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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. २२ भवनपत्यादिदेवानां लेश्यावत्वादिकम् ५१७ सर्वार्थसिद्धपदस्यापि सर्वार्थसिद्धनामकदेवविशेषेषु रूढ़त्वात् ते एव देवविशेषाः सर्वार्थसिद्धा उच्यन्ते । नाऽन्ये विजयादयोऽपीति समवसेयम्. । उक्तञ्च प्रज्ञापनायां ६-पदे,अनुयोगद्वारे औपपातिके सिद्धाधिकारे च
"हेट्रिमगेवेज्जग, मज्झिमगेवेज्जग' उवरिम गेवेज्जग,विजय, वेजयंत, जयंत अपराजिय, सब्वट्ठसिद्धदेवा य-,,इति । अधस्तनप्रैवेयक,मध्यमवेयको-परितनप्रैवेयक,विजय, वैजयन्त, जयन्ताऽपराजित, सर्वार्थसिद्धदेवाश्चेति ॥२१॥
मूलसूत्रम् ---"भवणवइवाणमंतराणं आइल्लाओ चत्तारि लेस्सा, ज़ोइसियाणं तेउलेस्सा, वेमाणियाणं उवरिमा तिणि लेस्सा य-॥२२॥
छाया-भवनपतिवानव्यन्तराणामाद्याश्चतस्रो लेश्याः,ज्योतिष्काणां तेजोलेश्या, वैमा निकानामुपरितन्यस्तिस्रो लेश्याश्च-॥२२॥
"तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व तावत् सामान्यतो विशेषतश्च भवनपति–वानव्यन्तर-ज्योतिष्क वैमानिकानां देवानां स्वरूपाणि प्ररूपितानि, सम्प्रति-तेषु देवेषु केषां कियत्यो लेश्या भवन्तीति
इस प्रकार की व्युत्पत्तियों के अनुसार यद्यपि विजय आदि चार अनुत्तर बिमानों के देव भी सर्वार्थसिद्ध कहे जा सकते हैं, किन्तु 'गो' पद के समान 'सर्वार्थसिद्ध' पद भी सर्वार्थसिद्ध नामक बिमान के निवासी देबों के लिए रूढ हैं। तात्पर्य यह है कि 'गो' शब्द का अर्थ हैगमन करने वाला । इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो भी गमन करता है, उस मनुष्य, अश्व आदि सभी को 'गौ' कहा जा सकता है, किन्तु 'गो' शब्द गाय नामक पशु के अर्थ में रूढ़ हो गया है, अतएव सब चलने-फिरने वालों का वाचक नहीं माना जाता, इसी प्रकार 'सर्वार्थसिद्ध' पद से यद्यपि विजय आदि देवों को भी कहा जा सकता है, परन्तु कहा नहीं जाता, क्योंकि वह पाँचवें अनुत्तर विमान के देवों के लिए रूढ़ है।
प्रज्ञापना सूत्र के छठे पद में, अनुयोगद्वार में और औपपातिकसूत्र के सिद्धाधिकार में कहा है
'अधस्तन ग्रैवेयक, मध्यम अवेयक, उपरितन अवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध देव ॥२१॥
सूत्रार्थ--'भवणवइवाणमंतराणं' इत्यादि ॥२२॥
भवनपति और वानव्यन्तर देवों में प्रारम्भ की चार लेश्याएँ ज्योतिष्कों में तेजोलेश्या और वैमानिको में अन्त की तीन लेश्याएँ होती हैं ॥२२॥
तत्त्वार्थदीपिका--इससे पूर्व भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया, अब यह बतलाते हैं कि उन देवों में कितनी और कौन-कौन सी लेश्याएँ होती हैं -
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧