प्रकाश्यते' ख-ग. ७. 'नन्त' ख. ८. 'शीर्षेऽप्सु च' ख. ९. 'ऋक्' ख. १०. 'चान्द्रमसायने' ख-ग. ११. इतः परम् 'ता जटायां च राक्षस्यां पतने दुर्भगस्त्रियाम्' इति .ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. १२. 'द्रुः' ग. १३. 'नगरे च' क; 'पत्तने च' ग. १४. 'द्रवे' क. १५. 'वेषे' ग. १६. 'च वौपम्ये' ख. १७. 'द्रष्टरि दर्शनेऽध्यक्षे' ग. १८. 'चित्रादौ' ख. For Private and Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । दम्भे पापिनि किट्टे च कङ्को ब्राह्मणलिङ्गिनि । लोहपृष्ठे यमे कर्कः श्वेताश्वे देर्पणे घटे ॥ १९ कर्केतनेऽग्नौ गशौ च काकः स्यात्पीठसर्पिणि । द्वीपमानद्रुभेदेषु शिरोवक्षालने द्विके । २० काकं काकसमूहे स्याद्रतवन्धे च योषिताम् । काका तु काकजङ्घायां काकोलीकाकनाशयोः॥२१ काकोदंबरिकाकाकमाचिकारक्तिकास्वपि । किष्कुः प्रकोष्ठे हस्ते च वितस्तो कुत्सितेऽपि च ।। २२ कोको वृके चक्रवाके खर्जुरीद्रुमभेदयोः । छेको विदग्धे विश्वस्तमृगनीडजयोरपि ॥ २३ टको नीलकपित्थेऽसिकोशे कोपेऽश्मदारणे | मानान्तरे खनित्रे च जङ्घायां ङ्कणेऽपि च ॥ २४ तर्को वितर्के काङ्क्षायामूहकर्मविशेषयोः । त्रिका कूपस्य नेमौ स्यात्रिकं पृष्ठाधरे त्रये ॥ २५ तोकं संतानसुतयोद्धिकः स्यात्काककोकयोः । न्यङ्कादंगे मुनौ नाकः स्वः खे नाकुस्तु पर्वते ॥२६ मनिवल्मीकयोनिष्कः कर्ष हेमनि तत्पले । दीनारे साष्टसुवर्णशते वक्षोविभूषणे ॥ २७ पकोऽधे कर्दमे पाकः पचने शिशुदैत्ययोः । बको रक्षोभिदि श्रीदे शिवमल्लीबकोटयोः॥ २८ भूकश्छिद्रे काले भेको मेघमण्डूकभीरुषु । मुष्को मोक्षद्रुमे सङ्के तस्करे मांसलाण्डयोः ॥ २९ मूको दैत्यावाग्दीनेषु रङ्कः कृपणमल्लयोः । राका कच्छां दृष्टरजःकन्यायां सरिदन्तरे ॥ ३० पूर्णेन्दुपूर्णिमायां च रेकः शङ्काविरेकयोः । हीने ऽपि रोकं यणभेदे नावि बिलेचरे ॥ ३१ रोकोऽशौ लङ्का तु शाखा शाकिनी कुलटा पुरी । लोको विश्वे जने वल्कं शकले त्वचि शल्कत शको देशे राजभेदे शङ्का स्यात्संशये भये । शङ्कः पत्रशिराजाले संख्याकीलकशंभुषु ॥ ३३ यादोऽस्त्रभेदयोमेंढ़े शाको द्वीपे नृपे दुमे । शक्तौ हरितके चापि शुको व्यासजकीरयोः ॥ ३४ ग्क्षोऽमात्ये शुक ग्रंन्धिपणेऽरत्नुशिरीषयोः । शुल्कं घट्टादिदातव्ये जामातुश्चापि बन्धके ॥ ३५ शूकोऽनक्रोशकिंशावाः शोकेऽभिषवशुङ्गयोः । शूका हल्लेखे श्लोकस्तु पदावन्धे यशस्यपि ॥ ३६ शोकं शुकानां समृहे स्त्रीणां च करणान्तरे। सूका बाणोत्पलवातः स्तोकः स्याचातकाल्पयोः ॥३७ नखं पुनर्गन्धद्रव्ये नखः करजर्षण्ढयोः । न्युखः सामविशेषस्य षडोंकार्यामतिप्रिये ॥ ३८ पुनः स्यान्मङ्गलाचारे शराङ्गश्येनयोरपि । प्रेङ्का पर्यटने नृत्ते दोलायां वाजिनां गतौ ॥ ३९ मुखमुपाये प्रारम्भ श्रेष्ठे निःसरणास्ययोः । रेखा स्यादल्पके छद्मन्याभोगोल्लेखयोरपि ॥ ४० लेखो लेख्ये दैवते च लेखा राज्यां लिपावपि । वीङ्खा तु शूकशिम्बायां गतिभेदेऽपि नर्तने ॥ ४१ शङ्खः कम्बौ निधिभेदे स्यान्नख्यामलिकास्थनि । शाखा द्रुमांशे वेदांशे भुजे पक्षान्तरेऽन्तिके ॥ ४२ शिखाग्रमात्रे चूडायां केकिचूडाप्रधानयोः । ज्वालायां लाङ्गलिकायां शिफाशाखावृणिष्वपि ॥ ४३ सखा महाये मित्रे च सुखं त्रिदिवशर्मणोः । सुखा प्रचेतसः पुर्यामगः स्यान्नगवत्तरौ ।। ४४ शैले सरीसृपे भानावङ्गमन्तिकगात्रयोः । उपसर्जनभूते स्यादभ्युपायप्रतीकयोः ॥ १ 'दर्पटे' ख. २. 'विश्वस्ते' ग. ३. 'नीडकयो' ग. ४. 'टङ्कने' ग. ५. कर्मविशेषः क्रियाविशेषः । उपहास इति यावत्' इत्यनेकार्थकरवाकरकौमुदी. 'वर्मविशे' ख; 'तर्कविशे' ग. ६. 'भूकः काले छिद्रे' ग. ७. 'कोले ख. ८ 'कस्मादृष्ट' ख. ९. 'क्रीयते येन तत्क्रयणं दीनारादि' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. 'कृपण' ग. १०. इतः परम् 'वङ्कः पर्याणभागे स्यान्नदीभेदे च भङ्गुरे' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. ११. 'वस्त्रे वस्त्राञ्चलशिरस्त्रयोः' ग. १२. 'शुङ्गा नवोद्भिन्नपल्लवकोशी' इत्यनेकार्थकरवाकरकौमुदी, 'मुद्गयोः' ख; 'शृङ्गयोः' ग. १३. 'शुगालबकनिरयेष्वपि । शकेल्यायुधभेदेऽपि' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १४. 'तु गन्धद्रव्ये स्यान्नखः' ख. १५. 'खण्डयोः' ख-ग. १६. नत्ये ग. १७. 'शेपे' ख. १८. 'ज्यायां' ग, १९. 'च' ख-ग, २०. 'निधेभेदे ख, For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विरकाण्डः | ४६ ४८ ४९ 1 ५२ ५३ ५६ अङ्गा नीवृद्विशेषे स्युरिङ्गः स्यादिङ्गितेऽद्भुते । ज्ञानजङ्गमयोश्चापि खगोऽर्कग्रहपक्षिषु || शरे देवेऽपि खड्गोऽसौ खङ्गिशृङ्गे च गैण्डके । टेङ्गः खनित्रे जङ्घास्योस्त्यागो वर्जनदानयोः ४७ दुर्ग पुनर्दुर्गमे स्याद्दुर्गा तु नीलिकोमयोः । नागो मतङ्गजे सर्पे पुंनागे नागकेसरे || क्रूराचारे नागदन्ते मस्तके वारिदेऽपि च । देहानिलविशेषे च श्रेष्ठे स्यादुत्तरस्थितः ।। नागं रङ्गे सीसपत्रे स्त्रीवन्धे करणान्तरे । पिङ्गी शम्यां पिङ्गा हिङ्गुनाल्यां गोरोचनोमयोः ॥ ५० पिङ्ग बालके पिशङ्गे पूगः क्रमुकसंघयोः । फल्गुः काकोदुम्बरिकावृक्षे निरर्थकेऽपि च ।। ५१ भगोऽर्कज्ञानमाहात्म्ययशोवैराग्यमुक्तिषु । रूपवीर्यप्रयत्लेच्छा श्रीधर्मैश्वर्ययोनिषु ॥ भङ्गतरङ्गे भेदे च रुग्विशेषे पराजये । कौटिल्ये भयविच्छित्योर्भङ्गा शणे भङ्गिः पुनः ॥ 1 भक्तिवीच्योर्भागो रूपार्थके भाग्यैकदेशयोः । भृङ्गं त्वक्पत्रं भृङ्गास्तु खिङ्गधूम्याटमार्कवाः || ५४ पट्पदोऽथ भृगुः सानौ जमदभिप्रपातयोः । शुक्रे रुद्रे च भोगस्तु राज्ये वेश्याभृतौ सुखे ।। ५५ धनेऽहिकाययोः पालनाभ्यवहारयोः । मार्गो मृगमदे मासे सौम्यर्क्षेऽन्वेषणे पथि ॥ मृगः कुरङ्गे याच्यायां मृगयायां गजान्तरे । पशौ नक्षत्रभेदे च मृगी तु वनितान्तरे || युगं हस्तचतुष्के स्याद्रथाद्यङ्गे कृतादिके । वृद्धिनामौषधे युग्मे योगो विसम्भवातिनि || अलब्धलाभे संगत्यां कार्मणध्यानयुक्तिषु । वपुःस्थैर्यप्रयोगे च संनाहे भेषजे धने || विष्कम्भादावुपाये च रङ्गः स्यान्नृययुद्धवोः । रागे रङ्गं तु त्रपुणि रागः स्याल्लोहितादिषु ॥ गान्धारादौ क्लेशादिकेऽनुरागे मत्सरे नृपे । लङ्गः सङ्गे च षिङ्गे च लिङ्गं मेहनचिह्नयोः ॥ शिवमूर्तावनुमानं 'सांख्योक्तवि॑िकृ॒तावपि । वङ्गः कर्पासे वृन्ताके वङ्गा जनपदान्तरे || बङ्गं त्रपुणि सीसे च वल्गुरछागमनोज्ञयोः । व्यङ्गो भेके च हीनाङ्गे वेगो रयप्रवाहयोः ॥ रेतःकिपाकयोश्चापि शार्ङ्ग विष्णुधनुर्धनुः । शुङ्गयात्रा वटे लक्षे शृङ्गं चिह्नविषाणयोः ॥ क्रीडाम्बुयत्रं शिखरे प्रभुखोत्कर्षसानुषु । शृङ्गः कूर्चशीर्ष शृङ्गी स्वर्णमीनविशेषयोः ।। विषायामृषभौषध्यां सर्गस्यागस्वभावयोः । उत्साहे निश्चयेऽध्याये मोहानुमतिसृष्टिषु ॥ अर्धः पूजाविधी मूल्येऽयं दुःखे व्यसनैनसोः । उद्घो हस्तपुढे वह वायां देहजानिले ॥ ६७ आंघः प्रवाहः संघातो द्रुतनृत्तं परम्परा । उपदेशश्च मेघस्तु मुस्तके जलदेऽपिच ॥ मोघो दीने निष्फले च मोघा स्यात्पाटलातरौ । लघुः सृका लध्वसारं ह्रस्वं चार्वगुरु द्रुतम् ||६९ श्लाघोपास्तीच्छयोः स्तोत्रेऽर्चा पूजा प्रतिमानि च । कचः शुष्कव्रणे केशे बन्धे पुत्रे च गीः पतेः ७० कचा करेण्यां काचोऽक्षिरोगे शिक्ये मणौ मृदि । काञ्ची गुञ्जामेखलयोः पुर्या कूर्चो विकल्प ७१ 28 1 ६८ For Private and Personal Use Only 2 ५७ ५८ ५९ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ १. 'अङ्गो नीवृद्विशेषे स्यादिन: ' ग. २ 'द्विशेषाः ' ख ३. 'खड्ग' क. ४. 'कण्टके' ग. ५. इतः प्राकू 'गर्यो मुनिविशेषे स्याद्वृषेकिंचुलकेऽपि च' इत्यधिकः पाठः ख-ग- पुस्तकयोः ६. इतः परम् 'तुङ्गः पुंनागनगयोर्बुधे स्यादुन्नतेऽपि च । तुङ्गी प्रोक्ता हरिद्रायां वर्वरायामपीष्यते । । ' इत्यधिकः पाठः ख-गपुस्तकयोः तत्र ग-पुस्तके 'उन्नतेऽन्यवत्' इति पाठ: ७. 'कोटे दु' ख; 'भवेदुर्गमे तु' ग. ८. 'स्यान्नीलिको ' ग. ९. 'बलाके' ग. १०. अनेकार्थ करवाकर कौमुद्यां तु 'भङ्गीभिरङ्गीकृतमानताङ्गया:' इति भक्तौ, 'भङ्गीभक्त्या विरचिततनुः स्तम्भितान्तर्जलौघः' इति वीच्यामुदाहृतम् ११. 'चतुर्थ' ग घ १२. सांख्योक्तायाः प्रकृतेः कार्यभूता विकृतिः । तत्र यथा - 'लिङ्गालिङ्गमिवानुरूपचरितं पुत्रं स लेभे मुनिः' इत्यनेकार्थकैरवाकर कौमुदी. ११. 'प्रकृतावपि' ख ग घ १४ ' जनपदान्तरे पुंभूनि' इति टीका. १५. 'मलोत्सर्गे प्रभावे शृङ्गारभावेऽपि ' इत्यनेकार्थ कैरवाकरकौमुदी. १६. 'अपदेश' ख. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ अभिधानसंग्रह - ८ अनेकार्थसंग्रहः । 1 श्मश्रुणि दम्भे भ्रूमध्ये क्रौञ्चो द्वीपे खगे गिरौ । चर्चा स्याच्चर्ममुण्डायां चिन्तास्थासकयोरपि ।। ७२ चक्षुः पञ्चाङ्गुले त्रोट्यां नीचः पामरखर्वयोः । मोचा शाल्मलिकदल्योर्मोचः शिौ रुचिर्युतौ७३ स्पृहाभिष्वङ्गशोभासु वचः शुके वचौषधौ । शारिकायां विच्याल्यूम्यौरवकाशे सुखाल्पयोः ॥ ७४ शचीन्द्राणीशतावर्योः शुचिः शुद्धे सितेऽनिले । ग्रीष्माषाढानुपहतेषूपधाशुद्धमत्रिणि ॥ ७५ शृङ्गारे सूच्यभिनये व्यधने करणे स्त्रियाम् | अच्छो भछूके स्फटिकेऽमलेऽच्छाभिमुखेऽव्ययम् ७६ कच्छो दुभेदे नौकाङ्गेऽनूपप्राये तटेऽपि च । कच्छास्तु देशे कच्छा स्यात्परिधानापैराञ्चले || चीर्या वाराह्यां च गुच्छो गुच्छे हारकलापयोः । पिच्छः पुच्छे पिच्छं वाजे पिच्छा शाल्मलिवेष्टके ७८ पॅङ्कौ पूगच्छटाकोशमण्डेष्वश्वपदामये । मोचायां पिच्छिले म्लेच्छां जातिभेदेऽप्रभाषणे ॥ ७९ अछा हरे विष्णौ रघुजे वेधसि स्मरे । अब्जो धन्वन्तरौ चन्द्रे शङ्खेऽब्जं पद्मसंख्ययोः ८० आजि: क्षणे समक्ष्मायां युध्यूर्जः कार्तिके बले । कंजो वेधसि केशे च कंजं पीयूषपद्मयोः ॥ ८१ कुञ्जो नौ दन्तिदन्ते निकुञ्जे च कुजो द्रुमे । आरे नरकदैये च कुब्जो न्युजद्रुभेदयोः ॥ ८२ खजा दर्बीमथोः खर्जूः खर्जूरीकीटकण्डुषु । गञ्ज भाण्डागारे रीढाखन्योर्गला सुरागृहे ॥ ८३ गुञ्जातु कृष्णलायां स्यात्पटहे मधुरध्वनौ । द्विजो विप्रक्षत्रिययोर्वैश्ये दन्ते विहंगमे || ८४ द्विजा भार्गीरेणुकयोर्ध्वजः पूर्वदिशो गृहे । शिने विद्वे पताकायां खट्वाङ्गे शौण्डिकेऽपि च ॥ ८५ निजो नित्ये स्वकीये च न्युजः कुब्जे कुशे स्रुचि । अधोमुखेऽपि च न्युब्जं कर्मरङ्गतरोः फले ॥ ८६ प्रजा लोके संततौ च पिञ्जा तूलहरिद्रयोः । पिञ्जो व्यग्रे वधे पिञ्जं वले बीजं तु रेतसि ॥ ८७ स्यादाधाने च तत्त्वे च हेतावङ्करकारणे । भुजो बाहौ करे मंजू शुद्धौ च रजकेऽपिच ॥ ८८ राजी रेखायां पङ्कौ च रुजा त्वामयभङ्गयोः । लञ्जः पट्टे च कच्छे च लाजः स्यादातण्डुले ॥८९ लाजस्तु भृष्टीनाः स्युर्लाजं पुनरुशीर के । व्रजोऽध्वगोष्टसंघेषु वणिग्वाणिज्यजीविनि ॥ ९० वाणिज्ये करणभेदे वाजं सर्पिषि वारिणि । यज्ञान्न वाजस्तु पक्षे मुनौ निस्वनवेगयोः ॥ ९१ व्याजः शाश्येऽपदेशे च सज्जां संनद्धसंभृतौ । सज्जा ब्रह्मशिवौ प्रज्ञः प्राज्ञे प्रज्ञा तु शेी ॥ ९२ यज्ञः स्यादात्मनि मखे नारायणहुताशयोः । संज्ञा नामनि गायत्र्यां हस्ताद्यैरर्थसूचने ॥ चेतनार्क स्त्रियोरट्टो हट्टाट्टालकयोर्भृशे । चतुष्कभक्तयोरिष्टमीप्सिते ऋतुकर्मणि || पूज्ये प्रेयसि संस्कारे योगेऽथेष्टिर्मखेच्छयोः । संग्रह लोकेऽथ कटो गजगण्डे कटौ भृशम् ।। ९५ शत्रे शवरथौषध्योः क्रियाकार श्मशानयोः । किलिजे समये चापि कष्टं गहनकृच्छ्रयोः ॥ ९३ ९४ ९६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 66 कार्ये मत्सरेच दूषणे च कटू रसे । तिक्ते प्रियसुरभिकटुकाराजिकास्वपि ॥ कुटः कोटे शिलाकुट्टे हे घटे कुटी सुरा । चित्रगुन्छः कुम्भदासी कूटं पूरयन्त्रयोः ॥ मायादम्भाद्रिशृङ्गेषु सीराङ्गेऽनृततुच्छयोः । निश्चलेऽयोधने राशौ कृष्टिः कर्षणश्रीमतोः ॥ कोटयुत्कर्षाटनीसंख्यात्रिषु खटस्तृणे कफे । टऽन्धकूपे प्रहारे खाटिः शवरथे कि ।। एकग्रहेऽथ खेटः स्याद्रामभेदे ऽधमे । स्फारे मृगव्ये गृष्टिस्तु सकृत्सूतगवी भवेत् ॥ १०१ बराहक्रन्ता च घटा घटने गजसंहतौ । गोष्ठयां घटस्भिशिरः कूटे समाधिकुम्भयोः ॥ १०२ १. 'पटाञ्चले' ख. २. 'पिच्छस्तुच्छे' ख. ३. 'पङ्गिपूग' ख ग घ ४. 'कुशस्रुचि' क ५. 'मर्ज' ख. ६. 'धान्ये' ख. ७. 'घृते च' ख. ८. 'यज्ञान्ते' 'क- ख. ९ 'तते पयसि दध्यानयति सा वैश्वदेव्यामिक्षा, वाजिभ्यो वाजिनम्' इति वाक्यव्याख्यायां 'वाजोऽनम्' इति मीमांसकैरुक्तत्वात्. १०. 'कान्ता' ख-ग-ध. ९७ ९८ ९९ १०० Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः । घृष्टिः स्पर्धाघर्षणयोर्विष्णुक्रान्तावगहयोः । घोण्टा पूगवदरयोश्चटुश्वाटुपिचण्डयोः॥ १०३ ब्रत्यासने जटा केशविकारे मांसिमूलयोः । झाटो व्रणादिसंमाष्र्टी कुञ्जकान्तारयोरपि ॥ १०४ त्वष्टा विश्वकृत्तक्ष्णोस्त्रटिः संशयलेशयोः । सूक्ष्मैलायां कालमाने त्रोटिश्चश्वां खगान्तरे।।१०५ मीनकटफलयोर्दिष्टं दैवे दिष्टस्त्वनेहसि । दिष्टिरानन्दे माने च दृष्टिआनेऽक्षिण दर्शने ।। १०६ पट्टश्चतुष्पधे पीठे गजादेः शासनान्तरे । व्रणादिबन्धने पेषाश्मनि पट्टी ललाटिका ॥ १०७ गेनोऽथ पटु लवणे पटुस्तीक्ष्णपटोलयोः । स्फुटे रोगविहीने च छत्रायां चतुरेऽपि च ॥ १०८ पुष्टिः स्यात्पोषणे वृद्धौ फटा तु कैतवे फणे । भटो वीरे म्लेच्छभेदेऽपि च भृष्टिस्तु भर्जने १०९ शून्यवाट्यामथ म्लिष्टं म्लानमस्पष्टभाषितम् । यष्टिर्भार्या मधुयष्टयां ध्वजदण्डेऽस्त्रहारयोः॥११० रिष्टं क्षेमेऽशुभे रिष्टोऽसौ लाटो वस्त्रदेशयोः । वटो गोले गुणे भक्ष्ये वृक्षे साम्यवराटयोः ।। १११ वाटः पथि वृतौ वाट वरण्डेऽङ्गान्नभेदयोः । वाटी वास्तौ गृहोद्यानेकेट्योर्विटस्तु मूषके ॥ ११२ खदिरे लवणे पिङ्गेऽद्रौ च व्युष्टं फले दिने । पर्युषिते प्रभाते च व्युष्टिः स्तुतिफलद्धिषु ॥ ११३ विष्टिः कर्मकरे मुल्ये भद्राप्रेषणेषु च । सटा जटाकेसरयोः स्फुटो व्यक्तप्रफुल्लयोः ॥ ११४ मिते व्याप्ते स्फुटिम्त्वनिम्फोटे निभिन्नचिर्भिटे । सृष्टिः स्वभावे निर्माणे सृष्टं निश्चितयुक्तयोः११५ प्रचुरे निर्मिते नाथ हृष्टः स्यात्केर्शगेममु । जातहर्षे प्रतिहते विस्मिते हृषितो यथा ॥ ११६ कटो मुनौ स्वर ऋचां भेदे तत्पाटवेदिनोः । कण्ठो ध्वनौ संनिधाने ग्रीवायां मदनद्रुमे ॥ ११७ काष्ठं दारुणि काष्ठा तु प्रकर्ष स्थानमात्रके । दिशि दामहरिद्रायां कालमानप्रभिदापि ॥ ११८ कुण्ठोऽकर्मण्ये गर्वे च कुठं भेषजरोगयोः । कोष्ठो निजे कुसूले च कुक्षेग्न्तर्गृहस्य च ॥ ११९ गोष्ठं गोम्थानके गोष्ठी संलापे परिपद्यपि । ज्येष्ठः स्यादग्रने श्रेष्ठे मासभेदातिवृद्धयोः॥ १२० ज्येष्ठा भे गृहगोधायां निष्ठोत्कर्षव्यवस्थयोः । केशे निष्पत्तौ नाशेऽन्ते निर्वाहे याचने व्रते॥१२१ पृष्ठं पश्रिममात्रे म्याच्छगवयवान्तरे । वण्ठः कुण्ठायुधे खर्वे भृत्याकृतविवाहयोः ।। १२२ शटो मध्यस्थपुरुषे धूर्ते धत्तूरकेऽपि च | श्रेष्ठोऽग्ये धनदे षष्ठी गौरी षण्णां च पूरणी ॥ १२३ हठोऽम्बुपर्यो प्रसभेऽण्डं पेशीकोशमुष्कयोः । इडेलावस्वर्गनाडीभूवाग्गोषु वुधस्त्रियाम् ॥ १२४ काण्डो नालेऽधमे वर्गे दुस्कन्धेऽवसरे शरे । संहः श्लाघाम्बुषु स्तम्बे क्रीडा केल्यामनादरे ।। १२५ कुण्डी कमण्डलौ कुण्डो जागज्जीवत्पतेः सुते । देवतोयाशये स्थाल्यां श्वेडः कर्णामये ध्वनौ१२६ विषे वके श्वेडा सिंहनादवंशशलाकयोः । श्वेडं लोहितार्कफले घोषपुष्पे दुरासदे ॥ १२७ कोड: 'कोले शनौ कोडमङ्के खण्डोऽर्थ ऐक्षवे । मणिदोषे च गण्डस्तु वीरे पिटकचिह्नयोः॥१२८ कपोले गण्डके योगे वाजिभूषणवुगुदे । गडुः पृष्ठगुडे कुब्जे गडो मीनान्तराययोः ॥ १२९ गुडः कुञ्जरसंनाहे गोलकेक्षुविकाग्योः । गुडा तु 'गुलिकास्नुह्योर्गोण्डः स्यादृद्धनाभिके ॥ १३० पामरजातौ चण्डस्तु यमदासेऽतिकोपने । तीब्रे दैयविशेषे च चण्डी तु शिवयोषिति ॥ १३१ चण्डा धनहरीशङ्खपुप्प्योश्चूडा शिखाग्रयोः । बाहुभूषावलभ्योश्च चोडः कञ्चकदेशयोः ॥ १३२ १. 'गृहोद्यानकट्योः' ख; 'गृहोद्याने कट्यां' ग-घ. २ 'इत्कटी औषधिविशेषः' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. ३. 'प्रेरणेषु' ख. ४. 'निश्रुत' ग-घ. ५ 'हृष्टो रोमाञ्चसंयुते' ख-ग-घ. ६. 'केशरोमस्विति वैषयिकेऽधिकरणे सप्तमी । तेन केशरोमविषये नानयोः पर्यायशब्दता' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. ७. 'प्रहसिते ख. ८. 'कुहरेऽन्त' ख; 'कुक्षावन्त' ग-घ. ९. 'रहः' ख-ग-घ. 'सहो बलम्' इति टीका. १०. 'केले' ग-घ. ११. 'कपट' ख. १२. 'कोणे ख. १३. 'गडिका' ख-ग-घ, For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । जडो मूर्वे हिमाघ्राते जडा स्याच्छूकशिम्बिका । ताडोऽद्रौ ताडने घोषे मुष्टिमेयतृणादिके ॥ १३३ ताडी तालीदलतगै दण्डः सैन्ये दमे यमे । मानव्यूहग्रहभेदेष्वशेऽर्कानुचरे मथि ।। १३४ प्रकाण्टे लगुडे कोणे चतुर्थोपायगर्वयोः । नाडी कुहनचर्यायां घटिकागण्डदृर्वयोः ॥ १३५ नाले गणान्तरे स्नायौ नीडं स्थाने खगालये । पण्डः षण्डे पण्डा बुद्धौ पाण्डः कुन्तीपतौ सिते १३६ पिण्डो वृन्दे जपापुष्पे गोले बोले ऽङ्गसिहयोः । कवले पिण्डं तु वेश्मैकदेशे जीवनायसोः ॥ १३७ वले सान्द्रे पिण्ड्यलावृखजूर्योम्नगरेऽपि च । पीडार्तिमर्दनोत्तंसकृपासु सरलद्रुमे ॥ १३८ भाण्डं मूलवणिग्विने तुरङ्गाणां च मण्डने । नदीकूलद्वयीमध्ये भूषणे भाजनेऽपि च ॥ १३० भण्डो मम्तुनि भूषायामेरण्डे सारपिच्छयोः । शाके मण्डा त्वामलक्यां मुण्डो मुण्डितशीर्षयोः।। गही दैत्यान्तरे रण्डा वाखर्की मृतप्रिया । व्याडो हिंस्रपशौ सर्प शुण्डा करिकरः सुग ॥१४१ जालेभी नलिनी वारस्त्री शुण्डो मदनिर्भरे । शौण्डी चविकपिप्पल्योः शौण्डो विख्यातमत्तयोः १४२ पडः पेयान्तरे भेदे पण्डः कानन इंडरे । गूढं रहःसंवृतयोर्दाढा दंष्ट्राभिलाषयोः ॥ १४३ दृढः शक्ते भृशे म्थूले वाढं भृशप्रतिज्ञयोः । माढिदैन्यं पत्रमिगर्चा मूढस्तन्द्रिते जडे ।। १४४ राढा शुद्धेषु शोभायां व्यूढा यस्तोरुमंहताः । वोढा स्याङ्गारिके सूते शण्डषण्ढौ तु सौविदे १४५ वन्ध्यपुंसीडव कीव सोढा मर्षण शक्तयोः । अणिराणिवदम्रौ स्यात्सीमन्यक्षाग्रकीलके ॥ १४६ अणुर्तीद्यल्पयोरुष्णा ग्रीष्मदक्षातपाहिमाः । ऊर्णा भ्रूमध्यगावर्ते मेषादीनां च लोमनि ॥ १४७ ऋणं देये जले दुर्गे कणो धान्यांशलेशयोः । कणा जीरकपिप्पल्योः कर्णश्चम्पापतौ श्रुतौ ।। १४८ क्षणः कालविशंपे म्यापर्वण्यवसरे महे । व्यापारविकलत्वे च परतन्त्रत्वमध्ययोः॥ १४९ कीर्णः क्षिप्ने हते छन्ने कुणिः कुकरवृक्षयोः । कृष्णः काके पिके वर्णे विष्णौ व्यामेऽर्जुने कलौ १५० कृष्णा तु नील्यां द्रौपद्यां पिप्पलीद्राक्षयोरपि । कृष्णं तु मरिचे लोहे कोणो वीणादिवादने ॥१५१ लगुडेऽश्री लोहिताङ्गे गणः प्रेमथसंख्ययोः । समूहे सैन्यभेदेऽथ गुणो ज्यादतन्तुषु ॥ १५२ रज्जौ सत्वादी संध्यादौ शौर्यादौ भीम इन्द्रिये । रुपादावप्रधाने च दोषान्यस्मिन्विशेषणे ॥ १५३ गेष्णो नटे गायने च घ्राणं तु घाँतघोणयोः । घृणा तु स्याज्जुगुप्सायां करुणायां घृणिः पुनः१५४ अंशुज्वालातरङ्गेषु चूर्णानि वासयुक्तिः । चूर्ण क्षोदे क्षारभेदे जो जीर्णद्रुमेन्दुषु ॥ १५५ जिष्णुः शक्रेऽर्जुने विष्णौ जित्वरेऽर्के वसुष्वपि । णिः क्रमुकभेदे स्यादृष्टदेवश्रुतावपि ॥१५६ त्राणं वाते रक्षणे च त्रायमाणौषधावपि । तीक्ष्णं समुद्रलवणे विषायोऽमरकाजिषु ॥ १५७ आत्मत्यागिनि तिग्मे च तूणी नीलीनिषङ्गयोः । गुणः स्यादृश्चिके भृङ्गे द्रुणं चापकृपाणयोः ॥१५८ दुणी का जलद्रोण्यां देष्णो दातरि दुर्गमे । द्रोणः पार्थगुरौ काके माने द्रोणी तु नीवृति ॥१५९. नौभेदे शैलेसंधौ च पणः कार्षापणे ग्लहे । विक्रय्याकादिबद्धमुष्टौ मूल्ये भृतौ धने ॥ १६० १. 'हिमाघाते' ग-घ. २. 'चर्चायां' ग-घ. ३. 'वणान्तरे' ख. ४. 'पर्णी' ख. ५. 'इत्वरे ख. ६. 'व्यस्तो' ख. ७. 'सौविदौ' ग-घ. ८. 'कर्णोऽरित्रे नृपे श्रुतौ' ख. ९. 'प्रथम' ग-घ. १०. 'सूत्र' ख. ११. 'रूपादौ च प्रधाने' ग-घ. १२. 'गादाभ्यामेष्णक्' । वाच्यलिङ्गः । द्वयोर्यथा---'गेष्णो विष्णुचरित्रस्य' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. 'गेष्णुनटे' न-ग-घ. १३. 'मातृप्रेययोः' ग. १४. 'चूर्णो निवासमुक्तकोः' ख. १५. 'चर्यन्ते स्म चर्णानि प्रायेण बहुवचनान्तः' इति टीका. १६. 'चूर्णः' ग. १७. 'जीर्णो ग-घ. १८. 'जिष्णः' ग-घ. १९. 'झणिः' ग्व-ग. २०. 'देष्णदातरि दर्दमे' ख-ग घ. २१. 'शैलभेदे' ग-व. २२, 'शाकादिमष्टी बद्धे' ग. For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ तिर्यकाण्डः । धृताचिर्नाचिकेतश्च प्रेष्टो वश्चतिरश्चतिः । भुजिर्भग्थपीथौ च स्वनिः पवनवाहनः ॥ इत्यग्निकायः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arit सुरालयः प्राणः संभूतो जलभूषणः । शुचिर्वहालो घटः पश्चिमोत्तरदिपतिः || अङ्कतिः क्षिपणुर्मक ध्वजप्रहरणश्चलः । शीतलो जलकान्तारो मेघारि: सृमरोऽपि च ॥ इति वायुकायः । वृक्षे त्वारोहकः स्कन्धी सीमिको हरितच्छदः । कैरुर्जन्तुर्वह्निभूश्च इति वनस्पतिकायः । For Private and Personal Use Only ७ १६८ १६९ १७० १७७ स्यात्तु श्वेतः कपर्दके ॥ १७१ खद्योते तु कीटमणिज्योतिर्माली तमोमणिः । परार्बुदो निमेषद्युत् ध्वान्तचित्रोऽथ कुञ्जरे ॥ १७२ पेचकी पुष्करी पद्म पेचिल: सूचिकाधरः । विलोलजिह्वोऽन्तः स्वेदो महाकायो महामदः || १७३ शूर्पकर्णो जलाकाङ्क्षी जटी च षष्टिहायनः । असुरो दीर्घपवनः शुण्डालः कपिरित्यपि ॥ १७४ वशायां वाशिता कर्णधारिणी गणिकापि च । अश्रे तु क्रमणः कुण्डी प्रोथी हेषी प्रकीर्णकः ।। १७५ पाकलः परुल: किण्वी कुटरः सिंहविक्रमः । मापाशी केसरी हंसो मुद्रभुग्गूढभोजनः ॥ १.७६ वासुदेवः शालिहोत्रो लक्ष्मीपुत्र मरुद्रथः । चामर्येकशोऽपि स्यादश्वायां पुनर्श्वती ॥ मल्लिकाक्षः सितैर्नेत्रैः म्याद्वाजीन्द्रायुधोऽसितैः । ककुदी ककुदावन निर्मुष्कविन्द्रवृद्धिः || १७८ शुनि क्रोधी रसापायी शिवारिः सूचको रुरुः । वनंतपः स्वजातिद्विकृतज्ञो भल्लहश्च सः ।। १७९ दीर्घनादः पुरोगामी स्यादिन्द्रमहकामुकः । मण्डलः कपिलो ग्राममृगश्चेन्द्रमहोऽपि च ॥ १८० महिषे कलुषः पिङ्गः कटाहो गद्दस्वरः । हेरम्वः स्कन्धशृङ्गश्च सिंहे तु स्यात्पलंकषः ॥ १८१ दौगाटो वनराजश्च नभःकान्तो गणेश्वरः । शृङ्गोष्णीषो रक्तजिह्नो व्यादीर्णाम्यः सुगन्धिकः ॥ १८२ सूकरे कुमुखः कामरूपी च सलिलप्रियः । तलेक्षणो वक्रदंष्ट्रः पङ्कक्रीडनकोऽपि च ॥ मृगे वजिनयोनिः स्यादयो भुजगभोगिनि । अहीरणी द्विमुखश्च भवेत्पक्षिणि चक्षुमान् ॥ कण्ठाग्निः कीकसमुखो लोमकी रसनारदः । वारङ्गिनाडीचरणौ मयूरे चित्रपिङ्गलः ॥ नृत्यप्रियः स्थिरमदः खिलखिल्लो गरव्रतः । मार्जारकण्ठो मरुको मेघनादानुलासकः || १८३ १८४ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ को बहुलग्रीवो गावासश्च चन्द्रकी । कोकिले तु मदोल्लापी काकजातो तोद्वहः || मधुघोषो मधुकण्ठः सुधाकण्ठः कुहुमुखः । घोषयित्नुः पोषयित्नुः कामवालः कुनालिकः ॥ कुक्कुटे तु दीर्घनादश्चर्मचूडो नखायुधः । मयूरचटकः शौण्डो रणेच्छुश्च कलाधिकः ॥ आरणी विष्किरो बोधिर्नन्दीकः पुष्टिवर्धनः । चित्रवाजो महायोगी स्वस्तिको मणिकण्टकः ॥ १९० उपाकीलो विशोकश्च त्राजस्तु ग्रामकुकुटः । हंसेषु तु मरालाः स्युः सारसे दीर्घजानुकः ॥ १९१ गोनद मैथुनी कामी श्येनाक्षो रक्तमस्तकः । गृध्रे तु पुरुषव्याघ्रः कामायुः कूणितेक्षणः ॥ १९२ सुदर्शनः शकुन्याजौ शुके तु प्रियदर्शनः । श्रीमान्मेधातिथिर्वाग्ग्मी मत्स्ये तु जलपिप्पिकः || १९३ को जलाशयः शेवः पाठीने मृदुपाठकः ॥ १९४ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे तिर्यक्काण्डश्चतुर्थः ॥ ४ ॥ १. 'पृष्ठो' क. २. 'घंटा' का 'घट' ख. ३. 'उरु : ' व ४. 'ग्रहभोजन: ' व ५. 'मयको' ख. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८ अभिधानसंग्रह ::--७ अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः । अथ रत्नप्रभा घर्मा वंशानुशर्कराप्रभा । स्याद्वालुकाप्रभा शैला भवेत्पङ्कप्रभाञ्जना || धूमप्रभा पुनारिष्टा माधव्या तु तमः प्रभा । महातमः प्रभा माधव्येवं नरकभूमयः || इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे नारककाण्डः पञ्चमः ॥ ५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only १९५ १९६ १९७ १९८ २०० आनुकूल्यार्थकं प्राध्वमसाकल्ये तुचिश्ञ्चन । तुहिचस्महवै पादपूरणे पूजने स्वती | वद् वा यथा तथैवैवं साम्येऽहो ही च विस्मये । स्युरेवं तु पुनर्वैवेत्यवधारणवाचकाः || ॐ पृच्छायामतीते प्राकू निश्रयेऽद्धाञ्जसाद्वयम् । अतो हेतौ महः प्रत्यारम्भेऽथ स्वयमात्मनि ॥। १९९ प्रशंसने तु सुष्ठु स्यात्परश्वः श्वः परेऽहनि । अद्यात्राह्नपथ पूर्वेऽहीत्यादौ पूर्वेद्युरादयः ॥ समाने हति सद्यः स्यात्परे वह्नि परेद्यवि । उभयद्युस्तूभयेयुः समे युगपदेकदा || स्यात्तदानीं तदा तर्हि यदा यन्यदैकदा | परुत्पगर्येषमोऽब्दे पूर्वे पूर्वतरेऽत्र च || प्रकारेऽन्यथेतरथा कथमित्थं यथा तथा । द्विधा द्वेधा त्रिधा त्रेधा चतुर्धा द्वैधमादि च ॥ द्विभ्यश्चतुःपञ्चकृत्व इत्याद्यावर्तने कृते । दिग्देशकाले पूर्वादौ प्रागुदक्प्रत्यगादयः ॥ २०१ २०२ २०३ २०४ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टे सामान्यकाण्डः षष्टः ॥ ६ ॥ इति श्री हेमचन्द्राचार्यविरचितोऽभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टः समाप्तः । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ श्रीः ॥ अभिधानसंग्रहः । 0000 (८) श्रीमदाचार्य हेमचन्द्रविरचितः अनेकार्थसंग्रहः । —————909——————— Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ ध्यात्वार्हतः कृतैकार्थशब्दसंदोहसंग्रहः । एकस्वरादिषट्काण्ड्या कुर्वेऽनेकार्थसंग्रहम् || अकारादिक्रमेणादावत्र कादिक्रमोऽन् ऽन्ततः । उद्देश्यवचनं पूर्वं पश्चादर्थप्रकाशनम् ॥ ata एव रूढोsर्थो यौगिकस्तत्र देशितः । अनेकस्मिंस्तु रूढेऽर्थे यौगिकं प्रोच्यते न वा ॥ पदानां भङ्गतो योऽस्मिन्ननेकार्थः प्रकाशते । प्रदर्शनीयो नैवासौ तस्यानन्त्यप्रसङ्गतः ॥ को ब्रह्मात्मनि रवौ मयूरेऽनौ यमेऽनिले । कं शीर्षेऽप्सु सुखे खं स्वः संविदि व्योमनीन्द्रिये ॥ ५ शून्ये बिन्दौ सुखे खस्तु सूर्ये गौरुदके दृशि । स्वर्गे दिशि पशौ रश्मौ व भूमाविषौ गिरि ||६ career चर्मणि च न्यग्निने नीचकार्ययोः । रुक्शोभाकिरणेच्छासु वाग्भारत्यां वचस्यपि ॥ ७ जूराकाशसरस्वत्यां पिशाच्यां जवनेऽपि च । ज्ञः स्याद्विचक्षणे पद्मासने चन्द्रमसायन " ॥ ८ सद्विद्यमाने सत्ये च प्रशस्तार्चितसाधुषु । भः शुक्रे भमुडौ भांशौ भूस्तु भूमिरिव क्षितौ ॥ स्थाने चमः पुनः शंभौ मा लक्ष्म्यां वारणेऽव्ययम् । किं क्षेपनिन्दयोः प्रश्ने वितर्के ज्या तु मातरि १० क्ष्म वस्तु स्वर्गे विहायसि । रस्तीक्ष्णे दहने रास्तु सुवर्णे जलदे धने ।। ११ ढूँ: कामरूपिणि स्वर्णे धूर्यानमुखभारयोः । पूः शरीरे चँ नगरे श्रीलक्ष्म्यां सरलङ्कुमे ॥ वेषोपकरणे वेषैरेचनायां मतौ गिरि । शोभात्रिवर्गसंपत्त्योः स्रः स्रवे निर्झरेऽपिच ॥ वः पश्चिमदिगीशे स्यादौपम्ये पुनरव्ययम् । द्यौः स्वर्गनभसोः स्वो ज्ञात्यात्मनोः स्वं निजे धने १४ दृष्टौ दर्शनेऽध्यक्षे विट्प्रवेशे नृवैश्ययोः । तृट् तृष्णावन्त्तर्षवञ्च भवेल्लिप्सापिपासयोः ॥ १५ विट् शोभायां जिगीषायां व्यवसाये रुचौ गिरि । भाः प्रभावे मयूखे च मास्तु मासे निशाकरे १६ इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रह एकस्वरकाण्डः प्रथमः ॥ १ ॥ 1 १२ १३ १ २ दुभेदे स्फटिके ताम्रे सूर्ये विडौजसि । अकं दुःखाघयोरङ्को भूषारूपकलक्ष्मसु ॥ १७ 'चित्राजौ नाटकाद्यंशे स्थाने क्रोडेऽन्तिकागसोः । एकोऽन्यः केवलः श्रेष्ठः संख्या कल्कोऽघविष्ठयोः For Private and Personal Use Only १. 'नत्वा हरिम्' ख. २. 'क्रमोऽत्रादौ ककारादि' ख. ३. 'क्रमस्ततः' ग. ४. 'उद्देश' ख. ५. ‘दर्श्यते' ख; 'दृश्यते' ग. ६. 'प्रकाश्यते' ख ग ७. 'नन्त' ख ८. 'शीर्षेऽप्सु च' ख. ९. 'ऋक्' ख. १०. ' चान्द्रमसायने' ख ग . ११. इतः परम् 'ता जटायां च राक्षस्यां पतने दुर्भगस्त्रियाम्' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. १२. 'द्रु: ' ग. १३. 'नगरे च' क; 'पत्तने च' ग. १४. 'द्रवे' क. १५. 'वेषे' ग. १६. 'च वौपम्ये' ख. १७, 'द्रष्टुरि दर्शनेऽध्यक्षे' ग. १८. 'चित्रादौ' ख. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : -८ अनेकार्थसंग्रहः । अभिधान संग्रह: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९ २० २५ २७ २८ २९ ३० ३१ दम्भे पापिनि कट्टे च कङ्को ब्राह्मणलिङ्गिनि । लोहपृष्ठे यमे कर्कः श्वेताश्वे दर्पणे घटे | कर्केतने राशौ च काकः स्यात्पीठसर्पिणि । द्वीपमानभेदेषु शिरोवक्षालने द्विके ॥ काकं काकसमूहे स्याद्रतबन्धे च योषिताम् । काका तु काकजङ्घायां काकोलीकाकनाशयोः ॥ २१ काकोदुंबरिकाकाकमाचिकारक्तिकास्वपि । किष्कुः प्रकोष्ठे हस्ते च वितस्तौ कुत्सितेऽपि च ।। २२ कोको वृके चक्रवाके खर्जूरीद्रुमभेदयोः । छेको विदग्धे विश्वस्तमृगनीडजयोरपि ॥ २३ टङ्को नीलकपित्थेऽसिको कोपेऽश्मदारणे । मानान्तरे खनित्रे च जङ्घायां ङ्कणेऽपिच ॥ २४ तर्कों वितर्फे काङ्क्षायामूहकैर्मविशेषयोः । त्रिका कूपस्य नेमौ स्यात्रिकं पृष्ठाधरे त्रये । तोकं संतानसुतयोर्द्विकः स्यात्काककोकयोः । न्यङ्कुर्मृगे मुनौ नाकः स्वः खे नाकुस्तु पर्वते ||२६ मुनिवल्मीकयोनिष्कः कर्षे हेमनि तत्पले । दीनारे साष्टसुवर्णशते वक्षोविभूषणे ॥ पङ्कोsa कर्दमे पाकः पचने शिशुदैत्ययोः । बको रक्षोभिदि श्रीदे शिवमल्लीकोटयोः ॥ काभेको घमण्डूकभीरुषु । मुष्को मोक्षद्रुमे सङ्घ तस्करे मांसलाण्डयोः ॥ मूको दैत्यावाग्दीनेषु रङ्कः कृपणमल्लयोः । राका कच्छां दृष्टरजःकन्यायां सरिदन्तरे || पूर्णेन्दुपूर्णिमायां च रेकः शङ्काविरेकयोः । हीनेऽपि रोकं ऋणभेदे नावि बिलेचरे ॥ रोaisi लङ्का तु शाखा शाकिनी कुलटा पुरी । लोको विवे जने वल्कं शकले त्वचि शल्कवं शको देशे राजभेदे शङ्का स्यात्संशये भये । शङ्कुः पत्रशिराजाले संख्याकीलकशंभुषु ॥ rasai शाको द्वीपे नृपे दुमे । शक्तौ हरितके चापि शुको व्यासजकीरयोः ॥ रक्षोऽमात्ये शुकं ग्रैन्थिपर्णेऽरत्नुशिरीषयोः । शुल्कं घट्टादिदातव्ये जामातुश्चापि बन्धके ॥ शूकोऽनुक्रोशकिं शार्वोः शोकेऽभिषवशुङ्गयोः । शूका हृल्लेखे श्लोकस्तु पद्यबन्धे यशस्यपि ॥ ३६ शौकं शुकानां समूहे स्त्रीणां च करणान्तरे । सैंका वाणोत्पलवातः स्तोकः स्याच्चातकाल्पयोः || ३७ नखं पुनर्गन्धद्रव्ये नखः करजषैण्डयोः । न्युङ्खः सामविशेषस्य षडोंकार्यामतिप्रिये || पुङ्खः स्यान्मङ्गलाचारे शराङ्ग श्येनयोरपि । प्रेङ्खा पर्यटने नृत्ते दोलायां वाजिनां गतौ ॥ मुखमुपाये प्रारम्भे श्रेष्ठे निःसरणास्ययोः । रेखा स्यादल्पके छद्मन्याभोगोल्लेखयोरपि ॥ लेखो लेख्ये दैवते च लेखा राज्यां लिपावपि । वीमा तु शूकशिम्बायां गतिभेदेऽपि नर्तने ॥ ४१ शङ्खः कम्बौ निधिभेदे स्यान्नख्यामलिकास्थनि । शाखा द्रुमांशे वेदांशे भुजे पक्षान्तरेऽन्तिके ॥ ४२ शिखाग्रमात्रे चूडायां केकिचूडाप्रधानयोः । ज्वालायां लाङ्गलिकायां शिफाशाखा घृणिष्वपि ॥ ४३ सखा सहाये मित्रे च सुखं त्रिदिवशर्मणोः । सुखा प्रचेतसः पुर्यामगः स्यान्नगवत्तरौ ॥ ४४ शैले सरीसृपे भानावङ्गमन्तिकगात्रयोः । उपसर्जनभूते स्यादभ्युपायप्रतीकयोः ॥ ३३ ३४ ३५ ३८ ३९ १७ ४० १९ ४८० १ ‘दर्पटे’ ख. २. ‘विश्वस्ते’ ग. ३. 'नीडकयो ' ग. ४. 'टङ्कने' ग. ५. कर्मविशेषः क्रियाविशेषः । उपहा इति यावत्' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. 'वर्मविशे' ख; 'तर्कविशे' ग. ६. 'भूकः काले छिद्रे' ग. ७. 'कोले ' ख. ८ 'ऽकस्माद्दृष्ट' ख. ९. 'क्रीयते येन तत्क्रयणं दीनारादि' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. 'कृपण' ग. १०. इतः परम् 'वङ्कः पर्याणभागे स्यान्नदीभेदे च भङ्गुरे' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः ११. 'वस्त्रे वस्त्राञ्चलशिरस्त्रयोः ' ग. १२. ‘शुङ्गा नवोद्भिन्नपल्लवकोशी' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. 'मुद्गयोः' ख; 'शृङ्गयोः ' ग. १३. 'शृगालबकनिरयेष्वपि । शृकेत्यायुधभेदेऽपि' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १४. 'तु गन्धद्रव्ये स्यान्नख : ' ख. १५. 'खण्डयोः ' ख-ग. १६. 'नृत्ये' ग. १७. 'शेषे' ख. १८. 'ज्यायां' ग. १९. 'च' ख ग २०. 'निधेर्भेदे' ख. For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः । अङ्गा नीवृद्विशेषे स्युरिङ्गः स्यादिङ्गिलेऽद्भुते । ज्ञानजङ्गमयोश्चापि खगोऽग्रहपक्षिषु ॥ ४६ शरे देवेऽपि खड्गोऽसौ खड्गिशृङ्गे च गण्डके । टेङ्गः खनित्रे जङ्घास्योस्त्यागो वर्जनदानयोः ४७ दुर्ग ऍनर्दुर्गमे स्यादुर्गा तु नीलिकोमयोः । नागो मतङ्गजे सर्प पुंनागे नागकेसरे ॥ ४८ ऋराचारे नागदन्ते मस्तके वारिदेऽपि च । देहानिलविशेषे च श्रेष्ठे स्यादुत्तरस्थितः ॥ ४९ नागं रङ्गे सीसपत्रे स्त्रीबन्धे करणान्तरे । पिङ्गी शम्यां पिङ्गा हिङ्गुनाल्यां गोरोचनोमयोः ॥५० पिङ्ग बालके पिशङ्गे पूगः क्रमुकसंघयोः । फल्गुः काकोदुम्बरिकावृक्षे निरर्थकेऽपि च ॥ ५१ भगोऽर्कज्ञानमाहात्म्ययशोवैराग्यमुक्तिषु । रूपवीर्यप्रयत्नेच्छाश्रीधर्मैश्वर्ययोनिषु ॥ ५२ भङ्गस्तरङ्गे भेदे च रुग्विशेषे पराजये । कौटिल्ये भयविच्छित्त्योर्भङ्गा शणे भैङ्गिः पुनः ॥ ५३ भक्तिवीच्योर्भागो रूपार्धके भाग्यैकदेशयोः । भृङ्गं त्वक्पत्रं भृङ्गास्तु खिङ्गधूम्याटमार्कवाः ॥ ५४ षट्पदोऽथ भृगुः सानौ जमदग्निप्रपातयोः । शुक्र रुद्रे च भोगस्तु राज्ये वेश्याभृतौ सुखे ॥ ५५ धनेऽहिकायफणयोः पालनाभ्यवहारयोः । मार्गो मृगमदे मासे सौम्यःऽन्वेषणे पथि ॥ ५६ मृगः कुरङ्गे याच्यायां मृगयायां गजान्तरे । पशौ नक्षत्रभेदे च मृगी तु वनितान्तरे ॥ ५७ युगं हस्तचतुष्के स्याद्रथाद्यङ्गे कृतादिके । वृद्धिनामौषधे युग्मे योगो विस्रम्भघातिनि ॥ ५८ अलब्धलाभे संगत्यां कार्मणध्यानयुक्तिषु । वपुःस्थैर्यप्रयोगे च संनाहे भेषजे धने ॥ विष्कम्भादावुपाये च रङ्गः स्यान्नृत्ययुद्धवोः । रागे रङ्गं तु पुणि रागः स्यालोहितादिषु ।। ६० गान्धारादौ क्लेशादिकेऽनुरागे मत्सरे नृपे । लङ्गः सङ्गे च षिङ्गे च लिङ्ग मेहनचिह्नयोः ॥ ६१ शिवमूर्तावनुमाने 'सांख्योक्तविकृतावपि । वङ्गः कर्पासे वृन्ताके वङ्गा जैनपदान्तरे ॥ ६२ वङ्गं पुणि सीसे च वल्गुश्छागमनोज्ञयोः । व्यङ्गो भेके च हीनाङ्गे वेगो रयप्रवाहयोः ॥ ६३ रेतःकिपाकयोश्चापि शार्ङ्ग विष्णुधनुर्धनुः । शुङ्गयाम्राते वटे प्लक्षे शृङ्गं चिह्नविषाणयोः ॥ ६४ क्रीडाम्बुयन्त्रे शिखरे प्रभुखोत्कर्षसानुषु । शृङ्गः कूर्चशीर्षे शृङ्गी स्वर्णमीनविशेषयोः ॥ ६५ विषायामृषभौषध्या सर्गस्यागस्वभावयोः । उत्साहे निश्चयेऽध्याये मोहानुमतिसृष्टिषु ॥ ६६ अर्घः पूजाविधी मूल्येऽघं दुःखे व्यसनैनसोः । उद्धो हस्तपुटे वह्रौ श्लाघायां देहजानिले ॥ ६७ ओघः प्रवाहः संघातो द्रुतनृत्तं परम्परा । उपदेशश्च मेघस्तु मुस्तके जलदेऽपि च ॥ ६८ मोघो दीने निष्फले च मोघा स्यात्पाटलातरौ । लघुः सृका लघ्वसारं हवं चार्वगुरु द्रुतम् ॥६९ श्लाघोपास्तीच्छयोः स्तोत्रेऽर्चा पूजा प्रतिमापि च | कचः शुष्कवणे केशे बन्धे पुत्रे च गी:पतेः ७० कचा करेण्वां काचोऽक्षिरोगे शिक्ये मणौ मृदि । काञ्ची गुञ्जामेखलयोः पुर्या कूर्ची विकत्थने७१ १. 'अङ्गो नीवृद्विशेषे स्यादिङ्गः' ग. २ 'विशेषाः' ख. ३. 'खड्ग' क. ४. 'कण्टके' ग. ५. त: प्राक् 'गर्गो मुनिविशेषे स्यादृषे किंचुलिकेऽपि च' इत्यधिकः पाठः ख-ग-पुस्तकयोः. ६. इतः परम् तुङ्गः पुनागनगयोर्बुधे स्यादुन्नतेऽपि च । तुङ्गी प्रोक्ता हरिद्रायां वर्वरायामपीष्यते ॥' इत्यधिकः पाठः ख-गपुस्तकयोः. तत्र ग-पुस्तके 'उन्नतेऽन्यवत्' इति पाठः. ७. 'कोटे दु' ख; 'भवेदुर्गमे तु' ग. ८. 'स्यान्नीलिको' ग. ९. 'बलाके' ग. १०. अनेकार्थकैरवाकरकौमुद्यां तु 'भङ्गीभिरङ्गीकृतमानताङ्गयाः' इति भक्तौ, 'भङ्गीभक्त्या विरचिततनुः स्तम्भितान्तर्जलौघः' इति वीच्यामुदाहृतम्. ११. 'चतुर्थे' ग-घ. १२. सांख्योक्तायाः प्रकृतेः कार्यभूता विकृतिः । तत्र यथा-'लिङ्गाल्लिङ्गमिवानुरूपचरितं पुत्रं स लेभे मुनिः' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १३. 'प्रकृतावपि' ख-ग-घ, १४ 'जनपदान्तरे 'भूमि' इति टीका. १५. 'मलोत्सर्गे प्रभावे शृङ्गारभावेऽपि' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १६. 'अपदेश' ख. For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ अभिधान संग्रह :: -८ अनेकार्थसंग्रहः । । ७९ 1 ८४ श्मश्रुणि दम्भे भ्रूमध्ये क्रौञ्चो द्वीपे खगे गिरौ । चर्चा स्याच्चर्ममुण्डायां चिन्तास्थासकयोरपि ॥ ७२ चक्षुः पञ्चाङ्गुले त्रोट्ठ्यां नीचः पामरखर्वयो: । मोचा शाल्मलिकदल्योर्मोचः शिश्रौ रुचिर्युतौ७३ स्पृहाभिष्वङ्गशोभासु वचः शुके वचौषधौ । शारिकायां विच्याल्यूम्यरवकाशे सुखात्पयोः ॥ ७४ शचीन्द्राणीशतावर्योः शुचिः शुद्धे सितेऽनिले । ग्रीष्माषाढानुपहतेषूपधाशुद्धमत्रिणि ॥ ७दे शृङ्गारे सूच्यभिनये व्यधने करणे स्त्रियाम् । अच्छो भछूके स्फटिकेऽमलेऽच्छाभिमुखेऽव्ययम् ७६ कच्छो दुभेदे नौकाङ्गेऽनूपप्राये तटेऽपि च । कच्छास्तु देशे कच्छा स्यात्परिधानार्पराञ्चले ॥ ७७ वाह्यां च गुच्छो गुच्छे हारकलापयोः । पिच्छः पुच्छे पिच्छं वाजे पिच्छा शाल्मलिवेष्टके ७८ पैंङ्कौ पूगच्छटाकोशमण्डेष्वश्वपदामये । मोचायां पिच्छिले म्लेच्छो जातिभेदेऽपभाषणे ॥ I अजछागे हरे विष्णौ रघुजे वेधसि स्मरे । अब्जो धन्वन्तरौ चन्द्रे शङ्खेऽब्जं पद्मसंख्ययोः ८० आजिः क्षणे समक्ष्मायां युध्यूर्जः कार्तिके बले । कंजो वेधसि केशे च कंजं पीयूषपद्मयोः ॥ ८१ कुञ्जो नौ दन्तिदन्ते निकुञ्जे च कुजो द्रुमे । आरे नरकदैये च कुब्जो न्युब्जद्रुभेदयोः ॥ ८२ खजा दवमथोः खर्जूः खर्जूरीकीटकण्डुषु । गजो भाण्डागारे रीढाखन्योर्गञ्जा सुरागृहे ॥ ८३ गुञ्जा तु कृष्णलायां स्यात्पटहे मधुरध्वनौ । द्विजो विप्रक्षत्रिययोर्वैश्ये दन्ते विहंगमे || द्विजा भार्गीरेणुकयोर्ध्वजः पूर्वदिशो गृहे । शिने चिह्ने पताकायां खट्वाङ्गे शौण्डिकेऽपि च || ८५ निजो नित्ये स्वकीये च न्युब्ज: कुब्जे कुशे खुचि । अधोमुखेऽपि च न्युब्जं कर्मरङ्गतरोः फले ॥ ८६ प्रजा लोके संततौ च पिञ्जा तूलहरिद्रयोः । पिजो व्य वधे पिअं बले बीजं तु रेतसि ॥ ८७ स्वादाने च तच तावङ्करकारणे । भुजो बाहौ करे मैर्जूः शुद्धौ च रजकेऽपि च ॥ ८८ -राजी रेखायां पङ्कौ च रुजा त्वामयभङ्गयोः । लञ्जः पट्टे च कच्छे च लाजः स्यादातण्डुले ॥८९ लाजास्तु भृष्टधानाः स्युर्लाजं पुनरुशीरके । व्रजोऽध्वगोष्ठसंघेषु वणिग्वाणिज्यजीविनि ॥ ९० वाणिज्ये करणभेदे वाजं सर्पिषि वारिणि । यज्ञान्ने बाजस्तु पक्षे मुनौ निस्वनवेगयोः ॥ ९१ व्याजः शाठ्येऽपदेशे च सज्जौ संनद्धसंभृतौ । सयौ ब्रह्मशिवौ प्रज्ञः प्राज्ञे प्रज्ञा तु शेमुषी ।। ९२ यज्ञः स्यादात्मनि मखे नारायणहुताशयोः । संज्ञा नामनि गायत्र्यां हस्ताद्यैरर्थसूचने ॥ चेतनार्कस्त्रियोरट्टो हट्टाट्टालकयोर्भृशे । चतुष्कभक्तयोरिष्टमीप्सिते ऋतुकर्मणि पूज्ये प्रेयसि संस्कारे योगेऽथेष्टिर्मखेच्छयोः । संग्रहश्लोकेऽथ कटो गजगण्डे कटौ भृशम् ॥ ९५ शवे शवरथौषध्योः क्रियाकार श्मशानयोः । किलिञ्जे समये चापि कष्टं गहनकृच्छ्रयोः ॥ कटुकार्ये मत्सरे च दूषणे च कटू रसे । तिक्ते प्रियङ्गुसुरभिकटुकाराजिकास्वपि ॥ कुट: कोटे शिलाकुट्टे गेहे घटे कुटी सुरा । चित्रगुच्छः कुम्भदासी कूटं पूरयन्त्रयोः ॥ मायादम्भाद्रिशृङ्गेषु सीराङ्गेऽनृततुच्छयोः । निश्चलेऽयोघने राशौ कृष्टिः कर्षणधीमतोः ॥ कोटयुत्कर्षाटनीसंख्यात्रिषु खटस्तृणे कफे । टङ्केऽन्धकूपे प्रहारे खाटिः शवरथे किणे ॥ एकग्रहेऽथ खेटः स्यानामभेदे कफेऽधमे । स्फारे मृगव्ये गृष्टिस्तु सकृत्सूतगवी भवेत् ॥ १०१ वराहक्रान्ता च घटा घटने गजसंहतौ । गोष्ठयां घटविभशिरः कूटे समाधिकुम्भयोः ॥ १०२ ९३ ९४ ९६ 1 ९७ ९८ १००० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. 'पटाञ्चले' ख. २. 'पिच्छस्तुच्छे' ख ३. 'पङ्किपूग' ख ग घ ४. 'कुशस्रुचि' क. ५. 'मर्ज' ख. ६. ‘धान्ये’ ख. ७. ‘घृते च’ ख. ८. 'यज्ञान्ते' 'क-ख. ९ ' तप्ते पयसि दध्यानयति सा वैश्वदेव्यामिक्षा, वाजिभ्यो वाजिनम्' इति वाक्यव्याख्यायां 'वाजोऽन्नम्' इति मीमांसकैरुक्तत्वात्. १०. 'कान्ता' ख ग घ. For Private and Personal Use Only 1 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्विखरकाण्डः । ११६ घृष्टिः स्पर्धाघर्षणयोर्विष्णुक्रान्तावराहयोः । घोण्टा पूगवदरयोश्चदुश्चाटुपिचण्डयोः ॥ व्रत्यासने जटा केशविकारे मांसिमूलयोः । झाटो व्रणादिसंमाष्ट कुञ्जकान्तारयोरपि ॥ त्वष्टार्के विश्वकृत्तक्ष्णोस्त्रुटि: संशयलेशयोः । सूक्ष्मैलायां कालमाने त्रोटिचवां खगान्तरे।।१०५ मी कट्फलयोर्दिष्टं दैवे दिष्टस्त्वनेहसि । दिष्टिरानन्दे माने च दृष्टिर्ज्ञानेऽक्षिण दर्शने ॥ १०६ पट्टश्चतुष्पथे पीठे राजादेः शासनान्तरे | व्रणादिबन्धने पेषाश्मनि पट्टी ललाटिका || १०७ रोधोऽथ पटुलवणे पस्तीक्ष्णपटोलयोः । स्फुटे रोगविहीने च छत्रायां चतुरेऽपि च ।। १०८ पुष्टिः स्यात्पोषणे वृद्धौ फटा तु कैतवे फणे । भटो वीरे म्लेच्छ भेदेऽपि च भृष्टिस्तु भर्जने १०९ शून्यवाट्यामथ क्लिष्टं म्लानमस्पष्टभाषितम् । यष्टिर्भाग्य मधुयष्टयां ध्वजदण्डेऽस्त्रहारयोः ॥ ११० रिष्टं क्षेमेऽशुभे रिष्टोऽसौ लाटो वस्त्रदेशयोः । वटो गोले गुणे भक्ष्ये वृक्षे साम्यवराटयोः ॥ १११ वाटः पथि वृतौ वाटं वरण्डेऽङ्गान्नभेदयोः । वाटी वास्तौ गृहोद्याने कट्योर्विटस्तु मूषके ॥ ११२ खदिरे लवणेषिङ्गेऽद्रौ च व्युष्टं फले दिने । पर्युषिते प्रभाते च व्युष्टिः स्तुतिफलर्द्धिषु ।। ११३ विष्टिः कर्मकरे मूल्ये भद्राजूप्रेषणेषु च । सटा जटाकेसरयोः स्फुटो व्यक्तप्रफुल्लयोः ॥ ११४ सिते व्याप्ते स्फुटिस्त्वङ्घ्रिस्फोटे निर्भिन्नचिर्भिटे । सृष्टिः स्वभावे निर्माणे सृष्टं निश्चितयुक्तयोः ११५ प्रचुरे निर्मिते चाथ हृष्टः स्यात्केशरोमसु । जातहर्षे प्रतिहते विस्मिते हृषितो यथा || कठो मुनौ स्वर ऋचां भेदे तत्पाठवेदिनोः । कण्ठो ध्वनौ संनिधाने ग्रीवायां मदनद्रुमे ॥ ११७ दारुणि काष्ठा प्रकर्षे स्थानमात्रके । दिशि दारुहरिद्रायां कालमानप्रभिद्यपि || तु कुण्ठोऽकर्मण्ये मूर्खे च कुष्ठं भेषजरोगयोः । कोष्ठो निजे कुसूले च कुक्षेरन्तर्गृहस्य च ॥ ११९ गोष्ठं गोस्थानके गोष्ठी संलापे परिषद्यपि । ज्येष्ठः स्यादयजे श्रेष्ठे मासभेदातिवृद्धयोः ॥ १२० ज्येष्ठा मे गृहगोधायां निष्ठोत्कर्षव्यवस्थयोः । क्लेशे निष्पत्तौ नाशेऽन्ते निर्वाहे याचने व्रते ॥ १२१ पृष्ठं पश्चिममात्रे स्याच्छरीरावयवान्तरे । वण्ठः कुण्ठायुधे खर्वे भृत्याकृतविवाहयोः ॥ शठो मध्यस्थपुरुषे धूर्ते धत्तूरकेऽपि च । श्रेष्ठोऽध्ये धनदे षष्ठी गौरी षण्णां च पूरणी ॥ हठोऽम्बुप प्रसभेऽण्डं पेशीकोशमुष्कयोः । इडेला वत्स्वर्गनाडीभूवाग्गोषु बुधस्त्रियाम् ॥ काण्डो नालेऽधमे वर्गे दुस्कन्धेऽवसरे शरे । संहः श्लाघाम्बुषु स्तम्बे क्रीडा केल्यामनादरे ।। १२५ gust कमण्डल कुण्डो जाराज्जीवत्पतेः सुते । देवतोयाशये स्थाल्यां क्ष्वेडः कर्णामये ध्वनौ १२६ विषे वक्रे क्ष्वेडा सिंहनादवंशशलाकयोः । क्ष्वेडं लोहितार्कफले घोषपुष्पे दुरासदे || १२७ क्रोड : 'कोले नौ क्रोम खण्डोऽर्ध ऐक्षवे । मणिदोषे च गण्डस्तु वीरे पिटेकचिह्नयोः ॥ १२८ कपोले गण्डके योगे वाजिभूषणबुदुदे । गडुः पृष्ठगुडे कुब्जे गडो मीनान्तराययोः || १२९ गुडः कुञ्जरसंनाहे गोलकेक्षुविकारयोः । गुडा तु 'गुलिकानुयोर्गोण्डः स्याद्धनाभिके || १३० मरजातौ चण्डस्तु यमदासेऽतिकोपने । तीव्रे दैत्यविशेषे च चण्डी तु शिवयोषिति ॥ १३१ चण्डा धनहरीशङ्खपुष्यो चूडा शिखाप्रयोः । बाहुभूषावलभ्योश्च चोडः कञ्चुकदेशयोः ॥ १३२ ११८ I I For Private and Personal Use Only १०३ १०४ १२२ १२३ १२४ १. 'गृहोद्यानकट्योः ' ख; 'गृहोद्याने कट्यां' ग घ २ ' इत्कटी औषधिविशेष:' इत्यनेकार्थकैरवाकर कौमुदी. ३. 'प्रेरणेषु' ख. ४. 'निश्रुत' ग घ ५ 'हृष्टो रोमाञ्चसंयुते' ख ग घ ६. 'केशरोमस्विति वैषयिकेऽधिकरणे सप्तमी । तेन केशरोमविषये नानयोः पर्यायशब्दता' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. ७. 'प्रहसिते' ख. ८. 'कुहरेऽन्त' ख; 'कुक्षावन्त' ग घ ९. 'रह: ' ख ग घ 'सहो बलम्' इति टीका. १०. 'केले' ग घ ११. 'कपट' ख. १२. 'कोणे' ख. १३. 'गुडिका' ख ग घ 1 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । जडो मूर्खे हिंमाघ्राते जडा स्याच्छूकशिम्बिका । ताडोऽद्रौ ताडने घोषे मुष्टिमेयतृणादिके ॥ १३३ ताडी तालीदलतरौ दण्डः सैन्ये दमे यमे । मानव्यूहग्रहभेदेष्वश्वेऽर्कानुचरे मथि ॥ १३४ प्रकाण्डे लगुडे कोणे चतुर्थोपायगर्वयोः । नाडी कुहनचर्यायां घटिकागण्डदूर्वयोः ॥ १३५ नाले गुणान्तरे स्नायौ नीडं स्थाने खगालये। पण्डः षण्डे पण्डा बुद्धौ पाण्डुः कुन्तीपतौ सिते १३६ पिण्डो वृन्दे जपापुष्पे गोले बोलेऽङ्गसिहयोः । कवले पिण्डं तु वेश्मैकदेशे जीवनायसोः ॥ १३७ बले सान्द्रे पिण्ड्यलाबूखर्जूर्योस्तगरेऽपि च । पीडार्तिमर्दनोत्तंसकृपासु सरलद्रुमे ॥ १३८ भाण्डं मूलवणिग्वित्ते तुरङ्गाणां च मण्डने । नदीकूलद्वयीमध्ये भूषणे भाजनेऽपि च ॥ १३९ मण्डो मस्तुनि भूषायामेरण्डे सारपिच्छयोः । शाके मण्डा त्वामलक्यां मुण्डो मुण्डितशीर्षयोः।। राही दैत्यान्तरे रण्डा त्वाखुर्णी मृतप्रिया । व्याडो हिंस्रपशौ सर्प शुण्डा करिकरः सुरा ॥१४१ जलेभी नलिनी वारस्त्री शुण्डो मदनिर्भरे । शौण्डी चविकपिप्पल्योः शौण्डो विख्यातमत्तयोः १४२ षडः पेयान्तरे भेदे षण्डः कानन इंडरे । गूढं रहःसंवृतयोर्दाढा दंष्ट्राभिलाषयोः ॥ १४३ दृढः शक्ते भृशे स्थूले बाढं भृशप्रतिज्ञयोः । माढिदैन्यं पत्रसिरार्चा मूढस्तन्द्रिते जडे ।। १४४ राढा शुझेषु शोभायां व्यूढान्यस्तोरुसंहताः । वोढा स्याद्भारिके सूते शण्डषण्डौ तु सौविदे १४५ वन्ध्यपुंसीड्वरे क्लीबे सोढा मर्षणशक्तयोः । अणिराणिवदस्रौ स्यात्सीमन्यक्षाग्रकीलके ॥ १४६ अणुर्कीह्यल्पयोरुष्णा ग्रीष्मदक्षातपाहिमाः । ऊर्णा भ्रूमध्यगावर्ते मेषादीनां च लोमनि ॥ १४७ ऋणं देये जले दुर्गे कणो धान्यांशलेशयोः । कणा जीरकपिप्पल्योः कर्णश्चम्पापतौ श्रुतौ ॥ १४८ क्षणः कालविशेषे स्यात्पर्वण्यवसरे महे । व्यापारविकलत्वे च परतन्त्रत्वमध्ययोः॥ १४९ कीर्णः क्षिप्ते हते छन्ने कुणिः कुकरवृक्षयोः। कृष्णः काके पिके वर्णे विष्णौ व्यासेऽर्जुने कलौ १५० कृष्णा तु नील्यां द्रौपद्यां पिप्पलीद्राक्षयोरपि । कृष्णं तु मरिचे लोहे कोणो वीणादिवादने ॥१५१ लगुडेऽौ लोहिताङ्गे गणः प्रेमथसंख्ययोः । समूहे सैन्यभेदेऽथ गुणो ज्यासूदतन्तुषु ॥ १५२ रज्जो सत्त्वादौ संध्यादौ शौर्यादौ भीम इन्द्रिये । रूपादावप्रधाने च दोषान्यस्मिन्विशेषणे ॥ १५३ गेष्णो नटे गायने च घ्राणं तु घौतघोणयोः । घृणा तु स्याज्जुगुप्सायां करुणायां घृणिः पुनः१५४ अंशुज्वालातरङ्गेषु चूर्णानि वासयुक्तिषु । चूर्ण क्षोदे क्षारभेदे जो जीर्णद्रुमेन्दुषु ॥ १५५ जिष्णुः शक्रेऽर्जुने विष्णौ जित्वरेऽर्के वसुष्वपि । झुणिः क्रमुकभेदे स्याहुष्टदेवश्रुतावपि ॥१५६ त्राणं त्राते रक्षणे च त्रायमाणौषधावपि । तीक्ष्णं समुद्रलवणे विषायोऽमरकाजिषु ॥ १५७ आत्मत्यागिनि तिग्मे च तूणी नीलीनिषङ्गयोः । गुणः स्यादृश्चिके भृङ्गे गुणं चापकृपाणयोः ॥१५८ दुणी कूम्या जलद्रोण्यां देष्णो दातरि दुर्गमे । द्रोणः पार्थगुरौ काके माने द्रोणी तु नीवृति ॥१५९, नौभेदे शैलेसंधौ च पणः कार्षापणे ग्लहे । विक्रय्यशोकादिबद्धमुष्टौ मूल्ये भृतौ धने ॥ १६० १. 'हिमाघाते' ग-घ. २. 'चर्चायां' ग-घ. ३. 'व्रणान्तरे' ख. ४. 'पी' ख. ५. 'इत्वरे' ख. ६. 'व्यस्तो' ख. ७. 'सौविदौ' ग-घ. ८. 'कर्णोऽरित्रे नृपे श्रुतौ' ख. ९. 'प्रथम' ग-घ. १०. 'सूत्र' ख. ११. 'रूपादौ च प्रधाने' ग-घ. १२. 'गादाभ्यामेष्णक्' । वाच्यलिङ्गः । द्वयोर्यथा-'गेष्णो विष्णुचरित्रस्य' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. 'गेष्णुर्नटे' ख-ग-घ. १३. 'मातृप्रेययोः' ग, १४. 'चूर्णो निवासमुक्तकोः' ख. १५. 'चूर्यन्ते स्म चूर्णानि प्रायेण बहुवचनान्तः' इति टीका. १६. 'चूर्णः' ग. १७. 'जीर्णो' ग-घ. १८. 'जिष्णः' ग-घ. १९. 'झुणिः' ख-ग. २०. 'देष्णुर्दातरि दुर्दमे' ख-ग-घ. २१. 'शैलभेदे' ग-घ, २२. 'शाकादिमुष्टौ बद्धे' ग. For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः । व्यवहारे च द्यूताद्युत्सृष्टे गण्डकविंशतौ । पर्णस्रिपत्रे पर्ण तु पत्रे प्राणोऽनिले बले ॥ १६१ हद्वायौ परिते गन्धरसे प्राणास्तु जीविते । पाणिः कुम्भ्यां चमूपृष्टे पादमूलोन्मदस्त्रियोः ॥१६२ पूर्णः कृत्स्ने परिते च फाणिगुंडकरम्बयोः । वाणो वृक्षविशेषे स्याच्छरस्यावयवे शरे ॥ १६३ बलिपुत्रेऽप्यथ भ्रूणो गर्भिण्यां श्रोत्रियद्विजे । अर्भके स्टैणगर्भे च मणिस्वजागलस्तने ॥ १६४ मेदाग्रेऽलिंजरे ग्ने मोणः सर्पकरण्डके । वाने नक्रमक्षिकायां रणः कोणे कंणे युधि ॥ १६५ रेणुषूल्यां पर्पटके वर्णः स्वर्ण व्रते स्तुतौ । रूपे द्विजादौ शुक्लादौ कुथायामक्षरे गुणे ॥ १६६ भेदे गीतक्रमे चित्रे यशस्तालविशेषयोः । अङ्गरागे च वर्ण तु कुङ्कुमे वाणिरम्बुदे ॥ १६७ व्यूतौ मूल्ये सरस्वत्यां वीणा स्याबल्लकी तडित् । वृष्णिमषे यादवे च वेणी सेतुप्रवाहयोः॥१६८ देवताडे केशवन्धे वेणुवंशे नृपान्तरे । शाणः कषे मानभेदे श्रेण्याल्यां कारुसंहतौ ॥ १६९ शोणो नदे रक्तवर्णे श्योनाकेऽग्नौ हयान्तरे । स्थाणुः कीले हरे स्थूणा सा स्तम्भे रुगन्तरे१७० अन्तः स्वरूपे निकटे प्रान्ते निश्चयनाशयोः । अवयवेऽप्यथार्हन्स्यात्पूज्ये तीर्थकरेऽपि च ॥ १७१ अस्तः क्षिप्ने पश्चिमाद्रीवर्तिस्वटनिपीडयोः। आप्तो लब्धे च सत्ये चाप्याप्तिः संबन्धलाभयोः१७२ ईतिरजन्ये प्रवासे स्यादतिः स्फूतिरक्षयोः । ऋतं शिलोछे पानीये पूजिते दीप्तसत्ययोः ॥ १७३ ऋतिर्जुगुप्साकल्याणगतिस्पर्धास्वथो ऋतुः । स्त्रीणां पुष्पे वसन्तादावेतः कर्बुर आगते ॥ १७४ क्षत्ता शूद्राक्षत्रियायां जाने मारथिवेधसोः । नियुक्ते दौसेये द्वाःस्थे कन्तुः कामकुसूलयोः॥१७५ कान्तो रम्ये प्रिये ग्राष्णि कान्ता प्रियङ्गुयोषितोः । कान्तिः शोभाकामनयोः क्षितिगेंहे भुवि क्षये ॥ कीर्तिर्यशसि विस्तारे प्रमादे कर्दमेऽपि च । कृतं पर्याप्तयुगयोविहिते हिंसिते फले ॥ कृत्तं छिन्ने वेष्टिते न केतुर्युतिपताकयोः । ग्रहोत्पातारिचिङ्गेषु गर्तोऽवटे ककुन्दरे ॥ १७८ त्रिगाशेऽप्यथ ग्रस्तं जग्धे लुप्रपदोदिते । गतिवद्रणे ज्ञाने यात्रोपायदशाध्वसु ॥ १७९ गीतिश्छन्दसि गाने च गीतं शब्दितगानयोः । गुप्तं गूढे त्राते गुप्तिर्यमे भूगर्तरक्षयोः ॥ १८० कागयां घृतमाज्याम्बुदीवथ चिताचिती । मृतार्थदारुषु चये जगल्लोकेङ्गवायुषु ॥ १८१ जातं जोत्योऽवजनिषु जातिः सामान्यगोत्रयोः । मालत्यामामलक्यां च चुहयां काम्पिल्यजन्मनोः।। जातीफले छन्दसि च ज्ञातिः पितृसगोत्रयोः । ततं वीणादिवाो स्यात्ततो व्याप्तेऽनिले पृथौ १८३ तातोऽनुकम्प्ये पितरि तिक्तस्तु सुरभी रसे । तिक्ता तु कटुरोहिण्यां तिक्तं पर्पटकौषधे ॥ १८४ त्रेता युगेऽग्नित्रये च दन्तो दशनमानुनोः । दन्त्योषध्यामथ दितिर्दैत्यमातरि खण्डने ॥ १८५ दीप्तं निर्भासिते दग्धे द्रुतं शीघ्रविलीनयोः । द्युतिस्तु शोभादीधित्योर्धाता वेधसि पालके ॥१८६ धातू रसादौ श्लेष्मादौ भ्वादिग्रावविकारयोः । महाभूतेषु लोहेषु शब्दादाविन्द्रियेऽस्थनि ॥१८७ १. 'दाताह्यत्सृष्टे' ग-घ. २. 'पर्णः पलाशे' ख; 'पर्णस्त्रिपर्णे' ग-घ. ३. 'करण्डयोः' ग-घ. ४. 'माणः' ख. ५. 'पुणे' ख. ६. 'खुतौ' ख. ७. 'सूतौ' ख. ८. 'द्रौ वति' ग-घ. ९. 'प्रवाहे' ख. १०. 'स्याटूतिः' ग-ध. ११ 'दासजे' ख-ग-व. १२ 'कमनयोः' ख. १३. 'प्रासादे' ख-ग-घ. १४. इतः प्राक् 'कुन्ती पाण्डुप्रियायां स्यात्सल्लक्यां गुग्गलुद्रुमे इत्यधिकं ख-पुस्तके. १५. 'चेष्टिते' ग-य. १६. 'दिचि' ग. 'अरिः शत्रुः' इति टीका. १७. 'वृहद्रणे' ग-च. 'वहद्रगो नाडीव्रणः' इति टीका. १९ इतः प्राक् 'गाता पुंस्कोकिले भृङ्गे गन्धर्वे रोपणेऽपि च' इति ख-ग-घ-पुस्तकेपु. २०. 'गृढं गुप्ते' ख. २१. 'इङ्गं जङ्गमम्' इति टीका. २२. 'जातोऽथ' ग-घ. २३. 'गात्रयोः' ग-घ. २४. 'जातः' ख. २५. 'निर्भासने' ग-ध. २६. 'संदीस्योः ' ख, २७. 'लोहेषु' ग्व-ग-घ. For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः धुतं त्यक्ते कम्पिते च धूतौ कम्पितत्सितौ । धूर्त तु खण्डलवणे धूर्तो धत्तूरमायिनोः ॥ १८८ धृतिर्योगविशेषे स्याद्धारणाधैर्ययोः सुखे । संतोषाध्वरयोश्चापि नतस्तगरनम्रयोः ॥ १८९ नीतिनये प्रापणे च पंक्तिर्गौरवपाकयोः । पतिश्छन्दःश्रेण्योः पत्तिः सेनाभित्पद्गयोर्गतौ ॥ १९० प्राप्तिमहोदये लाभे पित्सन्पिपतिषन्यथा । पतनेच्छौ विहङ्गे च पीतो वर्णनिपीतयोः ॥ १९१ पीता हरिद्रा पीतिः पाने ऽश्वे प्रीतिः स्मरस्त्रियाम् । प्रेम्णि योगमुदो पुस्तं शिल्पे लेप्यादिकर्मणि॥ पुस्तके प्लुतमश्वस्य गतौ प्लुतस्त्रिमात्रके । पूर्त पूरितखाताद्योः पृषतवत्पृषन्मृगे ॥ १९३ बिन्दौ प्रेतो मृते भूतविशेषे च परेतवत् । पोतः शिशौ प्रवहणे प्रोतं गुम्फितवाससोः ॥ १९४ भक्तमन्ने तत्परे च भर्ता पोष्टरि धारके । भक्तिः सेवागौणवृत्त्योर्भङ्गयां श्रद्धाविभागयोः ॥ १९५ भास्वान्दीप्रे रवौ भ्रान्तिमिथ्याज्ञानेऽनवस्थितौ । भित्तिः कुड्ये प्रदेशे च भूतं सत्योपमानयोः १९६ प्राप्तेऽतीते पिशाचादौ पृज्यादौ जन्तुयुक्तयोः । भूभृन्महीधरे पृथ्वीपतौ भूतिस्तु भस्मनि ॥१९७ मांसपाकविशेषे च संपदुपार्दयोरपि । भृतिर्मूल्यभरणयोर्मतं तु संमतेऽचिंते ॥ १९८ महगृहति धीतत्वे गज्ये मरुत्सुरेऽनिले । मतिर्बुद्धीच्छयोर्माता गौर्दुर्गा जननी मही॥ १९९ मातरस्तु ब्रह्माण्याद्या मितिरैयत्यमानयोः । मुक्ता मौक्तिकपुंश्चल्योर्मुक्तिर्मोचनमोक्षयोः ॥ २०० मूर्तिः पुनः प्रतिमायां कायकाठिन्ययोरपि । मृतं मृतौ याचिते च यन्ता सूते निषादिनि ||२०१ यतिनिकार विरतौ भिक्षौ युतोऽन्विते पृथक् । युक्तिया॑ये योजने च रक्तं नील्यादिरञ्जिते ॥२०२ कुङ्कमेऽसृज्यनुरक्ते प्राचीनामलकेऽरुणे । रतिः स्मरस्त्रियां रागे रते रीतिस्तु पित्तले ॥ २०५ वैदादौ लोहकिट्टे सीमनि झवणे गतौ । लता ज्योतिष्मतीदूर्वाशाखावल्लीप्रियङ्गुषु ॥ २०४ स्पृक्कामाधव्योः कस्तूर्या लिप्तं भुक्तविलिप्तयोः । विषाक्ते टूता तु रोगे पिपीलिकोर्णनाभयोः।।२०५ वर्तित्रानुलेपन्यां दशायां दीपकस्य च । दीपे भेषजनिर्माणे नयनाञ्जनलेखयोः ॥ २०६ व्यक्तो मनीपिस्फुटयोर्वार्ता वार्ताक्युदन्तयोः । कृष्यादौ वर्तने वात वारोग्यारोगफल्गुषु ।। २०७ वृत्तिशालिन्यथ व्याप्तिापने लम्भनेऽपि च । वास्तु स्यागृहभूपुर्योर्गृहे सीमसुरङ्गयोः ॥ २०८ वित्तं विचारिते ख्याते धने वित्तिस्तु संभवे । ज्ञाने लाभे विचारे च वीतमङ्कुशकर्मणि ॥ २०९ असाराश्वगजे शान्ते वीतिरश्वेऽशने गतौ । प्रजने धावने दीप्तौ वृत्तं वृत्तौ दृढे मृते ॥ २१० चरित्रे वर्तुले छन्दस्यतीताधीतयोवृते । वृन्तं स्तनमुखे पुष्पबन्धे वृत्तिस्तु 'वर्तने ॥ २११ कैशिक्यादौ विवरणे वृतिवरणवाटयोः । शक्तिरायुधभेदे स्यादुत्साहादौ बले स्त्रियाम् ॥ २१२ शस्तं क्षेमे प्रशस्ते च शान्तो दान्ते रसान्तरे। शास्ता जिने शासके च शान्तिभद्रे शमेऽहति॥ शितः शातौ कृशे तीक्ष्णे शितिर्भूर्जेऽसितेसिते । श्रीमान्मनोज्ञे तिलकपादपे धनवत्यपि || २१४ शीतो हिमे च जिह्मे च वानीरबहेवारयोः । शीतं गुणे शुक्तमम्ले पूतिभूते च कर्कशे ।। २१५ शुक्तिः शङ्खनके शो केपालखण्डग्रुजोः । नत्यश्वावर्तयोर्मुक्तास्फोटदुर्नामयोरपि ॥ २१६ १. 'कम्पने' ग-घ. २. 'पति' ग-ध. ३. 'वासयोः' ग-घ. ४. 'दीप्ते' ख; 'दीप्तौ' ग-घ. ५. 'प्रभेदे' ख. ६. 'पृथ्वादौ' ग-घ. ७. 'उत्पाद उत्पत्तिः' इति व्याख्या. ८. 'दुत्पातयो' ग-घ. ९. 'भ्यात्' ख-ग-घ. १०. 'विरते' ख. ११. 'श्रवणे' ख. १२. 'लवणं स्यन्दनम् इति टीका. १३. 'लेपिन्यां' क. १४. 'असारेऽश्वगतौ' ख. १५. 'वृत्ते' ख. १६. 'ते' ख. १७. 'वर्तिनि' ख. १८. 'तिलके' ख-ग-घ. १९. 'बहुवातयोः' ख. २० 'पूते भूते' ख-ग-घ. 'पूतिभूतं दुर्गन्धम्' इति टीका. २१. 'कपालखण्डं शिरोस्थिशकलम्' इति टीका. 'कपाले खगग्रुजोः' ख. For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः | २१७ २२४ 1 श्रुतमाकणिते शास्त्रे श्रुतिराम्नायवर्तियोः । षड्डायारम्भिकायां च कर्णाकर्णनयोरपि ॥ श्वेतं रूपये श्वेतो द्वीपे वर्णे शैले कपर्दके । श्वेता तु शङ्खिनीकाष्टपाटल्योः स्वात्सती पुनः || २१८ कात्यायन्यां च साळ्यां च सातिर्दानावसानयोः । सितस्त्ववसिते बद्धे वर्णे सिता तु शर्करा२१९ स्थित ऊर्ध्वे सप्रतिज्ञे स्थितिः स्थाने च सीनि च । सीता जनकजागङ्गाभेदयोर्हलपद्धतौ || २२० सुतः पुत्रे नृपे सुप्तिः स्वापे स्पर्शाज्ञतारुजि । सूतः पारदसारभ्योः प्रसूतेरितवन्दिषु ॥ २२१ त्राह्मण्यां क्षत्रियाज्जाते तक्ष्णि सृतिर्गतौ पथि । स्मृतिः स्मरणधीच्छासु शास्त्रे सेतुस्तु संवरे ॥ २२२ नदीसंक्रमेऽथ हस्तः करे मानोडुभेदयोः । केशाकलापे शुण्डायां हरिद्दिशि तृणान्तरे ॥ २२३ वर्णभेदेऽश्वभेदे च हितं पथ्ये गते धृते । हेतिर्ज्वालास्त्रसूर्याशुष्वर्थो हेतौ प्रयोजने ॥ निवृत्तौ विषये वाच्ये प्रकारद्रव्यवस्तुषु । आस्था यत्नालम्बनयोरास्थानापेक्षयोरपि ॥ २२५ कन्या पुरे प्रावरणे काथो व्यसनदुःखयोः । देवनिष्पाकेऽथ कुथः स्यादास्तरणदर्भयोः ॥ २२६ कोथस्तु मथने नेत्ररुग्भेदे शंटितेऽपि च । ग्रन्थो गुम्फे धने शास्त्रे द्वात्रिंशद्वर्णनिर्मितौ ॥ २२७ ग्रन्थिर्वस्त्रादिवन्धे रुग्भेदे कौटिल्यपर्वणोः । ग्रन्थि तु ग्रन्थिपर्णे स्याद्गाथा वाग्भेदवृत्तयोः ॥ २२८ तीर्थ शास्त्रे गुरौ यज्ञे पुण्यक्षेत्रावतारयोः । ऋषिजुष्टे जले सत्रिण्युपाये स्त्रीरजस्यपि ॥ २२९ योनौ पात्रे दर्शने च तुत्थोऽग्नौ तुत्थमञ्जने । तुत्था नील्यां सूक्ष्मैलायां दुःस्थो दुर्गतमूर्खयो: २३० प्रस्थः सानौ मानभेदे पीथोऽर्के पीथमम्बुनि । पृथुर्विशाले भूपाले वीपिककृष्णजीरयोः ॥ २३१ प्रोrisaraणाध्वगयोः कन्यां मन्थो रवौ मथि | साक्तवे नेत्ररोगे च यूथं तिर्यग्गणे गणे ॥ २३२ यूथी तु मागधीपुष्पविशेषयोः कुरण्टके । रथस्तु स्यन्दने पादे शरीरे वेतसद्रुमे ॥ २३३ art वर्त्मनि पङ्कच गृहाने नाट्यरूपके । 'संस्था स्पशे स्थितौ मृत्यौ साथ वृन्दे वणिग्गणे२३४ सिक्थं नील्यां मधूच्छिष्टे सिक्थो भक्तपुंलाक के । अब्दः संवत्सरे मेघे मुस्तके गिरिभिद्यपि ॥ २३५ अन्दुः स्यान्निगडे भूषाभेदे ककुदवत्ककुत् । श्रेष्ठे वृषाङ्गे राचि क्रव्यान्मांसाशिरक्षसोः॥२३६ कन्दोs सूरणे सस्यमूले कुन्दोऽच्युते निधौ । चक्रभ्रमौ च माध्येच क्षोदः पेषणचूर्णयोः २३७ गदः कृष्णानुजे रोगे गदा प्रहरणान्तरे । छदः पत्रे पतत्रे च ग्रन्थिपर्णतमालयोः || २३८ छन्दो वशेऽभिप्राये च पाषाणमात्रके । निष्पेषणार्थपट्टेsपि धीदा कन्यामनीषयोः ॥ २३९ नदो वैहेऽब्धौ निनदे नन्दा संपद्यलिंजरे । तिथिभेदेऽपि नन्दिस्तु प्रतीहारे पिनाकिनः ॥ २४० आनन्दने च द्यूते च निन्दा कुत्सापवादयोः । पदं स्थाने विभक्यन्ते शब्दे वाक्येऽवस्तुनोः २४१ त्राणे पादे पादचिह्ने व्यवसायापदेशयोः । पादो मूलोस्रतुर्याशाङ्घ्रिषु प्रत्यन्तपर्वते ॥ भन्दं कल्याणे सौख्ये च भद्भास्वरमांसयोः । भेदो विदारणे द्वैधे उपजापविशेषयोः || २४३ मदो रेतस्यहंकारे मध्ये हर्षेभदानयोः । कस्तूरिकायां क्षैच्ये च मदी पकवस्तुनि ॥ मन्दी मूढे शनौ रोगिण्यल से भाग्यवर्जिते । गजजातिप्रभेदेऽल्पे स्वैरे मन्दरते खले ॥ २४२ २४४ २४५ १. ‘खङ्गाद्यारम्भिकायां' ख. २. 'संचरे' गव. ३ 'मानो डुमानयो: ' ख; 'मानद्रुभेदयोः ' गन्ध. ४. 'द्रव्य' ग-घ. ५. 'घटिते' ख. ६. 'पृथ्वी च कृष्णजीरके' ख. ७. 'वापिका हिङ्गपर्णी' इति टीका. ८. 'संस्था नाशे व्यवस्थायां व्यक्तिसादृश्ययोः स्थितौ । ऋतुभेदे समाप्तौ च चरे च निजराष्ट्रगे ॥ सार्थो वणिग्गणे वृन्दे धनेन सहितेऽपि च ॥।' ख-ग-घ. ९. 'पिलाकके' ख. १० 'विषाङ्गे' ग व. ११. 'हदे' ख ग घ १२. ' भेदे नदी सिन्धुर्नन्दिर्द्वाःस्थे' ख. १३' वाक्यैकवस्तुनोः ' गव. १४. 'अङ्के लक्ष्मणि' इति टीका. १५. 'भद्रं ' ग घ. १६. 'द्वैधे द्विधाकरणे' इति टीका. 'वेधे' ख ग घ १७. 'कृषकः कृषीवलः' इति टीका. 'चषक' ख ग घ. For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । मृद्वतीक्ष्णे कोमले च रदो दन्ते विलेखने । विदा ज्ञानधियोबिन्दुर्वियुट्ज्ञात्रो रदक्षते ॥ २४६ वेदिरङ्गुलिमुद्रायां बुधेऽलंकृतभूतले । शब्दोऽक्षरे यशोगीयोर्वाक्ये खे श्रवणे ध्वनौ ॥ २४७ शरद्वर्षात्यये वर्षे शादः कर्दमशष्पयोः । संवित्संभाषणे ज्ञाने संग्रामे नाम्नि तोषणे ॥ २४८ क्रियाकारे प्रतिज्ञायां संकेताचारयोरपि । संपद्धौ गुणोत्कर्षे हारे स्वादुस्तु सुन्दरे ॥ २४९ मृष्टे सूदः सूपकारे व्यञ्जनेऽपि च सूपवत् । स्वेदो धर्म स्वेदने चान्धोऽन्धकारेऽक्षिवजिते ॥२५० अर्धः खण्डेऽर्ध समांशेऽथाब्धिः सरसि सागरे। आधिर्मनोत्तौ व्यसनेऽधिष्टाने बन्धकाशयोः।। ऋद्धं समृद्धे सिंद्धान्ने गन्धः संबन्धलेशयोः । गन्धकामोदगर्वेषु स्याद्राधः स्तालिप्सयोः ॥२५२ गोधा प्राणिविशेषे स्याज्ज्याघातस्य च वारणे । दिग्धो लिप्ते विषाक्तेषौ प्रवृद्धस्नेहयोरपि ॥२५३ दुग्धं क्षीरे पूरिते च दोग्धा गोपालवत्सयोः । अर्थोपजीवककवौ बन्ध आधौ च वन्धने ॥२५४ बन्धुर्धातृवान्धवयोर्बाधा दुःखनिषेधयोः । बुधः सौम्ये कवौ बुद्धः पण्डिते 'बुधिते जिने ॥२५५ बोधिबौद्धसमाधौ चाहद्धर्माप्तौ च पिप्पले । मधुश्चैत्रतुदैत्येषु 'जीवाशाकमधूकयोः ॥ २५६ मधु क्षीरे जले मद्ये क्षौद्रे पुष्परसेऽपि च । मिद्धं चिन्ताभिसंक्षेपे निद्रालसतयोरपि ॥ २५७ मुग्धो मूढे रम्ये मेधः क्रतो मेधा तु शेमुषी । राधो वैशाखमासे स्याद्राधा विद्युद्विशाखयोः२५८ विष्णुकान्तामलक्योश्च गोपीवेध्यविशेषयोः । लुब्ध आकाङिणि व्याधे वधो हिंसकहिंसयोः२५९ वधूः पन्यां स्नुषानार्योः स्पृकाशारिवयोरपि । नवपरिणीतायां च व्याधो मृगयुदुष्टयोः ॥ २६० विद्धं सदृग्वेधितयोः क्षिप्ते विद्धिमूल्ययोः । प्रकारे भान्नविधिषु विधिब्रह्मविधानयोः ॥ २६१ विधिवाक्ये च दैवे च प्रकारे कालकल्पयोः । विधुश्चन्द्रेऽच्युते वीरुल्लतायां विटपेऽपि च ॥२६२ वृद्धः प्राज्ञे स्थविरे च वृद्धं शैलेयरूढयोः । वृद्धिः कलान्तरे हर्षे वर्धने भेषजान्तरे ॥ २६३ श्रद्धास्तिक्येऽभिलाषे च श्राद्धं श्रद्धासमन्विते । हव्यकव्यविधाने च शुद्धः केवलपूतयोः ॥२६४ स्कन्धः प्रकाण्डे कायेंऽसे विज्ञानादिषु पञ्चसु । नृपे समूहे व्यूहे च संधा स्थितिप्रतिज्ञयोः।।२६५ संधिर्योनौ सुरङ्गायां नाट्याङ्गे 'श्लेषभेदयोः । साधुजैनमुनौ वार्धषिके सज्जनरम्ययोः ॥ २६६ सिद्धो व्याड्यादिके देवयोनौ निष्पन्नमुक्तयोः । नित्ये प्रसिद्धे सिद्धिस्तु मोक्षे निष्पत्तियोगयोः२६७ सिन्धुनद्यां गजमदेऽब्धौ देशनदभेदयोः । सुधा गङ्गेष्टिकास्नुह्योर्मूलेपामृतेषु च ॥ २६८ अन्नं भक्तेऽशितेऽश्वेिऽधमेऽध्वा कालवमनोः। संस्थाने सास्रवस्कन्धेऽर्थिनी याचकसेवकौ२६९ आत्मा चित्ते धृतौ यत्ने धिषणायां कलेवरे । परमात्मनि जीवेऽर्के हुताशनसमीरयोः ॥ २७० स्वभावेऽथेन ईशेऽऽथोऽन्नं क्लिन्ने दयापरे । ऊष्माणस्तु निदाघोष्णग्रीष्माः शषसहा अपि ॥२७१ कर्म कारकभेदे स्यात्क्रियायां च शुभाशुभे । कामी स्यात्कमने चक्रवाके पारावतेऽपि च ॥ २७२ १. 'मृदुतीक्ष्णे' ग-घ. २. 'संयमे' ख-ग-घ, ३. 'दुद्धौ' ख-ग-घ. ४. 'सिद्धान्ते ख-ग-घ. ५. 'सिद्धं संपन्नमन्नं सिद्धान्नम् । तत्र यथा 'मुस्निग्धमृद्धं मधुरं गुरुभ्यः' इति टीका. ६. 'गाधः स्यात्स्थानलिप्सयोः' ग-घ. ७. 'स्ताघे लभ्यतलस्पर्श' इति टीका. ८. इत: प्राक 'दधि गोरसभेदे स्यात्तथा श्रीवासवासयोः' इत्यधिक ख-ग-ध-पुस्तकेपु. ९. 'नौ' ग-घ. १०. 'जीविनि' ग-घ. ११. 'बोधिते' ख-ग-घ. १२. 'जीवाशाको डोडीशाकः' इति टीका. १३. 'जीवाशोक' ख-ग-घ.१४ 'चिन्ताभिसंक्षेपे' ख-ग-ध. १५. 'चित्ताभिसंक्षेपश्चित्तव्याक्षेपः' इति टीका. १६. 'लसितयो' ख-ग-घ.१७. 'वेध' ख-ग-घ.१८."श्लेषे यथा--'सस्ताङ्गसंधौ विगताक्षपाटवे रुजा निकामं विकलीद्धते रथे ।' संधानसंहितागुणविशेषा अपि श्लेषभेदा एव । भेदे विश्लेपे' इति टीका. 'श्लेष्म' ख-ग-ध. १९. 'जिने मुनौ' ग-घ; लेने मुनौ' ख. २०. 'व्याघ्रादिके' ख; 'व्यासादिके' ग-ध. For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ २ द्विस्वरकाण्डः। कृती योगे बुधे खड्गी गण्डके खड्गधारिणि । ग्रावाश्मनि गिगै गोमी फेरौ गोमत्युपासके ॥२७३ घनः सान्द्रे दृढे दाढ्य विस्तारे मुद्गरेऽम्बुदे । संघे मुस्ते धनं मध्यनृत्तवाद्यप्रकारयोः ॥ २७४ चर्म त्वचि स्फरे चर्मी भर्ने फलकिभृङ्गिणोः । चक्री कोके कुलालेऽहौ वैकुण्ठे चक्रवर्तिनि ॥२७५ चिह्नमधे पताकायां चीनो देशैणतन्तुषु । व्रीही वस्त्रे छद्म शाठ्येऽपदेशे घातिकर्मणि ।। २७६ छन्नं रहश्छादितयोश्छिन्ना स्यादमृतेत्वरी । छिन्नं भिन्ने जनो लोके जगद्भेदे पृथग्जने ॥ २७७ जनी नुषावनितयोजिनोऽर्हद्द्धविष्णुषु । ज्योत्स्ना स्याज्जोतिःसंयुक्तनिशि चन्द्रातपेऽपि च ॥२७८ ज्योत्स्नी पटोलीज्योत्स्नावन्निशोस्तनुर्वपुस्त्वचोः । विरलेऽल्पे कृशे दण्डी यमे द्वाःस्थसदण्डयोः२७९ दानं मतं गजमदे रक्षणच्छेदशुद्धिषु । विश्राणनेऽप्यथ द्युम्नं द्रविणवद्धनौजसोः ॥ २८० धनं वित्ते गोधने च स्याद्धन्व स्थलचापयोः।धन्वा मरौ धन्वी पार्थे छेके ककुभचापिनोः।।२८१ धनुः शब्दः पियालद्रौ गशिभेदे धनुष्यपि । धाम रश्मौ गृहे देहे स्थाने जन्मप्रभावयोः ॥ २८२ धाना भृष्टयवेऽङ्करे धान्याके चूर्णसक्तुषु । धेनः समुद्रे धेनी तु नद्यां नग्नो विवाससि ॥ २८३ मागधे च क्षपणके नन्दी गिरिशवेत्रिणि । गर्दभाण्डे वटे न्यून हीनवचोनगायोः ॥ २८४ पर्व प्रस्तावोत्सवयोर्ग्रन्थौ विषुवदादिषु । दर्शप्रतिपत्संधौ च तिथिग्रन्थिविशेषयोः ॥ २८५ पक्ष्माक्षिलोम्नि तन्त्वादिसूक्ष्मांशे कुसुमच्छदे । गरुत्किञ्जल्कयोश्चापि पत्री काण्डे खगे द्रुमे॥२८६ ग्थेऽद्रौ रथिके श्येने प्रेम तु स्नेहनर्मणोः । ब्रह्मा तु तपसि ज्ञाने वेदेऽध्यात्मे द्विजे विधौ ॥ २८७ ऋत्विग्यांगभिदोश्चाथ वुध्नो गिरिशमूलयोः । भर्म भारे भृतौ हेम्नि भानुरंशौ रवौ दिने ॥ २८८ भिन्नोऽन्यः संगतः फुल्लो दीर्णो भोगी भुजंगमे । वैयावृत्यकरे राज्ञि ग्रामण्यां नापितेऽपि च २८९ मानं प्रमाणे प्रस्थादौ मानश्चित्तोन्नतौ ग्रहे । मीनो मत्स्ये राशिभेदे मृत्स्ना मृत्सा तुवर्यपि २९० यानं युग्ये गतौ योनिः कारणे भगताम्रयोः । रत्नं स्वजातिश्रेष्ठे स्यान्मणौ राजा तु पार्थिवे २९१ निशाकरे प्रभौ शक्ते यक्षक्षत्रिययोरपि ॥ रास्नैलापर्णीसाक्ष्यो रागी कामिनि रकरि । रोही रोहीतकेऽश्वत्थे वटे लग्नं तु लज्जिते ।। २९३ राशीनामुदये सत्ते लक्ष्म प्रधानचिह्नयोः । वनं प्रस्रवणे गेहे प्रवासेऽम्भसि कानने ॥ २९४ वस्त्रं वस्त्रे धनं मूल्ये भृतौ वर्म पुनस्तनौ । प्रमाणे सुन्दराकारे वर्त्म नेत्रच्छदेऽध्वनि ॥ २९५ वर्णी पुनश्चित्रकरे लेखके ब्रह्मचारिणि । वानं शुष्कफले शुष्के सीवने गमने कटे ॥ २९६ जलसंप्लेंववातोर्मिसुरङ्गासौरभेषु च । वाग्ग्मी पटुबृहस्पत्योर्वाजी बाणे हये खगे ॥ २९७ विन्नं विचारिते लब्धे स्थिते वृपा तु वासवे | वृषभे तुरगे पुंसि शाखी तु द्रुमवेदयोः॥ २९८ गनभेदे शिखी त्वग्नौ वृक्षे केतुग्रहे शरे । चूडावति बलीवर्दे मयूरे कुक्कुटे हये ॥ २९९ शीनो मूर्खाजगग्योः श्येनः शुक्ले पतत्रिणि । स्वप्नः स्वापे सुप्त ज्ञाने स्थानं स्थित्यवकाशयोः ३०० १. 'नृत्य' ख-ग-घ. २. 'प्रभेदयोः' ख. ३. 'स्फटे' ग-घ. ४. 'ज्योत्स्नी' ख-ग-घ. ५. 'शब्दे' ख-ग-घ. ६. 'धना' ख-ग-घ. ७. 'गौरादित्वाड्डी' इति टीका. ८. 'स्याद्भारतीभिदि । धेनुर्गोमात्रके दोग्ध्यां गवि ननो' ख-ग-घ. ९. 'ध्याथे' ख. १० 'रंशे' ख. ११. 'वैयावृत्यकरः परिचारकः । व्यवहारिक इत्यन्ये' इति टीका. १२. इतः परं मुनिर्वाचयमोऽहंति । पियालागस्तिपालाशे' इत्यधिकं ख-ग-ध-पुस्तकेपु. १३. 'तोययोः' ख-ग-घ. १४. 'तानं शुल्वम्' इति टीका. १५. 'शक्रे' ग-च. १६. ' सख्ये' ख. १७. 'रक्तरि' ख-ग-घ. १८. 'भृतिः कर्मकरादीनां वेतनम्' इति टीका. १९. 'मृतो' ग-घ.२०. 'संत' ख-ग-घ. २१. 'शुळे गुणे' इति टीका. २२. 'शुक्रे' ग-व. २३. 'नित्याव' ख. २९२ For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । सादृश्ये संनिवेशे च स्नानं स्नानीय आप्लवे । स्त्यानं स्यास्निग्ध आलस्ये प्रतिध्वानघनत्वयोः३०१ सादी तुरङ्गमारोहे निषादिरथिनोरपि । स्वामी प्रभौ गुहे सूनं पुष्पे सूना पुनः सुता ॥ ३०२ अधोजिह्वा वधस्थानं सूनुः पुत्रेऽनुजे रवौ । हनुः कपोलावयवे मरणामययोरपि ॥ ३०३ हरिद्रायामायुधे च हली कृषकसीरिणोः । कल्पो विकल्पे कल्पद्रौ संवर्ते ब्रह्मवासरे ॥ ३०४ शास्त्रे न्याय विधौ कृपो गर्तेऽन्धौ गुणवृक्षके । मृन्माने कृपके क्षेपो गर्वे लङ्घननिन्दयोः॥ ३०५ विलम्बरणहेलासु गोपी भूपालबल्लवी । ग्रामौधगोष्टाधिकृतौ गोपी गोपालसुन्दरी ॥ ३०६ शारिवा रक्तिका तल्पमट्टे शय्याकलत्रयोः । त्रपा लज्जा कुलटयोस्त्रपु सीसकरङ्गयोः ॥ ३०७ तापः संतापे कृच्छ्रे च तापी तु सरिदन्तरे । दो मृगमदे गर्वे पुष्पं विकास आर्तवे ॥ ३०८ धनदस्य विमाने च कुसुमे नेत्ररुज्यपि । बाष्प ऊष्माक्षि लयो रूपं तु श्लोकशब्दयोः ॥ ३०९ पाशावाकारे सौन्दर्ये नाणके नाटकादिके । ग्रन्थावृत्तौ स्वभावे च रेपः क्रूरे विहिते ॥ ३१० रोपौ रोपणेषू रोपं रोने लेपस्तु लेपने । अशने च सुधायां च वपा विवरमेदसोः ॥ ३११ शष्पं तु प्रतिभाहीनतायां बालतृणेऽपि च । शापः शपथ आक्रोशे शिष्पं श्रुवे क्रियोचिते ॥३१२ स्वापो निद्रायां मग्भेदे शपनाज्ञानमात्रयोः । गुम्फो दोभूषणे दृब्धौ रेफोऽवद्यरवर्णयोः ॥ ३१३ शर्फ खुरे गवादीनां मूले विटपिनामपि । शिफा मातरि मास्यां च जटायां च सरित्यपि ॥ ३१४ कम्बिवंशलतादयोः कम्बुर्वलयशङ्खयोः । गजे शम्बूके करे ग्रीवायां नलकेऽपि च ॥ ३१५ जम्बूमरुतरङ्गिण्यां द्वीपवृक्षविशेषयोः । डिम्ब एरण्डभययोर्विप्लवे प्रीति पुष्फसे ॥ ३१६ बिम्बं तु प्रतिबिम्बे स्यान्मण्डले विम्बिकाफले ।शम्बः पवौ लोहकाभ्यां स्तम्ब आलानगुल्मयोः३१७ ब्रीह्यादीनां प्रकाण्डे च कुम्भो वेश्यापतौ घटे । द्विपाङ्गे राक्षसे राशौ कुम्भं त्रिवृति गुग्गुलौ ।। ३१८ कुम्भ्युषायां पाटलायां वारिप] च कट्फले । गर्भः कुक्षौ शिशौ संधौ भ्रूणे पनसकण्टके ॥ ३१९ मध्येऽग्नावपवरके जम्भः स्यादानवान्तरे । दन्तभोजनयोरंशे हैनौ जम्बीरतूणयोः ॥ ३२० जृम्भा जृम्भणे विकासे डिम्भो वैधेयवालयोः । दम्भः कल्के कैतवे च नाभिः क्षत्रप्रधानयोः।। चक्रमध्ये मृगमदे प्राण्यङ्गे मुख्य जि च । निभः स्यात्सदृशे व्याजे रम्भो वैणवदण्डके ॥ ३२२ रम्भा त्रिदशभामिन्यां कदल्यां च विभुः प्रभौ । व्यापके शंकरे नित्ये शंभुर्ब्रह्माहतोः शिवे ॥ ३२३ शुभो योगे शुभं भद्रे स्तम्भः स्थूणागजाढ्ययोः । सभा सभ्येषु शालायां गोष्टयां द्यूतसमूहयोः३२४ स्वभूविष्णौ विधावामोऽपक्के रुग्भेदरोगयोः । उमा गौर्या हरिद्रायां कीर्तिकान्त्यतसीष्वपि ॥ ३२५ अमिः पीडाजवोत्कण्ठाभङ्गप्राकाश्यवीचिषु । वस्त्रसंकोचलेखायां क्रमः कल्पानिशक्तिषु ॥ ३२६ परिपाट्यां क्षमः शक्ते हिते युक्ते क्षमावति । क्षमा शान्तौ क्षितौ कामं वाढेऽनुमतिरेतसोः३२७ कामः स्मरेच्छाकाम्येषु क्षुमा स्यान्नीलिकातसी । क्रिमिः कृमिवल्लाक्षायां कीटे क्षेमस्तु मङ्गले ३२८ १. 'कल्पाद्रौ' ग-घ.२. 'विलम्बरण' ख.३. 'ईरणे प्रेरणे' इति टीका.४. 'जलयोः स्याद्रूपं श्लोक' ग-घ. ५. इतः प्राक् 'शोफ ओषधिभेदे स्याकृते त्वग्विवर्धने' इत्यधिकं ख-पुस्तके. ६. 'मध्यमे चाप' ख-ग-ध. ७. “अनौ यथा---'शशाम न शमीगर्भः।" इति टीका. ८. 'हानौ' ख. ९. इतः परं 'दर्भो ग्रन्थे कुशेऽपि च । दृग्भूः पवौ भास्करे च' इत्यधिकं ख-ग-घ-पुस्तकेषु. १०. 'राज्ञि' ख-ग-ध. ११. इतः परं 'शोभा कान्तीच्छयोर्मता । स्तम्भोऽङ्गजाड्ये स्थूणायां सभा द्यूतसमूहयोः ।। गोष्ठयां सभ्येषु शालायां स्वभूर्विष्णौ विधावपि । स्तोभः स्यात्सामविच्छेदे हेलने स्तम्भनेऽपि च ॥ आमोऽपक्के रोगभेदे रोगे चेध्मः समिद्भिदि । कामे वसन्ते काष्ठे स्यादुमो नगरघट्टयोः ॥' इत्येवं साधिकः पाठः ख-ग-घ-पुस्तकेषु. १२. 'लेखा' ख. १३. 'श्च लाक्षायां ख. For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विखरकाण्डः | ३२९ ३३६ ३४१ लव्ध संरक्षणे मोक्षे क्षेमोमा धनहर्यपि । क्षौमं स्यादतसीवस्त्रे दुकूलेऽट्टालकेऽपिच ॥ खर्म क्षौमे पौरुषे च गमोऽध्वद्यूतभेदयोः । सहपाठेऽप्यथ ग्रामो वृन्दे शब्दादिपूर्वक: ।। ३३० ist संवस च गुल्मः सैन्योपरक्षणे | रुकसैन्यघट्टभेदेषु स्तम्बे गुल्मी पटौकसि || ३३१ आमलक्येयोर्वन्यामथ घर्मो निदाघवत् । स्वेदाम्भस्यातपे ग्रीष्मोष्मणोर्जात्मस्तु पामरे || ३३२ असमीक्ष्यकारिणि च जामिः स्वसृकुलस्त्रियोः । जिह्मस्तु कुटिले मन्दे जिल्ह्मं तगरपादपे ॥ ३३३ तोक्मं कर्णमले तोक्मः स्याद्धरि हरिद्यवे । दमः स्यात्कर्दमे दण्डे देमने दमथेऽपि च ।। ३३४ दैस्मस्तु हव्यवाहे स्याद्यजमाने मलिम्लुचे । धर्मो यमोपमापुण्यस्वभावाचारधन्वसु ॥ ३३५ सत्सङ्गे त्यहिंसादौ न्यायोपनिषदोरपि । धर्मं दानादिके नेमस्त्वर्थे प्राकारगर्तयोः || अवधौ कैतवे काले नेमिः कूपत्रिकाप्रधिः । तिनिशोऽरिष्टनेमिश्च पद्मो व्यूहे निधावहौ ॥ ३३७ संख्याब्जयोः पद्ममिभविन्दौ ब्राह्मी तु भारती । शाकभेदः पङ्कगण्डी हञ्जिका सोमवल्लरी ||३३८ ब्रह्मशक्तिभ्रमस्तु स्याद्धमणे वारिनिर्गमे । भ्रान्तौ कुन्दाख्ययत्रे च भीष्मो घोरे वृकोदरे ॥ ३३९ हरेऽम्लवेतसे चापि भीष्मो गाङ्गेयरुद्रयोः । राक्षसे भीषणे भौमोऽङ्गारके नरकासुरे || ३४० यमः कीलयमजयोरहिंसादिषु पञ्चसु । संयमे यमने ध्वाङ्के यामौ प्रहरसंयमौ ॥ रमः कान्ते रक्ताशोके मन्मथे च रमा श्रियाम् । रश्मिघृणिप्रग्रहयो रामः श्यामे हलायुधे ॥ ३४२ पशुभेदे मिते चारौ रायवे रेणुकासुते । रामं तु वास्तुके कुष्ठे रामा हिङ्गुलिनीस्त्रियोः ॥ ३४३ रुक्मं लोहे सुवर्णे च रुमा स्वाकरे । सुग्रीवपत्न्यां लक्ष्मीः श्रीशोभासंपत्प्रियङ्गुषु ॥ ३४४ मित्रन्ते नले वामः कामे सव्ये पयोधरे । उमानाथे प्रतिकूले चारौ वामा तु योषिति || ३४५ वामी शृगाल्यां करभीरासभीवडवासु च । शमी द्रुभेदे वल्गुल्यां शिम्ब्यां श्यामोऽम्बुदेशितौ३४६ हर प्रागटे कोकिले वृद्धदारके । श्यामं सैन्धवे मरिचे श्यामा सोमलतानिशोः || ३४७ शारिवावल्गुलीगुन्द्रात्रिवृत्कृष्णाप्रियङ्गुषु । अप्रसूतस्त्रियां नील्यां श्रामो मण्डपकालयोः || ३४८ शुष्ममोजसि सूर्ये च समं साध्वखिलं सदृक् । सीमावाटे स्थितौ क्षेत्रे सूक्ष्मोऽणी सूक्ष्ममल्पके ॥ अध्यात्मे कतके सोमस्वोषधीतद्रसेन्दुषु । दिव्यौपथ्यां धनसारे समीरे पितृदेवते ॥ वसुप्रभेदे सलिले वानरे किंनरेश्वरे । हिमं तुपारे शीते च हिमश्चन्दनपादपे ॥ होमिः सर्पिषि वह्नौ च स्यादयः स्वामिवैश्ययोः । अर्थ्य शिलाजतुन्यैर्थशालिनि न्याय्यविज्ञयोः ३५२ अन्योऽसदृशेतरयोरन्त्यस्त्वन्तभवेऽधमे । अर्घ्यमर्घार्थमर्वार्हमास्यं मुखभवे मुखे ॥ ३५३. मुखान्तरास्यातु स्थित्यामार्यौ सज्जनसंविदौ । आर्यो माछन्दसोरिज्या दाने सङ्गेऽर्चनेऽध्वरे ३५४ इभ्यो धनवतीभ्या तु करेण्वां सल्लकीतरौ । कल्यं प्रभाते मधुनि सज्जे दक्षे निरामये ॥ ३५५ कल्या कल्याणवाचि स्यात्कश्यं कशार्हमद्ययोः । अश्वमध्ये क्षयो गेहे कल्पान्तेऽपचये रुजि ३५६ ३५० ३५१ For Private and Personal Use Only १.३ १. 'क्ष' ख २. 'खङ्गादो' ख ३. 'दमनं तर्णकादीनाम् । दमथ उपशमः' इति टीका. ४. 'मदने' ग घ . ५. 'दश्मस्तु' ख ६. इतः प्राक् 'दुमस्तु पादपे पारिजाते किंपुरुषेश्वरे' इत्यधिकं ख-- पुस्तकेपु. ७. 'हन्यहिंसायां' ख ८ 'जल' ख. ९. 'भामः क्रोधे रुचौ रवौ । भीमो वृकोदरे घोरे शं करेऽप्यम्लवेतसे || भीष्मो रुद्रे च गाङ्गेये राक्षसे च भयंकरे । भूमिः क्षितौ स्थानमात्रे भोमो मङ्गलदैत्ययोः ॥' इति साधिकः पाठः ख ग घ पुस्तकेषु. १०. 'काले च यमजे' ख. ११. 'हिङ्गलिनिस्त्रियो:' ग घ १२. 'तु लव' ख. १३. 'वामस्थिते हरे वक्रे' ख. १४. 'मासयो: ' ख. १५. 'न्यर्भ्यः संप्रार्थ्ये' ख-ग-घ. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ अभिधान संग्रह:: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । ३५८ ३६० कन्या नाय कुमाय च गश्योषधिविशेषयोः । कक्ष्या गृहप्रकोष्ठे स्वात्सादृश्योद्योगकाञ्चिषु ॥ ३५७ वृहतिकेभनायो कार्य हेतौ प्रयोजने । कायः कदैवते मूर्ती संघे लक्ष्यस्वभावयोः ॥ कार्यं मनुष्यतीर्थे च काव्या स्यात्पूतनाधियोः । काव्यं ग्रन्थे काव्यः शुक्रे कांस्यं तैजसवाद्ययोः॥ पानपात्रे मानभेदे क्रिया कारणचेष्टयोः । कर्मोपायचिकित्सासु निष्कृतौ संप्रधारणे ॥ अप्रारम्भशिक्षासु कुल्यं तु कुजलेsस्थनि । सूपमिषाष्टद्रोणीषु कुल्या सरिति सारणी || ३६१ कृत्यो विह्निपि कार्ये च कृत्या स्यादेवता क्रिया । गव्यं क्षीरादिके ज्यायां रागवस्तुनि गोहिते ३६२ गव्या गोवृन्दव्यूयोर्गुह्यः कमदम्भयोः । गुह्यमुपस्थे रहस्ये गृह्यं तु मलवर्त्मनि ॥ ३६३ गृह्योऽस्वैरिणि पक्ष्ये च गृहासक्तमृगाण्डजे । गृह्या तु शाखानगरे गेयौ गातव्यगायनौ || ३६४ गोप्यौं दासेरगोप्तव्यौ चयः प्राकारपीठभूः । समूहोऽप्यथ चव्या स्याच्चविकाशतपर्वयोः || ३६५ चित्यं मृतक चैत्ये स्याच्चित्या मृतचितावपि । चैत्यें जिनकस्तद्विम्बं चैत्यो जिनसभातरुः || ३६६ उद्देश्यवृ चोद्यं तु प्रेर्ये प्रश्नेऽनुतेऽपि न । छाया पङ्कौ प्रतिमायामयोषित्यनातपे || ३६७ उत्कोचे पालने कान्तौ शोभायां च तमस्यपि । जयो जयन्ते विजये जयोमा तत्सखी तिथि: ३६८ पथ्या जयन्त्यग्निमन्थो जन्यो जामातृवत्सले । जनके जननीये च नवोढानुचरादिषु ॥ ३६९ जन्यं कौलीने युध्यट्टे जन्या मातृसखीमुदोः । त्रयी त्रिवेद्यां त्रितये पुरन्ध्यां सुमतावपि ॥ ३७० तार्क्ष्यस्तु स्यन्दने वाहे गरुडे गरुडाग्रजे । अश्वकर्णाह्वयतरौ स्यात्तार्क्ष्य तु रसाञ्जने ॥ ३७१ तिष्यः पुष्प मे तिष्या वामलकीतरौ । द्रव्यं भव्ये धने क्ष्मादौ जतुद्रुमविकारयोः॥ ३७२ विनये भेषजे गर्यो दस्युः प्रत्यर्थिचोरयोः । दायो दाने यौतकादिधने सोल्लुण्ठभाषणे || विभक्तव्यपितृद्रव्ये दिव्यं वल्गुलवङ्गयोः । भवे दिव्यामलक्यां दृष्यं वाससि तद्गृहे ॥ दूषणीये चाथ दैत्योऽसुरे दैत्यासुरौधौ । धन्यः पुण्ययुते धन्यामलक्यामुपमातरि ॥ धान्यं तु धान्या धिष्ण्यं स्थानोडुवेश्मसु । बले धिष्ण्योऽग्नौ शुक्रे च नयः स्यान्नैगमादिषु ।। नीतिभिः पथ्यं हिते पथ्या हरीतकी ॥ पद्योऽन्त्यवर्णे स्याद्यं लोके पद्या तु वर्त्मनि । प्रायो वयस्यनशने मृतौ बाहुल्यतुल्ययोः ॥ २७८ प्रियो वृद्धौ लौ पुण्यं तु सुन्दरे । सुकृते पावने धर्मे पूज्यः श्वशुरखन्द्ययोः || ३७९ बल्यं रेतोवलकृतोर्भयं भीतौ भयंकरे । कुब्जकपुष्ये भव्यं तु फले योग्ये शुभेऽस्थनि ॥ सत्ये भाविनि भव्यस्तु कर्मङ्गतरौ सति । भव्योमाकरिपिप्पल्यो भीग्यं कर्म शुभाशुभम् ॥ ३८१ मध्यं न्याय्येऽवलग्नेऽन्तर्मया दैत्योवेसराः । मैयुर्मृगाश्वमुखयोर्मन्युदैन्ये ऋतौ कुधि ॥ ३८२ माल्यं मालाकुसुमयोः स्यान्माया शांबरी कृपा । दम्भो बुद्धिश्च मायस्तु पीताम्बरेऽम्बरेऽपिच ॥ ३८३ ९ १० ३७३ ३७४ ३७५ ३७७ ३८० ९. इतः परं 'ग्राम्यो ग्रामभवे जने । ग्राम्यं रतबन्धेऽलीले' इत्यधिकं ख-ग-य-पुस्तकेपु. २. 'प्राकारपीठभूः प्राकारमूलबन्धः' इति टीका. ३. 'पीठयोः । समूहे' ख-ग-त्र. ४. 'पर्वणोः' ख ग घ ५. 'चित्यं जनौक' ख ग व. ६. 'वृक्षश्रोद्यं' ख ग घ ७. 'युद्धेऽट्टे' ख ग घ ८ इतः प्राक् 'जन्युः स्याज्जन्तुमात्रे च पावके परमेष्ठिनि ' इत्यधिकं ख-ग-य-पुस्तकेपु. ९. 'रीरी पित्तलम्' इति टीका. १०. 'रीत्यां' ख ग घ ११ इतः परं 'नाट्यं लास्ये तौर्यत्रिकेऽपि च। नित्यं ध्रुवे तते' इत्यधिकं ख-ग-य-पुस्तकेषु. १२. 'घवे' ख ग घ १३. इतः प्राक् 'पेयं पातव्यपयसो: पेया श्राणाच्छमण्डयोः' इत्यधिकं ख ग घ पुस्तकेषु. १४. इतः प्राक् 'मत्स्यो मीनान्तरे मीनं विराटेऽभि ( मुख्ययादवे' इत्यधिकं ख ग घ - पुस्तकपु. For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः। मूल्यं वस्ने वेतने च ययुर्यज्ञहये हये । याम्यापाच्या भरण्यां च योग्यो योगार्हशक्तयोः ॥ ३८४ उपायिनि प्रवीणे च योग्यमृद्ध्याह्वयौषधौ । योग्यायोषित्यभ्यासे रम्यश्चम्पकहृद्ययोः ॥ ३८५ रम्या रात्रावथ रथ्यो रथांशे रथवोढरि । रथ्या तु रथसंघाते प्रतोल्यां पथि चत्वरे ॥ ३८६ रूप्यमाहतहेमादौ रजते रूपवत्यपि । लयस्तूर्यत्रयीसाम्ये संश्लेषणविलासयोः ॥ ३८७ लभ्यं लब्धव्ये युक्ते च विन्ध्यो व्याधाद्रिभेदयोः । विन्ध्या त्रुटौ लवल्यां च वीर्य तेज:प्रभावयोः ।। शुक्र शक्तौ च वीक्ष्यं तु द्रष्टव्ये विस्मयेऽपि च । वीक्ष्यस्तु लासके वाहे वेश्यं तु गणिकागृहे ॥३८९ वेश्या तु पण्ययोषायां शल्यः स्यान्मदनद्रुमे । नृपभेदेऽश्वाविधि च सीनि शस्त्रशलाकयोः ॥ ३९० शय्या तल्पे शब्दगुम्फे शून्यं विन्दौ च निर्जने । शून्या तु नलिका शौर्य चारभट्यां बलेऽपि च ॥ सह्यमारोग्ये सोढव्ये सह्योऽद्रौ सव्यं तु दक्षिणे । वामे च प्रतिकूले च सत्यं तु शपथे कृते ॥३९२ तथ्ये तद्वति सत्यस्तु लोकभित्संख्यमाहवे । संख्यैकादौ विचारे च संध्या कालनदीभिदोः ॥ ३९३ चिन्तायां संश्रवे सीम्नि संघाने कुसुमान्तरे । साध्या योगे साधनीये गणे दैवतभिद्यपि ॥ ३९४ सायः शरेऽपराह्ने च स्थयोऽक्षदृक्पुरोधसोः । सेव्यमुंशीरे सेवाहे सैन्यं सैनिकसैन्ययोः ॥ ३९५ सौम्यः सोमात्मजेऽनुग्रे मनोज्ञे सोमदैवते । सौम्याः पुनर्मूगक्षिरःशिरःस्थाः पञ्चतारकाः ।। ३९६ हार्यः कलिद्रौ हर्तव्ये हृद्यं धवलजीरके । हृत्प्रिये हृद्धिते हज्जे हृद्या तु वृद्धिभेषजे ॥ ३९७ हृद्यश्च वशकृन्मत्रेऽयं पुरः प्रथमेऽधिके । उपर्यालम्बने श्रेष्टे परिमाणे पलस्य च ॥ ३९८ भिक्षाप्रकारे संघाते प्रान्तेऽप्यद्रिस्तु पर्वते । सूर्ये शाखिनि चाभ्रं तु त्रिदिवे गगने ऽम्बुदे ॥ ३९९ अस्रः शिरसिजे कोणे स्यादा शोणितेऽस्रुणि । अस्त्रं चापे प्रहरणेऽप्यतिः पादमूलयोः ।। ४०० अरो जिनेऽरं चक्राले शीघ्रशीघ्रगयोरपि । आरो गरी शनि म आरा चर्मप्रभेदिनी ॥ ४०१ इराम्भोवाक्तुराभूमिष्विन्द्रः शक्रेऽन्तरात्मनि । आदित्य योगभेदे च स्यादिन्द्रातु फणिज्झके ४०२ उग्रः क्षत्रियतः शूद्रासृनावुत्कटरुद्रयोः । उग्रा वचाछिकिकयोरुस्रा गवोपचित्रयोः ॥ ४०३ उस्रो मयूखे स्यादुष्टी मृदाण्डे करभस्त्रियाम् । ऐन्द्रिरिन्द्रसुते काकेऽप्योड्रा जनपदान्तरे॥४०४ ओड्रो जने जपावृक्षे करः प्रत्यायशुण्डयोः । रश्मौ वर्षोपले पाणौ क्षरी मेघे क्षरं जले ॥ ४०५ कद्रुः कनकपिङ्गे स्यात्कद्रूस्तु नागमातरि | कारो बलौ वधे यत्ने हिमाद्रौ निश्चये यतौ ।। ४०६ कारा बन्धनशालायां बन्धे दूत्यां प्रसेवके । स्याद्धेमकारिकायां च क्षारः काचे रसे गुडे ॥ ४०७ भस्मनि धूर्ते लवणे कारिः शिल्पी क्रियापि च । कारुस्तु कारके शिल्पे विश्वकर्मणि शिल्पिनि ४०८ कीरः शुके जनपदे क्षीरं पानीयदुग्धयोः । क्षुरो गोक्षुरके कोकिलाख्ये छेदनवस्तुनि ।। ४०९ क्षुद्रो दरिद्रे कृपणे निकृप्टेऽल्पनृशंसयोः । क्षुद्रा व्याघ्रीनटीव्यङ्गाबृहतीसरघासु च ॥ ४१० चाङ्गेरिकायां हिंस्रायां मक्षिकामाप्रवेश्ययोः । कुरुः स्यादोदने भूपभेदे श्रीकण्ठजाङ्गले ॥ ४११ क्रूरा नृशंसघोरोष्णकटिनाः कृच्छ्रमंहसि । कष्टे संतापने क्षेत्रं भरतादौ भगाङ्गयोः ॥ ४१२ केदारे सिद्धभूपत्न्योः क्रोष्ट्री क्षीरविदारिका । सृगालिका लाङ्गली च क्षौद्रं तु मधुनीरयोः ॥ ४१३ १. 'चेतने' ग-ध. २. 'तूलिका' ग-घ. ३. 'नलिका वंशादिमयी' इति टीका. ४. 'चारभटी भयहेतावपि निर्भयमनस्कता' इति टीका. ५. 'परे' ग-घ. ६. 'सेव्यः सुशीले' ख-ग-घ. ७. 'उशीरं वीरणमूलम्' इति टीका. ८. 'पललक्षणे परिमाणे इत्यर्थः' इति टीका. ९. 'प्यनिः' ख-ग-घ. १०. 'रीतिः' ख-ग-ध. ११. 'प्रत्यय' ख. १२. 'द्रुः स्यान्ना' ग-घ. ११ For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । खरो रक्षोन्तरे तीक्ष्णे दुःस्पर्शे रासभेऽपि च । खरुः स्यादवहरयोर्दर्पदन्तसितेषु च ॥ ४१४ खुरः शफे कोलदले गरस्तूपविषे विषे । रोगे गरं स्यात्करणे गात्रमङ्गशरीरयोः ॥ ४१५ गजाग्रदेशेऽथ गिरिः पूज्येऽक्षिरुजि कन्दुके । शैले गिरियके गीर्णावपि गुन्द्रस्तु तेजने ॥ ४१६ गुन्द्रा प्रियङ्गौ कैवर्तीमुस्तके भद्रमुस्तके । गुरुमहत्याङ्गिरसे पित्रादौ धर्मदेशके ॥ ४१७ अलघौ दुर्जरे चापि गृध्रो गृनौ खगान्तरे । गोत्रं क्षेत्रेऽन्वये छत्रे संभाव्यबोधवर्त्मनोः ॥ ४१८ वने नानि च गोत्रोऽद्रौ गोत्रा भुवि गवां गणे । गौरः श्वेतेऽरुणे पीते विशुद्धे चन्द्रमस्यपि ४१९ विशदे गौरं तु श्वेतसर्पपे पद्मकेसरे । गौर्युमानग्निकोर्वीषु प्रियङ्गौ वरुणस्त्रियाम् ॥ ४२० रजन्यां रोचनीनद्यार्घस्रो वासरहिंस्रयोः । घोरो हरे दारुणे च चरः स्याज्जङ्गमे स्पशे ॥ ४२१ चले द्यूतप्रभेदे च चक्रं प्रहरणे गणे । कुलालाद्युपकरणे गष्टे सैन्यरथाङ्गयोः ॥ ४२२ जलावते दम्भे चक्रः कोके चन्द्रोऽम्बुकाम्ययोः । स्वर्णे सुधांशौक पूरे कम्पिल्ये मेचकेऽपि च ४२३ चरर्हव्यान्ने भाण्डे च चारो बन्धासर्पयोः । गतौ पियालवृक्षे च चित्रं खे तिलकेऽद्भुते ॥ ४२४ आलेख्ये कर्बुरे चित्रा त्वाखुपर्णीसुभद्रयोः । गोडम्बाप्सरसोर्दन्त्यां नक्षत्रोरगभेदयोः ॥ ४२५ चीरं वाससि चूडायां गोस्तने सीसपत्रके । चीरी कच्छाटिकाझिल्लयोश्चक्रस्त्वम्लेऽम्लवेतसे ४२६ वृक्षाम्ले चुक्री चाङ्गेयां चैत्रो मासाद्रिभेदयोः । चैत्रं मृतकचैये च चौरो दस्युसुगन्धयोः ।। ४२७ छत्रं स्यादातपत्राणे छत्रा मधुरिकौषधौ । धान्याके च शिलीन्धे च छिद्रं विवररन्ध्रवत ।। ४२८ गर्ने दोषे जारस्तृपपतौ जार्योषधीभिदि । जीरस्त्वजाज्या खड्ने च टारो लिङ्गतुङ्गयोः ॥ ४२९ तत्रं सिद्धान्ते राष्ट्रे च परच्छन्दप्रधानयोः । अगदे कुटुम्बकृये तन्तुवाने परिच्छदे ॥ ४३० श्रुतिशाखान्तरे शास्त्रे करण अर्थसाधके । इतिकर्तव्यतातन्त्वोस्तत्री स्याहुल्लकीगुणे ॥ ४३१ अमृतायां च नद्रयां च शिगयां वपुषोऽपि च । तरिर्दशायां वेडायां वस्त्रादीनां च पेटके ।।४३२ तन्द्री निद्रा प्रमीला च तारो निर्मलमौक्तिके । मुक्ताशुद्धावुचनादे नक्षत्रनेत्रमध्ययोः ।। ४३३ तारं रूप्ये तारा बुद्धदेव्यां सुरगुरुस्त्रियाम् । सुग्रीवपत्यां तानं तु शुल्वे शुल्बनिभेऽपि च ॥४३४ तीनं कटूष्णात्यर्थेषु तीव्रा तु कटुरोहिणी । गण्डदूर्वासुरी तीरो वङ्गे तीरं पुनस्तटे ॥ ४३५ तोत्रं वेणुके प्रतोदे दरः स्याद्भयगर्तयोः । दरी तु कन्दरे दस्रः खरो दस्रौ रवः सुतौ ॥ ४३६ द्वारं निर्गमेऽभ्युपाये धरः कूर्माधिपे गिरौ । कर्पासतुलेऽथ धरा मेदोभमिजरायुष ॥ ४३७ धारो जलधरासारवर्षणे स्यादृणेऽपि च । धारोत्कर्षे खगाद्यग्रे सैन्याने वाजिनां गतौ ॥ ४३८ जलादिपाते संतत्यां धात्री भुव्युपमातरि । आमलक्यां जनन्यां च धीरो ज्ञे धैर्यसंयुते ॥ ४३९ खैरे धीरं तु घुसृणे नरो मर्येऽच्युतेऽर्जुने । नरं तु गमकर्पूरे नक्रं नासानदारुणोः॥ ४४० नको यादसि नीनं तु वलीकवननेमिषु । चन्द्रे च रेवतीभे च नेत्रं वस्त्रे मथो गुणे ॥ ४४१ मूलाक्षिनेतृषु परो दगन्यश्रेष्ठशत्रुषु । परं तु केवलं पत्रं यानं पक्षश्छदश्छुरी ॥ ४४२ १. 'गैरीयके' ख-ग-घ. 'गिरियको गिरिगुडः काष्ठादिमयं क्रीडनकम्' इति टीका. २. 'कैवल्' ख-ग-ध. ३. 'दुधरे' ख. ४. 'वसर्पयोः' क-ग-ध. ५. 'कच्छाटिका पश्चाल्लम्बमानपरिधानपश्चादञ्चलम्' इति टीका. ६. 'लिङ्गः खड्गः' इति टीका. ७. 'लङ्ग' ख-ग-घ. ८. 'स्वराष्ट्रचिन्तायां' ख. ९. 'शुल्वनिमोऽरुणः' इति टीका. १०. 'कर्पासमूले ख. ५१. 'नी, ख-ग-ध. For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ दिखरकाण्डः | ४४३ ४४४ ४४५ पारं प्रान्ते परत पारी पूरपरागयोः । पाड्यां कर्पूरिकायां च पादवन्धे च हस्तिनः || पात्रं तु कूलयोर्मध्ये पर्णे नृपतिमन्त्रिणि । योग्यभोजनयोर्यज्ञभाण्डे नाट्यानुकर्तरि ॥ पुरं शरीरे नगरे गृहपाटलिपुत्रयोः । पुरस्तु गुग्गुलौ पुण्डूः क्रमौ दैत्येक्षुभेदयोः || वासन्त्यां तिलके पुण्डरीके पुण्ड्रास्तु नीवृति | पुरुः परागे प्रचुरे स्वर्लोकनृपभेदयोः ॥ पूरः स्यादम्भसां वृद्धौ व्रणसंशुद्धिखाद्ययोः । पोत्रं वस्त्रे मुखाग्रे च सूकरस्य हलस्य च ॥ ४४७ पौरं कतृणे पुरजे बभ्रुः पिङ्गाग्निशलिषु । मुनौ विशाले नकुले विष्णौ भद्रं तु मङ्गले ॥ मुस्तकश्रेष्ठयोः साधौ काचने करणान्तरे । भद्रो रामचरे हस्तिजातौ मेरुकदम्बके || ४४६ ४४८ ४४९ ४५१ ३ ४५५ शंभौभद्रा विष्टौ नभःसरिति कट्फले । कृष्णानन्ता रास्नासु च भरोऽतिशयभारयोः । ४५० भरुर्भर्तृकनकयोर्भागे दशशतीद्वये । पलानां वीवधे चापि भीरुयषिति कातरे ॥ भूरि स्वर्णे प्रचुरे च मत्रो देवादिसाधने । वेदांशे गुप्तवादे च मरुः पर्वतदेशयोः ॥ ४५२ मारोऽनङ्गे मृतौ विन्ने मारी चण्ड्यां जनक्षये । मात्रं ववधृतौ स्वार्थे कात्स्यै मात्रा परिच्छदे४५३ अक्षरावयवे द्रव्ये मानेऽल्पे कर्णभूषणे । काले वृत्ते च मित्रं तु सख्यौ मित्रो दिवाकरे ।। ४५४ यात्रोत्सवे गतौ वृत्तौ राष्ट्रमुत्पातनीवृतोः । रुरुर्दैत्ये मृगे रेन्त्रं पीयूषपटवासयोः ॥ रेतःसृतकयो रोधो लोध्रे रोमभागसोः । रौद्रो भीमे रसे तीने रौद्री गौर्या वगे वृतौ ॥ ४५६ विटे जामातरि श्रेष्ठे देवतादेरभीप्सिते । वरं तु सृणे किंचिर्दिष्टे वरी शतावरी || वक्रं पुटभेदे वक्रः कुटिले क्रूरभौमयोः । वक्रमास्थे छन्दसि च वप्रः प्राकाररोधसोः ॥ ४५८ क्षेत्रे ताते चये रेणौ वज्रं कुलिशहीरयोः । बालके वज्रा वमृता वर्धः सीसवरत्रयोः ॥ व्यग्रो व्याताकुलयोर्वारः सूर्यादिवासरे | महेश्वरावसरयोर्वृन्दे कुब्जाख्यपादपे ॥ वारं तु मदिरापात्रे वारि हीरनीरयोः । वारियां सरस्वयां गंजबन्धनव्यपि ॥ व्याघ्रः करञ्जे शार्दूले रक्तैरण्डतगवपि । श्रेष्ठे तूत्तरपदस्थः स्याद्व्याघ्री कण्टकारिका ॥ वीरो जिने भेटे श्रेष्ठे वीरं शृङ्गयां न तेऽपि च । वीरा गंम्भारिकारम्भातामलक्येलवलुषु ४६३ मदिराक्षीरकाकोलीगोष्टोदुम्बरिकासु च । पतिपुत्रवतीक्षीरविदारीदुग्धिकास्वपि || ४५७ ४५९ ४६२ ४६४ वृत्रो मे रिपौ ध्वान्ते दानवे वासवे गिरौ । वेरं सृणवृन्ताकशरीरेषु शरं जले ॥ ४६५ १२. ४६६ ४६८ शरः पुनर्दधिसरे काण्डतेजनयोरपि । शक्रोऽर्जुनतराविन्द्रे कुटजे शस्त्रमायुधे ॥ लोहे शस्त्र छुरिकायां द्रिर्जिष्णौ ' तडित्वति । शरुः कोपे शेरे वत्रे शारः शवलवातयोः ॥ ४६७ द्यूतस्य चोपकरणे शास्त्रं ग्रन्थनिदेशयोः । शारिः कुञ्जरपर्याणे शकुनौ द्यूतसाधने ॥ शिशुः शोभाञ्जने शाके शीघ्रं चक्राङ्गतूर्णयोः । उशीरे शुक्रस्तु शुक्ले ज्येष्ठमासेऽग्निकाव्ययोः ॥४६९ शुक्रं तु रेतोऽक्षिरुजोः शुभ्त्रं दीप्तेऽभ्रके सिते । शूरश्चारभटे सूर्ये सरौ दध्ययसायकौ ॥। ४७० स्वरः शब्देऽचिं षड्जादौ सत्रमाच्छादने ऋतौ । सदादाने वने दम्भे स्वरुः स्याद्यूपखण्ड के ४७१ For Private and Personal Use Only १७ ४६० ४६१ १. 'हस्तिनाम्' ख-ग-त्र. २. इतः प्राक् 'यन्त्रं दैवाद्यधिष्ठाने पात्रभेदे नियन्त्रणे' इत्यधिकं ख ग घ २. 'वेत्रं ' गव. ४. 'दिष्टौ ' ग घ ५. 'बालकं ह्रीवेरम्' इति टीका. ६. 'नेत्रयोः ' ख. ७. 'वन्द्यां' ख ग घ 'घटी जलोदञ्चनी' इति टीका ८. 'वारी घटीभवन्धनी' ख. ९. 'नटे' ग घ १०. 'जम्भारिका' ख. ११. 'लुका' ग. १२. 'दधि सारे' ख; 'दधिसारे' गन्व. १३. 'र्जुने' ख. १४. ' तडित्यपि ' ख ग घ 'तडित्वान् मेघः ' इति टीका, १५. ‘शुक्रे' गन्ध. १६. 'पि खगादौ' ख. १७. 'चापि' ख. १८. 'पण्डके' ग-घ. Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । अध्वरं कलिश वाणे सारो मज्जास्थिगंशयोः । बले श्रेष्ठे च सारं तु द्रविणन्याय्यवारिषु ॥ ४७२ स्फारस्तु स्फरकादीनां बुददे विपुलेऽपि च । स्थिरो मोक्षे निश्चले च स्थिरा भूःशालपर्ण्यपि ४७३ सिप्रः स्वेदे सिप्रा नद्यां सिरा नाड्यम्बुवाहिनी। सिरस्तु पिप्पलीमूलं सीरः स्यादंशुमालिनि ॥४७४ लाङ्गलेऽथ सुरो देवे सुरा चषकमद्ययोः । सूत्रं तु सूचनाकारग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोः ॥ ४७५ स्वरो मन्दे स्वतत्रे च हरो गमभरुद्रयोः । वैश्वानरेऽप्यथ हरिर्दिवाकरसमीरयोः ॥ ४७६ यमवासवसिंहांशुशशाङ्ककपिवाजिषु । पिङ्गवणे हरिद्वर्णे भेकोपेन्द्रशुकाहिषु ॥ ४७७ लोकान्तरे च हारन्तु मुक्तादामनि संयुगे । हिंस्त्रः स्याद्धातुके हिंस्रा मांसी काकादनी वसा ४७८ हीरो वने हरे सर्प हीरा पिपीलिकाश्रियोः । होरा तु लग्ने राश्यर्धे शास्त्ररेखाप्रभेदयोः ॥ ४७९ अलिः सुरापुष्पलिहोरम्लो रसेऽम्लवेतसे । अम्ली चाङ्गेमालं स्यानर्थहरितालयोः ॥ ४८० आलिः सख्यावलीसेत्वनर्थेषु विशदाशये । आलुर्गलन्तिकायां स्यादालु भेलककन्दयोः ॥ ४८१ इलोभ्वाग्वुधस्त्री गौः कलं त्वजीर्णरेतसोः । अव्यक्तमधुरध्वाने कला स्याकालशिल्पयोः ॥ ४८२ कलने मूलवृद्धौ पोडशांश विधोरपि । कलिविभीतके शूरे विवादेऽन्त्ययुगे युधि ॥ ४८३ कालः पुनः कृष्णवर्णे महाकालकृतान्तयोः । मरणानेहसोः काली कालिकाक्षीरकीटयोः ॥ ४८४ मातृभेदोमयोर्नव्यमेघौवपरिवादयोः । काला कृष्णत्रिवृन्नील्योर्जिग्यां कीलोऽग्नितेजसि ॥ ४८५ क फणिस्तम्भयोः शकौ कीला रेताहतावपि । कुलं कुल्यगणे गेहे देहे जनपदेऽन्वये ॥ ४८६ कूलं तटे सैन्यपृष्टे तडागस्तृपयोरपि । कोलो भेलक उत्सङ्गेऽङ्कपाल्यां चित्रके किरौ ॥ ४८७ कोलं तु वदरे कोला पिप्पल्यां चव्यभेषजे । खलः कल्के भुवि स्थाने क्रूरे करेंजपेऽधमे ॥४८८ खल्लो निम्ने वस्त्रभेदे चर्मचातकपक्षिणोः । खल्ली तु हस्तपादावमर्दनाहयरुज्यपि ॥ ४८९ गलः कण्टे सर्जरसे गोलः स्यात्सर्ववर्तुले । गोला पत्राञ्जने गोदावर्या सख्यामलिञ्जरे ॥ ४९० मण्डले च कुनद्यां च बालक्रीडनकाष्टके । चिल्लः खगे स चुलश्च पिल्लवक्लिन्नलोचने ॥ ४९१ किन्नाक्षिण चुल्ली तृद्धाने चेलं गर्हितवस्त्रयोः।छले छद्मस्खलितयो छल्ली संतानवीरुधोः ॥ ४९२ वल्कले पुष्पभेदे च जलं गोकलले जडे । हीवेरेऽम्बुनि जालं तु गवाक्षे क्षारके गणे ॥ ४९३ देम्भानाययोश्च जालो नीपे जाली पटोलिका । झला पुत्र्यामातपोर्मों झिल्ली तद्वर्तनाशके ॥ ४९४ वातपाजोवीर्या तलं ज्याघातवारणे । तलश्चपेटे तॉलद्रौ स्वभावाधारयोः त्सरौ ॥ ४९५ तल्लो जलाधारभेदे तल्ली तु वरुणस्त्रियाम । तालः कालक्रियामाने हम्तमानद्रुभेदयोः ॥ ४९६ कगम्फोटे करतले हरिताले सगवपि । तुला माने पलशते साहश्ये राशिभाण्डयोः ॥ ४९७ गृहाणां दाम्वन्धाय पीठ्यां तूलं तु खे पिचौ । ब्रह्म दारुण्यथ दलं शस्त्रीदेऽर्धपर्णयोः ॥ ४९८ उत्मेधवद्द्वस्तुनि च नलो गज्ञि कपी नडे । पितृदेवेऽथ नलं स्यात्पद्मे नेली मनःशिला ॥ ४९९ १. 'शालि' व. २. 'कारि' ख-ग-घ. ३. 'नाशक' ख-ग-घ. द्वितीयटीकापुस्तके तु 'रुद्रेभसोः' इति दृश्यते. ४. 'पिपलिकास्त्रियोः' ख. ५. 'दनल्प' ख-ग-घ. ६. 'दंशशिल्पयोः' ख. ७. 'पापे ख. ८. 'महाकाले रुद्रे' इति टीका. ९. 'हतो' ख; 'रत' ग-घ. 'रताहतिः सुरतप्रहरणम्' इति टीका. १०. 'कुल्ये' ख. 'कुल्याः मजातीयाः तेषां गणे' इति टीका. ११. 'गिरौ ख. १२. 'स इति चिल्लशब्दः' इति टीका. १३. इतः प्राक 'चोलः कपासके देशे चौलं कर्मणि मुण्डने' इत्यधिकं ख-ग-घ. १४. 'छली' ख. १५. 'कलने' रव. १६. 'दम्भानामथयो' ग-घ. १७. 'तालुद्रौ' ख. १८. 'शस्त्रीच्छदे शस्त्रीप्रत्याकारे' इति टीका. १९. 'छेदे' २०. नान्टी' ख, For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः | १९ ५०२ 1 नाल काण्डे मृणाले च नाली शाककदम्बके । नीलो वर्णे मणौ शैले निधिवानरभेदयोः || ५०० नील्यापध्यां लाञ्छने च पलमुन्मानमांसयोः । पल्लिस्तु ग्राम के कुट्यां पालिर्यूकास्त्रिपङ्किषु ॥ ५०१ tratesari प्रान्ते सेतौ कल्पितभोजने । प्रशंसाकर्णलतयोरुत्सङ्गे प्रस्थचिह्नयोः ॥ पीलुः पुष्पे हमे काण्डे परमाणौ मतङ्गजे । तालास्थिखण्डेऽथ पुल: पुलके विपुलेऽपि च ।। ५०३ फलं हेतुकृते जातीफले फलकसस्ययोः । त्रिफलायां च ककोले शस्त्राने व्युष्टिलाभयोः ॥ ५०४ फली फैलन्यां फालं तु वैस्त्रांशे फाल उत्तौ । कुशिके च बलं रूपे स्थामनि स्थौल्य सैन्ययोः ॥ वोले बलस्तु वलिनि काके दैये हलायुधे । बला त्वौपधिभेदे स्याद्वलिदैयोपहारयोः ॥ ५०६ करे चामरदण्डे च गृहदारूदरांशयोः । त्वक्संकोचे गन्धके च बालोऽज्ञेऽश्वेभपुच्छयोः ॥ ५०७ शिशौ ह्रीवेरकंचयोर्बाला तु त्रुटियोषितोः । बाली भूपान्तरे मे बिल उच्चैः श्रवोहये || ५०८ बिलं रन्ध्रे गुहायां च भलो भल्लूकवाणयोः । भल्ली भल्लातके भालं स्याललाटे महस्यपि ॥ ५०९ भेल: वे मुनिभेदे भीरौ बुद्धिविवर्जिते । मल: कॅपाले बलिनि मत्स्ये पात्रे मलस्व ॥ ५१० कि कदवायां मालं तु कपटे वने । मालो जने स्यान्माला तु पङ्कौ पुष्पादिदामनि ।। ५११ मालुः स्त्रियां पत्रवल्लयां मूलं पार्श्वाद्ययोरुडौ । निकु अशिफयोर्मेला त्वञ्जने मेलकेऽपिच ॥ ५१२ मौलिः किरीटे धम्मिल्ले चैलाकङ्केलिमूर्धसु । लीला केलिविलासश्च शृङ्गारभवजक्रिया ॥ ५१३ लोलचले सतृष्णे च लोला तु रमनाश्रियोः । वल्ली स्यादजमोदायां लतायां कुसुमान्तरे ॥ ५१४ व्यालो दुष्टगजे सर्वे शठे श्रापदसिंहयोः । वेला वुपस्त्रियां काले सीमनीवर भोजने || ५१५ अक्लिष्टमरणोऽम्भोधेस्तीरनीरविकारयोः । शालो हाले मत्स्यभेदे शालौकस्तत्प्रदेशयोः ॥ ५१६ स्कन्धशास्त्रायां शालिस्तु गन्धोलौ कलमादिषु । शालुः कपायद्रव्ये स्याच्चौरकाख्यौषधेऽपि च ॥५१७ शिलमुञ्छ : शिला द्वाराघोदारु कुनटी दृषन् । शिली गण्डूपदी शीलं साधुवृत्तस्वभावयोः ५१८ शुकं रूप्ये शुको योगे ते शूलं रुगस्त्रयोः । योगे शूला तू पण्यस्त्री वधहेतुश्च कीलकः ॥ ५१९ शैलो भूभृति शैलं तु शैलेये तार्क्ष्यशैलके । साल: सर्जतरौ वृक्षमात्रप्राकारयोरपि ॥ स्थालं भाजनभेदे स्यात्स्थाली तु पाटलोखयोः । स्थूलः पीने जडे हालः सातवाहनपार्थिवे ॥ ५२१ हाला सुगगां हेला तु स्यादवज्ञाविलासयोः । हेलिरालिङ्गने सूर्येऽप्यविर्मूषिककम्बले ॥ मेपे रखौ पर्वते च स्यादूर्ध्व तु समुत्थिते । उपर्युन्नतयोः कण्वो मुनौ कण्वं तु कल्मषे ॥ क्षत्रः क्षुते राजिकायां कविः काव्यस्य कर्तरि । विचक्षणे दैत्यगुरौ स्यात्कवी तु खलीनके ॥ ५२४ किण्वं पावे सुरावीजे क्लीवोऽपौरुषपण्डयोः । खर्वहस्वौ न्यग्वामनौ ग्रीवे शिरोधितच्छिरे ॥५२५ छविस्तु रुचि शोभायां जवः स्याद्वेगवेगिनोः । जवोपुणे जिह्वा तु वाचि ज्वालारसज्ञयोः ५२६ जीवः स्यात्रिदशाचार्ये द्रुमभेदे शारीरिणि । जीवितेऽपि च जीवा तु वचायां धनुषो गुणे ॥ ५२७ शिञ्जिते क्षितिजीवन्त्योर्वृत्तौ तत्त्वं परात्मनि । वाद्यभेदे स्वरूपे च द्रवो विद्र्वनर्मणोः ॥ ५२८ दावे रसगयो द्वन्द्वः से द्वन्द्वमाहवे । रहस्ये मिथुने युग्मे दवदावौ वनानले ॥ 1 ५२० ५२२ ५२३ ६५ ५२९ 'वाससि' ग घ ५ ' वचयोः ' ८. 'शिकयोः स्वीये शिलायां १. 'जाति' ख. २. ' हेतुफले' ग घ ३. 'फलिन्यां' ख ग घ ४. 'वसने' ख; ख. ६. 'मध्ये ' गव. ७. 'कपोले' ख ग घ 'कपालं शिरोस्थि' इति टीका. च वशीकृतौ । प्रतिष्ठायामथो मेला' ख. ९. 'चूडा' ख ग घ १०. 'भावजा' ग घ 'शात' ख; 'सीत' ग घ १३. 'विद्रवे पलायने' इति टीका. १४. ‘आसवे' ख. टीका. १५. ' स इति समासस्य संज्ञा' इति टीका. For Private and Personal Use Only ११. 'शील' ख. १२. 'प्रद्रावे प्रसवणे' इति Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । वने दीं फणातक़र्वी स्याद्देवदारुणि । हरिद्राद्वितये चापि दिवं खे त्रिदिवे दिने ॥ ५३० देवं हृषीके देवस्तु नृपतौ तोयदे सुरे । देवी कृताभिषेकायां तेजनीस्पृक्कयोरपि ॥ ५३१ धवो धूर्त न पत्यौ दुभेदेऽथ ध्रुवो वटे । वसुयोगभिदोराँतौ शङ्कावुत्तानपादजे ॥ ५३२ स्थिरे नित्ये निश्चिते च ध्रुवं खेऽजसतर्कयोः । ध्रुवा माशालिपर्योः सुग्भेदे गीतभिद्यपि ॥५३३ नवो नव्ये स्तुतौ नीवी स्त्रीकटीवस्त्रवन्धने । मूलद्रव्ये परिपणे प्लवः प्लले प्लतौ कपौ ॥ ५३४ शब्दे कारण्डवे म्लेच्छ जातो भेलकमेकयोः । क्रमनिम्नमहीभागे कुलके जलवायसे ॥ ५३५ जलान्तरे प्लवं गन्धतृणे मुस्तकभिद्यपि । पक्कं परिणते नाशाभिमुखे पार्श्वमन्तिके ॥ ५३६ कक्षाधोवयवे वैक्रोपायपशुसमूहयोः । प्राचं दूरपथे प्रवे बन्धे पूर्व तु पूर्वजे ॥ ५३७ प्रागडे श्रृंतभेदे च भवः सत्ताप्तिजन्मसु । रुद्रे श्रेयसि संसारे भावोऽभिप्रायवस्तुनोः ॥ ५३८ म्वभावजन्ममत्तात्मक्रियालीलाविभूतिषु । चेष्टायोन्योव॒धे जन्तौ शृङ्गागदेश्च कारणे ॥ ५३९ शब्दप्रवृत्तिहेतौ च रेवा मन्मथयोपिति । नील्यां मेकलकन्यायां लवः कालभिदि छिदि ।। ५४० विलासे गमजे लेशे लेदा पक्षिकुसुम्भयोः । लध्वी दस्वविवक्षायां प्रभेदे स्यन्दनस्य च ॥ ५४१ विश्वाः सुरेपु विश्वं तु शुण्ठ्यां भुवनकृत्स्नयोः । विश्वा विषायां शिवं तु मोक्षे क्षेमे सुखे जले ॥ शिवो योगान्तरे वेदे गुग्गली वालुके हरे । पुण्डरीके दुमे काले शिवा झाटामलोमयोः ॥५४३ फेरी शम्यां पयाधात्र्योः शिविर्भूज नृपान्तरे । शुल्वं ताम्र यज्ञकर्मण्याचारे जलसंनिधौ॥ ५४४ सत्त्वं द्रव्ये गुणे चित्ते व्यवसायस्वभावयोः । पिशाचादावात्मभावे वले प्राणेषु जन्तुषु ॥ ५४५ सान्त्व मामनिदाक्षिण्ये सुवा मूर्वा सुवः स्रुचि । हबस्तु समतन्तौ स्यान्निदेशाद्वानयोरपि ॥ ५४६ अंशुः सूत्रादिसूक्ष्मांशे किरणे चन्द्रदीधितौ । आशा कुकुभि तृष्णायामाशुस्तु व्रीहि शीघ्रयोः ५४७ ईशः स्वामिनि रुद्रे च स्यादीशा हलदण्डके । कोशस्तृणे रोगभेदे कीशः कपो दिगम्बरे ॥५४८ कुशो रामसुते दर्भ पापिष्टे योक्रमत्तयोः । कुशी लोविकारे स्यात्कुशा वला कुशं जले ॥ ५४९ कशः शिरसिजे पाशपाणौ होबेग्दैत्ययोः । क्लेशो गंगादौ दुःखे च कोशः कोप इवाण्डके ५५० कुमले चषके दिव्येऽर्थचये योनिशिम्बयोः । जातिकोषेऽसिपिधाने दर्शः सूर्येन्दुसंगमे ॥ ५५१ पक्षान्तेऽष्टौ दर्शने च दंशो वर्मणि मर्मणि । दोघे वनमक्षिकायां खण्डने भुजगक्षते ॥ ५५२ दशा वर्ताववस्थायां दशान्तु वसनाचले । नाशः पलायने मृत्यौ परिध्वस्तावदर्शने ॥ ५५३ निशा हरिद्रायां गत्रौ पशुश्छागे मृगादिषु । प्रमथेऽपि च पाशस्तु मृगपक्ष्यादिबन्धने ॥ ५५४ कर्णान्ते क्षोभनार्थः स्यात्कचान्ते निकरार्थकः । छात्राद्यन्ते च निन्दार्थः पेशी मांस्यसिकोशयोः ।। १. 'तो' ग-घ. 'तारुहस्तः' इति टीका. २. 'भिदोः शंभौ' ख-ग-घ. ३. 'आतिः शरारिः' इति टीका. ४. 'चक्रोपान्त' ग-घ. 'वक्रोऽन जुरुपायः' इति टीका. ५. 'पशुसमूह्योः' ख. ६. 'प्रागिति दिग् देशः कालो वा । अग्रे प्रथमतोऽर्थ । श्रुतभेदे आगमविशेपे' इति टीका. ७. 'श्रुतिभेदे' ख-ग-घ. ८. 'च यवो धान्ये पृथकृतौ । यावोऽलत्ते पाकभेदे रेवा' ख-ग-घ. ९. 'तथा किंजल्कपक्ष्मणोः । गोपुच्छलोमस्वपि च लटा' ख. १०. 'बालक' ख-ग-घ. 'वालुकमोपधिः' इति टीका, ११. 'अंशो विभाजने प्रोक्त एकदेशेऽपि वस्तुनः । अंशु' ख-ग-घ. १२. 'कशा स्याद श्वताडन्यां रज्जो मुख गुणेऽपि च' इत्यपीत: प्राक् ख-ग-ध. १३. रोगादौ' ग-घ. 'रागादयो विद्यास्मिताद्वेपाभिनिवेशाः' इति टीका. १४. 'पक्षान्तेष्टिः पक्षान्तयागः' इति टीका. १५. 'ब्धी' ख-ग-ध. १६. 'छत्राद्यन्ते' ख-ग-ध. For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ द्विस्वरकाण्डः । २१ मण्डभेदे पलपिण्डे सुपककणिकेऽपि च । भूस्पृश्वैश्ये मानवे च राशिमपादिपुञ्जयोः ॥ ५५६ वशो जनस्पृहायत्तेप्वायत्तत्वप्रभुत्वयोः । वशा नार्या वन्ध्यगव्यां हस्तिन्यां दुहितर्यपि ॥ ५५७ वंशः संधेऽन्वये वेणौ पृष्टाद्यवयवेऽपि च । वेशो वेश्यागृहे गेहे नेपथ्ये च शशः पशौ ॥ ५५८ बोले लोधे नृभेदे च स्पशो हेरिकयुद्धयोः । स्पों वर्गाक्षरे दाने स्पर्शने स्पर्शके रुजि ॥ ५५९ अक्षो ग्यस्यावयवे व्यवहारे विभीतके । पाशके शकटे कर्षे ज्ञाने चात्मनि गवणौ ॥ ५६० अक्षं सौवर्चले तुत्थे हृषीके स्यादुषा निशि | वाणपुत्र्यां च ऋक्षस्तु स्यान्नक्षत्राच्छभल्लयोः ॥ ५६१ महीधविशेषे च शोणके कृतवेधने । ऋषिदे मुनौ कर्षः कर्षणे मानभिद्यपि ॥ ५६२ कक्षो वीरुधिदोर्मले कच्छे शुष्कवने तृणे । पापे कक्षा विभरज्जौ काश्यां गहप्रकोष्टके ॥ ५६३ भित्तौ साम्ये रथभागेऽन्तीयपश्चिमाञ्चले । उद्गाहण्यां च कपस्तु तुषाग्नौ कृषिकुल्ययोः ॥ ५६४ घोषः कांस्ये वने गोपघोषकाभीरपल्लिषु । घोषा तु शतपुष्पायां चोक्षः सुन्दरगीतयोः ॥ ५६५ शुचौ झपस्तु मकरे वने मीने झपा पुनः । नागवलायां तुपस्तु धान्यत्वचि विभीतके॥ ५६६ दक्षः प्रजापती रुद्रवृपों ककुटे पटौ । द्रुमे दक्षा तु मेदिन्यां ध्वाङ्गः काके बकेऽधिनि ।। ५६७ गृहे ध्वाली तु ककोल्यां न्यक्षः कायनिकृष्टयोः। जामदग्न्येऽपि पक्षस्तु मासार्धे गृहसाध्ययोः । चुल्लीरन्ध्र बले पार्श्वे वर्गे केशात्परश्चये । पिच्छे विरोधे देहाङ्गे सहाये राजकुञ्जरे ॥ ५६९ पक्षो द्वीप गर्दभाण्टेऽश्वत्थे जटिनि पक्षके । प्रेक्षा धीरीक्षणं नृत्तं प्रेषो प्रेषणपीडने ॥ ५७० पापो मासप्रभेद स्यात्पापं तु मयुद्धयोः । भिक्षा मेवाप्रार्थनयोभतो भिक्षित वस्तुनि ॥ ५७१ मापो भान धान्यभेद मर्वे त्वग्दोपभिद्यपि । मिपं व्याने स्पर्धने च मेपो राड्यन्तरे हुडौ ।।५७२ मोक्षो निःश्रेयसे वृक्षविशेषे मोचने मृतौ । यक्षः श्रीदे गुह्यके व रक्षा रक्षणभस्मनोः ।। ५७३ रूक्षोऽस्निग्धपरुपयोर्लक्षं व्याजशरव्ययोः । संख्यायामपि वर्षस्तु समाद्वीपांशवृष्टिषु ॥ ५७४ धवरेऽपि वास्तु प्रावृष्यथ विषं जले । श्वेड विषा त्वतिविषा वृषो गव्याखुधर्मयोः ॥ ५७५ पुंगशिभेदयोः शृङ्गयां वासके शुक्रलेऽपि च । श्रेष्टे स्यादुत्तरस्थश्च वृषी तु व्रतिविष्ठरे ॥ ५७६ वृपा पुन: कपिकच्छां शुषिः शुपिरशोपयोः । शेषोऽनन्ते वधे सीरिण्युपयुक्तरेऽपि च ॥ ५७७ शेपा निर्माल्यदाने स्याच्छोपः शोषणयक्ष्मणोः । अचिर्मयूखशिखयोरदोऽत्र च परत्र च ॥ ५७८ आगः स्यादेनोवदा मन्तावाशीहितैषिणि । उरगस्य च दंष्ट्रायामुषः संध्याप्रभातयोः ॥ ५७९ उरो वक्षसि मुख्ये स्यादोजो दीप्तिप्रकाशयोः । अवष्टम्भे वले धातुतेजस्योकस्तु सद्मनि ।। ५८० ओकास्त्वाश्रयमात्रे स्यात्कंसस्तैजसमानयोः । पानपात्रे दैत्यभेदे कासूः शक्त्यायुधे रुजि ॥ ५८१ बुद्धौ विकलवाचि स्यादुत्सः स्तम्बगुलुञ्छयोः । हाम्भदे ग्रन्थिपणे गोसो बोलविभातयोः ॥ ५८२ चास इक्षुपक्षिभिदोश्छन्दः पद्येच्छयोः श्रुतौ । ज्यायान्वृद्धे प्रशस्ये च ज्योतिर्वह्निदिनेशयोः ५८३ १. 'गृहे' ख. २. हेरक' ख. ३. 'क्षतवेधने' ख. 'कृतंवेधनः कृतच्छिद्रः' इति टीका. ४. ऋपि' ख-ग-ध. ५. 'खरे' ख. ६. 'आभीर' ख. ७. 'नागलतायां' ग-घ. ८. 'कंकोल्यां' ख; 'काकोल्यां' ग-व. ९. 'यामदग्न्ये' ग-ब. १०. 'ग्रह' ख-ग-च. ११. 'बुद्धयोः' ख. १२. स्पर्शभेदे ख. १३. 'वर्षधरे' ख-ग-घ. १४. 'वृपीति ऋपि' ख. १५. 'चित्राकपिकच्छोः ' ख-ग-घ. १६. 'अंस: स्कन्धे विभागे स्यादसिः खड्ने नदीभिदि इत्यधिकमितः प्राक ख-ग-घ. १७. 'देनस्यव' ग-घ. 'एनोवदिति । आगःशब्द एन:शब्दश्चेत्यर्थः इति टीका. १८. 'स्योकं तु ग-ध. For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२ अभिधान संग्रह:: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । ५८७ ५९२ ५९३ ५९४ 1 प्रकाशे हंशि नक्षत्रे तपः कृच्छ्रादिकर्मणि । धर्मे लोकप्रभेदे तपाः शिशिरमावयोः || ५८४ तमो राहौ गुणे पापे ध्वान्ते तरी जवे बले । त्रासो भये मणिदोषे तेजस्विरेतसोले ॥ ५८५ नवनीते प्रभावेऽगौ दासो धीवरभृत्ययोः । वृषले दानपात्रे च दासी झिण्ट्यपि चेट्यपि ।। ५८६ धेनुः शरासने राशौ पियालद्वौ धनुर्धरे । नभो व्योम्नि नभा घ्राणे बिसतन्तौ पतहै ॥ प्रावृषि श्रवणे नासा घोणाद्वारोर्ध्वदारुणोः । पयः क्षीरे च नीरे च प्रसूरवा जनन्यपि ।। ५८८ aft: asa भासस्तु भासि गृधशकुन्तयोः । महस्तेजस्युत्सवे च मिसिर्मास्यजमोदयोः ॥ ५८९ शतपुष्पामधुर्योश्च मृत्सा वासी सुमृत्तिका । रसः स्वादे जले वीर्ये शृङ्गारादौ विषे द्रवे ।। ५९० बोले रांगे देहधातौ तिक्तादौ पारदेऽपि च । रसा तु रसनापाठामलकीक्षितिकङ्गुषु || ५९१ रहो गुह्ये रते तत्त्वे रजो रेणुपरागयोः । स्त्रीपुष्पे गुणभेदे च रासः क्रीडासु गोदुहाम || भाषाशृङ्खलके वत्सा उरस्तुरेवर्षर्णकाः । वयस्तारुण्ये बाल्यादौ खगे वर्चस्तु तेजसि ॥ गूथे रूपे वसुवन देवभेदे नृपे रूचि । यो शुष्के वसु स्वाद रत्ने वृद्ध्योपधे धने || वपुः शस्ताकृती देहे व्यासो मुनिप्रपञ्चयोः । वासो वेश्मन्यवस्थाने वासा स्यादाटरूषके । ५९५ विद्वान् ज्ञात्मविदः प्राज्ञे वेधा धातृज्ञविष्णुषु । शंसा वचसि वाञ्छायां शिरो मूर्धप्रधानयोः ॥ सेनाग्रभागे श्रेयस्तु मङ्गले धर्मशस्तयोः । सहो बले ज्योतिषि च सहा हेमन्तमासयोः ॥ ५९७ स्रोतः प्रवाहेन्द्रिययोर्हसोऽर्के मत्सरेऽच्युते । खगाश्वयोगिमत्रादिभेदेषु परमात्मनि || निर्लोभनृपत प्राणवाते श्रेष्ठेऽग्रतः स्थिते । हविः सर्पिषि होतव्ये हिंसा चौर्यादि के वधे । अहिः सर्वे वृत्रे वप्रे स्यादी होयमवाञ्छयोः । कुहूर्नष्टेन्दुदर्श स्यात्कणिते कोकिलस्य च ॥ ६०० ग्रो ग्रहणनिधानुग्रहेषु रणोद्यमे । उपरागे पूतनादावादित्यादौ वि ६०१ ग्राहो ग्रहे जलचरे गुहः स्कन्दे गुहा पुनः । गह्वरे सिंहपुच्छयां च गृहा दारेषु सद्मनि ।। ६०२ प्रौहो निपुणतर्फे स्याङ्गजाङ्घ्रिपर्वणोरपि । वर्ह पर्णे परीवारे कलापे बहु भूयसि || ज्यादिकासु च संख्यासु महात्सवतेजसी । मही भुवि नदीभेदे मोहौ मूर्च्छाविपर्ययौ । २०४ लोहं कालायसे सर्वतेज से जोङ्गिकेऽपि च । वहो वृषस्कन्धदेशे वायौ वाहोऽश्वमानयोः || ६०५ 93 ५९८ ५९९ ६०३ ६०७ वा तु वा स्याद्वयूहो निर्माणतर्कयोः । समूहे बलविन्यासे सहः क्षमे बलेऽपि च ।। ६०६ सही सहदेवायां कुमार्या नखभेषजे । मुद्गपर्ण्य च सिंहस्तु राशिभेदे मृगाधिपे ॥ श्रेष्ठे स्यादुत्तरस्थश्च सिंही स्वर्भाणुमातरि । वासावृहत्योः क्षुद्रायां स्नेहः प्रेम्णि वृतादिके ॥ ६०८ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रहे द्विस्वरकाण्डो द्वितीयः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ For Private and Personal Use Only ॥ त्रिस्वरकाण्ड: । अणुको निपुणेऽल्पे चाशोकौ कङ्केल्लिवञ्जुलौ । निःशोक पारदौ चाप्यशोका तु कटुरोहिणी ॥ ६०९ अभीको निर्भये ग्रेप्यनीकं रणसैन्ययोः । अलीकमप्रिये भाले वितथेऽनूकमन्त्रये ॥ ६१० १. 'दिशि' ग-व. 'हगत्र कनीनिकामध्यं यन्महः' इति टीका २. 'स्यात्' ख. २. 'वापे' गन्ध. ४. 'दासपात्रे' गन्घ. ५ ' धनुरिवासने' ख. ६. 'प्रियालद्रौ' ख ग घ ७ 'अश्रेति सगर्भा वडवा' इति टीका. ८. 'रोगे ख ग घ 'रागोऽनुरागः' इति टीका. ९. 'तुक् अपत्यम्' इति टीका. १०. 'शुक्रे' ख. ११. 'स्वर्ण' ख. १२. 'प्रासयो:' ग घ. १३. 'योग' ख. १४. 'स्वर्भानु' ख ग घ 'पूर्वपदात् इति णत्वम्' इत्यभिधानचिन्तामणिः. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः | २३ ६२० ६२१ ६२२ ६२३ atest गतजन्मन्यंशुकं सूक्ष्मवाससि । उतरी वस्त्रमात्रेऽप्यलका चूर्णकुन्तलाः ॥ ६११ अलका तु कुबेरस्य नगर्यामन्तिकं पुनः । पार्श्वेऽन्तिका तु चुल्लयां स्यात्सातलाख्यौषधेऽपि च६१२ अलर्को धैवलार्के स्याद्योगोन्मादितशुन्यपि । अम्बिकोमापाण्डुमात्रोदेवताभिदि मातरि ॥ ६१३ अन्धिका तु कैतवे स्यात्सर्पपीमियोरपि । अम्लिका तिन्तिडीकाम्लोङ्गारचाङ्गेरिकासु च ॥ ६१४ आलोको दर्शने वैन्दिघोषणोदयोतयोरपि । आनकः पटहे भेर्यो ध्वनन्मेघमृदङ्गयोः ॥ ६१५ आन्तको रुजि शङ्कायां संतापे मुरजध्वनौ । आह्निकं स्यात्पुनरहर्निर्वृत्ते नित्यकर्मणि ॥ ६१६ भोजने ग्रन्थभागे चाढकः प्रस्थचतुष्टयम् । आढकी तुत्ररीक्ष्वाकुः कटुतुम्ब्यां नृपान्तरे ।। ६१७ उदर्कस्तूत्तरकालफले मदनकण्टके । उष्णको धर्म उद्युक्त्तारयोरूर्मिका पुनः ॥ ६१८ उत्कण्ठायां भृङ्गनादे वस्त्रभङ्गेऽङ्गुलीयके । वीच्यां च कनकं हेनि कनको नागकेसरे ॥ ६१९ धत्तरे चम्पके काञ्चनार किंशुकयोरपि । करको दाडिमे पक्षिभेदे करे कमण्डलौ ॥ लाकरञ्जयोर्वर्षोपले च कटुकं कटु | कटुरोहिणी व्योषं च कञ्चुकलचर्मणोः ॥ वर्धापकगृहीताङ्गसने वीरवाणके । निर्मोके कटकस्त्वद्रिनितम्बे बाहुभूषणे ॥ सेनायां राजधान्यां च क्रमुको भद्रमुस्तके | गूवाके पट्टिकालोध्रे कण्टकः क्षुद्रवैरिणि ॥ art मा रोमाचे कलङ्कोऽङ्कापवादयोः । कालायसमले चापि कणिका कर्णभूषणे ॥ बीजकोशे सरोजस्य करमध्याङ्गुलावपि । कुट्टिन्यां हस्तिहस्ताये कणिका सूक्ष्मवस्तुनि || अम्मिन्थे कामुकास्तु काम्यशोकातिमुक्तकाः । कारकं कर्तृकर्मा कारिका यातना नटी ||६२६ "कृतिर्विवरणश्लोको नापितादिककर्म च । कावृकः कुक्कुटे कोके पीतमुण्डेऽथ कार्मुकः ॥ ६२७ वंशे कार्मुकमिष्वासे कर्मठे क्षारको रसे । कोरके पक्ष्यादिपाशे कालिका योगिनीभिदि || ६२८ स्वर्णादिदोषे मेघाल्यां सुरागौर्योर्नवाम्बुदे । क्रमदेयवस्तुमूल्ये कार्ण्यवृश्चिकपत्रयोः || ६२९ रोमाल्यां धूमरीमांस्योः काकीपटोलशाखयोः । किंपाको वृक्षभिज्ञे कीटको निठुरे कुमौ ॥ ६३० कीचको ध्वनिमशेदैत्यभेदे द्रुमान्तरे । कुलकं पर लोक समन्वये पटोलके ॥ ६३१ कुलकः कुलप्रधाने वल्मीके काकतिन्दुके । कुलिकस्तु कुलश्रेष्ठे द्रुमनागविशेषयोः ॥ ६३२ कुशिको मुनिभेदे स्यात्फाले सर्जे विभीतके । क्षुल्लकः पामरे स्वल्पे कनिष्ठे 'दुः स्थिते खले ||३३३ कुंचिका क्षीरविकृतौ कुञ्चिकायां च कुमले । आलेख्यकूर्चिकासूच्योः कृषकौ फालकर्षकौ ।। ६३४ कोरकं तु कुड्मले स्यात्कक्कोलकमृणालयोः । कौतुकं नर्मणीच्छायामुत्सवे कुतुके मुदि ॥ पारम्पर्यागतख्याते मङ्गलोद्वाह सूत्रयोः । गीतादौ भोगकाले च कौशिकः शक्रघूकयोः ॥ कोशज्ञे गुग्गुलावाहितुण्डिके नकुले मुनौ । कौशिकी चण्डिकानद्योः खनकः संधितस्करे || ६३७ ६२४ ६२५ ¡ ६३५ ६३६ १. 'गतजन्मा परिणतवया:' इति टीका. २. 'नाट्योक्तौ ज्येष्ठभगिनी अन्तिका प्रोच्यतेऽपि सा' इत्यधिकमितः प्राक् ख ग घ ३. 'नृपे श्वेतार्के योगो' ख ग घ ४. 'सर्पप्यां रात्रियोषितो : ' ख; ‘सर्षपीसिद्धयोः’ ग-व. ५. 'मिद्धं निद्राकैतवम्' इति टीका. ६. 'वन्दिभाषणो' ख ग घ ७. 'नदन्मे' ख. ८. 'उलूकः स्यात्काकशत्राविन्द्रे भारतयोधिनि । उष्ट्रिका मृद्भाण्डभेदे करभस्य च योषिति ॥' इत्यधिकमितः प्राक् ख ग घ . ९. 'हस्ते' ख. १०. 'व्योपयोश्च' ग व ११. 'कर्मणोः ' ख; 'वस्त्रयोः ' ग घ 'चर्म कवचम्' इति टीका. १२. 'वारवाणके नृनिचोले' इति टीका. १३. 'कृतौ विवरणश्लोके नापितादिककर्मणि' ख १४. ' कांस्योः ' ग-व. १५. ‘अज्ञो मूर्खः' इति टीका. १६. 'कृशे' ख. १७. 'फले' ख. १८. 'दुःखिते' ख ग घ १९. 'कूपको गुणवृक्षे स्यात्तैलपात्रे ककुन्दरे' इत्यधिकमितः प्राक् ख ग घ . १२ For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । मूषिके भूमिवित्तज्ञे खट्टिको मांसविक्रयी । महिषीक्षीरफेनश्च खल्लकः स्वल्पनीचयोः ॥ ६३८ खोलकः पूगकोशे स्याच्छिरने नाकुपाकयोः । ग्रन्थिकं पिप्पलीमूले प्रन्थिपर्णकभेषजे ॥ ६३९ ग्रेन्थिको गुग्गुलौ दैवज्ञे माद्रेयकरीरयोः । गण्डको विन्ने विद्यायां संख्यावच्छेदखङ्गिषु ॥ ६४० गण्डकी तु सरिदेदे गणको ग्रहवेदिनि । गणिकेभ्यां यूथिकायां तर्कार्या पण्ययोषिति ॥ ६४१ ग्राहको ग्रहीतरि स्थाव्याधानां घातिपक्षिणि । गान्धिको लेखके गन्धवाणिजे गुण्डकः पुनः।।६४२ कलौक्तौ मैलने धूलौ स्नेहपात्रेऽथ गैरिकम् । स्वर्णे धातौ गोलकस्तु जारतो विधवासुते ॥ ६४३ अलिअरे गुडे वापि गोरकर्ननवन्दिनोः । खगे च चषको मद्ये सरके मद्यभाजने ॥ ६४४ चलुकः प्रसृतौ भाण्डप्रभेदे चुलुको यथा । चारकोऽश्वादिपाले स्याद्वन्धे संचारकेऽपि च ॥६४५ चित्रकस्तु चित्रकाये द्रुमौषधविशेषयोः । चुम्बकः कामुके धूर्ते बहुगुर्वश्मभेदयोः ॥ ६४६ चुलुकी कुण्डिकाभेदे शिशुमारे कुलान्तरे । चूतकः कूप आने च चूलिका नाटिकाङ्गके ॥६४७ करिणः कर्णमूले च जनकः पितृभूपयोः । जम्बुको वरुणे फेरौ जतुकं हिङ्गुलाक्षयोः ॥ ६४८ जतुका चर्मचटका जीवको वृद्धिजीविनि । क्षपणे प्राणके पीतसालसेवकयो मे ॥ ६४९ व्यालग्राहे जीविका तु जीवन्त्यां वर्तनेऽपि च । झिल्लीका झिल्लिकावत्स्याची- रुच्यातपस्य च६५० विलेपनस्य च मले तक्षकस्तक्ष्णि पन्नगे । द्रुमभेदे तण्डकस्तु समस्तपदजातके । तरुस्कन्धे वेश्मदारुमायाबहुलयोरपि । फेनखञ्जनयोश्चापि तारकः कर्णधारके ॥ ६५२ दैत्ये च तारकमुडौ नेत्रतन्मध्ययोरपि । तिलकोऽश्वद्रुमभिदोः पुण्डके तिलकालके ॥ ६५३ तिलकं रुचके 'क्लोनि त्रिशङ्कः शलभे नृपे । मार्जारे च तुरुष्कस्तु देशे श्रीवाससिल्हयोः॥६५४ तूलिका तूलशय्या स्वादालेख्यस्य च लेखनी । दर्शको दर्शयितरि प्रतीहारप्रवीणयोः॥ ६५५ द्रावकस्तु शिलाभेदे स्यादोषकविदग्धयोः । दारको भेदके पुत्र दीपकं स्यादलंकृतिः ॥ ६५६ दीपकौ दीप्तिकृद्दीपौ दीप्य त्वजमोदके । मयूरशिखायवान्योर्धनिको धान्यके धवे ॥ ६५७ धनाढ्ये धनिका वध्वां धेनुका धेनुरिभ्यपि । धेनुकं धेनुसंहत्या करणेऽपि च योषिताम् ॥ ६५८ नरको दैत्यनिरयौ नन्दकः कुलपालके । हर्षके विष्णुखड़े च नर्तकः केलके नटे ॥ ६५९ द्विपे पोटगले चापि नर्तकी लासिका द्विपी। नालीकोऽज्ञे शरे शल्ये नाली पद्मद्वने ॥६६० नायको मणिभिन्नेतृप्रधानेष्वय नालिका । नाले काले चुल्लिरन्ध्रे विवरे वेणुभाजने ॥ ६६१ निपाकः पचने स्वेदासत्कर्मफलयोरपि । निर्मोको व्योनि संनाहे मोक्षके सर्पक के ॥ ६६२ १. 'खुल्लक:' ख-ग-घ. २. 'ग्रन्थिलो' ख. ३. 'मलिने' ग-घ. 'मलनं धारणम्' इति टीका. ४. 'पिण्डे खग-घ, ५. 'चुलको ख. ६. 'चतुष्की मशकों पुष्करिण्यन्तरेऽपि च' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-घ. ७. 'चित्रकारे' ख-ग-घ. 'चित्रकायः श्वापदविशेषः' इति टीका. ८. 'चुल्लकी' ग-घ. ९. 'भूषयोः' ग-घ. १०. 'क्षेपणे' ख, 'क्षपणः श्रमणः' इति टीका. ११. 'समस्तपदपुस्तके' ग-घ. 'समस्तपदजातके कृतसमासपदसमूहे' इति टीका. १२. 'तालाङ्कः करपत्रे स्याच्छाकभेदेऽच्युताग्रजे। महालक्षणसंपूर्णपुरुषे कच्छपे हरे ॥' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-ध. १३. 'लोम्नि' ग-ध. 'क्लोम हृदयस्य दक्षिणे उदयो जलाधारः' इति टीका. १४. 'स्यात्प्रोपक' ग-ध. १५. 'र्दूषिका तूलिका स्मृता । नयनस्य मलेऽपि स्यादमिको ख-ग-घ, १६. 'रित्यपि' ख-ग-घ. १७. 'ननिकानृतुकन्यायां नग्नको जिनवन्दिनोः' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-घ, १८. 'बन्धने' ख; 'वर्धने' ग-घ, १९. 'निराकः' ग-घ, २०. 'नीलिका नीलिनीक्षुद्ररोगशेफालिकास्वपि' इत्यधिकमितः प्राक् ख. For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्तरकाण्डः । २५ ६६४ ६७० ६७१ ६७२ ६७३ ६७४ पर्यङ्को मश्वपर्यस्त्योः प्रतीकोऽङ्गप्रतीपयोः । पताकाङ्के ध्वजे केतौ सौभाग्ये नाटकांशके || ६६३ पातुको जमातङ्गे पतयालुप्रपातयोः । प्राणको जीवकतरौ सत्त्वजातीयबोलेयोः ॥ पाटको रोधसि प्रामैकदेशेऽक्षादिपातके | वाद्यभेदे महाकिष्कौ मूल्यस्यापचयेऽपि च ॥ ६६५ पालङ्कः शाकभेदे स्यात्तल्लक्यां वाजिपक्षिणि । पिनाक: शिवकोदण्डे पांशुवृष्टित्रिशूलयोः ॥६६६ प्रियकस्तु चञ्चरीके नीपे कश्मीरजन्मनि । प्रियंगौ चित्रहरणे पीतसालतरावपि ॥ ६६७ पिष्टको नेत्ररोगे स्याद्धान्यादिचमसेऽपि च । पिण्याकः कुङ्कुमे हिङ्गौ सिल्हके तिलचूर्णके || ६६८ पुलको गैजान्नपिण्डे रोमाचे प्रस्तरान्तरे । अस्रुराज्यां मणिदोषे गल्व तालके कृमौ ॥ ६६९ पुलाको भक्तसिक्थेस्यात्संक्षेपासारधान्ययोः । पुष्पकं मृतिकाङ्गारशकट्यां रत्नकङ्कणे || कासीसे श्रीदविमाने नेत्ररोगे रसाञ्जने । लोहकांस्ये रीरिकायां पुत्रकः शरभे शठे ॥ शैले वृक्षप्रभेदे च पुत्रिका यात्रतूलिके । पाञ्चालिकादुहित्रोश्च पूर्णकः स्वर्णचूडके ॥ पूर्णिका नासिकायां पृथुकश्चिपिटेऽर्भके । पृदाकुचित्रकव्याघ्रवृश्चिकेषु सरीसृपे ॥ पेचकः करिलाङ्गलमूले घूकेऽथ पेटकम् । मञ्जूषायां समूहे च बहुको जलखादके ॥ दात्यूहेकर्कटेऽर्केच बन्धूकः पीतसालके । बन्धुजीवे बन्धकस्तु सत्यंकारेऽथ बन्धकी ॥ ६७५ स्वैरिण्यां च करिण्यां च बालिका कर्णभूषणे । पिच्छोलायां वालुकायां बालायां भस्मकं रुजि ६७६ विडङ्गे कलधौते च भ्रामकः फेरुधूर्तयोः । सूर्यावर्तेऽश्मभेदे च भालाङ्कः कच्छपे हरे ॥ ६७७ महालक्षणसंपूर्णपुरुषे करपत्रके । रोहिते शाकभेदे च भूतीकं कट्फलौषधे ॥ यवान्यां घनसारे च भूनिम्बे भूस्तृणेऽपि च । भूमिका तु रचनायां रूपान्तरपरिग्रहे ॥ मशकः क्षुद्ररुग्जन्तुभेदयोर्मधुकं त्रपु । मधुयष्टिश्च मधुको वन्दिश्रीवदक्षिणोः ॥ मण्डूकी मण्डूकपर्ण्य मण्डूकौ भेकशोणकौ । मल्लिको हंसभेदे स्यान्मल्लिका कुसुमान्तरे ६८१ मीने मृत्पात्रभेदे च मातृका करणेश्वरे । मातृवर्णसमाम्नायोपमातृष्वथ मालिका || पक्षिम सरिद्भेदे वे पुष्पदामनि । मेचकः श्यामले कृष्णे तिमिरे बर्हिचन्द्रिके ॥ मोचको मोक्षकदलीशिग्रुडुमविरागिषु । मोदको 'हेर्नुले खाद्ये यमको यमजे व्रते ॥ यमकं वागलंकारे याजको राजकुञ्जरे । याज्ञिके च युतकं तु यौतके युग्मयुक्तयोः ॥ संशये चैलनाग्रे स्त्रीवस्त्रभेदे पटाञ्चले । रजकौ धावकशुकौ रसिका कटिसूत्रके ॥ रसनायां रसालायां त्रिकं पञ्चरात्रके । रात्रकस्तु पणवधू गृहान्तर्वर्षवासिनि ॥ I राजिका पङ्कौ रेखायां केदारे राजसर्ष । रुचकं तु मातुलुङ्गे निष्के सौवर्चलेऽपि च ॥ ६७८ ६७९ ६८० ६८२ For Private and Personal Use Only ६८३ ६८४ ६८५ ६८६ ६८७ ६८८ १. 'पद्मकः स्यात्पद्मकाष्ठे बिन्दुजालकयोरपि । पक्षकस्तु पार्श्वद्वारे पार्श्वमात्रेऽपि कथ्यते ॥' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-घ. २. 'वालयोः' ख. ३. 'पावकोऽयौ सदाचारे वह्निमन्थे च चित्रके । भल्लातके विडङ्गे च शोधयितृनरेऽपि च ॥' इत्यधिकमितः प्राक् ख ग घ ४. 'पिटकः स्यात्तु विस्फोटे मञ्जूषायामपीष्यते' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-घ. ५. 'यज्ञाङ्गखण्डे' ख. ६. 'असुराज्यां' ग घ ७. 'रीतिकायां' ख ग घ ८. 'छित्त्यां' गन्ध. ९. 'बालकः पुनः । शिशौ मूर्खेऽश्वगजयोर्वालधौ' इत्यधिकमितः प्राक् ख ग घ १०. 'श्रीवह' ख. ११. 'मण्डूको भेकशोणयोः ' ग घ १२. 'मामकं तु मदीये स्यान्मामको मातुले स्मृतः' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-ध. १३. 'हर्षुके' ग घ १४. 'राजकुञ्जरो भूपश्रेष्ठः' इति टीका. १५. 'चलनामे चण्डातकाये' इति टीका. १६. 'बल्लकः कम्बले स्मृतः । तथैव कम्बलमृगे' इत्यधिकमितः प्राक् ख ग घ . Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ अभिधान संग्रहः :-८ अनेकार्थसंग्रहः । ६८९ ६९७ ६९८ ६९९ ७०० रूपकं नाटकाद्येषु काव्यालंकारधूर्तयोः । रेणुका तु हरेण्वां स्याज्जमदग्नेश्च योषिति || लम्पाको लम्पटे देशे लासको केकिनर्तकौ । लूनकस्तु पशौ भिन्ने लोचको नीलवाससि ॥ ६९० कज्जले मांसपिण्डेऽक्षितारे स्त्रीभालभूषणे । निर्बुद्धौ कर्णिकामोचाज्यासु भ्रूथचर्मणि ॥ ६९१ वराकः शोच्यरणयोर्वर्तकोऽश्वखुरे खगे । वञ्चको जम्बुके गेहनकुले खलधूर्तयोः || ६९२ वैल्मीको नाकुवाल्मीक्यो रोगभेदेऽथ वर्णकः । विलेपने मलयजे चारणे वसुकं पुनः ।। ६९३ रोमके वसुकस्तु स्याच्छिवमध्यर्कपर्णयोः । व्यलीकं व्यङ्गवैलक्ष्याप्रियाकार्येषु पीडने || ६९४ वार्षिकं त्रायमाणायां वर्षाभवेऽथ वाल्हिकः । देशभेदेऽश्वभेदे च वाल्हिकं हिङ्गु कुङ्कुमम् ||६९५ वाल्हीद्वार्ध वृद्धले वृद्धकर्मणि । वृद्धानां समवाये च वालुकं हरिवालुके ॥ ६९६ वालुका तु सिकतासु वितर्कः संशयोहयोः । विपाकः परिणामे स्यादुर्गतिस्वादुनोरपि ॥ विवेकः पुनरेकान्ते जलद्रोणीविचारयोः । वृषाङ्कः साधुभाशंकरेषु महल || वृश्चिकस्तु द्रुणे राशावौषधे शुककीटके । वैजिकं कारणे शिग्रुतैले च वैजिकोऽङ्कुरे ॥ शङ्खकं वलये कौ शङ्खकस्तु शिरोरुजि । शम्पाकस्तु विपाके स्याद्यावके चतुरङ्गुले ॥ शम्बूको दैत्यविशेषे करिकुम्भान्तशङ्खयोः । शलाका शारिका शल्यं श्वाविदालेख्य कूर्चिका ।। ७०१ छत्रपञ्जरकाष्ठीषु शलकी विधि द्रुमे । शार्ककः स्याद्दुग्धफेने शर्करायाश्च पिण्डके || ७०२ शिशुकः पादपे वाले शिशुमारेऽथ शीतकः । शीतकालेऽलसे स्वस्थे शूककः प्रवटे रसे || ७०३ स्वस्तिको मङ्गलद्रव्ये गृहभेदचतुष्कयोः । स्यमीकः पादपे नाकौ स्यात्स्यमीका तु नीलिका ||७०४ सरको मदिरापात्रे मदिरापानमद्ययोः । सस्यको नालिकेरान्तः सस्याभमणिखङ्गयोः ॥ ७०५ संपर्कः सुरते पृक्तौ सायको वाणखङ्गयोः । स्थासको हस्तविम्वे स्यात्स्फुरकादेश्च बुद्बुदे ॥ ७०६ सूतकं जन्मनि रसे सूचकः शुनि दुर्जने । कथके सीवनद्रव्ये माजरे वायसेऽपिच ॥ ७०७ सुदाकुर्वत्रे दावानौ प्रतिसूर्ये समीरणे । सेवकोऽनुगे प्रसेवे सेचकः सेत्तृमेधयोः ॥ हारको गद्यविज्ञानभिदोः कितवचौरयोः । हुडुको मदमत्ते स्यादात्यूहे वाद्यभिद्यपि || कस्तु महाकालगणबुद्धविशेषयोः । गोमुखं वाद्यभाण्डे स्याल्लेपने कुटिलौकसि || त्रिशिखो रक्षस्त्रिशिखं स्यात्किरीटत्रिशूलयोः । दुर्मुखो मुखरे नागराजे वाजिनि वानरे || ७११ प्रमुखं प्रथमे मुख्ये मयूखा ज्वालरुक्त्विषः । विशिखा खनित्रिकायां रथ्यायां विशिखः शरे ७१२ विशाखा याच स्कन्दे विशाखा में कटिल | वैशाखः खजके रांधे सुमुखो गरुडात्मजे ७१३ पण्डिते फणिभेदे स्यादयोगः कठिनोद्यमे । विश्लेषे विधुरे कूटेऽपाङ्गो नेत्रान्तपुण्ड्रयोः ॥ ७१४ अङ्गहीनेऽप्यनङ्गं खे चित्तेऽनङ्गस्तु मन्मथे । आभोगः परिपूर्णत्वे वरुणच्छत्रयत्नयोः ॥ ७१५ आयोगो गन्धमाल्योपहारे व्याप्रतिरोधयोः । आशुगोऽकै शरे वायावुत्सर्गरत्यागदानयोः ॥ ७१६ वर्जने सामान्यविधावुद्वेगं पूगिकाफले । उद्वेगस्तूद्वेजने स्याकैलिङ्गो नीवृदन्तरे ॥ पूतीकर धूम्याटे स्यात्कलिङ्गा नितम्बिनी । कलिङ्ग कोटजफले कालिङ्गस्तु भुजङ्गमे ॥ ७१८ द्विरदे भूमिकर्कारौ कालिङ्गी राजकर्कटी | चक्राङ्गः श्वेतगरुति चक्राङ्गी कटुरोहिणी ॥ ७१९ ७०८ ७०९ ७१० ७१७ १. 'नाटके प्रोक्तं' ख ग घ २. 'ज्या प्रश्लथ' ख ग घ ३. 'व्यलीकं व्यङ्गवैलक्ष्याप्रियाकार्येषु पीडने ' इतीतः प्राक् ख ग घ ४. 'वारणे' ख. ५. 'महल्लक: सौविदल्ल:' इति टीका. ६. 'प्रवृद्धोऽवटः कूपः ' इति टीका. ७. 'समीहा तु' ख. ८ 'मद्ययोः' ख ९. 'हाटको' ख. १०. 'मासे' ख ११. 'स्तिभिते शीप्रगामिनी । उद्वाहौ च भवेऽपि स्यात्' इत्यधिकमितः प्राकू ख ग व. For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः। २७ जिह्मगो मन्दगे सर्प तुरगो वाजिचित्तयोः । तुरगी त्वश्वगन्धायां धाराङ्गस्तीर्थखङ्गयोः ।। ७२० नैरङ्गं शफे वरण्डे नारङ्गं विटजन्मिनोः । कणारसे नागरङ्गे निषङ्गस्तूणसङ्गयोः ॥ ७२१ निसर्गः सृष्टौ स्वभावे प्लेवगः कपिभेकयोः । अर्कसूते पन्नगस्तु पद्मकाष्ठे भुजङ्गमे ॥ ७२२ परागश्चन्दने रेणौ गिरौ ख्यात्युपरागयोः । नानीयपुष्परजसोः पतङ्गः सूर्यपक्षिणोः॥ ७२३ पारते शलभे शालौ पत्राङ्गं रक्तचन्दने । भूर्जपद्मकयोश्चापि प्रयागो वाजिशक्रयोः ॥ ७२४ यज्ञे तीर्थविशेषे च प्रयोगस्तु निदर्शने । कार्मणे च प्रयुक्तौ च प्रियङ्ग राजसपे ॥ ७२५ पिप्पल्यां फलिनीकङ्ग्वोः पुन्नागः पादपान्तरे | जातीफले नरश्रेष्टे भुजङ्गः सर्पषिड्योः ॥ ७२६ मातङ्गः श्वपचो हस्ती मृदङ्गो घोषवाद्ययोः । रक्ताङ्गो भौमे रक्ताङ्गं कम्पल्लथे विद्रुमेऽपि च ७२७ रक्ताङ्गा जीवन्तिकायां रथाङ्गः कोकपक्षिणि । रथाङ्गं चक्रे वराङ्ग योनौ शीर्षे गुडत्वचि ७२८ कुञ्जरे च विडङ्गस्तु स्यादभिज्ञकृमिन्नयोः । विसर्गो विसर्जनीये वर्चसि त्यागदानयोः ॥ ७२९ संभोगो भोगरतयोः शुण्डायां सर्वगं जले । सर्वगस्तु विभौ रुद्रे सारङ्गो विहगान्तरे॥ ७३० चातके चञ्चरीके च द्विपैणशवलेषु च । अमोघः सफलेऽमोघा पुनः पथ्याविडङ्गयोः ॥ ७३१ अनघः स्याद्गतपापे मनोज्ञे निर्मलेऽपि च । उल्लाघो निपुणे ह्रष्टे शुचिनीरोगयोरपि ॥ ७३२ काचिघस्तु मूषके स्याच्छान्तकुम्भे छमण्डके । परिघोऽस्त्रे योगभेदे परिघातेऽर्गलेऽपि च ॥७३३ पलिघः काचकलशे घटे प्राकारगोपुरे । प्रतिघौ रुट्प्रतीघातौ महा? लावकाण्डजे ॥ ७३४ महामूल्येऽप्यवीचिस्त्वतरङ्गे नरकान्तरे । कवचस्तु तनुत्राणे पटहे नन्दिपादपे ॥ ७३५ क्रकचः करपत्रे स्याद्गन्धिलाख्यतरावपि । कणीचिः पुष्पितलतागुञ्जयोः शकटेऽपि च ॥ ७३६ नमुचिदितिजे कामे नाराचो लोहसायके । जैलेभे नाराच्येषण्यां प्रपञ्चो विप्रलम्भने ॥ ७३६ विस्तारे संचये चापि मरीचिः कृपणे घृणौ । ऋषिभेदे च मारीचः ककोले योजकद्विपे ॥ ७३७ रक्षोभेदेऽथाण्डजः स्यात्कंक्किण्डेऽहौ खगे झषे । अण्डजा तु मृगनाभावङ्गजो मन्मथे सुते ७२८ मदे केशेऽङ्गजं रक्ते कम्बोजो नीवृदन्तरे । शङ्खहस्तिभेदयोश्च करजो नखवृक्षयोः॥ ७३९ काम्बोजः पुनरश्वानां भेदे पुंनागपादपे । वलक्षखदिरे चापि काम्बोजी माषपर्णिका ॥ ७४० कारुजः कलभे फेने वल्मीके नागकेसरे । गैरिके शिल्पिनां चित्रे स्वयंजाततिलेऽपि च ॥ ७४१ कुटजोऽगस्त्ये दुभेदे द्रोणे गिरिजमभ्रके । शिलाजतुनि लोहे च गिरिजा मातुलुङ्गयुमा । ७४२ जलजं कमले शङ्के नीरजं पद्मकुष्ठयोः । परजोऽसौ तैलयत्रे क्षुरिकाफलफेनयोः ॥ ७४३ बाहुजस्तु स्वयंजाततिले क्षत्रियकीरयोः । भूमिजौ नरकाङ्गारौ भूमिजा जनकात्मजा ॥ ७४४ बलजं गोपुरे सस्ये क्षेत्रसंगरयोरपि । सदाकारे बलजा तु पृथिव्यां वरयोषिति ॥ ७४५ ___१. 'मदने' ग-घ. २. 'नराङ्गः' ग-ध. ३. 'सर्गे' ग-घ. ४. 'नीलाङ्गः कृमिजातिके । भम्भराल्यां प्रसूने च' इत्यधिकमितः प्राक् ख-ग-ध. ५. 'पद्मकोष्ठे' ख-ग-घ. ६. 'कर्मणि' ग-घ. ७. 'खिङ्गयोः' ख.८. 'दुष्टे' गघ. ९. 'शेमण्डके ग-घ. 'छमण्डकः प्रदेशविशेषः' इति टीका. १०. वीचिस्तु तरङ्गे' ख; 'वीचिस्तर' ग-घ. ११. 'जलहस्ती' इति टीका. १२. 'याशिकद्विजे' ख. 'याजकस्य द्विपः' इति टीका. १३. 'प्यण्डजः' ख. १४. 'च्छरटे' ग-घ. 'ककिण्डः कृकलासः' इति टीका. १५. 'मृगनाभ्यां स्याद' ख; 'तु मृगीनाभ्यां' ग-घ. १६. 'सुन्दरे च कम्बोजो' ख. १७. 'संगमयोर' ख. १. मेदिन्यामपि 'काचिघः काञ्चनेऽपि स्याच्छेमण्डे मूषकेऽपि च' इत्येकारप्रथम एव दृश्यते. For Private and Personal Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । बनजो मुस्तके स्तम्बेरमे वनजमम्बुजे । वनजा तु मुद्गपर्यो सहजः सहसंभवे ॥ ७४६ निसर्गे च सामजस्तु सामोत्थे कुअरेऽपि च | हिमजो मेनकापुत्रे हिमजा पार्वती शढी ॥ ७४७ क्षेत्रज्ञावात्मनिपुणो दोषज्ञः प्राज्ञवैद्ययोः । सर्वज्ञस्तु जिनेन्द्रे स्यात्सुगते शंकरेऽपि च ॥ ७४८ अवटः कृपखिलयोर्गर्ते कुहकजीविनि । अरिष्टो लशुने निम्बे फेनिले कङ्ककाकयोः ॥ ७४९ अरिष्टं सत्यगारेऽन्तचिट्टे तक्रे शुभेऽशुभे । अवटुर्गन्धुिघाटासूत्कटस्तीत्रमत्तयोः ॥ ७५० उच्चटा दम्भचर्यायां प्रभेदे लशुनस्य च । करटः करिगण्डे स्यात्कुसुम्भे निन्द्यजीवने ॥ ७५१ काके वाद्ये दुर्दुरूढे नवश्राद्धेऽथ कर्कटः । कुलीरे करणे स्त्रीणां राशौ खगेऽथ कर्कटी॥ ७५२ शाल्मलीफलवालुकयोः कार्यटो जतुकार्यिणोः । कीटकः कृपणे निःस्वे देशभेदे तुरङ्गमे ॥ ७५३ कुरण्टो झिण्टिकाभेदे कुरण्टी दारुपुत्रिका । कुक्कुटः कुकुभे ताम्रचूडे वह्निकणेऽपि च ॥ ७५४ निषादशूद्रयोः पुत्रे कृपीटस्तूदरे जले । चक्राटो धूर्ते दीनारे विषवैद्येऽथ चर्पटः॥ ७६५ चपेटे स्फारविपुले पर्पटे चिपुटः पुनः । पृथुके पिञ्चटेऽपि स्याच्चिरण्टी तु सुवासिनी ॥ ७५६ तरुणी च जकूटस्तु वार्ताककुसुमे शुनि । येमले व्यङ्गटो धौताञ्जन्यां शिक्यभिदीश्वरे ॥ ७५७ त्रिकूट सिन्धुलवणे त्रिकूटस्तु सुवेलके । त्रिपुटौ तीरसातीनौ त्रिपुटा त्रिवृदोषधौ ॥ ७५८ सूक्ष्मैलायां मल्लिकायां द्रोहाटो मृगलुब्धके । चतुष्पदीप्रभेदे च विडालतिकेऽपि च ॥ ६५९ धाराटश्चातकेऽश्वे च निर्दटो निष्प्रयोजने । निर्दयेऽन्यदोषरते निष्कुटो गृहवाटिका ॥ ७६० केदारकः कपाटश्च पर्पटो भेषजान्तरे । पिष्टविकृतौ परीष्टिः परीक्षापरिचर्ययोः ॥ ७६१ स्यात्पर्कटी प्लक्षतरौ पूगादेनूतने फले । पिञ्चटस्तु नेत्ररोगे पिञ्चटं त्रपुसीसयोः ॥ ७६२ वर्वटी व्रीहिभिद्रेश्या भीकूटः शैलमीनयोः । भावाटो भावके साधुनिवेशे कामुकेऽपि च ॥ ७६३ मर्कटस्तु कपावर्णनाभे स्त्रीकरणान्तरे । मर्कटी करञ्जभेदे शूकशिम्ब्यथ मोरटम् ॥ ७६४ सप्तरात्रात्परे क्षीरेऽङ्कोष्टपुष्पेक्षुमूलयोः । मोरटा तु मूर्विकायां मोचाटः कृष्णजीरके ॥ ७६५ चन्दने कदलीगर्भे वर्णाटश्चित्रकारिणि । गायने स्त्रीकृताजीवे वरटा हंसयोषिति ॥ ७६६ गन्धोल्यां चाथ विकटः कराले पृथुरम्ययोः । वेकटो जाततारुण्ये मणिकारेऽथ वेरटः॥ ७६७ मिश्रीकृते च नीचे च वेरटं वदरीफले । शैलाटो देवले शुक्लकाचे सिंहकिरातयोः ॥ ७६८ संसृष्टं तु मंगते स्याच्छुद्धे च वमनादिना । अम्बष्ठो विप्रतो वेश्यातनये नीवृदन्तरे ॥ ७६९ १. 'शची' ग-घ. २. 'न्तश्चिद्दे' ख-ग-घ. 'अन्तचिदे मरणचिद्दे' इति टीका. ३. धर्तदीनार. विष' ग-घ. ४. 'पिच्चटे खाद्यभेदे स्याद्विस्तृतावपि । चिरण्टी तु सुवासिन्यां स्याद्वितीयवयःस्त्रियाम् । जकुटं वार्ताकपुष्पे जकुटो मलये शुनि । व्यङ्गटं शिक्यभेदे स्याद्धौताञ्जन्यामाप स्मृतम् ।' ख. ५. 'यमलं युग्मम्' इति टीका. ६. 'स्याच्चैव पिष्टविकृतौ परीक्षा' ग-घ. ७. 'स्यात्पर्पटी' ख; 'स्यात्कर्कटी' ग-घ. 'पृच्यते पर्कटी' इति टीका, ८. 'कावटः कान्तिपुञ्जके । वारुण्डे मकरे पोते भाकूटः' ख. ९. 'भार्याटः पटहाजीवे लोभात्स्वस्त्रीसमपके । भावाट:' ख. १०. 'नटे' ख. ११. 'चीवा वानरी । बीजं च राजकर्कट्या प्राचीनामल. कस्य च । गवेधकाफलं चापि चक्राङ्गी करजान्तरम् । मोरटं त्विक्षुमूले स्यादकोटकुसुमेऽपि च । सप्तरात्रात्परक्षीरे मो. रटा मूर्विका मता। मोचाटः कदलीगर्ने चन्दने कृष्णजीरके । रवटो दक्षिणावर्तशझे जाङ्गलिकेऽपि च । रेवटो मोरटे रेणौ स्याद्वातूलवरायोः । वर्णाटो गायने चित्रकारे स्त्रीकृतजीवने । वरटा हंसयोषायां गन्धोल्यां विकटः पृथौ । कराले सुन्दरे चारे वेकटो जातयौवने । वैकटिके मणिकारे वेरटो मिश्रनीचयोः । वेरटं बदरीफले शैलाटो मृगवैरिणि । शुक्लकाचे किराते च देवले गिरिवारिणि । संसृष्टं' ख. 'म्ब्यां च मोरटम्' ग-घ. १२. 'मूले' ग-घ. १३. 'पृथुले' ग-घ. १४. 'वरटी' ग-घ. १५. 'हर्मटः कच्छपे प्रोक्तः सहस्रकिरणेऽपि च । अम्बष्ठो' ख. For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः। २९ अम्बष्ठा स्यादम्ललोण्यां पाठायूथिकयोरपि । कनिष्ठोऽल्पेऽनुजे यूनि कनिष्ठा त्वन्तिमाङ्गलौ।।७७० कमठः कच्छपे दैत्यविशेषे मुनिभाजने । जरठः कर्कशे जीर्णे नर्मठौ षिड्चूचुकौ ॥ ७७१ प्रकोष्ठः कूपराधस्ताद्भूपकक्षान्तरेऽपि च । हस्ते च विस्तृतकरे प्रतिष्ठा गौरवे स्थितौ ॥ ७७२ छन्दोजातौ योगसिद्धौ मकुष्ठौ धान्यमन्थरौ । लघिष्ठो भेलकेऽत्यल्पे स्याद्वरिष्ठस्तु तित्तिरौ ७७३ वरिष्ठं मरिचे ताने वरोरुतमयोरपि । वैकुण्ठो वासवे विष्णौ श्रीकण्ठः कुरुजाङ्गले ॥ ७७४ शंकरे चाथ साधिष्ठोऽत्यायें दृढतमेऽपि च । कारण्डो मधुकोशेऽसौ कारण्डवे दलाटके ।। ७७५ कूष्माण्डौ गणकर्कारू कूष्माण्ड्यावम्बिकौषधी । कोदण्डः कार्मुके देशभेदे भ्रूलतयोरपि ।। ७७६ गारुडं तु मरकते विषशास्त्रेऽथ तित्तिडः । दैत्यभेदे तित्तिडी तु कालदासे महीरुहे ॥ ७७७ तिन्तिडी चुके चिञ्चायां निर्गुण्डी सिन्दुवारकः । नीलशेफाल्यब्जकन्दः प्रचण्डः स्यात्प्रतापिनि॥ वलक्षकरवीरेऽपि प्रकाण्डः स्तम्बशस्तयोः । स्कन्धमूलान्तरे च द्रोः पिचण्डोऽवयवे पशोः||७७९ उदरे चाथ पूत्यण्डो गन्धैणे गन्धकीटके । भेरुण्डौ भीषणखगौ भेरुण्डा देवताभिदि ॥ ७८० मारण्डोऽण्डे भुजङ्गानां मार्गे गोमयमण्डले । मार्तण्डस्तरणौ कोडे वरण्डो वेदनामये ॥ ७८१ अन्तरावेदौ संघ च वैतण्डा शारिका क्षुरी । वर्तिर्वारुण्डस्तु कर्णदृग्मले सेकभाजने ॥ ७८२ गणिस्थराजे वितण्डा कच्छीशाके शिलाह्वये । करवीर्या वादभेदे शिखण्डो बर्हचूडयोः ॥ ७८३ सरण्डः स्यात्कृकलासे भूषणान्तरधूर्तयोः । अध्यूढ ईश्वरेऽध्यूढा कृतसापत्न्ययोषिति ॥ ७८४ आषाढो मलयगिरौ व्रतिदण्डे च मासि च । उपोढ ऊढे निकटेऽप्युदृढः पीवरोढयोः॥ ७८५ प्ररूढो जरठे वृद्ध प्रगाढो दृढकृच्छ्रयोः । वारूढः शबले वस्त्राञ्चलेऽग्नौ पञ्जरेरौ ॥ ७८६ विरूढोऽङ्करिते जाते विगूढो गीगुप्तयोः । समूढः पुञ्जिते सद्योजाते भुग्नेऽनुपप्लुते ॥ ७८७ 'संरूढोऽङ्कुरिते प्रौढेऽरुणोऽर्केऽनूरुपिङ्गयोः। संध्यारागे 'बुंधे कुष्टे निःशब्दाव्यक्तरागयोः ॥ ७८८ अरुणा त्रिवृति श्यामामञ्जिष्ठातिविषासु च । अभीक्ष्णं तु भृशं नित्यमीरिणं शून्य ऊषरे ॥ ७८९ १. 'अम्बठा' ग-घ. २. 'योग' ग-ध. ३. 'कृष्माण्डी त्वम्बिकौषधी' ख. ४. 'विषोद्भवे । तरण्डो बिसिनीसूत्रबद्धवस्तुनि भेलके । तित्तिडो दैत्यभेदे स्याद्यमदासेऽथ तित्तिडी । कालदोषे पादपे च तिन्तिडी चुचिञ्चयोः । द्रविडो वेधमुख्ये स्यान्नीवृदन्तरशङ्मयोः । निर्गुण्डी नीलशेफाली सिन्दुवारोऽब्जकन्दुकः । प्रचण्डो दुर्वहे श्वेतकरवीरे प्रतापिनि । प्रकाण्डो विटपे शस्ते मूलस्कन्धान्तरे तरोः । पिचण्डो जठरे प्रोक्तः पशोरवयवेऽपि च । पूत्यण्डः स्याद्गन्धमृगे सर्पमिद्गन्धकीटयोः । भेरुण्डौ' ख. ५. 'तिन्तिडीके' ग-घ. ६. 'सिन्धुवारकः' ग-घ. ७. 'तरोः' ग-घ. ८. 'मेरुण्डा' ग-घ. ९. 'मारण्डस्तु भुजङ्गाण्डे' ख. १०. 'वदनव्यथा' ख. ११. 'वेदिसंधौ' ख. १२. 'अवतनोतीति वतण्डा' इति टीका, वरण्डा' ख-ग-ध. १३. 'गणिराजद्वारपिण्ड्योर्वार्तण्डः खग उष्ट्रिणि । वितण्डा वादभेदे स्यात्कच्छीशाके शिलाह्वये । करवीर्यामपि प्रोक्तः शिखण्डो' ख. १४. 'सरति सरण्डः' इति टीका. 'शरण्डः' ग-घ. १५. 'वतिनां दण्डे मासे च मलयाचले' ख. १६. 'जठरे' ग-ध, १७. 'अररे' ख. 'अररिः कपाटम्' इति टीका. १८. 'संमूढो मूत्रिते घने । अभीक्ष्णं तु भृशे नित्येऽप्यरुणोऽनूरुपिङ्गयोः । संध्या- ख. १९. 'कुष्टभेदे' ग-घ. २०. 'व्याकुले कपिले वर्णे रक्तवर्णेऽपि वाच्यवत् । अरुणा' ख. २१. 'त्रिवृता' ख. २२. 'अरणिस्तु भवेदमिमन्ये निर्मथ्यदारुणि । इन्द्राणी तु शचीसिन्दुवारयोः करणे स्त्रियाः । ईरिणं तूषरे शून्येऽपीक्षणं दर्शने दृशि । अषणा तु कणायां स्यादूषणं मरिचे मतम् । एषणी व्रणमार्गानुसारिण्यां च तुलाभिदि । कङ्कणं करभूषायां हस्तसूत्रे च शेखरे। कत्तुणं रौहिषं फङ्गा कल्याणं हेम्नि मङ्गले । करणः शूद्यां विटपुत्रे करणं क्षेत्रगात्रयोः । गी For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० अभिधान संग्रह:: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । ७९१ ७९२ ७९३ ७९४ ७९५ ७९६ ८०० इन्द्राणी शच्यां निर्गुण्ड्यां स्त्रीकरणेऽप्यथोषणा । कणोषणं तु मरिचे करुणो रसवृक्षयोः||७९० करुणा तु कृपायां स्यात्करणं क्षेत्रगात्रयोः । गीताङ्गहारसंवेशभित्सु कायस्थसंहतौ || वर्णानां स्पष्टतादौ च योगिनामासनादिषु । हृषीके साधकतमे ववादौ च कृतावपि ॥ करणः शूद्रविट्पुत्रे कङ्कणं करभूषणे । मण्डने हस्तसूत्रे च कल्याणं हेनि मङ्गले ॥ कत्तृणं रौहिषं फङ्गा करेणुस्तु मतङ्गजे । द्विरदस्य च योषायां कर्णिकारतरावपि । कारणं घातने हेती करणे कारणा पुनः । यातना कार्मणं मन्त्रादियोगे कर्मकारके || hraणी मानदण्डस्य तुरीयांशे पणस्य च । कृष्णलायां वराठे च कृपाणी कर्तरी छुरी ॥ कृपाणोऽसौ क्षेपणी तु नौदण्डजालभेदयोः । कोङ्कणः स्याज्जनपदे कोङ्कणं त्वायुधान्तरे ॥ ७९७ ग्रहणं स्वीकृतौ वन्द्यां धीगुणे शब्द आदरे । ग्रहोपरागे प्रत्याये ग्रामणीः क्षुरमर्दिनि || ७९८ प्रधाने भौगि पत्यौ ग्रामिणी पण्ययोषिति । ग्रामेय्यां नीलिकायां च गोकर्णः प्रमथान्तरे ||७९९ अङ्गुष्ठानामिकोन्माने मृगेऽश्वतरसर्पयोः । गोकर्णी तु मूर्तिकायां चरणो मूलगोत्रयोः ॥ बह्वृचादौ च पादे च चरणं भ्रमणेऽदने । जरणो रुचके हिङ्गौ जीरके कृष्णजीरके ॥ तरुणः कुलपुष्पे स्यादेरण्डे यूनि नूतने । तरणिस्तरणेऽर्केऽशौकुमार्योषधिनौकयोः || Prasar दक्षिणस्तु परच्छन्दानुवर्तिनि । दक्षेऽपसव्ये सरलेऽपाचीनेऽप्यथ दक्षिणा || दिक्प्रतिष्ठा यज्ञदानं हुँघणः पशुवेधसोः । मुद्गरेऽप्यथ दुर्वर्ण कलधौतकुवर्णयोः ॥ दवणं मृष्टपर्णे स्याद्धरितालीरसेऽपि च । धरणोऽहिपतौ लोके स्तने धान्ये दिवाकरे || धरणं धारणे मानविशेषे धरणी भुवि । धर्षणं रतेऽभिभवे धर्षणी त्वभिसारिका || धिषणस्त्रिदशाचार्यो धिषणा तु मनीषिका । निर्याणं निर्गमे मोक्षगजापाङ्गप्रदेशयोः ॥ निर्वाणं मोक्षनिर्वृत्योर्विध्याते करिमज्जने । निर्माणं सारनिर्मित्योः कर्मभेदे समञ्जसे ॥ निःश्रेणिरधिरोहिण्यां खर्जूरीपादपेऽपि च । प्रघणोऽलिन्दके ताम्रकलशे लोहमुद्गरे ॥ प्रवणस्तु क्षणे प्रह्वे क्रमनिम्ने चतुष्पथे । यत्ते च प्रमाणं तु मर्यादासत्यवादिनोः || प्रमातर्येकतेयत्तानित्येषु हेतुशास्त्रयोः । पत्तोर्ण धौतकौशेये स्यात्पत्तोर्णस्तु शोणके ॥ पक्षिणी पूर्णिमाखग्योः शाकिनीरात्रिभेदयोः । प्रवेणिर्वेणिकुथयोः पुराणं प्रत्नशास्त्रयोः ॥ ८१२ ८०१ ८०२ ८०३ ८०४ ८०५ ८०६ ८०७ ८०८ ८०९ ८१० ८११ ताङ्गहारसंवेशभिक्षुकायस्थसंहतौ । वर्णानां स्पष्टतादौ च योगिनामासनादिषु । हृषीके साधकतमे ववादौ च कृतावपि । करुणा तु कृपायां स्यात्करुणो रसवृक्षयोः । करेणुर्गजहस्तिन्योः कर्णिकारतरावपि । कारणं' ख. १. " कक्यते काकणि: । 'ककेणित्' इत्यणिः" इति टीका. 'काकिणी' ख ग व २. 'मानदण्डे स्यात् ' ख. ३. 'हस्त' ग-घ. ४. 'ग्रहणी तु रुगन्तरे । ग्रामणीभगिके पत्यौ प्रधाने क्षुरमर्दिनि । ग्रामणीः पण्ययोषा स्याब्रामेयी नीलिकापि च । गोकर्णोऽश्वतरे सर्वे मृगभेदे गणान्तरे । अङ्गुष्ठानामिकोन्माने गोकर्णी मूर्विधौ । चरणो बहुचादौ स्यात्पादे च मूलगोत्रयोः । चरणं भ्रमणे अक्षे रासभस्य ध्वनावपि । जरणो' ख. ५. 'ग्राम: पेटकं संवसथो वास्त्यस्या ग्रामिणी' इति टीका. 'ग्रामणीः ' ख ग घ ६. 'ग्रामेयायां' ग घ ७. 'द्रविणं काञ्चने धने । पराक्रमे बलेऽपि स्यादुषणः' ख. ८ 'पशु' गन्ध ९. 'पृष्ट' ख. १०. 'द्रिपतौ' ग घ ११. ' धरुणः सलिले स्वर्गे परमेष्ठिनि धर्मणः । सर्पभेदे वृक्षभेदे धर्षणी त्वभिसारिका । धर्षणं स्यात्परिभवे धारणी नाटिकाभिदि । धारणा स्यात्तु योगाङ्गे धारणं ग्रहणे मतम् । धिषण' ख. 'धरणं' ग घ. १२. 'विधाते' ख. 'विश्रान्ते' ग घ १३. 'आवतें' ग घ १४. 'पत्तोर्णः शोणकद्रुमे' ख. For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः। पुराणः षोडशपणे पूरणं वानतन्तुषु । पूरके पिष्टभेदे च (पूरणी शाल्मलिद्रुमे ॥ ८१३ प्रोक्षणं सेकवधयोर्भरणं वेतने भृतौ । भरणी शोणके भे च) भ्रमणी स्यादधीशितुः ॥ ८१४ क्रीडादौ कारुण्डिकायां भीषणं सल्लकीरसे । भीषणो दारुणेर्गाटे मत्कुणोऽश्मश्रुपूरुषे ॥ ८१५ उइंशे नारिकेरे च निर्विषाणगजेऽपि च । मसृणोऽकठिने स्निग्धे मसृणा स्यादतस्यपि ॥ ८१६ मार्गणं याचनेऽन्वेषे मार्गणस्तु शरेऽथिीन । यन्त्रणं बन्धने त्राणे नियमे रमणं पुनः ॥ ८१७ पटोलमूले जवने रमणो रासभे प्रिये । रोषाणो रोषणे हेमघर्षे पारद ऊपरे ॥ ८१८ रोहिणी सोमवल्के भे कण्ठरोगोमयोर्गवि । लोहिताकटुरोहिण्योलवणो राक्षसे रैसे ॥ ८१९ अस्थिभेदे लवणा लिट् लक्षणं नामचिह्नयोः । लक्ष्मणं च लक्षणस्तु सौमित्रौ लक्ष्मणो यथा ॥८२० लक्ष्मणः श्रीयुते लक्ष्मणौषधौ सारसस्त्रियाम् । वरुणोऽऽप्पतौ वृक्षे वरणो वरुणद्रुमे ॥ ८२१ प्राकारे वरणं वृत्यां वारणः स्यान्मतङ्गजे । वारणं तु प्रतिषेधे ब्राह्मणं विप्रसंहतौ ॥ ८२२ वेदे च ब्राह्मणो विप्रे वारुणी पश्चिमा सुरा । गण्डदूर्वा विषाणं तु शङ्गे कोलेभदन्तयोः ।। ८२३ विषाणी मेषशृङ्गयां स्याद्विपणिः पण्यहट्टयोः । पण्यवीथ्यां श्रमणस्तु निम्रन्थे निन्द्यजीविनि ॥८२४ घेवणो नक्षत्रभेदे श्रवणं अवसि श्रुतौ । शरणं रक्षणे गेहे वधरक्षकयोरपि ॥ ८२५ श्रीपर्णमग्निमन्थेऽब्जे श्रीपर्णी शाल्मलौ हठे । संकीर्णौ निचिताशुद्धौ सरणिः श्रेणिमार्गयोः॥८२६ सारणः स्यादतीसारे दशकन्धरमत्रिणि । सिंहाणं तु घ्राणमलेऽयःकिट्टे काचभाजने ॥ ८२७ सुषेणो विष्णुसुग्रीववैद्ययोः करमर्दके । सुवर्ण काञ्चने कर्षे सुवर्णाली मखान्तरे ॥ ८२८ कृष्णागुरुणि विस्ते च सुपर्णः कृतमालके । गरुडे स्वर्णचूडे च सुपर्णा विनताब्जिनी ॥ ८२९ हरणं तु हृतौ दोष्णि यौतकादिधनेऽपि च । हरिणौ पाण्डुसारङ्गौ हरिणी चारुयोषिति ॥ ८३० सुवर्णप्रतिमायां च हरितावृत्तभेदयोः । हर्षणस्तु श्राद्धदेवे हर्षके योगरुग्भिदोः ॥ ८३१ हरेणुः कुलयोषायां रेणुकायां सतीनके । हिरणं हिरण्यमिव वराटे हेम्नि रेतसि ॥ ८३२ अमृतं यज्ञशेषेऽम्बुसुधामोक्षेप्वयाचिते । अन्नकाञ्चनयोग्धौ खे स्वादुनि रसायने ॥ ८३३ घृते हृो गोरसे चामृतो धन्वन्तरौ सुरे । अमृतामलकी पथ्यागडूचीमाँगधीषु च ॥ ८३४ अनृतं कर्पणेऽलीके चाक्षतं स्यादहिंसिते । पण्डे लाजेवदितं तु वातव्याधौ हतेऽर्थिते ॥ ८३५ अजितस्तीर्थक-हेदे बुद्धे विष्णावनिर्जिते । अच्युतो द्वादशस्वर्गे केशवाभ्रष्टयोरपि ॥ ८३६ अव्यक्तं प्रकृतावात्मन्यव्यक्तोऽस्फुटमूर्खयोः । अनन्तं खे निरवधावनन्तस्तीर्थकृद्भिदि ॥ ८३७ विष्णौ शेषेऽप्यनन्ता तु गडूची भूर्दुरालभा । विशल्या लाङ्गली दूर्वा सारिवा हैमवत्यपि ॥ ८३८ १. धनुश्चिद्वयान्तःपाठो ग-घ-पुस्तकयो स्ति. २. 'अर्गाटोऽपामार्गः' इति टीका. 'गाढे' ग-घ. ३. 'उद्देशे क्षुद्रजन्तौ' इति टीका. 'उद्देशे' ख. ४. 'रुष्यति रोषाणः कल्याणपर्याणादयः इति साधुः' इति टीका. 'रोषणः क्रोधने' ख; रोषणोऽमर्षणे' ग-घ. ५. 'रोमोमयो' ख; 'रोगान्तरे' ग-ध. ६. 'बले' ग-घ. ७. 'अब्धि' ख. ८. 'ब्राह्मणी वाडवस्त्रियाम् । स्पृक्कायां पञ्जिकायां च वारुणी' ख. ९. 'श्रमणा सुलता मांसी मुण्डिनी च सुदर्शना । श्रवणो' ख. १०. 'निबिडा' ख. ११. 'सारणी त्वल्पसरिति प्रसारण्यौषधावपि । सिङ्घाणं' ख. १२. 'विस्त: षष्टिः पलशतानि' इति टीका. 'वित्ते' ख-ग-घ. १३. 'सुवर्णः' ग-घ. १४. 'यौतकद्रव्येऽप्यङ्गहारे भुजे हृतौ' ख; 'च हृतौ' ग-ध. १५. 'शेषाम्बु' ख; 'शेषे तु सुधामोक्षाप्स्वयाचिते' ग-ध. १६. 'स्वे' ग-ध. १७. 'माधवी' ख. १८. 'थिनि'ख. १९. 'सर्गे' ग-घ. १३ For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । अस्वन्तमशभे क्षेत्रे चल्लयामनवधौ मृतौ । अमतिः काले चण्डे चाप्यतिर्वद्विवेधसोः ॥ ८३९ अग्निहोत्रिण्यगस्ति?मुन्योः स्याददितिर्भुवि । देवमातरि पार्वत्यामंहतिस्त्यागरोगयोः॥ ८४० आपातः पाते तत्कालेऽप्यादृतः सादरेऽर्चिते । आख्यातं भाषितेत्यादावाघ्राते प्रस्तशिविते ८४१ आप्लुतः स्नातके नातेऽप्यावर्तः पयसां भ्रमे । आवर्तने चिन्तने चान” जनपदे जने ॥ ८४२ ममरे नृत्यशालायामाहतं तु मृषार्थके । गुणिते ताडिते चाप्याध्मातः शब्दितदग्धयोः ॥ ८४३ वातरोगेऽप्यथास्फोतः कोविदागर्कपर्णयोः । आस्फोता गिरिकां च बनमल्लयामथाचित:८४४ छादिते शकटोन्मेये पलानामयुतद्वये । संगृहीतेऽप्यथायस्तः क्लेशिते तेजिते हते ॥ ८४५ कुद्धे क्षिप्तेऽथायतिः स्यात्प्रभावोत्तरकालयोः । दैर्घ्य सङ्गेऽप्याकृतिस्तु जातौ रूपे वपुष्यपि॥८४६ आयत्तिर्वासरे स्नेहे वशित्वे स्थाम्नि सीनि च । आसत्तिः संगमे लाभेऽप्यापत्तिः प्राप्तिदोषयोः॥ आपद्यपीङ्गितं तु स्यान्चेष्टायां गमनेऽपि च । उत्तप्तं चञ्चले शुष्कमांससंतप्तयोरपि ॥ ८४८ उचितं विदितेऽभ्यस्ते मिते युक्तेऽप्यथोत्थितम् । वृद्धिमत्प्रोद्यतोत्पन्नेषूदितं तद्गतोक्तयोः॥ ८४९ उद्धृतं स्यादुत्तुलिते परिभुक्तोज्झितेऽपि च । उषितं व्युषिते पुष्टेऽप्युच्छ्रितं तूच्चजातयोः ॥ ८५० प्रवृद्धे स्यादथोद्वान्त उद्गीणे निर्मदद्विपे । उदात्तो दातृमहतो«द्ये च स्वरभिद्यपि ॥ ८५१ उन्मत्तो मुचुकुन्दे स्यात्तगेन्मादयुक्तयोः । उदन्तः साधौ वार्तायामुद्धातः समुपक्रमे ॥ ८५२ मुद्गरेऽभ्यामयोगाय कुम्भकादित्रयेऽपि च । पादस्खलन उद्रङ्गेऽप्युन्नतिस्तार्ययोषिति ॥ ८५३ उदये च समृद्धावप्येधतुर्नरि पावके । क्रन्दितं रुदिते हतौ कलितं विदिताप्तयोः ॥ ८५४ किरातः स्यादल्पतनौ भूनिम्बम्लेच्छयोरपि । किराती कुट्टिनी गङ्गा कृतान्तोऽक्षेमकर्मणि ॥८५५ सिद्धान्तयमदैवेषु गजितो मत्तकुञ्जरे । गजितं जलदध्वाने ग्रंथितं हतहब्धयोः ॥ ८५६ आक्रान्ते च गरुत्मांस्तु विहग पन्नगाशने । गभस्तिः स्यादिनकरे स्वाहाकिरणयोरपि ।। ८५७ गोदन्तो हरिताले स्यात्संनद्धे दंशितेऽपि च । गोपतिः शंकरे पण्डे नृपतौ त्रिदशाधिपे ॥ ८५८ सहस्रकिरणे चापि ज्वलितो दग्धभास्वरौ । जयन्तावैन्द्रिगिरिशौ जयन्त्युमापताकयोः ॥ ८५९ जीवन्त्योमिन्द्रपुत्र्यां च जगती छन्दसि क्षितौ । जम्बूवप्रे जने लोके जामाता दुहितुः पतौ ८६० सूर्यावर्ते वल्लभे च जीमूतो वासवेऽम्वुदे । घोषकेऽद्रौ भृतिकरे जीवन्ती शमिवन्दयोः ॥ ८६१ जीवन्यां च गडच्यां च जीवातुर्जीवनौषधे । जीविते च जम्भितं तु विचेष्टितप्रवृद्धयोः ॥ ८६२ जृम्भायां स्फुटिते चापि त्वरितो वेगतद्वतोः। त्रिगर्तो गणिते देशे त्रिगर्ता कामुकस्त्रियाम् ८६३ थुर्पुर्यामथ तृणता तृणत्वे कार्मुकेऽपि च । दंशितो वर्मिते दष्टे स्रवन्ती द्रवन्त्यपि ॥ ८६४ नद्यामौषधिभेदे च द्विजातिाह्मणेऽण्डजे । दुर्जातं व्यसनासम्यग्जातयोरथ दुर्गतिः॥ ८६५ नरके निःस्वतायां च दृष्टान्तः स्यादुदाहृतौ । शास्त्रेऽथ निकृतं विप्रलब्धे विप्रकृतेऽधमे ।। ८६६ निरस्तः प्रेषितशरे संत्यत्ते त्वरितोदिते । निष्टयूते प्रतिहते च निमित्तं हेतुलक्ष्मणोः ॥ ८६७ १. 'अश्मन्त' ख; 'अश्वन्त' ग-ध. २. 'त्यादन्तिकचिह्नवेधसोः' ख. ३. 'अमिहोत्रेऽप्यगस्ति' ख. ४. 'संधिनि' ग-घ. ५. 'नाने' ख-ग-घ. ६. 'उद्त्तं' ग-घ. ७. 'दतुलिते' ख. ८. 'उदन्थे' ग-घ. ९. 'उद्धतौ' ख. १०. 'कपोतः पारावते स्यात्कवकाख्यविहंगमे । कापोतं मज्जने सूकपोतानां च संहतौ। किरात: ख, ११. 'प्रथितं' ग-घ. १२. 'न्त्यां सिंहपुत्र्यां' ग-घ. १३. 'शाकभेदे' ख. १४. 'प्रवृद्धे च विचेष्टिते' ख. १५. 'स्फुरिते' ख. १६. 'तानितं स्तनिते वस्त्रे वाद्यभाण्डे गुणे स्तृतौ । त्रिगर्तो' ख. १७. 'स्त्रियोः' ग-घ. १८ 'वद्वन्त्यपि' खः 'चन्द्रवत्यपि' ग-घ. १९. 'दारिये नरके चापि' ख. For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्तरकाण्डः। निवातो वातरहिते दृढसंनाह आश्रये । निर्मुक्तो मुक्तनिर्मोकभुजङ्गे निष्परिग्रहे ॥ ८६८ निशान्तं सदने शान्ते प्रभातेऽप्यथ निवृतिः। मोक्षे मृत्यौ सुखे सौख्ये निकृतिः शठशाठ्ययोः॥ भर्त्सनेऽभिभवे क्षेपे निक्रतिनिरुपद्रवे । अलक्ष्म्यां दिक्पतौ चापि नियती दैवसंयमौ ॥ ८७० प्रभूतमुद्गते प्राज्ये प्रसूतं जातपुष्पयोः । प्रतीतः सादरे प्राज्ञे प्रथिते ज्ञातहृष्टयोः ॥ ८७१ प्रहतं विस्तृतौ क्षुण्णे पलितं पङ्कतापयोः । पक्रकेशे केशपाके पण्डितः सिल्हधीमतोः ॥ ८७२ प्रणीत उपसंपन्ने कृते क्षिप्ते प्रवेशिते । संस्कृताग्नौ पर्याप्तं तु शक्ते पूर्ण निवारणे ॥ ८७३ यथेष्टे प्रेमृतस्त्वर्धाञ्जली वेगिविनीतयोः । तते च प्रसृता जङ्घा प्रमीतं प्रोक्षितेऽमृते ॥ ८७४ पर्यस्तं तु हते सस्ते प्रपातः सौप्तिके भृगौ । पर्वतो गिरिदेवोः पक्षतिः प्रतिपत्तिथौ ॥ ८७५ पक्षमूले प्रसूतिः स्यादपत्ये प्रसवेऽपि च । पद्धतिः पथि पङ्गौ च प्रकृतियोंनिशिल्पिनोः ॥८७६ पौरामात्यादिलिङ्गेषु गुणसाम्यस्वभावयोः । प्रत्ययात्पूर्विकायां च प्रततिविमृतिर्लता ॥ ८७७ प्रवृत्तिवृत्तौ वार्तायां प्रवाहे प्रार्थितं हते । याचिते शत्रुसंरुद्धे पार्वती दुपदात्मजा ॥ ८७८ सल्लकी जीवनी गौरी पिण्डितं गुणिते धने । पिशितं मांसं पिशिता मांसिका पीडितं पुनः८७९ वाधिते करणे स्त्रीणां यत्रान्तर्मदितेऽपि च । प्रोक्षितं सिक्तहतयोर्भरतः शबरे नटे॥ ८८० क्षेत्रे रामानुजे शास्र दौप्यन्तावृषभात्मजे । तन्तुवाये भारतं तु शास्त्रे द्वीपांशभिद्यपि ॥ ८८१ भारती पक्षिणीवृत्तिभिदोर्वाच्यथ भावितम् । वासिते प्राप्ते भासन्तो भे सूर्ये रम्यभासयोः ८८२ मथितं निर्जलघोले व्यालोडितनिघृष्टयोः । मालती युवतौ काचमाच्यां जातिविशल्ययोः ।। ८८३ ज्योत्स्नायां निशि नद्यां च मुपितं खण्डिते हृते । मंछितं सोच्छये मूढे रजतं दन्तिदन्तयोः८८४ धवले शोणिते हारे दुर्वणे ह्रदशैलयोः । रसितं स्वर्णादिलिप्ते रुतस्तनितयोरपि ॥ रेवती वलभार्यायां नक्षत्रभिदि मातृषु । रैवतः स्यादुज्जयन्ते सुवर्णालौ पिनाकिनि ॥ ८८६ रोहितो लोहिते मीने मृगे गेहीतकदमे । रोहितमृजशक्रास्त्रे धीरे ललितमीप्सिते ॥ ८८७ लडिते हारमेदे च लोहितो मङ्गले नदे। वर्णभेदे लोहितं तु कुङ्कुमे रक्तचन्दने ॥ ८८८ गोशीर्षे रुधिरे युद्धे वधित लिन्नपूर्णयोः । प्रसृते वनितं तु स्यात्प्रार्थिते सेवितेऽपि च ॥ ८८९ वनितोत्पादितात्यर्थरोगनार्यपि नार्यपि । वसतिः स्यादवस्थाने निशायां सदनेऽपि च ॥ ८९० १. 'पुष्टौ' ख. २. 'साँस्थ्ये' ख. ३. 'केशस्य पाक: शौक्लयम्' इति टीका. शैलजाते' ख. ४. 'तृप्तौ' ख; 'तृसे' ग-घ. ५. 'कृच्छे दोघे च पर्याप्तिः परिरक्षणे । प्रातौ कामे प्रसृतोधी' ख. ६. 'प्रयातः' ग-ध. ७. 'सौप्तिको रात्रिधारी' इति टीका. निझरे' ख. ८. 'अवटे पतने कृच्छ्रे. पक्षतिः प्रतिपत्तिथा । पक्षमूले पर्वतस्तु देवा धरणीधरे । प्रसूतिः प्रसवोत्पत्तिः पुत्रेषु दुहितयपि । पद्धतिः' ख. ९. 'प्रवृत्तिवृत्तिवृत्तान्तप्रवाहेषु प्रवर्तते। प्रचित्तः शकटोन्मेये पलानामयुतद्वये । प्रकृतं तु प्रस्तुतेऽपि प्रकृतः प्रकृतिस्थिते । प्रार्थितं शत्रुसंरुद्धे याविते निहतेष्टयोः । पार्वती सल्लकी गौरी जीवनी द्रुपदात्मजा । पिण्डितं गणिते सान्द्रे पिशितं मांसवाचकम् । पिशिता मांसिकायां स्यात्पीडितं करणे स्त्रियाः । बाधिते यन्त्रसंमद्ये पुटितः त्यतपाटिते । हस्तिपुटे पृषतस्तु मी विन्दौ खरोहिते । श्वेतबिन्दुयुतेऽपि स्यात्प्रेषितं प्रेरिते गते । प्रोक्षितं' ख. १०. पार्वती' ग-ध.११. धने' ग-व.१२. यन्त्रितं मर्दिते' ग-घ. १३. दौष्मन्तौ भरतात्मजे' ग-ध.१४. 'यांच्यथ' ख.१५. महती तु बृहत्यां स्याहाणायां नारदस्य च । मालती' ख.१६. 'मुहूर्तमल्पकाले स्याडटिकाद्वितयेऽपि च । मूठितं' ख. १७. 'स्वनित' ग-य. २८. 'हरेऽनुरे' ख. १९. 'बलभेदे' ग-घ. २०. 'वृद्धयोः' ख. . For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ अभिधान संग्रह:: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । ८९७ व्रततिस्तु प्रतानियां विस्तारेऽप्यथ वापितम् । वीजाकृते मुण्डिते च व्याघातो योगविन्नयोः ८९१ घातेऽथ व्यायतं दीर्घे व्यापृतेऽतिशये दृढे । वासन्तः परपुष्टे स्यात्करभेऽवहिते विटे ॥ ८९२ वासन्ती माधवी पाटलास्वथ वासितम् । वस्त्रछन्ने ज्ञानमात्रे भावितेऽप्यथ वासिता ।। ८९३ aratorfaring वे सूर्येऽथ विश्रुतम् । ज्ञाते हष्टे प्रतीते च विदितं बुधिते श्रुते ॥ ८९४ विगतो निष्प्रभे व विविक्तो वैसुनन्दके । विविक्तं स्यादसंपृक्ते रहः पूतविवेकिषु ॥ ८९५ विधुतं कम्पिते त्यक्ते विकृतो रोग्यसंस्कृतः । बीभत्स विनीतस्तु निभृते निर्जितेन्द्रिये || ८९६ वाणिजे साधुवावे विनयग्राहिते हृते । विनतः प्रणते भुग्ने विनता पिटकाभिदि ॥ सुपर्णायां विहस्तस्तु विह्वले पण्डकेऽपि च । विश्वस्तः कृतविश्वासे विश्वस्ता विधवा स्त्रियाम्८९८ विजातो विकृते जाते विजाता तु प्रसूतिका । विवर्तो नर्तने संवेऽपावृतौ विकृती रुज ॥८९९ डिम्बे विकारे मंद्यादौ विपत्तिर्यातनापदोः । विच्छित्तिः स्यादङ्गरागे हाँवविच्छेदयोरपि ॥ ९०० विधाता दुहि कामे विनेता देशके नृपे । वृत्तान्तस्तु प्रकरणे कायै वार्ताप्रकारयोः ॥ ९०१ वृहती क्षुद्रवार्ताक्यां छन्दोवसनभेदयोः । महत्यां वाचि वार्धान्यां वेल्लितं कुटिले धुते ॥ प्लुते वेष्टितं लसके रुद्धे स्त्रीकरणान्तरे । शकुन्तो विहगे भासे श्रीपतिर्विष्णुभूपयोः ॥ शुद्धान्तः स्याद्रहः कक्षान्तरे राज्ञोऽवरोधने । संख्यावान्मंत सुधियोः सरस्वानुदधौ नदे ॥ ९०४ संवर्तः प्रलयेऽक्षेत्र संहतं मिलिते दृढे । स्खलितं छलिते शे संस्कृतं लक्षणान्विते ॥ भूषिते कृत्रिमे शस्ते संघातो घातसंघयोः । संहिता वर्णसंयोगे शास्त्रवेदैकदेशयोः ॥ स्थपतिः सौविदेऽधीशे वृहस्पतीष्टियज्वनि । कारुके च संततिस्तु तनये दुहितर्यपि ॥ परम्पराभवे पङ्कौ गोत्रविस्तारयोरपि । संनतिः प्रणतिध्वन्योः संगतिज्ञानसङ्गयोः ॥ संमतिर्वाञ्छानुमत्योः समितिर्युधि संगमे । साम्ये सभार्यामीर्यादौ संवित्तिर्ध्यविवादयोः ॥ ९०९ स्थापितं निश्चिते न्यस्ते स्तिमितौ निनिश्चलौ । सिकताः स्युर्वालुकायां सिकता सैकते रुजि ॥ सुकृतं तु शुभे पुण्ये सुविधानेऽय सुव्रता । सुखदोह्य सौरभेय्यां सुव्रतोऽर्हति सते || सुनीतिर्भुवमाता स्यात्सुनयोऽप्यथ सूनृतम् । मङ्गले प्रियसत्योक्तौ हसन्ती शाकिनीभिदि ॥ ९१२ मल्लिकाङ्गारधान्यो हारीतो विहगान्तरे । मुनौ छद्मन्यथाश्वत्थः पिप्पले गर्दभाण्डके || ९१३ ९०२ ९०३ ९०५ 9 ९.०६ ९०७ ९०८ ९११ 1 १. ' विस्तारे वहतुः पथि । नृपभे वहतिधन्वां सचिवेऽप्यथ वापितम्' ख २. 'कोकिले मुद्रे' ख. ३. 'ज्ञानमात्रे यथा --- 'वासितं पादपेष्वपि' इति' इति टीका. 'ज्ञातमात्रे' व. ४. 'भाविते विहगारवे । वासिता करिणीना विहितं तु कृते श्रुते । विदितं स्वीकृते ज्ञाते विवस्वान्देवसूर्ययोः । विश्रुतं तु प्रतीते स्याज्ज्ञातपितयो - रपि । विगतो' ख. ५. 'वसुनन्दकः स्फुरक:' इति टीका. 'वस्तु निन्दके' ख; 'वसुनन्दने' ग घ ६. 'विवृतं ' ग-व. ७. 'वाक्यस्थे' ख. ८. 'qण्डकेऽकरे' ख. ९. 'मद्यादयो मद्यमांसनवनीतमधुदुग्धदधितैलपकान्नगुडरूपा दश' इति टीका | 'मघादौ' गन्ध १०. 'हावधिच्छेदयो' ग घ ११. 'देशिके' ग व. १२. 'बुधमितयो:' ख. १३. 'क्षुद्र' ग व १४. 'नरके च समाप्तिः स्यादवसाने समर्थने । संहिता' ख. १५. 'वाक्यानु' ख. १६. ईर्ष्या आदिर्यस्यासौ ईयांदि: । यदाह - 'ईर्ष्या भाषेपणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञकाः । पञ्चाङ्गः स मिति:' इति' इति टीका. 'सभायां संवित्तिः प्रतिपत्यविवादयोः ख ग घ . १७. ' सुनयः सुरतं पुनः । मैथुने सुरता देवभावे च सुहितः पुनः । तृप्तायुक्ते सुष्टुहिते सूनृतं प्रियसत्यवाक् । मङ्गलं च हसन्ती तु मल्लिकाङ्गारधानिका । स्मिताद्याशाकिनीभेदो हम्मितं क्षिप्तदग्धयोः । हारीतो मुनिभेदे स्यात्कैतवे विगान्तरे । हृषितं विस्मिते प्रीते प्रते हृष्टरोमणि । अश्वत्थो गर्दभाण्डे स्वात्पिप्पले संसृता जले । अश्वत्थेष' ख. For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः | ३५ ९१४ ९२४ अश्वत्थेषपौर्णमास्यामतिथिः कुशनन्दने । कुध्यागन्तावथोपस्थः पायुमेड्राङ्कयोनिषु ॥ उन्माथो मारणे कूटयन्त्रघातकयोरपि । क्षवथुः कासे छिकायां कायस्थोऽक्षरजीवकः ॥ ९१५ परमात्मा च कायस्था हरीतक्यामलक्यपि । दमथो देमने दण्डे निर्ग्रन्थो निःस्वमूर्खयोः ९१६ (श्रमेण च निशीथस्तु रात्रिमात्रार्धरात्रयोः । प्रमथः शंकरगणे प्रमथा तु हरीतकी || मन्मथः कामचिन्तायां पुष्पचापकपित्थयोः) । रुदथः कुक्कुटशुनोर्वञ्चथः पिककालयोः ॥ वरूथं तु तनुत्राणे रथगोपन वेश्मनोः । वयःस्थो मध्यमवया वयःस्था शाल्मलीडुमे || ब्राह्मी गडूची काकोलीसूक्ष्मैलामलकीषु च । वमथुर्वमने कासे गंजस्य करसीकरे ॥ विदथो योगिनि प्राज्ञे शमथः सचित्रे शमे । शपथः कार आक्रोशे शपने च सुतादिभिः ।। ९२१ tarः स्यादजगरे निद्रालौ मरणेऽपि च । षड्ग्रन्थः करञ्जभेदे षड्ग्रन्था तु वचा सठी ९२२ समर्थः शक्तिसंपन्ने संबद्धार्थे हितेऽपि च । सिद्धार्थः सर्पपे शाक्यसिंहेऽन्त्यजिनवरि ॥ ९२३ अर्बुदः पर्वते मांसकीलके दशकोटिषु । अर्धेन्दुः स्यादतिप्रौढ स्त्रीयालियोजने || गलहस्ते नखाङ्केऽर्धचन्द्रेऽङ्गदस्तु वालिजे । अङ्गदं तु केयूरे स्यादेङ्गदा याम्यदिग्गजी ॥ ९२५ आस्पदं कृयपदयोरामोदो गन्धहर्षयोः । आक्रन्दो दारुणरणे सारात्ररुदिते नृपे || ९२६ क्षणदं तो क्षणदो गणके क्षणदा निशि । कपर्दी पार्वतीभर्तुर्जटाजूटे वराटके || कर्णान्दुः स्यात्कर्णपाश्युत्क्षिप्तिका कुमुदः कपौ । दिग्नागनागयोदैत्यविशेषे च सितोत्पले ॥ ९२८ कुमुदा कुम्भीगम्भार्योः कुसीदं वृद्धिजीवने । वृद्धयाजीचे कौमुदस्तु कार्तिके कौमुदीमा ॥ ९२९ गोविन्दस्तु गवाध्यक्षे वासुदेवे बृहस्पतौ । गोष्पदं गोखुर गवां च गतिगोचरे ॥ जलदो मुस्तके मेधे जीवदो रिपुवैद्ययोः । ग्रन्थिपर्णे तमोनुत्तु शशिमण्डवर्हिषु ॥ दादो विषभेदेस्यात्पारदे हिङ्गुलेऽपि च । दायादौ सुतसपिण्डौ धनदो दातृगुह्यकौ ॥ ९३२ नलदा मांस्यां नलदमुशीरमकरन्दयोः । नर्मदा रेवानिर्माल्योनिषादः श्वपचे स्वरे ॥ निर्वादस्यैतवादेऽपवादे च प्रमुदो मुदि । प्रमदा स्त्री प्रसादोऽनुग्रहस्वास्थ्य प्रेसत्तिषु ॥ ९३४ काव्यगुणे प्रल्हादस्तु निनादे दानवान्तरे । प्रतिपत्संविदि तिथौ प्रासादो राजमन्दिरे || ९३५ देवतायतने चापि मर्यादा स्थितिसीमयोः । माकन्दः स्यात्सहकारे माकन्द्यामलकी फले ॥९३६ मुकुन्दः पारदे रत्नविशेषे गरुडध्वजे । मेनादः केकिनि च्छागे माजरे वरदः पुनः ॥ ९३७ प्रसन्ने शान्तचित्ते च वरदा तु कुमारिका । विशदः पाण्डुरे व्यक्ते शारदो वत्सरे नवे ॥ ९३८ शरद्भवे पीतमुद्रे शालीनेऽप्यथ शारदी । तपर्णाम्बुपिप्पल्योः सुनन्दा रोचनाङ्गना ॥ ९२७ ९३० ९३१ ९.३३ ९३९ For Private and Personal Use Only ९१७ ९१८ ९.१९ ९२० 1 1 १. 'गन्तावव्यथस्तु व्यथाहीने च पन्नगे । अव्यथा तु हरीतक्यामुपस्थो योनिलिङ्गयोः । उत्सङ्गगुदयोश्रापि समीप स्थितवत्यपि । उन्माथो' ख २. 'उदधस्ताम्रचूडे स्यान्महेन्द्र महकामुके । क्षवथुः ' ख ३. गोग्रन्थिस्तु करीषे स्याद्गोष्ठे गोजिह्विकौधौ । दमयो' ख. ४. 'दमके' ग घ ५. भिक्षुमूर्खयो:' ख ६. धनुश्चिन्हान्तर्गतपाठो गन्ध पुस्तकयो त्रुटितः ७. 'वञ्चतीति वञ्चथः' इति टीका. 'वर्चथः ' ख; 'वरूथः ' ग. ८. 'मातङ्ग क' ख. ९. 'शीकरे' ग. १०. 'श्रुतादि' ख; 'शपनं सुतादिशरीरस्पर्श:' इति टीका. ११. 'शयश्रु' ग. १२. 'निद्रादौ' ख. १३. 'अन्त्यजिनो महावीरस्तस्य वप्ता जनक:' इति टीका. 'व्यञ्जनव' ख; 'अपि जिनवसरि' ग. १४. 'अङ्गजा' ग. १५. 'रसे' ग. १६. 'तु भा' ख १७. 'क्षुर' ख. १८. 'तमोभित्तु' ख. १९. 'मार्त' ख. २०. इतः परमित्यधिकः पाठः- - 'तोयदो मुस्तके मेधे तोयदं नवनीतजे' ख. २१. 'दरदो वि' ख. २२. 'दोहदो गर्भलक्षणे । अभिलापे तथा गर्भे' ख २३. 'लोकवादे' ग. २४. 'प्रसक्तिपु' ग. २५. 'सप्तपर्ण्यम्बु' ग. २६. 'संभेदः सिन्धुसंगमे । पुष्पादीनां विकासेऽपि स्यात्सुनन्दा तु रोचने' ख. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । जननी बाहुबलिनोऽप्यगाधोऽस्ताघरन्ध्रयोः । अवधिः स्यादवधाने कालसीमविलेष्वपि ॥ ९४० आनद्धं बद्धमुरजाद्याविद्धः क्षिप्तचक्रयोः । आबन्धो भूषणे प्रेम्णि बन्धेऽथोत्सेध उच्छ्ये ९४१ संहननेऽप्युपाधिस्तु कर्मध्याने विशेषणे । कुटुम्बव्यापृते छान्युपधिर्व्याधिचंक्रयोः ॥ ९४२ कबन्धं तुन्दे रुण्डेप्सु कबन्धो राहुरक्षसोः । दुविधो दुर्जने निःस्वे न्यग्रोधो वटपादपे ॥ ९४३ शम्यां व्यामे न्यग्रोधी तु मोहनाख्यौषधीभिदि । वृषपर्यो निषधस्तु पर्वते कठिने स्वरे ॥ ९४४ देशतद्राजयोश्चापि निरोधो नाशरोधयोः । प्रसिद्धो भूषिते ख्याते प्रणिधिर्याचने चरे ॥ ९४५ परिधिर्यज्ञियतः शाखायामुपसूर्यके । मागधो मगधोद्भूते शुक्लजीरकबन्दिनोः ॥ ९४६ वैश्यतः क्षत्रियापुत्रे मागधी स्यात्तु पिप्पली । यूथी भाषाविशेषश्च विवुधः पण्डिते सुरे ॥ ९४७ विस्रब्धोऽनुटे शान्ते विश्वस्तात्यर्थयोरपि । विवधो वीवधो भारे पर्याहाराध्वनोरपि ॥ ९४८ संबाधः संकटे योनौ संरोधः क्षेपरोधयोः । संनद्धो वर्मिते व्यूढे समाधिः स्यात्समर्थने ॥ ९४९ चित्तैकायनियमयोोने संनिधिरन्तिके । प्रत्यक्षे चाथ संसिद्धिः सम्यक्सिद्धिस्वभावयोः ॥९५० अयनं पथि गेहेऽर्कस्योदग्दक्षिणतोगतौ । अम्लानस्त्वमले झिण्टीभेदेऽर्जुनं तृणे सिते ॥ ९५१ नेत्ररोगेऽर्जुनः पार्थे "हेये केकिनि दुमे । मातुरेकसुते चार्जुन्युषा गौः कुट्टनी सरित् ॥९५२ अङ्गन प्राङ्गणे यानेऽप्यङ्गना तु नितम्बिनी । स्यादपानं गुदेऽपानस्तु तद्वायावअनं मशौ ॥ ९५३ रसाञ्जनेऽक्तौ सौवीरेऽथाअनो दिमतङ्गजे । अञ्जना हनुमन्मातर्यअनी लेप्ययोपिति ॥ ९५४ अवनं रक्षणप्रीत्योरर्यमा पितृदैवते । तरणौ सूर्यभक्तायामशनिवज्रविद्युतोः ॥ अरनिः कूपरे पाणी संप्रकोष्टतताङ्गुलौ । आसनं विष्टरे 'हस्तिस्कन्धे यात्रानिवर्तने ॥ ९५६ आसनो जीवकतरा वीसनी पण्यवीथिका । आपन्नं सापदि प्राप्तेऽप्यादानं वाजिभूषणे ॥ ९५७ ग्रहणेऽथोत्थानं सैन्यपौरुषे युधि पुस्तके । उद्यमोद्गमहर्षेषु वास्त्वन्तेऽङ्गनचैत्ययोः ॥ ९५८ मौलोत्सर्गेऽन्यथोत्तानः सुप्तोन्मुखागभीरयोः । उद्यानं स्यान्निःसरणे वनभेदे प्रयोजने ॥ ९५९ उद्धानमुद्गमे चुल्ल्यामुदानः पवनान्तरे । सर्पभिद्युदरावर्ते कमनोऽशोकपादपे ॥ ९६० कामिकामाभिरूपेषु कठिनं निष्ठरोखंयोः । कठिनी तु खंटिका स्यात्कठिना गुडशर्करा ॥ ९६१ कर्तनं योषितां तूलसेवने छेदनेऽपि च । क्रन्दनं रोदने ह्वाने कैल्पनं क्लप्तिकर्तने ॥ ९६२ कल्पनेभसज्जनायां कलापी प्लसकेकिनोः । कञ्चकी जोङ्गकतरौ मैहल्ले पन्नगे विटे ॥ ९६३ काञ्चनं हेग्नि किञ्जल्के काञ्चनो नागकेसरे । उदुम्बरे काञ्चनारे पुन्नागे चम्पकेऽपि च ॥ ९६४ काञ्चनी तु हरिद्रायां कानीनः कन्यकासुते । कर्णे व्यासे काननं तु ब्रह्मास्ये विपिने गृहे ॥९६५ कुहनो मुषिके सर्प कुहना दम्भकर्मणि । कुण्डली वरुणे सपै मयूरे कुण्डलान्विते ॥ ९६६ केतनं सदने चिट्टे कृत्ये चोपनिमन्त्रणे । केसर्यर्वणि पुन्नागे नागकेसरसिंहयोः ॥ ९६७ १. 'बाहुबलिन आदिनाथपुत्रस्य' इति टीका. 'मर्यादया स्थितौ नार्याम्' ख. २. 'अस्थाघरन्ध्रयोः' ख. ३. 'वक्र' ख-ग. ४. 'धर्म' ख-ग. ५. 'वक्र' ख. ६. 'सलिले तुण्डे' ख; 'उदके' ग. ७. 'सोहनाख्यौषधीभिदि' ग. ८. 'निषेधः' ख. ९. 'श्वरे ख. १०. 'विश्रब्धोऽनु' ख-ग. ११. 'हैहये' ख-ग. १२. 'ककुभद्रु' ग. १३. 'कुहिनी' ख. १४. 'पशौ' खः 'मस्तै' ग. १५. 'सकोष्ठवितताङ्ग' ग. १६. 'हस्तस्क' ग. १७. 'आसीनी' ख. १८. 'आपन्नः' ख-ग. १९. 'चित्य' खः २०. 'मलोत्स' ख-ग. २१. 'उन्मुखग' ख-ग. २२. 'रोपयोः' ख-ग. २३. 'खट्टिका' ग. २४. 'शर्करी' ग. २५. 'कल्पने' ख-ग. २६. इभसज्जनायां हस्तिसज्ज। नायाम. 'कल्पने भस्वज्ज' ख. २७. 'सोविदल्ले नटेऽप्यहौ' ख. २८. 'मूषके' ख. For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः | ३७ ९६८ ९६९ ९७० ९७१ ९७२ ९७३ ९७४ ९७५ ९७६ ९७८ ९७९ ९८० कौपीनं गुह्यदेशे स्यादकार्ये चीवरान्तरे । कौलीनं जनवादे हि पशुपक्षिशुनां युधि ॥ अकार्ये गुह्यकौलीन्ये गहनं वनदुःखयो: । गरे कलिले चापि गन्धनं तु प्रकाशने ॥ सूचनोत्साहहिंसासु गर्जनं स्तनिते क्रुधि । गृञ्जनं विषदिग्धस्य पशोर्मासे रसोनके ॥ गोस्तनो हारभेदे स्यागोस्तनी हारहरिका । घट्टना चलनावृयोश्चलन: पादर्कम्पयोः ॥ चलनं कम्पे चलनी चौरीभिद्वस्त्रधर्धरी । चन्दनो वानरभिदि श्रीखण्डे चन्दनी नदी || चेतनः स्यात्सहृदयप्राणिनोश्चेतना तु धीः । चीलकी तु नागरङ्गे किष्कुपर्वकरीरयोः ॥ छर्दनोऽलम्बुषे निम्बे छर्दनं वमनेऽपि च । छदनं पर्णगरुतोइछेदनं कर्तने भिदि ॥ जयनं विजयेऽश्वादिसंनाहे जघनं कटौ । स्त्रियाः श्रोणिपुरोभागे जवनो वेगिवेगयोः ॥ वेग्यश्वे नीवृति जवन्यपट्ट्यामौषधीभिदि । जीवनस्तु 'पुत्रजीवे जीवनं वृत्तिवारिणोः ॥ स्याज्जीवना तु मेदायां जीवनी तु मधुस्रवा । तेंलिनं विरले स्वच्छे स्तोकेऽथ तपनो रवौ ।। ९७७ भल्लाते नरके ग्रीष्मे तलुनो यूनि मारुते । तमोघ्नो वह्निसूर्येन्दुबुद्ध केशवशंभुषु || तपस्वी तापसे दीने तरस्वी वेगशूरयोः । तेमनं व्यञ्जने क्लेदे तेमनी चुल्लिभिद्यपि॥ तोदनं व्यपने तोत्रे दहनो दुष्टचेष्टिते । भल्लाते चित्रकेनौ च दमनो वीरपुष्पयोः ॥ दर्शनं दर्पणे धर्मोपलब्ध्योर्बुद्धिशास्त्रयोः । स्वप्नलोचनयोश्चापि दंशनं वर्मदंशयोः ॥ द्विजन्मा वौ रदे विप्रे दुर्नामा पुनरर्शसि । दुर्नामा दीर्घकोरैयां स्याद्देवनोऽक्षेऽथ देवनम् ॥९८२ व्यवहारे जिगीषायां क्रीडायां धमनोऽनले । क्रूरे भस्त्राध्मापके च धमनी कंधरा सिँग || ९८३ दरिद्रा च धावनं तु गते शौचेऽथ नन्दनम् । इन्द्रोद्याने नन्दनस्तु तनये हर्षकारिणि ॥ नलिनं नलिकातोयाम्बुजेषु नलिनी पुनः । पद्माकरे गङ्गाजिन्यो निधनं कुलनाशयोः || निदानं कारणे शुद्धौ तपसः फलयाचने । वत्सदाम्न्यवसाने च धनं युधि दौर || प्रधानं प्रकृतौ बुद्धावुत्तमे परमात्मनि । महामात्रे प्रसूनं तु प्रसूते फलपुष्पयोः ॥ प्रज्ञानं बुद्धौ च च स्यात्प्रसन्नं प्रसादवत् । प्रसन्ना तु मदिरायां पवनो वायुवयोः ॥ पवनं पुनरापाके पद्मिनी योषिदन्तरे । अब्जेऽजिन्यां सरस्यां च पावनं जलकृच्छ्रयोः ॥ ९८९ पावनः पावके सिहेऽध्यासे पावयितर्यपि । पावनी तु हरीतक्यां पाठीनो गुग्गुलद्रुमे ॥ ९९० पाठके मीनभेदे च पिशुनः सूचके खले । केप्यास्ये पिशुना स्पृका स्यात्पिशुनं तुकुङ्कुमम् ||९९१ पीतनं तु हरिताले पीतदारुणि कुङ्कुमे । पीतनः पुनराम्राते पूतना तु हरीतकी ॥ ९९२ वैध्या च वासुदेवस्य पृतनानीकिनी चमूः । सेना सैन्यविशेषश्च फाल्गुनो मासपार्थयोः || ९९३ नदीजेऽर्जुनवृक्षे च फल्गुनी पूर्णिमाभिदि । भवनं सदने भावे भण्डनं कवचे युधि । ९९४ ९८१ ९८४ ९८५ ९८६ ९८७ ९८८ २३ १. 'चाम्बरान्तरे' ग. २. 'कायगुह्ये च कौ' ख. ३. 'स्वनिते' ग. ४. 'दग्धस्य' ख ५. 'तूरिका' ख. ६. 'कम्प्रयोः' ख. ७. 'वारीभिः ' ग. ८. 'चोलना तु' ख; 'चोलनं तु नागरङ्गम्' ग ९. 'पर्ण गरुते' ग. १०. 'स्त्रियः श्रेणि' ग. ११. ' भवेत्पुत्रे' ग घ १२. 'श्रवा' ख १३ 'तलनं' ख. १४. 'वेगिशू' ग घ १५. 'दृहनो दु' ख; 'दहने दु' ग-घ. १६. 'द्विजन्मानौ रदविप्रौ' ग घ १७. 'दुर्नाम' ग घ १८. 'कोशी' ग-घ. १९. 'अनले' ग-ध. २०. 'शिरा' ग घ २१. 'प्रधान' ग घ २२ ' दारुणे' ख. २३. 'सिद्धे व्यासै' ग. २४. 'प्रार्थना याच स्मृता । अभियाने रोधने च' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः २५. 'कप्यासं कपिमुखम् ' इति टीका. 'कार्पासे' ग घ. २६. 'दुग्धदा वा' ग घ २७. 'फल्गुनीपू' ख. For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ अभिधान संग्रहः –८ अनेकार्थसंग्रहः । १००२ खलीकारे भट्टिनी तु ह्मण्यां नृपयोषिति । भावना वासना ध्यानं भुवनं लोकखाम्बुषु ॥ ९९५ भूतात्मा दुहिणे देहे मदनः सिक्थके स्मरे । राढे वसन्ते धत्तूरे मलिनं कृष्णदोषयोः ॥ ९९६ मलिनी रजस्वलायां मण्डनं तु प्रसाधने । मण्डनोऽलंकरिष्णौ स्थान्मार्जनो लोभशाखिनि ।। ९९७ मार्जनं शुद्धिकरणे मार्जना मुरजध्वनौ । मालिन्युमायां गङ्गायां चम्पावृक्षप्रभेदयोः ॥ ९९८ मायां मिथुन राशौ मिथुनं पुंस्त्रियोर्युगे । मुण्डनं रक्षणे क्षौरे मेहनं मूत्रशिनयोः ॥ ९९९ मैथुनं तसंगत्योर्यमनं यमबन्धयोः । यापनं कालविक्षेपे निरासे वर्तनेऽपि च ॥ योजनं तु चतुः कोश्यां स्याद्योगपरमात्मनोः । रसनं ध्वनिते स्वादे रसज्ञारास्नयोरपि ॥ रञ्जनं रञ्जके रक्तचन्दनेऽप्यथ रंजनी । मञ्जिष्टारोचनानीलीगुडासु रजनी निशि ॥ लाक्षानीलहरिद्रासु राधनं प्राप्तितोषयोः । साधने रेचनी गुण्डादन्ती रोनिका त्रिवृत् ॥ १००३ रोदनं त्वश्रुणि क्रन्दे रोचनः कूटशाल्मलौ । रोचना रक्तकहारे गोपिते वरयोषिति ॥ १००४ लङ्घनं भोजनत्यागे प्लवने क्रमणेऽपि च । ललामवलैलामाचे शृङ्गे चिह्नपताकयोः ॥ रम्ये प्रधाने भूषायां पुण्डे पुच्छप्रभावयोः । ललना स्त्रीनडिजिल्हा लाञ्छनं लक्ष्मसंज्ञयोः || १००६ लाङ्गली स्याद्वलभद्रे नालिकेरेऽथ लेखनम् । भूर्जे छेदे लिपिन्यासे व्यसनं निष्फलोद्यमे ||१००७ दैवानिष्टफले सक्तौ स्त्रीपानमृगयादिषु । पापे विपत्तावशुभे व्यञ्जनं श्मश्रुचिह्नयोः ॥ १००८ dadsara कादौ वमनं छर्दनेऽर्दने । वसनं छादने वस्त्रे वर्जनं त्यागहिंसयोः ॥ वर्धनं छेदने वृद्ध वर्धन तु गलन्तिका । वपनं मुण्डने बीजाधानेऽथ वर्तनी पथि ।। वर्तने तर्कपिण्डे च वनश्वा वितारके । शार्दूले गन्धमाजीरे वामनो दिग्गजेऽच्युते ॥ १००५ १००० For Private and Personal Use Only १००१ १००९ १०१० १०११ १०१६ १०१७ वाहिनी नातदसिन्धुषु । स्याद्वाणिनी तु नर्तक्यां छेकमत्तस्त्रियोरपि ॥ १०१२ वितानं दके यज्ञे विस्तारे ऋतुकर्मणि । तुत्थे मन्दे वृत्तभेदे शून्यावसयोरपि || १०१३ विज्ञानं कर्मणे ज्ञाने विलग्नं मध्यलमयोः । विक्लिन्ना जीर्णशीर्णार्द्रा विलीनौ लीनविद्रुतौ ।। १०१४ विषघ्नः शिरीपतरौ विपना त्रिवृतामृता । विच्छन्नं तु कुटिले स्यात्समालब्धविभक्तयोः ॥ १०१५ विमानं देवतायाने संतभूमिगृहेऽपि च । विधानं हस्तिकवले प्रेरणेऽभ्यर्चने धने ॥ aadiपायविधिषु प्रकारे वैरकर्मणि । विपन्नों भुजगे नष्टे विश्वप्सा वह्निचन्द्रयोः || समीरणे कृतान्ते च विलासी भोगसर्पयोः । विषयी विषयासक्ते वैषयिकजने नृपे || कामे विषय पीके व्युत्थानं प्रतिरोधने । विरोधावरणे स्वैर वृत्तौ समधिपारणे ॥ वृजिनः केशे वृजिनं भुवे रक्तचर्मणि । वेष्टनं मुकुटे कर्णशष्कुल्युष्णीषयोर्वृतौ ॥ वेदना ज्ञाने पीडायां शयनं स्वापशय्ययोः । रते शमनस्तु यमे शमनं शौन्तिहिंसयोः ॥ १०२१ श्वसनं श्वासे श्वसनः पवने मदनद्रुमे । शकुनं स्याद्दैवशंसिनिमित्ते शकुनः खगे ॥ शकुनिः खगे करणभेदे कौरवमातुले । शतघ्नी तु वृश्चिकाल्यां शस्त्रभेदकरञ्जयोः ॥ १०१८ । १०१९ १०२० १०२२ १०२३ १. 'खलिकारे' ख. २. 'ब्राह्मण्यां ' ख ग घ ३. 'लोकनाकारखाम्बुपु' ग घ ४. 'अस्मरे' ग घ. ५. 'वृक्ष प्र' ख-ग. ६. 'निराशे' ख. ७. 'गजिनी' ग घ ८ 'स्नुहीपु' ख; 'गण्डासु' ग घ ९. 'गुन्द्रादं' ग घ. १०. 'रोचनका ' ग घ ११. 'कलामा ' ग घ. १२. 'नारी' ग घ १३. 'लाञ्चनं' ख. १४. 'लक्ष्यचिह्न ' ग-व. १५. 'पीठे' ग घ. १६. 'अपि प्रता' ख. १७. 'कोटे' ख; काण्डे' ग घ. १८. 'कदक उल्लोचः ' इति टीका. 'कल्लोले' ख. १९. 'वसथयोः ' ख. २० 'सप्तभूमगृ' खः 'सार्वभौम' ग-त्र. २१. 'भोगिस' ख-ग-घ २२, 'आचरणे' ख ग घ २३ 'शान्तहिं' ग घ . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ३९ ३ त्रिस्वरकाण्डः। शासनं नृपदत्तोठया शास्त्राज्ञालेखशास्तिषु । शिखरी कोट्टकोयटयो?मेऽपामार्गशैलयोः॥ १०२४ शिखण्डी कुकुटे चित्रमेखले बर्हिबर्हयोः । भीष्मारौ बाणे शृङ्गारी सुवेषे क्रमुके द्विपे ॥ १०२५ श्लेष्मन्ना स्यान्मल्लिकायां कम्पिल्यकफणिज्जयोः। शोभन: सुन्दरे योगे सवनं स्नानयागयोः १०२६ सोमनिर्दलने चापि सदनं जलसद्मनोः । स्तननं कुन्थने मेघर्जितध्वनिमात्रयोः ॥ १०२७ स्पर्शनं हृषीके दाने स्पर्श च स्पर्शनोऽनिले । स्यन्दनं स्रवणे तोये स्यन्दनस्तिनिशे रथे ॥१०२८ संव्यानं छादने वस्त्रे समानो देहमारुते । वर्णभित्सत्समैकेषु संतानोऽपत्यगोत्रयोः ॥ १०२९ संततौ देववृक्षे च संस्थानं त्वाकृतौ मृतौ । चतुष्पथे संनिवेशे सजनं घट्टगुल्मके ॥ १०३० सज्जनस्तु कुलीने स्यात्सज्जनापि च कल्पना । संधानं तु संघटनेऽभिषवे संधिनी तु गौः १०३१ वृषाक्रान्ता कालदुग्धा [स्थापनं तु निवेशने । पुंसवने समाधौ च] साधनं सिद्धिसैन्ययोः १०३२ उपायेऽनुगमे मेण्टे निवृत्तौ कारके वधे । दापने मृतसंस्कारे प्रमाणे गमने धने ॥ १०३३ सुकर्मा योगभेदे स्यात्सत्क्रिये देवशिल्पिनि । सुदामा पर्वते मेघे सुधन्वा त्वष्टधन्विनोः ॥१०३४ सुपर्वा पर्वणि शरे त्रिदशे वंशधूमयोः । सूचना स्यादभिनये गन्धने व्यथने दृशि ॥ १०३५ सेवनं सीवनोपास्योः सेनानीः सैन्यपे गुहे । हायनोऽचिौहिर्वर्षं हादिनी वनविद्युतोः १०३६ हिण्डनं क्रीडारतयोर्यानेऽनूपस्तु सैरिभे । जलप्रायेऽप्यथावापः पानभेदालवालयोः ॥ १०३७ प्रक्षेपे भाण्डपंचनेऽप्याक्षेपः परिभर्सने । काव्यालंकरणाकृष्टयोः स्यादाकल्पस्तु मण्डने ॥ १०३८ कल्पने चाप्युलपस्तु गुल्मिनीतृणभेदयोः । उडुपः प्लवंशशिनोः कलापो बर्हतूणयोः ॥ १०३९ संहती भूषणे काश्यां कच्छपो मल्लबन्धके । कमठे कच्छपी वीणा सिपुर्भोज्यवस्त्रयोः ॥१०४० एकैकस्मिन्द्वयोश्चापि कश्यपो मुनिमीनयोः । काश्यप्युया कुतपस्तु छागकम्बलदर्भयोः ॥१०४१ वैश्वानरे दिनकरे द्विजन्मन्यतिथौ गवि । भागिनेयेष्टमांशेऽहो वाद्येऽथ कुटपो मुनौ ॥ १०४२ निष्कुटे मानभेदे च कुणपः पूतिगन्धिनि । शवे जिहापस्तु शुनि व्याने द्वीपिविडालयोः॥१०४३ पादपो द्रौ पादपीठे पादपा पादरक्षणे । रक्तपः स्याद्यातुधाने रक्तपा तु जलौकसि ॥ १०४४ विटपः पल्लवे स्तम्बे विस्तारे षिङ्गशाखयोः । सुरूपस्तु बुधे रम्ये प्राप्तरूपाभिरूपवत् ॥ १०४५ कदम्बः सर्षपे नीपे कैदम्ब निकुरुम्बके । कलम्बो नालिकाशाके पृषत्के नीपपादपे॥ १०४६ कादम्बः कैलहंसेप्नोनितम्बः कटिरोधसोः। स्त्रियाः पश्चात्कटौ सानौ प्रलम्बस्तु प्रलम्बनम् १०४७ दैत्यस्तालाङ्कुरः शाखा प्रालम्बस्तु पयोधरे । पुसे हारभेदे च भूजम्बूस्तु विकङ्कते ॥ १०४८ गोधूमाह्वयधान्ये च हेरम्बः शौर्यगर्विते । महिषे विघ्नराजे चारम्भस्तु वधदर्पयोः॥ १०४९ वरायामुद्यमे चाप्यात्मभूर्ब्रह्मणि मन्मथे । ऋषभः स्यादादिजिने वृषभे भेषजे स्वरे ॥ १०५० कर्णरन्ध्रे कोलपुच्छे श्रेष्टे चाप्युत्तरे स्थितः । ऋषभी तु शूकशिम्ब्यां पुरुषाकारयोषिति ॥१०५१ १. 'शान्तहि' ग-य. २. 'चित्रामलेखे वर्षिवहयोः' ग-घ. ३. 'श्लेष्माध्मा' ग-ध. ४. 'शोचनः' ग-घ. ५. 'जनस' ग-ध. ६. 'ऋन्दिते' ख. ७. 'श्रवणे' ख. ८. 'वृक्षेषु' ग-घ. ९. 'संघट्टिते' ग-घ. १०. 'अभि के' ख. ११. धनुचिहान्तर्गतपाठ: ख-पुस्तके त्रुटितः. १२. 'उपगमे' ख, १३. 'मेढ़े' ख-ग-घ. १४. 'हापनोऽचिव्रीहि' ग-घ. १५. 'पवने' ग-घ. १६. 'प्लवशीतांश्वोः' ख. १७. 'कशिपु' ग-घ. १८. 'काश्यपो मु' ग-घ. १९. 'प्रतापस्तेजसि स्वेदे पादपो वृक्षपीठयोः' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. २०. 'रक्तपो रक्षो रक्तपा तु जलौका विटपः पुनः' इति ख-पुस्तक एवं पाठ:. २१. 'पल्लवेऽपि च वृक्षे च विस्तारे षिङ्गशाखिनोः' ख-पुस्तक एवम्. २२. 'कदम्बे' ख. २३. 'निकुरम्बके' ग-घ. २४. 'कलहंसेवोनि' ख. २५. 'त्रपुषे' ग-घ. For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । विधवायां सिग़लायां करभो मय उष्ट्रके । अङ्गुलेश्च कनिष्ठाया मणिबन्धस्य चान्तरे ॥ १०५२ ककुभो वीणाप्रसेवे रागभेदेऽर्जुनद्रुमे । कुसुम्भं तु शातकुम्भे स्याल्लट्वायां कमण्डलौ ॥ १०५३ गर्दभो गसभे गन्धे गर्दभी जन्तुरुग्भिदोः । गर्दभं कुमुदभेदे दुर्लभः कच्छरे प्रिये ॥ १०५४ दुष्प्रापेऽपि दुन्दुभिस्तु भेर्या दितिसुते विषे । अक्षविन्दुत्रिकद्वन्द्वे निकुम्भः कुम्भकर्णजे ॥१०५५ दन्त्यां च वल्लभोऽध्यक्षे कुलीनाश्वे प्रियेऽपि च । वर्षाभूः पुनर्नवायां स्याद्गण्डूपदभेकयोः ॥१०५६ विष्कम्भो विस्तृतौ योगविशेषप्रतिबन्धयोः । योगिनां च बन्धभेदे रूपकावयवेऽपि च ॥ १०५७ विश्रम्भः केलिकलहे विश्वासे प्रणये वधे । वृषभः स्यादादिजिने वृषपुंगवयोरपि ॥ १०५८ सनाभिऊतिसदृशोः सुरभिर्हेनि चम्पके । जातिफले मातृभेदे रम्ये चैत्रवसन्तयोः ॥ १०५९ सुगन्धौ गवि मल्लक्यामधमो न्यूनगयोः। आगमस्त्वागतौ शास्त्रेऽप्याश्रमो व्रतिनां मटे १०६० ब्रह्मचर्यादिचतुप्केऽप्युत्तमा दुग्धिकोषधौ । उत्तमं तु प्रधाने स्यात्कलमः शालिचौरयोः ॥ १०६१ कुसुमं स्त्रीरंजोनेत्ररोगयोः फलपुष्पयोः । कृत्रिमं लवणभेदे कृत्रिमः कृतसिहयोः ॥ १०६२ गोधूमो भेषजे नागरङ्गवीहिप्रभेदयोः । गोलोमी वारयोषायां षड्यन्धासितदूर्वयोः ॥ १०६३ गौतमो गणभृद्भेदे शाक्यसिंहर्षिभेदयोः । गौतम्युमायां रोचन्यां तलिमं तल्पखगयोः ॥ १०६४ विनाते कुट्टिमे चापि दाडिमः करकैलयोः । निष्क्रमो निर्गमे बुद्धिसंपत्तौ दुष्कुलेऽपि च १०६५ नियमः स्यात्प्रतिज्ञायां निश्चये यन्त्रणे व्रते । निगमाः पूर्वणिग्वेदनिश्चयावणिक्पथाः ॥ १०६६ नैगमो नयपौरोपनिषतिषु वाणिजे । प्रथमः स्यात्प्रधानाद्योः प्रक्रमोऽवसरे क्रमे ॥ १०६७ पञ्चमो रुचिरे दक्षे पञ्चानामपि पूरणे । रागभेदे पञ्चमी तु द्रौपद्यां परमः परे ॥ १०६८ अग्रेसरप्रथमयोरोङ्कारे परमं पुनः । स्यादव्ययमनुज्ञायां प्रतिमा प्रतिरूपके ॥ १०६९ गजस्य दन्तबन्धे च] मध्यमो मध्यजे स्वरे । देहमध्ये मध्यदेशे मध्यमा कणिकाङ्गुलिः ॥ १०७० रॉका रजस्वला चापि व्यायामः पौरुषे श्रमे । वियामे दुर्गसंचारे विलोममरघट्टके ॥ १०७१ विलोमो वरुणे सर्प प्रतीपे कुर्कुरेऽपि च । विलोमी स्यादामलक्यां विक्रमः शक्तिसंपदि १०७२ क्रान्तौ च विद्रुमो वृक्षे प्रवालेऽप्यथ विभ्रमः। शोभायां संशये हाँवे सत्तमः श्रेष्ठपूज्ययोः १०७३ साधिष्टे संभ्रमो भीतौ संवेगादरयोरपि । सुपीमः शिशिरे रम्ये सुषुमं रुचिरे समे ॥ १०७४ सुषमा तु स्यात्परमशोभायां कालभिद्यपि । अत्ययोऽतिक्रमे दोषे विनाशे दण्डकृच्छयोः ॥१०७५ अवध्यमवधा] स्यादनर्थकवचस्यपि । अभयमुशीराभीत्योरभया तु हरीतकी ॥ १०७६ अनयोऽशुभदैवे स्याद्विपद्व्यसनयोरपि । अश्वीयमश्वसङ्ग्रेऽश्वहितेऽधृष्यः प्रगल्भके ॥ १०७७ अधृष्या निम्नगाभेदेऽहल्या गौतमयोषिति । सरोभेदेऽप्यभिख्या तु शोभायां कीर्तिसंज्ञयोः१०७८ अहार्यो हर्तुमशक्ये शैलेथाशय आश्रये । अभिप्रायपनसयोरादित्यस्त्रिदशार्कयोः ॥ १०७९ १. 'भय उ' ख. २. 'रोगभे' ग-घ. ३. 'मञ्जिष्ठायां क' ख. ४. 'कुमुदे श्वेते' ख; 'सितकुमुदे' ग-घ. ५. 'कच्छपे' ख. ६. 'विशे' घ. ७. 'अर्धबि' ग-घ. ८. 'शल्लक्याम्' ख-ग-घ. ९. 'राजन्याम्' ग-घ. १०. 'वणि' ख. ११. 'दृतिपु' ख-ग-घ. १२. 'आकारे' ख; 'अकारे' ग-घ. १३. 'प्रतिमः प्रतिरूपके' ख; धनुचिहान्तर्गतपाटो ग-घ-पुस्तकयोस्त्रुटितः. १४. 'कन्यार' ग-घ. १५. 'कुक्कुरे' ग-घ. १६. 'ऋतौ' ख. १७. 'भावे' ख. १८. 'सुषमम्' ख. १९. 'विक्रमे ख. २०. 'अश्वीयमश्वनिवहे तथाश्वस्य हितेऽपि च । अव्ययः शब्दभेदेऽपि निर्व्यये परमेश्वरे । अगस्त्यो सुनौ द्रुभेदे स्यात्' इति ग-घ-पुस्तकयोरधिकः पाठः, २१. 'अप्याश' ख-ग-घ. For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः । आत्रेयो मुनिरात्रेयी पुष्पवत्यां सरिद्भिदि।आतिथ्योऽतिथौ तद्योगेऽप्याम्नायः कुल आगमे १०८० उपदेशे चेन्द्रियं तु चक्षुरादिषु रेतसि । उदयः पर्वतोन्नयोरूर्णायुरविकम्बले ॥ १०८१ ऊर्णनाभे च मेषे चैणेयमेणीत्वगादिके । रतबन्धभिदि स्त्रीणां कपायः सुरभौ रसे ॥ १०८२ रागवस्तुनि निर्यासे क्रोधादिषु विलेपने । वर्णे कालेयस्तु दैत्ये कालेयं कुङ्कुमं यकृत् ॥ १०८३ कुलायः पक्षिणां स्थानगेहयोः क्षेत्रिया स्त्रियः। अन्यदेहचिकित्साहीं साध्यरुक्पारदारिका १०८४ क्षेत्रियं क्षेत्रजतृणे गाङ्गेयं स्वर्णमुस्तयोः । कैसेरुण्यथ गाङ्गेयो गाङ्गवत्स्कन्दभीष्मयोः ॥१०८५ चक्षुष्यः सुभगे पुण्डरीकवृक्षे रसाञ्जने । कनकेऽक्षिहिते चापि चक्षुष्या तु कुलत्यिका ॥ १०८६ चाम्पेयो हेम्नि किञ्जल्के चम्पके नागकेसरे । जघन्यं शिश्ने गर्थेऽन्ये जटायुर्गुग्गुलौ खगे १०८७ तपस्यः फाल्गुने मासे तपस्या नियमस्थितौ द्वितीया तिथिगेहिन्योद्वितीयः पूरणे द्वयोः १०८८ नादेयी जलवानीरे भूजम्बूनागरङ्गयोः । काङ्गुष्टे च जपायां च निकायः सद्मसङ्घयोः ॥ १०८९ परमात्मनि लक्षे च घेणयः प्रेमयाच्चयोः । विश्रम्भे प्रसरे चापि प्रत्ययो ज्ञानरन्ध्रयोः ॥ १०९० विश्वासे शपथे हेतावाचारंप्रेथितत्वयोः । अधीने निश्चये स्यादौ प्रणाय्यः कामवर्जिते ॥ १०९१ असंमते प्रसव्यस्तु प्रतिकूलानुकलयोः । प्रतीक्ष्यः प्रतिपाल्ये स्यात्पूज्ये च प्रलयो मृतौ ॥ १०९२ संहारे नष्टचेष्टत्वे पर्यायोऽवसरे क्रमे । निर्माणे द्रव्यधर्मे च पर्जन्यो गर्जदम्बुदे ॥ १०९३ वासवे मेघशब्दे च पयस्यं तु पयोभवे । पयोहिते पयस्या तु काकोलीदुग्धिकापि च ॥ १०९४ प्रक्रिया तूत्पादने स्यादधिकारप्रकारयोः । पानीयं पेयजलयोः पारुष्यस्तु बृहस्पतौ ॥ १०९५ पारुष्यं पुरुषभावे संक्रन्दनवनेऽपि च । पौलस्त्यो रावणे श्रीदे भ्रातृव्यो भ्रातृजे रिपौ ॥१०९६ भुजिष्यः स्यादैनधीने किङ्करे हस्तसूत्रके । भुजिष्या गणिकादास्योर्मलेयः पर्वतान्तरे ।। १०९७ शैलांशे देश आरामे मलया त्रिवृतौषधौ । मङ्गल्यो रुचिरेऽश्वत्थे त्रायमाणे मसूरके ॥ १०९८ बिल्वे मङ्गल्यं तु दनि मङ्गल्या रोचना शमी । शतपुष्या शुक्लबचा प्रियङ्गुः शङ्खपुष्प्यपि ॥१०९९ अन्धपुष्पी मृगयुस्तु फेगै ब्रह्मणि लुब्धके । रहस्यं गोपनीये स्याद्रहस्या सरिदन्तरे ॥ ११०० लौहित्योऽब्धौ नदे व्रीहौ ब्रह्मण्यो ब्रह्मणे हिते । शनैश्चरे व्यवायस्तु मैथुनव्यवधानयोः ॥११०१ वदान्यः प्रियाग्दानशीलयोरुभयोरपि । वक्तव्यो वाच्यवद्गा वचोर्हहीनयोरपि ॥ ११०२ वलयः कङ्कणं कण्ठरुग्यालेयस्तु गर्दभे । वल्यर्थे कोमलेऽङ्गारवल्लयां विजयो जये ॥ ११०३ पार्थे विमाने विजयो मातत्सख्योस्तिथावपि । विषयो यस्य योऽज्ञातस्तत्र गोचरदेशयोः ॥ ११०४ शब्दादौ जनपदे च विस्मयोऽद्भुतदर्पयोः । विनयः शिक्षाप्रणत्योविनया तु बलौषधौ ॥ ११०५ विशल्या लाङ्गलीदन्तीगडूचीत्रिपुटासु च । शल्येन रहितायां च प्रियायां लक्ष्मणस्य च ॥ ११०६ १. 'पर्वतोत्पत्त्योः ' ग-ध. २. 'रतबन्धादिपु स्त्री' ख. ३. 'त्रयः' ख-ग-घ, ४. 'कशेरु' ख. ५. 'गहिते शिश्ने ख. ६. 'अल्पे' ग-घ. ७. 'मासि' ख; 'पार्थे' ग-घ. ८. 'द्वये' ग-घ. ९. 'काङ्गण्यां च' ख; 'व्यङ्ग च' ग-घ. १०. 'निलयोऽस्तमये गृहे । गोपनस्य प्रदेशेऽपि नेपथ्यं तु प्रसाधने । रङ्गभूमौ वेषभेदे' इति खपुस्तकेऽधिकः पाठः. ११. 'विखम्भे' ग-घ. १२. 'प्रेषित' ख. १३. 'स्वादौ ग-ध. १४. 'प्रसय्यस्तु' ख. १५. 'निर्वाणे' ख, १६. 'गर्जदम्बुजे' ख. १७. 'पयस्यस्तु' ख. १८. 'अवधीने' ग-व. १९. 'हस्तसूचके' ख. २०. 'भुवन्युर्वहि सूर्ययोः । मलयी देश आरामे शैलांशे पर्वतान्तरे । मलया त्रिवृन्मङ्गल्यस्त्रायमाणे मसूरके ।' इति ख-पुस्तकस्थः पाठः. २१. 'विश्वे' ग-घ. २२. 'पुष्पा' ग-ध. २३. 'ब्रहाणो हि' ग घ. २४. वागुदारशी' ग-ध. २५, 'गृह्ये' ग-य. For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । श्वशुर्यो देवरे श्याले शाण्डिल्यः पावकान्तरे । विल्वे मुनौ च शालेयं शतपुष्पाहयौषधौ ।। ११०७ क्षेत्रे च शालिधान्यस्य शीर्षण्यं शीर्षरक्षणे । शीर्षण्यो विशदे केशे शैलेयं शैलसंभवे ॥ ११०८ सिन्धूत्थे तालपां च शैलेयस्तु मधुव्रते । समयः शपथे भाषासंपदोः कालसंविदोः ॥ ११०९ सिद्धान्ताचारसंकेतनियमावसरेषु च । क्रियाकारे च निर्देशे संस्त्यायो विस्तृतौ गृहे ॥ १११० संनिवेशे संनयस्तु समवायानुसैन्ययोः । [सामर्थ्य योग्यताशक्त्योः सौरभ्यं गुणगौरवे ॥ ११११ सौगन्ध्यं चारुतायां च हिरण्यं पुनरक्षये । प्रधानधातौ कनके मानभेदे कपर्दके ॥ १११२ द्रविणाकुप्ययोश्चापि हृच्छयो मन्मथात्मनोः । हृदयं वक्षसि स्वान्ते वृकायाममरः सुरे।। १११३ मुहीवृक्षेऽस्थिसंहारेऽप्यमरा त्वमरावती । स्थूणा दूर्वा गडूची चान्तरं रन्ध्रावकाशयोः ॥१११४ मध्ये विनार्थे तादर्थे विशेषेऽवसरेऽवधौ । आत्मीयात्मपरीधानान्तधिबाह्येष्वथावरम् ॥ १११५ चरमेऽवरा तु गौरीगजजङ्घान्त्यदेशयोः । अक्षरं स्यादपवर्गे परमब्रह्मवर्णयोः ॥ १११६ गगने धर्मतपसोरध्वरे मूलकारणे । अधरोऽनलहीनोष्टेष्वम्बरं व्योमवस्त्रयोः ॥ १११७ कसे सुरभिद्रव्येऽररं छदकपाटयोः । अङ्करो रोम्णि सलिले रुधिरेऽभिनवोद्गमे ॥ १११८ अजिरं दर्दुरे कार्य विषये प्राङ्गणेऽनिले । अशिरोऽर्के राक्षसेऽनावङ्गारो लातभौमयोः ॥ १११९ अण्डीरः शक्तनरयोरसुरः सूर्यदैत्ययोः । असुरा रजनीवास्योरगुरुस्त्वगरौ लघौ ॥ ११२० शिंशपायामथाहारो हार आहरणेऽशने । आसारो वेगवद्वर्षे सुहृद्धलप्रसारयोः ॥ ११२१ आकार इङ्गिताकृत्योराधारो जलधारणे । आलवालेधिकरणेऽप्याकरो निकरे खनौ ॥ ११२२ इतरः पामरेऽन्यस्मिन्नित्वरः क्रूरकर्मणि । पथिक दुर्विधे नीचे स्यादित्वर्यभिसारिका ।। ११२३ ईश्वरः स्वामिनि शिवे मन्मथेऽपीश्वराद्रिजा । उदरं तुन्दरणयोरुत्तरं प्रवेरोर्ध्वयोः ॥ ११२४ उदीच्यप्रतिवचसोरुत्तरस्तु विराटजे । उद्धारः स्याद्वणोद्धृत्योरुदारो दक्षिणो महान् ॥ १२२५ दातोर्वरा तु भूमात्रे सर्वसस्यान्य व्यपि । ऋक्षरं वारिधारायामृक्षरः पुनर्ऋत्विजि ॥ . ११२६ एकाग्रौ तद्गताव्यग्रावौशीरं शयनासने । उशीरजे चामरे च दण्डे च कररः खगे ॥ ११२७ करीरे ऋकचे दीने कर्बुरं काञ्चने जले । कर्बरो राक्षसे पापे शबले कन्दरोऽङ्कशे ॥ ११२८ विवरे च गुहायां च कर्करो मुकुरे दृढे । कदरः श्वेतखदिरे क्रकचक्षुद्ररोगयोः ॥ ११२९ कर्परस्तु कटाहे स्याच्छत्रभेदकपालयोः । कैंडूरं कुत्सिते तक्रे कडारो दासपिङ्गयोः ॥ ११३० केआरः कुञ्जरे सूर्ये जरटे द्रुहिणे मुनौ । करीरः कलशे वंशाङ्कुरवृक्षविशेषयोः ॥ ११३१ कलत्रं श्रोणी भार्यायां दुर्गस्थाने च भूभुजाम् । कटिनं तु कटीवस्त्रे रसनाचर्मभेदयोः ॥] ११३२ कच्छुरः पुंश्चले पामासहिते कच्छुरा संढी । दुःस्पर्शा शेकशिम्बी च कवरं लवणाम्लयोः ॥११३३ कबरी केशविन्यासशाकयोः कन्धरोऽम्वुदे । कन्धरा तु शिरोधौ स्यात्कशेरु पृष्ठकीकसे ||११३४ १. 'विटे' ख. २. 'औषधे' ख-ग-घ. ३. 'शालिधैन्यस्य' ख. ४. धनुचिहान्तर्गतपाठो ग-य-पुस्तकयोस्त्रुटितः. ५. 'भानभे' ख. ६. 'आत्मात्मीयप' ख; 'आत्मीयान्तःप' ग घ. ७. 'अपामार्गे' ग-व. ८. 'अम्बरे' ख. ९. 'अन्तद्धि' ख. १०. 'कार्पासे सुरभिद्रव्ये रदच्छदकपापयोः' ग-घ. ११. 'रोम्नि' ग-घ. १२. 'रास्योः' ग-ध. १३. 'अथावीरा नारीपतिसुतोकिता । रजसासंयुताप्युक्ता' ख. १४. 'वेल' ख. १५. 'प्रवणोर्ध्व' ग-घ. १६. 'क्रकरः' ग-घ. १७. 'कन्दुरेऽङ्करे' ग-ध. १८. 'ककरं ख. १९. धनुश्चिन्हान्तर्गतपाठ: ख-पुस्तके त्रुटितः. २०. 'शाही' ख; 'शटी' ग-घ. २१. 'सूक' ख-ग-व. For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिखरकाण्डः | ४३ ११३५ ११३६ ११३७ ११३९ ११४५ durrat कन्दभेदे कणेरुस्तु गणेरुवत् । वेश्येभी कर्णिकारेषु कटप्ररक्षदेवने ॥ विद्याधरेऽस्रपे रुद्रे कान्तारं दुर्गवर्त्मनि । महारण्योपसर्गाद्योः काननेक्षुविशेषयोः ॥ काश्मीरं पुष्करमूले टङ्ककुङ्कमयोरपि । कावेरी तु हरिद्रायां वेश्यायां सरिदन्तरे ॥ किर्मीरः शवले दैत्ये किशोरो हयशावके । सूर्ये शून्यथ किंशारुधन्यशु के शरेऽपि च ॥ ११३८ कुहरं गहरे छिद्रे कुकुरं ग्रन्थिपर्णके । कुक्कुरः वा कुबेरस्तु धनदे नन्दिपादपे || कुर्परौ जनुकणी कुमारोऽश्वानुचारके । युवराजे शिशौ स्कन्दे शुके वरुणपादपे ॥ कुमारं जायकनके कुमारी खपराजिता । नदीभिद्रीमतरणी कन्यकानवमाल्युमा || जम्बूद्वीपविभाग कुंटारं केवले रते । कुञ्जरोऽनेकपे कैसे कुञ्जरा धातकीदुमे ॥ पाटलायां कुठारुर्दुकीशयोः कूबरः पुनः । कुब्जे युगंधरे रम्ये केसरो नागकेसरे | तुरङ्गसिंहयोः स्कन्धकेशेषु बकुलद्रुमे । पुन्नागवृक्षे किञ्जल्के स्यात्केसरं तु हिङ्गुनि ॥ केदारः क्षेत्रभिद्यालवाले शङ्कर शैलयोः । केनारः कुम्भिनरके शिरःकपालसंधिषु || केटिरुंः शक्रगोपे स्यान्नकुले पाकशासने । 'कोट्टारो नागरे कूपे पुष्करिण्याश्च पाटके ।। ११४६ रस्स्करे भिक्षापात्रे धूर्त कपालयोः । खपुरो मस्तके पूगे लसके खपुरं घंटे ॥ ११४७ खर्जूरं रूप्यफलयोः खर्जूरः कीटवृक्षयोः । खण्डाभ्रमभ्रावयवे स्त्रीणां दन्तक्षतान्तरे ॥ ११४८ खदिरी शाके खदिरो दन्तधावनचन्द्रयोः । खिचिरस्तु शिवाभेदे खट्टा वारिवलिके || ११४९ खिजीरावहुत्वेच गरो बिलदम्भयोः । कुञ्जेऽथ गर्गरो मीने स्याद्वर्गरी तु मन्थनी ॥ ११५० गान्धारो रागसिन्दूरखरेषु नीवृदन्तरे । गायत्री खदिरे छन्दोविशेषे गोपुरं पुनः ॥ मुस्तके द्वार पूरे घर्घरस्तु नदान्तरे । चलद्वारिध्वनौ घूके चन्दिरश्चन्द्रहस्तिनोः ॥ चत्वरं स्यात्पथां श्लेषे स्थण्डिङ्गणयोरपि । चङ्कुरः स्पन्दने वृक्षे चतुरो नेत्रगोचरे ॥ चाटुकारे चण्डावपि चातुरको यथा । चमरचामरे दैत्ये चमरी तु मृगान्तरे || चिकुist गृहे केशे चञ्चलशैलयोः । पक्षिवृक्षभिदोश्चापि छिदिरोऽनौ परश्वधे । करवाले च रज्जौ च छिवरो वैरिधूर्तयोः । छित्वरं छेदनद्रव्ये जठरः कुक्षिद्धयोः ॥ ११५६ कठिने च जर्जरं तु वासवध्वजजीर्णयोः । जम्बीर: प्रस्थपुष्पाख्यशाके दन्तशठद्रुमे ॥ ११५७ जलेन्द्रो जम्भम्भोधौ वरुणेऽप्यथ झर्झरः । वद्ये नदे कलियुगे झलरीवत्तु झल्लरी ॥। ११५८ वाद्यभेदे केशचक्रे टङ्कारो ज्योरवेऽद्भुते । प्रसिद्धौ चाथ टगरङ्कणकेकराक्षयोः ॥ ११५९ aai aanter लम्पापटहवाद्ययोः । तमिस्रं तिमिरे कोपे तमिस्रा दर्शयामिनी ॥ ११६० ११५१ ११५२ ११५३ ११५४ ११५५ For Private and Personal Use Only ११४० ११४१ ११४२ ११४३ ११४४ १. ‘शणजा' गन्ध. २. 'कर्चूरं श...तालयोः । कठोरौ पूर्णकठिनौ' ख. ३. 'अब्ज' ग घ . ४. 'पुष्करे मूले' ख; 'पौष्करे मूले' ग घ ५. 'जानुकफोणी' ग घ ६. 'रामतरण्योषधिः' इति टीका. 'तरुणी' ख-ग-व. ७. 'कुटीरं कम्बले' ख; 'कुटीरं' गन्घ. ८. 'कोशे' ख. ९. 'कीटयोः ख. १०. ' केटति केटिरु: सियुगेरुनमेर्वादयः' इति टीका. ११. 'कैटिर: श' खः 'कोटिरः श' मेदिन्याम्. 'पुष्करिण्या नगर्याः पाटके एकदेशे' इति टीका. १२. 'खर्पर' ख. १३. 'घटे' ग. १४. 'वास्तुके' ख. १५. 'खिजिरा' ख; 'खिङ्घिरी' ग-व. १६. ‘अङ्गनयो' गन्ध. १७. ' चाटुकारे बुधे चक्रगण्डे चा ' ख; 'चटुकारे' गन्ध. १८. 'छित्वरो 'दैत्य' ख; 'छिदुरो वै' ग घ . १९. 'वृद्ध' ख. २०. ' वाद्ये नदे कलियुगे झल्लरीवत्तु झर्झरी' ख; 'वाद्यभाण्डे कलियुगे झल्लरीवत्तु झिल्लरी' ग घ. २१. ' केशवक्रे' ग घ . २२. 'भवेऽद्भु' ख. २२. 'टङ्कने केकराक्षके' ख; 'टङ्कणेकराक्षके' गन्घ. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४४ अभिधान संग्रह: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । ११६४ ११६५ ११६६ ११६७ 70 ૧૨ ११७१ ११७२ ११७३ ११७४ तमस्ततिस्तिमिरं तु दृष्टिरोगान्धकारयोः । तित्तिरिः पक्षिणी मुनौ तुषारो हिमदेशयोः || ११६१ शीकरे हिमभेदे च तुम्बरी धान्यकं शुनी । तूबरो श्मश्रुपुरुषे प्रौढा शृङ्गानडुह्यपि || ११६२ दहरो मूषिकास्वल्पभ्रात्रोडिम्भेऽथ दन्तुरः । उन्नतदन्ते विषमे दर्दुरो भेकमेवयोः ॥ ११६३ वाद्यभाण्डे शैलभेदे दर्दुरं ग्रामजालके । दर्दुरोऽमा दर्दरः स्यादीप गिरावपि || tusra वहने मत्तवारणे शरयत्रके । कुम्भकारस्य चक्रे च द्वापरं संशये युगे ॥ दासेर उष्टे बेटे च दुर्द्धरवृपभीषथी । दुःखधर्मे धूसरस्तु रासभे स्तोकपाण्डुरे || नरेन्द्रो वार्तिके राज्ञि विषवैद्येऽथ नागरम् । गुण्ठीमुस्तकपौरेषु निर्जरस्खंजरे सुरे ॥ निर्जरा तु तालपत्र्यां गुडूच्यां तत्त्वभिद्यपि । निर्नरोऽर्कावे तुषानौ निकेरः सारसङ्घयोः ॥ ११६८ न्यायदातव्यवित्ते च निर्वरं तु गतत्र । कठिने निर्भये सारे निकारस्तु पराभवे ॥ ११६९ धान्योत्क्षेपे "नीवरस्तु वास्तव्येऽपि वणिज्यपि । प्रवरं संततौ गोत्रे श्रेष्टे च प्रखरः पुनः ॥ ११७० वेसरे हग्रसन्नाहे कुकुरेऽतिभृशं खरे | प्रकरः 'कीर्णे पुष्पादौ संहतौ प्रकरं पुनः ॥ जोङ्ग प्रकरी वर्धप्रकृतौ चत्वरावनौ । प्रस्तरः प्रस्तारे ग्रणि मणौ च प्रदरः शरे ॥ भङ्गे रोगे प्रसरस्तु संगरे प्रणये जत्रे | प्रकारः सदृशे भेदे पङ्कारो जलकुञ्जके || सोपाने सेवले सेतौ पदारः पादधूलिषु । पादालिन्दे पवित्रं तु मेध्ये ताम्रे कुशे जले ॥ अपकरणे चापि पवित्रा तु नदीभिदि । प्रान्तरं कोटरेऽरण्ये दूरशून्यपथेऽपिच ॥ पारो भस्मनि यमे जराटे नीपकेसरे । क्षयरोगे भक्तसिक्थे पामरो मूर्खनीचयोः ॥ पाटीरो मूलके वङ्गे तितऔ वार्तिकेऽम्बुदे | केदारे वेणुसारे च पाण्डुरो वर्णतद्वतोः ॥ पाण्डुरं तु मरुब पिण्डारो भिक्षुके द्रुमे । महिषी पालके क्षेत्रे पिठरं मथि मुस्तके ॥ ११७८ उखायां च पिञ्जरस्तु "पीतरक्तेऽश्रभिद्यपि । पिञ्जरं शातकुम्भे स्यात्पीवरः स्थूल कूर्मयोः ॥ ११७९ पुष्करं द्वीपतीर्थाहिखगरांगौपधान्तरे । तूर्यास्येऽसिफले काण्डे शुण्डाग्रे खे जलेऽम्बुजे || ११८० शोधूरो रम्यनम्रयोः । बन्धुरस्तु तयोर्हसे बन्धुजीवविडङ्गयोः || बन्धुरा पण्ययोषायां बेर्बरा नीवृदन्तरे । बैर्बरस्तु हञ्जिकायां पामरे केशचक्रेले ॥ पुण्ये बर्बरा शाके बर्करः पशुनर्मणोः । वेदरा स्यादेलापण्यां विष्णुकान्तौषधावपि ।। ११८३ बदरी कोलिकर्पास्योर्भ वक्रनश्वरौ । भ्रामरं मधुमदोर्भास्करो वह्निसूर्ययोः ॥ भार्यारुरन्यस्त्रीपुत्रोत्पादके मृगशैलयोः । भृङ्गारी तु चीरिकायां भृङ्गारः कनकालुका ॥। ११८५ मत्सरः परसंपत्त्युक्षमायां तद्वति कुधि । कृपणे मत्सरा तु स्यान्मक्षिका मकरो निधौ ॥ ११८६ न राशिविशेषे च मन्दरो मन्थपर्वते । स्वर्गमन्दारयोर्मन्दे बहले मधुरं विषे ॥ मधुरस्तु प्रिये स्वाद रसे च रसवत्यपि । मधुरा मथुरा पुर्या यष्टीमेदामधूलिषु ॥ ११७५ ११७६ ११७७ ११८१ ११८२ ११८४ ११८७ ११८८ १. 'तुबरी धा' ख ग घ २. 'श्रान्तडिम्भे' ख. ३. 'भेदे' ग घ. ४. 'भेदे' ख. ५. 'दण्डरो वाहने ' व. ६. ‘यन्त्रे' ख. ७. 'चेष्टे' ख. ८. "वैयें' ग घ ९. 'असुरे' ख; 'निर्जरे' गन्ध. १०. 'निर्झर' गव. ११. 'निसारः ग-व. १२. 'नीवारस्तु वास्तव्ये विपणिवा' ख. १३. 'कीर्णपुष्पादौ' ख ग घ १४. 'ग्रावणिम' ग-व. १५. 'भीत' ख. १६. 'राजौष' ख. १७. 'मूर्खश' ख; 'अम्बष्ठ' ग घ. १८. 'बन्धुरो र' गन्ध. १९. 'बन्धुरं तु' ग-व. २०. 'बर्बरो नी' ग व २१. 'वरस्तु दण्डिकायां' ख; 'बर्बराउ फञ्जिकायां' ग-व. २२. 'वकले' ख. २३. 'बन्दरः' ख. २४. 'वादरं तु तयोः फले । बादरस्तु कर्पासास्नि' ख; 'बदरं तु' ग घ . २५. 'स्याज्झिल्लिकायाम्' ग घ. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः । ४५ ११९६ ११९७ ११९८ ११९९ मधुकुक्कुटिकायां च मिश्रेयाशतपुष्पयोः । मन्दिरो मकरावासे मन्दिरं नगरे गृहे ॥ ११८९ मन्थरः सूचके कोशे वक्रे मन्दे पृथौ मथि । मन्थरं तु कुसुम्भ्यां स्यान्मन्दारस्त्रिदशमे १९९० पारिभद्रेऽर्कपर्णे च मसूरो मसुरोऽपि च । मसुरा च मसूरा च चत्वारः पण्ययोषिति ॥ ११९१ तथा विशेषेऽपि मर्मरो वसनान्तरे । शुष्कपत्रध्वनौ चापि मर्मरी पीतदारुणि ॥ ११९२ मयूरः केकि चूडाख्यैौषधेऽपामार्गकेकिनोः । महेन्द्रो वासवे शैले मञ्जरी तिलकद्रुमे ॥ ११९३ वह स्थूलमुक्तायां माठरो व्यासविप्रयोः । सूर्यानुगेऽथ मार्जारः स्यात्ट्रांशविडालयोः ॥ ११९४ मिहिरोऽर्केऽम्बुदेबुद्धे मुद्गरः कोरकास्त्रयोः । लोष्टादिभेदने चापि मुहिरो मूर्खकामयोः || १९९५ मुदिर: कामुके मेत्रे मुकुरो मकुरो यथा । कुलालदण्डे वेकुले कोरकादर्शयोरपि ॥ मुर्मुरो मन्मथे सूर्यतुरगे तुपपावके । रुधिरं सृणे रक्ते रुधिरो धरणीसुते ॥ वैरं कुञ्जमञ्जर्योः क्षेत्रेऽनम्भसि शाद्वले । वरं तु वनक्षेत्रे वाहनोपरयोषिति ।। शुकमांसे कोलमांसे वरत्रा वर्तिकक्षयोः । वागरो वारके शाणे निर्नरे वाडवे वृके ॥ मुमुक्षौ पण्डिते चापि परित्यक्तभयेऽपि च । वासरो रागभेदेऽह्नि वार्दरं कृमिजे जले ॥ १२०० काकचिम्व्याश्ववीजे वाग्दक्षिणावर्तशङ्खयोः । वासुरा वासिताराज्योर्भुवि विष्टर आसने || १२०१ पादपे कुशमुष्टौ च विस्तारौ स्तम्वविस्तृती । विदुरो नागरे धीरे धृतराष्ट्रानुजेऽपि च ॥ १२०२ विकारोविकृत रोगे विहारस्तु जिनालये । लीलायां भ्रमणे स्कन्धे विदारो युधि दारणे १२०३ विदारी रोगभेदे स्याच्छालपर्णीक्षुगन्धयोः । विधुरं स्यात्प्रविश्लेषे विकले विधुरा पुनः || १२०४ रसालायां विसरस्तु समूहे प्रसरेऽपि च । शबरो म्लेच्छभेदेऽप्सु हरेऽथ शम्बरं जले || १२०५ चित्रे वौद्धव्रतभेदे शम्बरो दानवान्तरे । मत्स्यैणगिरिभेदेषु शम्बरी पुनरौषधौ || १२०६ शर्करा खण्डविकृतौ कर्परांशे रुगन्तरे । उपलायां शर्करायुग्देशे च शकलेऽपि च ॥ १२०७ शर्वरी निशि नाय च शक्करी सरिदन्तरे । छन्दोजातौ मेखलायां शारीरं देहजे वृषे || १२०८ शार्वरं घातुके ध्वान्ते शावरो रोधपापयोः । अपराधे शार्वरी तु शूकशिंत्र्यथ शाकरम् १२०९ छन्दोभिश्छीकरस्तूक्षा शालारं पक्षिपञ्जरे । सोपानहस्तिनखयोः शिखरं पुलकाप्रयोः ॥ १२१० पकदाडिमबीजाभमाणिक्यशकलेऽपि च । वृक्षाग्रे पर्वताग्रे च शिशिरः शीतले हिमे || १२११ ऋतुभेदे शिलिन्ध्रस्तु तरुमीनप्रभेदयोः । शिलिन्धं कदलीपुष्पे कवक त्रिपुटाख्ययोः ॥ शिलिन्धी विहगी गण्डूपदीमृद शीकरः । वीतास्तजलेऽम्बुकणे शुषिरं वाद्यगर्तयोः ॥ १२१३ शुvिisit सरन्ध्रे च शृङ्गारो गजमण्डने । सुरते रसभेदे च शृङ्गारं नागसंभवे ॥ १२१४ चूर्णे लवङ्गपुष्पे च संस्तरः संस्तरे मखे । संगरोऽङ्गीकृतौ युद्धे क्रियाकारे विषापदोः ॥ १२१५ संगरं तु फले शैम्याः संभारः संभृतौ गणे । संस्कारः प्रतियत्नेऽनुभवे मानसकर्मणि ।। १२१६ गुणभेदेऽथ संकारोऽवकरेऽग्निचटत्कृतौ । संकारी भुक्तकन्यायां सामुद्रं लवणान्तरे ॥ १२१७ I 13 93 I १२१२ 1 7.9 १. 'खट्टाङ्गवि' ख; 'खट्टाशवि' ग घ २. ' च कुले' ग घ ३. 'वल्लुरं कु' ग घ ४, 'निर्नरो रवितुरग : ' इति टीका. 'नगरे वाडवेऽष्टके' ख; 'निर्नये वाड' गन्ध. ५. 'स्याद्द' गग्घ. ६. 'वासरा' ग घ ७. 'रागभेदे' ख. ८. 'चित्रवौ' ख. ९. 'शिव्यां च ' ग घ १०. 'शार्करस्तूक्षा' ग घ ११. 'गिरिवृक्षाग्रकक्षासु' ख. १२. 'शिलीन्ध्रस्तु' ग-ध. १२. 'शिलीन्ध्रं' ग घ १४. 'शिलीन्ध्री' ग व १५. 'वातास्तेऽम्बुकणे शारे' ख. १६. 'राज' ग-घ. १७. इतः परम् 'संस्कारः प्रतियले स्यात्संकल्पेऽनुभवेऽपि च । सामुद्रं देहलक्षणे समुद्रलवणेsपि च ' ख. १८. 'प्रस्तरेऽध्वरे' गन्ध, १९. 'कृते' गन्ध. २०. 'सभ्यां' ग घ २१. 'तु' ग घ. For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६ अभिधान संग्रह:: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । १२१८ I १२१९ १२२१ १२२२ १२२३ लक्षणे च शरीरस्य सावित्रस्तु महेश्वरे । सावित्री देवताभेदे सिन्दूरं नागसंभवे ॥ सिन्दूरस्तु वृक्षभेदे सिन्दूरी रक्तचेलिका । रोचनीधातकी सुन्दर्यङ्गनायां द्रुमान्तरे || सुनारस्तु शुनीस्तन्ये सर्पाण्डे चटकेऽपि च । सैरन्ध्री परवेश्मस्थशिल्पकृत्स्ववशस्त्रियाम् || १२२० वर्णसंकर संभूत स्त्री हल्लिकयोरपि । सौवीरं काञ्जिकास्रोतोऽञ्जनयोर्बदैरीफले ॥ स्यादर्गलं तु कैल्लोले परिवेऽप्यनलोऽनिले । वसुदेवे वसौ वह्नावरालः समदद्विपे || वक्रे सर्जरसे चाप्यवेलस्तु स्यादपहवे | अवेला तु पूगचूर्णेऽचलस्तु गिरिकीलयोः ॥ अचला भुव्यञ्जलिस्तु कुडवे करसंपुटे । अङ्गुलिः करशाखायां कर्णिकायां गजस्य च ॥ १२२४ आभीलं भीषणे कृच्छ्रेऽपील्वलो मत्स्यदैत्ययोः । इल्वलास्तारकभेदेऽप्युपलो प्रावरत्नयोः १२२५ उपला तु शर्करायामुत्पलं कुष्ठभूरुहे । इन्दीवरे मांसशून्येऽप्युज्ज्वलस्तु विकासिनि ॥। १२२६ शृङ्गारे विशदे दीप्तेऽप्युत्तालस्वरिते कपौ । श्रेष्टोत्कटकरालेषूत्फुलः स्त्रीकरणान्तरे || १२२७ विकस्वरोत्तालयोश्च कमलं क्लोनि भेषजे । पङ्कजे सलिले ताम्रे कमलस्तु मृगान्तरे ॥ १२२८ कमला श्रीवरनार्योः कपिलो वह्निपिङ्गयोः । कुर्कुरे मुनिभेदे च कपिला शिंशिपातरौ ।। १२२९ पुण्डरीककरिण्यां च रेणुकागोविशेषयोः । कपालं कुष्ठरुग्भेदे घटादिशकले गणे ॥ शिरोस्थान कन्दलं तु नैवाङ्गरे कलध्वनौ । उपरागे मृगभेदे कैलापे कदली दुमे ॥ करालो रौद्रतुङ्गोरुध्णतैलेषु दन्तुरे । करालं तु कुठेरे स्यात्कम्बलः कृमिसानयोः || १२३२ नागप्रभेदे प्रावारे वैकये कम्बलं जले | कल्लोलोऽरौ हर्षवीच्योः कदली हरिणान्तरे || १२३३ रम्भायां वैजयन्यां च कामलः कामिरेगियोः । मरुदेशेऽवतंसे च काकोलो मौकलौ विषे १२३४ कुलाले काहलं तु स्याद्भृशे चाव्यक्तवाचि च । शुष्के च वाद्यभेदे च काहली तेंरुणस्त्रियाम् १२३५ किट्टास्तु लोहगूथे ताम्रस्य कलशेऽपि च । कीलालं रुधिरे "नीरे कुशलं क्षेमपुण्ययोः ।। १२३६ पर्याप्तौ कुशलोऽभिज्ञे कुवलं बदरीफले । मुक्ताफलोत्पलयोश्च कुम्भिलो षचौरयोः ।। १२३७ लोकछायाहरेश्याले कुद्दालो भूमिदारणे । युगपत्रेऽथ कुटिलं भङ्गुरे कुटिला नदी ।। १२३८ कुण्डलं वलये पाशे तांडङ्के कुण्डली पुनः । कीचनद्रौगुडूच्यां च कुन्तलो हलकेशयोः ।। १२३९ कुन्तलाः स्युर्जनपदे कुकूलं तु तुषानले । शङ्खसंयुक्तगर्ते च कुलालो वूकपक्षिणि ॥ १२४० कुकुभे कुम्भकारे च कुचेल: स्यात्कुवाससि । कुचेला िबद्धकर्ण्य केवलं वेककृत्स्नयोः।। १२४१ निर्णीते कुहने ज्ञाने केवली ग्रन्थभिद्यपि । कोमलं मृदुले तोये कोहलो मुनिमद्ययोः ।। १२४२ ग्रन्थिलो ग्रन्थिसहिते विकङ्कतकरीरयोः । गरलं पन्नगविषे तृणपूलकमानयोः ॥ १२४३ गन्धोली वरटाट्याद्रायामथ गोकिलः । मुसले लाङ्गले चापि गोपालो गोपभूपयोः || १२४४ १२३० १२३१ G १. 'रोचना' गन्ध. २. 'महलक' ख; 'महल्लीक' ग. ३. 'वर्वरी' ख. ४. 'दण्डोर्भि' ख. ५. 'था' ग-घ. ६. इतः परम् ‘अमला कमलायां स्यादमलं विशदेऽभ्रके' ख. ७. 'व्योम्नि' ख. ८. 'कुकुरे' ख; 'कुक्कुरे' ग-घ. ९. 'नवाङ्कुरे कल' ख; 'नवाङ्कुरे कर' ग घ १०. 'कपाले कदली' ख. ११. 'व्रण' ख; ‘धूण' ग-घ. १२. 'कुठारे' ग घ. १३. 'भृशे खले' ग घ. १४. 'असंव्यक्तवा' ख. १५. 'वरुण' ख. १६. 'तोये' ग घ. १७. 'विन्ने' ग-घ. १८. 'कदलीफले' ग घ १९. 'चौरशालयोः ' ग.व. २०. 'युगपात्रे' ग घ २१. 'ताटङ्के' ख-ग-घ, २२, ‘काञ्चनाद्रौ' ख. २२. 'कुकुभे' ग घ २४. ' स्यात् ' ख; 'त्वविकर्ण्या च' गग्घ. २५. ‘निष्णाते' ख. २६. ‘शच्यो' ख; 'शुण्ठ्यो' ग घ २७. ‘नृपगोपयोः' ख. For Private and Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः। स्याद्गौरिलस्तु सिद्धार्थे लोहचूर्णेऽथ चन्द्रिलः नापिते वास्तुके रुद्रे चञ्चलोऽनिलकामिनोः ॥ १२४५ चञ्चला तु तडिल्लक्ष्म्योश्चपलश्चोरके चले । क्षणिके चिकुरे शीने पारते प्रस्तरान्तरे ॥ १२४६ मीने च चपला तु स्यापिप्पल्या विद्युति श्रियाम् । पुंश्चल्यामथ चात्वालो यज्ञकुण्डकगर्भयोः १२४७ चूडालझूडया युक्ते चूडालापि च चक्रला । छगलश्छागे छगली वृद्धदारकभेषजे ॥ १२४८ छगलं तु नीलवस्त्रे जगलो मदनदुमे । मेदके कितवे पिष्टमद्ये ऽथ जटिलो जटी ॥. १२४९ जटिला तु मांसिकायां जम्बूलः क्रकचच्छदे । जम्बूद्रुमेऽथ जम्बालं कर्दमे शैवलेऽपि च १२५० जङ्गलो निर्जले देशे पिशितेऽप्यथ जम्भलः । जम्बीरे देवताभेदे जाङ्गलः स्यात्कपिञ्जले ॥१२५१ जाङ्गली तु शूकशिम्ब्यां जाङ्गलं जालिनीफले । जाङ्गुली विषविद्यायां तरलोभास्वरे चले १२५२ हारमध्यगणौ षिड्ने तरला मैद्यमुष्टिका । तमालो वरुणे पुण्ट्रेऽसौ तापिच्छेऽथ तण्डुलः १२५३ विडङ्गे धान्यसारे च ताम्बूलं क्रमुकी फले । ताम्बूली नागवल्लयां स्यात्तुमुलं रणसंकुले ॥१२५४ तुमुलो विभीतकद्रौ तैतिलं करणान्तरे । तैतिलो गण्डकपशौ दुकूलं सूक्ष्मवाससि ॥ १२५५ क्षौमवस्त्रेऽथ धवलो महोक्षे सुन्दरे सिते । धवली गौर्नकुलस्तु पाण्डवप्राणिभेदयोः ॥ १२५६ नकुली कुकुटीमांस्यो भीलं तूत्तमस्त्रियोः । वंक्षणे नाभिगर्भाण्डे नाकुली च व्यरास्नयोः १२५७ कुक्कुटीकन्दे निचूलस्त्विज्जलद्रौ निचोलके । निस्तलं तु वले वृत्ते निर्मलं विमलेऽभ्रके ॥ १२५८ निर्माल्ये च निष्कलस्तु नष्टवीजे कलोज्झिते । नेपाली मनःशिला स्यात्सुवहा नवमाल्याप१२५९ पँवालो विद्रुमे वीणादण्डेऽभिनवपल्लवे । प्रतलः पातालभेदे तताङ्गुलिकरेऽपि च ॥ १२६० पटलं तिलके नेत्ररोगे छदिषिसंचये । पिटके परिवारे च पञ्चाला नीवृदन्तरे ॥ १२६१ पञ्चाली पुत्रिकागीयोः पललं पङ्कमांसयोः । तिलचूर्णे पललस्तु राक्षसे पविलोऽनले ॥ १२६२ अनिले राधनद्रव्ये पाकलो द्विरदज्वरे । पाकलं कुष्ठभैषज्ये पातालं वडवानले ॥ १२६३ रसातले पाटलं तु कुँलुमश्वेतरक्तयोः । पाटलः स्यादाशुव्रीहौ पाटला पाटलीद्रुमे ॥ १२६४ पांशुलो हरखटाङ्गे पुंश्चले पांसुला भुवि । पातली मृत्तिकापात्रे नारीवागुरयोरपि ॥ १२६५ पिप्पलं सलिले वस्त्रच्छेदभेदेऽथ पिप्पलः । निरंशुले वृक्षपक्षिभेदयोः पिप्पली कैणा ॥ १२६६ पिङ्गलः कपिले वह्रौ रुद्रेऽपारिपाश्चिके । कपो मुनौ निधिभेदे पिङ्गला कुमुदस्त्रियाम् ॥ १२६७ कैरायिकायां वेश्यायां नाडीभेदेऽथ पित्तलम् । पित्तवत्यारकूटे च पित्तला तोयपिप्पली ॥ १२६८ पिचुलो निचुले तोयवायसे झावुकद्रुमे । पिञ्जलं स्यात्कुशपत्रे हरिद्राभेऽथ पिच्छिलः ॥ १२६९ १. 'गैरिलस्तु' ख. २. 'चन्दति चन्द्रिलः' इति टीका. 'चण्डिलः' ख-ग-घ. ३. 'अचले' ग-घ. ४. 'चञ्चला' ख-ग-घ. ५. 'चाण्डालः' ख; 'चत्वाल: ग-घ. ६. 'कुण्डल' ग-घ. ७. 'चूडाल्यपि' ग-घ. ८. 'वक्रला' ख. ९. 'दारुक' ख. १०. 'निर्जले देशे' ख; 'निर्जने देशे' ग-घ. ११. 'जालिनी लताभेदः' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी; 'जीलिनीफले' ख; 'जलिनीफले' ग-घ. १२. 'अचले' ग-घ. १३. 'मधुमक्षिका' ग-घ. १४. 'गाम्भीर्य' ग-घ. १५. 'इज्जलद्रौ जलवेतसविशेषे इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १६. 'वालवृत्ते' ख; 'तले वृन्ते' ग-घ. १७. 'सुहवा' ख; 'सुहावा' ग घ. १८. इतः पूर्वम् 'पटोलस्तु समाख्यातः फलवस्त्रविशेषयोः' ख. १९. 'पटिके' ख. २०. 'पाचयतीति पाचलः' इति टीका. 'पाकलः' ख. २१. 'अनिले' ग-घ. २२. 'अनले' ग-घ. २३. 'कुङ्कमश्वेत' ग-घ. २४. 'पातयति पातली' इति टीका. 'पाटली' ख; 'पातिली' ग-घ. २५. 'कला' ख. २६. 'पारिपार्श्वके' ख; 'परिपार्श्वके' ग-ध. २७. 'करायिका पक्षिणीभेदः' इति टीका. 'कर्णिकायां' ग-घ. २८. 'कामुक' ख. For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ अभिधान संग्रह:: -- ८ अनेकार्थसंग्रहः । 1 93 विज्ञले पिच्छिला पोतकिकायां सरिदन्तरे । शाल्मलौ शिंशिपायां च पिण्डिलो गणनापौ १२७० स्थूलज पुष्कलस्तु पूर्ण श्रेष्ठेऽथ पुद्गलः । काये रूपादिमद्द्रव्ये सुन्दराकार आत्मनि ॥ १२७१ पेशल: कुशले रम्ये फेनिलोऽरिष्टपादपे । फेनिलं मदनफले बदरे फेनवत्यपि ॥ १२७२ बहुलं भूरिवियतोर्बहुलः पावके शितौ । कृष्णपक्षे बहुला तु सुरभ्यां नीलिकैलयोः ॥ १२७३ बहुला कृत्तिकासु बिडालो वृषदंशके । पक्षिभेदेऽक्षिगोले च मण्डलो बिम्बदेशयोः || १२७४ भुजङ्गभेदे परिधौ शुनि द्वादशराजके | संघाते कुष्टभेदे च मञ्जुलं च जलाश्वले | १२७५ रम्ये कुलस्तु दात्यूहे मङ्गलं पुनः । कल्याणे मङ्गलो भौमे मङ्गला श्वेतदूर्विका ॥ १२७६ महिला नौ गुन्द्रायां मातुलो मदनद्रुमे । धत्तूरेऽहिव्रीहिभिदोः पितुः श्यालेऽथ माचलः ॥ १२७७ वन्दिचौरे रुजिग्राहे मुसलं स्यादयोग्रके । मुसली तालमूल्याखुकर्णिकागृहगोधिका ॥ १२७८ मेखलाद्रिनितम्बे स्याद्रशनाखडूबन्धयोः । रसाल इक्षौ चूते च रसालं वोलसिल्हयोः ॥ १२७९ रसाला दूर्वाविदार्योर्जिह्वा मार्जितयोरपि । रामिलो रमणे कामे लाङ्गूलं शिश्नपुच्छयोः ॥ १२८० लाङ्गलं तालहलयोः पुष्पभिद्रुहदारुणोः । लाङ्गली जलपिप्पल्यां लोहलोऽस्फुटवादिनि ।। १२८१ शृङ्खला धार्ये वञ्झुलस्त्वशोके तिनिशद्रुमे । वानीरे चाथ 'ववालः रयुन्नौखनित्रयोः ।। १२८२ वातूलो वातले वातसमूहे मारुताहे । वामिलो दाम्भिके वामे विपुलः पृथ्वगाधयोः ॥ १२८३ विपुलार्याभिदि क्षोण्यां विमलोऽर्हति निर्मले । वृषलस्तुरगे शूद्रे शकलं रागवस्तुनि ॥ १२८४ वल्कले त्वचि खण्डे च शम्बलं मत्सरे तटे | पाथेये च शयालुस्तु निद्रालौ वाहसे शुनि || १२८५ श्यामलः पिप्पले श्यामे शार्दूलो राक्षसान्तरे । व्याघ्रे च पशुभेदे च सत्तमे तूत्तरस्थितः।।१२८६ शाल्मलिः पादपे द्वीपे शीतलः शिशिरेऽर्हति । श्रीखण्डे पुष्पकसी सासनपर्योः शिलोद्भवे १२८७ शृगालो दानवे फेरौ शृगाली स्यादुपप्लवे । शृङ्खलं पुंस्कंटीकाभ्यां लोहरज्जौ च बन्धने ॥ १२८८ शौष्कलः शुष्कमांसस्य पणिके पिशिताशिनि । पण्डाली सरसीतैलमानयोः कामुकस्त्रियाम् १२८९ सङ्कुलोऽस्पष्टवचने व्याप्ते च सरलस्वृजौ । उदारे पूतिकाष्ठे च सप्तला नवमालिका ॥ १२९० सातला पाटला गुञ्जासन्धिलौकः सुरङ्गयोः । नद्यां सिध्मलः किलासी सिध्मला मत्स्यचूर्णके १२९१ सुतलोsट्टालिकाबन्धे पातालभुवनान्तरे । सुवेलः प्रणते शान्ते गिरिभेदेऽथ हेमलः ॥ कलादे सटे ग्रावभिद्यभावः पुनर्मृतौ । असत्तायामथाक्षीबं वशिरे मदवर्जिते ॥ आहवः समरे यज्ञेऽप्याश्रवो वचनस्थिते । प्रतिज्ञायां च क्लेशे च स्यादार्तवमृतद्भवे ॥ नारीरजसि पुष्पे चोद्धवः केशवमातुले । उत्सवे ऋतुवौ चोत्सवोऽमर्षे महेऽपि च ।। १२९५ इच्छाप्रसर उत्सेके कारवी कृष्णजीरके । दीप्ये मधुरात्वक्पत्रयोः कितवः कनकाङ्क्षये ॥ १२९६ 1 I १२९२ १२९३ १२९४ १. 'विज्जुले' ख. २. 'पदे' ख २. 'पूर्ण श्रेष्ठे' ग घ ४. 'सितौ' ग घ ५. इतः परम् 'बारला बरला चापि गन्धोलीहंसयोषितो: । बार्दलं दुर्दिने मस्यां मण्डलं देशबिम्बयोः ॥' ग घ ६. 'जलाञ्चलं सेवालं' इति टीका. 'च जलान्तरे' ख; 'सुन्दरेऽपि च ' गव. ७. 'अङ्गनायाम्' ख. ८. 'शाले' ख. ९. ' अयोग्रमायुधविशेष: ' इति टीका. 'अयोग्रहे' ख. १०. ' मूर्तिकाजिह्वयोरपि' ग घ ११. 'तिनिशे द्रुमे' ख. १२. 'वंवयोरालमत्र वैरल्यते वा वंवाल:' इति टीका. 'वण्डालः' ग घ १३. 'सूरणे' ख. १४. 'हते' ग घ १५. 'पृथुगाथयो: ' ख. १६. 'तूत्तमः' ख. १७. 'काशीशतालपयों: ' ग घ. १८. 'चलीका' ख. १९. 'सारला' ख. २०. ' न. २१. 'पाताले भुवनान्तरे' ख. २२. 'संगरे' ख. 'दूतिकाबन्धे' For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः | १२९७ १२९८ १२९९ मत्ते च वञ्चक्रे चापि केशवः केशसंयुते । पुंनागे वासुदेवे च कैतवं द्यूतदम्भयोः ॥ कैतवः कितवे शत्रौ कैरवं तपङ्कजे । कैरवी तु चन्द्रिकायां गन्धर्वस्तु नभश्चरे ॥ पुंस्कोकिले गायने च मृगभेदे तुरङ्गमे । अन्तराभव देहे च गालवो मुनिलोध्रयोः ॥ गाण्डीवगाण्डिवौ चापमात्रे पार्थधनुष्यपि । ताण्डवं तृणभिन्नाढ्य भेदयोस्त्रिदिवं तु खे ॥१३०० स्वर्गे च त्रिदिवा नद्यां द्विजिह्नः खलसर्पयोः । निहवः स्यादविश्वासेऽपलापे निकृतावपि ।। १३०१ निष्पावः पवने शूर्पपवने निर्विकल्पके । वैले कडङ्गरे शिम्ब्यां प्रभवो जन्मकारणे ॥ आपलब्धये स्थानेsviमूले मुनिभिद्यपि । प्रसवः पुष्पफलयोरपत्ये गर्भमोचने ॥ उत्पादे च प्रसेवस्तु वीणाङ्गस्यूतयोर्हतौ । प्रभावस्तेजसि शक्तौ पल्लवः किंसले चले । fact विस्तरेऽलक्तरागे शृङ्गारर्षियोः । पञ्चत्वं भावे पञ्चानां प्राणानामत्ययेऽपिच ॥ पार्थिवो नृपतौ भूमिविकारे पार्थिवी तुका । पुंगवो गवि भैषज्ये प्रधाने चोत्तरस्थितः । १३०६ फेरवो राक्षसे फेरौ बान्धवो बन्धुमित्रयोः । भार्गवः परशुरामे सुधन्वनि मतङ्गजे ॥ १३०७ I १३०२ १३०३ १३०४ १३०५ गुरौ भार्गवी तु कृष्णदूर्वोमयोः श्रियाम् । भैरवो भीषणे रुद्रे रागभेदेऽथ माधवः ॥ १३०८ विष्णौ वसन्ते वैशाखे माधवी मधुशर्करा । वासन्ती कुट्टिनी हाला राघवोऽब्धिझषान्तरे ||१३०९ १३१० जेऽप्यथ राजीव मीनसारङ्गभेदयोः । राजीवमब्जे रौरवो भीषणे नरकान्तरे || वल्लवः स्यात्सूपकारे गोदोग्धरि वृकोदरे । वडवाश्वायां स्त्रीभेदे कुम्भदास्यां द्विजस्त्रियाम् ॥१३११ वाडवं करणे स्त्रीणां वडवौघे रसातले । वाडवो विप्र 'और्वे च विद्रवो धीः पलायनम् ||१३१२ विभावः स्यार्तैरिचये रत्यादीनां च कारणे । विभवो धननिर्वृत्योः शात्रवं शत्रुसंचये ॥ १३१३ शत्रु शत्रवः शत्रौ "संभवः कारणे जनौ | आधेयस्याधारानतिरिक्तत्वे जिनेऽपि च ॥ १३१४ सचिवः सहायेऽमाले सुषवी कृष्णजीरके । जीरके कारवेल्ले च सैन्धवः सिन्धुदेशजे ॥ १३१५ सिन्धूत्थे स्यादादर्शस्तु टीकायां प्रतिपुस्तके | दर्पणे चाप्यथोडीशचण्डीशे शास्त्रभिद्यपि ॥ १३१६ पशुपभेदेस्यादुपांशु विजनेऽव्ययम् । कर्कशो निर्दये क्रूरे कैम्पिल्यककृपाणयोः ।। १३१७ इक्ष साहसिके कासमर्दके परुषे दृढे । कपिशौ सिल्हकइयौ कपिशा मधवी सुरा ।। १३१८ कीनाशः क्षुद्रर्यैमयोः कर्षकोपांशुधातिनोः । कुलिशो मत्स्यभित्पयोगिरीशो वाक्पतौ हरे १३१९ अद्रिराजेऽथ तुङ्गीशः शशाङ्के शशिशेखरे । निस्त्रिंशो निर्वृणे खड्ने निर्देशः कथनाज्ञयोः १३२० I For Private and Personal Use Only २० ४९ १. 'कोटवी चण्डिका मता । वस्त्रहीना च वनिता' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः २. 'सितपङ्कजे' ख ग घ . ३. 'गाञ्जीव' ख. ४. 'खे' इति टीका. 'सुखे' ख. ५. 'पावने सूर्ये पवने' ख. ६. 'वल्लो धान्यभेदः कडङ्गरो सं शिम्बी बीजकोशी' इति टीका. 'बोले कडङ्गके शिम्यां ' ग घ ७. 'आद्या प्रथमा उपलब्धि दर्शनं गङ्गादीनां तदर्थं स्नानं तत्र' इति टीका. 'आद्योपलम्भनस्थाने' ख; 'आद्योपलब्धसुस्थाने' गव. ८ 'दृतिराश्रर्ममयी' इति टीका. 'हतौ' ख. ९. ‘किशले वले' ग घ. १०. 'षिङ्गयोः ' ख. ११. 'तुका वंशरोचना' इति टीका. 'तुगा' ख; ‘तुमा' ग-घ. १२. ‘चोत्तर: स्थितः' ग घ १३. 'दैत्याचार्ये' ख. १४. 'मधुजे' ग घ १५. 'अनौ' ग-घ. १६. 'परिभवे रसादीनां च ' ख. १७. 'संभवे' ख. १८. 'शास्त्रौ' ग घ १९. ' षाडवो रागमानयोः । संभवो जनने हेतौ मेलके चारुजन्मनि' ख २०. 'समये' ख २१. 'भृतके' ख. २२. 'कारवेल्ले च जीरे च सुग्रीवो वानराधिपे । चारुग्रीवे सैन्धवस्तु सिन्धुदेशोद्भवे हये || मणिमन्थेऽप्यथादर्शटीकायां' ख. २३. 'कम्पिल्लक' ख-ग-घ. २४. ‘वशौ' ग-घ. २५. 'माधुरी' ग घ २६. 'भययोः ' ख २७. इतःपरम् 'दुःस्पर्शस्तु खरस्पर्शे कण्टकार्यों यवासके' ख. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । निर्वेशः स्यादुपभोगे मूर्छने वेतनेऽपि च । निवेशः सैन्यविन्यासे न्यासे द्रङ्गविवाहयोः ॥१३२१ निदेशः स्यादपकण्ठे शासने परिभाषणे । नीकाशो निश्चये तुल्ये प्रकाशः स्फुटहासयोः ॥१३२२ उद्योतेऽतिप्रसिद्धे च प्रदेशो देशमात्रके । भित्तौ मानविशेषे च पलाशः किंशुकेऽस्रपे ॥ १३२३ हरिते पलाशं पत्रे पिङ्गाशं जात्यकाञ्चने । पिङ्गाशौ मत्स्यपल्लीशौ पिङ्गाशी स्यात्तु नीलिका १३२४ बालिशस्तु शिशौ मूर्ख भूकेशः शैवले वेटे ।लोमशो लोमयुक्तेऽवौ लोमशा शाकिनीभिदि ॥१३२५ महामेदाकाकजङ्घाशृगालीजटिलासु च । कासीसेऽतिवलाशूकशिम्बीमर्कटिकासु च ॥ १३२६ विवशः स्यादवश्यात्मानिष्टहुँष्टमतिश्च यः । विकाशो रहसि व्यक्ते विपाशः पाशवर्जिते ॥१३२७ विपाशा तु सरि दे सदेशोऽन्तिक देशयोः । सदृशं तूचिते तुल्ये संकाशः सदृशेऽन्तिके॥१३२८ संवेशः शयने पीठे सुखाशस्तु प्रचेतसि । शुभाशे राजतिनिशे हताशो निष्कृपे खले॥ १३२९ अध्यक्षोऽधिकृते वक्षेऽभीषुः प्रग्रहरोचिषोः । आरक्षो रक्षके हस्तिकुम्भाधश्चामिषं पले ॥१३३० सुन्दराकाररूपादौ संभोगे लोभलेश्चयोः । आकर्षः पाशके धन्वाभ्यासाङ्गे द्यूतइन्द्रिये ॥ १३३१ आकृष्टौ शारिफलकेऽप्युष्णीषं लक्षणान्तरे । शिरोवेष्टि किरीटे , कलुषं वाविलाहसोः ॥१३३२ कल्मापो राक्षसे कृष्णे शबलेऽप्यथ किल्बिषम् । पापे रोगेऽपराधे च कुल्माषं स्यात्तु काञ्जिके १३३३ कुल्मापोऽर्धस्विन्नधान्ये गवाक्षो जालके कपौ । गवाक्षी विन्द्रवारुण्यां गण्ड्रयो मुखपूरणे ॥१३३४ गजास्ये च करामुल्यां प्रसृत्यां प्रमितेऽपि च । गोरक्षौ गोपनारङ्गौ जिगीषा तु जयस्पृहा ।।१३३५ व्यवसाये प्रकर्पश्च तरीपः शोभनाकृतौ । भेलेऽब्धौ व्यवसाये च ताविषोऽब्धिसुवर्णयोः।।१३३६ स्वर्ग च नहुषो राजविशेषे नागभिद्यपि । निकषः शाणफलके निकषा यातुमातरि ॥ १३३७ निमेषनिमिषो नेत्रमीलने कालभिद्यपि । प्रत्यूपः स्याद्वसौ प्रातः प्रदोषः कालदोषयोः ॥ १३३८ परुपं करे रुक्षे स्यान्निारवचस्यपि । पियूपममृते नव्यसूतधेनोः पयस्यपि ॥ १३३९ पुरुषस्वात्मनि नरे पुन्नागे चाथ पौरुषम् । ऊर्ध्वविस्तृतदोःपाणिपुरुषोन्मानतेजसोः ॥ १३४० पुंसः कर्मणि भावे च महिषी नृपयोषिति । सैरिभ्यामौषधीभेदे मारिषस्त्वार्यशाकयोः ॥ १३४१ मारिपा दक्षजननी मृगाक्षी मृगलोचना । त्रियामेन्द्रवारुणी च रक्ताक्षो रक्तलोचने ॥ १३४२ चकोरे महिषे क्रूरे पारावतेऽथ रोहिषः । मृगकत्तणमत्स्येषु विश्लेषस्तु वियोजने ॥ १३४३ विधुरे चाथ शुश्रूषोपासनाश्रवणेच्छयोः । शैलूपः स्यान्नटे बिल्वे संहर्षः पवने मुदि ॥ १३४४ स्पर्द्धायां च समीक्षा तु ग्रन्थभेदे समीक्षणे । अलसः स्याद्मे भेदे पादरोगे क्रियाजडे ॥ १३४५ अलसा तु हंसपाद्या नगौकोवदगोकसः । विहङ्गसिंहशरभा आश्वासः स्यात्तु निर्वृतौ ॥ १३४६ आख्यायिकापरिच्छेदेऽपीवासोधन्वधन्विनोः । उच्छासःप्राणनेश्वासे गद्यवन्धान्तरेऽपि च १३४७ उत्तंसः शेखरे कर्णपूरे चापि वसवत् । उदचिरुत्प्रभेऽग्नौ च कनीयाननुजेऽल्पके ।। १३४८ १. 'द्रङ्गो नगरम्' इति टीका. 'शिबिरोद्वाहयोः' ग-घ. २. 'किंगुकः शढी' ख, ३. 'हरिद्वर्णो राक्षसश्च पलाशं छदने स्मृतम् । पक्षीशो गरुडे विष्णो' ख. ४. 'नालिका' ग-घ. ५. इतःपरम् 'भूकेशी वल्वजेषु स्याल्लोमशो लोमसंयुते । मुनिभेदे च मेघे च ख. ६. 'कासीसं धातुभेदः' इति टीका. 'काशीशे' ख-ग-घ. ७. 'अरिष्ट' ग-घ. ८. इतःपरम् 'नष्टवाञ्छे हुताशस्तु पावके हुतभोजिनि' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. ९. 'संचये'ग-घ. १०. 'स्यादुत्प्रेक्षा व्यवधानके । काव्यालंकरणे चापि' ख. ११. 'यवके चणकेऽपि च' ख. १२. 'राग' ख. १३. 'कटिने' ख. १४. 'स्वात्मनि' ग-व. १५. 'सौरिभ्या' ग-घ. १६. 'विशेषस्तु व्यक्तावयवेऽपि च । आधिक्ये चाथ' ख. १७. 'विहंस' ख. १८. 'पीष्टासो' ग-घ. १९. 'पद्यान्त' ग-घ. २०. 'वह्रो' ख. For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ त्रिस्वरकाण्डः। अतियूनि कीकसस्तु कृमौ कीकसमस्थनि । तामसः सर्पखलयोस्तामसी स्यान्निशोमयोः ॥१३४९ त्रिस्रोता जाह्नवीसिन्धुभिदोरथ दिवौकसौ । चातकत्रिदशश्चापि दीर्घायुर्जीवके द्विके ।। १३५० मार्कण्डे शाल्मलितगै नभसस्तु नदीपतौ । गगने ऋतुभेदे च पनसः कपिरुग्भिदोः ॥ १३५१ कण्टके कण्टकिफले प्रचेता वरुणे मुनौ । हृष्टे पायसः श्रीवासे पायसं परमानके ॥ १३५२ बीभत्सो विकृते करे रसे पार्थे घृणात्मनि । बुक्कसी कालिकानील्योर्बुकसः श्वपचेऽधमे ॥१३५३ मानसं स्वान्तसरसो रभसो वेगहर्षयोः । राक्षसी कौणपी दंष्ट्रा रोद इव तु रोदसी ॥ १३५४ दिवि भुव्युभयोश्चापि लालसो लोलयाच्चयोः । तृष्णातिरेक औत्सुक्ये वरीयान्श्रेष्ठयोगयोः १३५५ अतियून्यतिविस्तीर्णे वायसस्त्वगुरौ द्विके । श्रीवासे वायसी काकोदुम्बरी कावमाच्यपि ॥ १३५६ वाहसोऽजगरे वारिनिर्याणे सुनिषण्णयोः । विलासो हावे लीलायां विहायो व्योमपक्षिणोः१३५७ श्रीवासः स्याकधूपे कमले मधुसूदने । श्रेयसी गजपिप्पल्यामभयारास्नयोरपि ॥ १३५८ समासः समर्थनायां स्यात्संक्षेपैकपद्ययोः । सप्ताचिः करनेत्रेऽग्नौ साधीयानतिशोभने ॥ १३५९ अतिवाढे साहसं तु दमे दुष्करकर्मणि । अविमृश्यकृतौ धाष्टथै सारसं सरसीरुहे ॥ १३६० सारसः पुष्कराख्येन्दोः सुमनाः प्राज्ञदैवयोः । जात्यां पुष्पे सुमेधास्तु ज्योतिष्मत्यां विदुष्यपि१३६१ सुरसः स्वादौ पर्णासेऽप्यत्यूहश्चित्रमेखले । अत्यूहा तु नीलिकायामाग्रहोऽनुग्रहे ग्रहे ॥ १३६२ आसङ्गाक्रमणयोश्चाप्यारोहो दैर्ध्य उच्छ्रये । आरोहणे गजारोहे स्त्रीकट्यां मानभिद्यपि ॥ १३६३ कलहो भण्डने खड्गकोशे समरराढयोः । कटाहः स्यात्कूर्मपृष्ठे कर्परे महिषीशिशौ ॥ १३६४ तैलादिपाकपात्रे च दात्यूहः कालकण्ठके । चातकेऽपि नवाहस्त्वाद्यतिथौ नववासरे ॥ १३६५ निर्यहो द्वारि निर्यासे शेखरे नागदन्तके । निरूहो निश्चिते तर्के वस्तिभेदेऽथ निग्रहः ॥१३६६ बन्धके भर्त्सने सीम्नि प्रग्रहः किरणे भुजे । तुलासूत्रेऽश्वादिरश्मौ सुवर्णहलिपादपे ॥ १३६७ बन्धने वन्द्यां प्रवाहो व्यवहाराम्बुवेगयोः । प्रवहो वायुभेदे स्याद्वायुमात्रे बहिर्गतौ ॥ १३६८ प्रग्राहः स्यात्तुलासूत्रे वृषादीनां च बन्धने । पटहो वाद्य आरम्भे वराहो नाणके किरौ ॥१३६९ मेवे मुस्ते गिरौ विष्णौ वाराही गृष्टिभेषजे । मातयपि विदेहस्तु निर्देहे मैथिलेऽपि च ॥ १३७० विग्रहो युधि विस्तारे प्रविभागशरीरयोः । संग्रहो वृहदुद्धारे ग्राहसंक्षेपयोरपि ॥ १३७१ सुवहस्तु सम्यग्वहे सुवहा सल्लकीद्रुमे । रास्नाशेफालिकागोपिद्येलापणिकासु च ॥ १३७२ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रहे त्रिस्वरकाण्डस्तृतीयः । १. कीकसकास्थिनि' घ-पुस्तक एवं पाठ उपलभ्यते. २. 'तामस्ते स्यात्' ग. ३. मार्कण्डेये' ग-घ, ४. 'हृष्टे पायसः पायसं श्रीवासपरमान्नयोः' ग-ध-पुस्तक एतादृशः पाठ उपलब्धः. ५. "विस्तारे' ख. ६. 'कावमाची औषधीभेदे' इति टीका. 'काकमाची' ख-ग-ध. ७. 'दुष्कृत' ग घ. ८. 'द्वेषे' ग-घ. ९. 'पक्षिशीतांश्वोः' ग-ध. १०. 'स्यात्सुमधुरे सुरसा त्वौषधीभिदि । अत्यूहस्तु मयूरे स्यादत्यूहा निलिकौषधौ ॥ आग्रहोऽनुग्रहासक्तिनहेष्वाक्रमणेऽपि च। आरोहो दैर्घ्य उच्छाये स्त्रीकट्यां मानभिद्यपि ॥ आरोहणे गजारोहेऽप्युत्साहः सूत्र उद्यमे ।' ख-पुस्तकस्थोऽयं पाटः. ११. 'युद्धवराटयोः' ख. १२. 'राढो देशविशेषः' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १३. 'नि हो द्वारि' ग-ध. १४. 'कृततमालवृक्षः' इति टीका. 'सुवर्ण हरिपादपे' ख. १५. 'वृणोतीति वराहः इति टीका. 'वाराहः' ग-घ. १६. 'नाणकं रूपकादि' इति टीका. 'नागके' ग-घ. १७. इतःपरम् 'वैदेही पिप्पलीसीतारोचनामु वणिस्त्रियाम' क-ख. १८. 'शल्लकीद्रुमे' ग-ध. १९, 'पटोली' ख. For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । चतुःस्वरकाण्डः । अङ्गारक उल्मुकांशे महीपुत्रे कुरण्टके । अङ्गारिका विक्षुकाण्डे किंशुकस्य च कोरके ॥१३७३ अलिपकः पिके भृङ्गेऽलमकः पद्मकेसरे । मधुके कोकिले भेकेऽश्मन्तकं मालुकाछदे ॥ १३७४ चुलयां चाक्षेपको व्याधिनिन्दके वातरुज्यपि । आकल्पकस्तमोमोहग्रन्थावुत्कलिकामुदोः ॥१३७५ आखनिकस्त्वाखुरिव किरावुन्दरचौरयोः । उत्कलिका तु हेलायां तरङ्गोत्कण्ठयोरपि ॥ १३७६ एडमूकोऽनेडमूक ईवावाक्श्रुतिके शठे । कटिल्लकस्तु वर्षाभ्वां पर्णासे कारवेल्लके ॥ १३७७ कर्कोटकोऽही बिल्वे च कनीनिकाक्षितारके । स्यात्कनिष्ठाङ्गुलिरपि काकरूको दिगम्बरे॥१३७८ उलूके स्त्रीजिते दम्भे भीरुके निर्धनेऽपि च । कुरुवकः शोणाम्लानेऽरुणा पीता च झिण्टिका ॥१३७९ कृकवाकुस्ताम्रचूडे मयूरकृकलासयोः । कोशातकः कैचे कोशातकी ज्योत्स्त्रीपटोलिका ॥१३८० घोषकेऽथ कौलेयकः सारमेयकुलीनयोः । कौकुटीको दाम्भिके स्याददुरेरितलोचने ।। १३८१ गुणनिका तु शून्याङ्क नर्तने पाठनिश्चये । गोमेदकं पीतरत्ने काकोले पत्रकेऽपि च ॥ १३८२ गोकण्टको गोक्षुरके गोखुरैः स्थपुटीकृते । गोकुणिकः केकरे स्यात्यङ्कस्थगव्युपेक्षके ॥ १३८३ घघरिका भृष्टधान्ये किङ्कण्यां सरिदन्तरे । वादित्रस्य च दण्डेऽपि चण्डालिकोषधीभिदि।।१३८४ किन्दरायामुमायां च जर्जरीकं जरत्तरे । बहुच्छिद्रेऽथ जैवातृकः स्याद्रजनीकरे ॥ १३८५ कृशायुष्मद्वेषजेषु ततरीकं वहित्रके । पारगे त्रिवर्णकस्तु गोक्षुरेऽथ त्रिवर्णकम् ॥ १३८६ त्र्यूषणं त्रिफला तिक्तशाकस्तु पथसुन्दरे । वरुणे खदिरे दन्दशूकस्तु फणिरक्षसोः ॥ १३८७ दलाढकोऽरण्यतिले गैरिके नागकेसरे । कुन्दे महत्तरे फेने करिकर्णशिरीषयोः ॥ १३८८ वात्यायां खातके प्रश्न्यां नियामको नियन्तरि । पोतवाहे कर्णधारे निश्चारकः समीरणे ॥१३८९ पुरीषस्य क्षये स्वैरे प्रचलाको भुजङ्गमे । शराघाते शिखण्डे च प्रकीर्णकं तुरङ्गमे ।। १३९० चामरे विस्तरे ग्रन्थभेदे पिप्पलकं पुनः । चचुके सीवनसूत्रे पिण्डीतकः फणिजके ॥ १३९१ तगरे मदनद्रौ च पुण्डरीकं सिताम्बुजे । सितच्छत्रे भेषजे च पुण्डरीकोऽग्निदिग्गजे ॥१३९२ सहकारे गणधरे राजिलाहौ गजज्वरे । कोशकारान्तरे व्याघ्र पुष्कलकस्तु कीलके ॥ १३९३ कृपणे गन्धमृगे च स्यात्पूर्णानकमानके । पात्रे च पूर्णपात्रे च फर्फरीकं तु मार्दवे ॥ १३९४ फर्फरीकश्चपेटायां बलाहकोऽम्बुदे गिरौ । दैत्ये नागे बर्बरीकः केशविन्यासकर्मणि ॥ १३९५ शाकभेदे महाकाले बकेरुका बलाकिका । वातावर्जितशाखा च भ्रमरको मधुव्रते ॥ १३९६ गिरिके चूर्णके केशे भयानकस्तु भीषणे । व्याने राहौ रसे भट्टारको राज्ञि मुनौ सुरे ॥ १३९७ १. 'कुरुण्टके ग-घ. २. 'न लिम्पतीति अलिपकः' इति टीका. 'अलिपिकः' ख, ३. 'अलमत्यर्थमति अलमकः' इति टीका. 'अलिमकः' ख; 'अलिम्पकः' ग-घ. ४. 'मालुका छदो वृक्षः' इति टीका. 'मल्लिकाछदि' ग-ब. ५. 'तु निर्वाणी श्रुतिके' ग-ब. ६. 'कटतीति कटिलस्ततः कः' इति टीका. 'कचिल्लकः' ख; कठिल्लकः' ग-घ. ७. 'कठे' ग-घ.८. 'गोमेदकः' ग-घ. ९. 'किन्दरा चण्डालवादित्रम्' इति टीका. 'कन्दरायाम्' ख-ग-घ. १०. 'जरातुरे' ख. ११. 'तरति तर्तरीकः 'कृपवश' इति बहुवचनादीके साधुः' इति टीका. 'कर्तरीकम्' इति ख. १२. 'पत्रसुन्दरे' ख. १३. 'दलाठकः' ख. १४. इतः परम् 'दासेरकस्तु धीवरे । दासीपुत्रे च करभे' इत्यप्युपलभ्यते पाठः ख-पुस्तके. १५. 'फणिज्झके' ग-घ. १६. 'गन्धहरिणे' ख. १७, 'बलाधिका' ग-घ. For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ चतुःखरकाण्डः । ५३ १३९८ १३९९ १४०० १४०१ १४०२ १४०३ १४०४ १४०७ reat गभेदे भार्यया च विनिर्जिते । मरुवकः पुष्पभेदे मदनद्रौ फणिज्झके ॥ मयूरकस्वपामार्गे मयूरकं तु तुत्थके । माणवकः कुपुंसि स्याद्वालहारभिदोरपि || मृष्टेरुकः स्यान्मृष्टाशे दानशौण्डेऽतिथिद्विषि । रतद्धिकं तु दिवसे सुखस्नानेष्टमङ्गले ॥ राधरस्तु नासारे सीकरे जलदोपले । लालाटिकः स्यादश्लेषभेदे कार्याक्षमेऽपि च ।। प्रभोर्भावदर्शिनि च लेखीलकस्तु तत्रयः । स्वहस्तं परहस्तेन लिखितेषु विलेखयेत् ॥ लेखहारे वर्तकः काकनीले जलावटे । वराटकः पद्मवीजकोशे रज्जौ कपर्दके || arusस्तु माद्यां यौवनकण्टके । संवर्तुले च भित्तौ च विनायको गणाधिपे ॥ बुद्धे गुरौनेि विन्नकं तु धान्यके । झाटामलौषधौ चापि विदूषकोऽन्यनिन्दके ॥ १४०५ क्रीडनीयकपात्रे च विशेषकस्तु पुण्ड्रके । विशेषाध्यायके चापि वृन्दारको मनोरमे ॥ १४०६ सुरे श्रेष्ठे बृहतिका स्याद्दुरुवस्त्रभेदयोः । वैतालिकः खेट्टेताले मङ्गलपाठकेऽपि च ॥ वैनाशिकः स्यात्क्षणिके परायत्तोर्णनाभयोः । वैदेहको वाणिजके वेश्यापुत्रे च शूद्रतः ।। १४०८ शतानिको मुनौ वृद्धे शालावृको वलीमुखे । सारमेये शृगाले च शिलाटकस्तिलाट्टयोः || १४०९ शृङ्गाटकं पथां श्लेषे पानीयकण्टकेऽपि चे । संघाटिका तु कुट्टिन्यां घ्राणे युग्मेऽम्बुकण्टके १४१० "संतानिका 'क्षीरशरे मर्कटस्य च जालके । सुप्रतीकः स्यादीशानदिग्गजे शोभनाङ्गके ॥ १४११ सैकतिकं पुनर्मातृयात्रामङ्गलसूत्रयोः । सैकतिकः क्षपणके संन्यस्ते भ्रान्तिजीविनि ॥ सोमवल्कः कँशुले स्याद्वलक्षखदिरद्रुमे । सौगन्धिको गन्धवणिक्सौगन्धिकं तु कत्तृणे ॥ १४१३ गन्धोत्पले पद्मरागे कल्हारेऽग्निमुखो द्विजे । भलाके चित्रके देवेऽप्यग्निशिखं तु कुङ्कुमे ॥ १४१४ अग्निशिखा लाङ्गलिक्यामिन्दु लेखेन्दुखण्डके । गडूचीसोमलतयोः पञ्चनखस्तु कच्छपे ।। १४१५ गजे बद्धशिखो वाले बद्धशिखोच्चटौषधौ । महाशङ्खो निधिभेदे संख्याभेदे नरास्थान || १४१६ व्याघ्रनखस्तु कन्दे स्याद्गन्धद्रव्यान्तरेऽपि च । शशिलेखा वृत्तभेदे वाकुची चन्द्रलेखयोः || १४१७ शिलीमुखोऽलौ वाणे चापवर्गस्यागमोक्षयोः । क्रियावसाने साफल्येऽप्यभिषङ्गः पराभवे ।। १४१८ आक्रोशे शपथे चेहामृगः स्याद्रूपकान्तरे । वृके जन्तौ चोपरागो राहुमस्तार्कचन्द्रयोः || १४१९ विगाने दुर्नये राहावुपसर्ग उपद्रवे । प्रादौ च रोगभेदे च कटभङ्गो नृपात्यये ॥ हस्तच्छेदे च सस्यानां छत्रभङ्गो नृपक्षये । खातच्ये विधवत्त्वे च दीर्घाध्वगः क्रमेलके ॥ १४२१ लेखहारे मलनागो वात्स्यायनसुरेभयोः । समायोगस्तु संयोगे समवाये प्रयोजने ॥ १४२२ संप्रयोगो निधुवने संवन्धे कार्मणेऽपि च । जलसूचिः शिशुमारे त्रोटिमत्स्ये जलौकसि || १४२३ १४१२ १४२० १. 'भार्यामयति भार्याटिक : ' इति टीका. 'भार्यादिकः' इति ग घ २. 'नागभेदे' ख; 'मुनिभेदे' ग घ. ३. अस्य स्थाने 'मण्डोदकं तु चित्तस्य राग आतर्पणेऽपि च' इत्यधिकः पाठ उपलभ्यते ख- पुस्तके. ४. 'शीकरे' ख ग घ ५. 'आले भवे' गन्ध. ६. 'लेखयति लेखं लाति वा लेखीलकः' इति टीका. 'लेखनिक : ' ग घ. ७. 'काकनीलो वृक्षभेद:' इति टीका. 'काकनीडे' ख ग घ ८. 'उरुः सक्थि' इति टीका. 'दारु वस्त्र' ग घ. ९. 'खेट्टेन क्रीडया ताल:' इति टीका. 'खङ्गताले' ख; 'खड्जताले' ग घ च वैदेहकः' इति टीका. 'वैदेहिक : ' ख. ११. 'शिलाट्टयो: ' ग-घ. १२. इतः परम् ' शृङ्गाटिका शिवायां स्यात्रासादपि पलायने' इति ख. १३. 'संतनोति संतानिका' इति टीका. 'शन्तानिका' गन्ध. १४. 'क्षीरशर आमिक्षा' इति टीका. 'हीरराजे' ग घ १५. 'कधुलो वृक्ष:' इति टीका 'कट्फले' ख ग घ १६. 'अग्निशाखा' ख. १०. विदिह्यते घञि स्वार्थोऽणि के For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । कङ्कशृङ्गाटयोश्चापि मलिम्लुचस्तु तस्करे । वाते काश्मीरजं कुष्टे कुङ्कुमे पौष्करेऽपि च ॥ १४२४ काश्मीरजातिविषयां क्षीराब्धिजं मौक्तिके वशिरे क्षीराब्धिजस्तु चन्द्रे क्षीराब्धिजा श्रियाम् ।। ग्रहराजः शशिन्य जघन्यजोऽनुजन्मनि । शूद्रे च द्विजराजस्तु शेषे ताये निशाकरे ॥१४२६ धर्मराजस्तु सुगते श्राद्धदेवे युधिष्ठिरे । भरद्वाजः पक्षिभेदे बृहसतिसुतेऽपि च ॥ १४२७ [भारद्वाजो मुनौ भारद्वाजी वनपिचुटुमे |] भृङ्गराजो मधुकरे मार्कवे विहगान्तरे ॥ १५२८ राजराजो नृपेशेन्द्वोः कुबेरेऽथ सकृत्प्रजः। काके सिंहेऽथोच्चिङ्गटः कोपने मीनभिद्यपि ॥१४२९ करहाटः पद्मकन्दे देशद्रुमविशेषयोः । कार्यपुटोऽनर्थकारे क्षपणोन्मत्तयोरपि ॥ १४३० कामकूटो वेश्याविभ्रमेष्टावथ कुटन्नटः । शोणके कैवर्तीमुस्ते कुण्डकीटस्तु जारतः ॥ १४३१ विप्रीपुत्रे दासीपतौ चार्वाकोक्तिविशारदे । खञ्जरीटस्तु खञ्जनेऽसिधाराव्रतचारिणोः ॥ १४३२ गाढमुष्टिस्तु कृपणे कृपाणप्रभृतावपि । चक्रवाटस्तु पर्यन्ते क्रियारोहे शिखातरौ ॥ १४३३ तुलाकोटिनिभेदेऽर्बुदे स्यान्नूपुरेऽपि च । नारकीटः स्वदत्ताशाविहन्तर्यश्मकीटके || १४३४ प्रतिशिष्टः पुनः प्रत्याख्याते च प्रेषितेऽपि च। प्रतिकृष्टं तु गुह्ये स्याविरावृत्त्या च कर्षिते ॥१४३५ परपुष्टः कलकण्ठे परपुष्टा पणाङ्गना । वर्कराटस्तु तरुणादित्यरोचिःकटाक्षयोः ॥ १४३६ स्त्रीणां पयोधरोत्सङ्गकान्तदत्तनखेऽपि च । शिपिविष्टस्तु खल्वाटे दुश्चर्मणि पिनाकिनि ॥ १४३७ श्रुतिकटः प्राञ्चलोहे प्रायश्चित्तभुजङ्गयोः । कलकण्ठः पिके पारावते हंसे कलध्वनौ ॥ १४३८ कालकण्ठनीलकण्ठौ पीतसारे महेश्वरे । दात्यूहे ग्रामचटके खक्षरीटे शिखावले ॥ १४३९ कालपृष्ठं तु कोदण्डमात्रके कर्णधन्वनि । कालपृष्ठो मृगभेदे कङ्के दन्तशठः पुनः ॥ १४४० जम्बीरे नागरङ्गे च कर्मरङ्गकपित्थयोः । पूतिकाष्ठं तु सरले देवदारुद्रुमेऽपि च ॥ १४४१ सूत्रकण्ठः खञ्जरीटे द्विजन्मनि कपोतके । हारिकण्ठः हारयुक्तकण्ठे परभृतेऽपि च ॥ १४४२ अपोगण्डोऽतिभीरौ स्याच्छिशुके विकलाङ्गके । चक्रवाडं गणे चक्रवाडोऽद्रौ चक्रवालवत् ॥१४४३ जलरुण्डः पयोरेणौ जलावर्ते भुजङ्गमे । देवताडो घोषकेऽमौ राही वातखुडा पुनः ॥ १४४४ वात्यायां पिच्छिलस्फोटे वामायां वात शोणिते । अध्यारूढः समारूढेऽभ्यधिकेऽङ्गारिणी पुनः १४४५ भास्करे त्यक्तदिक्षुल्योराथर्वणः पुरोधसि । अथर्वज्ञत्राह्मणे चाप्यारोहणं प्ररोहणे ॥ १४४६ समारोहे सोपाने च स्यादुद्धरणमुन्नये । भुक्तोज्झितोन्मूलनयोरुत्क्षेपणमुदञ्चनम् ॥ १४४७ १. इत्यत्र 'शेपे तार्थे निशाकरे । अमृतादिसमूहे च भवेत्' ग-पुस्तकेऽधिकः पाठः. २. 'शशाङ्के गरुडेऽपि च' ख. ३. 'मुनौ जीवसुतेऽपि च' ग-घ. ४. 'भरद्वाजस्यापत्यं भारद्वाजः' इति टीका. 'भरद्वाजः' ख. कोष्ठान्तर्गतपाठो ग-घ-पुस्तकयो स्ति. ५. 'द्विके' ख. ६. 'पुष्प' ख. ७. 'धवे दास्याः' ख. ८. 'फलके' ख. ९. इतःपरम् 'गन्धकुटी मदिरायां बुद्धाद्यायतनेऽपि च' ख. १०. इतःपरम् 'चतुःषष्टिश्चतुःषष्टिकलासु बहुचेऽपि च' ख. ११. 'प्रतिशिष्यते प्रतिशिष्टः' इति टीका. 'प्रतिसृष्टः' ग-घ. १२. 'श्रुति शास्त्रं कटति श्रुतिकटः' इति टीका. 'श्रुतिकण्ठः' ग-ध. १३. 'हारी हारवान् मनोहरो वा कण्ठो गलः स्वरो वा यस्य हारिकण्ठः' इति टीका. 'हारकण्ठः' ख. १४. 'जलं रुणद्धि जलरुण्डः' इति टीका. 'जलरण्डः'ग-घ. १५. 'अत्र अप्यधिकेऽप्यभिधेयवत् । अङ्गारिणीह संत्यां स्याद्भास्करत्यक्तदिश्यपि । आथर्वणोऽथर्वविदि ब्राह्मणे च पुरोधसि । आरोहणं समारोहे सोपाने च प्ररोहणे । आतर्पणं तु सौहित्ये विन्द्यादालिङ्गनेऽपि च । उत्क्षेपणं तु व्यजने धान्यमर्दनवस्तुनि । उदञ्चने चोद्धरणं स्यादुन्मूलन उन्नये। वातान्ने च कामगुणो विषयाभोगयो रतौ। कार्षापणः कार्पिके स्यात्पणषोडशकेऽपि च । जीर्णपर्णस्तु निम्बे स्यात्खजूरी भूरुहेऽपि च ॥' ख-पुस्तके एवं पाटः, For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ चतुःस्वरकाण्डः । व्यजनं धान्यमलनवस्तु कामगुणो रतौ । विषयाभोगयोश्चापि कार्षापणस्तु कार्षिके ॥ १४४८ पणं षोडशके चीर्णपर्णः खजूरनिम्बयोः । चूडामणिः काकचिञ्चाफले मूर्द्धमणावपि ॥ १४४९ जुहराणोऽध्वर्युवयोस्तण्डुरीणस्तु वर्वरे । तण्डुलाम्बुनि कीटे च तैलपर्णी तु सिल्हके ॥१४५० श्रीवासे चन्दने दाक्षायण्युमायां च भेषु च । रोहिण्यां च देवमणिर्विष्णुवक्षोमणौ हरे ॥ १४५१ अश्वस्य कण्ठावर्ते च नारायणस्तु केशवे । नारायणी शतावर्युमा श्रीनिःसरणं मृतौ ॥ १४५२ उपाये गेहादिमुखे निर्वाणे निर्गमेऽपि च । निरूपणं विचारावलोकनयोनिदर्शने ॥ १४५३ निस्तरणं तु निस्तारे तरणोपाययोरपि । निगरणं भोजने स्यान्निगरणः पुनर्गले ॥ १४५४ प्रकरणं स्यात्प्रस्तावे रूपकेऽथ प्रवारणम् । काम्यदाने निषेधे च पैररीणं तु पर्वणि ॥ १४५५ पर्णवृन्तरसे पर्णसिरायां घृतकम्बले । परायणं स्यादभीष्टे तत्पराश्रययोरपि ॥ १४५६ परवाणिधर्माध्यक्षे वर्षे पारायणं पुनः । कान्ये पारगतौ सङ्गे पीलुपयोषधीभिदि ॥ १४५७ मूर्वायां विम्बिकायां च पुष्करिणी जलाशये । हस्तिन्यां कमलिन्यां च मीनावीणस्तु खञ्जने ॥ १४५८ दर्दराने रक्तरेणुः पलाशकलिकोद्गमे । सिन्दूरे रागचूर्णस्तु खदिरे मकरध्वजे ॥ १४५९ रेरिहाणो वरे रुद्रे लम्बकर्णः पुनश्छगे । अकोठे वारवाणस्तु कूर्पासे कवचेऽपि च ॥ १४६० विदारणं भेदने स्यात्संपराये विडम्बने । वैतरणी प्रेतनद्यां जनन्यामपि रक्षसाम् ॥ १४६१ शरवाणिः शरमुखे पदातौ शरजीविनि । शिखरिणी वृत्तभेदे रोमालीपेयभेदयोः ॥ १४६२ स्त्रीरत्ने मल्लिकायां च समीरणः फणिज्झके । पान्थे वायौ संसरणं त्वसंवाधचमूगतौ ॥ १४६३ संसारे च समारम्भे नगरस्योपनिर्गमे । हस्तिकर्णः स्यादरण्डे पलाशगणभेदयोः ॥ १४६४ अवदातस्तु विमले मनोज्ञे सितपीतयोः । अपावृतोऽपरायत्तेऽपिहितेऽवसितं गतौ ॥ १४६५ ऋद्धे ज्ञातेऽवसाने चाप्यवगीतं विहिते । मुहुईष्टेऽपवादे चात्याहितं तु महाभये ॥ १४६६ जीवनिरपेक्षकर्मण्यभिजातः कुलोद्भवे न्याय्ये प्राज्ञेऽभिनीतस्तु न्याय्येऽमर्षिणि 'संस्कृते ॥१४६७ अभियुक्तः परिरुद्धे तत्तरेऽन्तर्गतं पुनः । मद्यप्रातविस्मृतयोरङ्गारितं तु भस्मिते ॥ १४६८ पलाशकलिको दं चातिमुक्तस्तु निष्कले। वासन्तिकायां तिनिशेऽप्यवध्वस्तोऽवचूर्णिते ॥ १४६९ यक्तनिन्दितयोश्चाधिक्षिप्तौ निहितत्सितौ । अपचितिळये हानौ पूजायां निष्कृतावपि ।। १४७० अनुमितिः स्यादनुज्ञापौर्णमासीविशेषयोः । अनुशस्तिः पुनर्लोकापवादे प्रार्थनेऽपि च ॥ १४७१ उदास्थितश्चरे द्वाःस्थेऽध्यक्ष चापाहितः पुनः । आरोपितेऽनलोत्पातेऽप्युपाकृत उपद्रवे ॥१४७२ मन्त्रेण प्रोक्षितपशावुल्लिखितं तनूकृते । उत्कीर्णे योपरक्तस्तु स्वर्भानौ व्यसनातुरे ॥ १४७३ राहग्रस्तार्कशशिनोरुपचितः समाहिते । रुद्धे दग्धेऽथोजम्भितमुत्फुल्ले चेष्टितेऽपि च ॥ १४७४ उद्घाहितमुपन्यस्ते बद्धग्राहितयोरपि । उपसत्तिः सङ्गमात्रे प्रतिपादनसेवयोः ॥ १४७५ ऋष्यप्रोक्ता शुकशिम्व्यां शताबों बलाभिदि । ऐरावतोऽहौ नागरङ्गे लकुचे त्रिदशद्विपे ॥ १४७६ ऐरावतं तु शक्रस्य ऋजुदीर्घशरासने । ऐरावती विद्युद्विद्युद्भिदोः शतहूदा यथा ॥ १४७७ १. 'तैलं पणेऽस्यास्तैलपर्णी' इति टीका, तिलपर्णी' ग-ध. २. द्विश्रामे' ग-घ. ३. 'परीपणः' ख. ४. इतः परम् 'दण्डे कूर्मे पाटशाटे पर्वरीणं तु पर्वणि' इति ख. ५. 'परीरणम्' ग-घ, ६. 'मीनानामयति मीनामीणः' इति टीका. 'मीनाप्रीणः' ख; 'मीनास्त्रीणः' ग-घ. ७. 'दर्दराम्रो वृक्षभेदः' इति टीका. 'दर्दुराने' ख; 'दर्शरात्रे' ग-ध. ८. 'अपरावृत्ते' ग-घ. ९, 'वढे ख. १०. 'संस्मृते' ख. ११. 'ऋद्धे' ग-घ. १२. 'अद्रौ' ख. १३. सरित' ख. For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६ अभिधान संग्रह: - ८ अनेकार्थसंग्रहः । १४८७ १४८९ I १४९० १४९१ कलधौतं रूप्यहेनोः कलधौतः कलध्वनौ । कुहरितं तु रटिते पिकालापे रतस्वने || १४७८ कुमुद्वत कैरविण्यां दयितायां कुशस्य च । कृष्णवृन्ता माषपय पाटलाख्यद्रुमेऽपि च ॥ १४७९ गन्धवती मुरापुर्योः पृथ्वीयोजनगन्धयोः । गृहपतिगृही सत्री चन्द्रकान्तं तु कैरवे ॥ १४८० चन्द्रकान्तो रत्नभेदे चर्मण्वती नदीभिदि । कदल्यां चित्रगुप्तस्तु कृतान्ते तस्य लेखके ॥ १४८१ दिवाभीतः काकरिपौ कुम्भिले कुमुदाकरे । दिवाकीर्तिर्नापिते स्यादुलूकेऽन्तावसायिनि ॥ १४८२ धूमकेतू वह्नयुत्पतौ नन्द्यावर्तो गृहान्तरे । तगरेऽथ नदीकान्तो निर्गुण्डीनिचुलाब्धिषु ॥ १४८३ नदीकान्ता लवाजम्ब्वोः काकजङ्घौषधेऽपि च । नागदन्तो हस्तिदन्ते गेहान्निःसृतदारुणि ॥ १४८४ नागदन्ती श्रीहस्तियां कुम्भाख्यभेषजेऽपि च । निस्नुषितं वर्जिते स्याद्धतत्वचि लघूकृते ।। १४८५ निराकृतिरस्वाध्याये निराकारनिषेधयोः । प्रतिहतस्तु विद्विष्टे प्रतिस्खलितरुद्धयोः ॥ १४८६ प्रणिहितं तु संप्राप्तनिहितयोः समाहिते । प्रतिक्षिप्तं प्रतिहते निषिद्धे प्रेषितेऽपि च ॥ प्रधूपिता क्लेशितायां रविगन्तव्यदिश्यपि । प्रव्रजिता तु मूण्डीर्यं तापस्यां मांसिकौषधौ ॥ १४८८ प्रजापतिर्ब्रह्मराज्ञोर्जामातरि दिवाकरे । वहौ लष्टरि दक्षादौ प्रतिकृतिस्तु पूजने ॥ प्रतिमायां प्रतीकारे प्रतिपत्तिस्तु गौरवे । प्राप्तौ प्रवृत्तौ प्रागल्भ्ये बोधे परिगतं गते ॥ प्राप्तचेष्टितयोर्ज्ञाते पल्लवितं सपल्लवे । लाक्षारक्ते तते पञ्चगुप्तचार्वाकदर्शने ॥ कमठे परिवर्तस्तु कूर्मराजे पलायने । युगान्ते विनिमये च परिघातस्तु घातने ।। अस्त्रे चाथ पशुपतिः पिनाकिनि हुताशने । पाशुपतः शिवमल्यां पशुपत्यधिदैवते || पारिजातस्तु मन्दारे पारिभद्रे सुरदुमे । पारापतः कलरवे गिरौ मर्कटतिन्दुके || पारापती तुलवलीफलगोपालगीतयोः । पुष्पदन्तस्तु दिग्नागे जिनभेदे गणान्तरे || पुष्पदन्तौ च चन्द्रार्कावेकोत्तत्याथ पुरस्कृतम् । पूजिते स्वीकृते सिक्तेऽभिशस्तेऽप्रकृतेऽपि च ।। १४९६ भोगवती तु सर्पाणां नगरे च सरित्यपि । रङ्गमाता जतुचुन्द्योलक्ष्मीपतिर्जनार्दने ॥ १४९७ पूगे लवङ्गवृक्षे च व्यतीपात उपद्रवे । योगभेदेऽपयाने च वनस्पतिर्दुमात्रके ॥ १४९८ विना पुष्पं फलेऽद्रौ च विनिपातस्तु दैवतः । व्यसने चावपाने च वैजयन्तो गुहे ध्वजे ।। १४९९ इन्द्रालये वैजयन्ती त्वग्निग्रन्थपताकयोः । जयन्त्यां च समाघातस्त्वाहवे घातनेऽपि च ।। १५०० समाहितः समाधिस्थे संश्रुतेऽथ समुद्धतः । अविनीते समुत्कीर्णे समुद्रान्ता दुरालभा ॥ १५०१ कार्पासिका च सृका च सदागतिः सदीश्वरे । निर्वाणे पवमाने च सरस्वती सरद्भिदि ।। १५०२ वाच्यापगायां स्त्रीरत्ने गोवाग्देवतयोरपि । सूर्यभक्तो बन्धुजीवे भास्करस्य च पूजकै ॥ १५०३ हैमवत्यद्रिजा स्वर्णक्षीरी शुक्लवचाभया । अनीकस्थो रक्षिवर्जे युरेखले वीरमर्दने || चिह्ने गजशिक्षके चेतिकथा व्यर्थभाषणे । अश्रद्धेये नष्टधर्मेऽप्युदरथिर्वियन्मणौ ॥ १४९२ १४९३ १४९४ १४९५ 1 १५०४ १५०५ १. 'मुरा औपधि:' इति टीका 'सुरा' ख ग घ २. 'स्वाधिष्ठे' ग घ ३. 'भेषजे' गाव. ४. 'लाभे चेष्टितयोः ' ख ग व. ५. 'अस्त्रान्तरे' ख. ६. 'पारमापतति पारापतः' इति टीका 'पारावतः ' ग घ ७. 'पारवती' ग. ८. 'चुन्दी कुट्टिनी' इति टीका. 'चेट्यो:' ख. 'त्रुट्यो: ग.व. ९. अतः परम् 'शुभ्रदन्ती पुष्पदन्तगजस्त्रियाम् । मुदन्त्यां च ' ख. १०. इतः परम् 'सेनापतिर्गुहेऽध्यक्षे हिमारातिः खगेऽनिले ' इत्यधिकः पाठः ख- पुस्तके. ११. 'युधः खलं रणभूमि:' इति टीका. 'पुंश्चले वीरमर्दले' ख; 'अप्यश्वत्थे वीरमर्दले' ग-घ. For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ चतुःस्वरकाण्ड: । ५७ १५०९ १५१५ १५१६ अधौ चित्ररथो विद्याधरे गन्धर्वसूर्ययोः । चतुष्पथश्चतुर्मार्गसंगमे ब्राह्मणेऽपि च ॥ १५०६ दशमीस्थः स्थविरे स्यात्क्षीणरोगे मृताशने । वानप्रस्थो मधूकद्रौ किंशुकाश्रमभेदयोः || १५०७ अष्टापदश्चन्द्रमल्लयां लूतायां शरभे गिरौ । कनके शारिफलकेऽभिमर्दो मन्थयुद्धयोः ॥ १५०८ स्यादभिस्पन्द आश्रावनेत्ररोगातिवृद्धिषु । अववादस्तु निर्देशे निन्दाविश्रम्भयोरपि ॥ उपनिषत् वेदान्ते रहस्यधर्मयोरपि । एकपदं तदाले स्यादेकपदी तु वर्त्मनि ॥ कटुकन्दः शृङ्गवेरे शोभाञ्जनरसोनयोः । कुरुविन्दः पद्मरागे मुकुर त्रीहिभेदयोः ॥ कुल्माषे हिङ्गुले मुस्ते कोकनदं तु रक्तके । अम्भोजन्मकुमुदयोश्चतुष्पदो गवादिषु ॥ स्त्रीणां करणभेदे च रक्तपादो मतङ्गजे । स्पन्दने च जनपदः स्यात्पुनर्जन देशयोः || परिवादस्तु निन्दायां वीणावादनवस्तुनि । प्रियंवदः प्रियवादिनभश्चरविशेषयोः ॥ पीठमर्दोऽर्तिवियाति नाट्यक्या नायकप्रिये । पुटभेदस्तु नगरातोद्ययोस्तटिनीमुखे ॥ महानादो वर्षाकाब्दे महाध्वाने शयानके । गजे च मुचुकुन्दस्तु द्रुभेदे मुनिदैत्ययोः ॥ मेघनादो मे शब्दे वरुणे रावणात्मजे । विशारदो बुधे धृष्ठे विष्णुपदं नभोब्जयोः ॥ १५१७ विष्णुपदस्तु क्षीरोदे विष्णुपदी सुरापगा । संक्रान्तिर्द्वारिका चापि समर्यादं तु संनिधौ ॥ १५१८ मर्यादया च सहितेऽप्यनुबन्धोऽप्रयोगिणि । मुख्यानुयायिनि शिशौ प्रकृतस्यानुवर्तने ॥ १५१९ दोषोत्पादे ऽनुबन्धीतु हिकायां तृप्यति कचित् । अवरोधस्तु शुद्धान्ते तिरोधाने नृपौकसि ॥ १५२० अवष्टब्धमविदूरे समाक्रान्तेऽवलम्बिते । अनिरुद्धश्चरे पुष्पचापसूनावर्गले ॥ १५२१ आशाबन्धः समाश्वासे मर्कटस्य च वीसके । इष्टगन्धः सुगन्धिः स्यादिष्टगन्धं तु वालुके ।। १५२२ इक्षुगन्धा काशक्रोष्ट्री कोकिलाक्षेषु गोक्षुरे । उग्रगन्धा वचाक्षेत्रयवान्योरिछक्किकौषधौ ।। १५२३ उपलब्धिर्मतौ प्राप्तौ कालस्कन्धस्तु तिन्दुके । तमाले जीवकद्रौ च तीक्ष्णगन्धा वचौषधौ ॥ १५२४ शोभाञ्जने राजिकायां परिव्याधो दुमोत्पले । वेतसे महौषधं तु विषशुण्ठ्यो रसोनके ।। १५२५ ब्रह्मबन्धुर्निन्द्यविप्रे बान्धवे ब्राह्मणस्य च । समुन्नद्धस्तूर्ध्वबद्धे पण्डितंमन्यदृप्तयोः ।। १५२६ अपाचीनं विपर्यस्तेऽपागर्थेऽभिजनः कुले । कुलध्वजे जन्मभूम्यामभिमानस्त्वहंकृतौ ॥ १५२७ हिंसायां प्रणये ज्ञानेऽवलग्नो मध्यलग्नयोः । अवदानमितिवृत्ते खण्डने शुद्धकर्मणि ॥ अधिष्ठानं प्रभावेऽध्यासने नगरचक्रयोः । अनूचानः साङ्गवेदकोविदे विनयान्विते ॥ अन्वासनं स्नेहवस्तौ सेवायामनुशोचने । अग्रजन्मात्र जे विप्रेऽन्तेवासी पुनरन्त्यजे ॥ शिष्यप्रान्तयोश्चाप्यायोधनं समरे वधे । आराधनं पाकप्रात्योः साधने तोषणेऽपि च ।। १५३१ आच्छादनं तु वसने संविधानेऽपवारणे । आकलनं परिसंख्यालाङ्क्षयोर्बन्धनेऽपिच ॥ १५३२ आतञ्चनं स्याज्जवने प्रीणनप्रतिवापयोः । आवेशनं भूतावेशे प्रवेशे शिल्पिवेश्मनि || १५३३ आस्कन्दनं तिरस्कारे संशोषणसमीकयोः । आत्माधीनः सुते प्राणाधारे श्याले विदूषके ।। १५३४ I १५२८ १५२९ १५३० For Private and Personal Use Only १५१० १५११ १५१२ १५१३ १५१४ १. 'अतिवृद्धे' ख. २. ' म्रप्रभेदयोः ' ख. ३. 'कृमौ' ग घ ४. 'चतुष्पदं' ख. ५. 'रक्ताः पादा अस्य' इति टीका. 'चक्रपादः' ख. ६. 'प्रतिधृष्टे' ख ग घ ७. 'अम्बुदध्वाने' ख. ८ ' शतह्रदा तु विद्युति || वज्रेऽपि च समर्यादं मर्यादासहितेऽन्तिके । अनुबन्धोऽप्रयोगे स्याच्छिशौ मुख्यानुयायिनि ॥ प्रकृतस्यानुवर्ते च दोषस्योत्पादनेऽपि च । अनुवर्ज्या तृषा हिक्कावरोधस्तु नृपौकसि ॥ शुद्धान्ते च तिरोधाने गर्तादौ रोधनेऽपि च ।' ख- पुस्तकस्थोऽयं पाठः ९. 'तृषिते' ग घ १० 'अवलम्बिन' ग घ ११. 'मर्कटवासको लूतापुटम्' इति टीका. 'वाससि' ग घ . १२. 'शुण्ठ्यां विषारसोनयो:' ग घ. १३. 'परिवेशे' ग-घ. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । आत्मयोनिः स्मरे वेधस्युदर्तनं विलेपने । अपावृत्ताबुत्पतने स्यादुपासनमासने ॥ १५३५ शुश्रूषायां शराभ्यासेऽप्युपधानं तु गण्डके । व्रते विशेष प्रणये स्यादुत्पतनमुत्प्लुतौ ॥ १५३६ उत्पत्तावुदयनस्तु वत्सराजे घटोद्भवे । उत्सादनं समुल्लेखोद्वर्तनोद्वाहनेष्यथ ॥ १५३७ उद्वाहनं द्विसीये स्यादुद्वाहनी वराटके । कपीतना गर्दभाण्डशिरीषाम्रातपिप्पलाः ॥ १५३८ कलध्वनिः परभते पारापतकलापिनोः । कात्यायनो वररुची कात्यायनी तु पार्वती ॥ १५३९ काषायवस्त्रविधवार्धवृद्धमहिलापि च । कामचारी कलविङ्के स्वेच्छाचारिणि कामुके ॥ १५४० कारन्धमी धातुवाँदनिरते कांस्यकारिणि । किष्कुपर्वा पोटगले स्यादिक्षुत्वचिसारयोः ॥ १५४१ कुचन्दनं वृक्षभेदे पत्राने रक्तचन्दने । कुम्भयोनिर्दोणेऽगरती कृष्णवर्मा विद्युतुदे ॥ १५४२ दुराचारे हुताशे च गवादनीन्द्रवारुणी । घासस्थानं गवादीनां गदायित्लुः शरामने ॥ १५४३ जल्पाके पुष्पचापे च घनाघनो निरन्तरे । वासवे घातुके मत्तगजवर्युकवारिदे ॥ १५४४ घोषयित्नुः पिके विप्रे चिरंजीवी तु वायसे । अजे च चित्रभानुस्तु हुताशनदिनेशयोः॥१५४५ जलाटनः कङ्कखगे जलाटनी जलौकसि । तपोधना तु मुण्डीर्या तपोधनस्तपस्विनि ॥ १५४६ तपस्विनी पुनर्मासी कटुरोहिणिकापि च । तिक्तपर्वा हिलमोचीगडूचीमधुयष्टियु ॥ १५४७ देवसेनेन्द्रकन्यायां मैन्ये दिविषदामपि । नागाञ्चना नागयष्टौ द्विरदस्य च मुद्रे ॥ १९४८ निर्यातनं वैरशुद्धौ दाने न्याससमर्पणे । निधुवनं रते कम्पे निर्वासनं तु मारणे ॥ १५४९ पुरादेश्च बहिष्कारे निरसनं निसूदने । निष्ठीवने निरासे च निशमनं निशामनम् ॥ १५५० निरीक्षणश्रवणयोनिर्भर्सनमलतके । खलीकारे प्रजनन अंगमे योनिजन्मनोः ॥ १५५१ प्रणिधानमभियोगे समाधानप्रवेशयोः । प्रयोजन कार्यहेत्वोः स्यात्प्रवचनमागमे। १५५२ प्रकृष्टवचने प्रस्फोटनं सूर्प प्रकाशने । ताडने प्रतिपन्नस्तु विज्ञातेऽङ्गीकृतेऽपि च ॥ १५५३ प्रतियत्नः संस्कारे स्यादुपग्रहणलिप्सयोः । प्रहसनं तु प्रहासाक्षेपयो रूपकान्तरे ॥ १५५४ प्रतिमानं प्रतिविम्बे गजदन्तद्वयान्तरे । प्रसाधनी कङ्कतिकासिद्धयोः प्रसाधनं पुनः ॥ १५५५ वेषे प्रचलाकी सर्प मयूरेऽथ पयस्विनी । विभावर्या गोधेन्वां च पुण्यजनस्तु सज्जने ॥ १५५६ गुह्यके यातुधाने च पृथग्जनोऽधमे जडे । पृष्टशृङ्गी भीमसेने घण्टसैरभयोरपि ॥ १५५७ महाधनं महामूल्ये सिल्हके चारुवाससि । महासेनो महासैन्ये स्कन्देऽप्यथ महामुनिः॥१५५८ अगस्तिकुस्तुबुरुणोर्मालुधानी लताभिदि । मालुधानो मातुलाहौ मातुलानि पुनः शणे ॥ १५५९ कलापे मातुलपत्न्यां रसायनो विहङ्गमे । पक्षीन्द्रे रसायनं तु जराव्याधिजिदौषधे ॥ १५६० राजादनः पियालद्रौ क्षीरिकायां बिपत्रके । वर्धमानो वीरजिने स्वस्तिकैरङ्गविष्णुषु ॥ १५६१ प्रश्नभेदे शरावे च विरोचनोऽग्निसूर्ययोः । प्रह्लादनन्दने चन्द्रे विहेठनं विडम्बने ॥ १५६२ हिंसायां मर्दने विस्मापनाख्या कुहके स्मरे । गन्धर्वनगरे चापि विष्वक्सेनो जनार्दने ॥ १५६३ १. 'गण्डुके' ग. २. 'विशे च' ग-घ. ३. 'लेख्यो' ख. ४. 'षु च' ख-ग-घ.५. 'द्वाभ्यां संगतं द्विसीत्यं द्विःकृष्टमित्यर्थः' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमदी. ६. 'पारावत' ग-घ. ७. 'वादे' ग-घ. ८. 'मत्तगजे' ख-ग-घ. ९.'नागानामञ्चनमनया नागाञ्चना' इति टीका. 'नागाङ्गना नागपत्न्यां' ग-ध. १०. निषूदने' ख. ११. 'निदर्शने' ग-ध. १२. 'प्रगमने यो' ख; 'प्रगते यो' ग-ध. १३. योनिजन्मयोः'ग-ध. १४. 'प्रयोगयोः' ग-ध. १५. 'सौ' ख; 'शू' ग-ध. १६. 'विकान्ते' ग घ. १७. प्रचलाकः कलापोऽस्त्यस्येति प्रचलाका' इति टीकाकारः, १८. सैरिभ' ख-ग-घ. १९. 'भिदौ' ग-ध. २०. 'त्रिपत्रकः किंशुकः' इति टीका. 'त्रिपक्षके' ग-ध, २१. 'वीरजने' ख. २२. 'कुहकमिन्द्रजालम्' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. २३ जनार्दनः' ग-ध. For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ चतुःखरकाण्डः । 1 1 विष्वक्सेना तु फलिनी विश्राणनं विहायिते । संप्रेषणे परित्यागे विहननं तु पिञ्जने ॥ वधेऽथ विश्वकर्मार्के मुनिभिद्देवशिल्पिनोः । विघ्नकारी विघातस्य कारके घोरदर्शने ॥ विलेपनी स्याद्यवाग्वां चारुवेषस्त्रियामपि । वृक्षादनो मधुच्छत्रे चलपत्रकुठारयोः || वृक्षादनी तु बन्दायां विदार्या गन्धकौषधे । वृषपर्वा तु शृङ्कारहर दैत्यकशेरुषु || विरोधनो रविते सुगते बलिदानवे । श्वेतधामा घनसारे कलानाथाब्धिफेनयोः ॥ श्लेष्मघना तु harri महयामथ समापनम् । परिच्छेदे समाधाने समाप्तिवधयोरपि ।। संमूर्च्छनमभिव्याप्तौ मोहे सनातनोऽच्युते । पितॄणामतिथौ रुद्रवेधसोः शाश्वते स्थिरे || सदादानो गन्धगजे हेरम्बेऽभ्रमतङ्गजे । संयमनं व्रते बन्धे संयमनी यमस्य पूः ॥ समादानं समीचीनग्रहणे नित्यकर्मणि । समापन्नं बधे लिये समाप्तप्राप्तयोरपि ॥ संवदनं तु संवादे समालोचे वशीकृतौ । समुत्थानं निदानेऽभियोगे संवाहनं पुनः ॥ वाहनेऽङ्गमर्दने च संप्रयोगी तु कामुके । कलाकेलो सुप्रयोगे सरोजिनी सरोरुहे ॥ १५७४ सरोरुहिण्यां कासारे स्तनयित्नुः पयोमुचि । मृत्यौ स्तनिते रोगे च सारसनमुरश्छदे || १५७५ कायां च सामयोनिस्तु समोत्ये द्रुहिणे गजे । सामिधेनी समीचोः सुयामनो जनार्दने । १५७६ वत्सराजे प्रसादेऽद्रिभेदे चाथ सुदर्शनः । विष्णोश्च सुदर्शन्यमरावत्यां सुदर्शना || अज्ञायामौषधीभेदे मेरुजम्ब्वां सैरीभिदि । सौदामिनी तडिद्भेदतडितोरप्सरोभिदि ॥ हर्षयित्नुः सुते स्वर्णेऽवलेपो गर्वलेपयोः । दूषणेऽप्यपलापस्तु प्रेमावयोरपि ॥ उपतापो गदे तापे जलकूप्यन्धुगर्भके । सरस्यां जीवपुष्पं तु दमनके फणिजके ॥ नागपुष्पस्तु पुन्नागे चम्पके नागकेसरे । परिवापो जलस्थाने पर्युप्तिपरिवारयोः ॥ पिण्डपुष्पं जपायां स्यादशोके सरसीरुहे । बहुरूपः स्मरे विष्णौ सरटे धूणके शिवे ।। मेघपुष्पं तु नादेये पिण्डाभ्रे सलिलेऽपि च । विप्रलापो विरुद्धोक्तावनर्थकवचस्यपि ॥ वृकधूपो वृक्षधूपे सिल्हकेऽथ वृषाकपिः । वासुदेवे शिवेऽमौ च हेमपुष्पं तु चम्पके ।। १५८४ अशोकद्रौ जपापुष्पे राजजम्बूस्तु जम्बुभित् । पिण्डखर्जूर वृक्षचाप्यवष्टम्भस्तु काञ्चने ॥ १५८५ संरम्भारम्भयोः स्तम्भे शातकुम्भोऽश्वमारके । शातकुम्भं तु कनकेऽभ्यागमः समरेऽन्तिके । १५८६ घाते रोधेऽभ्युपगमेऽनुपमस्तु मनोरमे । अनुपमा सुप्रतकिस्त्रियामुपगमः पुनः ॥ १५८७ अङ्गीकारेऽन्तिकगतावुपक्रमस्तु विक्रमे । उपधायां तदाद्याचिख्यासाचिकित्सयोरपि ॥ १५८८ आरम्भेऽथ जलगुल्मो जलावर्तेऽम्बुचवरे । कमठे दण्डयामस्तु दिवसे कुम्भजे यमे ।। १५८९ प्रवङ्गमः कपौ भेके पराक्रमस्तु विक्रमे । सामथ्र्यै चाभियोगे च महापद्मः पुनर्निधौ ॥ १५९० १५७७ १५७८ १५७९ १५८० १५८३ 93 I For Private and Personal Use Only ६९ १५६४ १५६५ १५६६ १५६७ १५६८ १५६९ १५७० १५७१ १५७२ १५७३ १५८१ १५८२ १. 'वेक्ष' ग घ २. 'विदारीगन्धयोरपि' ख. ३. 'रविविष्णुसुते च' ग घ ४. 'समासीन' ग घ ५. 'स. मुल्थीयतेऽस्मिन्निति समुत्थानम्' इति टीका. 'समुत्थाने' ग व. ६. 'मृतौ स्तमिते' ग घ ७. 'द्रुहिणो ग' गघ. ८. 'सुखेन दृश्यते सुदर्शन: 'शासूसुधीत्यन:' पुंसि 'वाचस्पति 'स्तु 'चक्रं सुदर्शनोऽस्त्रियामित्याह' - यथातस्य नेष्यति वपुः कबन्धुसां बन्धुरेप जगतां सुदर्शनः' इत्यनेकार्थकैरवाकर कौमुदी. 'सुदर्शनम्' ख ग घ ९. 'सुरा' ग-घ. १०. इत ऊर्ध्वम् 'परिकम्पो भये कम्पे प्राप्तरूपोऽशरम्ययोः' इत्यधिकः पाठः ख- पुस्तके, ११. 'नादे स्यात् पि' ग घ १२. 'विरोधोक्ता' ग घ. १३. 'संरम्भारङ्गयोः ' ग-घ. १५. ‘उपमारहितेऽनुपमेभ्यामुप' गन्ध. १६. 'उपगमस्तु' ख. १७. 'प्रवेण गच्छति प्रवङ्गमः' इति टीका. 'लवङ्गमः' ख ग घ. १४. 'भवेदयम्' ग-व. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६० 9 १५९६ १५९८ अभिधान संग्रहः - ८ अनेकार्थसंग्रहः । नागसंख्याभिदोर्यातयामो भुक्तसमुज्झिते । जीर्णे च सार्वभौमस्तु दिग्गजे चक्रवर्तिनि ॥ १५९१ अनुशयः पश्चात्तापे दीर्घद्वेषानुबन्धयोः । अन्वाहार्यममावास्याश्राद्धमिष्टेश्च दक्षिणा ॥ १५९२ अवश्यायो हिमे दर्पेऽप्यपसव्यं तु दक्षिणे । प्रतिकूलेऽन्तशय्या भूशय्या पितृवनं मृतिः ।। १५९३ उपकार्या राजगेहमुपकारोचितापि च । चन्द्रोदयौ शश्युदयोल्लोचौ चन्द्रोदयौषधौ ॥ जलाशयमुशीरे स्याज्जलाशयो जलाश्रये । तण्डुलीयः शाकभेदे विडङ्गतरुतप्ययोः ॥ तृणशूल्यं मल्लिकायां केतकीशाखिनः फले । धनञ्जयो नागभेदे ककुभे देहमारुते || पार्थे निरामयस्तु स्यादिडिक्के गतामये । प्रतिभयं भये भीष्मे प्रतिश्रयः सभौकसोः ॥ १५९७ परिधायः परिकरे जलस्थाननितम्बयोः । पाञ्चजन्यः पोटगले शङ्खे दामोदरस्य च ॥ पौरुषेयं पुरुषेण कृतेऽस्य च हिते वधे । समूहे च विकारे च फलोदयो खुलाभयोः ॥ विलेशयो मूषिकेऽहौ भागधेयः पुनः करे । दायादे भागधेयं तु भाग्ये महालयः पुनः ॥ १६०० तीर्थे विहारपरमात्मनोर्महोदयं पुरे । महोदयः स्वाम्यमुक्त्योर्महामूल्यं महाके || पद्मरागमणौ मार्जालीयः शूद्रबिडालयोः । शरीरशोधने रौहिणेयो वत्से बुधे बले || समुच्छ्रयो वैरोन्नयोः समुदायो गणे रणे । समुदयस्तूमेऽपि संपरायस्तु संयुगे ॥ आपद्युत्तरकाले च स्यात्समाह्वय आहवे । पशुभिः पक्षिभिद्यूते स्थूलोच्चयो वरण्डके ।। गजानां मध्यमगते गण्डाश्माकात्सर्ययोरपि । हिरण्मयो लोकधातौ सौवर्णेऽभिमरो वधे ॥। १६०५ स्वबलसाध्वसे युद्धेऽवसरो वत्सरे क्षणे" । अरुष्करं ब्रेणकरे भल्लातकफलेऽपि च ॥ १६०६ अश्वतरो नागभेदे वेसरेऽनुत्तरः पुनः । निरुत्तरे व श्रेष्ठे चावस्करो गूथगुह्ययोः ॥ अभिहारः "संनहने 'चौरिकोद्यमयोरपि । अवहारस्तु युद्धादिविश्रान्तौ ग्राहचौरयोः ॥ निमंत्रणोपनेतव्येऽलंकारः कङ्कणादिषु । उपमादावकूपारः कूर्मराजसमुद्रयोः ॥ १५९९ १६०१ १६०२ १६०३ १६०४ १६०९ १६१० १६११ १६१२ अवतारस्तु नद्यादितीर्थेऽवतरणेऽपि च । अग्निहोत्रोऽनले हव्येऽसिपत्रो नरकान्तरे ॥ कोशकारेऽर्धचन्द्रस्तु गलहस्तेन्दुखण्डयोः । चन्द्रके बाणभेदे चार्धचन्द्रा त्रिवृताभिदि ॥ आत्मवीरो बलवति थालपत्रे विदूषके । आडम्बरस्तु संरम्भे बृंहिते तूर्यनिस्वने ॥ इन्दीवरं नीलोत्पलमिन्दीवरा शतावरी । उपकारस्तूपकृतौ विकीर्णकुसुमादिषु ॥ उपचारस्तु लैम्बायां व्यवहारोपचैर्ययोः । उदुम्बरः कुष्टभेदे देहियां पण्डके तरौ | उदुम्बरं ताम्र उपहरं रहसि संनिधौ । उद्दन्तुरः कराले स्यादुत्तुङ्गोत्कटदन्तयोः ॥ औदुम्बरो मे रोगभेदे कर्मकरोऽन्तके । भृतिजीविनि भृत्ये च कर्मकरी तु बिम्बिका ॥ १६१६ १६१३ १६१४ १६१५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only १५९४ १५९५ १६०७ १६०८ १. 'अनशय्या' ख. २. 'नृतिः' ग घ ३. 'ताप्यो विटमाक्षिकः' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. ४. 'तृणैः शुल्यते तृणशूल्यम्' इति टीका. 'तृणमूल्यं' ख; 'तृणशून्यं' ग घ ५. 'इडिकः शिशुवाहक : ' इति टीका. ‘एडके' ख; ‘इडिके' ग-घ. ६. 'अप्यवहिते' ख. ७. 'समुच्छ्रयणं समुच्छ्रयः' इति टीका. 'समुच्छ्रेयः ' ग-घ. ८. 'समुदयनं समुदयः' इति टीका. 'समुदाय: ' ग घ ९ 'अपिशब्दादणे रणेऽपि' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. १०. इत उत्तरम् 'अजगरः स्मृतः सर्पभेदेऽपि कवचे बुधैः' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः. ११. 'अरुः करोति अरुष्करम्, समासे समस्तस्येति षत्वम्' इति टीका. 'अरुस्करं' ग घ. १२. ' व्रणकारे' ख. १३. 'अतिश्रेष्ठे च' ख. १४. 'गोप्य' ग घ. १५. 'संहनने' ख. १६. 'चौर्यमद्यपयोरपि' ग घ १७. 'विश्रामे ' ग घ. १८. 'निमन्त्रणोपनेतव्यं शर्करादि स्वादूकृतं भक्ष्यम्' इति टीका. 'निमन्त्रणेऽपनेतव्ये' ग घ १९. 'श्यालपुत्रे' ख; 'श्याले पुत्रे' ग घ . 'सेवायाम्' ग घ २१. 'चार्ययोः ' ग घ. २२. 'देहल्यां ' ख ग घ. २३. 'कर्मकारी' गन्घ. २०. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ चतुःखरकाण्डः। मूर्वा च कर्णिकारस्तु कृतमाले द्रुमोत्पले । करवीरो हयमारे कृपणे दैत्यभिद्यपि ॥ १६१७ करवीरी पुत्रवत्यां सद्व्यामदितावपि । कलिकारस्तु धूम्याटे पीतमुण्डकरञ्जयोः ॥ १६१८ कर्णपूरः स्याच्छिरीषे नीलोत्पलवसन्तयोः । कटंभरा प्रसारिण्यां गोलायां गजयोषिति ॥ १६१९ कलम्बिकायां रोहिण्यां वर्षाभूमूर्वयोरपि । कालञ्जरो भैरवायोयोगिचक्रस्य मेलके ॥ १६२० कादम्बरं दधिसारे शीधुमद्यप्रभेदयोः । कादम्बरी कोकिलायां वाणीशारिकयोरपि ॥ १६२१ कुम्भकारः कुलाले स्योत्कुम्भकारी कुलत्थिका । कृष्णसारः शिंशपायां मृगभेदे स्नुहीतरौ॥१६२२ गिरिसारः पुनर्लोहे लिङ्गे मलयपर्वते । घनसारस्तु कपूरे दक्षिणावर्तपारदे ॥ १६२३ चर्मकारः पादूकृति चर्मकार्योषधीभिदि । चक्रधरो विष्णुसर्पचक्रिषु ग्रामजालिनि ॥ १६२४ चराचरं जङ्गमे स्यादिङ्गविष्टपयोरपि । चित्राटीरो घण्टाकर्णबलिच्छागास्रबिन्दुभिः ॥ १६२५ अङ्कितभाले चन्द्रे च तालपत्रं तु कुण्डले । स्यात्तालपत्री रण्डायां तुगभद्रो मदोत्कटे ॥ १६२६ तुङ्गभद्रा नदीभेदे तुलाधारस्तुलागुणे । वाणिजे तुण्डकेरी तु कर्पासी बिम्बिकापि च ॥ १६२७ तोयधारो जलधरे सुनिषण्णाख्यभेषजे । दशपुरं पत्तने स्यान्मुस्तायां नीवृदन्तरे ॥ १६२८ दण्डधारो यमे राज्ञि दण्डयात्रा तु दिग्गजे । संयाने वरयात्रायां दिगम्बरस्तु शंकरे ॥ १६२९ अन्धकारे क्षपणके स्याद्वस्त्ररहितेऽपि च । दुरोदरः पुन ते द्यूतकारे पणेऽपि च ॥ १६३० देहयात्रा यमपुरीगमने भोजनेऽपि च । द्वैमातुरो जरासंधे हेरम्बेऽथ धराधरः॥ १६३१ कृष्णेऽद्रौ धाराधरस्तु पयोदकरवालयोः । धाराङ्करः शीकरे स्यान्नासीरे जलदोपले ॥ १६३२ धार्तराष्ट्रः कौरवेऽहौ कृष्णास्योझिसितच्छदे । धुन्धुमारो गृहधूमे नृपभेदेन्द्रगोपयोः ॥ १६३३ पदालिकेऽप्यथ धुरंधरो धुर्ये धवद्रुमे । धृतराष्ट्रः खगे सर्प सुराज्ञि क्षत्रियान्तरे ॥ १६३४ धृतराष्ट्री हंसपद्यां नभश्चरः खगेऽम्बुदे । विद्याधरे समीरे च निशाचरस्तु राक्षसे ॥ १६३५ सर्प घूके श्रृंगाले च निशाचरी तु पांसुला । निषद्वरः स्मरे पङ्के निषद्वरी पुनर्निशि ॥ १६३६ नीलाम्बरो बलभद्रे राक्षसे क्रूरलोचने । प्रतीहारो द्वारि द्वाःस्थे प्रतीकारः समे भटे ॥ १६३७ प्रतिसरश्चमूपृष्ठे नियोज्यकरसूत्रयोः । मन्त्रभेदे व्रणशुद्धावारक्षे मण्डने सजि ॥ १६३८ कङ्कणेऽथ परिकरः पर्यापरिवारयोः । प्रगाढे गात्रिकाबन्धे विवेकारम्भयोर्गणे ॥ १६३९ परिवारः परिजनेऽसिकोशेऽथ परम्परः । मृगभेदे प्रपौत्रादौ परम्परान्वये वधे ॥ परिपाट्यां परिसरः प्रान्तभदेवयोम॒तौ । पक्षचरो यूथभ्रष्टपृथक्चारिगजे विधौ ॥ १६४१ पयोधरः कुचे मेघे कोशकारे कशेरुणि । नालिकेरे पात्रटीरस्त्वपव्यापारमत्रिणि ॥ १६४२ १. 'करो वृक्षः' इति टीका. 'करण्डयोः' ग-ध.२. 'सीधु'ख; 'सिन्धु' ग-घ. ३. 'वीणाशा' ख; 'वाणीसा' ग-घ.४. 'अहो' ग-घ. ५. 'इङ्गमद्भुतम्' इति टीका. 'इष्टवि' ग-ध. ६. 'घण्टाको यक्षस्तस्य बलिनिमित्तं यो हतश्छागस्तस्यात्रं रक्तं तस्य बिन्दवस्तैरङ्कितं भालं यस्य तस्मिन्नित्यर्थः' इति टीका. :७. 'तुण्ड्यते तुण्डकेरी' इति टीका. 'तुण्डकारी' ख. ८. 'कर्पासी वमनी' इति टीका. 'कार्पासी' ग-घ. ९. 'तोयं धरति तोयधारः इति टीका. 'तोयाधारः' ख. १०. "धारां धरति धाराधरः' इति टीका. 'धाराधारः' ख. ११. 'सुनासीरे शीकरे जलदोपले' ख. १२. 'अध्यसित' ग-घ. १३. 'पदालिकमौषधीभेदः' इति टीका. 'पलादि' ख; 'पादालि' ग-घ, १४. 'धुरां धारयति धुरंधरः, धारेचेति खः' इति टीका. 'धुरंधुरः' ख. १५. 'सृगाले' ग-घ. १६. 'आरक्षे गजललाटममणि' इति टीका. 'व्रणशुद्धे चारक्षे' ग-घ. १७. 'पक्षे चरति पक्षचरः' इति टीका. 'पक्षधरः' ग-घ. १८. 'कसेरु' ख. १९. 'नारिकेरे' ग-ध, For Private and Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । लोहकांस्ये रजत्तात्रे सिङ्घाणकहुताशयोः । पारावारः पयोराशौ पारावारं तटद्वये ॥ १६४३ पारिभद्रौ तु मन्दारनिम्बौ पीताम्बरोऽच्युते । नेटेऽपि पूर्णपात्रं तु जलादिपूर्णभाजने ॥ १६४४ वर्द्धापके बलभद्रस्त्वनन्ते बलशालिनि । बलभद्रा कुमार्यां स्यात्रायमाणौषधावपि ॥ १६४५ बार्बटीरस्त्रपुण्याम्रास्थन्यङ्करे गणिकासुते । बिन्दुतन्त्र पुनः शारिफलके चतुरङ्गके ॥ १६४६ महावीरोऽन्तिमजिने परपुष्टे जराटके । ताक्ष्ये कर्के पवौ शूरे सिंहे मखहुताशने ॥ १६४७ महामात्रः प्रधाने स्वादारोहकसमृद्धयोः । मणिच्छिद्रा तु मेदायामृषभाख्यौषधावपि ॥ १६४८ रथकारस्तक्षणि स्यान्माहिध्यात्केरणीसुते । रागसूत्रं पट्टसूत्रे तुलासूत्रेऽपि च कचित् ॥ १६४९ लम्बोदरः स्यादुंध्माने प्रमथानां च नायके । लक्ष्मीपुत्रो हये कामे व्यवहारः स्थितौ पणे ॥ १६५० द्रुभेदेऽथ व्यतिकरो व्यसनव्यतिषङ्गयोः । चक्रनको खलशुकौ विश्वंभरोऽच्युतेन्द्रयोः ॥ १६५१ विश्वंभरा तु मेदिन्यां विभाकरोऽग्निसूर्ययोः । विश्वकद्दुस्तु मृगयाकुकुरे पिशुने ध्वनौ ॥ १६५२ वीरभद्रो वीरणेऽश्वमेधाश्वे वीरसत्तमे । वीरतरो वीरश्रेष्टे शेरे वीरतरं पुनः ॥ १६५३ वीरणे वीतिहोत्रस्तु दिवाकरहुताशयोः । शतपत्रो दार्वावाटे राजकीरमयूरयोः ॥ १६५४ शतपत्रं तु राजीवे संप्रहारो गतौ रणे । सहचरः पुनझिण्ट्यां वयस्ये प्रतिबन्धके ॥ १६५५ समाहारस्तु संक्षेपे एकत्रकरणेऽपि च । समुद्रातीहभेदे सेतुबन्धे तिमिङ्गिले ॥ १६५६ सालसारस्तरौ हिङ्गौ सुकुमारस्तु कोमले । पुण्ड्रेऽक्षौ सूत्रधारस्तु शिल्पिभेदे नटेन्द्रयोः॥ १६५७ अतिवलः स्यात्प्रबलेऽतिबला तु बलाभिदि । अक्षमाला बक्षसूत्रे वसिष्टस्य च योषिति ।। १६५८ अङ्कपाली परीरम्भे स्यात्कोट्यामुपमातरि । उलूखलो गुग्गुलोदूखले कलकलः पुनः ॥ १६५९ कोलाहले सर्जरसे कन्दरालो जटि द्रुमे । गर्दभाण्डेऽप्यथ कमण्डलू पर्कटिकुण्डिके ॥ १६६० कुतूहलं शस्तेऽद्भुते खतमालो बलाहके । धूमेऽथ गण्डशैलोऽद्रिच्युतस्थूलाश्मभालयोः ॥ १६६१ गन्धफली तु प्रियङ्गौ चम्पकस्य च कोरके । जलाञ्चलं तु शैवाले स्वतश्च जलनिर्गमे ॥ १६६२ दलामलं पुनर्दमनके मरुयकेऽपि च । ध्वनिलाला तु वल्लक्यां वेणुकाहलयोरपि ॥ १६६३ परिमलो विमर्दोत्थे हृद्यगन्धे विमर्दने । पोटगलो नलकाशे झषे बहुफलः पुनः ॥ १६६४ नीचे बहुफला फल्गौ भस्मतूलं पुहिमे । ग्रामकूटे पांसुवर्षे भद्रकाल्योषधीभिदि ॥ १६६५. गन्धोल्यां हरपल्यां च महाकालो महेश्वरे । किंपाके गणभेदे च मदकलो मदिद्विपे ॥ १६६६ मदेनाव्यक्तवचने महानीलो मणभिदि । नागभेदे भृङ्गराजे महाबलो बलीयसि ॥ १६६७ वायौ महाबलं सीसे महाबला बलाभिदि । मणिमाला हारे स्त्रीणां दशनक्षतभिद्यपि ॥ १६६८ १. 'पिङ्गले च हु' न. २. 'नटे च पीतसारस्तु गोमेदकमणौ स्मृतः। मलयजे पू' ख-पुस्तक एवं पाठः. 'तटे च' ग-ध. ३. 'वर्द्धनं वर्द्धस्तस्याप्तिरापको वर्धापकः' इति टीका. ४. 'वर्वटीरः' ख. ५. 'च भारोह' ख. ६. 'वैश्याशुद्रायां जाता करणी' इति टीका. ७. 'उद्गता ध्मानो वायुरस्य उद्ध्मानः' इति टीका. 'आद्यूने' ख-ग-घ, ८. 'वक्रं नवं नासिकास्य वनक्रः' इति टीका. 'वक्रनखौ' ख. ९. 'शवे ग-घ. १०. 'झिण्टी' औषधि:. ११. 'समारोहः' ख. १२. 'सेतुभेदे' ख. १३. 'गुग्गुलौ कण्डने' खः 'गुग्गुलोदुम्बरे ग-घ. १४. 'कन्दरां लाति कन्दरालः' इति टीका. 'कण्डरालः' ग-घ. १५. 'कण्डिके' ग-ब. १६. 'चषकस्य' ग-घ. १७. इतःपरम् 'चक्रवालोऽद्रिभेदे स्याञ्चक्रवालं तु मण्डले' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. १८. 'खाताश्च ख. १९. 'दमनके तथा मह ख. २०. 'ध्वनि लालयति ध्वनिलाला' इति टीका. 'ध्वनिनाला' ग-ध. २१. 'बहुफली' ग-ध. २२. 'पांशु' ग-घ. २३. 'मदिद्विपे मदवति द्विपे' इति टीका. 'मदद्विपे' ख-ग-ध. २४. 'स्त्रियां हारे द' खः 'हारे स्त्रीणां द'ग-घ. For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ चतुःस्वरकाण्डः । १६७० १६८१ मुक्ताफलं धनसारे मौक्तिके लवलीफले । मृत्युफलो महाकाले मृत्युफली कदल्यथ ॥ १६६९ यवफलो मांसिकायां कुटजवचि सारयोः । वायुफलं तु जलदोपले शक्रशरासने || वातकेलिः कलालापे पिङ्गानां दन्तलेखने । विचकिलो दमनके मल्यामथ बृहन्नलः ॥ महापोटगले पार्थे सदाफल उदुम्बरे । नालिकेरे स्कन्धफले हस्तिमलः सुरद्विपे ॥ विघ्नेशे हलाहलस्तु हैयलालोरगे विषे । ज्येष्टयां च हरिताली तु दूर्वा गमनरेखयोः ॥ कृपाणलतिकायां चानुभावो भावसूचने । प्रभावे निश्चये चापह्नवः स्नेहापलापयोः ॥ अभिषवः ऋतौ मद्यसंधानस्नानयोरपि । आदीनवः पुनर्दोषे परिक्लिष्टदुरन्तयोः ॥ उपप्लव राहूत्पातौ कुशीलवस्तु चारणे । प्राचेतसे याचके च जलबिल्वस्तु कर्कटे ॥ जलचत्वरे पञ्चाङ्गे जीवञ्जीवः खगान्तरे । द्रुमभेदे चकोरे व धामार्गवस्तु घोष | अपामार्गेऽप्यथ परिप्लवावाकुलवञ्चलौ । पराभवस्तिरस्कारे नाशे पारशवोऽयसि || शूद्रायां विप्रतनये तनये च परस्त्रियाः । पुटग्रीवस्तु गर्गय ताम्रस्य कलशेऽपि च ॥ बलदेवस्तु कालिन्दीकर्षणे मातरिश्वनि । बलदेवा त्रायमाणा रोहिताश्वो हुताशने ॥ हरिश्चन्द्रनृपसुते सहदेवस्तु पाण्डवे । सहदेवा बलाचंण्डोत्पलयोः शारिवौषधे || सहदेवी तु सर्पाक्ष्यामपदेशस्तु कारणे । व्याजे लक्ष्येऽप्यपभ्रंशो भाषाभेदापशब्दयोः || १६८२ पतने चाश्रयाशस्तु वह्नावाश्रयनाशके । उपदंशोऽवंदंशे स्यान्मेहनामययोरपि ॥ १६८३ उपस्पर्शस्त्वाचमनस्नानयोः स्पर्शमात्रके । खण्डपर्शः शिवे राहौ भार्गवे चूर्णलेपिनि ॥ १६८४ खण्डामलकभैषज्ये जीवितेशः प्रिये यमे । जीवितस्वामिजीवात्वोर्नागपाशस्तु योषिताम् || १६८५ करणे वरुणास्त्रे च प्रेतिष्कशः पुरोगमे । वार्ताहरे सहाये च पुरोडाशो हविर्भिदि ॥ हृतशेषे सोमरसे चमस्यां पिष्टकस्य च । अम्बरीषो नृपे सूर्ये युधि भाष्ट्रकिशोरयोः ॥ आम्राते खण्डपरशावनुकर्षोऽनुकर्षणे । रथस्याधो दारुणि चीनिमिषं सुरमत्स्ययोः ॥ अनुतर्षोऽभिलाषे स्यात्तृषाचषकयोरपि । अलम्बुषश्छर्दनेऽलम्बुषा स्वः पणयोषिति ॥ गडी किंyouस्तु किन्नरे लोकभिद्यपि । देववृक्षो मन्दारादौ गुग्गुलौ विषमच्छदे ॥ नन्दिघोषो वन्दिघोषे स्यन्दने च किरीटिनः । परिवेषः परिवृत्तौ परिधौ परिवेषणे || परिघोषः स्यादवाच्ये निनादे जलदध्वनौ । पलङ्कषो यातुधाने पलङ्कषा तु किंशुके ॥ १६९२ गोक्षुरे गुग्गुलौ राना लाक्षामुण्डीदिकासु च । भूतवृक्षस्तु शाखोटे श्योनाककलिवृक्षयोः॥ १६९३ महाघोषो महाशब्दे स्यान्महाघोषमापणे । महाघोषा शृङ्गयौषध्यां राजवृक्षः पियालके ।। १६९४ सुवर्णालुतरौ वातरूपः शक्रशराशने । वातूलोकोचयोश्चापि विशालाक्षो महेश्वरे ॥ १६८६ १६९५ For Private and Personal Use Only १६७१ १६७२ १६७३ १६७४ १६७५ १६७६ १६७७ १६७८ १६७९ १६८० १६८७ १६८८ १६८९ १६९० १६९१ १. 'विच्यते विचकलः' इति टीका. 'विचिकिलः ' गव. २. 'हयबाले हले वि' ग घ ३. 'वृष्टयां च' ग-घ. ४. 'हरितालं तु तालके । अनुभावः प्रभावे स्यान्निश्चये भावसूचने । अपह्नवः पुनः स्नेहेऽपलापे चोरकर्मणि' ख- पुस्तकस्थः पाठः ५. 'याचकोऽर्थी' इति टीका. 'यावके च' खः 'याजकेऽपि' ग घ ६. 'परिप्ल वतीति परिप्लवः' इति टीका 'परिलवा' ग घ ७. 'दण्डोत्प' ख ग घ ८. 'विदंशे स्यान्मेण्डूरोगेऽपि कीतित: ' ख. ९. 'प्रतिकशतीति प्रतिष्कशः' इति टीका. 'प्रतिष्ठाशः ' ग घ १०. 'पञ्चदशी तु पूर्णिमा । दर्शश्च पादपाशी तु खट्टिकायामुदाहृता । शृङ्खलाकटके चापि पुरो' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः ११. 'न निमिपति अनिमिषः' इति टीका. 'अनिमेषः ' ग घ १२. 'तृष्णा च' ख. १३. 'पण्ययो' ग-घ. १४. 'स्यन्दने' गन्घ. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४ अभिधानसंग्रहः-८ अनेकार्थसंग्रहः । ताये विशालनेत्रे च वीरवृक्षोऽर्जुनद्रुमे । भल्लाते सकटाक्षस्तु कटाक्षिणि धवद्रुमे ॥ १६९६ अधिवासः स्यान्निवासे संस्कारे धूपनादिभिः । अवध्वंसस्तु निन्दायां परित्यागेऽवचूर्णने ।। १६९७ कलहंसो राजहंसे कादम्बे नृपसत्तमे । कुम्भीनसस्त्वही कुम्भीनसी लेवणमातरि ॥ १६९८ घनरसोऽप्सु कपूरे सान्द्रे सिद्धरसे द्रवे । मोरटे पीलुपया॑ च चन्द्रहासोऽसिमात्रके ॥ १६९९ दशग्रीवकृपाणे च तामरसं तु पङ्कजे । ताम्रकाञ्चनयोदिव्यचक्षुस्त्वन्धे सुलोचने ॥ १७०० सुगन्धभेदे च निःश्रेयसं कल्याणमोक्षयोः । नीलञ्जसा नदीभेदेऽप्सरोभेदे तडित्यपि ॥ १७०१ पुनर्वसुः स्यान्नक्षत्रे कात्यायनमुनावपि । पौर्णमासो यागभेदे पौर्णमासी तु पूर्णिमा ॥ १७०२ मलीमसं पुनः पुष्पकासीसे मलिनायसोः । महारसः पुनरिक्षौ खजूरद्रौ कसेरुणि ॥ १७०३ मधुरसा तु मूर्वायां द्राक्षादुग्धिकयोरपि । राजहंसस्तु कादम्बे कलहंसे नृपोत्तमे ॥ १७०४ रासेरसो रससिद्धिवलौ शृङ्गारहासयोः । षष्टीजागरके रासे गोष्टयां विश्वावसुः पुनः ॥ १७०५ निशि गन्धर्वभेदे च विभावसुस्तु भास्करे । हुताशने हारभेदे चन्द्रे स्वःश्रेयसं सुखे ॥ १७०६ परानन्दे च भद्रे च सर्वरसस्तु धूणके । वाद्यभाण्डेर्डवग्रहस्तु ज्ञानभेदे गजालिके ॥ १७०७ प्रतिबन्धे वृष्टिरोधेऽप्यभिग्रहस्तु गौरवे । अभियोगेऽभिग्रहणेऽवरोहस्तु लतोद्गमे ॥ १७०८ तरोरङ्गेऽवतरणेऽप्यश्वारोहोऽश्ववारके । अश्वारोहाश्वगन्धायामुपग्रहोऽनुकूलने ॥ १७०९ वन्धुपयोगयोश्चोपनाहो वीणानिबन्धने । व्रणालेपनपिण्डे च गन्धवहो मृगेऽनिले ॥ १७१० गन्धवहा तु नासायां तमोपहो जिने रवौ । चन्द्रेऽग्नौ तनूरुहस्तु पुत्रे गरुति लोम्नि च ॥ १७११ प्रतिग्रहः सैन्यपृष्ठे ग्रहभेदे पतद्ग्रहे । क्रियाकारे दानद्रव्ये तगृहे स्वीकृतावपि ॥ १७१२ परिग्रहः परिजने पत्न्यां स्वीकारमूलयोः । [शोपेऽथ परिवाहोऽम्बूच्छासो राजाईवस्तुनि॥१७१३ परिवहः परिवारे पार्थिवोचितवस्तुनि ।] पितामहः पद्मयोनौ जनके जनकस्य च ॥ १७१४ वरारोहो गजारोहे वरारोहा कटावपि । सर्वसहः सहिष्णौ स्यात्सर्वसहा पुनः क्षितौ ॥] १७१५ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रहे चतुःस्वरकाण्डश्चतुर्थः ॥ ४ ॥ पञ्चवरकाण्डः । स्यादाच्छुरितकं हासनखघातविशेषयोः । कक्षावेक्षकः शुद्धान्तपालकोद्यानपालयोः ॥ १७१६ द्वाःस्थे खिड्ने कवौ रङ्गाजीवेऽथ कटखादकः । खादके काचकलशे श्रृंगालबलिपुष्टयोः ।।१७१७ कृमिकण्टकं चित्रायामुदुम्बरविडङ्गयोः । स्याद्गोजागरिकं भक्ष्यकारके मङ्गलेऽपि च ।। १७१८ १. 'सह कटाक्षैर्वर्तते सकटाक्षः' इति टीका. 'सङ्कटाक्षस्तु' ग-घ. २. 'लवणो राक्षसस्तस्य माता तस्मिन्' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. ३. 'नीलं जस्यति नीलञ्जसा' इति टीका. 'नीलालसा' ग-घ. ४. 'मलोऽस्यास्ति मलीमसम्' इति टीका. 'मलीमसः' ख-ग-घ. ५. 'रसगो' ग-घ. ६. 'सर्वरासस्तु' ग-घ. ७. 'वाद्यभाण्डे च देशे च पडूसान्वितवस्तुनि । अव' खः 'वाद्यभेदेऽवग्र' ग-घ. ८. 'अवग्रहो ज्ञानभेदे अस्वातन्त्र्ये ग' इति ख-पुस्तकस्य पाठः. ९. 'अनुकूलवान्' ग घ. १०. 'गन्धं वहति गन्धवहः, लिहादित्वाव्' इति टीका. 'गन्धः वाहः' ग-घ. ११. 'मूल्ये च संग्रहे' ग-घ. १२. इति धनुश्चिह्नान्तर्गतपाठो ग-घ-पुस्तकयोस्त्रुटितः. १३. इत. प्राक् 'मदासहा स्यादम्लानकुसुमे माषपर्ण्यपि' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. १४. इति धनुश्चिद्दान्तर्गतपाठः ख-पुस्तके त्रुटित:. १५. 'पिङ्गे' ख. १६. 'शृङ्गारे वलिपुच्छयोः' ग-घ. १७. 'उपकारिका पिष्टभेदोपकारेशवेश्मसु' इत्यधिकः पाट; ख-पुस्तके, For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५ पञ्चस्वरकाण्डः । ६५ १७२८ १७२९ चिलिमिलिका खद्योते कण्टीभेदे तडित्यपि । जलङ्करङ्कः स्यान्मेघे नालिकेरतरोः फले ।। १७१९ शङ्खे नैवफलिका तु नवे नवरजः स्त्रियाम् । नागवारिको गणिस्थराजे राजेभहस्तिषे ॥ १७२० चित्रमेखले गरुडेऽप्यथ स्याद्वयवहारिका । लोकयात्रेङ्गुदीवर्द्धनीष्वथ व्रीहिंराजिकः ॥ १७२१ चीनान्ने कामलिकायामप्यथो शतपर्विका । स्याद्वैचादूर्वयोः शीतचम्पकौ दीपतर्पणौ ॥ १७२२ हेमपुष्पकश्चम्पके हेमपुष्पिका यूथिका । मलिनमुखस्तु गोलाङ्गूले प्रेतेऽर्नले खले ॥ १७२३ शीतमयूखः कर्पूरे चन्द्रेऽथ सर्वतोमुखः । विधात्रात्मनि केंद्रे च सर्वतोमुखमम्बु खम् ॥ १७२४ कथाप्रसङ्गो वातूले विषस्य च चिकित्सके । नाडीतरङ्गः काकोले हिण्डके रतहिण्डके ।। १७२५ रतनारीच मन्मथे शुनि स्त्रीणां च सीत्कृतौ । ऋषभध्वजः प्रथमजिनेन्द्रे शशिशेखरे || १७२६ मुनिभेषजं त्वगस्तिपथ्यायां लङ्घनेऽपि च । दशनोच्छिष्टो निःश्वासे चुम्बने दन्तवाससि ।। १७२७ अवग्रहणं रीढायां रोधनेऽथावतारणम् । वस्त्राञ्चलार्चने भूतावेशेऽथ प्रविदारणम् ॥ दारणे युधि च परिभाषणं तु प्रजल्पने । नियमे निन्दोपालम्भोक्तौ चाथो मत्तवारणः 1 प्रासादवीथीवरण्डे मत्तहस्तिन्यपाश्रये । मण्डूकपर्णो रेलैकक्षोणकयोः कपीतने ॥ मण्डूकपर्णी मञ्जिष्टात्राह्म्योगोंजिह्निकौषधे । स्याद्रोमहर्षणाख्या तु' रोमो मे विभीतके ॥ १७३१ वातरायणः क्रॅकचे सायके शरसंक्रमे । निष्प्रयोजननरे चाप्यवलोकितमीक्षिते ॥ १७३२ अवलोकितस्तु बुद्धेऽपराजितोऽच्युते हरे । अजितेऽपराजिता तु दुर्गावे ताजयन्त्यपि ॥ १७३३ उपधूपित आसन्नमरणे धूपितेऽपि च । स्याद्गणाधिपतिर्विघ्ननायके पार्वतीपतौ ।। १७३४ पृथिवीपतिस्तु भूपे कृतान्ते ऋषभौषधौ । मूर्द्धाभिषिक्तः प्रधाने क्षत्रियक्षितिपालयोः ॥ १७३५ यादसांपतिः पश्यब्ध्योर्वसन्तदूत म्रके । पिके पञ्चमरागे वसन्तदूत्यतिमुक्तके || पटायाम सहस्रपादो यज्ञपूरुषे । कारण्डसूर्ययोर्योजनगन्धा व्यासमातरि ॥ कस्तूरीशीतयोश्चातिसर्जनं वधदानयोः । अपवर्जनं निर्वाणे परित्यागे विहायिते ।। अभिनिष्ठानस्तु वर्णे विसर्गेऽथानुवासनम् । स्नेहने धूपने चान्तावसायी श्रपचे मुनौ ॥ १७३९ स्यादुपस्पर्शनं स्नाने स्पर्शाचमनयोरपि । उपसंपन्नं पर्याप्ते संस्कृतप्राप्तयोर्मृतौ ॥ १७३० 1 १७३६ १ १७३७ १७३८ २४ १७४० १. 'नारिकेर' ग-व. २. 'जललतायां च जलनायको मत्स्यके । काकाच्यां राजशफरे नवफलिका नूतने ॥ नवजातरजो नार्यामप्यथो नागवादिकः । गणिस्थराजे गरुडे राजकुञ्जरहस्तिपे ||' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः. ३. 'गणिस्थराजो वृक्ष:' इति टीका. 'गणस्थरा ' ग घ ४. 'के प्रोक्तः स्यादथो व्य' ख. ५. 'व्रीहिवद्राजयोऽस व्रीहिराजिक:' इति टीका. 'व्रीहिराजकः' गव. ६. 'ऋचादू' ग घ ७. 'दिनत' ग घ ८ ' अनिले ' ग घ. ९. 'भद्रे च' गन्ध. १०. 'वार्तायाम्' ग घ ११. 'कङ्कोले' ख. १२. 'हिंसके' ख. १३. 'अगस्ति - पथ्या हरीतकी भेद:' इति टीका. १४. 'भूतावशेषे' ग घ १५. 'रत्नके शोणके च' क- ख. १६. 'रोमाञ्चे च' ख. १७. 'उन्मत्ते निष्प्रयोजनपूरुपे । काण्डे च करपत्रे च कूटे च शरसंक्रमे ॥ समुद्धरणं वान्तान्ते जलस्योद्धरणे प्रहेः । अवलोकितस्तु बुद्धे त्ववलोकितमीक्षिते ॥ स्यादपराजितो विष्णौ श्रीकण्ठे निष्पराजये | अपराजिता तु दुर्गा श्वेता चापि जयन्तिका ।।' इति ख- पुस्तकस्थः पाठः १८. 'भूपाले प्रधाने क्षत्रियेऽपि च' इति ख- पुस्तकस्थः पाठ: १९. 'रम्भोधौ प्रतीचीदिक्पतावपि' इति ख- पुस्तक एवम् २०. ' चूते स्यात्मिकपञ्चमरागयो:' इति ख-पुस्तके. २१. 'वसन्तदूती पाटलायामतिमुक्तकभूरुहि । सहस्रपादः कारण्डे भास्करे यज्ञपूरुषे || योजनगन्धा कस्तू सीतायां व्यासमातरि ।' अत्रैवं पाठः ख पुस्तके. २२. 'सुवर्णे' ख. २३. इतः परम् 'अपसर्जनं तु दाने परित्यागेऽतिसर्जनम् । विश्राणने च हिंसायामादेशे सेवकस्य च ||' इत्यधिकः पाठः ख-पुस्तके. २४. 'श्रृते' ख. For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ अभिधान संग्रहः – ८ अनेकार्थसंग्रहः । १७४१ १७४५ १७४६ १७४९ १७५० कलानुनादी चटके चरीके कपिञ्जले । गन्धमादनः कप्यद्रिभिदोरेलिनि गन्धके ॥ गन्धमादनी सुरायामथ जायानुजीविनः । वैकाश्विननटदुःस्थाः स्याद्धूमकेतनोऽनले ॥ १७४२ ग्रहभेदे च प्रतिपादनं बोधनदानयोः । पद्मलाञ्छनो धनदे लोकेशे रविवेधसोः ॥ १७४३ पद्मलाञ्छना तारायां सरस्वत्यां श्रियामपि । पीतचन्दनं स्याद्धरिद्रायां कश्मीरजन्मनि ॥ १७४४ महारजनं कुसुम्भे स्वर्णेऽथ मधुसूदनः । भ्रमरे केशवे मृत्युवञ्चनः श्रीफले हरे || द्रोणकाकेऽप्यथ वरचन्दनं देवदारुणि । कालेये वरवर्णिन्यङ्गनालाक्षाप्रियङ्गुषु ॥ रोचनायां हरिद्रायामथ स्याच्छकुलादनी । कैटामांसीपिचुलिकाजलपिप्पलिकासु च || १७४७ शालङ्कायनो नन्हृष्योः स्याच्छ्रेतवाहनः शशी । पार्थेऽथ सहस्रवेधी चुक्रे सहस्रवेधि तु ।। १७४८ हिङ्गौ चामरपुष्पस्तु केतके चूतकाशयोः । गोरक्षजम्बूर्गोधूमधान्ये गोरक्षतण्डुले || धूलीकदम्बस्तिनिशे नीपे वरुणपादपे । शृगालजम्बूर्गोडुम्बे फले च वदरीतरोः ॥ अभ्युपगमः समीपागमने स्वीकृतावपि । नक्षत्रनेमिः शीतांशुरेवत्यौत्तानपादिषु ॥ कालानुसार्य शैलेये कालेये शिशिपातरौ । अथ स्याद्दुग्धतालीयं दुग्धाप्रदुग्धफेनयोः || वृषाकपायी जीवन्त्यां शतावर्युमयोः श्रियाम् । उत्पलपत्रमुत्पलदले स्त्रीणां नखक्षते || कपिलधारा त्रिदशापायां तीर्थभिद्यपि । तमालपत्रं तिलके तांपिच्छे पत्रकेऽपिच ॥ तालीसपत्रं तु तामलक्यां तालीसके कचित् । पादचत्वरः करके परदोषैकभाषिणि ॥। सैकते छगलेऽश्वत्थमेऽपसुचामरः । वद्धपके प्रशंसायां दुर्वाचित भुवि ॥ पुरोटौ धूलिगुच्छे पीतकावेरं तु कुङ्कुमे । पित्तले वस्वोकसारा विन्द्रस्य धनदस्य च ॥ १७५७ 'नॅलिनी पुर्योर्विप्रतिसारस्त्वनुशये रुषि । कौये सर्वतोभद्रस्त्वोकोभित्काव्यचित्रयोः || १७५८ निम्वेऽथ सर्वतोभद्रा गम्भार्या नटयोषिति । समभिहारस्वाभीक्ष्णे भृशार्थेऽथा सुतीबलः || १७५९ शौण्डिके यज्वन्युदण्डपालो मत्स्याहिभेदयोः । स्यादेककुण्डलो बलभद्रे किंपुरुषेश्वरे ।। १७६० कृपीटपास्तु केनिपाते जलनिधावपि । स्यात्पाण्डुकम्बलः श्वेतकम्बलयावभेदयोः || १७६१ १७५१ १७५२ १७५३ १७५६ For Private and Personal Use Only १७५४ १७५५ १. 'कलं मनोज्ञमनुवदति कलानुनादी' इति टीका. 'कालानुनादी' ख. २. 'अलौ च' ग घ ३. 'नटाश्विनवकदुःस्थाः' ख. ४. ' इत्येतच्छातकुम्भकुसुम्भयोः । मधुसूदनसंज्ञा तु भ्रमरे वनमालिनि । स्यान्मृत्युवञ्चनः शंभौ श्रीफलद्रोणकाकयोः । वरचन्दनमाख्यातं कालेये देवदारुणि । स्याद्वरवर्णिनी लाक्षाहरिद्रारोचनासु च । स्त्रीरले च प्रियङ्गौ च स्यादथो शकुलादनी ।' एवं पाठ: ख- पुस्तके. ५. 'कट्टीमांसीपिलिका' खः 'कटुमांसी किञ्चुलिका' ग घ ६. 'शालङ्कायनशब्दः स्याद्दचिभेदेऽपि नन्दिनि । शिवकीर्तनशब्दस्तु भृङ्गिरीटे मुरद्विष । श्वेतवाहन इत्याख्या शशाङ्के च धनंजये । स्यात्षष्टिहायनो धान्यविशेषे च मतङ्गजे । सहस्रवेधी चुक्रे स्यात्सहस्रवेध रामठे | हरिचन्दनमाम्नात गोशीर्षे देवपादपे । हरिवाहन इत्युक्तो भास्करामरनाथयोः । भवेच्चामरपुष्पस्तु के' इत्यधिकः ख-पुस्तके पाठः ७. 'धूलीकदम्बोऽस्तिनिशे' ग घ ८. 'गोडुम्ब औषधम्' इति टीका. 'गोडिम्बे' गव. ९. 'कालानुसार्यः' गय १० 'दुग्धाम्रे दुग्ध' ख. ११ इतः प्राक् 'भवेत्प्रवचनीयाख्या प्रवाच्ये च प्रवक्तरि' इत्यधिकः पाठः ख- पुस्तके १२. 'तापिच्छस्तमाल:' इति टीका. 'तापिञ्छ' ग घ . १३. 'पांशु' गन्ध. १४. 'वस्वौकसारा' गन्ध. १५. 'पुरीनलिन्योर्वि' ख. १६. 'गम्भारी श्रीपर्णी वृक्ष:' इति टीका. 'गम्भीर्याम्' ख. १७. 'भृशार्थ पौनःपुन्येऽपि कथ्यते । आसुतीवलशब्दस्तु यज्ञकर्तरि शौण्डिके । भवेदुद्दण्डपालस्तु मत्स्य सर्पप्रभेदयोः । एककुण्डल इत्येष बलभद्रे धनाधिपे । कृपीटपालशब्दस्तु केनिपाते पयोनिधौ । कूटपालो गजपित्तज्वरे पाकमारुते ||' इत्यधिकः पाठः ख-पुस्तके. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्ययाधिकारः । ६७ १७६२. सुरतताली शिरःस्रग्दृत्योरथाशितंभवः । अन्नादौ तृप्तौ च नभश्चमसश्चन्द्रमाययोः ॥ चित्रापूपे हिङ्गुनिर्यासो हिङ्गुरसनिम्बयोः । हिरण्यरेता ज्वलने सहस्रकिरणेऽपि च || १७६३ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रहे पञ्चस्वरकाण्डः पञ्चमः ॥ ५ ॥ षट्खरकाण्ड: । 1 ग्राममरिका युद्धशृङ्गयोर्मातुलपुत्रकः । धत्तूरकस्य च फले मातुलस्य च नन्दने || १७६४ लूतामर्कटकः पुत्रीनवमालिकयोः कपौ । वर्णबिडोलकः काव्यच्छायाहृत्संधि चोरयोः || १७६५ सिन्दूरतिको हस्ती सिन्दूरतिलकाङ्गना । दोहदलक्षणं गर्भे स्यात्संधौ यौवनस्य च ॥१७६६ यौवनलक्षणं वक्षोरुहे च लवणिनि च । अर्द्धपारापतचित्रकण्ठे स्यात्तित्तिरावपि ॥ 1 प्रत्युद्गमनीयमुपस्थेये धौतांशुकद्वये । विष्वक्सेनप्रिया त्रायमाणौषध्यां श्रियामपि ॥ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रहे षट्स्वरकाण्डः षष्ठः ॥ ६ ॥ १७६७ १७६८ अव्ययाधिकारः । अथाव्ययानि वक्ष्यन्ते प्राग्वदेव स्वरक्रमात् । अ स्वल्पार्थेऽप्यभावेऽपि स्यादा स्मरणवाक्ययोः ।। १७६९ आङीषदर्थेऽभिव्याप्तौ क्रियायोगेऽवधावपि । औ स्यादवधृतिस्मृत्योराः संतापप्रकोपयोः ।। १७७० इ स्यात्खेदे प्रकोपोक्तवी क्रोधे दुःखभावने । प्रत्यक्षे संनिधौ चाप्यु रोषोक्त्यामन्त्रणार्थयोः || १७७१ उत्प्राधान्ये प्रकाशे च प्राबल्यास्वास्थ्यशक्तिषु । विभागे बन्धने मोक्षभावे लाभोर्ध्वकर्मणोः ॥ १७७२ उं प्रश्नेऽङ्गीकृतौ रोषेऽप्यूं प्रश्ने रोषवाचि च । ऋ कुत्सावाक्ययोरेऐ हेहैशब्दाविव स्मृतौ ॥ १७७३ आमन्त्रणाह्वानयोरों प्रणवेऽङ्गीकृतावपि । ओ औशब्दौ तु होहौ च हृतौ संबोधनेऽपि च ।। १७७४ कु पापीयसि कुत्सायामीषदर्थे निवारणे । कं सुखे वारिशिरसोः किं प्रश्ने कुत्सितेऽपि च ॥१७७५ चान्योन्यार्थसमाहारान्वाचयेषु समुच्चये । हेतौ पक्षान्तरे तुल्ययोगिताविनियोगयोः ॥ १७७६ १. 'मन्त्रचूर्णलमिच्छन्ति वशीकरणवेदिनि । डाकिनीदोषमन्त्रज्ञे कुशाम्बुप्रोक्षणेऽपि च । भवेत्सुरतताली तु दूतिकायां शिरःस्रजि । आशितंभवमन्नादावाशितंभवस्तर्पणे । स्यादाषाढभवो भीमे नवीनजलदेऽपि च । स्यान्नभश्चमसश्चन्द्रेचितायूपेन्द्रजालयोः । हिङ्गुनिर्यास इत्येष निम्बे हिङ्गुरसेऽपि च।' इति ख-पुस्तकेऽधिकः पाठः. २• ‘शृङ्गयां ग्रामयुद्धेऽपि कीर्त्यते । स्यान्मदनशलाका तु सार्यो कामोदयौषधौ । मातुलपुत्रको धत्तूरफले मातुलात्मजे' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठः ३. 'स्नानचिकित्सक चातुर्मास्यव्रतकरे नरे । स्नानचिकित्सकं प्रोक्तं नारीपुष्पतपस्ययोः ॥' इत्यधिक: ख- पुस्तके. ४. 'यौवनलक्षणा' ख. ५. इतः परम् 'समुद्रनवनीतं स्यात्पीयूषे च सुधाकरे’ ख. ६. ‘अर्धेन पारापतोऽर्द्धपारापतः, द्वावपि पक्षिभेदौ' इत्यनेकार्थकैरवाकरकौमुदी. ७. 'विष्वक्सेप्रिया लक्ष्म्यां त्रायमाणौषधावपि' ख; 'विश्वक्सेन' ग घ. ८. 'अ स्यादभावे स्वल्पार्थे विष्णावेष त्वनव्ययम्' ख. ९. ‘अभिव्यक्तौ क्रियाभेदे' ग-व. १०. 'आ स्याद्वाक्ये च स्मरणे स्यादा वेधस्यनव्ययम्' ख. ११. 'कामदेवे त्वनव्ययम् । इदुःखभावने क्रोधे ईर्लक्ष्म्यां स्यादनव्ययम् । उ संबुद्धौ रुषोत्तौ च शिववाची त्वनव्ययम् । उत्प्राधान्ये प्रकाशे च ' ख-पुस्तकस्थपाठोऽयम्. १२. 'मोक्ष' ख. १३. 'ऊ रक्षणे रक्षकेच सूच्यां स्यूतावनव्ययम् । ऋ कुत्सायां च वाक्ये च देवमातर्यनव्ययम् । ऋ वाक्य कुत्सयोर्दै त्यजनन्यामप्यनव्ययम् । लू कुत्सायां विस्मये च शब्दोऽपि तदर्थकः । देवमातरि वाराह्यां क्रमात्तावप्यनव्ययौ । एऐशब्दौ तु है हैवत्स्मृत्यामन्त्रणाहूतिषु । क्रमाच्चतुर्भुजे शंभावेऐ प्रोक्तावनव्ययौ । ओमित्यनुमितौ प्रोक्तं प्रणवे चाप्युपक्रमे । ओओशब्दौ तु होहो वत्संबुद्ध्याह्नानयोर्मतौ । विधातरि क्रमाद्विष्णावो औशब्दावनव्ययौ ।' इत्येवं ख- पुस्तकस्थः पाठः १४० 'मुखे' ख. For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८ अभिधान संग्रह:: - ८ अनेकार्थसंग्रहः | १७७७ १७७८ १७८० १७८१ १७८२ १७८४ १७८५ १७८९ पादर्पूरणेऽवधृतौ तु विशेषेऽवधारणे । समुच्चये पादपूर्ती धिग्निर्भर्त्सननिन्दयोः ॥ निस्यात्क्षेपे भृशार्थे च नित्यार्थे दानकर्मणि । संनिधानोपरमयोः संशयाश्रयराशिषु ॥ मोक्षेऽन्तभावेऽघोभावे बन्धने कौशलेऽपि च । नु प्रश्नेऽनुशयेऽतीतार्थे विकल्पवितर्कयोः ॥ १७७९ Parve सादृश्ये तद्विरुद्धतदन्ययोः । व्यतिक्रमे स्वरूपार्थे निषेधाभावयोरपि ॥ निर्निश्चये क्रान्ताद्यर्थे निःशेषप्रतिषेधयोः । प्राक्पूर्वस्मिन्प्रभाते दिग्देशकालेष्वनन्तरे ॥ अतीतेऽग्रेऽप्यथ प्रस्याद्गताद्यर्थप्रकर्षयोः । वा समुच्चय एवार्थे उपमानविकल्पयोः ॥ विष्ठेत नानार्थे वै तौ पादपूरणे । शं कल्याणे सुखेऽर्थं स्वित्परिप्रश्नवितर्कयोः || १७८३ सं संगार्थे प्रकृष्टार्थे शोभनार्थमार्थयोः । स्मातीते पादपूर्ती ह संबुद्धौ पादपूरणे || हा शुंग्दुःखविषादेषु हि ताववधारणे । विशेषे पादपूर्ती च ही विस्मयविषादयोः || दुःखहेतौ च हं रोषभाषणेऽनुनयेऽपि च । हुं वितर्के परिप्रश्ने स्यान्मनागल्पमन्दयोः ॥ १७८६ अङ्ग संबोधने हर्षे पुनरर्थे च किं च तु । साकल्यारम्भयोस्तिर्यक्स्यात्तिरश्चीनवक्रयोः ॥ १७८७ हिरुमध्ये विनार्थेऽति प्रकर्षे लङ्घने भृशे । स्तुतावसंप्रतिक्षेपेऽप्यस्तु पीडानिषेधयोः ॥ १७८८ असूयायामनुज्ञायामाराद्दूरसमीपयोः । इति स्वरूपे सांनिध्ये विवक्षानियमे मते ॥ ent प्रकार प्रत्यक्ष प्रकाशेष्यवधारणे । एवमर्थे समाप्तौ स्यादुत प्रश्नवितर्कयोः || समुच्चये विकल्पे च तावद्यावदिवावधौ । कार्येऽवधारणे माने प्रतीत्थंभूतभागयोः ॥ १७९१ प्रतिदाने प्रतिनिधी वीप्सालक्षणयोरपि । पश्चात्प्रतीच्यां चरमे बतामन्त्रणखेदयोः || धृत्याश्चर्यानुकम्पासु यद्वत्प्रभवितर्कयोः । शश्वत्सह पुनर्नित्ये सकृत्सहैकवारयोः ॥ स्वस्त्याशीः क्षेमपुण्यादौ साक्षात्प्रत्यक्ष तुल्ययोः । हन्त दानेऽनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः १७९४ निश्चये च प्रमोदे चाप्यथो अथ समुच्चये । मङ्गले संशयारम्भाधिकारानन्तरेषु च ॥ अन्वादेशे प्रतिज्ञायां प्रश्नसाकल्ययोरपि । तथा स्यान्निश्चये पृष्ठप्रतिवाक्ये समुच्चये ॥ यथा निदर्शने 'द्वौ तूद्देशे निर्देशसाम्ययोः । हेतूपपत्तौ च वृथा त्वविधौ स्यादनर्थके || १७९७ अनु लक्षणवीप्सेत्थंभूतभागेषु संनिधौ । सादृश्यायामहीनेषु पश्चादर्थसहार्थयोः ॥ नन्वाक्षेपे परिप्रश्ने प्रत्युक्ताववधारणे । वाक्यारम्भेऽप्यनुनयामन्त्रणानुज्ञयोरपि ॥ नानाविनोभानेकार्थे तु स्थाने तु कारणे । युक्ते साम्येऽप्यप स्तेयेऽपकृष्टे वर्जने मुदि || १८०० विपर्यये वियोगे च निर्देशे विकृतावपि । अपि संभावनाशङ्कागर्हणासु समुचये ॥ प्रश्ने युक्तपदार्थेषु कामचारक्रियासु च । उपासन्नेऽधिके होने सादृश्यप्रतियत्नयोः || तद्योगव्याप्तिपूजासु शक्तावारम्भदानयोः । दाक्षिण्याचार्यकरणदोषाख्यानात्ययेषु च ॥ १७९० १७९२ १७९३ १७९५ १७९६ १७९८ १७९९ १८०१ १८०२ १८०३ १. 'पूर्णेऽवधूतौ च तु' गन्ध. २. 'संशये यथा, निरेकमेकोऽपि निराकरोति' इति टीका. 'संश्रयाश्रयराशिषु' ख-ग-ध-पुस्तकस्थः पाठः ३. 'अनुनये' ख; 'अनुशाये तीर्थे स्यात्' ग घ ४. 'विशेष' ग घ ५. 'अवान्तरे' ख-ग-घ. ६. 'अपि श्वित्स्वित्स्यात्प्र' गव. ७. 'प्रसंगार्थे' ख. ८ 'समुच्चयो : ' ग घ ९ इतः परम् 'सु पूजायां भृशाथार्नुमतिकृच्छ्रसमृद्धिपु' इति ख- पुस्तकेऽधिकः पाठोऽयम्. १०. 'सुख' ग-व. ११. 'अनुशये' ग-व. १२. 'हूं लज्जायां निवारणे । मनागल्पे च मन्दे चाङ्ग संबोधनहर्षयोः पुनरर्थे चाथ किं च संकल्पारम्भयोतम् । तिर्यक्तिरोर्थे वक्रे च विहगादौ त्वनव्ययम्' । इत्येवं ख- पुस्तके. १३. 'प्रकर्षेष्व' ख. १४. 'वितर्के च यावत्तावदिवावधौ' ग घ पुस्तकयोरेवं पाठः १५. 'प्रमादे' ग घ. १६. 'हेतू' ख. १७. 'मरणोद्यमनार्थयोः' ख. । For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्ययाधिकारः । ६९ १८०५ १८१६ अभि वीप्सालक्षणयोरित्थंभूताभिमुख्ययोः । स्यादमा संनिधानार्थे सहार्थेऽलं निवारणे || १८०४ अलंकरणसामर्थ्य पर्याप्तिष्वेवधारणे । एवं प्रकारे ऽङ्गीकारेऽवधारणसमन्वयोः ॥ कथं प्रश्ने प्रकारार्थे संभ्रमे संभवेऽपि च । काममसूयानुगमे प्रकामेऽनुमतावपि || १८०६ किमु संभावनायां विमर्शे जोषं सुखे स्तुतौ । मौनलङ्घनयोश्चापि नाम प्राकाश्यकुत्सयोः ।। १८०७ संभाव्याभ्युपगमयोरली के विस्मये कुधि । नूनं तर्फे निश्चिते च प्राध्वं नर्मानुकूलयोः || १८०८ भृशं प्रकर्षेऽत्यर्थे च सामि त्वर्थे जुगुप्सिते । अयि प्रश्नेऽनुनये स्यादये क्रोधविषादयोः ॥ १८०९ संभ्रमे स्मरणे चान्तरन्ते स्वीकारमध्ययोः । रर्युरुरीवदूरी विस्तारेऽङ्गीकृतावपि ॥ पराभिमुख्ये प्राधान्ये विमोक्षप्रातिलोम्ययोः । गतिधर्षणहिंसासु भृशार्थे विक्रमेऽपि च ॥ परि व्याधा परमे वर्जने लक्षणादिषु । आलिङ्गने च शोके च पूजायां दोषकीर्तने ॥ भूषणे सर्वतोभावे व्याप्तौ निवसनेऽपि चैं । पुरा भविष्यदासन्ने चिरातीतप्रबन्धयोः ॥ पुनरप्रथमे भेदे कि संभाव्यवार्तयोः । हेत्वरुच्योरलीके च खलु वीप्सानिषेधयोः ॥ जिज्ञासायामनुनये वाक्यालंकरणेऽपि च । अवालम्बनविज्ञानवियोगव्याप्तिशुद्धिषु ॥ ear परिभवे ईषदर्थेऽवधारणे । उषा रात्रौ तदन्ते च दोषा निशि निशामुखे || मङ्क्षु शीघ्रे भृशे तत्त्वेऽतो हेतोरपदेशवत् । निर्देशे पश्चम्यर्थे चेतो यतश्च विभागवत् ॥ पञ्चम्यर्थे नियमे च तत आदौ कथान्तरे । पञ्चम्यर्थे परिप्रश्ने तिरोऽन्तर्धी तिरश्चि च ॥ १८१८ नीचैः स्वैराल्पनीचेषु प्रादुर्नामप्रकाश्ययोः । पुरोऽग्रे प्रथमे च स्यान्मिथोऽन्योन्यरहस्यपि ॥ १८१९ Her fan शोके च करुणार्थविषादयोः । अंह क्षेपे नियोगे चाप्यहो प्रश्नविचारयोः ॥ १८२० सह संबन्धसादृश्ययौगपद्यसमृद्धिषु । साकल्ये विद्यमाने च हीही विस्मयहास्ययोः ॥ नैनु च प्रदुष्टोक्तौ सम्यग्वादे स्तुतावपि । अपष्ठु चारौ निर्दोषे किमुत प्रश्नवादयोः ।। १८२२ विकल्पेऽतिशये चापि पुरस्तात्प्रथमेऽग्रतः । पूर्वस्यां च पुरार्थे चाभीक्ष्णं शीघ्रप्रकर्षयोः || १८२३ पौनःपुन्ये संतते चावश्यं निश्चयनित्ययोः । इदानीं सांप्रतं वाक्यालंकारे तद्दिनं पुनः || १८२४ दिनमध्ये प्रतिदिने सांप्रतं तूचितेऽधुना । समयानिकपा चान्तर्निकटे चान्तरा पुनः ।। १८२५ विनार्थे संनिधौ मध्येऽभितोऽभिमुखकार्ययोः । समीपोभयतः शीत्रेष्वग्रतः प्रथमाप्रयोः।। १८२६ अन्ततोऽवयवोत्प्रेक्षा पश्चम्यर्थेषु शासने । पुरतोऽप्राद्ययोः पूर्वेद्युर्धर्माहप्रभातयोः ॥ १८२७ अहहेत्यद्भुते खेदेऽन्तरेणान्तर्विनार्थयोः । अहो बतानुकम्पायां खेदामन्त्रणयोरपि ॥ इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितेऽनेकार्थसंग्रहेऽव्ययाधिकारः । १८१७ o १८२१ १८२८ इति श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितोऽनेकार्थसंग्रहः समाप्तः । For Private and Personal Use Only १८१० १८११ १८१२ १८१३ १८१४ १८१५ १. ‘निरर्थकौ' ग-घ. २. ‘च वारणे' ख. ३. 'रोपमयोरङ्गीकारेऽवधारणे' ख. ४. 'उर्दूररी चोररी च ग-घ. ५. 'शुण्ठ्यासु' ग-व. ६. इतः परम् 'प्राङ्गः प्राकाश्ये वृत्तौ स्यात्संभाव्येऽपि प्रयुज्यते' ख. ७. 'प्रतीपयोः ' गघ. ८. 'विक्रान्त' ग घ ९. 'इवौ' ख. १०. इतः परम् 'शनैः शनैश्वरे स्वैरे संहः साहसतेजसोः ' ख. ११. ‘नञ्पूर्वाज्जहातेः क्विपि, अहा' इति टीका. 'अहो' ख ग घ १२. 'नत्रपूर्वाज्जहातेर्डे:, 'अह' इति टीका. 'आह' ख-ग-घ. १२. 'अनु च' ख. १४. 'नानार्थे' ग घ १५. 'समयो' ग घ १६. ' अवसितोत्प्रे' ख. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः॥ अभिधानसंग्रहः। (९) श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितो निघण्टुशेषः। विहितैकार्थनानार्थदेश्यशब्दसमुच्चयः । निघण्टुशेषं वक्ष्येऽहं नवार्हत्पादपङ्कजम् । ....................... = ......"" .......................................... """ = = ............................................. = " " ........................... ... .... .... . .... .... .... .... .... .... .... .... .... .. = = .................................... ........................................ = " = ॥ ............................................। ....... .. .... " .... .... .... = = ......... = ............................................ = ....................................... ."" " ॥ ... . .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... = ... .... .... .... .... .... . "" """ ...................... ॥ १६ .............. ॥ १७ "पुष्पः शुकवृक्षः शुकप्रियः । कपीतनः कर्णपूरो भण्डिलः श्यामवल्कलः ॥ १८ पाटल्यां पाटला स्थाली मोघा तोयाधिवासिनी । वसन्तकामयो¥ती .""कुन्ती कालवृन्तिका ॥ १९ अन्यस्यां तत्र तु श्वेता पाटला काष्ठपाटला । शीतला श्वेतकुम्भीका कुबेराक्षी फलेरुहा ॥ २० अगुरावगुरुर्लाहं वंशिकं विश्वरूपकम् । कृमिजं प्रवरं राजाह योगजमनार्यकम् ॥ मल्लिगन्धेऽत्र मङ्गल्या कृष्णे तु काकतुण्डकः । श्रीखण्डे स्यान्मलयजं चन्दनं श्वेतचन्दनम् ॥ २२ गोशीर्षकं गन्धसारं भद्रश्रीस्तैलपर्णिकम् । फलकी सुरभिः सारं महार्ह रोहणोद्भवम् ॥ २३ १८ For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-९ निघण्टुशेषः। अथ बर्बरके श्वेतं निर्गन्धं बर्बरोद्भवम् । स्याद्रक्तचन्दने क्षुद्रचन्दनं भास्करप्रियम् ॥ २४ ताम्रसारं रक्तसारं लोहितं हरिचन्दनम् । कुचन्दने तु पत्राझं पत्तङ्गं पट्टरञ्जनम् ॥ सुरङ्गकं रक्तकाष्ठं पत्तूरं तिलपणिका । अथ द्रुमोत्पलव्याधः परिव्याधः सुगन्धकः ॥ निर्गन्धेऽस्मिन्कर्णिकारो निषीधः पीतपुष्पकः । पुनागे तु महानागः केसरो रक्तकेसरः ॥ २७ देववल्लभकुम्भीको तुङ्गः पुरुषनामकः । अथागस्त्ये वङ्गसेनः शुकनासो मुनिद्रुमः॥ करवीरे कणवीरः श्वेतपुष्पोऽश्वमारकः । प्रतिहासः शतप्राशोऽश्वरोधः कुमुदोद्भवः ॥ २९ रक्तपुष्पेऽत्र लगुडवण्डातश्चण्डगुल्मको । कालस्कन्धस्तमाले स्यात्तापिच्छो रञ्जतो वसुः॥ ३० तमालपत्रे वस्राख्यं रोमशं तामसं दलम् । सूक्ष्मैलायां चन्द्रवाला द्राविडी निष्कुटिलुटिः ॥ ३१ कपोतवर्णिका तुच्छा कोरङ्गी बहुला तुला । स्थूलैलायां वृहदेला भद्रला वक्सुगन्धिका ।। ३२ त्रिदिवोद्भवा च पृथ्वीका कर्णिका त्रिपुटा पुटा । कर्पूरे घनसारः स्याद्धिमाहो हिमवालुकः ॥ ३३ सिताभ्रः शीतलरजः स्फटिकश्चन्द्रनामकः । कोलके कटुफलं कोमकं मागधोत्थितम् ॥ ३४ कोलं कोषफलं कोरं मारीचं द्वीपमित्यपि । लवङ्गे शिषरं दिव्यं भृङ्गारं वारिजं लवम् ॥ ३५ श्रीपुष्पं श्याह्वयं देवपुष्पं चन्दनपुष्पकम् । नलिकायां कपोताभिर्निर्मध्या शुषिरा नटी ॥ ३६ धमन्यञ्जनकेशी च शून्या विद्रुमवल्लयपि । अतिमुक्ते मण्डकः स्यात्पुण्ड्रको भ्रमरोत्सवः ॥ ३७ पराश्रयः सुवासन्ती कामुको माधवी लता । पिप्पले बोधिरश्वत्थः श्रीवृक्षश्चलपत्रकः॥ ३८ मङ्गल्यः केशवावासः श्यामलो द्विरदाशनः । गर्दभाण्डे कन्दराल छायावृक्षः कमण्डलुः॥ ३९ प्लक्षो वटप्लवः शुङ्गी सुपार्श्वश्वारुदर्शनः । कपीतने कपीनः स्यात्पीतनप्लवकावपि ॥ ४० कर्पटो पर्कटी प्लक्षः सतीदो लक्षणे नटी । वटे वैश्रवणावासो न्यग्रोधो बहुपाद्भवः॥ ४१ स्कन्धजन्मारक्तफलः क्षीरी शुङ्गी वनस्पतिः । उदुम्बरे जन्तुफलो यज्ञाङ्गो हेमदुग्धकः ॥ सदाफलो वसुवृक्षः श्वेतवल्को मशक्यपि । काकोदुम्बरिकायां तु फाल्गुनी फल्गुवाटिका ॥ ४३ फलाराजी फलभारी फलयूजघनेफला । राजादने तु राजन्या क्षीरिका प्रियदर्शनः ॥ ४४ कपिप्रियो दृढस्कन्धो मधुराजफलो नृपः । पियाले तु राजवृक्षो बहुवल्को धनुष्पटः॥ ४५ सन्नकदुः खरस्कन्धश्चारस्तापसवल्लभः । आम्रातके वर्षपाकी कपिचूतः कपिप्रियः ॥ नः पीतनकस्तनुक्षीरोऽम्रपाटकः । ............................................|| ४७ अर्के विकीरण..... ................ । क्षीरापर्णो राजार्के बलर्को गणरूपकः ॥ एकाष्ठीलः सदापुष्पो मन्दारश्च प्रतापसः । त्रुट्यां वज्रो महावृक्षोऽसिपत्रः मुक्सुधा गुडा ॥ ४९ समन्तदुग्धा सेहुण्डः शण्डेरी चक्रकण्टकः । करमर्दै करमदः कराम्रकसुषेणकौ ॥ ५० स्थलपर्केट आविग्नः कृष्णपाकफलोऽपि च । जम्बीरे जम्भलो जम्भो जम्भीलो दन्तहर्षणः ॥ ५१ वऋशोधी दन्तशठो गम्भीगे रोचनोऽपि च । करुणे तु छागलाख्यो मल्लिकाकुसुमः प्रियः ॥ ५२ वीजपूरे वीजपूर्णः पूरकः फलपूरकः । सुपूरको मातुलुङ्गः केसराम्लोऽम्लकेसरः ॥ ५३ बराम्लो बीजको लुङ्गो रुचको मध्यकेसरः । कृमिघ्नो गन्धकुसुमः केसरी साधुपादपः ॥ ५४ मातुलुङ्गी वर्धमाना मधुरा मधुकर्कटी । मधुवल्ली पूतिपुष्पा देवदूती महाबला ॥ ५५ अम्लिकायां चुक्रिकाम्ला शुक्तिकाम्ली विकाम्लिका।चुक्रा चिचा तिन्तिडीका तिन्तिडीगुरुपुष्पिका॥ ४८ For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ वृक्षकाण्डः । ५७ ५८ ६० ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ वृक्षाम्ले स्यादम्लवृक्षस्तिन्तिडीको महीरुहः । शाकाम्लमम्लशाकं चाम्लपूरो रक्तपूरकः ॥ अथाम्लवेतसे भीमो भेदनो रक्तपूरकः । रुधिरस्रावकश्शुकं मांसारिचनिकप्रियः ॥ शाखाम्लो वेतसोऽम्लोऽम्लस्तिन्तिडीको रसाम्लकः । स शङ्खद्रावको हीनो लौहद्रावक उत्तमः ॥५९ तावेव तु शतवेधसहस्रवेधिनौ क्रमात् । कपित्थे वानरावासी गन्धपत्रः कपिप्रियः || पुष्पफलो दधिफलो दधित्यग्राहिमन्मथाः | अक्षिस्यंदो दन्तशठो राजाम्रश्चिरपाक्यपि ॥ अश्मन्तके श्लक्ष्णपत्रः पाषाणावूक इन्द्रकः । अम्लप त्रस्ताम्रपत्रः कुशली यमलच्छदः ॥ नारङ्गे स्यान्नागरङ्गस्त्वक्सुगन्धो मुखप्रियः । ऐर वतो योगसारो योगी तत्राधिवासनः ॥ खदिरे स्याद्रक्तसारः कण्टकी दन्तधावनः । गायत्री चलपत्रश्च बहुशल्यः क्षितिक्षमः ॥ सिते तु तत्र कदरः कार्मकः कुब्जकण्टकः । सोमवल्को नेमिवृक्षः श्वेतसारः पथिद्रुमः ॥ विट्खदिरे विरिमिदो गोधास्कन्धो रिमेदकः | अहिमारो रिमः पूत्यरिमेदो मुखशोधनः ॥ शाल्मलौ तूलिनी मोचा पिच्छिला विरजाविता । कुकुटी पूरणी रक्तकुसुमा वुणवल्लभा ॥ कण्टकाढ्या नलफली पिच्छा तु तस्य वेष्टकः । कुत्सिते शाल्मलौ प्रोक्तो रोचनः कूटशाल्मलिः ६८ शिंशिपायां महाश्यामा पिच्छिला पाण्डुरच्छदा । कृष्णसाराङ्गारवर्णागुरुरल्पा तु शिंशिपा ॥ ६९ कुशिंशिपा भस्मगर्भा कपिला भस्मपिङ्गला । बदय कुवलिः कोलिः कर्कन्धुः फेनिलच्छदा ॥ ७० राष्ट्रवृद्धिकरी कोली सौवीरी वज्रशिल्पिका । बुटा घोण्टा कुहा घोट्टा व्याघ्रगृध्रनखीत्यपि ॥ ७१ शम्यां सक्तफला लक्ष्मीः शिवा तुङ्गाग्निपादपः । अजप्रिया भस्मकाष्ठा शंकरः शिवकीलिका ॥ ७२ शिवलोमायतफला लोमपामविनाशिनी । मङ्गल्या शुचिपत्रा च फले तस्यास्तु साङ्गरः ॥ ७३ इङ्गुद्यां तापसतरुर्मार्जारः कण्टकीटकः । बिन्दुकस्तिक्तमज्जा च पूतिपुष्पफलोऽपि च ॥ गुग्गुलौ तु पुरो दुर्गो महिषाक्षः पलङ्कषः । जटायुः कालनिर्यासो वासवोलूकनामकः ॥ नक्तंचरः शिवधूपः कुम्भोलूखलकः शिवः । पारिभद्रे निम्वतरुर्मन्दारः पारिजातकः ॥ करीरे स्यात्तीक्ष्णसारः शाकपुष्पो मृदुफलः । मरुजन्मा तथा पत्रो ग्रन्थिलककरावपि ॥ विकङ्कते स्रुववृक्षो ग्रन्थिलः खादुकण्टकः । केकणिः काकपादश्च व्याघ्रपादोपकण्टकः ॥ ७८ बिल्वे महाफलः श्रयाह्नः शलाटुः पूतिमारुतः । महाकपित्थं शाण्डिल्यः शैलूषो नीलमल्लिका ॥ ७९ श्रीवासः श्रीफलो हृद्यगन्धो मालूरकर्कटौ । हरीतक्यां जया पथ्या हैमवत्यभयामृता ॥ कायस्था पूतना चेतक्यव्यथा श्रेयसी शिवा । विभीतके भूतवासो वासन्तोऽक्षो वहेक: ।। ८१ संवर्तकः कर्षफलः कलिवासः कलिद्रुमः । कर्षो दोत्यो मधुबीजो धर्मद्वेषी विभेदकः ॥ आमलक्यां शिवाधात्री वयस्था परसामृता । पर्वकाव्या तिष्यफला माकन्दी श्रीफला च सा ८३ अरणावग्निमन्थः स्यात्तर्कारी वैजयन्तिका । जया जयन्ती नादेयी श्रीपर्णी गणिकारिका || ८४ तेजोमन्थो हविर्मन्थो..................वह्निशोधनः । अरलौ दुन्दको दीर्घ "वृन्तञ्चाथ कुदंनटः ॥ ८५ श्योनाकः शोषणो जम्बुः शुकनासः कटंभरः । मयूरजङ्घकटुङ्गः सल्लकः प्रियजीवकः ॥ मण्डूकपर्णः पत्रोर्णो गोपवृक्षो मुनिद्रुमः । शित्रौ शोभाञ्जनस्तीक्ष्णगन्धो मूलकपल्लवः ॥ विद्रध्यरातिः काक्षीवो मुखभञ्जः सुभञ्जनः । दृशोक्षीवः सुरङ्गी च मोचको मधुगृञ्जनः ॥ श्वेतेऽत्र श्वेतमरिचो रक्ते तु मधुशिग्रुकः । तिनिशे रथकृन्नेमिर्वञ्जुलो रथसाधकः ॥ ७४ ७५ ७६ ७७ ८० T ૮૨ ८६ ८७ ८८ ८९ For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ अभिधान संग्रहः – ९ निघण्टुशेषः । ९० ९१ ९२ ९५ ९६ ९७ ९८ ९९ १०० १०१ १०२ १०३ १०५ १०६ दीर्घवृक्षच कवरो रथनामातिमुक्तकः । अश्मगर्भः सर्वसारः क्रमसंधारणोऽपि च ॥ पलाशे किंशुकः पर्णः स्त्रिपत्रकः । त्रिवृताख्यो रक्तपुष्पो बीजस्नेहः समिद्वरः ॥ क्षारश्रेष्ठो वातपोथो याज्ञिको ब्रह्मपादपः । धवे भारोद्वहो गौरः सकटाक्षो धुरंधरः ॥ कुलाव नन्दिश्चापि सितः कृष्णश्च स द्विधा । श्रीपयों काश्मरी कृष्णा वृन्तिका मधुपर्णिका ९३ गम्भारी सर्वतोभद्रा कट्फला भद्रपर्णिका | विहीरा कुमुदाहारी महाकुम्भी च कश्मरी ॥ ९४ नित्यभद्रा महाभद्रा काश्मर्यो मधुपर्ण्यपि । सप्तच्छदे शुक्तिपर्णो गन्धपुष्पः सवर्णकः ॥ स्थूलपर्णो दीपवृक्षः शारदो विषमच्छदः । मदगन्धिविशालव कुग्गजद्विट्शाल्मलीदलः ॥ शिरोरुहविटप : सुमनो ग्रहनाशनः । आरग्वधे कृतमालः कर्णिकारः सुवर्णकः || पीतपुष्प दीर्घफल: शम्पाकञ्चतुरङ्गुलः । व्याधिहा रेवतः स्थूलः प्रग्रहो राजपादपः ॥ आरोग्यशिम्बिका कर्णी स्वर्णशेफालिकेत्यपि । बीजके प्रियकः शौरिगौरो बन्धूकपुष्पकः ॥ कृष्णसर्जी महासर्जः कल्याण: पीवरोऽसनः । महाशालः पीतशालो जीवकः प्रियशालकः ॥ सुगन्धिर्नीलनिर्यासस्तिष्यपुष्पोऽलकप्रियः । स तु द्विधा शिखिग्रीवः श्रेष्ठो गोमूत्रगन्धकः ॥ अश्वकर्णे दीर्घपत्रः कषायः सस्यसंवरः । सर्जकः " 'शूरः कार्यशालो लतातरुः ॥ अर्जुने ककुभः सेव्यः सुवर्णो धूर्तपादपः । देवशाकः शक्रतरुर्न दीसर्जोऽर्जुनाभिधः ॥ शाके कोलफलोद्वा दारुर्योगी हलीमकः । गन्धसारः स्थिरसारः स्थिरको ध्रुवसाधनः ॥ १०४ अभ्रं ''''महापत्रो बलसारो बलप्रभः । धर्मणे तु धनुर्वृक्षो गोत्रवृक्षो रुजासहः ॥ महाबलो महावृक्षो राजाहो धन्वनः फलम् । खादुफलो मृत्युफलः सारवृक्षः सुतेजनः ॥ सिलके तु सिद्धवृक्षः कोलिपत्रे तु जोरणः । महापत्रे त्वगादी स्याद्विषशङ्कुः पलाशकः ॥ पारिभद्रे किलिमं किलिमं देववल्लभः । दारु वस्नेहविदं च देवदुः खर्गजो द्रुमः ॥ पीतपूतिमहादेवभद्रेन्द्रा काष्ठदारुणी | मधूके ... शाकः स्यान्माधवो मधुको मधुः || मधुष्ठीलो मधुष्ठालो मधुकाष्टो मधुस्रवः । रोधकोषमधुगुडपुष्पो गोलफलोऽपि च || जलजेऽस्मिन्मधूलः स्याद्गिरिजो दीर्घपत्रकः । तीरवृक्षो गौरशालो हस्वपुष्पफलोऽपि च ॥ तिन्दुके स्फूर्जकस्तुष्टः कालस्कन्धो विरूपकः । निःस्यन्दनः कालशाको द्रावणो नीलसारकः।। ११२ द्वितीयतिन्दुके कालस्तिन्दुर्मर्कटतिन्दुकः । काकेन्दुकः काकपीलुः कुपीलुकुलकावपि ।। ११३ रोधे लोध्रः सिते तत्र शाबरस्तनुवल्कलः । उत्सादनो महारोधो नम्भः शबरपादपः ॥ ११४ रक्ते तु पट्टिका तिल्बः पट्टीलाक्षाप्रसादनः । तिरीटो मार्जनचिल्ली कानीनः क्रमुकः शिशुः ॥ ११५ स्थूलवल्को बृहत्पत्रः कृष्णरोध्रे तु गालवः । भूर्जे भुजो बहुपटो मृदुवलको मृदुच्छदः || रेखापत्रश्छत्रपत्रो बहुत्वक्चर्मिणावपि । श्लेष्मान्तके भूतवृक्षः पिच्छिलो द्विजकुत्सितः || वसन्तकुसुमः शेलुः कफेलुर्लेखशाटकः । विषघाती बहुवार: शीत उद्दालकस्तथा ॥ कन्फिलाम्बुपनसामहुः । लकुचः क्षुद्रपनसस्तनु स्यात्कुब्जकं फलम् ॥ आम्रे रसालो माकन्दः कामाङ्गः पिकवान्धवः । वनपुष्पो शवश्वतः परपुष्टमदोद्भवः ॥ मधुदूतो मधुफलः सुफलो मदिरासखः । वसन्तपादपोऽसौ तु सहकारोऽतिसौरभः || क्षुद्राम्रे स्यात्क्रमितरुर्लाक्षावृक्षो जतुद्रुमः । सुकोशको घनस्कन्धः केशाम्बुश्च सुरक्तसः || टङ्को नीलकपित्थोऽन्यो राजपुत्रो नृपात्मजः । जम्ब्वां महाफला राजजम्बूर्नीलाम्बुकच्छदा ॥ १२३ १०७ १०८ १०९ ११० १११ ११६ ११७ ११८ ११९ १२० १२१ १२२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ वृक्षकाण्डः। सुगन्धिपत्रा सान्या तु काकजम्बूः कुजम्बुका । उशीरपत्रा नादेयी वैदेशी काकवल्लभा ॥ १२४ मदने छर्दनो राठः शल्यको विषनाशनः । करहाटो मरुवकः पिण्डी पिण्डीतकः फलः ॥ १२५ सूर्यपुत्रकर्कटको विषगन्धो विषोदरः । मश्यान्तकफलो राजपुत्रकः कफवर्धनः ॥ १२६ कुब्जके कामुकं श्यामसारः फुल्लो मिसिद्रुमः । निचुले तु नदीकान्तोऽम्बुजो हिजल इजलः ॥१२७ गन्धपुष्पो गुच्छफलोऽनुवाकः कच्छकोल्यपि । वेतसे विदुलः शीतो नदीकूलप्रियो रथः ॥ १२८ अभ्रपुष्पः पत्रमाली वाणीरो व लोऽपि च । स्यादम्बुवेतसे भीरु देयी बालभीरुकः॥ १२९ विदुलो मञ्जरीनम्रः परिव्याधो निकुञ्जकः । वरुणे गन्धवृक्षः स्यात्तिक्तशाकः कुमारकः ॥ १३० श्वेतपुष्पः श्वेतफलस्तमालो मारुतापहः । साधुवृक्षः श्वेतवृक्षः सेतुरश्मरिकारिपुः॥ १३१ अङ्कोटे स्यात्यातसारो दीर्घकीलो निकोचकः । अङ्कोलकस्ताम्रफलो रेचको गन्धपुष्पकः॥ १३२ भल्लातके वीरतरुररुष्कोऽरुष्करो व्रणः । भौतिको भूतनुभूरिस्नेहः शोफकरो धनुः ॥ १३३ अग्निमुखी बहुपत्रो भल्ली सूर्याग्निसंज्ञकः । अरिष्ठे स्यात्कृष्णवर्णो रक्तबीजोऽर्थसाधनः ॥ १३४ शुभनामा पीतफेनः फेनिलो गर्भपातनः । निम्बे तु सर्वतोभद्रः पारिभद्रः सुतिक्तकः॥ १३५ पिचुमन्दो यवनेष्टः शुकेष्टः शुकमालकः। अरिष्टो हिङ्गुनिर्यासो वेता नियमनोऽपि च ॥ १३६ महानिम्बे निम्बकश्च कार्मुको विषमुष्टिकः । रम्यकः क्षीबको वृक्षोऽक्षिपीलुः केशमुष्टिकः ।।१३७ पीलौ स्रंसी सहस्राङ्गः शीतः करभवल्लभः । गुल्मारिर्गुडफलश्चाथास्मिंस्तु गिरिसंभवे ॥ १३८ अक्षोटः कर्परालश्च फलस्नेहो गुहाशयः। पारावाते तु साराम्लो रक्तमालः परावतः ॥ १३९ आरेवतः सारफलो महापारावतो महान् । कपोताण्डतुल्यफलो रुद्राक्षे तु महामुनिः ॥ १४० स तु चतुर्मुखो ब्रह्मा द्विमुखस्तु वरार्गलः । षण्मुखस्तु कार्तिकेयः पञ्चमुखस्तु शंकरः॥ १४१ माधवस्त्वेकवदनो विजयाशस्त्रधारणः । पुत्रंजीवे बक्षफलः कुमारजीवनामकः ॥ १४२ कर जे स्यान्नक्तमालः पूतीकश्चिरबिल्वकः । करजः श्लीपदारिश्च प्रकीर्यः कलिनाशनः॥ १४३ भेदास्त्वस्य त्रयस्तत्र षड्मन्था हस्तिवारुणी । मर्कट्यां तु कृतमाल उदकीर्यः प्रकीर्यकः ॥ १४४ अङ्गारवल्यां शार्ङ्गस्था कासन्नी करतालिका । रोहीतके रोहितको रोही दाडिमपुष्पकः॥ १४५ रोहडकः सदापुष्पो रोचना प्लीहरक्तहा । कटफले तु सोमवल्कः कैटर्यो गोपभद्रिका ॥ १४६ कुम्भी कुमुदिका भद्रा श्रीपर्णी भद्रवत्यपि । दाडिमे कुट्टिमः कीरवल्लभः फलषाण्डवः॥ १४७ करको दन्तबीजश्चाथोड़पुष्पे जपा जवा । धातक्यां तु धातुपुष्पी बहुपुष्प्यग्निपुष्पिका ॥ १४८ ताम्रपर्णी सुभिक्षा च कुञ्जरा मद्यपावनी । सल्लक्यां वल्लकी हादा सुवहा सुस्रवा रसा ॥ १४९ अश्वमूर्तिः कुन्दरुकी गजभक्ष्या महेरणा । गन्धवीरा गन्धकारी सुरभिर्वनकर्णिका ॥ १५० एरण्डे तरुणश्चित्रो दीर्घदण्डो व्यडम्बकः । पञ्चाङ्गुलो वर्द्धमान आमण्डो रुवको रुवूः॥ १५१ व्याघ्रपुच्छो व्याघ्रतलश्चक्षुरुत्तानपत्रकः । गन्धर्वहस्तकश्चञ्चुरादण्डो हस्तिपर्णकः ॥ १५२ उरुवूको हस्तिकर्णः शुक्लो रक्तश्च स द्विधा । किम्पाके तु महाकालः काकर्दः काकमर्दकः ।। १५३ कम्पिल्लके तु काम्पिल्लो रक्ताङ्गो रक्तचूर्णकः । चन्द्राह्वयो रोचनकः कर्कशाहः पटोदयः ॥ १५४ केतकच्छदनीयोऽम्बुप्रसादनफलः कतः । कार्पास्यां तु समुद्रान्ता बदरा तुण्डिकेर्यपि ॥ १५५ सा तु वन्या भरद्वाजी भद्रा चन्दनबीजिका । वन्दायां स्यात्तरुरुहा शौरवर्यदरोहिणी ॥ १५६ वृक्षादनी वृक्षभक्ष्या जयन्ती कामपादपः । स तु क्षीरवृक्षभवो नन्दीवृक्षो जयद्रुमः॥ १५७ For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-९ निघण्टुशेषः । आटरूषे वृषो वासा वाशिका वाजिदन्तकः । भिषङ्माता सिंहमुखः सिंहिका सिंहपर्णिका १५८ तुम्बरौ सानुजः सौरः सौरभो वनजोऽन्धकः । तीक्ष्णवल्कस्तीक्ष्णफलतीक्ष्णपत्रो महामुनिः॥ १५९ कदल्यां तु हस्तिविषा रम्भा मोचांशुमत्फला । काष्ठीला वारणवुशा स्यात्कालीरस इत्यपि ॥ १६० तगरे कालानुसार्य चक्राख्यो मधुरो नृपः । तूले .... ब्रह्मचारु ब्रह्मण्यं ब्रह्मकाष्ठकम् ॥ १६१ ब्रह्मनिष्ठं च दापं च क्रमुकं ब्रह्मचारि च । मुष्कके मोक्षको घण्टा क्रन्दालो मोक्षमुञ्चकौ ॥ १६२ पाटलिर्गोलिहः क्षारश्रेष्टः कृष्णः सितश्च सः । वंशे यवफलो वेणुः शतपर्वा तृणध्वजः॥ १६३ मस्करस्त्वचिसारस्त्वक्सारकरितेजनाः । गाङ्गेरुक्यां विश्वदेवदेवाह्रस्वाङ्गवेधुका ॥ १६४ खण्डारिष्टा नागबला स्वरबन्धनिकेत्यपि । दार्वी दारुहरिद्रायां पीता कटङ्कटेरिका ॥ १६५ पीतद्रुमः पीतदारु पीतनं पीतचन्दनम् । पर्जनी कर्कटकिनी कालेयकः पचम्पचा॥ १६६ ग्रन्थिपणे श्लिष्टपर्ण विकीर्ण शीर्ण रोमकम् । कुकुरं च तथा गुच्छं शुकपुष्पं शुकच्छदम् ॥ १६७ स्थोणेयकं वहिचूडा सुगन्धप्रन्थिकावपि । स्मृकायां ब्राह्मणी पङ्कमुष्टिकापि श्वनावधूः॥ १६८ समुद्रान्ता मरुन्माला निर्माल्या देवपुत्रिका । लङ्कातिका कोटिवर्षा देवी पङ्कजमुष्टिका ॥ १६९ गोमी स्वर्णलतेन्द्राणी मरन्माला लता लघुः । विडङ्गे केरला मोघा तन्दुलः कृष्णतन्दुलः॥ १७० वेल्लकः कृमिहा जन्तुघातको मृगगामिनी । इन्द्राक्षे ऋषभो वीरः श्रीमान्वृषभनामकः॥ १७१ धूधुरो गोपतिः शृङ्गी बन्धुरः पृथिवीपतिः । ऋद्वौ सिद्धियुगं योग्यं रथाङ्गं मङ्गलं तथा ॥ १७२ ऋषिसृष्टसुखं लक्ष्मीवृद्धेरप्यावया अमी । पद्मके मालकः पीतो रक्तश्चरुसरुश्यवः ॥ १७३ सुसभः शीतवीर्यश्च पाटलः पीतवर्णकः । कङ्कुष्टे स्यात्काककुष्टः पुलकः काकपालकः ॥ १७४ रेचनः शोधनो हासो विडङ्गो रङ्गदायकः । परूषके स्यादल्पास्थिः परुषो नीलपर्णकः॥ १७५ परोऽपरः परश्वैष परिमण्डल इत्यपि । खजूरे खग्रुजः पिण्डी निःश्रेणिः स्वादुमस्तकः॥ १७६ खजूरिकायां स्याभूमिखजूरी काककर्कटी | ताले तलो लेख्यपत्रस्तृणराजो ध्वजद्रुमः ॥ १७७ नालिकेरे रसफलो लाङ्गली कूर्चकेसरः । दाक्षिणात्यो दृढफलो नारिकेरो लतातरुः॥ १७८ पूगे गुवाकः क्रमुकः पूगी च नीलवल्कलः । एतस्य फलमुद्वेगं चिकणे तत्र चिक्कणम् ॥ १७९ केतके तु रजःपुष्पो जम्बूलः क्रमुकच्छदः । हिन्ताले तु तृणराजो राजवृक्षो लताङ्कुरः॥ १८० ताल्यां तु मृत्युपुष्पा स्यादेकपत्रफलापि च । खजूरतालखर्जूरीतालीहिन्तालकेतकाः॥ १८१ ऋमुको नालिकेरश्च स्युरेते तृणपादपाः ।। १८२ इत्याचार्यश्रीहेमचन्दविरचिते निघण्टुशेषे प्रथमो वृक्षकाण्डः । सिन्दुवारे तु निर्गुण्डी सिन्दुको नीलसन्धिकः । शीतसहा च सुरसा चेन्द्राणी सिन्दुवारकः१८३ सा नीला वनशेफाली सुपुष्पा नीलमञ्जरी । श्वेता तु श्वेतसुरसा गोलोमा भूतकश्यपि ॥ १८४ शेफालिकायां सुवहा निर्गुण्डी नालिकासुता । सुरसा रक्तवृन्ता च श्वित्रन्नी पुष्पवर्षिणी ॥ १८५ सा तु शुक्ला भूतकेशी सत्यनाम्नी बहुक्षमा । प्रियङ्गो प्रियकः कङ्गुः प्रियवल्ली प्रियालता ॥ १८६ विष्वक्सेना गन्धफली कारम्भा फलिनी फली । गुन्द्रा गोवन्दनी श्यामा योषाहा पर्णभेदिनी१८७ मधुरायां यष्टीमधुस्तल्लक्षणा मधुस्रवा । क्लीतकं च जलजासौ मधुपर्णी मधूलिका ॥ १८८ अश्वगन्धायां तुरङ्गी कम्बुकाश्वावरोहकः । अश्वकन्दो बहुगन्धा पुत्रदा कोलकर्ण्यपि ॥ १८९ For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २ गुल्मकाण्डः । मेषशृङ्गथामजशृङ्गी वर्तिका सर्पदंष्ट्रिका । सैव स्यादक्षिणावर्ता वृश्चिकाला विषाणिका ॥ १९० उष्ट्रधमकपुच्छा च काली च विषघातिनी । शृङ्गी तु कर्कटशृङ्गयां नताङ्गी शिशिरेफला ॥ १९१ कर्कटाहा महाघोषा वका मञ्जरिशिम्बिका । निदिग्धिकायां कण्टाली दुःस्पर्शा कण्टकारिका॥१९२ व्याघ्री क्षुद्रा दुष्प्रधर्षा धावनी हेमपुष्पिका । बृहत्यां क्षुद्रभण्टाकी वार्ताको राष्ट्रिका कुली ॥ १९३ विशदः सिंह्यनाक्रान्ता महोटिका महत्यपि । विदार्या तु स्वादुकन्दा पुष्पकन्दा मृगालिका ॥ १९४ वृक्षादनी चर्मकषा भूकुष्माण्ड्यश्ववल्लभा । बिडालिका वृक्षपर्णी महाश्वेता परा तु सा ॥ १९५ क्षीरशुक्ला क्षीरकन्दा क्षीरवल्ली पयस्विनी । ऋष्यगन्धेक्षुगन्धेक्षवल्ली क्षीरविदारिका ॥ १९६ पृश्निपा पृथक्पर्णी लाङ्गली क्रोष्टुपुच्छिका । शृगालवर्णा कलशी धृतिला धावनी गुहा ॥ १९७ सिंहपुच्छी चित्रपर्ण्यशिपर्णी तिलपर्ण्यपि । गोक्षुरे स्थलशृङ्गालवनशृङ्गाटगोक्षुराः ॥ १९८ कण्टीषडङ्गी गोकण्टस्त्रिकण्टस्तु त्रिकत्रिकः । इक्षुगन्धा व्यालदंष्ट्रः स्वदंष्ट्रः स्वादुकण्टकः॥ १९९ पलङ्कषा कण्टफलः षडङ्गस्तूक्षुरः क्षुरः । दन्त्यां शीघ्रा विशल्या च चित्रोदुम्बरपर्णिका ॥ २०० मकूलको रामदूती निकुम्भो घुणवल्लभा । नागदन्त्यां हस्तिदन्ती वारुणी चापि चिभिटी ॥ २०१ मृगादनी मृगैर्वारुर्मूगाक्षी भुजगस्फटा । श्वेतपुष्पा मधुपुष्पा पर्वपुष्पा विषौषधिः ॥ २०२ अपामार्गे त्वधःशल्यः किणिही खरमञ्जरी । धामार्गवः शैखरिको वशिरः कपिपिप्पली ॥ २०३ कपिवल्ली मर्कटिका शिखर्याघाटदुम्रहौ । प्रत्यक्पुष्पी पत्रपुष्पी केशवल्ली मयूरकः ॥ २०४ पुनर्नवायां वृश्वीरो दीर्घपत्रा शिलाटिका । विशाखः क्षुद्रवर्षाभूः कटिल्लः प्रावृषायणी ॥ २०५ शोफनी चापरा वेषा कूरमण्डलपत्रकः । श्वेतमूला महावर्षा भूवर्षकेतुरित्यपि ॥ २०६ ज्योतिष्मत्यां स्वर्णलता कङ्गुनी लवणाग्निभा । पारावतपदी पण्या ज्योतिष्का कटभीत्यपि ॥ २०७ माषप| सूर्यपर्णी पाण्डुश्चापि महासहा । अश्वपुच्छा सिंहवृन्ता कम्बोजी कृष्णवृन्तिका।। २०८ मुद्गपकाकमुद्गा वन्या मार्जारंगन्धिका । शिवा क्षुद्रसहा ह्रासी रङ्गणी सूर्यपर्णिका ॥ २०९ भूम्यामलक्याममला बहुपुत्रा वितुन्नकः । तामलक्युज्झटा ज्ञायतालिका नुन्नमालिनी ॥ २१० हरिद्रायां वर्णवती काञ्चनी वरवर्णिनी । निशाख्या रञ्जनी गौरी पीतिका मेहघातिनी ॥ २११ वेश्या विटप्रिया पीता तथा हट्टविलासिनी । प्रपुन्नाटे तु दद्रुनश्चक्राकश्चक्रमर्दकः ॥ २१२ मेषाक्षो मेषकुसुमः पद्माटैडगजावपि । मुण्ड्यां मुण्डतिका भिक्षुः श्रावणी जीवबोधिनी ॥ २१३ श्रवणा श्रवणशीर्षा प्रव्रजिता तपस्विनी । महाश्रावणिकायां बव्यथा कदम्बपुष्पिका ॥ २१४ प्रन्थिका लोभनीया च छिन्नग्रन्थनिकापि च । वाकुच्यां स्यात्कालमेषी दुर्गन्धा कुष्टनाशिनी ॥ २१५ पूतिपर्णी सोमराजी सुवल्ली सोमवल्लिका । अवल्गुजः कृष्णफला दुर्लेखा पूतिफल्यपि ॥ २१६ रास्नायां श्रेयसी रस्या रसनातिरसा रसा । एलापर्णी गन्धमूला सुवहा मारुतापहा ॥ . २१७ नाकुल्यां सर्पगन्धा तु सुगन्धा वारिपत्रका । गन्धनाकुलिकायां तु सर्पाक्षी विषमर्दिनी ॥ २१८ महासुगन्धा सुवहा छत्राकी नकुलप्रिया । कुठेरके वर्जकः स्यात्क्षुद्रपत्रः कुठिञ्जरः॥ २१९ वैकुण्ठस्तीक्ष्णगन्धश्च द्वितीयो वटपत्रकः । पर्णासो बिल्वगन्धश्च स तु कृष्णः सरालकः ॥ २२० काकतालः कृष्णमल्ली मालुकः कृष्णमालुकः । तुलस्यां सुरसा प्रेतराक्षसी बहुमञ्जरी॥ २२१ यस्या गौरी शक्रपत्नी मान्नी देवदुन्दुभिः । फणिज्जके प्रस्थपुष्पः खरपत्रोऽत्रपत्रकः॥ २२२ मरूपको मरुबको जम्भीरो मारुतः फणी । त्रायन्ती त्रायमाणायां कृतत्राणाशिसानुजा ॥ २२३ For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-९ निघण्टुशेषः । वार्षिकं बदराघृष्टि वाराही बलभद्रिका | बलदेवा""सुत्राणा विष्वक्सेनप्रियापि च ॥ २२४ यवासके धन्वयासो यासो धन्वयवासकः । दूरमूलो दीर्घमूलो बालपत्रो मरुद्भवः ॥ २२५ कुनाशकोऽधिष्टकण्टस्ताम्रमूली प्रचोदनः । दुस्पर्शः कच्छुरानन्ता समुद्रान्ता दुरालभा ॥ २२६ किराततिक्ते किरातो रामसेनः किरातकः । अनार्यतिक्तको हैमो भूनिम्बः काण्डतिक्तकः ॥ २२७ कुष्टे तु पाकलं रामं वानीरं वाप्यमुत्पलम् । वानीरजं वापिभाव्यं कौरवं व्याधिनामकम् ॥ २२८ वालके जलकेशाख्यं बर्हिष्टं दीर्घरोमकम् । ह्रीवेरो दीच्यवज्जाणिपिङ्गमाचमनं रुचम् ॥ २२९ शव्यां पलाशः षड्मन्था गन्धाली हिमजा वधूः । कर्बुरः सुव्रता ग्रन्थमूली पृथुफलाशिका ॥ २३० एलावालुके त्वैलेयं वालुकं हरिवालुकम् । सुगन्ध्यालूकमेल्वालु दुर्वणप्रसरं दृढम् ॥ २३१ कुङ्कुमे रक्तपर्यायं संकोचपिशुनं शुकम् । हीरं कुसुम्भं घुमृणं पीतं वाल्हीकपीतने ॥ २३२ काश्मीरजं वद्विशिखं वरं लोहितचन्दनम् । जात्यां तु रजनीपुष्पा मालती तैलभाविनी ॥ २३३ प्रियंवदा हृद्यगन्धा मनोज्ञा सुमनालता । तस्यास्तु कलिकायां स्यात्पत्री सौमनसायिनी ॥ २३४ जातोफले जातिकोशं शालूकं मालतीफलम् । मज्जसारं जात्यमृतं शौण्डं सौमनसंपुटम् ॥ २३५ यूधिकायां बालपुष्पा मागधी शङ्खयूथिका । गुणोहला पुण्यगन्धा चारुमोटा शिखण्डिनी ॥ २३६ अम्बष्टा गणिका सा तु पीता स्याद्धेमपुष्पिका । कुन्दे माध्यः सदापुष्पो मकरन्दो मनोहरः ॥२३७ अट्टहासो भङ्गमित्रं शाल्योदनो यमश्वसः । स्यान्नवमालिकायां तु मोमाली नवमालिनी ॥ २३८ सत्सला सुकुरारातिः सुरतिः शिशुगन्धिका । कान्ता विभावरी प्रीष्मा प्रैष्मिका शिखरिण्यपि।।२३९ मल्लिकायां शीतभीरुर्मदयन्ती प्रमोदनी । अष्टापदी तृणमूल्यं गवाक्षा भूपदीत्यपि ॥ २४० वार्षिक्यां षट्पदानन्दी श्रीमती सुभगा प्रिया । सुवर्षा त्रिपुटा व्यस्रसुरूपा मुक्तबन्धनात् ॥ २४१ कुमार्यों तु वणिचारुकेसरा भृङ्गसंमता । तरणी रामतरणिर्गन्धाढ्या कन्यका सहा ॥ २४२ अमिलाने स्यादम्लानौ.........""महासहा । रक्तपुष्पः कुरुबकः पीतपुष्पः कुरण्टकः ॥ २४३ सैरेयके सहचरो झिण्टी महावरश्च सः । स तु रक्तः कुरबकः स्यात्पीतस्तु कुरण्टकः ॥ २४४ नील आर्तगलो दिसी वाण ओदनपाक्यपि । किंकिराते किंकिराटः पीतभद्रः प्रलोभ्यपि ॥ २४५ चित्रके वल्लरीव्याल: पाठीनो दारुणः कुटः । ज्योतिष्को जरणोऽग्न्याख्यो वलिनीं पिपाठिनः २४६ वासन्त्यां स्यात्प्रहसन्ती सुवसन्ता वसन्तजा । सेव्यालिबान्धवा शीतसंवासा सीतप्लावसा ॥ २४७ नील्यां श्रीफलिका काला दोलामेलाविशोधनी । तूणी तुच्छा भारवाही रञ्जनी मधुपर्णिका ॥२४८ द्रोणी क्लीतकिका ग्राम्या नीलकेशी महारसा । दमने स्याब्राह्मजटा मुनिर्दान्तर्षिपुत्रकौ ॥ २४९ गन्धोत्कटः पुण्डरीकः पाण्डुरागस्तपस्यपि । धत्तूरे धूर्तधत्तूरी कितवो देवता शठः ॥ २५० घण्टापुष्पस्तलफलो मातुलः कनकाह्वयः । उन्मत्तो मदनश्वास्य फलं मातुलपत्रकम् ॥ २५१ शङ्खपुष्पी क्षीरपुष्पी शिवब्रह्मकिरीटिनी । मधुपुष्पी मधुगन्धा शङ्खाह्वा शङ्खमालिनी ॥ २५२ धूसरच्छदना श्वेतपुष्पी वनविलासिनी । कर्चुरे द्रविडः काल्यो वेधान्यो गन्धमूलकः ॥ २५३ मोचामस्त्वजमोदायां मयूरो लोचमस्तकः । खराश्वा कारवी वस्तगन्धा हस्तिमयूरकः ॥ २५४ दीप्यो वल्ली ब्रह्मदर्भा लोचमर्कट इत्यपि । यवान्यां स्यादुअगन्धा यमनी यवसाह्वयः ॥ २५५ सहदेव्यां तथा दण्डोत्पला गोचन्दना वसा । गन्धवर्णा सितैः पुष्पैविश्वदेवानुसारुणैः ॥ २५६ पर्पटके वरतिक्तो रजः कवचनामकः । गोजिकायां शृङ्गवेरो दाविका भूमिकालिका ॥ २५७ For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ लताकाण्डः । २६२ २७० बलायां शीतपाकी स्याद्भोदन्योदनाह्वया | वाट्यालकस्तथा वाद्यपुष्पिका पीतपुष्पिका || देवसहा सहदेवातिवला बाह्यपुष्पिका । ऋष्या प्रोक्ता ऋष्यगन्धा कङ्कता वर्षपुष्पिका ॥ वाट्यायनी भूरिबला तिष्या वीर्या बृहद्बला | महागन्धा गन्धबली मङ्गल्यार्थप्रसाधनी ॥ मुसल्ह्यां तु तालमूली दुर्नामारिर्म विषा । वृष्यकन्दा तालपर्णी समूला बलदा शिवा || हिङ्गौ जतुकवाल्हीका गूढगन्धानि रामटम् । सहस्रवेधि सूतघ्नं जरणं सूपधूपनम् ॥ हिङ्गुपत्र्यां पृथुः पृथ्वी दीर्घिका चारिपत्रिका । जातका रामठी वंशपत्रा पिण्डा शिवाटिका ॥ २६३ कारवी करवी तन्वी वाष्पिका बिल्वकेत्यपि । काकजङ्घायां तु दासी लोमहीना प्रवाचलः ॥ २६४ नदीकान्तो नद्यास्याच पारावतपदीत्यपि । काकनासायां सुरङ्गा वायसी वायसाङ्गिका ॥ २६५ वारुणी तस्कर स्नायुः काकतुण्डफला च सा । पाषाणभेदे नगभिच्छिलाभिच्चित्रपर्णकः ॥ २६६ हायां विगन्धा वपुषा मत्स्यगन्धिनी । सान्याश्वत्थफला ध्वाङ्गनाभिका कच्छुनाशिनी || २६७ घण्टारवायां स्यान्मरुयपुष्पिका श घण्टिका । अल्पघण्टा बृहत्पुष्पी शणपुष्पी महाशणः || २६८ शणे तु किंकिणी जाली जन्तुनन्तुर्महाशणः । शीघ्रप्ररोही बलवान्सुपुष्पः क्षेत्रमण्डनः ॥ २६९ कुसुम्भेऽग्निशिखं महारञ्जनं कमलोत्तरम् । शालपर्ण्य दीर्घमूला त्रिपर्णी पीतिनी ध्रुवा || विदारिगन्धातिगुहा स्थिरा भौमांशुमत्यपि । भायी वर्वरकः पद्मा वन्दकोऽङ्गारवल्लिका ॥ २७१ गर्दभशाक त्राह्मण्यौ ही ब्राह्मणयष्टिका । आवर्तक्यां चर्मरङ्ग विभाण्डी पिच्छिका लता || २७२ रक्तपुष्पा दुकिनी स्यान्महाजालिनिका च सा । नाकुल्यां स्मारक्षीपीडा वेत्रमूला विसर्पिणी ।। २७३ शङ्खनी वृद्धपादा च यवतिक्तायसीश्वराः । तेजस्विन्यां पारिजाता पीताश्वन्ना महौजसी ॥ २७४ तेजोवती तेजिनी च तेजोह्वावल्कलेत्यपि । पथिकायां तु तुलसी तालपत्री लवङ्गकम् ॥ कन्दपत्रत्वचं पत्रा मलपत्रकमुत्तरा | मांस्यां यशी कृष्णजटा नलदा जटिला जटा ।। तपस्विन्यामिषी हिंस्रा क्रव्यादी पिशिता वसा । गन्धमांख्यां पुनः केशी भूतकेशी पिशाचिका ॥ २७७ सुलोमशा भूतजटा भूतनाकेशिकेत्यपि । सुरायां सुरभिर्देया गन्धाढ्यां गन्धमादनी ॥ भूरिगन्धा गन्धवती कुटी गन्धकटी वसा । प्रपौण्डरीके शौण्डर्य सानुजं पौण्डरीयकम् || २७९ प्रपौण्डरीकं चक्षुष्यं सत्पुष्पं सानुमानकम् | जतुकायां तु जतुका जतुकृच्चक्रवर्तिनी ॥ जन्तुका जतुकारी च सहर्षा जननीजनी । मांसरोहायां विकसा वृत्ता चर्मका रुहा ॥ रक्तपायां नमस्कारी समङ्गाञ्जलिकारिका | गण्डकाली शमीपत्रा रास्ता खदिरिका च सा ।। तद्विशेषस्त्रिपादी स्यात्सुपादी हंसपादिका । विषग्रन्थिसपदी घृतमण्डलिकापि च ॥ अथ स्याज्जलपिप्पल्यां शारदी शकुलादनी । मत्स्यादनी मत्स्यगन्धा लाङ्गली तोयपिप्पली || २८४ शिवमयां पाशुपतः सुव्रतो वसुको बुकः । कुलपुष्प: किण्वमूलः पाण्डुरोगप्रियः कुलः ॥ अतिविषायां तु विश्वा भङ्गुरा श्वेतकन्दिका । उपविषा श्यामकन्दा शृङ्गी प्रतिविषारुणा ।। मेदायां स्यान्मणिच्छिद्रा मधुरा शल्यपर्ण्यपि । महाभेदायां तु वसुच्छिद्रा देवमणिर्वसुः ॥ २८७ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते निघण्टुशेषे द्वितीयो गुल्मकाण्ड: । २७५ २७६ २७८ २८० २८३ २८५ २८६ For Private and Personal Use Only २५८ २५९ २६० २६१ २८१ २८२ गुञ्जायां कृष्णला काकचिञ्चिका काकणिन्दिका । काकादनी काकनखी रक्तिका काकनन्तिका ॥ २८८ काकपीलुश्चक्रशल्या दुर्मेषा ताम्रिकोञ्चटा । चूडामणिर्दुमौधा च शतपाकी शिखण्डिनी । २८९ पाठायां श्रेयसी पापचेलिका वृद्धकर्णिका । वृकं तिक्ता वरतिक्ता प्राचीना स्थायिनी वृकी ।। २९० १९ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-९ निघण्टुशेषः । एकाष्टीला रसाम्वष्टाम्बष्ठकी वृकदन्तिका । शतावर्या बहुसुता पीवरीन्दीवरी वरी॥ २९१ शतमूला शतपदी शतवीर्या मधुस्रवा । नारायणी द्वीपिशत्रुद्वीपिकाभीरुपत्रिका ॥ २९२ महापुरुषदत्तोर्ध्वकण्टका वरकण्टका । सहस्रवीर्या""सुन्यभीरुः सवरणीत्यपि ॥ २९३ कटुकायां मत्स्यपित्ता रोहिणी कटुरोहिणी । अशोकरोहिणी कृष्णभेदा तिलकरोहिणी ॥ २९४ कटम्भरा काण्डरुहा गस्ना तिक्तकरोहिणी । तिक्तारिष्टा कटुमत्स्या चक्राङ्गी शकुलादनी ॥ २९५ कपिकच्छा मह्य गुप्ता कण्डुरा दुरभिग्रहा । अजहा मर्कटी व्यण्डा कच्छुरा कपिकच्छुरा ॥ २९६ ऋष्यप्रोक्ता शूकशिम्बी लाङ्गली प्रावृषायणी । आर्यभी वह्निपर्याया कपिरोमा दुरालभा ॥ २९७ मञ्जिष्ठायां रक्तयष्टिः समङ्गा विकसारुणा । भण्डीरी मञ्जका भण्डी जिङ्गी योजनवयपि ॥ २९८ कालमेषी कालगोष्टी मण्डूकपर्णिकापि च । मरिचे मलिनं कृष्णं वेल्लजं धर्मपत्तनम् ॥ २९९ पवनेष्टं शिरोवृन्तं मूषणं कोलकं च तत् । पिप्पल्यां च पला कृष्णा वैदेही मागधी कणा ॥ ३०० शौण्डी श्यामोषणा कोलोपकुल्या कृष्णतन्दुला । तन्मूलं ग्रन्थिकं सर्वग्रन्थिकं चटकाशिरः ॥३०१ समूलक कोलमूलं कटुग्रन्थिकमूषणम् । चविकायां तथा चव्यं चवनं कालवल्यपि ॥ ३०२ तत्फले वसिरो हस्तिपिप्पली श्रेयसीत्यपि । गिरिपामरस्फोता विष्णुकान्ता पराजिता ॥ ३०३ सा तु श्वेता'"नामा कटभी श्वेतपुष्पिका । श्वेतस्यन्दा श्वखुरश्च कृष्णा त्वव्यक्त गन्धिका ॥ ३०४ नीलस्यन्दा नीलपुष्पी महाश्वेताङ्गवन्दना । स्यादिन्द्रवारुणी त्वैन्द्री विषादनी गवादनी ॥ ३०५ इन्द्रेर्वारुः क्षुद्रफला गोद्गुवावगवाक्ष्यपि । द्वितीयेन्द्रवारुण्यां तु चित्रफला महाफला ॥ ३०६ आत्मरक्षा विशाला च पुसी तुम्बसीत्यपि । वचायामुग्रगन्धोया जटिला शतपर्विका ॥ ३०७ इक्षुकणिका गोलोमी लोमशा सूतनाशिनी । अन्या श्वेतवचा मेध्या षड्मन्था हैमवत्यपि ॥ ३०८ शारिवायां गोपकन्या गोपवल्ली प्रतानिका । गोप्यास्फोता लता श्वेता शरटा काष्टशारिवा ।। ३०९ नागजिह्वाथ सा कृष्णभद्रा चन्दनशारिवा । भद्रवल्ली कृष्णवल्ली चन्दनोत्पलशारिवा ॥ ३१० मूर्वायां मोरटा देवी मधुश्रेणी मधूलिका । देवश्रेणी मधुरसा गोकर्णी तेजनी स्रवा ॥ ३११ धनुःश्रेणी वापगुणी पीलुर्ना तिक्तवल्कली । पीलुपर्णा स्निग्धपर्णी .....................॥ ३१२ लाङ्गल्यां हलिनी नन्दा विशल्या गर्भपातिनी । अनन्ताग्निशिखा शक्रपुष्पिका कलिहारिका ॥ ३१३ गुडच्याममृता सोमवल्ली वत्सादनी धरा । छिन्नोद्भवा छिन्नाहा विषन्नी देवनिर्मिता ॥ ३१४ विशल्या कुण्डली छिन्ना तत्रिका चक्रलक्षणा । देव्यनन्ता मधुपर्णी जीवन्त्यमृतवल्यपि ॥ ३१५ देवताडे देवदाली वृत्तकोशा गरागरी । जीमूतकस्तालकश्च वेण्या सुविषघातिनी ॥ ३१६ कोशातक्यां कृतच्छत्रा जाली घोषा सुतिक्तका । मृदङ्गफलि.""क्षटा घण्टाली रक्तवेधना ॥ ३१७ धामार्गवे पीतपुप्पो महाजला महाफला । कर्कोटकी कोशफला राजकोशातकीति च ॥ ३१८ हस्तिकोशातकी त्वन्या विशाला कर्कशच्छदा। क्षीरिण्यां स्यात्कदुपर्णी धर्षणी पीतदुग्धिका ॥३१९ फेनक्षीरा हेमक्षीरा पीतक्षीरा करीषणी। हेमा या हेमशिखी हेमवती हिमावती ॥ ३२० शङ्खिन्यां स्याद्वनहरी तस्करी चोरपुष्पिका । किशिनी ग्रन्थिका चण्डा श्वेतबुध्ना निशाचरी।।३२१ आखुप| पुत्रश्रेणी न्यग्रोधा शम्बरी वृषा । चित्रोपचित्रा रण्डाख्युः प्रत्यक्श्रेणी द्रवत्यपि ॥३२२ पद्मिन्यां तु महावल्ली बिसिनी बिसनाभयः । पलासिनी नालकिनी नलिनी पुटकिन्यपि ॥ ३२३ कमले नलिनं पद्ममरविन्दं कुशेशयम् । परं शतसहस्त्राभ्यां पत्रं राजीवपुष्करे ।। ३२४ For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ शाककाण्ड । विप्रसूनं नालीकं तामरसं महोत्पलम् । तज्जलात्सरसः पकानपरै रुहजन्मजैः || पुण्डरीकं सिताम्भोजमथ रक्तसरोरुहम् । रक्तोत्पलं कोकनदं कैरवेण्यां कुमुद्वती ॥ उत्पले स्यात्कुवलयं कुवेलं कवलं वलम् । ते तु कुमुदं चैव कैरवं गर्दभाह्वयम् || नीले तु स्यादिन्दीवरं हलकं रक्तसंधिकम् । सौगन्धिके तु कल्हारबीजकोशे वराटकः ॥ पद्मनाले तु मृणालं ........तन्तुलं बिसम् । किञ्जल्के केसरं नव्यदले संवर्तिका भवेत् ॥ पद्मकन्दे करहाटशिर्फ शालूकमौत्पले | पद्मवीजे तु पद्माक्षं पद्मकर्कटिकेत्यपि ॥ वारिपय तु पानीयपृष्ठगा कुम्भिका हटः । जलशु के जलनीली तथा शैवालशैवले || इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते निघण्टुशेषे तृतीयो लताकाण्ड: । For Private and Personal Use Only ११ ३२५ ३२६ ३२७ ३२८ ३२९ ३३० ३३१ ३३४ ३३५ शतपुष्पायां तु घोषा शताह्वा माधवी मिषिः । अतिछत्रा छत्रपुष्पा वाक्पुष्पा कारवी सहा ||३३२ जीरके तु कणाजाजी जरणः कणजीरकः । कृष्णेऽस्मिन्कारवी पृथ्वी सुगन्धा तुषत्री पृथुः ||३३३ उपकुवी कुविका च कालोपकुञ्चिकापि च । रसोने लशुनो म्लेच्छकन्दोरिष्टो महौषधम् ॥ महान्दो पदोऽप्येष गृञ्जनो दीर्घपत्रक: । पलाण्डौ यवनेष्टः स्यात्सुकन्दो वक्रभूषणः ॥ फरणः स तु हरितो लताओं दुद्रुमोऽपि च । सप्तलायां बहुफेना सातला बिन्दुलामली ॥ सारी मरालिका दीप्ता फेना च मकिसा यवा । प्रसारण्यां चारुपर्णी भद्रपर्णी प्रतानिका ॥ भद्रबला भद्रलता भद्रकाली महाबला । सारणी सुप्रसारा च राजबला च सापि च ॥ ब्राह्मी वयःस्था मत्स्याक्षी ब्राह्मणी सोमवल्लरी | सरस्वती सत्यवती सुख ब्रह्मचारिणी || सूरणे कण्डुरः कन्दोऽर्शोघाती चित्रदण्डकः । वृद्धदारुके वाघेगी जीर्णवालुकजुङ्गकौ ॥ अजाण्टी ऋक्षगन्धा स्यादन्तकोटकपुष्प्यपि । सुवर्चलायां मण्डूकी बदरादित्यवल्लभा ॥ मण्डूकपर्ण्यभक्तादित्यवल्ली सुखोद्भिदा । भृङ्गराजे भृङ्गरजो भृङ्गारः केशरञ्जनः ॥ अमरको भेकरजो भुङ्गो मार्कत्र इत्यपि । कासमर्दे वरिमर्दः कालं कतककर्कशः ॥ वास्तुके तु शाकश्रेष्ठः प्रवालः क्षारपत्रक: । शाकवीरो वीरशाकस्ताम्रपुष्पः प्रसादकः ॥ पालङ्कयायां तु पालङ्कया छुरिका मधुसूदनी । जीवन्त्यां स्याज्जीवनीयजीवनी जीववर्द्धिनी ॥ माङ्गल्यनामधेया च शाकश्रेष्ठा यशस्करी । स्यादम्ललोणिकायां तु चाङ्गेरी चुक्रिका रसा ॥ ३४६ अम्बष्ठाम्लोलिका दन्तशठाटोलाम्लटोलकः । नरेन्द्रमाता क्षुद्राम्ली चतुष्पर्णी च लोणिका || ३४७ तन्दुलीये मेघनादस्तन्दुली तन्दुलेरकः । गण्डीरको रक्तकाण्डो विषहार्यल्पमारिषः || समण्टो तु तोयवृत्तिर्गण्डीरस्तोयमञ्जरी । समष्टीला शोषहरी जलापामार्गतुल्यकः || अन्यः सुस्थलगण्डीरः कर्वरष्टकदेशजः । काकमाच्यां काकमाची काकसाहा वृषायणी ॥ ३५० श्रीहस्तिन्यां तु भूरुण्डी कुरुण्डी काश्मरीरिपुः । सुनिषण्णे सुचिपत्रः स्वस्तिकः शिरिवारकः॥ ३५१ श्रीवारकः शितिवरो वितुन्नः कुक्कुटः शितिः । मूलके तु महाकन्दो रुविष्यो हस्तिदन्तकः || ३५२ वुस्तिका नीलकण्ठश्च सेकिमो हरिपर्णकः । चाणाक्यमूलके शालमर्कटो मरुसंभवः ॥ ३५३ विष्णुगुप्त ... तोमिश्रः स्थालयो मर्कटोऽपि च । हिलमोच्यां शङ्खधरा जलब्राह्मी च मोत्रिका || ३५४ कलम्ब्यां तु शतपर्वा केलम्बूर्यायसी च सा । कारवेल्लयां तु सुषत्री कटिल्ला मृदुपणका || पटोले 'तु पाण्डुफलः कुलकः कर्कशच्छदः । राजीफल: कफहरो राजिमानमृताफलः || कङ्गोटे तु किलासमतिक्तपर्वः सुगन्धकः । कूष्माण्डके तु कर्कारुः कलिङ्गयां बहुपुत्रिका ।। ३५७ ३४८ ३४९ ३५५ ३५६ ३३६ ३३७ ३३८ ३३९ ३४० ३४१ ३४२ ३४३ ३४४ ३४५ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ अभिधान संग्रह: ह: -- ९ निघण्टुशेषः । ३६१ तुम्ब्यां पिण्डफलेक्ष्वाकुस्तिक्तबीजा महाफला । अलावूः क्षत्रियवरा कटुका लावुनी च सा ।। ३५८ चिर्भियां प्रपुसी वालुक्येर्वारूर्व्यडिपत्रिका | ऊर्वारुः कर्करुः कर्कटीस्तत्रा फलावरः || ३५९ छर्दनीव विषाडुश्च तस्याः पक्कफलस्फुटी | कूर्चके शृङ्गकः सर्जो दीर्घायुः कूर्चशीर्षकः ॥ ३६० मङ्गल्यनामधेये प्रजीवकः प्रियजीवकः । ह्रस्वाङ्गको मधुरकः प्राणकश्चिरजीव्यपि ॥ पुष्करमूले स्यान्मूलं वीरपुष्कर नामकम् । पौष्करं पुष्करजटा कश्मीरं पद्मवर्णकम् ॥ मस्तुगन्धायां तु गन्धा खरपुष्पा शकम्भरा । कर्वरी बर्बरी त्रुङ्गी पूनिमयूर इत्यपि || त्रिम्ब्यां रक्तफला गोल्हा प्रवालफल घोषिका । ओष्टोपमफला तुण्डी तुण्डिका पीलुपर्ण्यपि ॥ ३६४ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते निघण्टुशेषे चतुर्थः शाककाण्डः । ३६२ ३६३ ३७२ रोहिषं कामकं पौरं भूतिकं भूतिकतृणम् । स्तोगन्धिकं धिकं देवजग्धं शकलिपुङ्गले ॥ भूस्तृणं रोहितं छत्रातिच्छत्रककटुम्बके । भूतिकं भूतिकतृणं माला तृणसुगन्धके ॥ दर्भे दभ्रः खरो बर्हिर्वारास्तवीकुत्रः कुशः । सारीवानी रजो गुन्द्रा पवित्रा कुतसावपि ॥ काशे स्यादिक्षुगन्धेक्षुकाण्डश्चामरपुष्पकः । वायसेक्षुः पोटगलः कासेक्षुः कोकिनां क्षकः || उपवस्वजो बालकेशी दृढलतापि च । इक्षू रसालो गण्डीरी गण्डकी क्षुद्रपत्रकः ॥ ३६९ तस्यैकादश भेदाः स्युः पुण्ड्रकान्तारकादयः । नले नङः शून्यमध्यो गमनो नर्तको नटः || ३७० अरण्यनलको रन्ध्री पोटगलो विभीषणः । नलिनुग्रमनलिका नाकुली लेखकाश्चिता ॥ ३७१ शरे तु मुञ्ज वाणाख्यः स्थूलदर्भः पितामहः । गुञ्जस्तजनको भद्रमुख याजनकक्षुरः || मुस्तु जिको मध्ये दृढत्वग्ब्रह्ममेखलः । अथ बालतृणे शष्पं शुकं शालिकमङ्गुलम् ॥ तृणं स्यादर्जुनं घासे यवसं चारि इत्यपि । दुर्वायां तु शतपर्वा भार्गवी विजया जया || मङ्गल्या स्यादलानन्ता मरी प्रतानिका रुहा । सहस्रवीर्या श्यामाङ्गी हरिता हरितात्यपि ।। श्वेतदूर्वा तु गोलोमी शतवीर्या शता लता । गण्डदूर्वायां गण्डाली वारुणी शकुलाक्षकः ॥ मुस्तायां भद्रको भद्र मुस्ताराजकशेरुकः । गुन्द्री वरोहो गाङ्गेयः कुरुविन्दोऽम्बुदाह्वयः ॥ कुटं नटे तु कैवर्ती मुस्तकं जीवनाद्वयम् । आकाण्डीरकं जीवनं गोनर्द गोपुरप्लवम् || शतपुष्पंदारपुरं वानेयं परिपेलवम् । जलमुक्ता मुस्तकाभं शैवालदल संभवम् ॥ वीर वीरतरं वीरभद्रं सुमूलकम् । मूलेऽस्योशीरमभयं समगन्धि रणप्रियम् || लामज्जके तु नलदममृणालं लवं लघु । इष्टकापथकं शीघ्रं दीर्घमूलं जलाशयम् ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचिते निघण्टुशेषे पञ्चमस्तृणकाण्डः । ३७३ ३७४ For Private and Personal Use Only ३६५ ३६६ ३६७ ३६८ ३७५ ३७६ ३७७ ३७८ ३७९ ३८० ३८१ अथ धान्ये सस्यं सीत्यं त्रीहिः स्तम्बकरि अपि । आशौ स्यापाटलो त्रीहिर्गर्भपाकिणि षष्टिकः || ३८२ शालौ तु कलमाद्याः स्युः कलमे तु कलायकः । लोहिते रक्तशालिः स्यान्महाशाली सुगन्धिकः ३८३ यवे हयप्रियस्तार्क्ष्यशूकस्तोक्यस्तुसो हरित् । मङ्गल्यके स्यान्मसूरः कलाये सतीनकः ॥ ३८४ हरेणुः खण्डिकश्चाथ चणके हरिमन्धकः । माषे तु मदनो नन्दी सरी बीजवरो बली ॥ मुद्द्रे तु प्रघनो लोभ्यो वलाटो हरितो हरिः । पीतेऽस्मिन्वसुखण्डीरः प्रवेलजयशारदाः ॥ कृष्णे प्रवरवासन्तहरिमन्धजशिम्बिका: । वनमुद्रे तु वरका निगूढककुलीमकाः ॥ खण्डिको राजमुद्रे तु मकुष्टकमयुष्टकौ । गोधूमे सुमनो वल्ले निष्पावः शितिबिम्बिकः ।। 1 ३८५ ३८६ ३८७ ३८८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ धान्यकाण्डः। कुलत्थे तु कालवृन्तस्ताम्रवृन्ते कुलस्थिका । आढक्यां तुवरी वर्णा स्यात्कुल्माषे तु यावकः ॥ ३८९ नीवारस्तु वनव्रीहिः श्यामाके श्यामकः समौ । कङ्गौ तु कङ्गुनी कङ्गुः प्रियङ्गी पीततन्दुला ॥ ३९० सा कृष्णा मधुका रक्ता शोधिता मुशटी शिता | पीतमाधव्य धोद्राले कोद्रवः कोरदूषकः ॥ ३९१ चीन के तु काककऑर्यवनाले तु योनलः । जूर्णाद्वयो देवधान्यं जोर्गाला बीजपुष्पिका ॥ ३९२ शणे भङ्गा मातुलानी स्यादुमात्रामातसी । गवेधुकायां गवेर्धन्यतिले तु जतिलः ॥ ३९३ षण्ढतिले तिलपिजस्तिलपेजोऽथ सर्षपे । कदम्बकस्तु तुभोऽथ सिद्धार्थः श्वेतसर्षपः ॥ ३९४ माषादि तु शमीधान्यं शूकधान्यं यवादयः । स्यात्सत्यशूके किंसारुः कणिशं सस्य शीर्षकम् ॥३९५ स्तम्बे तु गुच्छो धान्यादेर्नालः काण्डोऽफले विह । पलालो धान्यत्वचि तु तुषे बुसे कडङ्गरः ॥३९६ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचिते निघण्टुशेषे षष्ठो धान्यकाण्डः । इति श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितो निघण्टुशेषः समाप्तः । For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीः ॥ अभिधानसंग्रहः। . (१०) श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितं लिङ्गानुशासनम्। 'पुंलिक केटणथपभमयरषसस्वन्तमिमनलौ किश्तिब् । ननौ घघौ दः किर्भावे खोऽकर्तरि च कः स्यात् ॥ हैस्तस्तनौष्ठनखदन्तकपोलगुल्फकेशाध्वगुच्छदिवसर्तुपतगृहाणाम् । निर्यासनाकरसकण्ठकुठारकोष्ठहैमारिवर्षविषबोलरचाशनीनाम् ॥ श्वेतप्लवात्मगुरुजासिकफाभ्रपङ्कमन्यत्विषां जलधिशेवधिदेहभाजाम् । मानदुमाद्रिविषयाशुगशोणमासधान्याध्वराग्निमरुतां सभिदां तु नाम ॥ ३ बोंऽच्छदेऽहिर्वप्रे त्रीह्यग्न्योर्हायनबर्हिषौ । मस्तुः सक्तौ स्फटिकेच्छो नीलमित्रौ मणीनयोः ॥ ४ कोणेऽनश्चषके कोशस्तलस्तालचपेटयोः । अनातोये घनो भूग्नि दारप्राणासुवल्वजाः ॥ ५ कान्तश्चन्द्रार्कनामायःपरो यानार्थतो युगः । यश्च स्यादसमाहारे द्वन्द्वोऽश्ववडवाविति ॥ ६ वाकोत्तरा नक्तकरल्लकाङ्का न्युडोत्तरा सङ्गतरङ्गरगाः। परागपूगौ सृगमस्तुलुङ्गकुडङ्गकालिङ्गतमङ्गमङ्गाः ॥ ___१. वक्ष्यमाणं विशेषविधानमन्तरा पुंलिङ्गं स्यादित्यन्वयः. २. अकारान्तेषु कोपधा आनकवराटकादयः, टोपधा विटकरहाटादयः, णोपधा गुणक्षणादयः, थोपधा निशीथोपस्थादयः, पोपधाः क्षुपकल्पादयः, भोपधा दर्मनिकुम्भादयः, मोपधा गोधूमडिण्डिमादयः, योपधा लयतण्डुलीयादयः, रोपधाः कडंगरकुटरादयः, षोपधा गवाक्षघोषादयः, सोपधाः कर्पासहंसादयः, सकारान्ताः पुरुदंशोदमूनःप्रभृतयः, नकारान्ता ग्रावसुपर्वादयः, उकारान्तास्तकुंधात्वादयः, अन्तान्ताः सीमन्तपर्यन्तदिष्टान्तसिद्धान्तादयः, इमन्प्रत्ययान्ताः प्रथिमम्रदिमद्रढिमादयः, अल्()प्रत्ययान्ताः प्रभवनियमादयः, कि(इ)प्रत्ययान्ताः पनिप्रभृतयः, स्तिष्प्रत्ययान्ताः पचतिभवत्यादयः, नपत्ययान्ताः यतस्वप्नप्रभृतयः, नङ्प्रत्ययान्ता विश्वप्रश्नप्रभृतयः, घप्रत्ययान्ताः प्रच्छदोरच्छदप्रभृतयः, घप्रत्ययान्ताः पादरोगप्रभृतयः, दा(घु)संशकाद्विहितकिप्रत्ययान्ता आदिव्याधिप्रभृतयः, भावार्थकखप्रत्ययान्ता आशितंभवप्रभृतयः, कर्तृभिन्नार्थककप्रत्ययान्ता आखूत्यविघ्नप्रभृतयः. ३. सभेदानां हस्तादीनां निर्यास्यादीनां श्वेतादीनां जलध्यादीनां मानादीनां च नाम पुंलिङ्गं स्यादित्यन्वयः. ४. निर्यासनाम गुग्गुलुः श्रीवेष्ट इत्यादि. ५. रसनाम रसाः शृङ्गारादयस्तन्नाम. ६. किराततिक्तौ हैमश्च काण्डतिक्तः किरातकः, ७. श्वेतः कपर्दस्तन्नाम. ८. चन्द्रकान्तः सूर्यकान्तः अयस्कान्त इत्यादि. ९. इतः परं स्वरान्तव्यञ्जनान्तक्रमेण शब्दानुदाहरिष्यन्ते. तत्र ककारोपान्त्यादिक्रमेणाकारान्ता उदाद्वियन्ते. अनुवाकयुवाकसूक्तवाकादयः. १०. खान्तः. ११. गान्ताः. १२. तमङ्ग इन्द्रकोशः. १३. मङ्गः धर्मः, नौशिरश्च. For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अभिधान संग्रह: -- १० लिङ्गानुशासनम् । areमुद्रापाङ्गवर्गों धार्धा मेश्वसे पुच्छपिच्छगुच्छाः । वाजौजकिलिञ्जपुञ्जमुञ्जा अवटपट्टठप्रकोष्ठ कोष्ठाः ॥ अङ्गुष्ठगॅण्डौ लगुडप्रगण्डकरण्डकूष्माण्डगुडाः शिखण्डः । वरण्डरुण्डौ च पिचण्डनाडीव्रणौ गुणभ्रूणमेलत्तकुन्तौ ॥ पोतः पिष्टातः पृषतश्चोत्पात त्राता वर्थ के पर्दों । बुद्बुदगदमदा मकरन्दो जनपद धस्कन्धमगाधः ॥ अर्धसुदर्शनदेवनमैह्नाभिजनजनाः परिघातनफेनौ | argut सूपकलाप रेफै: शोफस्तम्बनितम्बाः ।। शम्बाम्ब पश्चिजन्यतिष्यौ पुष्यः सिचयनिकाय्यत्रिवृत्राः । मत्रामित्रौ कटप्रपुण्ड्राः कैल्लोलोल्लौ च खल्लतल्लो ॥ कण्डोलपोटगल पुद्गल कालबाला वेला गलो जगलहिङ्गुलगोलफालाः । स्याद्देवलो बहुलतण्डुलपत्रपालवातूलतालजडुला भृमलो निचोलः || कामलकुद्दालtaraar: शिवरौरवयावाः शिवदावौ । माधवपणवादीन वहावध्रुर्वकौटीशांशाः स्पशवंशौ || कुशोड्डीशपुरोडाशषकुल्मासनिष्कुहाः । अहनिर्यूहकलहाः पक्ष शिवराश्यृषि || दुंदुभिर्वमतिवृष्णिपाण्यविज्ञातिरालिकलयोञ्जलिर्वृणिः । अग्निवह्निकृमयह्निदीदिविप्रन्थिकुक्षि वृतयोर्दनिर्ध्वनिः ॥ गिरिशिशुजायुकों हहाहूहूश्च नमहूर्गर्मु । पादश्मानावात्मा पाप्मस्थेमोष्मयक्ष्माणः || इति पुंलिङ्गाधिकारः । ३९ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ For Private and Personal Use Only १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ स्त्रीलिङ्गं योनिर्मेद्र श्रीसेनावल्लितडिन्निशाम् । वीचितन्द्रात्रटुग्रीवाजिह्वाशस्त्री दयादिशाम् || शिंशपाद्यानदीवीणाज्योत्स्नावीरीतिथीधियाम् । अङ्गुलीकल सीकङ्गुहिङ्गुपत्रीसुरानसाम् ॥ रास्नाशिलावचालालाशिम्बाकृष्णोष्णिकाश्रियाम् । स्पृक्कापण्यातसीधाय्यासरधारोचनाभुवाम् || २० हरिद्रामांसि दुर्वालूबलाकाकृष्णलागिराम् । तु प्राण्यङ्गवाचि स्यादीद्वेदेकखरं कृतः ॥ पात्रादिवर्जितादन्तोत्तरपदः समाहारे । द्विगुरन्नाबन्तान्तो वान्यस्तु सर्वो नपुंसकः ॥ लिन्मिन्यनिण्यणिरूयुक्ताः क्वचित्तिगल्पह्रस्वं । विंशत्याद्याशता हून्द्वे सा चैक्ये द्वन्द्वमेययोः ।। २३. २१ २२ 2 १. घान्तः २. चान्तः ३ छान्ताः ४ जान्ताः ५. टान्तौ ६ ठान्ताः ७. डान्ताः ८. णान्ताः ९. तान्ताः १०. थान्तः. ११. दान्ताः. १२. धान्ताः १३. नान्ताः १४. अहादेशान्ताः पूर्वाह्नप्रभृतयः १५. पान्ताः . १६. फान्तौ, १७. बान्ता: १८. यान्ताः १९. कृतसमासान्तरात्र शब्दान्ताः पूर्वरात्रप्रभृतयः २०. रान्ताः. २१. लान्ताः . २२. वान्ताः २३. शान्ताः २४ षान्तः २५ सान्तः २६. हान्ता: २७. अह इति सप्ताहप्रभृतयः २८. अथेदन्ताः, २९. अथोकारान्ताः ३० समुदितं दीर्घोकारान्तम् ३१. अथ व्यञ्जनान्ताः ३२. सभेदानां योनिमदादीनां वीच्यादीनां शिंशपाद्यादीनामङ्गुल्यादीनां रास्त्रादीनां स्पृक्कादीनां हरिद्रादीनां च नाम स्त्रीलिङ्गं स्यात्. ३३. शिंशपादिराकृतिगणः ३४. हिङ्गुपत्री कम्बोजी. ३५ नसो नासिकायाः ३६. प्राण्यङ्गवाचीकारान्तं यथा — गोधिपालिप्रभृतयः. ३७ ही श्री भूप्रभृतयः ३८. लक्ष्मीतरी कूतूप्रभृतयः ३९. लिदादिप्रत्ययान्ता यथा -. जनता - गोत्रा - भूमि-वेनि-अटनि वाणि-वेणि काकणि भूति- चिकीर्षाप्रभृतयः ४०. तन्तिप्रभृतयः ४१. अल्पे हृस्वे चार्थे कन्प्रत्ययान्ता यथा-- क्रयिकापुटिकाप्रभृतयः. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १० लिङ्गानुशासनम् | स्रुग्गीतिलताभिदि ध्रुवा विडनर वारि घटीभवन्धयोः । शल्यध्वनिवाद्यभित्सु तु क्ष्वेडा दुन्दुभिरक्षविन्दुषु ॥ २४ गृह्या शाखापुरेऽश्मन्तेऽन्तिका कीला रताहतौ । रज्जौ रश्मिर्यवादिदपादौ गञ्जा सुरागृहे || २५ अहंपूर्विकादिर्वर्षामघा अकृत्तिका बहौ । वा तु जलौकोप्सरसः सिकतासुमनः समाः ॥ गायत्र्यादय ईष्टका बृहतिका संवर्तिका सज्जिका २६ दूषी अपि पादुका झिरुकया पर्यस्तिका मानिका । नीका कलिकालुका कलिकया राका पताकान्धिका Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ शुका पूपलिका त्रिका चविकयोल्का पज्जिका पिण्डिका ॥ ध्रुवका क्षिपका कनीनिका शम्बूका शिबिका गवेधुका | कणिका का विपादिका मिहिका यूका मक्षिकाष्टका ॥ कूचिका कूचिका टीका कोशिका कोणिकोर्मिका । जलौका प्राचिका धूका कालिका दीर्घिकोष्ट्रिका ॥ शलाका वालुकेषीका विङ्गिकेषिके खा । परिखा विशिखा शाखा शिखा भङ्गा सुरङ्गया ॥ ३० जैसा चञ्चा कच्छा पिच्छा पिज्जा गुञ्जा खजा प्रजा । झञ्झा घंटा जटा घोण्टा पोटा भिरसटया छटा ।। ३१ विष्ट मञ्जिष्टया काष्टा पाठा गुण्डा गुडा जडा | वेडा वितण्डया दौढा राढा रीढा च लीढया ॥ ३२ १६ ३५ 1 ३७ घृणोर्णा वर्वेणा स्थूणा दक्षिणा लिखिता लता । तृणता त्रिवृता त्रेता गीता सीता सिता चिता ॥ ३३ मुक्ता वार्ता लूतानन्ता प्रसृता मार्जितामृता । कन्था मर्यादा गदैक्षुगन्धा गोधा स्वधा सुधा ॥ ३४ सांना सूना धाना पेम्पा झम्पा रम्पा प्रपा शिर्फी । कैम्बा भैम्भा सभा हम्मा सीमा पामारुमे उमा ॥ चिया पद्या पर्या योग्या छाया माया पेया कक्ष्या । दूष्या नस्या शम्या संध्या रध्या कुल्या ज्या मङ्गल्या ॥ उपकार्या जैलाद्रेरा प्रतिसीरा परम्परा । कण्डरा सृग्धरा होरा वागुरा शर्करा सिरा || गुन्द्रा मुद्रा क्षुद्रा भद्रा भस्त्रा छत्रा यात्रा मात्रा । दंष्ट्रा फेला वेला मेला गोला दोला शाला माला ३८ मेखला सिध्मला लीला रसाला सर्वला बला । कुहाला शङ्कुला हेला शिला सुवर्चला कला || ३९ उपला रिवा मूर्वा लट्टा खट्टा शिवा देशा । कशा कुशेशा मञ्जूषा शेषा मूषेपया सा || ४० वस्नसा विस्नसा भिस्सा नासा वहा गुहा स्वाहा । कैंचा मिक्षा रिक्षा राँझा भङ्गयावल्यायतित्रोटि : ४१ पेशिर्वासिर्वसतिविपणी नाभिनाल्यालि पालिर्भल्लि : पल्लिकुटिशकटी चर्वरिः शाटिभाटी । २७ खाटिर्वर्तिर्व्रततिवमिशुण्ठीतिरीतिर्वितर्दिदेविनविच्छविलिविशठि श्रेदिजात्याजिराजि ॥ ४२ रुचिः सूचिसाची खनिः खानिखारी खलिः कीलितूली क्लमिर्वापिधूली । कृषिः स्थालिहिण्डी त्रुटिर्वेदिनान्दी किकिः कुकुटि : काकलिः शुक्तिपङ्गी || For Private and Personal Use Only ४३ १. 'यवयवनारण्य हिमाद्दोपलिप्युरु महत्वे' इति सूत्रोक्ता यवादयः शब्दाः, दोषादयश्चार्थाः २. गायत्रीपतिप्रभृतयः, ३. अथ कान्ता: ४ खान्ताः ५. गान्ताः ६. घान्तः ७ चान्तः ८ छान्तौ ९ जान्ताः. १०. झान्तः ११. टान्ताः १२. ठान्ताः १३. डान्ता: १४. दान्ताः. १५. णान्ताः १६. तान्ताः . १७. थान्तः. १८. दान्तौ. १९. धान्ता: २०. नान्ताः २१. पान्ताः २२. फान्तः, २३. बान्तः २४. भान्ताः २५. मान्ता: २६. यान्ताः. २७. रान्ताः २८. लान्ताः, २९. वान्ताः ३०. शान्ताः ३१. पान्ताः ३२. सान्ताः ३३. हान्ताः ३४. क्षान्ता: ३५. रिक्षा यूकाण्डम् लत्वे लिक्षा. ३६. राक्षा जतु; लत्वे लाक्षा. ३७. अथ स्वकारान्ताः; द्वयोः समाहारः ३८. त्रयाणां समाहारः ३९. इतिशब्द: ४०. जातिशब्दान्तः समाहारः. २० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१० लिङ्गानुशासनम् । किखिस्ताडिक म्बी युतिः शारिरातिस्तटिः कोटिविष्टी वटिष्टिवीथी । दरिर्वतरिम अरिः पुञ्जिभेरी शरारिस्तुरिः पिण्डिमाढी भुषुण्डिः ॥ राटिराटिरटविः परिपाटि: फालिगालिजनिकाकिनि कानिः । चारिहानिवलभि प्रधिकम्पी चुल्लिचुण्डितरयोंऽति...'शाणी ।। मनिः सानिमेनी मरिर्मारिरथ्योषधी विद्रधिल्लिरि: पारिरभ्रिः । शिरोधिः कविः कीर्तिगेन्त्रीकबर्यः कुमार्याढकी स्वेदनी हादिनीली ॥ हरिण्यश्मरी कर्तनीस्थग्यपट्यः करीयकपद्यक्षवत्यः प्रतोली । कृपाणीकदल्यौ पलालीहँसन्यौ वृसी गृध्रसी धर्घरी कर्परी च ॥ काण्डी खल्ली मदी घटी गोणी पण्डाल्येषणी द्रुणी । तिलपर्णी केवली खटी नीरसवत्यौ च पातली॥ वाली गन्धोली काकली गोएयजाजीन्द्राणी मत्स्यण्डी दामनी शिञ्जिनी च । शृङ्गी कस्तूरी देहली मौयंतिभ्यासन्दी क्षैरेयी दंद्रुपY.......॥ कर्णान्दुकच्छू तनुरज्जुचञ्च स्नायु हः मीमधुरौ स्फिगैर्वा । दायोंदिवौ स्तुक्त्वगृचः शरद्वाछर्दिहरत्पामहषदृशो नौः ।। इति स्त्रीलिङ्गाधिकारः। मैलस्तुतत्तमंयुक्तररुयान्तं नपुंसकम् | वेधआदीन्विनासन्तं द्विस्वरं मन्नकर्तरि ॥ धनरत्ननभोन्नहृषीकतमोऽस्मृणाङ्गणशुक्तशुभाम्बुरुहाम् । अघगृथजलांशुकदारुमनोविलपिच्छधनुर्दलतालुहृदाम् ॥ हलदुःखसुखागुरुहिङ्गुरुचत्वचभेषजतुत्यकुसुम्भदृशाम् ।। मरिचास्थिशिलाभव मृक्कयकृन्नलदान्तिकवल्कलसिद्मयुधाम् ॥ मौवीरस्थानकद्वारक्लोमधौतेयकामृजाम् । लवणव्यञ्जनफलप्रसूनद्रवंतां सभिद् ॥ परं सद्माङ्गयोइछेत्रशीर्षयोः पुण्डरीकके । मधु द्रवे ध्रुवं शश्वतर्कयोः स्वपुरं घटे ॥ अयूपे दैवेऽकार्यादौ युगं दिष्टं तथा कटु । असे द्वन्द्वं स्थले धन्वारिष्टमद्रुमपक्षिणोः ॥ ५६ धर्म दानादिके तुल्यभागेऽध ब्राह्मणं श्रुतौ । न्याय्ये सारं पद्ममिभविन्दौ काममनुमतौ ॥ ५७ खलं भुवि तथा लक्ष वेध्ये ऽहः सुदिनैकतः । भूमोऽसंख्यात एकार्थे पंथः संख्याव्ययोत्तरः ॥ ५८ १. चतुर्णां समाहार:. २. अथ दीर्धकारान्ताः. ३. ईली खड्ग एकधारः. ४. हसन्त्यपि, ५. अतिभी. ६. अथ तस्वोकारान्ताः. ७. अथ दीर्घोदन्ता:. ८. अथ द्योनौवजिता हलन्ताः. ९, अर्वागित्यव्ययमपि. १०. वार् इत्यस्य नपुंसकत्वमपि. ११. नान्ताः काञ्चनमित्यादयः, लान्ताश्चक्रवालमित्यादयः, स्त्वन्ता वस्तुमस्त्वित्यादयः, तान्ताः शीतद्वैतप्रभृतयः, त्तान्ता भित्तपित्तप्रभृतयः, संयुक्तरान्ता अग्रप्रभृतयः, संयुक्तरुशब्दान्ता असुप्रभृतयः, संयुक्तयान्ता लक्ष्यद्रव्यप्रभृतयः. १२. कर्तृभिन्नार्थकमन्प्रत्ययान्ता भस्मसझप्रभृतयः. १३. धनादीनामघादीनां हलादीनां मरिचादीनां सौवीरादीनां लवणादीनां भेदसहितानां नाम नपुंसकम् . १४. शिलाभवं शैलेयम्. १५. अग्निसंयोगेन द्रवीभवतां सुवर्णादीनाम् . १६. छत्रे पुण्डरीकम् , शीर्ष कम्. १७. अयूपे युगम् , दैवे दिष्टम् , अकार्यमत्सरदूपणेषु कटु. १८. समासभिन्नेऽर्थे. १९. सुदिनाहम् , एकाहम् . २०. पाण्डुभूमम् , कृष्णभूमम्, इत्यादि. २१. द्विपथम् , विपथम्, इत्यादि. For Private and Personal Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ १० लिङ्गानुशासनम् । द्वन्द्वैकत्वाव्ययीभावौ, क्रियाव्ययविशेषणे । कृत्याः क्तानाः खल्अिद्भावे, आ त्वात्त्वादिः समूहजः॥५१ गायत्र्याधण्स्वार्थे ऽव्यक्तमंथानकर्मधारयः । तत्पुरुषो वा बहनां चेच्छाया शालां विना सभा ॥६० राजवर्जितराजार्थराक्षसादेः परापि च । आदावुपक्रमोपज्ञे कन्धोशीनरनाम्नि च ॥ ६१ सेनाशालासुराच्छायानिशं वोर्णा शशात्परा । भाद्गणो गृहतः स्थूना संख्यादन्ता शतादिका ॥६२ मौक्तिक माक्षिकं सौप्तिकं क्लीतकं नाणकं नाटकं खेटक तोटकम् । आह्निकं रूपकं जापकं जालकं वैणुकं गैरिक कारकं वासुकम् ॥ रुचकं धान्याकनिःशलाकालीकालिक शल्कोपसूर्यकाल्कम् । कवककिवुकतोकतिन्तिडीकै कच्छत्राकत्रिकोल्मुकानि ।। माढीककदम्बके बुकचिवुककुतकमनूकचित्रके। कुब्जकं मधुपर्क शीर्षके शालूकं कुलकं प्रकीर्णकम् ॥ . हल्लीसकपुष्पके खलिङ्गस्फिगमङ्गप्रगचोबीपिञ्जम् । रिष्टं फाण्टं ललाटमिष्टव्युष्टकगेटकृपीटचीनपिष्टम ॥ शृङ्गाटमोरटपिटान्यथ पृष्ठगोष्ठे भाण्डाण्डतुण्डशरणग्रहणेरिणानि । पिङ्गाणतीक्ष्णलवणद्रविणं पुराणं त्राणं शणं हिरणकारणकामणानि ।। पर्याणर्णघ्राणपारायणानि श्रीपर्णोष्णे धोरणझूणर्भूतम् । प्रादेशान्ताश्मन्तशीतं निशान्तं वृन्तं तृस्तं वार्तवाहित्यमुक्थम् ॥ अच्छोदगोन्दकुसिदानि कुसीदतुन्दवृन्दास्पदं देपेदनिम्नंसशिल्पतल्पम् । कूर्पत्रिपिष्टपपरीपवदन्तरीपरूपं च पुष्पनिक रुम्बकुटुम्बशुल्बम् ॥ प्रैसभतलभर्युष्माध्यात्मधामर्मसूक्ष्म किलिमतलिमतोक्मं युग्मतिग्मं त्रिसंध्यम् । किसलयशयनीये सायखेयेन्द्रियाणि द्रुवयभयकलत्रद्वापरक्षेत्रसत्रम् ॥ ७० शृङ्गवेरमजिराभ्रपुष्कर तीरमुत्तरमगारनागरे । फारमक्षरकुकुन्दुरादरप्रान्तराणि शिबिरं कलेवरम् ७१ सिन्दूरमण्डूरकटीरचामरक्रूराणि दूसररवैरचत्वरम् । उशीरपतिालमुलूखलातवे सत्त्वं च सान्त्वं दिवकिण्वपौतवमः ॥ विश्वं वृशं पलिशमर्पिशकिल्विषानुतर्पिषं मिषमृचीपमृजीषशीर्षे । पीयूषसोध्वसमहानससाहसानि कासीसमत्सतरसं यवसं बिसं च ॥ ७३ १. भावे कृत्यप्रत्ययान्ता एघनीयप्रभृतयः, भावे क्तान्ता हसितप्रभृतयः, भावेऽनान्ता हसनप्रभृतयः, भावे खल्प्रत्ययान्ता दुर्भवदुराढ्यभवप्रभृतयः, भावे जित्प्रत्ययान्ताः सांरावीणसांकौटिनप्रभृतयः. २. 'ब्रह्मणस्त्वः' इत्यभि. व्याप्य भावार्थकप्रत्ययान्ता शुक्लत्व-शौक्लय-सरव्य-स्तेय-कापेय-द्वैप-चापल-द्वैहायन-आचार्यक-प्रभृतयः, ३. गायत्रत्रैष्टुभप्रभृतयः. ४. अव्यक्तलिङ्गकम्. ५. अथ 'अनकर्मधारयस्तत्पुरुषः' इत्यधिक्रियते. ६. शतम्, सहस्रम्, इत्यादि. ७. अथ कान्ताः. ८. खान्ताः. ९. गान्ताः. १०. चान्तः. ११. जान्तौ. १२. टान्ताः. १३. ठान्तौ. १४. डान्ताः. १५. णान्ता:. १६. तान्ताः. १७. थान्तौ. १८. दान्ताः. १९. दं कलत्रम् ; प्रमदादयोऽपि. २०. नान्तः. २१. पान्ताः. २२. बान्ताः, २३. भान्तौ. २४. मान्ताः. २५. यान्ताः, २६. रान्ता:. २७. अररं कपाटम्. २८. लान्तौ. २९. वान्ता:. ३०. शान्ताः. ३१. पान्ताः. ३२. सान्ताः. For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६ अभिधानसंग्रहः-१० लिङ्गानुशासनम् । मन्दाक्षवीक्षमथ सक्थि शेयातु यातु स्वाद्वाशु तुम्बुरु कशेरु शलालु चालु । संयत्ककुन्महदहानि पृषत्पुरीतत्पर्वाणि रोम च भसच्च जगल्ललाम ॥ इति नपुंसकलिङ्गाधिकारः। पुंस्त्रीलिङ्गश्चतुर्दशेऽङ्के शङ्कुर्निरये च दुर्गतिः । दोर्मूले कक्ष आकरे गओ भूरुहि बाणपिप्पलौ ॥७५ ___नाभिः प्राण्यङ्गके, प्रधिर्ने मौ, कचन बलिहे कुटः । श्रोण्यौषध्योः कटो, भ्रमो मोहे, पिण्डो वृन्दगोलयोः ॥ ७६ भकनीनिकयोस्तारो भेऽश्लपहस्तश्रवणाः । कणः स्फुलिङ्गे लेशे च वराटो रज्जुशस्त्रयोः ॥ ७७ कुम्भः कलशौ तरणिः समुद्राकौशुयष्टिषु । भागधेयो राजदेये मेरुजम्यां सुदर्शनः ॥ करेणुर्गजहस्तिन्योरल्याख्यापत्यतद्धितः । लाजवस्त्रदशौ भूम्नीहाद्याः प्रत्ययभेदतः ॥ शुण्डिकचर्मप्रसेवको सल्लकमल्लकवृश्चिका अपि । शल्यकधुटिको पिपीलिकश्शुलुकहुडुक्कतुरुष्कतिन्दुकाः॥ शुङ्गोऽथ लञ्च जसाटसटाः मृपाटः कीट: किटस्फटघटा वरटः किलाटः । चोटश्चपेटफटशुण्ड गुडाः सशोणाः स्युर्वारिपर्णफणगतरथाजमोदाः ।। विधकँपकलम्यजित्यर्वीः सहचरमुद्गरनालिकेरहाराः । बहुकरकृसरौ कुठारशारौ वल्लरशफरमसूरकीलरालाः ।। पटोलः कम्बलो भल्लो दंशो गैण्डूषवेतसौ । लालसो रभसो वतिवितस्तिकुटयत्रुटिः ॥ ऊर्मिशम्यौ रत्यरत्नी अवीचिर्लव्यण्याणिश्रेणयः श्रोण्यरण्यौ । पाणिशल्यौ शाल्मलियष्टिमुष्टी योनीमुन्यौ स्वातिगव्यूतिवस्त्यः ।। मेथिर्मेधिमशी मषीषुधी ऋष्टिपाटलिजाटली । पृश्निस्तिथ्यशनी मणिः सृणिमौलिः केलिहलीमरीचयः॥ हन्वाखूकर्कन्धुसिन्धुमृत्युमन्ववारूरुः । कन्दुः काकुः किष्कुर्बाहुगवेधू रौं गौर्भाः ॥ ८६ इति पुंस्त्रीलिङ्गाः। पुनपुंसकलिङ्गोऽनः शङ्ख पद्मोऽजसंख्ययोः । कंसो पुंसि कुशो वहिर्बालो ह्रीवेरकेशयोः ॥ ८७ द्वापरः संशये छेदे पिप्पलो विष्टरोतरौ । अब्दो वर्षे दरखासे कुकूलस्तुषपावके ॥ परीवादपर्य योजन्यतल्यौ तपोधर्मवत्सानि माघोष्णहृत्सु । वटस्तुल्यतागोलभक्ष्येषु वर्ण: सितादिस्वराद्यो रणे संपरायः ॥ १. अथेकारान्ता:. २. अथोकारान्ताः. ३. अथ व्यञ्जनान्ताः. ४. 'एकदशशत-' इत्यादिगणनायां चतुर्दशेऽङ्के. ५. अलेभ्रमरस्य नामानि. ६. अथ कान्ताः. ७. गान्तः. ८. चान्तः. ९. जान्ताः. १०. टान्ताः. ११. डान्ताः. १२. णान्ताः. १३. तान्तः. १४. थान्ताः. १५. दान्तः. १६. धान्तः. १७. पान्तः. १८. बान्तः, १९. यान्तः. २०. रान्ताः. २१. लान्ताः. २२. शान्तः. २३. षान्तः. २४. सान्ताः. २५. अथ ह्रस्वकारान्ता यथालाभं यन्ता अपि. २६. अथोकारान्ताः. २७. ऐकारान्तः, २८. ओकारान्तः. २९, व्यञ्जनान्तः, ३ ३१. यथासंख्येन. For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १० लिङ्गानुशासनम् । सैन्धवो लवणे, भूतः प्रेते, तमो विधुतुदे । स्वदायौ कस्वरे, कुच्छं व्रते, शुक्रोऽग्निमासयोः ॥ ९० कर्पूरस्वर्णयोश्चन्द्र उडाद्वेक्षश्छदे दलः । धर्मः स्वभावे रुचको भूषाभिन्मातुलुङ्गयोः ॥ पाताले वाडवो वः सीसे आमलकः फले । पिटजङ्गलसत्त्वानि पिटकामांसजन्तुषु ॥ ९२ मधुपिण्डौ सुरातन्वोर्नाम शेवालमध्ययोः । एकाद्रात्रः समाहारे तथा सूतककूलकौ ॥ वैनीतकभ्रमरको मरको वलीकवल्मीकवल्कपुलकाः फरकव्यलीको । किंजल्ककल्कमणिकस्तबकावतङ्कवर्चस्कचूचुकतडाकतटाकतङ्काः ॥ बालकः फलकमालकालका मूलकस्तिलकपकपातकाः । कोरकः करककन्दुकान्दुकाः नीकनिष्कचषका विशेषकः ।। शाटककण्टकटविटङ्का मञ्चकमेचकनाकपिनाकाः । पुस्तकमस्तकमुस्तकशाका वर्णकमोदकमूषिकमुष्काः ॥ चण्डातकश्वरकरोचककञ्चकानि मस्तिष्कयावककरण्डकतण्डकानि । आतङ्कशकसरकाः कटकः सशुल्कः पिण्याकझर्झरकहंसक शङ्खपुङ्खाः ॥ नखमुखमैधिकाङ्गः संयुगः पद्मरागो भगयुगमथ टङ्गोद्योगशृङ्गा निदाघः । क्रेकचकवचकूर्चार्धर्चपुच्छोञ्छकच्छाः ब्रजमुटजनिकुऔ कुञ्जमूर्जाम्बुजाश्च ॥ ९८ ध्वजमलयजकूटाः कालकूटारकूटौ कवटकपटखेटाः कर्पटः पिष्टलोष्टौ ।। नटनिकटकिरीटाः कर्वटः कुक्कुटाट्टौ कुटयकुटविटानि व्यङ्गटः कोट्टकुष्ठाः ॥ ९९ कमठो वारुण्डखण्डषण्डा निगडाक्रीडनडप्रकाण्डकाण्डाः । कोदण्डतरण्डमण्डमुण्डा दण्डाण्डौ हूँढेवारबाणबाणाः ॥ कार्षापणश्रवणपक्कणकंकणानि द्रोणापराह्णचरणानि तृणं सुवर्णम् । स्वर्णव्रणौ वृषणभूषणदूषणानि भाणस्तथा किणरणप्रवणानि चूर्णः ।। तोरणपूर्तनिकेतनिवाताः पारतमन्तयुतप्रयुतानि । क्ष्वेडितमक्षतदैवतवृत्तैरावतलोहितहस्तशतानि ॥ व्रतोपवीतौ पलितो वसन्तध्वान्तायुतगतधृतानि पुस्तः । शुद्धान्तवुस्तौ रजतो मुहूर्तद्वियूथयूथानि वरूथगूधौ । प्रस्थं तीर्थं प्रोमलिन्दः ककुदः कुकुदाष्टापदकुन्दाः । गुददोहदकुमुदच्छदकन्दाधुंदसौधमथोत्सेधकबन्धौ ॥ श्राद्धायुधान्धौषधगन्धमादनप्रस्फोटना लग्नपिधानचन्दनाः । वितानराजादनशिश्भयौवनापीनोदपानासनकेतनाशनाः ॥ नलिनपुलिनमौना वर्धमानः समानौदनदिनशतमाना हायनस्थानमानाः । धननिधनविमानास्ताडनस्तेनवस्ता भवनभुवनयानोद्यानवातायनानि ।। १०३ १. धने. २. नक्षत्रे ऋक्षम् . ३. यथासंख्येन. ४. यथासंख्येन. ५. अथ कान्ताः. ६. खान्ताः. ७. गान्ताः ८. घान्तः. ९. चान्ताः. १०. छान्ताः. ११, जान्ताः. १२. टान्ताः. १३. ठान्तौ. १४. डान्ताः. १५. ढान्त:. १६. णान्ताः, १७. तान्ताः. १८. थान्ताः. १९. दान्ताः. २०. धान्ताः, २१, नान्ताः. For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१० लिङ्गानुशासनम् । अभिधानद्वीपिनौ निपानः शयनं लशुनरसोनगृञ्जनानि । खलिनखलीनानुमानदीपाः कुणपकुतपावापचापशूर्पाः ।। स्तूपोडुपौ विटपमण्डपशष्पवाष्पद्वीपानि विष्टपनिपौ शेफडिम्बविम्बाः । जम्भः कुसुम्भककुभौ कलभो निभोऽर्मसंक्रामसंक्रमललामहिमानि हेमः ॥ १०८ उद्यमकामोद्यामाश्रमकुट्टिमकुसुमसंगमा गुल्मः | क्षेमक्षौमौ कम्बलिवाह्यो मैरेयती च ॥ १०९ पूयाजन्यप्रमयसमया राजसूयो हिरण्यारण्ये संख्यं मलयवलयौ वाजपेयः कषायः । शल्यं कुल्याव्ययकवियवद्गोमयं फारिहार्यः पारावारातिखरशिखरक्षेत्रवस्त्रोपवस्त्राः ॥ ११० अलिंजरः कूवरकूरवेरनीहारहिञ्जीरसहस्रमेढ़ाः ।। संसारसीरौ नुवरश्च सूत्रशृङ्गारपण्डान्तरकर्णपूराः ॥ १११ नेत्रं वक्रपवित्रपत्रसमगेशीरान्धकारा वरः केदारप्रवरौ कुलीरशिशिरावाडम्बरो गह्वरः । क्षीरं कोटरचक्रचुऋतिमिगङ्गारास्तुषारः शरः भ्राष्ट्रोपहरराष्ट्रतक्रजठरार्द्राः कुञ्जरः पञ्जरः ॥ ११२ कर्पूरनपुरकुटीरविहारवारकान्तारतोमरदुरोदरवासराणि । कासारकेसरकरीरशरीरजीरमञ्जीरशेखरयुगंधरवञवप्राः ॥ ११३ आलवालपलभालपलालाः पल्वलः खलचषालविशालाः । शूलमूलमुकुलास्तलतैलौ तूलकुङ्मलतमालकपालाः ॥ ११४ कवलप्रवालवलशम्बलोत्पलोपलशीलशैलशकलाङ्गुलाञ्चलाः । कमलं मलं मुशलसालकुण्डलाः कललं नलं निगलनीलमङ्गलाः ॥ ११५ काकोलहलाहलौ हलं कोलाहलकङ्कालवल्कलाः । सौवर्चलधूमले फलं हालाहलजम्बालखण्डलाः॥११६ लाङ्गलगरलाविन्द्रनीलगाण्डीवगाण्डिवाः । उल्वः पारशवः पार्थापूर्वत्रिदिवताण्डवम् ॥ ११७ निष्ठेवप्रग्रीवशरावरावौ भावक्लीवशवानि । दैवः पूर्वः पल्लवनल्वौ पाशं कुलिशं कर्कशकोशौ ॥ ११८ आकाशकाशकणिशाङ्कशशेषवेषोष्णीषाम्बरीषविषरोहिषमाषमेषाः । प्रत्यूषयूषमथ कोषकरीषकर्षवर्षामिषा रसवसेक्थसचिक्कसाश्च ॥ कर्पास आसो दिवसावतंसवीतंसमांसाः पनसोपवासौ।। निर्यासमासौ चमसांसकांसस्नेहानि वहाँ गृहगेहलोहाः ॥ पुण्याहदेहौ पटहस्तनूरुहो लक्षोडेररिस्थाणुकमण्डलूनि । चाटुश्चटुर्जन्तुकशिप्वणुस्तथा जीवातुकुस्तुम्बुरुजानुसानु ॥ १२१ कम्बुः शङ्कीर्वगुरुवास्तुपलाण्डु हिङ्गुः शिग्रुदौस्तितनुः सीध्वथ भूमा । वेम प्रेम ब्रह्म गहल्लोम विहायः कर्माष्ठीवरपक्ष्मधनुर्नाममहिनी ॥ इति पुनपुंसकलिङ्गाः । ११९ १२२ १. पान्ता:. २. फान्तः. ३. बान्ती. ४. भान्ता:. ५. मान्ता:. ६. यान्ता:. ७. रान्ता:. ८. लान्ताः. ९. तालव्यादिरपि. १०. वान्ताः. ११. शान्ताः. १२. षान्ताः. १३. सान्ताः. १४. हान्ताः. १५. क्षान्तः. १६. अररिरिकारान्तः. १७. अथोकारान्ताः, १८. दोषशब्दस्य व्यञ्जनान्तस्यापि मध्ये पाठश्छन्दोनुरोधात्. १९. अथ व्यञ्जनान्ताः For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १० लिङ्गानुशासनम् । १२३ १२४ स्त्रीक्लीबयोर्नग्वं शुक्तौ विश्वं मधुकमौषधे । माने लक्षं मधौ कल्पं क्रोडाङ्के तिन्दुकं फले ॥ १२२ तरलं यवाग्वां पुष्पे पाटलं पटलं चये । वसन्ततिलकं वृत्ते कपालं भिक्षुभाजने ॥ अर्धपूर्वपदो नावष्टौ क्वचित् । चौराधमनोज्ञाद्यकञ्कथानक कशेरु के || वंशिक वक्रोष्टिक कॅन्यकुब्जपीठानि कर्मवहित्यम् । रेशनं रसनाच्छोर्टनशुम्बं तुम्बं महोदयं कांस्यम् || मृगव्यचव्ये च वणिज्य वीर्य नासीरमात्रा पर मन्दिराणि । तमिस्रशस्त्रे नगरं मसूरत्वक्क्षीरकादम्बर कहलानि || स्थालीकदल्यौ स्थलजालपित्तला गोलायुगल्यो 'डिशं च 'छर्दि च । अलाबुजम्बूडूरुषः सरःसदोरोदोचिषी दाम गुणे वयट्तयट् ॥ इति स्त्रीनपुंसकलिङ्गाः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परलिङ्गो द्वन्द्रोंऽशी, ङेऽर्थो वाच्यवदत्यमिति नियताः । अरुयारोपाभावे गुणवृत्तेराश्रयाद्वचनलिङ्गाः ॥ १२५ For Private and Personal Use Only १२६ 1 १२९ १३० म्वतबिलिङ्गः मरकोऽनुतर्षे शलल: शले । करकोऽब्दोपले कोश: शिम्बाखङ्गपिधानयोः ।। १२८ जीवः प्राणेषु, केदारे वलज:, पवने खल: । बहुलं वृत्तनक्षत्रपुराद्याभरणाभिधा ।। भल्लातक आमलको हरीतकविभीतकौ । तारकाडकपिटकस्फुलिङ्गा विडङ्गतैौ ॥ पटः पुटो बटो वाटः कपाटशकटौ कटः । पेटो मेठः कुण्डनीडर्विषाणास्तूणङ्कतौ ॥ मुस्तः कुँथैङ्गुदजृम्भदाडिमाः पिठरंप्रतिसरपात्रकंदराः । नखरो वलूरो दरः पुरश्छत्रः कुँवैलमृणालमण्डलाः || नालप्रणालपटलार्गलश्टङ्खलकन्दलाः । पूलावहेलौ कैलशर्कटाहो पेष्ट विषु || १३१ 38 इति स्वतस्त्रिलिङ्गाः । १२७ १३२ १३३ १३४ १. अर्धनावी अर्धनावम्. २. 'वैदग्ध्यं वैदग्धी, राजधानी राजधानम्, आम्थानी आस्थानम्' इत्यादयः. ३. मनोज्ञाद्यन्तर्गणवर्जितेभ्यश्चौरादिभ्यो योऽकञ्प्रत्ययस्तदन्तम् । चौरिका चौरकमित्यादि । मानोज्ञकमित्येव, ४ . अथ 1 कान्ताः. ५. जान्तः. ६ ठान्तः ७ तान्तः ८ थान्ता: ९ नान्ताः १०. चान्तौ ११ यान्ताः १२. रान्ताः १३. लान्ता:. १४. शान्तः १५. अर्थकारान्तः १६. अथोकारान्त: १७. अथ व्यञ्जनान्ताः . १८. द्वयी द्वयम्, चतुष्टयी चतुष्टयम्. १९. बहुलं लक्ष्यानुसारेण २०. अथ कान्ताः २१. गान्तौ २२. टान्ताः २३. ठान्तः २४. डान्तौ . २५. णान्तौ . २६. तान्तौ २७. थान्तः २८. दान्तः २९. भान्तः ३० मान्त: ३१. रान्ताः ३२. लान्ताः. ३३. शान्तः. ३४. हान्तः. ३५. इकारान्तः. ३६. उकारान्तौ ३७. अंशी तत्पुरुषो यथा --- राजपुत्री, अर्धपिप्पली, द्वितीयभिक्षा, इत्येवमादयः. ३८. ङेर्थश्चतुर्थ्यर्थकोऽर्थशब्दोऽन्ते यस्य स वाच्यलिङ्गो यथा -- द्विजार्थः सूपः, द्विजार्था यवागूः, द्विजार्थं पयः । डे (ङ) ग्रहणात् धान्येनार्थो धान्यार्थ इत्येव । अर्थग्रहणात् कुण्डलहिरण्यमित्येव. ३९. अपत्यादयो नियतलिङ्गा यथा - अपत्यं दुहिता पुत्रश्च । रक्षः पुमान् स्त्री च । वेदाः प्रमाणम्, स्मृतयः प्रमाणम् । विद्या गुणः शौर्य गुणः. ४०. गुणो विशेषणं प्रवृत्तिनिमित्तं तदाश्रया वृत्तिर्यस्य तस्य विशेष्यवशाद्वचनं लिङ्गं च भवतः । प्रवृत्तिनिमित्तस्य गुणद्रव्य क्रियाभेदात्रैविध्यम् । गुणवाची शुक्लः शुक्रा शुक्लम्, विद्वान् विदुषी विद्वत् । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रहः-१० लिङ्गानुशासनम् । प्रकृतेलिङ्गवचने बाधन्ते स्वार्थिकाः क्वचित् । प्रकृतिहरीतक्यादिर्न लिङ्गमतिवर्तते ॥ वचनं तु खलतिकादिर्बहात्येऽति पूर्वपदभूता। स्त्रीपुंनपुंसकानां सह वचने स्यात्परं लिङ्गम् ॥ १३६ नान्ता संख्या उतिर्युष्मदस्मच्च स्युरलिङ्गकाः । पदं वाक्यमव्ययं चेत्यसंख्यं च तद्वहुलम् ॥ १३७ निः शेषनामलिङ्गानुशासनान्यभिसमीक्ष्य संक्षेपात् । आचार्यहेमचन्द्रः समभदनुशासनानि लिङ्गानाम् ॥ १३८ इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितं लिङ्गानुशासनं समाप्तम् ॥ द्रव्योपाधिः--दण्डी दण्डिनी दण्डि ! क्रियोपाधिः---पाचकः पाचिका पाचकम्। इत्यादि । अस्त्रीति किम् । धवनाम्नो योगात्तद्भार्यायामध्यारोपेऽप्याश्रयलिङ्गतैव प्रष्ठस्य भार्या स एवायमित्यभेदोपचारेऽपि प्रष्ठी । एवं वरुणानी इन्द्रानी इत्यादयः. १. यथा--द्रखा कुटी कुटीरः. २. हरीतक्याः फलानि हरीतक्यः. ३. खलतिकस्यादूरभवानि वनानि खलतिकं वनानि. ४, बकुर्था पूर्वपदभूता प्रकृतिर्वचनं नात्येति । यथा-पञ्चालाः कुरवः. ५. स्त्रीपुंसयोः पुंलिङ्गं यथा-स च शाटी च तौ । स्त्रीनपुंसकयोर्नपुंसकम् । पुनपुंसकयोनपुंसकम् । स्त्रीपुंनपुंसकानां नपुंसकम् ॥ For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विज्ञापनम् । प्राप्तकोषाः। अमरसिंहः-नामलिङ्गानुशासनम्, केशवः-कल्पद्रुः. जिनदेवमुनीश्वरः-अभिधानचिन्तामणिशिलोञ्छः. दुर्गादासः-शब्दार्णवः, धनंजयः-प्रमाणनाममाला. पुरुषोत्तमदेवः-एकाक्षरकोषः, त्रिकाण्डशेषः, द्विरूपकोषः, शब्दभेदप्रकाशः, हारावली. भरतसेनमल्लिकः-द्विरूपकोषः, महीदासः-मातृकानिघण्टुः. महाक्षपणकः-अनेकार्थध्वनिमञ्जरी. महादेवः-अव्ययकोषः. महेश्वरः-विश्वप्रकाशः, शब्दभेदप्रकाशः. मेदिनिकरः-नानार्थशब्दकोशः. यादवः-वैजयन्ती. वररुचिः-लिङ्गविशेषविधिः. विश्वशंभुः-एकाक्षरीनाममाला, वेणीदत्तःपञ्चतत्त्वप्रकाशः. शाश्वतः-नानार्थसमुच्चयः. शिवरामः-लक्ष्मीनिवास:. हरिदत्तः-गणितनाममाला. हलायुधःअभिधानरत्नमाला. हर्षकीर्तिः-शारदीनाममाला. हेमचन्द्रः-अनेकार्थसंग्रहः, अभिधानचिन्तामणिः, अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्टम् , निघण्टुशेषः, लिङ्गानुशासनम्. अप्राप्तकोषाः। अगस्त्यः-शब्दसंग्रहनिघण्टुः. अजयपाल:-नानार्थसंग्रहः. अप्पयदीक्षितः-नामसंग्रहमाला.अमरसिंहः-एकाक्षरनाममाला.आदिनाथकविवर्यः-कविजनसेवधिः कालिदासः-प्रयुक्तपदमञ्जरी. काशिनाथः-शब्दार्णवः. केशवः-लघुनिघण्टुसारः.क्षेमेन्द्रः-लोकप्रकाशः.गदसिंहः-अनेकार्थध्वनिमञ्जरी.गोपिनाथः-शब्दमाला.गोव. धनः-नामावली. गोविन्दशर्मा-शब्दसागरः.चक्रपाणिदत्तः-शब्दचन्द्रिका. जटाधराचार्यः-अभिधानतन्त्रम्जैमिनिः-निघण्टुः तीर्थस्वामी-कोमलकोशसंग्रहः त्रिविक्रमाचार्यः-गीर्वाणभाषाभूषणम्. दण्डनाथः-नानार्थरत्नमाला. दुर्गः-नाममाला. देवकीनन्दनः-वैष्णवाभिधानम्.धरणिदासः-नानार्थसमुच्चयः, धर्मराजः-कविजीवनम्. नकिरकविः-बालप्रबोधिका. नन्दनभट्टाचार्यः-वर्णाभिधानम्. नरसिंहपण्डितः-राजनिघण्टुः नारायण दासः-राजवल्लभः.नृसिंहमुनिः-रत्नकोषः. पद्मनाभः-भूरिप्रयोगः. पुण्डरीकविट्ठलः-शीघ्रबोधिनीनाममाला. पुरुषोत्तमदेवः-वर्णदेशनम्. पृथ्वीधराचार्यः-रत्नकोषः, बाणकविः-शब्दचन्द्रिका. बाल्हिकेयमिश्रःनिघण्टुकैकाध्यायः. विहणः-त्रिरूपकोषः. भार्गवाचार्यः-नामसंग्रहनिघण्टुः. भोजः-नाममाला. मङ्खः-मङ्खकोषः. मथुरेशः-शब्दरत्नावली. मयूरः-पदचन्द्रिका. महीपः-अनेकार्थतिलकः, शब्दरत्नाकरः, माधवः-- एकाक्षरनिघण्टु, मुरारिः-सुप्रसिद्धपदमञ्जरी. रत्नमालाकरः-आयुर्वेदपर्यायरत्नमाला. राक्षसः-शब्दार्थनिर्णयः. रामः-कविदर्पणनिघण्टुः. रामशर्मा-उणादिकोशः. रामेश्वर:-शब्दमाला. रूपचन्द्रः-रूपमञ्जरीनाममाला. वरदराजः-नाममातृकानिघण्टुः. वररुचिः-ऐन्द्रनिघण्टुः. वल्लभ:-कविमञ्जरी. वामनभट्टः-शब्दरनाकरः. विक्रमादित्यः-कविदीपिकानिघण्टुः. विठ्ठलाचार्य:-शब्दचिन्तामणिः. विश्वनाथः-कोषकल्पतरुः, वेङ्कटः-शब्दार्थकल्पतरुः, शाब्दिकविद्वत्कविप्रमोदकः. वेदान्ताचार्यः-दशदीपनिघण्टुः. शंकरः-संयमिनाममाला. शिवदत्तः-शिवकोषः. श्रीहर्षः-द्विरूपकोषः, श्लेषार्थपदसंग्रहः. सदाचार्यः-एकाक्षरनिघण्टुः. सारेश्वरः-लिङ्गप्रकाशः. सार्वभौममिश्रः-भुवनप्रदीपिका. सुन्दरगणिः-शब्दरत्नाकरः. सोमभवः-अनेकार्थतिलकः. सौभरिः-एकार्थनाममाला, द्वथक्षरनाममाला. १. एते कोषा अस्माभिरभिधानसंग्रहे मुद्रिताः सन्ति. For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एतद्भिन्नाः अमरदत्त - काव्य- गङ्गाधर- चन्द्रगोमि- तारपाल - दामोदर - धर्मदास-बोपालित - भागु. रि-भोगीन्द्र - मक्कल - मार्तण्ड - रन्तिदेव - रभसपाल - राजशेखर-रुद्र- वाग्भट - वाचस्पति- वामनविक्रमादित्य - विश्वरूप-व्याडि - शुभाङ्क - सज्जन- साहसाङ्क - हट्टचन्द्र - हर - इत्यादिकृताः कोषाः, अमरमाला - असालतिप्रकाश- आनन्दकोष - एकवर्ण संग्रह - एकाक्षरकोष - उत्पलिनी - ऊष्मविवेक - कल्पतरु कोष-ग्रहाभिधान-जकारभेद - दण्डिकोष - धन्वन्तरिनिघण्टु - नक्षत्राभिधान - नानार्थमञ्जरी - पद्मकोष-वकारभेद - बीजकोष - बृहदमरकोष - महाखण्डनकोष - राजकोषनिघण्टु - लिङ्गप्रकाश-वर्णप्रकाशकोष - वात्स्यायनकोष - शब्दतरङ्गिणी - शब्ददीपिका - शब्दरत्नसमुच्चय- शब्दसारनिघण्टु - संसारावर्त - सकलग्रन्थदीपिका - सकारभेद - संजीवनी - सन्मुखवृत्तिनिघण्टु-सरसशब्दसरणि- सरस्वतीनिघण्टु - साध्यकोष - सारस्वताभिधान- हनुमन्निघण्टु-प्रभृतयः कोषाश्च सन्तीति श्रूयते । ते येषां सज्जनानां संग्रहे सन्ति, ते तेषां प्रेषणेनास्मानुपकुर्वन्त्वित्यर्थना For Private and Personal Use Only अभिधानसंग्रहकर्तॄणाम् । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रह | प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के उद्धारका कार्य आजकल चारों ओर बडी धूमधाम से चल रहा है, यह अ'त्यन्त आनन्दकी बात है । तौभी संस्कृतभाषाज्ञान के मुख्य साधन प्राचीन कोषों की ओर जितना लक्ष्य होना चहिये उतना नहीं है । संस्कृत कोष सब श्लोकबद्ध होने के कारण कण्ठस्थ रह सकते हैं । और अवसर पर उनके श्लोकों की सद्यः स्फूर्ति होती है । इसलिये प्रत्येक संस्कृताभिमानी पुरुष को कोषों का संग्रह अवश्य कर्तव्य है । प्राचीन प्रधान कोष छप्पन हैं यह लोकप्रसिद्धि है । परंतु उन में कईका तो आजकल नाममात्र ही शेष रह गया है । और जो क्वचित् उपलब्ध होते हैं उन के उद्धार कर्नेका भी यदि । यत्न न किया जायगा तो उनवे भी सत्वर नष्ट होजाने का विशेष संभव है यह समझ कर, हमने बड़े यत्न से कईएक कोपों का संग्रह आजतक किया है, और अवशिष्ट कोषों की प्राप्ति के लिये भी यत्न कर रहे हैं । परंतु उनकी प्रतीक्षा न कर्के, सांप्रत जितने उपलब्ध हैं उनकोंही सब के उपयोग के लिये छापकर प्रसिद्ध कर्ना, और यही क्रम आगे भी प्रवृत्त रखना, ऐसा निश्चय किया है। यह सब कोष युगपत् एकही पुस्तक मे छापे तो काल बहुत लगेगा, और पुस्तक भी बहुत बडा हो जायगा, और उसके अनुरूप मूल्य भी अधिक होगा । इस लिये ग्राहकों के सौकर्यार्थ ऐसा नियम किया है कि जिस कोष के छापने का आरम्भ करें, उस को समाप्त करके ही खण्ड प्रकट करें । यदि छोटे छोटे कोप होंय तो एक खण्डमें दो तीन रक्खें । "स्तक उत्तम कागदके ऊपर सुन्दर छापी जांयगी । जैसे जैसे ग्रन्थ तयार होगें वैसी वैसी उस उस मयपर सूचना दी जायगी । प्रत्येक कोष के पृष्ठाङ्क पृथक् पृथक् रहेंगे । इस नियम के अनुसार प्रथम और द्वितीय खण्ड छप कर तयार है। प्रथम खण्ड मे अमरसिंहकृत 'नामलिङ्गानुशासन (अमरकोष)', और उसी का परिशिष्ट पुरुषोत्तमदेवकृत ' त्रिकाण्डशेष', और 'हारावली', 'एकाक्षरकोश' और 'द्विरूपकोश' ये पांच कोष संपूर्ण आये हैं। कीमत १ रुपया । और टपालखर्च २ आने है । द्वितीयखण्ड मे हेमचन्द्रकृत 'अभिधानचिन्तामणि', 'अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्ट', 'अनेकार्थसंग्रह', 'निघण्टुशेष' और 'लिङ्गानुशासन' ये पांच कोष और जिनदेवमुनीश्वरकृत 'अभिधानचिन्तामणिशिलोञ्छ' एक कोश संपूर्ण आये हैं। कीमत १ रुपया । और टपालखर्च ३ आने है । ये तृतीयखण्ड मे महेश्वरकृत 'विश्वप्रकाश' और 'शब्दभेदप्रकाश' ये दो कोश आनेवाले हैं । जिन कों यह पुस्तकें लेनी हों वे अपने नाम और मूल्य भेजें कि पुस्तकें तयार होते ही भेजने में ठीक पडे । तुकाराम जावजी । 'निर्णयसागर' छापेखाने के मालिक । १. आगे यादी दी है उसपरसे इन कोश छप्पनसे भी जादे हैं ऐसा मालूम पडेगा । For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिधानसंग्रह | प्राचीन संस्कृत ग्रन्थांचा जीर्णोद्धार करण्याचे काम सांप्रत चोहोंकडे मोठ्या सपाठ्यानें चालू झालें आहे, ही मोठ्या आनन्दाची गोष्ट होय । तथापि त्या ग्रन्थांतील ज्ञानाच्या प्राप्तीला उत्तम साधन असे जे प्राचीन शब्दकोश, त्यांकडे जितकें लक्ष लागावें, तितकें अद्यापि लागले नाहीं । हे कोश पद्यरूप असल्यामुळे, मुखोद्गत करण्याला फार सोईवार असून, पाहिजेल तेव्हां स्फूर्ति उत्पन्न करण्याला फार चांगले असतात तेव्हां अशा ग्रन्थांचा संग्रह करणें हें, संस्कृताभिमानी प्रत्येक गृहस्थाचें कर्तव्य होय । लोकवार्तेवरून कोश छप्पन्न आहेत असें समजते । तथापि त्यांतील बरेच सांप्रत नामशेष झाले आहेत । यास्तव, सध्य जे उपलब्ध आहेत त्यांच्या उद्धाराकडे जर कोणाचें लक्ष लौकर न पोचलें, तर तेही नष्ट होऊन जा ण्याचा फार संभव आहे हें जाणून, आली मोठ्या प्रयत्नाने त्यांतील बहुतेक कोशांचा संग्रह केल आहे, आणि राहिलेल्या इतर कोशांच्या प्राप्त्यर्थ यत्न चालविला आहे । तथापि त्या सर्वांची वाट पहात न राहतां, सांप्रत जितके उपलब्ध आहेत, तितकेच आधी सर्वोच्या उपयोगास्तव छापून प्रसिद्ध करावे आणि तोच क्रम पुढे चालू ठेवावा, असा निश्चय केला आहे । एककालीं एकाच पुस्तकामध्ये हे छापि ल्यास, काळ फार लागेल, ग्रन्थही अवजड होईल, आणि तदनुरूप किंमतही भारी होईल । म्हणून ग्राह कांच्या सोईकरितां असा बेत केला आहे कीं, जो कोश हातीं ध्यायाचा, तो एका खेपेस पुरा करायाचा अपूर्वा ठेवायाचा नाहीं । ग्रन्थ लहान असल्यास, दोन, तीन, किंवा अधिक पुरे ग्रन्थ घेऊन त्यांचे एव पुस्तक करायाचें । पुस्तके चांगल्या कागदावर सुरेख छापिलीं जातील । जसजसे ग्रन्थ तयार हो । जातील तसतशी यांविषयीं वेळच्यावेळीं सूचना देण्यांत येईल । प्रत्येक कोशाच्या पृष्ठांचा क्रम वेग गळा येईल । 1 या नियमाला अनुसरून याचें प्रथम आणि द्वितीय खण्ड छापून तयार झालें आहे । प्रथम खण्ड अमरसिंहकृत 'नामलिङ्गानुशासन ( अमरकोश)', आणि त्याचेच परिशिष्ट पुरुषोत्तमदेवकृत 'त्रिकाण्डशेष' आणि ‘हारावली’, ‘एकाक्षरकोश' आणि 'द्विरूपकोश' हे पांच कोश संपूर्ण आले आहेत । किंमत : रुपया । टपालखर्च २ आणे । द्वितीय खण्डामध्ये हेमचन्द्रकृत 'अभिधानचिन्तामणि', 'अभिधानचिन्तामणिपरिशिष्ट', 'अनेकार्थं संग्रह’, ‘निघण्टुशेष' आणि 'लिङ्गानुशासन' हे पांच कोश आणि जिनदेवमुनीश्वरविरचित 'अभिधान चिन्तामणिशिलोञ्छ' हा एक कोश इतके आले आहेत । किंमत १ | रुपया । टपालखर्च ३ आ तृतीय खण्डामध्ये महेश्वरकृत 'विश्वप्रकाश' आणि 'शब्दभेदप्रकाश' हे दोन कोश यावयाचे आहेत ज्या कोणांस हीं पुस्तकें घ्यावयाची असतील त्यांहीं आपली नांवे आणि वर्गणी आमचेकडेस पाठवावी जे पुस्तकें तयार होतांच त्यांजकडे पाठविण्यास ठीक पडेल । For Private and Personal Use Only तुकाराम जावजी । 'निर्णयसागर ' छापखान्याचे मालक १. दुसरीकडे दिलेल्या यादीवरून हे कोश छप्पन्नापेक्षाही अधिक आहेत असें दिसून येईल । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only