Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. १५ नारकाणां संक्लिष्टासुरैरुत्पादितदुःखनिरूपणम् ६०१
ततश्च ते सपद्येव दुःखसमुद्घातार्ताः क्रोधानलप्रज्वलितमानसाः अतर्कितोपनताः श्वान इव समुद्धताः अत्यन्तभयानकं वैक्रिय रूपमासाद्य तत्रैव-पृथिवीपरिणामजातानि नरकक्षेत्रानुभावोत्पादितानि चा-ऽयः शूल-शिला-शक्ति-तोमर-मुसल-मुद्गर-कुन्ता-ऽसि-पटिश-खड्ग-यष्टिपरशु-भिन्दीपाल प्रभृतीन्यस्त्र-शस्त्राणि समादाय तैः हस्त-पाद-दन्तादिभिश्च परस्परमभिघातं कुर्वन्ति । । ततश्च-परस्पराभिघातहताः सन्तो विकृताङ्गाः आर्तनादं कुर्वन्तो गाढवेदनाः सूनाघातन प्रविष्टाः महिष-शूकर-मेषा इव स्फुरन्तः शोणितकर्दमेऽपि दुश्चेष्टन्ते इस्येवं रीत्या खलु नरकेषु नरकाणां परस्परोत्पादितानि दुःखानि भवन्ति इतिभावः सूत्र-१४॥
मूलसूत्रम्-"तच्चं पुढवि जाव संकिलिट्ठासुरोदीरियदुक्खाय-॥१५॥ छाया-तृतीयां पृथिवीं यावत् संक्लिष्टा-ऽसुरोदीरितदुःखाश्च"-॥१५॥
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे नारकाणां पूर्वजन्मानुबद्धवैर स्मरणाद्-नरकानुभावाच्च परस्परोत्पादितानि दुःखानि भवन्तीति प्ररूपितम् , सम्प्रति-वालुकाप्रभा पृथिवीपर्यन्तं नारकाणां विशेषतः सक्लिष्टा-ऽसुरैर्द खानि-उत्पाद्यन्ते इति प्ररूपयितुमाह- "तत्त्वं पुढवि जाव संकिलिट्ठा सुरोदीरियदुक्खा य-" इति । तृतीयां पृथिवीं यावत्-वालुकाप्रभा पृथिवीपर्यन्तं । संक्लिष्टासुरैःपूर्वजन्मनि सम्भावितेना-ऽतितीवेण संङ्क्लेशपरिणामेन उपार्जितस्य पापकर्मणः उदयात् सततं क्लिष्टाः सर्वथा वा-क्लिष्टाः संक्लिष्टाः असुराः परमाऽधार्मिकाः संक्लिष्टा सुरास्तैरुदीरितानिउत्पादितानि दुःखानि याषां ते संक्लिष्टा सुरोदीरितदुःखाः तथाविधाश्च भवन्ति । के समान उद्धत, वे नारक अत्यन्त भयानक वैक्रिय रूप बनाकर, उसी जगह पृथ्वी के परिणमन से-बने हुए एवं नरकभूमि के अनुभाव से उत्पन्न किए हुए शूल, शिला, शक्ति, तोमर, मुसल, मुद्गर, कुन्त, खड्ग, पट्टिश, लाठी, परशु, भिन्दिपाल आदि शस्त्र लेकर तथा हाथों पैरों और दातों से भी परस्पर आक्रमण करते हैं ।
आपस के आघात-प्रत्याघातों से आहत होकर वे आर्तनाद करते हैं। उनके अंग-अंग विकृत हो जाते हैं। उन्हें इतनी गाढी वेदना होती है कि वे कत्लखाने में प्रविष्ट भैंसे, शूकर एवं मेढे के समान तड़फते हैं और रुधिर के कीचड़ में लोटते हैं ! तात्पर्य यह है कि नारकों को नरक में परस्परोत्पन्न ऐसे घोर दुःख सहन करने पड़ते हैं। सूत्र-१४
सूत्रार्थ-"तच्चं पुढवि जाव" इत्यादि । ॥सूत्र १५॥ तीसरी पृथ्वी तक संक्लिष्ट असुर (परमाधार्मिक) देव भी दुःख उपजाते हैं ॥१५॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में निरूपण किया जा चुका है कि नारक जीव पूर्वजन्म में बाँधे हुए वैर का स्मरण करके तथा नरक भूमियों के प्रभाव से प्रभावित होकर पररपर दुःख उत्पन्न करते हैं । यहाँ यह बतलाया जाता है कि वालुकाप्रभा पृथ्वी पर्यन्त असुरकुमार देव भी नारकों को दुःख उत्पन्न करते हैं-तीसरी पृथ्वी पर्यन्त अर्थात् वालुकाप्रभा पृथ्वी तक पूर्वजन्म में उपार्जित अत्यन्त संक्लिष्ट परिणामों के द्वारा जनित पाप कर्म के उदय से परमाधार्मिक असुर भी नारक जीवों को दुःख उत्पन्न करते हैं।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧