Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ ५ सू. २३
___ षवर्षधरपर्वतनिरूपणम् ६३७ तत्रत्य मनुष्यादीनां परस्परं गमनाऽगमनं न भवति, तस्मात्-पूर्वे चाऽपरे चोभये खलु विदेहा भवन्ति । तत्र -मेरू पर्वतात्पूर्वतः पूर्वेविदेहाः सन्तिः मेरोरपरतोऽपरे विदेहाः । तत्र-पूर्वेषु विदेहेषु षोडश-चक्रवर्तिविजया नदीपर्वतविभक्ताः परस्परस्यागम्याश्चक्रवर्तिनां विजे तव्याः क्षेत्रविशेषाः सन्ति ।
एवमेव-तुल्यायामविस्तारावगाहोच्छायौ दक्षिणोत्तरौ वैताढयौ स्तः तथा-हिमवच्छिखरिणौ महाहिमवद्रुक्मिणौ निषधनीलौ च वर्तेते । क्षुद्रमन्दराः पुनश्चत्वारः सन्ति, तत्रद्वौ तावद् धातकीखण्डद्वोपे, द्वौ च-पुष्कारार्धद्वीपे स्तः । ते चत्वारोऽपि मन्दराः जम्बूद्वीप. मध्यवर्तिमन्दरापेक्षया होनप्रमाणाः सन्ति । तत्र-ते तावद् महामन्दरात-पञ्चदशसहस्रयोजनहीनोच्छ्रायाः चतुरशीतियोजनसहस्रोच्छ्रिताः सन्ति ।
षभिर्योजनशतैश्च धरणीतले-होनविष्कम्भाः चतुःशतोत्तरनवसहस्रयोजनविष्कम्भाः सन्ति तेषां चतुर्णामपि क्षुद्रमन्दराणां प्रथमं काडं महामन्दरप्रथमकाण्डतुल्यम् सहस्रयोजनप्रमाणं धरणिमवगाढं वर्तते । द्वितीयं काण्डन्तु महामन्दरद्वितीयकाण्डात् सप्तभिः सहस्रयोजनीनं षट्पञ्चाशत्सहस्रयोजनप्रमाणं वर्तते । तृतीयं काण्डं पुनर्महामन्दरतृतीमनुष्य आदि निवास करते है, उनका एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आवागमन नहीं होता।
__ मेरु पर्वत से पूर्व में जो पूर्वविदेह है और पश्चिम में जो पश्चिमविदेह है, उनमें सोलह-सोलह चक्रवर्तिविजय हैं। वे विजय नदियों और पर्वतों से विभक्त हैं । वहाँ के निवासी एक बिजय से दूसरे विजय में नहीं आ जा सकते । चक्रवर्ती उन पर विजय प्राप्त करते है, और शासन करते हैं । । इस प्रकार दोनों दिशाओं के मिलकर वत्तीस विजय महाविदेह में हैं ।
इसी प्रकार समान लम्बाई, चौड़ाई, अवगाह एवं ऊँचाई वाले दक्षिण और उत्तर वैताढ्य हैं, हिमवान् और शिखरी पर्वत हैं, महाहिमवान् और रुक्मिर्वत हैं, निषध और नील पर्वत हैं । क्षुद्रमेरु पर्वत चार हैं। उनमें से दो धातकीखण्ड द्वोप में और दो पुष्कारार्ध द्वीप में हैं । ये चारों मेरुपर्वत जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित मेरुपर्वत को अपेक्षा प्रमाण में होन हैं । महामन्दर पर्वत की अपेक्षा इसकी ऊँचाई पन्द्रह हजार योजन कम है, अतः ये चौरासी हजार योजन ऊँचे हैं ।
पूर्वोक्त चार क्षुद्रमन्दर पर्वत पृथ्वी में नव हजार पाँच सौ विष्कंभ वाले हैं। भूतल पर उनका विष्कम्भ नौ हजार चार सौ योजन का है । इन चारों क्षुद्रमन्दरपर्वतों का प्रथम काण्ड महामन्दर पर्वत के प्रथम काण्ड के बराबर है और पृथ्वी में एक हजार योजन अवगाढ है। द्वितीय काण्ड महामन्दर पर्वत के दूसरे काण्ड से सात हजार योजन कम है, अतः साढे पाँच हजार योजन प्रमाण है । तीसरा काण्ड महामन्दर पर्वत
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧