Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. १२
नरकावासनिरूपणम् ५८९ तत्वार्थनियुक्तिः- पूर्वं रत्नप्रभादिसप्तनारक पृथिवीनां स्वरूपाणि विशदरूपेण प्ररूपितानि सम्प्रति नारकजीवविवक्षायां प्रथमं तदाधारनरकावासान् प्ररूपयितुमाह "नरगा तेसुं जहाकम तीसा पन्नवीसा पण्णरसदसतिण्णि पंचूणसयसहस्सं पंच य-इति । तासु-रत्नप्रभादिसप्तनारकपृथिवीषु, नरकाः-नरकावासाः, यथाक्रम-क्रमशः त्रिंशल्लक्षाणि-पञ्चविंशतिलक्षाणि-पञ्चदशलक्षाणि-दशलक्षाणि-त्रिणि लक्षाणि पञ्चोनशतसहस्रम्-पञ्चन्यूनैकलक्षं-पञ्च च सन्ति ।
तथाच-रत्नप्रभायां त्रिंशल्लक्षाणि नरकावासाः । शर्कराप्रभाया--पञ्चविंशतिलक्षाणि वालुका प्रभायां पञ्चदशलक्षाणि पङ्कप्रभायां दशलक्षाणि धूमप्रभायां त्रीणि लक्षाणि तमःप्रभायां पञ्चोनैकलक्षम् तमस्तमःप्रभायां-पञ्चैव नरकावासाः सन्ति । इत्येवं सर्वसंकलनया चतुरशीतिलक्षा नरकावासा भवन्तीति ।
तत्र-नरकशब्दव्युत्पत्तिस्तु-नरान् अशुभकर्मयुक्तान् कायन्ति-आहूयन्ति इति नरकाः पापकर्मभाजां प्राणीनामशुभकर्मफलभोगस्थानानि इति बोध्याः ते खलु नारका सीमान्तकादयो उष्ट्रि का पिष्टपचनी लोही कारकाद्याकृतयो विशिष्टाकाराः पापकर्मणः संभारजनित गौरवाणां जीवानामुत्पत्तिस्थानविशेषाः । तमस्तमःप्रभा नामक सप्तमपृथिवी मध्यवर्तिनां खलु पञ्चानां नरकाणाम्-काल, महाकाल,रौरव,महारौरवा-ऽप्रतिष्ठानात्मकानि नामानि सन्ति । तत्रा-ऽप्रतिष्ठाननामकनरकेन्द्रकात्
तत्त्वार्थनियुक्ति-इससे पूर्व रत्नप्रभा आदि सातों पृथ्वियों के स्वरूप-का विशद रूप से विवेचन किया गया है। अब नारक जीवों का प्रसंग होने से सर्व प्रथम उनके स्थानों का अर्थात् नारकावासों का निरूपण किया जाता है
__ रत्नप्रभा आदि सात नरक भूमियों में अनुक्रम से नारकावासों की संख्या इस प्रकार है-तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और पाँच नारकावास हैं। तात्पर्य यह है कि रत्नप्रभा पृथ्वी में तीस लाख, शर्करा प्रभा में पच्चीस लाख, वालुका प्रभा में पन्द्रह लाख, पंकप्रभा में दस लाख, धूम प्रभा में तीन लाख, तमः प्रभा में पाँच कम एक लाख और तमस्तमः प्रभा में पाँच नारकावास है।
___नरक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है-नरान् अर्थात् अशुभ कर्म वाले मनुष्यों को कायन्ति अर्थात् जो बुलाते हैं, वे 'नरक' कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि पाप कर्म वाले प्राणियों के अशुभ कर्म का फल भोगने के स्थान नरक कहलाते हैं । वे सीमन्तक आदि नरक उष्ट्रिका, पिष्ट पचनी, लोही तथा करक (घड़ा) आदि के आकार के होते हैं। जो जीव पाप कर्म के भारे से भारी हैं, वे वहां उत्पन्न होते हैं।
तमस्तमः प्रभा नामक सातवीं पृथ्वी के मध्य में रहे हुए पाँच नारकावासों के नाम इस प्रकार हैं-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । इनमें अप्रतिष्ठान नामक मुख्य नारकावास से पूर्व दिशा में काल नामक नारकावास है, पश्चिम में महाकाल नारका
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧