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तत्त्वार्घसूत्रे "अत्रेदं बोध्यम्" अविग्रहगतिरिपुगतिशब्देन व्यपदिश्यते, यथा-इयो खलु वाणस्य गतिर्वेध्यपर्यन्तम् ऋज्वी भवति तथा-सिद्धानां संसारिणां चाऽविग्रहागतिरेकसामयिकी-समानैव भवति, विग्रहा-विरम्यगतिःसंसारिणामेव भवति तस्यास्त्रयः प्रकारा भवन्ति-हस्तप्रक्षिप्ता-लाङ्गलिका गोमूत्रिकेति, भेदात् , तत्र-हस्तप्रक्षिप्ता वक्रगतिर्यथा हस्तेन–एकतस्तिर्यक प्रक्षिप्तस्य एकतो वक्रा गतिर्भवति ॥
एवं संसारिणो हस्तप्रक्षिप्ता एकतो बक्रा गति सामयिकी भवति, लाङ्गलिकागतिर्द्विधातो वक्रा यथा-लागलं हलं द्विधातो वक्रं भवति । तथा-संसारिणां द्विधातो वका लाङ्गलिकागति भवति, सा च त्रैसामयिकी, गोमूत्रिका-गतिबर्हवक्रा-त्रिवक्रा भवति । सा च गोमूत्रिकागतिः संसारिणां चतुःसामयिकी भवति, तत्र-संसारिणां भवान्तरे उत्पित्सूनां विग्रहवती वक्रा गतिश्चतुर्थसम यापूर्व भवति, चतुर्थसमयस्य मध्येऽन्ते वा वक्रगति न भवति स संसारीजीवश्चतुर्थसमये प्राञ्जलं गत्वा उत्पत्तिक्षेत्रे प्रविशति ।
चतुर्थसमये कथं न विग्रहगतिरितिचेत् सर्वोत्कृष्ट विग्रह निमित्तलोकाग्रकोणरूपनिष्कुटक्षेत्रे उत्पत्तुमिच्छुः खलु जीवः निष्कुटक्षेत्रानुपूर्व्यनुश्रेण्यभावात् इषुगत्यभावे निष्कुटक्षेत्रप्रमाणनिमित्तां त्रिविग्रहां गतिमारभते न तत ऊर्ध्वम् तथाविधोपपातक्षेत्राभावादिति ॥२४॥
यहाँ 'विग्रह' शब्द 'विराम' अर्थ में ग्रहण करना चाहिए, 'कुटिल' अर्थ में नहीं लेना चाहिए । अतः फलितार्थ यह हुआ कि एक समय में गति के अवच्छेद से अर्थात् विराम से उत्पन्न होता है दो समय में गति के अवच्छेद अर्थात् विराम से उत्पन्न होता है । अथवा तीन समयों में गति के अवच्छेद से अर्थात् विराम से उत्पन्न होता है ।
यहाँ ऐसा समझना चाहिए-अविग्रह गति इषुगति (बाण जैसी सीधी गति) कहलाती है। जैसे बाण की अपने वेध्य (लक्ष्य) पर्यन्त सीधी गति होती है, उसी प्रकार सिद्धों और संसारी जीवों की अविग्रहगति एक समय वाली समान ही होती है । सविग्रहा गति संसारी जीवों की ही होती है। उसके तीन भेद हैं-हस्तप्रक्षिप्त लांगलिका और गोमूत्रिका ।
जैसे हाथ एक ओर तिर्छा फैंका जाय तो एक तरफ तिर्की गति होती है, इसी प्रकार संसारी जीव की हस्तप्रक्षिप्त गति एक विग्रह वाली दो समय की होती है। लांगलिका गति दोनों ओर से वक्र होती है, जैसे हल दोनों ओर से वक्र होता है, उसी प्रकार संसारी जीवों की जो गति दोनों ओर से वक्र हो वह लांगलिका कहलाती है, वह गति तीन समय की होती है । गोमूत्रिका गति तीन विग्रह वाली होती है। वह गति चार समय की होती है। इस प्रकार भवान्तर में उत्पन्न होने वाले संसारी जीवों की विग्रह वाली वक्रगति चौथे समय से पहले ही हो जाती है । चौथे समय में या चौथे समय के अन्त में वक्रगति नहीं होती है ।
विग्रहवाली गति चौथे समय में क्यों नहीं होती ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सब से अधिक विग्रह के निमित्तभूत लोकाग्र के कोणरूप निष्कुट क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला जीव निष्कुट क्षेत्र के अनुकूल श्रेणी न होने के कारण इषुगति नहीं कर सकता, अतएव निष्कुट क्षेत्र में जाने
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧