________________
४०६
तत्त्वार्थसूत्रे उक्तञ्चोत्तराध्ययने ३३ अध्ययने २१ गाथायाम्"उदहीसरिसनामाण सत्तर कोडिकोडीओ। मोहणिज्जस्स उक्कोसा अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥१॥ इति । छाया-"उदधिसदृशनाम्नां सप्ततिकोटिकोट्यः । मोहनीयस्य उत्कृष्टा अन्तर्मुहूर्तं जघन्यिका ॥१॥ इति ॥१५॥ मूलसूत्रम्-"नामगोत्ताणं वीसईकोडिकोडीओ-" ॥१६॥ छाया--"नाम-गोत्रयोविंशतिः कोटिकोट्यः-" ॥१६॥
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे मोहनीयस्य कर्मणः स्थितिकालः प्ररूपितः, सम्प्रति-नामगोत्रयोः कर्म मूलप्रकृत्योः स्थितिकालं प्ररूपयितुमाह-नामगोत्ताणं वीसईकोडाकोडीओ-" इति । नामगोत्रयोः कर्मणो रुत्कृष्टतः स्थितिर्विशतिः कोटिकोटयः प्रज्ञप्ता, जघन्यतोऽष्टमुहूर्तप्रमाणा स्थितिबोध्या-॥३६॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः--पूर्व मोहनीयकर्ममूलप्रकृतेः स्थितिः कालावधिः प्रतिपादितः, सम्प्रति नामगोत्रकर्मणोः स्थितिकालं प्रतिपादयितुमाह-"नामगोत्ताणं वीसईकोडिकोडीओ-" इति ।
नामगोत्रयोः नामकर्ममूलप्रकृतेः-गोत्रकर्ममूलप्रकृतेश्च प्रत्येकं विंशतिसागरोपमकोटिकोटयः उत्कृष्टतः स्थितिः सम्भवति । तत्र-प्रत्येक वर्षसहस्रद्वयं नामकर्मणो-गोत्रकर्मणश्चाऽबाधाकालो भवति, तदनन्तरं बाधाकालो भवति द्वयोरपि, तथाच-यदारभ्य नामकर्मगोत्रकर्म च-उदयाव
उत्तराध्ययन सूत्र के ३३ वें अध्ययन में कहा है
'मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है ' ॥ १५
सूत्रार्थ—'नामगोत्ताणं बिसई' इत्यादि सूत्र-१६ नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की है ॥ १६ ॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में मोहनीय कर्म का स्थिति काल प्ररूपित किया गया है, अब नाम और गोत्र नामक मूल प्रकृतियों का स्थितिकाल प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं--
नाम कर्म और गोत्र कर्म की स्थिति का उत्कृष्ट काल वीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम है । इनका जघन्य स्थितिकाल आठ मुहूर्त समझना चाहिए ॥ १६ ॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पूर्ववर्ती सूत्र में मोहनीयकर्म की स्थिति कही गई है, अब नाम और गोत्रकर्म की स्थिति का काल प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं---
नामकर्म और गोत्रकर्म नामक मूलप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस-बीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम है इन दोनों का अबाधाकाल दो-दो हजार वर्ष का है । तत्पश्चात् बाधाकाल प्रारंभ हो जाता है। उदयावलिका में प्रविष्ट होने के समय से आरंभ होकर पूर्णरूप से क्षय हो
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧