Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० ४ सू. १२
पातुं समर्थो भवतीति भावः ॥
अथाऽनृतविरतिलक्षणसत्यवचनस्य दायर्थं पूर्वोक्तपञ्चभावनासु प्रथमं तावद अनुवीचि - भाषणमुच्यते, अनुवीचिशब्दो देशीय आलोचनार्थकः । तथाच - समीक्ष्य - आलोच्य वचनप्रवर्तनम् - अनुवीचिभाषणं बोध्यम्, अनालोचितवक्ता कदाचिन्मृषाऽपि ब्रूयात्, ततश्चात्मनो लाघव वैरपीडाः खलु - ऐहिकानि फलानि स्युः, परप्राणोपघातश्चाऽवश्यंभावी, अतः समक्ष्योदाहरणेनात्मानं भावयन् न मृषाभाषणजनितपापेन सम्पृक्तो भवति - १ क्रोधस्य - कषायविशेषस्य मोहकर्मोदयनिष्पन्नप्रद्वेषप्रायस्याप्रीतिलक्षणस्य प्रत्याख्यानं - निवृत्तिरनुवृत्तिर्वा, तेन - क्रोधप्रत्याख्यानेन । सततमात्मानं भावयेत् तथा भावयन् वासयंश्च सत्यादि न व्यभिचरतीति - २ ।।
पञ्चविंशतिर्भावनानिरूपणम् ४६५
एवं - लोभप्रत्याख्यानं तावत् - तृष्णालक्षणस्य लोभस्य प्रत्याख्यानं परित्यागः तेना ऽप्यात्मानं भावयन् न वितथभाषी भवति - ३ एवं भयशीलस्य भीरुत्वस्य प्रत्याख्यानेनाऽपि - आत्मानं भावयन् नानृतं कदाचिद् वदति, भयशीलो जनः कदाचिद् वितथमपि भाषते । चौरोऽथ पिशाचो वा मया रात्रौ दृष्ट इति, तस्माद् - निर्भयवासनाध्यानमात्मनि भावयेत् -४
नाओं को पुनः पुनः भाने वाला अहिंसावत की रक्षा करने में समर्थ होता है ।
असत्यविरमण व्रत की दृढ़ता के लिए कही हुई पाँच भावनाओं में से पहले अनुवीचि - भाषण का कथन करते हैं ।
1
(१) अनुवीचिभाषण - यहाँ 'अनुवीचि' शब्द देश्य है और उसका अर्थ है - आलोचना तात्पर्य यह हुआ कि सोच-समझ कर वचनों का प्रयोग करना अनुवीचि भाषण करना है । बिना सोचे-समझे बोलने वाला वक्ता कदाचित् मिथ्या (असत्य) भाषण भी कर बैठता है उससे अपनी लघुता होती है तथा वैर, पीडा आदि इह लोक संबंधी अनर्थ उत्पन्न होते हैं । उससे दूसरे के प्राणों का घात भी अवश्य होता है । अतएव अनुबीचिभाषण से जो अपने आपको भावित करता है, वह मृषाभाषण के दोष का भागी नहीं होता ।
(२) क्रोधप्रत्याख्यान - मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले द्वेषरूप क्रोधकषाय का त्याग करना चाहिए और अपनी आत्मा को क्रोधप्रत्याख्यान से भावित करना चाहिए । जो क्रोधत्याग की भावना करता है, वह प्रायः सत्य का उल्लंघन न करके उसका पालन करने में समर्थ होता है ।
(३) लोभप्रत्याख्यान- - लोभ का अर्थ है तृष्णा । उसका त्याग करना लोभप्रत्याख्यान कहलाता है | जो लोभ का त्याग कर देता है उसे असत्यभाषण नही करना पड़ता । (४) भयप्रत्याख्यान - भय असत्य भाषण का कारण है । जो व्यक्ति अपनी आत्मा को निर्भयता से भावित करता है, वह असत्य भाषण नहीं करता । भयशील मनुष्य मिथ्याभाषण भी करता है । जैसे आज रात्रि में मुझे चोर दिखाई दिया, पिशाच दिखा आदि । इस
1
५९
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧