Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे एवं-मोहोद्भवपरिहासलक्षणहास्यपरिणत आत्मा परिहासं कुर्वन् परेण सह वितथमपि भाषेत, तस्मात् तस्य प्रत्याख्यानेना-ऽऽत्मानं भावयन् सत्यव्रतपालनक्षमो भवति १० एवं-खलु-अनुवीच्यवग्रहयाचनं तावद्-आलोच्या ऽवग्रहयाचनरूप बोध्यम्-११ अवग्रहश्च-देव राज-गृहपतिशय्यातर -साधर्मिक-भेदेन पञ्चविधः तत्र यो यत्र स्वामी स एव याचनीयः । अस्वामिकग्रहण दोषा धिक्यं स्यात्, तस्मादालोच्या-ऽवग्रहो याच्य इत्येवमात्मनि भावयेत् इत्थञ्च भावयन् ना-ऽदत्ता दाने प्रवर्तते इति ।
अभीक्ष्णावग्रहयाचनं तावत् स्वामिना सकृद्दत्तेऽपि परिग्रहे मुहूर्मुहुरवग्रहयाचनरूपं बोध्यम् पूर्वलब्धपरिग्रहः-ग्लानाद्यवस्थासु उच्चारप्रस्रवणपात्रहस्तपादप्रक्षालनस्थानानि स्वामिचित्तपीडापरिहारार्थ याचनीयानि ।
एव मेतावत्परिमितं सर्वतः क्षेत्रमवग्रहीतव्यम् इत्येतदेवा-ऽवधारणरूपम् एतावदित्यवग्रहाऽवधारणं बोध्यम् १२ एवं-पीठफलकाद्यर्थमपि वृक्षादीनामच्छेदनं ज्ञेयम् –१३ एवं-साधारणपिण्डस्यापि सेवनं नाऽधिकतः-अपितु -गुरुभिरनुज्ञापितमेव पानभोजनं गृहीतव्यम् गुरुणा मनुज्ञया कारण असत्य से बचने के लिए अपनी आत्मा में निर्भयता की भावना जागृत करनी चाहिए ।
(५) मोह के उदय से उत्पन्न होने वाले परिहास से युक्त व्यक्ति हँसी-मजाक में असत्य भाषण करता है । अतएव हँसी-मजाक के त्याग की भावना से भावित होना चाहिए । जो परिहास का त्याग कर देता है, वह सत्यव्रत का पालन करने में समर्थ होता है। (१०)
(११) इसी प्रकार सोच-विचार कर अवग्रह की याचना करना चाहिए, यह अनुवीचि अवग्रहयाचना नामक भावना है । अवग्रह-(आज्ञा) पाँच प्रकार का है-(१) देव का (२) राजा का (३) गृहपति का (४) शय्यातर का और (५) साधर्मिक का । जो जिसका स्वामी हो, उसके लिए उसीसे आज्ञा लेना चाहिए । जो स्वामी न हो उससे अगर याचना की जाय तो अनेक प्रकार के दोषों की उत्पत्ति होती है । अतएव सोच-विचार कर ही अवग्रह को याचना करनी चाहिए । जो इस भावना से युक्त होता है, वह अदत्तादान में प्रवृत्ति नहीं करता ।
(१२) अभीक्ष्ण अवग्रहयाचना-स्वामी ने एक बार कोई वस्तु प्रदान कर दी हो फिर भी वारंवार उसकी याचना करना अभीक्ष्ण अवग्रहयाचना है । पूर्व प्राप्त वस्तु के लिए-अर्थात् रुग्णावस्था आदि में उच्चार प्रस्रवण के पात्र रखने के लिए, हाथ आदि प्रक्षालन के स्थान आदि के लिए पुनः याचना करना चाहिए जिससे उसके स्वामी के चित्त में पीड़ा न उपजे । इसी प्रकार सब ओर से इतना-इतना स्थान हम ग्रहण करेंगे, इस प्रकार निश्चित करके उसका अवग्रह लेना चाहिए।
(१३) पीठ-फलक अर्थात् पीढ़ा तथा पाठा आदि के लिए भी वृक्ष आदि का छेदन न करना अदत्तादानव्रत की तीसरी भावना है।
(१४) जो आहार साधारण हो अर्थात् अनेक साधुओं का सम्मिलित हो, उसमें से
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧