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श्री विपाकसूत्र
[प्राक्कथन
अपने सभी प्रावरणों को हटा देता है, उस समय उस की सभी शक्तियें प्रकट हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता की कोई बात नहीं रहती । जिस कर्मजन्य उपाधि से घिरा हुआ आत्मा जीव कहलाता है उस के नष्ट हो जाने पर वह ईश्वर के नाम से अभिहित होता है। इसलिये ईश्वर एक न हो कर अनेक हैं। सभी प्रात्मा तात्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं । केवल कर्मजन्य उपाधि ही उस के ईश्वरत्व को आच्छादित किए हुए है, उस के दूर होते ही ईश्वर और जीव में कोई अन्तर नहीं रहता। केवल बन्धन के कारण ही जीव में रूपों की अनेकता है । विपाकश्रुत का यह वर्णन भी जीव को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए बल देता है और मार्ग दिखलाता है।
समवायाङ्गसूत्र के ५५ वें समवाय में जो यह लिखा है कि-समणे भगवं महावीरे अन्तिमराइयसि पणपन्न अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाईपणपन्न अभयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे अर्थात् पावानगरी में महाराज हस्तिपाल की सभा में कार्तिक की अमावस्या की रात्रि में चरमतीर्थकर भगवान महावीर स्वामी ने ५५ ऐसे अध्ययन-जिन में पुण्यकर्म का फल प्रदर्शित किया है और ५५ ऐसे अध्ययन जिन में पापकर्म का फल व्यक्त किया गया है,धर्मदेशना के रूप में करमा कर निर्वाण उपलब्ध किया, अथच जन्म मरण के कारणों का समूलघात किया । इस से प्रतीत होता है कि ५५ अध्ययन वाला कल्याणफलविपाक और ५५ अध्ययन वाला पापफलविपाक प्रस्तुत विवाकश्रुत से विभिन्न है । क्योंकि इन विपाकों का निर्माण भगवान ने जीवन की अन्तिम रात्रि में किया है और विपाकभुत उस के पूर्व का है । एकादश अङ्गों का अध्ययन भगवान की * उपस्थिति में होता था । अतः विपाकश्रुत उन से भिन्न है और वे विपाकश्रुत से भिन्न हैं।
श्री स्थानांगसूत्र में विपाकश्रुत के प्रथम श्रुतस्कन्ध के दश अध्ययनों का वर्णन मिलता है, वहां का पाठ इस प्रकार है
*कल्पसूत्र में जो यह लिखा है कि उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ अध्ययन भगवान महावीर स्वामी ने कार्तिक अमावस्या की निर्वाणरात्रि में फरमाये थे । इस पर यह आशंका होती है कि अङ्ग सूत्रों में चतुर्थ श्रङ्गसूत्र श्री समवायाङ्गसूत्र के ३६ वें समवाय में उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ अध्ययनों का संकलन कैसे हो गया ? तात्पर्य यह है कि जब असूत्र भगवान महावीर स्वामी के उपस्थिति में अवस्थित थे
और उत्तराध्ययनसूत्र उन्हों ने अपने निर्वाणरात्रि में फ़रमाया, कालकृत इतना भेद होने पर भी उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययन अङ्गसूत्र में कैसे संकलित कर लिये गये ? इस प्रश्न का समाधान निम्नोक्त है--
भगवान् महावीर स्वामी के समय में : वाचनाएं चलती थीं, अन्तिम वाचना श्री सुधर्मा स्वामी जी की कहलाती है। आज का उपलब्ध अङ्गसाहित्य श्री सुधर्मास्वामी जी की ही वाचना है । पूर्व की ८ वाचनाओं का विच्छेद हो गया । अन्तिम वाचना श्री सुधर्मास्वामी तथा श्री जम्बूस्वामी के प्रश्नोत्तरों के रूप में प्राप्त होती है और महावीर स्वामी के निर्वाणानन्तर श्री सुधर्मास्वामी ने इस में श्री उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों का भी संकलन कर लिया। अतः सुधर्मास्यामी की वाचना के अङ्गसूत्र में उत्तराध्ययनसूत्र के अध्ययनों का वर्णित होना कोई दोषावह नहीं है।
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