Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थ सूत्रे
अत्रा - सुराणां संक्लिष्ट इति विशेषणेन न सर्वेऽसुरा नारकाणां दुःखमुत्पादयन्ति, अपितु - कतिपया एव परमाधार्मिक संज्ञकाः - अम्बाडम्बरीषादयोऽसुरा इतिज्ञाप्यते,
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तेन - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा पृथिवीषु तिसृष्वेव संक्लिष्टासुरा नारकाणां बाधातवो भवन्ति । न तु तृतीय पृथिवीतः परासु पङ्कप्रभाप्रभृति तमस्तमः प्रभापर्यन्त पृथिवीषु ते खलु तेषां बाधातवो भवन्ति । चकारेण-सुतप्ताऽयोरसपायननिष्टप्ताऽयः स्तम्भाश्लेषणकूट शाल्मल्यारोहणा-वतारणायोघनाभिधातवा सीक्षुरतक्षणक्षारतप्ततैलावसेचनाऽयः कुम्भीपाकाऽम्बरीष भर्जन वैतरणी मज्जन यन्त्रनिष्पीडनादिभिश्च नारकाणां दुःखं समुत्पादयन्ति - परस्परं ते नारकाः इति गृह्यते । एवम् छेदनभेदनादिभिः खण्डीकृतशरीराणामपि तेषां नारकाणां नाकाले मरणं भवति, तेषामनपवर्त्यायुष्कत्वात् इतिभावः
असुरशब्दव्युत्पत्तिस्तु - देवगतिनामकर्म विकल्पस्या - सुरत्वसंवर्तनस्य कर्मण उदयाद् अस्यन्ति - क्षिपन्ति परान् इत्यसुरा अवगन्तव्याः इति ॥ | सूत्र - १५॥
सूत्र में 'संक्लिष्ट ' विशेषण का प्रयोग करके यह प्रदर्शित किया गया है कि सभी असुर नारकों को पीड़ा नहीं पहुँचाते अपितु कतिपय परमाधार्मिक नाम के अम्ब, अम्बरीष आदि असुर ही पीड़ा देते हैं ।
संक्लिष्ट असुर रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और वालुकाप्रभा इन तीन भूमियों में ही नारक जीवों की बाधा के निमित्त बनते हैं; इनसे आगे की पंकप्रभा आदि पृथ्वियों में वे बाधा नहीं पहुँचाते; क्योंकि तीसरी पृथ्वी से आगे उनका गमन होता ही नहीं है ।
ये असुरकुमार नारक जीवों को अत्यन्त तपाये हुए लोहरस का पान कराते हैं, खूब तपे हुए लोहमय स्तंभों का आलिंगन करवाते हैं, कूटशाल्मली वृक्ष पर - जिसके पत्ते तलबार के समान तीखे होते हैं, चढाते - उतारते हैं, लोहे के घनों की मार मारते हैं, वसूला बुरा आदि से छीलते हैं, उनके घावों पर तपा हुआ नमकीन तेल छिड़कते हैं, लोहमय कुंभियों में उन्हें पकाते हैं, भाड़ में भूनते हैं, वैतरणी नामक नदी में डुवाते हैं, यंत्रों में पील देते हैं; इत्यादि अनेक तरीकों से नारकों को वे दुःख उत्पन्न करते हैं ।
नारक जीवों के शरीर का छेदन - भेदन करने पर भी और शरीर के खण्ड-खण्ड कर देने पर भी अकाल में उनकी मृत्यु नहीं होती । वे अनपवर्त्य आयुष्य वाले होते हैं ।
असुर शब्द की व्युत्पत्ति यों समझना चाहिए - असुरत्व उत्पन्न करने वाले देवगति नाम कर्म के एक भेद के उदय से जो दूसरों को अस्यन्ति - क्षिपन्ति अर्थात् दुःख में डालते हैं, के 'असुर' कहलाते हैं ॥ १५ ॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧